श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ??

इसी अनुक्रम में एक और परंपरा देखें। बरात जिस गाँव में जाती, दूल्हे के पिता के पास इस गाँव में ससुराल कर चुकी अपने गाँव की ब्याहताओं की सूची होती। ये लड़कियाँ किसी भी जाति या धर्म की हों, दूल्हे का पिता हरेक के घर एक रुपया और यथाशक्ति ‘लावणा’ (मंगलकार्यों में दी जानी वाली मिठाई) लेकर जाता। लड़की प्रतीक्षा करती कि उसके गाँव से कोई ताऊ जी, काका जी, बाबा जी आये हैं। मायके से (यहाँ गाँव ही मायका है) किसीका आना, ब्याहता को जिस आनंद से भर देता है, वह किसी से छुपा नहीं है। मंगलकार्यों (और अशुभ प्रसंगों में भी) बहु-बेटियों को मान देने का यह अमृत, लोक-परम्परा को चिरंजीव कर देता है। विष को गले में रोककर नीलकंठ महादेव कालातीत हैं, लोक की नीलकंठी परम्परा भी महादेव की अनुचर है।

वस्तुत: लोक में किसी के लिए दुत्कार नहीं है, अपितु सभी के लिए सत्कार है। जाति प्रथा का अस्तित्व होने पर भी सभी जातियों के साथ आने पर ही ब्याह-शादी, उत्सव-त्यौहार संपन्न हो सकते थे। महाराष्ट्र में 12 बलूतेदार परंपरा रही। कृषक समाज के केंद्र में था। उसके बाद बलूतेदारों का क्रम था। बलूतेदार को ‘कारू’ या कार्यकारी अर्थात जिनके सहारे काम चलता हो, भी माना गया। इनमें कुंभार (कुम्हार), कोळी (कोली या मछुआरा), गुरव, चांभार(चर्मकार), मातंग, तेली, न्हावी ( नाभिक), भट, परीट, महार, लोहार ( लुहार), सुतार को प्रमुखता से स्थान दिया गया। क्षेत्रवार इनमें न्यूनाधिक अंतर भी मिलता है। 12 बलूतेदारों के साथ 18 नारू अर्थात जिनकी आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, का उल्लेख भी है। इनमें कलावंत, कोरव, गोंधळी, गोसावी, घडसी, ठाकर, डवरया, तराळ, तांबोली, तेली, भट, माली, जंगम, वाजंत्री. शिंपी, सनगर, साळी, खटीक, मुलाणा का संदर्भ सामान्यत: मिलता है। इनके सिवा बनजारा और अन्यान्य घुमंतू जनजातियों और उपरोक्त उल्लेख में छूट गई सभी जातियों का योगदान रहा है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments