हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(मित्र डॉ रामकुमार घोटड़ जी, रमेश बतरा की लघुकथाएं पुस्तक निकाल रहे हैं। मुझसे एक लेख लिखवाया है जो आपके लिए प्रस्तुत है।)

रमेश बत्तरा – मेरा मित्र भी और कह सकता हूं कि कदम कदम पर मार्गदर्शक भी। हमारा परिचय तब हुआ जब करनाल से बढ़ते कदम नाम से एक पत्रिका संपादित करनी शुरू की रमेश ने और मुझे खत आया सहयोग व रचना के लिए। रचना भेजी। प्रवेशांक में आई भी। फिर रमेश का तबादला चंडीगढ़ हो गया और हमारी मुलाकातें भी शुरू हुईं। सेक्टर बाइस में घर तो सेक्टर आठ में

दफ्तर -दोनों जगह। फिर हम कब केशी और मेशी रह गये एक दूसरे के लिए यह पता ही नहीं चला। यह दूरी व औपचारिकता बहुत जल्द मिट गयी। चंडीगढ़ आकर शामलाल मेहंदीरत्ता यानी ‘प्रचंड’ की पत्रिका ‘साहित्य निर्झर’ की कमान रमेश ने संभाल ली। इससे पहले अम्बाला छावनी की पत्रिका तारिका(अब शुभ तारिका) का लघुकथा विशेषांक संपादित कर रमेश बत्तरा खूब चर्चित हो चुका था।  यानी कदम कदम पर न केवल लघुकथाएं लिखकर बल्कि पत्रिकाओं का संपादन कर उसने लघुकथा को संवारने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ‘बढ़ते कदम’ से ‘तारिका’ और तारिका से ‘सारिका’ तक का सफर जल्दी जल्दी तय कर लिया रमेश ने। इनके साथ ही नवभारत टाइम्स और फिर संडे मेल तक लघुकथाओं को प्रमुखता से प्रकाशित कर चर्चित करने में रमेश की बहुत बड़ी भूमिका है। मैंने अप्रत्यक्ष रूप से संपादन भी रमेश से सीखा जब वह साहित्य निर्झर का और फिर दिल्ली में सारिका का संपादन कर रहा था। कैसे वह डीटीसी की लोकल बसों में भी रचनाएं पढ़ता जाता , छांटने का काम करता। कैसे फोटोज का चयन करता और कैसे रचना को संशोधित भी करता। चंडीगढ़ में रहते ही लघुकथा विशेषांक की तैयारी करते देखा , कुछ सहयोग भी दिया और मुझसे बिल्कुल अंतिम समय में नयी लघुकथा मांगी जब हम सेक्टर 21 में प्रेस में ही खड़े थे और मैंने प्रेस की एक टीन की प्लेट उल्टी कर लिखी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और कहा था कि यह ऐसी प्रेम कथा है जिसे अपने हर संपादन में प्रकाशित करूंगा और उसने वादा निभाया भी। यानी रचनाकारों से उनका श्रेष्ठ लिखवा लेने की कला रमेश में थी। ‘सारिका’ में भी मुझसे ‘दहशत” , ‘ चौराहे का दीया’ और ‘मैं नाम लिख देता हूं ‘ लिखवाई। संडे मेल में आई ‘मैं नहीं जानता’ को चर्चित करने में भी रमेश का ही हाथ रहा। जैसे मेरी रचनाओं को चर्चित किया , वैसे ही अनेक अन्य रचनाकार भी न केवल प्रकाशित किये बल्कि संशोधित व संपादित भी कीं रचनाएं , उन लेखकों की सूची बहुत लम्बी है। मार्गदर्शक की बात कहूं कि तो 25 जून ,1975 यानी आपातकाल की घोषणा होने वाले दिन मैं और रमेश एकसाथ ही थे। वह मुझे पंजाब बुक सेंटर ले गया और मार्क्स व एंगेल्स की पुस्तिकाएं खरीद कर दीं और कहा कि अब इन्हें जानने , पढ़ने  व समझने की जरूरत है। फिर कुछ समय बाद रमेश ने कहा कि अब खूब पढ़ाई कर ली , अब इन पर आधारित कहानियां लिखने की जिम्मेदारी है। यह था उसका एक रूप। मित्रों को निखारने व समझाने का।

लघुकथा का जो रूप हम देख रहे हैं या लघुकथा जो सफर तय करके यहां तक पहुंची है , उसमें एक कुशल कारीगर की भूमिका रमेश बत्तरा की भी है। आठवें दशक में लघुकथा ने न केवल अपने कंटेंट बल्कि अपने कलेवर और तेवर में जो क्रांतिकारी बदलाव किये उनमें रमेश का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। न केवल लघुकथा लिखने बल्कि लघुकथा की आलोचना को आगे बढ़ाने का काम भी बखूबी संभाला। साहित्य निर्झर में ‘लघुकथा नहीं ‘जैसे आलेख में रमेश  स्पष्ट करता है कि लघुकथा को नीति कथाओं , लोक कथाओं , मात्र व्यंग्य से आगे ले जाने की समय की मांग है। अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को भी रमेश ने उल्लेखित किया। लघुकथा में सृजनात्मकता लाने और चुटकुलेबाजी से मुक्ति का आह्वान किया। कहानी और लघुकथा में अंतर स्पष्ट करने और इसे संपूर्ण विधा के लिए मार्ग प्रशस्त किया। लघुकथा किसलिए और क्यों , लघुकथा में कितनी तरह की विविधता की जरूरत और इस आंदोलन का एक समय रमेश अगुआ की भूमिका में रहा।

चंडीगढ़ की अनेक मुलाकातों में कथा /लघुकथा और संपादन की बारीकियों पर चलते चलते भी बातचीत होती रहती। सबसे बड़ी चिंता कि इसे मात्र व्यंग्य की पूंछ लगाकर ही नहीं लिखा जा सकता। ऐसे एक सज्जन बालेन्दु शेखर तिवारी सामने आए भी और इसका आधार व्यंग्य ही न केवल माना बल्कि एक पूरा संकलन भी संपादित किया। इसलिए रमेश की चिंता इसी पर केंद्रित हो गयी कि लघुकथा में संवेदना को कैसे प्रमुखता दी जाये। यहां तक आते आते रमेश और मेरी लघुकथाएं विवरण की बजाय संवेदनात्मक होने लगीं। माएं और बच्चे , कहूं कहानी , उसकी रोटी , हालात , शीशा , निजाम , सूअर , नागरिक , वजह , चलोगे आदि लघुकथाओं में संवाद ही प्रमुख हैं। अनेक लघुपत्रिकाओं के विशेषांकों या लघुकथा संग्रहों के पीछे रमेश ही प्रमुख रहा। उसकी लघुकथाएं वैसे तो सभी चर्चित हैं लेकिन सर्वाधिक  चर्चित हैं -सूअर , कहूं कहानी , उसकी रोटी , खोया हुआ आदमी और  खोज। देखा जाये रमेश की लघुकथाओं में चिंता थी साम्प्रदायिकता की , बदलते समाज की, सभ्यता की और आम आदमी के स्वाभिमान की। इन बिंदुओं पर रमेश की लघुकथाएं आधारित हैं मुख्य रूप से।

