हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 349 ☆ आलेख – “सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 349 ☆

?  आलेख – सेना और सरकार ही नहीं, नागरिक सहयोग से ही संभव है आतंक का मुकाबला…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भारत ने हाल ही में पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर ऑपरेशन सिंदूर के तहत सटीक मिसाइल हमलों से पकिस्तान के कश्मीर में किए आतंक का सटीक बदला लिया। यह कार्रवाई न केवल भारतीय सेना की सैन्य कुशलता का प्रतीक है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ देश की स्पष्ट नीति को भी दर्शाती है। प्रगट रूप से यह ऑपरेशन एक सैन्य कार्यवाही है। किंतु आतंक के विरुद्ध इस तरह के आपरेशन सफल तभी होते हैं जब सेना, सरकार और नागरिकों के बीच समन्वय का एक सशक्त ढाँचा मौजूद हो। आतंकवाद से लड़ाई केवल बंदूकों और मिसाइलों से नहीं, बल्कि जनता की सजगता, सहयोग और राष्ट्रभक्ति से भी जीती जाती है।

 सीमाओं का कवच

भारतीय सेना है। जिसने ऑपरेशन सिंदूर जैसे अभियानों के माध्यम से यह साबित किया है कि वह भारत पर किसी आक्रमण या आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है। सेना की यह ताकत केवल हथियारों की ताकत नहीं, बल्कि उच्चस्तरीय रणनीति, खुफिया जानकारी और साहस का परिणाम है। सेना के जवान सीमाओं पर दिन-रात तैनात रहकर देश की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 के बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे ऑपरेशन इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने आतंकवाद के प्रति भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति को रेखांकित किया। ऑपरेशन सिंदूर देश की उसी नीति का हिस्सा है। नीति निर्माण से लेकर वैश्विक कूटनीति और सेना को छूट देना

सरकार का दायित्व है। सेना को राजनीतिक और तकनीकी समर्थन जनता की ताकत और एकजुटता ही प्रदान करती है। ऑपरेशन सिंदूर जैसे मिशन के पीछे सरकार की मंशा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठजोड़ बनाने की रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

नागरिक सहयोग सुरक्षा का तीसरा स्तंभ है।

यदि सेना और सरकार देश की रीढ़ हैं, तो नागरिक उसकी आत्मा। आतंकवाद से लड़ाई में नागरिकों की भूमिका कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है। सूचना और खुफिया सहयोग स्थानीय निवासी ही दे सकते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण तथा सतर्क रहने से आतंकियों की गतिविधियों के बारे में नागरिकों को जमीनी जानकारी हो सकती है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में कई बार ग्रामीणों ने सुरक्षा बलों को आतंकवादियों के ठिकानों की जानकारी देकर बड़ी घटनाओं को रोका है। ‘आवाम की आवाज’ जैसे अभियान इसी सहयोग को बढ़ावा देते हैं।

सामाजिक जागरूकता और एकता आतंकवाद की सबसे बड़ी हार है। 2008 के मुंबई हमले के बाद देशभर में एकजुटता का जो स्वर उभरा, उसने आतंकवादियों के मनोबल को तोडा। नागरिकों का यही साहस आतंकवाद को विफल बनाता है।

बदलते परिवेश में तकनीकी और डिजिटल सतर्कता, सोशल मीडिया पर सतर्कता बरतने की जरूरत है। आतंकी समूहों का प्रचार-प्रसार रोकने में नागरिकों की भूमिका अहम है। झूठी खबरों को रिपोर्ट करना, युवाओं को कट्टरपंथी विचारों से बचाने के लिए जागरूकता फैलाना, और साइबर स्पेस में सक्रिय रहना—ये सभी आधुनिक समय की आवश्यकताएँ हैं।

केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी किया। ऐसी पहलें समाज के अंदर से ही आतंकवाद की विचारधारा को चुनौती देती हैं।

