हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 71 – देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 71 ☆ देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्षों पूर्व हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने इस बात को लेकर अपने उदगार व्यक्त किए थे।

विगत दो तीन वर्षों से फरवरी माह में सड़कों पर बड़ी और खुली कारों जिसको आजकल एसयूवी के नाम से जाना जाता है,में स्कूल के अंतिम वर्ष के छात्र और छात्राएं खुले आम यातायात के नियमों की अवेहलेना करते हुए दृष्टिगोचर  होते हैं।

स्कूल से परीक्षा पूर्व विदाई कार्यक्रम को अब सड़कों पर कार की खिड़कियों से लटकते हुए,हाथों में मोबाइल से लाइव प्रसारण भी होता रहता हैं।

परिवार के सदस्य सब से बड़े दोषी है, जो बिना लाइसेंस प्राप्त बच्चों को कार की चाबियां देकर कहते है, जिंदगी के मज़े ले लो। वैसे इसको फैशन परेड भी कहा जा सकता हैं। हमारे परिवारों की बेटियां भी इन सब में बेबाकी से भाग लेती है,वरन तरुणों को जोखिम भरे कदम उठाने के लिए उकसाती भी हैं। बाज़ार में बिना छत की कार भी किराए से लेकर इस नग्नता का हिस्सा बनती हैं।

ये, ही बच्चे कल के नेता बनकर देश को आगे बढ़ाएंगे। हमारे नेता भी तो आजकल जनता के बीच में “रोड शो” करने के समय इसी प्रकार से कारों से लटकते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ नेता ट्रैक्टर पर बड़ी संख्या में बैठ कर “सड़क सुरक्षा” को परिभाषित करते हैं। शायद हमारे बच्चे इन नेताओं के चरण चिन्हों पर चलकर आने वाले समय में आज के बच्चे देश की बागडोर संभाल सकने में सक्षम होंगे।

ये ही बिगड़े हुए बच्चे स्कूल से उत्तीर्ण होकर महाविद्यालय में छात्र यूनियन के नेता बन जायेंगे। राजनैतिक दल भी छात्र नेताओं को प्राथमिकता से अपने अपने दल में ग्रहण कर लेते हैं।

नियम और कानून की धज्जियां उड़ाने वाले व्यक्ति ही हमारे नेता बनने में सक्षम होते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 286 ⇒ चार चांद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चार चांद।)

?अभी अभी # 286 ⇒ चार चांद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कवियों, शायरों और प्रेमियों को चांद से कुछ ज्यादा ही प्रेम होता है। सुंदरता की उपमा चांद से, और जब ठंड ज्यादा पड़े, तो सूरज रे, जलते रहना। वैसे प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी शायर कहने से नहीं चूकता ;

एक हो मेरे तुम इस जहां में

एक हो चंदा, जैसे गगन में

तुम ही तुम हो, मेरे जीवन में।

लेकिन अगले ही पल वह कह उठता है,

एक चांद आसमान में, एक मेरे पास है।

इतना ही नहीं, उसे एक रात में दो दो चांद नजर आने लगते हैं,

एक घूंघट में, एक बदली में।।

होता है, प्रेम में सब कुछ संभव है। मां की ममता तो और एक कदम आगे बढ़ जाती है, चंदा है तू, मेरा सूरज है तू। ओ मेरी आंखों का तारा है तू। सूरज को तो बस एक बार सुबह सुबह सूर्य नमस्कार कर लिया और छुट्टी लेकिन बेचारे चांद की तो रात भर खैर नहीं।

कौन कहता है, सूरज सी महबूबा हो मेरी, सबको चांद सी ही चाहिए। वैसे भी जो दिन भर आग उगलेगा, उसे कौन गले लगाएगा। सबको चांद सी ही महबूबा चाहिए। चांद सा मुखड़ा क्यूं शरमाया।

अजीब होते हैं ये कवि, रवि से ऊपर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन तारीफ चांद की करते हैं।।

कहते हैं, किसी की तारीफ करने से उसमें चार चांद लग जाते हैं। ना कम ना ज्यादा। कृष्णचंद्र हों अथवा चन्द्रमौलिश्वर भगवान शिव, वहां भी शोभायमान तो एक ही अर्धचन्द्र है। चार चांद कौन लगाता है भाई।

अतिशयोक्ति तो है, फिर भी हमको कुबूल है। अतिशयोक्ति में तर्क का कोई स्थान नहीं। चार चांद ही क्यों, क्या तीन से काम नहीं चल सकता। अगर आपने अपनी प्रेयसी की तारीफ में गलती से पांच चांद लगा दिए तो क्या वह आपको छोड़कर चली जाएगी। तारीफ नहीं, बनिये की दूकान हो गई। अतिशयोक्ति का भी एक भाव होता है, न कम, न ज्यादा।।

अगर आपकी तारीफ में दो सूरज और दो चांद लगा दें, तो चलेगा। सूरज आपको खा थोड़े ही जाएगा। अच्छा चलिए, चारों सूरज चलेंगे। अलग ही चमकेंगे। कहां चार चांद और जहां चार सूरज। बस आफताब मियां से एक बार पूछना पड़ेगा।

आपके पास जो आएगा, वो जल जाएगा। मतलब एक भी सूरज नहीं चलेगा। अपने तो चंदामामा दूर के ही भले। चार मामा होंगे तो शायद मां भी खुश हो जाए। वैसे भी तीन का आंकड़ा शुभ नहीं माना जाता। बहुत सोच समझकर चार चांद लगाए जाते हैं किसी की तारीफ में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ – शिवजयंती का प्रेरणादायक सुवर्णदिन ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख  – शिवजयंती का प्रेरणादायक सुवर्णदिन ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

प्रिय स्वजनों,

आप सबको आज के परम पावन दिन आदरयुक्त प्रणाम! 

आज हम छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती मना रहे हैं। ३९४ साल पहले (१९ फरवरी, १६३०) जब शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेरी किले में हुआ था, तब मुगलों और आदिल शाही ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि, पूरे हिंदुस्तान को गुलाम बना लिया था। शिवराय के पराक्रम की कहानी को समझने के लिए, उनकी माता ने उन्हें किस प्रकार उनके जनम से ही रही प्रतिकूल परिस्थितियों में पाला, इस पर हमें विचार करना चाहिए। जिजाऊ द्वारा बाल शिवाजी को सुलाने के लिए गाई हुई लोरी इन त्रासदियों का सटीक वर्णन करती है, गोविंदाग्रज उर्फ राम गणेश गडकरी अपनी इसी रचना में कहते हैं-

गुणी बाळ असा जागसि कां रे वाया । नीज रे नीज शिवराया ॥ ध्रु ॥

अपरात्री प्रहर लोटला बाई । तरि डोळा लागत नाहीं ॥

हा चालतसे चाळा एकच असला । तिळ उसंत नाहीं जिवाला ॥

निजवायाचा हरला सर्व उपाय । जागाच तरी शिवराय ॥

चालेल जागता चटका, हा असाच घटका घटका

कुरवाळा किंवा हटका, कां कष्टविसी तुझी सांवळी काया ।

नीज रे नीज शिवराया ॥१॥

ही शांत निजे बारा मावळ थेट । शिवनेरी जुन्नर पेठ ॥

त्या निजल्या ना तशाच घाटाखालीं । कोंकणच्या चवदा ताली ॥

ये भिववाया बागुल तो बघ बाळा । किति बाई काळा काळा ॥

इकडे हे सिद्दि-जवान, तो तिकडे अफझुलखान

पलिकडे मुलुख मैदान, हे आले रे तुजला बाळ धराया ।

नीज रे नीज शिवराया ॥२॥

इस कर्तव्यकठोर माता ने बाल शिवाजी के चरित्र को सुचारु रूप से सही आकार दिया। उस समय शिवबा के महा पराक्रमी पिता शहाजी राजे भोसले कर्नाटक में थे। लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी यह वीरमाता शिवबा पर सर्वांगीण संस्कार कर रही थी। शिवबा न केवल रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ बल्कि युद्ध कला भी सीखकर अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए सम्पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। अपनी मां जिजाबाई और गुरु दादोजी कोंडदेव के मार्गदर्शन में शिवबा सकलगुणमंडित बन गए, उनमें देशभक्ति की जाज्वल्य भावना इस तरह भर गई कि, मात्र 16 साल की उम्र में ही शिवबा ने तोरणा किला जीत लिया और स्वराज्य का तोरण बांध दिया!

उनकी संघटन शक्ति का उदाहरण भी लें, तो उनकी पारखी नजर हमें आश्चर्यचकित कर देती है| महाराज के साथ रह कर पवित्र हुए और पहले से ही पवित्र रहे १८ पगड जातिके और प्रत्येक धर्म के मावळे स्वराज्यबंधन अभिमान से धारण करते थे और उनके प्रत्येक स्वराज्य-अभियान में अत्यंत आत्मविश्वास के साथ, जिद्द लेकर, उत्साह से भरपूर, बड़े ही आनंदपूर्वक शामिल होते थे| उनका शौर्य, पराक्रम, बुद्धिमत्ता, रणकौशल आदि के बारे में मैं अल्पमति क्या लिखूं, केवल नतमस्तक होती हूँ| वे स्त्रियों का बहुत सन्मान करते थे| क्या वर्णन करें उसका! कल्याण के सूबेदार की सुन्दर बहू को देख, ‘अशीच आमुची आई असती सुंदर रूपवती, आम्हीही सुंदर झालो असतो वदले छत्रपती’.(उन्होंने कहा कि, अगर हमारी माता ऐसे ही सुन्दर होती, तो हम भी सुन्दर होते)| ये माता के संस्कार तथा शिवराय की  निर्लोभ और निरंकारी वृत्ति थी| उनका अव्वल शत्रु औरंगजेब भी उसके सरदारों को शिवाजी के गुण आत्मसात करने को कहता था| शिवराय ने मुगल बादशहा औरंगजेब और सब नए पुराने अस्त्र-शस्त्र के साथ रही उसकी महाकाय फौज का आक्रमण रोका, यहीं नहीं, उनका पारिपत्य भी किया। यह करते हुए अपनी मुठ्ठी भर फौज के साथ “गनिमी कावा” को अमल में लाते हुए इस “दक्खन के चूहे” ने औरंगजेब के नाक में दम कर दिया था| 

महाराज के जीवन में उनकी कसौटी परखने वाले कई क्षण आए|, जयसिंग राजे के साथ किये समझौते में हारे हुए कई किले, आगरे की कैद से चतुराई दिखाकर खुद की और बाल संभाजी की अविश्वसनीय रिहाई,  बाजीप्रभू देशपांडे, मुरारबाजी और तानाजी जैसे अपने कई साथियों की मृत्यू, स्वकीयोंके कपट, ऐसे कई संकटों से जूझकर महाराज बाहर निकले और फिर राजगड पर राज्याभिषेक हुआ शिवराय का (६ जून १६७४)| इस प्रसंग का अविस्मरणीय वर्णन समर्थ रामदास स्वामीजी के ‘आनंदवन भुवनी’ इस काव्य में अनुभव करना होगा:

‘स्वर्गीची लोटली जेथे, रामगंगा महानदी, तीर्थासी तुळणा नाही आनंदवनभुवनी

बुडाली सर्व ही पापे, हिंदुस्थान बळावले,अभक्तांचा क्षयो झाला आनंदवनभुवनी’

महाकवि भूषण शिवराय के महापराक्रमी रूप का वर्णन ऐसे करते हैं: 

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर, रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,’भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥

(भूषण कवि कहते हैं कि, इंद्र ने जिस प्रकार जंभासुर नामक दैत्य पर आक्रमण करके उसे मारा था, जिस प्रकार बाडवाग्नि समुद्रजल को जलाकर सोखती है, दुराचारी एवं कपटी रावण पर जिस प्रकार रघुकुल तिलक श्रीराम ने आक्रमण किया था, जैसे बादलों पर वायु का वेग टूट पडता है, जिस प्रकार शिवजी ने रति के पति कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था, जिस प्रकार अत्याचारी सहस्रबाहु (कार्त्तवीर्य) राजा को परशुराम ने आक्रमण कर मार गिराया था, जंगली वृक्षों पर दावाग्नि का जैसा प्रकोप दिखता है, जिस प्रकार वनराज सिंह का हिरणों के झुंड पर आतंक छाया रहता है, या हाथियों पर मृगराज सिंह का दबदबा रहता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें तम नष्ट कर देती हैं और खली कंस पर जिस तरह आक्रमण कर युवा श्रीकृष्ण ने उसका विनाश किया था, उसी प्रकार सिंह के समान शौर्य, साहस  एवं पराक्रम दर्शाने वाले छत्रपति शिवाजी का मुग़लों के वंश पर आतंक छाया रहता है।) 