एक एक शब्द पर चिंतन और एक एक वाक्य में कसावट और अपने उद्देश्य न भटकने देना ही रमेश की लेखन कला का कमाल रहा। खोज,  माएं और बच्चे , शीशा , बीच बाजार जैसी लघुकथाओं के पहले पहले श्रोता भी हम चंडीगढ़ के दोस्त ही रहे। कभी सेक्टर बाइस के बरामदे में तो कभी साहित्य निर्झर के प्रेस में। इस तरह वे भावुक से क्षण आज ही याद आते हैं , आते रहेंगे। रचना को बार बार संवारना और कभी अगली बार प्रकाशन के लिए भेजते समय शीर्षक  भी बदल देना यह बताने के लिए काफी है कि किस प्रकार यह कुशल कारीगर अंमिम समय तक अपनी ही नहीं दूसरों की रचनाओं को देखता व समझता और निखारता रहता था। मेरी एक कहानी है -इसके बावजूद। यह शीर्षक उसी का दिया हुआ है। दोस्तों की रचनाओं के प्रकाशन और उपलब्धियों से रमेश बहुत खुश होता था जैसे उसकी अपनी उपलब्धि हो। कितने शाबासी भरे खत मुझे ही नहीं अन्य मित्रों को लिखता था और अंत में जय जय। सच रमेश तुम कमाल के संगठनकर्ता भी थे। क्या भुलूं , क्या याद करूं ? अब कोई अच्छी रचना के लिए बधाई नहीं देते एक दूसरे को। यह माहौल बनाने की जरूरत है। लघुकथा को अभी भी चुटकुले और बहुत सरल विधा मानने वालों की भीड़ है और अब जरूरत है इसका फर्क बताने वालों की।

खैर , कभी अलविदा न कहना तुम्हारा प्यारा गीत था और तुम रचना संसार है कभी अलविदा नहीं होंगे अगर न ही लघुकथा से …

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 8 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 8 ??

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चार्वाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #135 ☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अभिमानी और स्वाभिमानी । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 135 ☆

☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆

‘अभिमानी और स्वाभिमानी में केवल इतना-सा  फ़र्क़ है कि स्वाभिमानी व्यक्ति कभी किसी से कुछ मांगता नहीं और अभिमानी व्यक्ति किसी को कुछ देता नहीं।’ अहंकार में डूबे व्यक्ति को न तो ख़ुद की ग़लतियाँ दिखाई देती है, न ही दूसरों की अच्छी बातें उसके अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। उसे विश्व मेंं स्वयं से अधिक बुद्धिमान कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। वैसे भी छिद्रान्वेषण अर्थात् दूसरों में दोष-दर्शन की प्रवृत्ति मानव में स्वाभाविक रूप से होती है। उसे सभी लोग दोषों व बुराइयों का आग़ार भासते हैं और वह स्वयं को दूध का धुला समझता है। दूसरी ओर जहाँ तक स्वाभिमानी का संबंध है, उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा होता है और वह स्व अर्थात् मैं में विश्वास रखता है और उसका अहं उसे दूसरों के सम्मुख नत-मस्तक नहीं होने देता। उसे प्रभु में आस्था होती है और वह ‘तुम कर सकते हो’ के विश्वास के सहारे बड़े से बड़ा कार्य कर गुज़रता है, क्योंकि उसके शब्दकोश में असंभव शब्द होता ही नहीं है।

‘सफलता हासिल करने के लिए मानव का विश्वास भय से बड़ा होना चाहिए, क्योंकि असफलता का भय ही सपनों के साकार करने में बाधा बनता है। यदि आप भय पर विजय पा लेते हैं, तो आपकी विजय निश्चित् है’ प्लेटो का यह संदेश अत्यंत कारग़र है। यदि हमारा लक्ष्य निश्चित् और हृदय में आत्मविश्वास है, तो कोई भी बाधा आपका पथ नहीं रोक सकती। इसलिए कहा जाता है,’मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।’ हमारा मन ही जय-विजय का कारक है। सो! ‘विजयी भव’ एक सर्वश्रेष्ठ भाव है, जिसके साथी हैं– विद्या, विनय व विवेक। इन मानवीय गुणों के आधार पर हम आपदाओं से मुकाबला कर सकते हैं। विनम्रता सर्वोत्तम गुण है, जो अहंनिष्ठ व्यक्ति के हृदय से कोसों दूर रहता है। इसके लिए वस्तुस्थिति का ज्ञान होने के साथ- साथ यथा-समय लिया गया निर्णय भी हमें सफलता की सीढ़ियों पर पहुंचाता है। दु:ख में धैर्य का बना रहना अत्यंत आवश्यक व सार्थक है।

‘कोई भी चीज़ आपके लिए फायदेमंद नहीं हो सकती, जिसे पाने के लिए आपको आत्म- सम्मान से समझौता करना पड़े।’ मार्क्स ऑरेलियस का यह तथ्य आत्म-सम्मान को सर्वश्रेष्ठ समझ समझौता न करने का सुझाव देता है। सो! समझौता परिस्थितियों से करना चाहिए, आत्म-सम्मान से नहीं, क्योंकि जब उस पर आँच आ जाती है; तो व्यक्ति सिर उठा कर नहीं जी सकता। ऐसी स्थिति में प्रभु शरणागति कारग़र उपाय है। मुझे स्मरण हो रही हैं दुष्यंत की यह पंक्तियाँ ‘कौन कहता है आकाश में सुराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ से हमें यह संदेश मिलता है कि दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं, सिर्फ़ आप में जज़्बा होना चाहिए उस कार्य को अंजाम देने का। ‘राह  को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने’ में भी यही सोच व भाव निहित है। जब हम दृढ़-संकल्प कर उन राहों पर  निकल पड़ते हैं, तो हमारा मंज़िल पर पहुंचना निश्चित हो जाता है। लाख आँधी, तूफ़ान व सुनामी भी आपके पथ के अवरोधक नहीं बन सकते।

स्वाभिमान व आत्मविश्वास पर्यायवाची हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए इनकी महत्ता को नकारना असंभव है। सो! हमारे हृदय में शंका भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तनाव की स्थिति का द्योतक है, जो हमें पथ-विचलित करता है। भगवद्गीता में भी यही संदेश दिया गया है कि सुख का लालच व दु:ख का भय मानव के अजात शत्रु हैं। यदि मानव भविष्य के प्रति आशंकित रहता है, तो वह वर्तमान के अपरिमित सुखों से वंचित हो जाता है, क्योंकि यही है दु:खों का मूल। व्यक्ति जीवन में अधिकाधिक धन-सम्पदा व पद-प्रतिष्ठा पाना चाहता है, परंतु उसको एवज़ में छोड़ना कुछ भी नहीं चाहता; जबकि संसार का नियम है ‘एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले’ अर्थात् जो भी आप इस संसार में देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। वैसे भी आप एक साँस छोड़े बिना बिना दूसरी साँस नहीं ले सकते। यह संसार का नियम है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। केवल सत्कर्म ही उसके साथ जाते हैं। इसलिए मानव हरपल प्रभु का सिमरन तथा समय का सदुपयोग करना चाहिए।

अहंनिष्ठ प्राणी आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझा रहता है। वे उसे अपना गुलाम बनाए रहती हैं। उसके कदम धरा पर नहीं टिकते। वह केवल दूसरों की भावनाओं को आहत नहीं करता, बल्कि अपना जीवन भी नरक बना लेता है तथा आजीवन इसी उधेड़बुन में खोया रहता है। डॉ वसुधा छवि का यह कथन भी इस तथ्य की सार्थकता सिद्ध करता है कि ‘जब व्यक्ति के पास पैसा होता है, तो वह भूल जाता है कि वह कौन है और जब पैसा नहीं होता, तो लोग भूल जाते हैं कि वह कौन है,’ यही जीवन का कटु यथार्थ है। धन-लिप्सा उसे अपने शिकंजे साथ बाहर नहीं निकलने देती और वह इस भ्रम में अपने जीवन के प्रयोजन को भुला बैठता है। मानव स्वार्थी है और संसार व संबंध मिथ्या। मानव केवल स्वार्थ साधने हेतू संबंध साधता है और उसके पश्चात् उसे भुला देता है। इतना ही नहीं, वह माया महा-ठगिनी के मायाजाल में आजीवन उलझा रहता है और लख चौरासी से मुक्त नहीं हो सकता।

सहारे मानव को खोखला कर देते हैं और उम्मीदें कमज़ोर। मानव को अपने बल पर जीना प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि उसका आपसे अच्छा साथी व हमदर्द कोई दूसरा नहीं हो सकता। वैसे भी ‘मंज़िलें बड़ी जिद्दी होती हैं/ हासिल कहाँ नसीब से होती हैं/ मगर तूफ़ान भी वहां हार जाते हैं/ जहां कश्तियां ज़िद पर होती हैं।’ जी हां! यदि मानव का हृदय साहस व धैर्य से लबालब है, तो तूफ़ान भी रुक जाते हैं और व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ सिद्ध होता है। जब मन रूपी कश्ती ज़िद पर होती है, तो तूफ़ानों को अपने रास्ते से हट जाना पड़ता है, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी नहीं ठहर नहीं सकता। मानव को न तो किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न ही उम्मीद रखनी चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां उसके मनोबल को तोड़ती हैं। मानव स्वयं अपना साथी व हमदर्द है। इसलिए जीवन में अपेक्षा व उपेक्षा को त्याग कर जीवन पथ पर बढ़ते जाना चाहिए, अन्यथा यह मानव को अवसाद की स्थिति में ले जाती है। मानव को अहं को शत्रु समझ अपने आसपास नहीं आने देना चाहिए और आत्मविश्वास को धरोहर सम संजोए रखना चाहिए, क्योंकि आत्मविश्वास के बल पर आप असंभव कार्य को भी कर गुज़रते हैं। इसलिए आत्मसम्मान से कभी भी समझौता न करें, क्योंकि जिसमें आत्मविश्वास है, वह सिर उठाकर जीता है; किसी के सम्मुख घुटने नहीं टेकता और न ही नतमस्तक होता है। सो! अभिमानी नहीं;  स्वाभिमानी बनें और अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा को क़ायम रखें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 7 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 7 ??

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 6 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 6 ??

लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षात काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।

पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता है-

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

विशाल बरगद

के चारों ओर,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

इसी प्रकार जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ??

जैसाकि कहा जा चुका है, समाज के केंद्र में किसान था। कोई माने न माने पर शरीर के केंद्र में जैसे पेट था, है और रहेगा, वैसे ही खेती सदा जीवन के केंद्र में रहेगी। किसान के सिवा कारू और नारू की आवश्यकता पड़ती थी। भारतीय समाज को विभाजन रेखा खींचकर देखनेवाली आँखें, अपने रेटीना के इलाज की गुहार करती हैं।  सत्य कहा जाये तो ग्राम्य जीवन लोक को पढ़ने, समझने और अपनी समझ को मथने का श्रेष्ठ उदाहरण है।

ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।

बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 160 ☆ आलेख – धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना …. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 160 ☆

? आलेख  धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना … ?

देश संविधान से चलता है. न्यायालय का सर्वोपरी विधान संविधान ही है. प्रत्येक अच्छे नागरिक का नैतिक कर्तव्य है कि वह संविधान का परिपालन करे. बचपन से ही मैं अच्छा नागरिक बनना चाहता हूं, पर अब तक तो मैं लाइनो में ही लगा रहा, इसलिये मुझे अच्छा नागरिक बनने का मौका ही नही मिल सका. सुबह सबेरे पानी के लिये नल की लाइन में,  मिट्टी तेल के लिये केरोसिन की लाइन में,  राशन के लिये लम्बी लाइन में, कभी बस या मेट्रो की कतार में, इलाज के लिये अस्पताल की लाइन में, स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर पंक्तिबद्ध रहना ही होता था, बैंक में रुपया जमा करने तक के लिये लाइन, इस या उस टिकिट की लाइन में लगे लगे ही जब अठारह का हुआ और संविधान ने चुपके से मुझे मताधिकार दे दिया तो मैं संविधान के प्रति कृतज्ञता बोध से अभीभूत होकर वोट डालने गया पर वहाँ भी लाइन में खड़े रहना ही पड़ा. मुझे लगा कि लाइन में लगकर बिना झगड़ा किये अपनी पारी का इंतजार करना ही अच्छे नागरिक का कर्तव्य होता है.