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आतंकवाद से लड़ना सबके सम्मिलित प्रयासों से ही संभव है। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद, उनके आंतरिक असंतोष का प्रभाव है। सीमा पार से होने वाली घुसपैठ जैसी समस्याएँ जटिल हैं। इनका समाधान तभी संभव है जब नागरिक सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर काम करें। उदाहरण के लिए, ‘मेरी चौकी, मेरी सुरक्षा’ जैसे कार्यक्रमों के तहत सीमावर्ती गाँवों के लोगों सदा सजग रहने को प्रशिक्षित किया जा सकता है।

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता इस बात का प्रमाण है कि भारत आतंकवाद के प्रति नरम नहीं रहेगा। लेकिन दीर्घकालिक जीत के लिए सेना, सरकार और नागरिकों को एक टीम की तरह लगातार काम करना होगा। जब कोई बच्चा स्कूल में देशभक्ति की कविता सुनाता है, कोई युवा सोशल मीडिया पर सच्चाई फैलाता है, या कोई ग्रामीण संदिग्ध गतिविधि की रिपोर्ट करता है—तभी आतंकवाद की जड़ें कमजोर होती हैं। आतंक का बदला केवल मिसाइलों से नहीं, बल्कि हर नागरिक के संकल्प से लिया जा सकता है। सभी धर्मों के नागरिकों की यही समग्रता भारत की सच्ची ताकत भी है। सेना और सरकार ही नहीं, आतंक का मुकाबला नागरिक सहयोग से ही संभव है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना संकल्प का प्रकल्प। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 243 ☆ संकल्प का प्रकल्प

कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता किंतु  अंकुरित होकर, पौध बनकर पुनः नवसृजन का चक्र चलाते हुए अनगिनत चने उत्पन्न कर सकता है। जहाँ एकता में बल होता है वहीं एक व्यक्ति भी संकल्प शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकता है। अतः किसी भी हाल में निराश होने की आवश्यकता नहीं होती है। आपको पूरी हिम्मत के साथ लक्ष्य के प्रति सजग होना चाहिए तभी मंजिल आ कदम चूमेंगी और लोग आपके साथ होंगे।

आइए संकल्प लें-

गौरैया की देखभाल करेंगे

दाना पानी रख दिया, चहक- चहक कर बोल ।

आँगन गौरैया दिखी, मुस्काती मुँह खोल ।।

*

आहट पाते ही उड़े, गौरैया घर दूर।

फिर चुपके से आ चुगे, दाने सब भरपूर ।।

*

बना घोसला पेड़ पर, हरी भरी सी छाँव।

कलरव से जग गूँजता, चलो चलें हम गाँव ।।

*

खुशियों से जीवन भरा, रहे हमेशा आस ।

इनकी सेवा से बढ़े, जीवन में विश्वास ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 675 ⇒ मस्तक ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्तक।)

?अभी अभी # 674 ⇒ मस्तक ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सिर से पांव तक, अगर पूछा जाए, कि हमारे शरीर में, सबसे ऊंचा स्थान कौन सा है, तो शायद मस्तक ही कहलाएगा। मस्तक ऊंचा ही अच्छा लगता है, मस्तक झुका और इंसान झुका। मस्तक गर्व, गौरव, अभिमान और स्वाभिमान का सूचक है।

एक और प्यारा सा शब्द है, मुखमंडल, कुछ कुछ सुनने में कमंडल सा प्रतीत होता है। मुख कहां से शुरू होता है और कहां खत्म, किस मुंह से कहा जाए। मुख मस्तक, ओंठ, नासिका, शुभ्र दंत पंक्ति और गोरे गोरे गाल, तिस पर दो नैना मतवाले, हम पर जुलम करे। इसी चेहरे पर कहां भाल, ललाट, भौंह और भ्रू मध्य ! किसे माथा कहें, कहां निकालें मांग, कहीं टीका, तिलक, तो कहीं माथेरी बिंदी। बस यही सब तो है हमारे व्यक्तित्व का आभामंडल।।

मुंह, मुख, मुखड़ा, सूरत, और चेहरे के दायरे से क्या अलग है हमारा मस्तक !