संभाजी महाराज को भेजे हुए पत्र में समर्थ रामदासस्वामी उन्हें उनके महान पिता का स्मरण करवाते हुए ऐसा उपदेश करते हैं:

शिवरायांचे आठवावे रूप। शिवरायांचा आठवावा प्रताप ।

शिवरायांचा आठवावा साक्षेप ।भूमंडळी ||

शिवरायांचे कैसें बोलणें ।शिवरायांचे कैसें चालणें ।

शिवरायांची सलगी देणे ।कैसी असे ||

निश्चयाचा महामेरू । बहुत जनांसी आधारू ।

अखंड स्थितीचा निर्धारु । श्रीमंत योगी ||

मुगलशाही और आदिलशाही के वर्चस्व को नकारते हुए “स्वराज्य का तोरण” बांधने वाले हमारे सच्चे हृदयसम्राट गो-ब्राम्हण प्रतिपालक शिवाजी महाराज! ऐसे महान राष्ट्रपुरुष के गुणों का जितना ही बखान करें, सो कम ही है! महाराष्ट्र यानि छत्रपती शिवाजी महाराज, परन्तु छत्रपती शिवाजी महाराज यानि महाराष्ट्र, ऐसा ओछा विचार मन में लाना यानि, प्रत्यक्ष राष्ट्रभूषण छत्रपती शिवाजी महाराज का ही अपमान होगा| 

इसीलिए तो शिवराय का केवल नाम याद आते ही रोमांच का अनुभव होता है| यहीं सकल गुणनिधान छत्रपती शिवाजी महाराज हमारे सर्वकालीन आदर्श हैं!  मैं उनके  चरणों पर नतमस्तक हो कर आज के पवित्र शिवजयंती के अवसर पर उन्हें यह शब्दकुसुमांजली अर्पण करती हूँ! 

जय शिवराय!!! 🙏🙏🙏

डॉ. मीना श्रीवास्तव                                         

फोन नंबर – ९९२०१६७२११

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक-१९ फरवरी २०२४

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 228 – मानस प्रश्नोत्तरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 228 ☆ मानस प्रश्नोत्तरी ?

एक व्यक्ति को नरश्रेष्ठ कहलाने  होने की इच्छा हुई। इच्छा होना और भाव जगने में बड़ा अंतर है। इच्छा का तो दिनचर्या में कई बार जन्म होता है, कई बार मरण होता है। भाव की बात अलग है। इच्छा स्थितियों से प्रभावित हो सकती है जबकि काल, पात्र, परिस्थिति, भाव के आगे निर्बल होते हैं। 

नानाविध विचार कर व्यक्ति मार्गदर्शन लेने एक साधु के पास पहुँचा। व्यक्ति और साधु में कुछ यों प्रश्नोत्तर हुए-

श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

– पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।

मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

– परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।

परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?

– परकाया प्रवेश आना चाहिए।

परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?

– अद्वैत भाव जगाना चाहिए।

अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?

– जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।

‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

– सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।

सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?

-अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

लौह के स्वर्ण में बदलने की यह भावात्मक प्रक्रिया विभिन्न चरणों में होती है। सच्चा सत्संगी  स्वयं से संवाद करना आरम्भ करता है। जिस तरह स्वयं से संवाद करता है, अगले चरणों में उसी भाँति हरेक से संवाद करने लगता है। अब हरेक में वह है, अब वही हरेक है। स्व का यह विस्तार मनुष्य को अमृतपान कराता है। सारा विषाद, मत्सर, ईर्ष्या, लोभ, वासना, क्रोध, भय मरने लगता है, मनुष्य आत्मतत्व के प्रति रीझने लगता है। आत्म पर जितना मरता है, उतना अमर होता है मनुष्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 285 ⇒ सिटी रिपोर्टर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिटी रिपोर्टर।)

?अभी अभी # 285 ⇒ सिटी रिपोर्टर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह आंखों देखी और कानों सुनी को ही सच मानता है। आज यह कितना सच है, यह हम नहीं जानते, लेकिन हम तब की बात कर रहे हैं, जब लोग अपने आसपास के हालचाल और खबरों के लिए या तो रेडियो पर समाचार सुनते थे, अथवा रोजाना अखबार का सहारा लेते थे। जब आकाशवाणी पर भी भरोसा नहीं होता था, तो बीबीसी सुनते थे। अच्छे फिल्मी संगीत के श्रोता विविध भारती छोड़, रेडियो सीलोन की ओर रुख करते थे। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना।

देश विदेश की खबरें तो अखबारों को न्यूज एजेंसियों के जरिये मिल जाती थी, लेकिन शहर की खबरों के लिए वे नगर संवाददाता अथवा नगर प्रतिनिधि नियुक्त करते थे। बोलचाल की भाषा में तब उन्हें सिटी रिपोर्टर कहा जाता था। हर अखबार का एक प्रेस फोटोग्राफर भी होता था।।

तब सब कुछ इतना ग्लोबल और डिजिटल नहीं था जितना आज है। आज तो जिसके हाथ में कैमरे वाला मोबाइल है, वही फोटो खींच खींचकर, वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल रहा है। जो खबरों और घटनाओं का सस्पेंस और इंतजार कभी रहता था, अब वह सब कुछ खत्म सा हो गया है।

सोचिए, शहर की अथवा प्रदेश की किसी घटना के लिए सुबह तक का इंतजार, और जब तक कोई खबर अखबार में छप नहीं जाती, अथवा रेडियो पर प्रसारित नहीं हो जाती, तब तक उसकी सत्यता पर भरोसा नहीं होता था। सत्य अगर सुंदर होता है, तो कभी कभी सच कड़वा भी होता है। अखबार तब सच का आइना होता था, और पत्रकारिता धर्म।।

तब इस शहर में कितने अखबार थे। ले देकर दैनिक इंदौर समाचार, नव भारत, पुराना जागरण और नईदुनिया। बहुत बाद में अग्नि बाण टाइप दो तीन अखबार शाम को भी छपने लगे। गर्मागर्म खबरों के शौकीन चाय के ठेलों पर, पान की दुकान और केश कर्तनालय पर बेसब्री से उनका इंतजार करते पाए जाते थे।

अखबारों के शौकीन तो आज भी बहुत हैं। कहीं कहीं तो चाय और अखबार के बाद ही नित्य कर्म का नंबर आता था। सबसे पहले घर में अखबार पिताजी के हाथ में जाता था, बाद में वह पन्नों में बंट जाता था। कोई एक पन्ना लेकर चाय पी रहा है तो दूसरा उसे पढ़ते पढ़ते दातून कर रहा है। पहले हमारे घर नव भारत आता था लेकिन कालांतर में नई दुनिया ने अंगद के पांव की तरह आसन जमा लिया।।

तब नई दुनिया की पहचान राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते और लाभचंद छजलानी से होती थी। बाद में बारपुते जी का स्थान अभय छजलानी जी ने ले लिया।

नईदुनिया तब सिटी रिपोर्टर श्री गोपीकृष्ण गुप्ता थे। नगर का कोई भी थाना हो, कोई भी सरकारी विभाग हो, स्कूल हो, कॉलेज हो, अथवा विश्व विद्यालय, सब जगह आपको गुप्ता जी मौजूद मिलेंगे। किंग मेकर नई दुनिया यूं ही नहीं बना।

एक टीम थी नई दुनिया की, जिसमें प्रेस फोटोग्राफर शरद पंडित भी शामिल थे।

गोपीकृष्ण गुप्ता का स्थान बाद में श्री रामचंद्र नीमा, मामा जी ने ले लिया। सहज, सरल, सौम्य, मिलनसार व्यक्तित्व। एक और नईदुनिया से जुड़े पत्रकार थे श्री जवाहरलाल राठौड़, मध्यप्रदेश की रोडवेज बसों पर उनके धारावाहिक लेख “लाल डब्बों का सफर” ने पूरी कांग्रेस सरकार को हिलाकर रख दिया था।

नर्मदा आंदोलन भी अभ्यास मंडल और नईदुनिया का मिला जुला प्रयास ही तो था।।

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नईदुनिया गुरुकुल से कोई चेला गुड़ बनकर नहीं निकला, सब शक्कर ही बन गए। रमेश बख्शी, प्रभाष जोशी जैसे कई वरिष्ठ पत्रकार कभी एक समय नईदुनिया से जुड़े हुए थे। हिंदी को समृद्ध बनाने और हिंदी पत्रकारिता को बुलंदियों तक पहुंचाने में नईदुनिया के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

कहीं पीत पत्रकारिता तो कहीं निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के दौर से निकलकर आज पत्रकारिता जिस मोड़ पर खड़ी है, उसके आगे कई चुनौतियां हैं। आपातकाल में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के विरोध स्वरूप संपादकीय खाली छोड़ना केवल राजेंद्र माथुर जैसा निडर और समर्पित संपादक ही कर सकता था। खतरों से खेलने वाले सिटी रिपोर्टर और पत्रकार शायद आज भी कहीं मौजूद अवश्य होंगे। बस नजर नहीं आ रहे।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 284 ⇒ वसंत के बहाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वसंत के बहाने।)

?अभी अभी # 284 ⇒ वसंत के बहाने… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सबसे पहले बचपन की एक कविता, जो आज भी हम सबकी जबान पर सरस्वती की तरह मौजूद है ;

आया वसंत, आया वसंत।

खिल गए फूल, लद गई डाल।

भौंरों ने गुनगुनाना शुरू किया

पत्ते दे रहे ताल।।

तब हम कहां जानते थे, कौन निराला है, कौन पंत है और कौन प्रसाद है।

कितनी सरल भाषा है, फिर भी लदने और ताल देने की अभिव्यक्ति कितनी सहज और सुंदर है।

हम तो अपनी उम्र को भी वसंत से ही गिनते हैं, कितने वसंत पूरे हुए।

जिस भी कन्या अथवा बालक का जन्म वसंत पंचमी को हुआ, उसका नामकरण तत्काल बसंत अथवा बसंती हो जाता था। वसंत में जब थोड़ा रंग मिल जाता है, तो वह रंग बसंती हो जाता है। रंग बसंती आ गया, मस्ताना मौसम छा गया।।

अंगड़ाई शब्द में ही मस्ती है। यही वह समय है, जब मौसम भी अंगड़ाई लेने लगता है। अंगड़ाई का कोई मुहूर्त भले ही ना होता हो, लेकिन समय जरूर होता है। सबसे पहले इसका असर सूर्य नारायण पर पड़ता है। ठंड में ठिठुरते हुए, सात बजे के बाद खिड़की खोलने वाले आदित्य नारायण इस मौसम में जल्द ही आंगन में पसर जाते हैं। ओस से ढंकी पत्तों और फूलों की बूंदें, गायब होनी नजर आने लगती है। सूरज की अंगड़ाई के बहुत पहले ही पक्षी अपना बसेरा छोड़ चुके होते हैं। वे शायद दोपहर की थकान के बाद अगड़ाई लेते हों क्योंकि सुबह तो उन्हें सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती।

मकर सक्रांति से यह मौसम की क्रांति शुरू होती है। पहले तिल गुड़ खाकर हमने ठंड भगाई और अब केसरिया चावल खा रहे हैं। हो सकता है, आगे गुड़ी पाड़वा तक हम पूरण पोळी से भी आगे निकल ठंडे श्रीखंड पर अटक जाएं। मस्ती में सराबोर यह अंगड़ाई जब होली के रंग में भीगेगी, तब केवल बनारस वाले पान से कहां काम चलने वाला है।।

वसंत की इस मस्ती में सरस्वती की साधना का समय भी बड़ा अनुकूल है। आज के इस शुभ मुहूर्त पर क्यों न देवी सरस्वती से ही वर मांगा जाए ;

वर दे, वर दे,

वीणा वादिनी वर दे। ‌

प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव

भारत में भर दे।

वीणा वादिनी वर दे ॥

काट अंध उर के बंधन स्तर

बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर

कलुष भेद तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे।

वर दे, वीणावादिनी वर दे ॥

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रेडियो की शताब्दी, दुनिया ग्लोबल गांव बना… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका रेडियो दिवस पर एक आलेख  रेडियो की शताब्दी, दुनिया को ग्लोबल गांव बना दिया…’।)