वरिष्ट जनो, महिलाओ, विकलांगों को अपने से आगे जाने का अवसर देना तो मानवीय नैतिकता ही है.नियम पूर्वक बने वी आई पी मसलन स्वतंत्रता सेनानी, सेवानिवृत मिलट्री पर्सनल भी सर आंखो पर, कथित जातिगत आरक्षण के चलते बनी आगे बढ़ती कतार को भी सह लेता किन्तु बलात पुलिस वाले के साथ आकर या नेता जी के फोन के साथ कंधे पर सवार नकली वी आई पी मैं बर्दाश्त नही कर पाता, बहस हो जाती . बदलता तो कुछ नहीं, मन खराब हो जाता. घर लौटकर जब अकेले में अपने आप से मिलता तो लगता कि मैं अच्छा नागरिक नही हूं. इसलिये एक अच्छे नागरिक बनने के लिये मैंने संविधान को समझने की योजना बनाई .

संविधान की प्रस्तावना से ज्ञात हुआ कि हमने संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये अपना संविधान अपने आप अंगीकृत किया है. अब मेरे लिए यह समझना जरूरी था कि यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ? मैं तो कई कई दिन एक बार भी मंदिर नही जाता था. जबकि मेरा सहकर्मी जोसफ प्रत्येक रविवार को नियम से प्रेयर के लिये चर्च जाता था. मेरा अभिन्न मित्र अब्दुल दिन में पाँच बार मस्जिद जाता है. अब्दुल बेबाक आफिस से कार्यालयीन समय में भी नमाज पढ़ने निकल लेता है. उसे कोई कुछ नही कहता. मस्जिद में या चर्च में एक ही धर्मावलंबी नियम पूर्वक तय समय से मिलते हैं, पूजा ध्यान से इतर चर्चायें भी होना अस्वाभाविक नहीं. किसे वोट देना है किसे नही इस पर मौलाना साहब के फतवे जारी होते भी मैंने देखा है. राजनैतिक दलो द्वारा अपने घोषणा पत्र में बाकायदा चुनाव आयोग के संज्ञान में धार्मिक प्रलोभन, नेताओ द्वारा अपने पक्ष में वर्ग विशेष के वोट लेने के लिये सार्वजनिक मंच से घोषणायें, कभी मंदिर न जाने वालों द्वारा एन चुनावी दौरो में मंदिर मंदिर जाना आदि देखकर मैं धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहुत कनफ्यूज हो गया.