जिसे हम मन मस्तिष्क कहते हैं, वह भी तो यहीं कहीं स्थित है। कुछ सोचने अथवा चिंतन की अवस्था में अनायास ही हमारा हाथ हमारे माथे पर चला जाता है। ज्ञान और विवेक का भंडार यह मस्तक, क्या भरोसा किसके आगे झुक जाए।

क्या मत्था, मस्तक से अलग है। कितना सुकून मिलता है, किसी पवित्र स्थान पर मत्था टेकने पर।

किसी के मस्तक अथवा सर पर हाथ रखने का क्या महत्व होता है, महिलाएं बिंदी, और पुरुष टीका, मस्तक के बीचों बीच क्यूं लगाते हैं, ऐसे प्रश्न कभी नहीं पूछे जाते, क्योंकि शायद सभी इसका महत्व जानते हैं, अथवा, बिना जाने ही मान बैठते हैं।।

हमारे मस्तक के ऊपर पहले हमारा ही सर अथवा खोपड़ी है, जिसके ऊपर भले ही सुंदर केश अथवा रेशमी जुल्फें हों, लेकिन अंदर भेजे में, न जाने क्या क्या भरा रहता है। ऊपर भले ही आकाश हो, चिदाकाश भी यहीं कहीं अवस्थित रहता है। क्या हमारा मन, मस्तिष्क अथवा बुद्धि ही हम पर शासन भी करती है, हमें नियंत्रित कर हम पर हुक्म चलाती है।

यह आज्ञा चक्र का क्या चक्कर है, कुछ समझ में नहीं आता।

कभी हम मस्त रहते हैं तो कभी तनावयुक्त ! मस्तक ऊंचा अगर आत्म विश्वास, विजय और गर्व का प्रतीक है तो झुका सर निराशा, पराजय और अवसाद की निशानी। हम अगर खड़े रहें तो पर्वतराज की तरह, किसी ठूंठ की तरह नहीं, और अगर झुकें तो किसी फलदार वृक्ष की भांति, किसी कमजोर अल्पमत वाली सरकार की तरह नहीं। हर व्यक्ति का मस्तकाभिषेक ज्ञान, बुद्धि, विवेक और वैराग्य से हो, स्वाभिमान हो तो सबके लिए मान सम्मान भी हो। अस्त व्यस्त से मस्त तक, सदा चमकता रहे हमारा मस्तक। हम नतमस्तक ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 674 ⇒ अंतर्ज्ञान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंतर्ज्ञान।)

?अभी अभी # 674 ⇒ अंतर्ज्ञान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

= INTUITION =

जानने की प्रक्रिया को ज्ञान कहते हैं। इसके लिए ईश्वर ने हमें एक नहीं पांच पांच ज्ञानेंद्रियां प्रदान की हैं। पांच ही कर्मेंद्रियों से मिल जुलकर इस मनुष्य का यह विलक्षण व्यक्तित्व बना है।

चेतन शक्ति, आप जिसे चाहें तो प्राण भी कह सकते हैं, हमारे पंच तत्वों से निर्मित शरीर में सततप्रवाहित होती रहती है।

हमारा उठना, बैठना, सोना, जागना, ऊंघना, हंसना, रोना, देखना, सुनना, बोलना, चखना, छूना जैसी सभी नियमित क्रियाएं मन मस्तिष्क द्वारा संचालित होती है। हमें लगता है, हम ही सब कुछ कर रहे हैं। जब कि सब कुछ अपने आप ही ही रहा है।

अगर आप ही कर्ता हैं, सब कुछ कर रहे हैं, तो रोक दीजिए सब कुछ। आँखें खुली रखिए और कुछ मत देखिए, मत सुनिए कुछ भी इन दोनों कानों से, सांस तो आप ही ले रहे हैं न। मत लिजिए एक दो दिन सांस, क्या बिगड़ जाएगा।

भूख प्यास का क्या है, रह लेंगे कुछ दिन भूखे प्यासे।

आते जाते विचारों पर भी पहरा बिठा दीजिए। अगर विचार अतिक्रमण करते हैं, तो उन पर बुलडोजर चला दीजिए।।

मन, बुद्धि और अहंकार भी आपका नहीं है। इसलिए अब मान भी जाइए, आपका अपना कुछ भी नहीं है। आपको इस पावन धरा पर उतारा गया है और आप अपने आप में एक सर्वगुण संपन्न, एक मानव हैं। A perfect human being creation of God, The Almighty!