☆ आलेख – रेडियो की शताब्दी, दुनिया ग्लोबल गांव बना… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

16 फ़रवरी, हिसार। दुनिया में रेडियो स्टेशन बनने की शुरुआत 1920 के दशक में हुई थी और पिछले सौ साल में रेडियो ने बिखरी दुनिया को इस तरह जोड़ा कि लोग कहने लगे कि आज दुनिया ग्लोबल विलेज यानि एक वैश्विक गांव जैसी बन गई है।

13 फरवरी, विश्व रेडियो दिवस पर आकाशवाणी हिसार के स्टूडियो में आयोजित एक श्रोता गोष्ठी में यह बात आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों पर संवाददाता, संपादक व निदेशक के रूप में काम कर चुके दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कही। इस बार के रेडियो दिवस का ध्येय वाक्य है: सूचना, शिक्षा एवम मनोरंजन की रेडियो की एक शताब्दी। 

संचार और संवाद से दूरियां कम होती हैं, समझ बढ़ती है, एकता बनती है , विश्व शांति पनपती है और मानव समुदायों की तरक्की होती है। रेडियो तरंगें राष्ट्रीय सरहदों को नहीं मानती। अधिनायकवादी देशों में आज़ादी और मानवाधिकारों के संदेश ले जाती हैं और सोवियत संघ जैसे देश टूट जाते हैं, अरब राष्ट्रों में कई बादशाहों के सिंहासन डोलते हैं।

जन संचार के माध्यम के रूप में रेडियो ने विभिन्न देशों और क्षेत्रों में ऐसा ही बहुत कुछ पिछले 100 साल में करके दिखाया है।

नई तकनीक के साथ रेडियो का स्वरूप भी बदला है। अब यह सर्वव्यापी, सशक्त पर ऐसा सस्ता माध्यम है जो उस जगह भी काम आता है जहां टेलीविजन और सोशल मीडिया भी काम नहीं कर पाते।

जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के दौरान अपने अनुभव सांझा करते हुए अजीत सिंह ने बताया कि बिजली सप्लाई जैसी व्यवस्था बिगड़ जाने पर आम लोगों के पास जानकारी का एकमात्र साधन रेडियो ही रहता था जिसकी विश्वसनीयता पर उन्हें यकीन था। बाढ़ और युद्ध के समय भी रेडियो ही काम आता है जो अब स्मार्टफोन में भी चलता है।

खेलों का आंखों देखा हाल रेडियो से ही शुरू हुआ। कृषि क्रांति को बढ़ावा रेडियो ने दिया जब किसान हाइब्रिड बीजों को  रेडियो बीज कह कर ही पुकारते थे।

  1. विश्व रेडियो दिवस पर स्मृति चिन्ह ।
  2. ड्राइवर हरकिशन केंद्र निदेशक पवनकुमार को स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए।
  3. गोष्ठी में भाग लेने वाले चयनित श्रोता आकाशवाणी हिसार में।

श्रोता गोष्ठी में कुछ ऐसे लोगों को आमंत्रित किया गया था जो लंबे समय से रेडियो सुनते आ रहे हैं। इनमें से कुछ तो रेडियो के इतने दीवाने हैं कि रेडियो के बिना रह नहीं सकते। मुंबई और श्रीनगर तक 40 साल तक ट्रक चलाते रहे 66 वर्षीय हरिकिशन  ने कहा कि ड्राइवरों के लंबे एकांत में दिन रात के सफ़र का सहारा तो रेडियो ही होता है। आभार स्वरूप उन्होंने मुंबई, दिल्ली और हिसार के आकाशवाणी केंद्रों पर जाकर अपने हाथों से तैयार मोमेंटो उपहार भेंट किए।

लेखिका उर्मिला श्योकंद  ने कहा कि आकाशवाणी रोहतक के कार्यक्रम सुनकर वे इतनी प्रभावित थी कि वे रेडियो एनाउंसर बनना चाहती थी। शादी के बाद हिसार आने के कारण उनकी यह इच्छा अधूरी रही क्योंकि उस समय हिसार में आकाशवाणी का केंद्र नहीं था। पर बाद में यह इच्छा कुछ यूं पूरी हुई कि उनकी बेटी जनसंचार की डिग्री लेकर हिसार में कैजुअल एनाउंसर बन गई। उन्होंने रेडियो दिवस पर एक कविता भी सुनाई।