कभी इस धर्म की तो कभी उस धर्म की रैलियां सड़कों पर देखने मिलती. अनेक अवसरो पर टीवी में बापू की समाधि पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा का सरकारी आयोजन मैनें देखा था मुझे लगा कि शायद यही धर्मनिरपेक्षता है.  कुछ अच्छी तरह समझने के लिये गूगल बाबा की शरण ली तो, सर्च इंजन ने फटाफट बता दिया कि दुनिया के 43 देशों का कोई न कोई आधिकारिक धर्म है, 27 देशों का धर्म इस्लाम तो 13 का धर्म ईसाईयत है.  भारत समेत 106 देश धर्मनिरपेक्ष देश हैं.ऐसा राष्ट्र एक भी नहीं है जिसका धर्म हिन्दू हो. दुनियां की आबादी का लगभग सोलह प्रतिशत हिन्दू धर्मावलंबी हैं. दुनियां का पहला धर्मनिरपेक्ष देश अमेरिका है. इस जानकारी से भी धर्मनिरपेक्षता समझ नही आ रही थी. तो मैंने शाम को टीवी चैनलो पर विद्वानो की बहस और व्हाट्सअप समूहो से कुछ ज्ञानार्जन करने का यत्न किया, पर यह तो बृहद भूलभुलैया थी. सबके अपने अपने एजेण्डे समझ आये पर धर्मनिरपेक्षता समझ नही आई. कुछ कथित बुद्धिजीवी बहुसंख्यकों को रोज नए पाठ पढ़ाते,उनके अनुसार बहुसंख्यकों को दबाना ही धर्म निरपेक्षता है। मुझे स्पष्ट समझ आ रहा था की यह तो  कतई धर्म निरपेक्षता नही है ।अंततोगत्वा मैं धर्मनिरपेक्षता की तलाश में देशाटन पर निकल पड़ा.  बंगलौर रेल्वे स्टेशन के वेटिंग रूम में मस्जिद नुमा तब्दीली मिली, मुम्बई के एक रेल्वे प्लेटफार्म पर भव्य मजार के दर्शन हुये, सड़क किनारे सरकारी जमीन पर ढ़ेरों छोटे बड़े मंदिर और मजारें नजर आईं, धर्मस्थलो के आसपास खूब अतिक्रमण दिखे. लाउड स्पीकर से अजान और भजन के कानफोड़ू पाठ सुनाई पड़े. सांप्रदायिकता मिली सरे आम बेशर्मी से बुर्के को तार तार करती मिली, कट्टरता ठहाके मारती मिली, रूढ़िवादिता भी मिली, कम्युनलिज्म टकराया  किन्तु मेरी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की तलाश अब तक अधूरी ही है. आपको धर्मनिरपेक्षता समझ आ जाये तो प्लीज मुझे भी समझा दीजीयेगा जिससे मैं एक अच्छा नागरिक बनने के अपने संवैधानिक मिशन में आगे बढ़ सकूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “बंदर के हाथ में उस्तरा।)

☆ आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कहावत हमारे देश की है, और बहुत पुरानी भी है। कहावत भले ही बंदर पर बनी हुई है, लेकिन मानव जाति इसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में यदा कदा करता रहता हैं। 

आज विश्व के सबसे संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में एक अठारह वर्षीय युवा ने अपनी बंदूक से पाठशाला में पढ़ रहे करीब पच्चीस बच्चों की हत्या कर दी हैं। पचास से अधिक बच्चे हॉस्पिटल में इलाज़ करवा रहे हैं। युवा ने अपनी दादी और कुछ शिक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया।अमेरिका में ये घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।हमारे देश में भी कुछ लोग मानसिक रूप से ग्रस्त होते हुए कभी कभार बंदूक/ तलवार इत्यादि से एक दो लोगों पर हमला कर देते हैं,और अधिकतर पकड़े जाते हैं।इस सब के पीछे उनकी गरीबी या किसी रंजिश ( आर्थिक,सामाजिक या धार्मिक) प्रमुख कारण रहता हैं।                                          

अमेरिका की संपन्नता में वहां के हथियार उद्योग का बड़ा हाथ है,ये सर्वविदित हैं।हमारे देश में भी कुछ स्थानों पर देसी कट्टे/ रामपुरिया चाकू इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, चुकीं उनकी मारक क्षमता अमरीकी हथियारों के सामने शून्य से भी कम होती हैं।इसलिए जन हानि कम होती हैं।                                      