मनुष्य जब पैदा होता है तो एक अबोध बालक होता है। शारीरिक विकास के साथ साथ ही उसका मानसिक विकास भी होता चला जाता है। सीखने की प्रवृत्ति उसकी जन्मजात ही होती है। परिवार और परिवेश के अलावा स्कूल वह स्थान होता है, जहां से वह सीखता है, ज्ञान अर्जित करता है। अनुशासित ज्ञान को अध्ययन कहते हैं। ज्ञान के स्तर को डिग्री में विभाजित किया गया है।

आप पढ़ते रहें, डिग्रियां हासिल करते रहें।

अध्ययन के लिए हमें ट्यूशन भी लेनी पड़ती है जो आज की भाषा में कोचिंग कहलाती है। सीखना एक सतत प्रक्रिया है जो अनुशासित डिग्रियां हासिल करने के पश्चात भी कभी खत्म नहीं होती। बाहरी ज्ञान की कोई सीमा नहीं। नौकरी धंधे और कामकाज में लग जाने के बाद कौन इंसान बाल भारती भाग १ और फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी पढ़ता है। अब काहे की पढ़ाई, काहे की ट्यूशन और काहे की परीक्षा। अब तो गाड़ी चल निकली।।

ट्यूशन अगर बाहरी ज्ञान है, तो इन्ट्यूशन अंतर्ज्ञान ! एक ज्ञान का भंडार हमारे अंदर भी है जिसका बाहरी ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता। हम सोचते, समझते ही नहीं, चिंतन मनन भी करते हैं। हमारी कुछ आंतरिक प्रतिभाएं समय और परिस्थिति के साथ उभरकर बाहर आती हैं।

साहित्य, संगीत और अन्य ललित कलाओं को बस एक बार अवसर मिला और टूटे बांध की तरह वह प्रवाहित होने लगती है।

धुन, ध्यान और अंतर्ज्ञान को आप अलग नहीं कर सकते। बाहरी प्रकृति और हमारे अंदर की सृजन की प्रवृत्ति का जब मेल होता है तो एक महाकाव्य की रचना होती है। संगीत की कोई धुन किसी किताब अथवा साज से नहीं निकाली जाती, वह धुन अंदर से प्रकट होती है बाहर तो सिर्फ उसका स्वरूप ही दिखाई देता है।

टैगोर की गीतांजलि किसी शब्दकोश अथवा थिसारस या इनसाइक्लोपीडिया की उपज नहीं, यह कवि का अंतर्ज्ञान है जो सरिता की तरह सतत प्रवाहित होता रहता है।।

विश्व के अधिकांश वैज्ञानिक प्रयोग, खोज हों या अविष्कार, धुन, ध्यान और अंतर्ज्ञान का ही परिणाम हैं। कितनी विचित्र विधा है यह अंतर्ज्ञान ! ज्ञान पहले अंदर गया और बाद में कोई सिद्धांत बनकर बाहर निकला। एक चेतन मन तो है ही, एक अवचेतन मन भी है, जिसकी स्मृति के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। चेतना के ऊपर पराचेतना का भी अस्तित्व है। अंतर्दृष्टि और अंतर्ज्ञान असीमित है।

एक गीत है, एक आवाज है, एक धुन है। हमें सिर्फ सुनाई देती है लेकिन उसका प्रभाव देखिए, आंख खोलकर नहीं, आंख बंद कर कर, कान खोलकर ;

मेरी आंखों में बस गया कोई रे, मैं क्या करूं …

क्या यह अतिक्रमण नहीं। रोक सकें तो रोकिए इसे। चलाइए बुलडोजर। यह धुन है, ध्यान है, अंतर्ज्ञान है। नमन उन अनंत विलक्षणप्रतिभाओं को जिनका प्रकाश सूर्य की तरह सदा, सर्वत्र दैदीप्यमान है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 130 – देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 130 ☆ देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सत्तर के दशक में इस नाम से एक फिल्म आई थी। समय हमेशा की तरह बदलता रहता है। शताब्दी पूर्व तो घर के बड़े पुरुष ही विवाह तय कर दिया करते थे। पचास के दशक से घर की बड़ी महिलाएं भी बच्चों के विवाह तय करने में अपनी दलीलें देने लगी थी। शिक्षा का प्रसार बढ़ा, तो सत्तर के दशक से विवाह पूर्व भावी वर और दुल्हन की राय भी पूछी जाती थी। समाज में समय के चलन को देखते हुए “दुल्हन वही जो पिया मन भाए” फिल्म बना कर, एक संदेश भी था, कि लड़के और लड़की को भी एक दूसरे को एक बार तो मिलना ही चाहिए।

समय की करवट के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने पर विवाह पूर्व भावी जोड़े अनेकों बार मिलने लग गए थे। फोन पर घंटों बातें कर या पत्राचार के माध्यम से भी एक दूसरे को पहचानने के प्रयास होते आ रहे हैं। लड़कियां विगत तीन दशकों से अधिक समय से अपने घर से बहुत दूर और विदेश तक में नौकरी करने लग गई हैं। “लिव इन रिलेशन” जैसे संबंध, विवाह जैसे पवित्र सामाजिक संस्कार का विकल्प बन कर उभर रहा है।

विवाह को परिवार द्वारा तय किए जाने का चलन अभी भी अस्सी प्रतिशत से अधिक है। प्रेम विवाह को आजकल “अंतरजातीय विवाह” की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में विवाह भी  नए प्रकार हो चले हैं, कुछ निम्नानुसार हैं:-  

  1. Companionate Marriage.
  2. Living Apart Together Marriage.
  3. Open Marriage.
  4. Marriage of Convenience.
  5. Renewable Contracts.

उपरोक्त विवाह के प्रकार जानकर तो ऐसा लगा, जैसे “इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट 1872 ” में दिए गए, भागीदारी के विभिन्न प्रकार हों। वैसे विवाह भी तो एक भागीदारी ही है। हमे तो पांच दशक से इंतजार है, जब बॉलीवुड “दूल्हा वही जो प्रियतमा मन भाए” के नाम से फिल्म बनाएगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 673 ⇒ लंगोटिया और …  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 673 ⇒ लंगोटिया और …  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ दिनों से एक शब्द ने नाक में दम कर रखा है, एक ऐसा शब्द, जो पहले कभी नहीं सुना। अपने अज्ञान पर शर्म से अधिक हंसी भी आई, जब तलाश करने पर पता चला कि यह तो एक नामी गिरामी यूनिवर्सिटी का नाम है और यह और कहीं नहीं, यमुना एक्सप्रेसवे, ग्रेटर नोएडा पर स्थित है। वैसे इसकी मूल संस्था गलगोटियास शैक्षणिक संस्थान है, और जिसके कुलपति डॉ.के.मल्लिकार्जुन बाबू हैं।

जो संस्कारी मातालंगोटिया और …  पिता ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज की जगह संस्कारी और सनातन गुरुकुल अथवा नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में अपने बच्चों को ज्ञानार्जन करवाना चाहते हैं, उनके लिए गलगोटिया एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।

अचानक हमें हमारा बचपन याद आ गया और स्मृति पटल पर तैरने लगे, कुछ लंगोटिया यार, हम जिनके गले में बांहें डाल गोटियां खेला करते थे। शिक्षा कभी हमारी दोस्ती में आड़े नहीं आई। साथ साथ बस्ता उठाए, गले में हाथ डाले स्कूल जाते थे, और साथ साथ ही वापस आते थे। ।

कुछ दोस्तों ने आगे स्कूल और कॉलेज में भी साथ दिया, तो कुछ ने आर्थिक अभाव के कारण पढ़ना ही छोड़ दिया। उम्र के इस पड़ाव में, आज भी जब, साठ साल के अंतराल के बाद, कोई लंगोटिया यार नजर आ जाता है, तो सबसे पहले हम गले मिलते हैं।

भरत मिलाप से कम भावुक दृश्य नहीं होता वह। सब याद आता है, लड़ना झगड़ना, रूठना मनाना।