हम,अमरीकी युवा को इस प्रकार के होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं।वहां की जीवन शैली के सामाजिक / पारिवारिक मूल्यों में आई भारी गिरावट और आसानी से हथियारों की उपलब्धता ही पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं।अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों की उपलब्धता सुनिश्चित कर अपनी तिज़ोरी भरता हैं।आज वो ही हथियार उसके अपने बच्चें इस्तमाल कर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।बड़े लोग ठीक ही कहते थे,जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन स्वयं भी उसी गड्ढे में गिर जाता हैं।

सत्तर के दशक  में पाठशाला में एक निबंध का विषय ” विज्ञान एक अभिशाप” हुआ करता था।अब लग रहा है,कहीं निबंध का विषय आज भी मान्य तो नहीं हैं ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ??

इसी अनुक्रम में एक और परंपरा देखें। बरात जिस गाँव में जाती, दूल्हे के पिता के पास इस गाँव में ससुराल कर चुकी अपने गाँव की ब्याहताओं की सूची होती। ये लड़कियाँ किसी भी जाति या धर्म की हों, दूल्हे का पिता हरेक के घर एक रुपया और यथाशक्ति ‘लावणा’ (मंगलकार्यों में दी जानी वाली मिठाई) लेकर जाता। लड़की प्रतीक्षा करती कि उसके गाँव से कोई ताऊ जी, काका जी, बाबा जी आये हैं। मायके से (यहाँ गाँव ही मायका है) किसीका आना, ब्याहता को जिस आनंद से भर देता है, वह किसी से छुपा नहीं है। मंगलकार्यों (और अशुभ प्रसंगों में भी) बहु-बेटियों को मान देने का यह अमृत, लोक-परम्परा को चिरंजीव कर देता है। विष को गले में रोककर नीलकंठ महादेव कालातीत हैं, लोक की नीलकंठी परम्परा भी महादेव की अनुचर है।

वस्तुत: लोक में किसी के लिए दुत्कार नहीं है, अपितु सभी के लिए सत्कार है। जाति प्रथा का अस्तित्व होने पर भी सभी जातियों के साथ आने पर ही ब्याह-शादी, उत्सव-त्यौहार संपन्न हो सकते थे। महाराष्ट्र में 12 बलूतेदार परंपरा रही। कृषक समाज के केंद्र में था। उसके बाद बलूतेदारों का क्रम था। बलूतेदार को ‘कारू’ या कार्यकारी अर्थात जिनके सहारे काम चलता हो, भी माना गया। इनमें कुंभार (कुम्हार), कोळी (कोली या मछुआरा), गुरव, चांभार(चर्मकार), मातंग, तेली, न्हावी ( नाभिक), भट, परीट, महार, लोहार ( लुहार), सुतार को प्रमुखता से स्थान दिया गया। क्षेत्रवार इनमें न्यूनाधिक अंतर भी मिलता है। 12 बलूतेदारों के साथ 18 नारू अर्थात जिनकी आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, का उल्लेख भी है। इनमें कलावंत, कोरव, गोंधळी, गोसावी, घडसी, ठाकर, डवरया, तराळ, तांबोली, तेली, भट, माली, जंगम, वाजंत्री. शिंपी, सनगर, साळी, खटीक, मुलाणा का संदर्भ सामान्यत: मिलता है। इनके सिवा बनजारा और अन्यान्य घुमंतू जनजातियों और उपरोक्त उल्लेख में छूट गई सभी जातियों का योगदान रहा है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः  ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः ?

शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर  पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’  सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया)  से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।

वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

कह दो उनसे,

संभाल लें

मोर्चे अपने-अपने,

जो खड़े हैं

ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,

कह दो उनसे,

बिछा लें बिसातें

अपनी-अपनी,

जो खड़े हैं

दौलत से मेरे ख़िलाफ़,

हाथ में

क़लम उठा ली है मैंने

और निकल पड़ा हूँ

अश्वमेध के लिए…!

संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।

संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्यामः’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।

संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक  मत रुको।

संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।..इति।

© संजय भारद्वाज

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