कच्ची मिट्टी के घड़े थे तब, नियति ने सबको अलग अलग शक्लो सूरत और नसीब में ढाला।

जहां कॉलेज है, वहां छात्र संगठन हैं, राजनीति है, ग्रुपबाजी है। स्कूल में मॉनिटर और कॉलेज में क्लास रिप्रेजेंटेटिव होता था। स्कूल में जहां बुद्धिमान छात्रों को मॉनिटर चुना जाता था, वहीं कॉलेज तक आते आते यह बागडोर कथित नेताओं और दादाओं के हाथ में आ जाती थी। दो पैनल मैदान में खड़े हो जाते थे। और प्रचार प्रसार के अलावा अन्य राजनीतिक हथकंडे भी अपनाए जाते थे। ।

एक समय था जब कॉलेज की नेतागिरी को राजनीति का चस्का नहीं लगा था, इक्के दुक्के नेता चुनाव के वक्त आते थे और चले जाते थे लेकिन समय के साथ कॉलेज भी राजनीति का अखाड़ा बनते चले गए। शिक्षा का राजनीति से भले ही कोई संबंध नहीं हो, लेकिन शिक्षा पर राजनीति का पूरा दखल है। चाहे शिक्षकों की नियुक्ति हो अथवा ट्रांसफर, नेता और मंत्री तक किसे भागदौड़ नहीं करनी पड़ती।

जब यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ही सूटकेस लेकर राजभवन पहुंच जाते हैं, तो शिक्षा कैसे राजनीति के चंगुल से बच सकती है।

कल के सभी महाविद्यालय आज आदर्श महाविद्यालय हो गए हैं। असली पढ़ाई तो आजकल कोचिंग संस्थानों में हो रही है, फिर भी कॉलेज ही नहीं, पान की दुकान की तरह, जगह जगह, हर ओर विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं। विश्व कीर्तिमान के नजदीक ही होंगे हम।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 287 – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 287 भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 672 ⇒ ऑर्गेनिक केमिस्ट्री ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ऑर्गेनिक केमिस्ट्री।)

?अभी अभी # 672 ⇒ ऑर्गेनिक केमिस्ट्री  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे शास्त्र और विज्ञान में कोई खास रुचि नहीं रही। मैं अन्य विद्यार्थियों की तरह विज्ञान का अध्ययन करता रहा, करता रहा, लेकिन करत करत अभ्यास के, कभी जड़मति से सुजान नहीं बन पाया। खाने में भले ही मेरी पसंद चलती हो, मेरे भविष्य की चिंता मुझसे ज्यादा मेरे बड़े भाई साहब को रहती थी। वे मुझे एक अच्छा पढ़ा लिखा इंसान बनाना चाहते थे और तब यह विज्ञान के अध्ययन से ही संभव था।

पढ़ाई में मैं कमज़ोर रहा, क्योंकि मेरा गणित ही कमज़ोर था। जिनका गणित अच्छा होता है, वे छात्र बुद्धिमान कहलाते हैं, फटाफट आगे बढ़ जाते हैं। मैने सिन्हा और रॉय चौधरी की फिजिक्स भी पढ़ी, और भाल और तुली की केमिस्ट्री भी। ए.सी.दत्ता की बॉटनी और आर. डी.विद्यार्थी की ज़ूओलाजी जैसी मोटी मोटी किताबें मैने पढ़ी हैं ! I am B.Sc. return. Appeared but never cleared.

जिन लोगो को विज्ञान में रस था, वे डॉक्टर इंजिनियर बन गए, कॉमर्स वाले सी.ए. और आर्ट्स वाले वकील बन गए। कोई पुलिस में भर्ती हो गया तो कोई फौज़ में चला गया। जब हम कुछ न बन सके तो, बैंक में बाबू बन गए। ।

रस, रसायन और रसिक का आपस में कितना संबंध है, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे साहित्य और संगीत में रस ही रस नजर आता है। मेरी केमिस्ट्री किसी रसिक की भले ही ना हो, मुझे संतोष है, राम रसायन मेरे पास है, और मैं रघुपति का दास हूं।

रसायन शास्त्र को अंग्रेजी में केमिस्ट्री कहते हैं। केमिस्ट्री भी दो होती है, ऑर्गेनिक और इन -ऑर्गेनिक। बचपन में कभी ध्यान नहीं दिया, हमारा भोजन ऑर्गेनिक है कि नहीं। क्योंकि तब भोजन में स्वाद था। खेत के छोड़ और ताज़े मीठे बटलों के स्वाद की तो पूछिए ही मत। गाजर, मूली, टमाटर और दांतों से छीला हुआ गन्ना। न कभी पेट भरता था, न कभी पेट दुखता था। कंकर पत्थर सब हजम। तब हम नहीं जानते थे, जो कुछ हम खा रहे हैं, सब ऑर्गेनिक फूड है। यही रसायन है और यही हमारे शरीर को पुष्ट बना रहा है। ।

हमने भले ही विज्ञान नहीं पढ़ा, लेकिन विज्ञान प्रगति करता रहा। अगर विज्ञान प्रगति नहीं करता, तो शायद मैं इतनी आसानी से विज्ञान की तारीफ भी नहीं कर पाता। भला हो आज की टेक्नोलॉजी का, फेसबुक का, जो मुझसे रोज पूछती रहती हैं, एक शुभचिंतक दोस्त की तरह, आप क्या सोच रहे हैं। यहां कुछ लिखें। और मैं आग्रह का कच्चा, रोज कुछ न कुछ लिख देता हूं।

आज प्रदूषण और पर्यावरण के साथ प्रदूषित, केमिकल फर्टिलाइजर वाले खाद्य पदार्थों का भी जिक्र हो रहा है, जिससे मनुष्य का शरीर बीमारियों का घर बना हुआ है। कीटनाशक दवाइयों का भोजन जब फसल को ही परोसा जाएगा, तो वह वही तो देगी, जो उसे हवा और दाना पानी में मिलाकर दिया गया है। एक गाय भी अच्छा दूध तभी देती है, जब उसका दाना पानी ठीकठाक हो। जर्सी गाय दूध अधिक देती है, लेकिन उसकी गुणवत्ता वह नहीं होती। जमीन को भी खाद के रूप में वही दिया जाए, जो जमीन से ही पैदा हुआ हो। हमारी धरती आजकल अन्न, फल और सब्जियां नहीं, जहर उगल रही है और वह जहर हम निगल रहे हैं। ।

विज्ञान ने हमें बड़ा ज्ञानी और बुद्धिमान बना दिया। झट से दो मिनिट में मैगी और पास्ता बनाकर अगर आज की पीढ़ी पढ़ लिखकर आगे बढ़ रही है, तो क्या गुनाह कर रही है। हर अवसर पर केक, पेस्ट्री, कोक और आइसक्रीम उपलब्ध है तो कौन घर में चूल्हा फूंके।

जब केमिस्ट्री पढ़नी थी, तब कभी पढ़ी नहीं, लेकिन लगता है अब अपने शरीर की केमिस्ट्री एक बार पढ़नी पड़ेगी। उसके नफे नुकसान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। एक जैविक हथियार जब हवा में से ऑक्सीजन तक इस हद तक कम कर सकता है कि हर स्वस्थ व्यक्ति को एक बीमार की तरह ऑक्सीजन का सिलेंडर लगाना पड़े, तो समझ लीजिए, कयामत का दिन नज़दीक है। अगर वातावरण में जहर है, तो अपने अंदर के जहर को बाहर निकालें। अपनी प्रतिरक्षा शक्ति (इम्यून सिस्टम) बढ़ाएं। योग, प्राणायाम करें और हां आज नहीं तो कल, अपने शरीर की केमिस्ट्री समझें और….

GO ORGANIC ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 671 ⇒ लव मैरिज ♥ प्रेम-वि…वाह  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लव मैरिज ♥♥ प्रेम-वि…वाह  ।)

?अभी अभी # 671 ⇒ लव मैरिज ♥♥ प्रेम-वि…वाह  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमने शादियां तो कई देखी हैं, आज तक प्रेम विवाह नहीं देखा ! जहां भी हमें शादी ब्याह का मंडप नजर आता, घर हो, धर्मशाला हो या किराए पर लिया गया कोई स्कूल, कॉलेज, छोटी बड़ी होटल अथवा मैरिज गार्डन, हमें वहां सुसज्जित, रोशनी से झिलमिलाते प्रवेश द्वार पर शुभ विवाह ही लिखा नज़र आता। आजकल तो सुविधा के लिए, वर वधू, दोनों पक्षों का नाम, स्वागत द्वार पर ही आसानी से पढ़ा जा सकता है। लो, अपन सही जगह आ गए।

सन् 1959 में देवानंद और माला सिन्हा की एक फिल्म आई थी, लव मैरिज, जिसमें एक प्यारा सा गीत था, धीरे धीरे चल, चांद गगन में। ईश्वर झूठ ना बुलवाए, पहली बार तब ही यह शब्द लव मैरिज, कानों में पड़ा था। यह आसमान वाला चांद, न जाने क्यों, दो प्यार करने वालों का हमेशा गवाह तो होता है, लेकिन गवाही देने कभी नहीं आता। आए भी तो कैसे, अच्छे भले दो दो आंखों वाले प्रेमी को एक रात में दो दो चांद नजर आते हैं, एक घूंघट में और एक बदली में। अब हमारे दिलीप साहब को ही ले लो। फरमाते हैं, एक चांद आसमान में है, एक मेरे पास है। तकदीर देखिए, आज वही चांद इस धरती पर मौजूद है, और यूसुफ साहब, आसमान में तशरीफ ले गए। ।

ये कहां आ गए हम ! बस इसी तरह शायद लोग प्यार में खो जाते होंगे, और एक दूसरे के हो जाते होंगे। फलसफा प्यार का हम क्या जानें, हमने कभी प्यार ना किया, हमने इंतजार ना किया। बस जहां, मां – बाबूजी ने रिश्ता तय किया, एक अच्छे बच्चे की तरह, सर झुकाकर, स्वीकार किया मैने। हां, शादी के बाद, मैने भी प्यार किया !प्यार से कब इंकार किया।

जाहिर है, जिससे शादी की, उससे ही प्यार किया।

आज की भाषा में उसे अरेंज्ड मैरिज कहते हैं।

जब कॉलेज में प्रवेश किया, तब तक प्यार के अलावा, पढ़ाई के सभी सबक सीख लिए थे। कुछ लोग कॉलेज में पढ़ने आते थे, और कुछ प्यार का सबक सीखने। जाने अनजाने, असली नकली, कहीं चोरी छुपे तो कहीं खुले आम, जोड़ियां भी बन जाती थी। कुछ शैतान छात्र, ब्लैक बोर्ड पर संभावित जोड़े का नाम भी लिख देते थे। कुछ जोड़ों को कॉलेज कैंटीन में साथ साथ जाते भी देखा जाता था। कॉलेज को प्रेम की पाठशाला यूं ही नहीं कहा जाता। ।

आज समय बदल गया है।

आज की पीढ़ी को, एक दूसरे को समझने बूझने और करीब आने के कई अवसर मिलते हैं। पसंद, नापसंद आजकल माता पिता के साथ साथ बच्चों की भी होती है। जहां वास्तविक प्रेम है, आपसी समझ है, परिवारों में तालमेल है, संस्कारों में आपसी समझ और उदारता है, वही प्रेम विवाह है।

जिस विवाह में कोई विवाद ना हो, मियां बीवी के साथ साथ काजी भी राजी हो, माता पिता और बड़ों बूढ़ों का आशीर्वाद हो, हंसी खुशी हो, धूमधाम हो, वहां फिर कैसे प्रेम का अभाव हो, बस अंतर अभी भी इतना ही है, हम प्रेम को शुभ तो मानते हैं, लेकिन उसे शुभ विवाह का ही नाम देते हैं। प्रेम ! जान लो, तुम तब ही शुभ हो, जब अग्नि के सात फेरों के बंधन से शुद्ध और संस्कारित हो। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #274 ☆ वक्त और उलझनें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 274 ☆

☆ वक्त और उलझनें… ☆

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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