रेडियो के ही कर्मचारी राजीव शर्मा ने कहा कि रेडियो ने संगीत का अपार प्रसार कर इसे अमर कर दिया है । उन्होंने एक गीत भी पेश किया।

एक और श्रोता रमेश वर्मा ने कहा कि जो काम रेडियो के माध्यम से फिल्म संगीत के प्रसार का रेडियो सीलोन पर कभी अमीन सयानी करते थे, वही काम आज विविध भारती चैनल पर युनुस खान कर रहे हैं।

श्रोता सोनू का कहना था कि रेडियो किसानों के लिए स्थानीय भाषा में गागर में सागर भर कर जानकारी देता है।

उन्होंने कहा कि इंटरनेट के ज़रिए अब दुनिया के किसी भी रेडियो स्टेशन को कहीं भी सुना जा सकता है।

निहाल सिंह सैनी ने कहा कि रेडियो तो मन का रंगमंच, थिएटर ऑफ माइंड है, यह श्रोता की कल्पना शक्ति को उड़ान देता है।

उन्होंने कहा कि रेडियो का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि सैनिक या अन्य क्रांति के समय सत्ता हथियाने वाले सबसे पहले रेडियो स्टेशन पर कब्ज़ा करते हैं।

प्रगतिशील किसान दलबीर सिंह आर्य का कहना था कि हरित क्रांति का प्रसार रेडियो के माध्यम से हुआ और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।

आकाशवाणी हिसार के केंद्र निदेशक पवनकुमार ने कहा यह धारणा गलत है कि रेडियो के श्रोता कम हो रहे हैं। आकाशवाणी हिसार के फोन-इन जैसे कार्यक्रमों में श्रोताओं को नंबर ही नहीं मिल पाता। कुछ तो पक्षपात का आरोप लगाते हुए केंद्र तक पहुंच जाते हैं और हम उन्हे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने बताया कि हिसार केंद्र को ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य देशों से श्रोताओं के लगातार फोन आते हैं। श्रोता इतने दीवाने हैं कि उन्होंने रेडियो श्रोता क्लब बनाए हुए हैं। वे अपनी पत्रिकाएं निकालते हैं और वार्षिक सम्मेलन करते हैं।

व्हाट्सएप और ईमेल की सुविधा के कारण संपर्क आसान हो गया है। कुछ श्रोता इतने सजग हैं कि किसी कार्यक्रम में छोटी सी भी गलती पकड़ लेते हैं और उसकी शिकायत करते हैं। हम स्वीकार करते हुए उनका धन्यवाद करते हैं।

सभी ने रेडियो की पिछली शताब्दी पर बधाई दी और आगामी शताब्दी के लिए शुभ कामनाएं अर्पित की।

रेडियो की वरिष्ठ एनाउंसर ऋतु कौशिक ने श्रोता गोष्ठी का संचालन किया।

गोष्ठी में भाग लेने वाले सभी श्रोताओं को केंद्र निदेशक पवन कुमार ने स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #219 ☆ अनुभव और निर्णय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 219 ☆

अनुभव और निर्णय... ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 283 ⇒ प्रेम-पर्वत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम-पर्वत।)

?अभी अभी # 283 ⇒ प्रेम-पर्वत… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

प्रेम में अगर पर्वत जितनी ऊंचाइयां हैं, तो समंदर जितनी गहराइयां भी। मेरा प्यार है, इतना ऊँचा, जैसे राम रहीमा। कविता और प्यार का चोली-दामन का साथ है ! मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ, तेरे प्यार में ऐ कविता।

अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर एक कवि भी थे, इसलिए कॉमेडी और ट्रेजेडी दोनों लिख पाए ! अपनी कविता true love में वे कहते हैं ;

Let me not to the marriage of true minds,

Admit impediments.

बहुत से शायरों ने प्यार को जिस्म से ऊपर माना है।

तुम अगर भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की है।।

साहिर और अमृता प्रीतम का जितना बड़ा संसार सृजन और शायरी का है, उतना ही बड़ा संसार प्रेम का। विरह और मिलन, प्रेम के दो अलौकिक बिंदु हैं, जहाँ एक ओर अगर कृष्ण हैं, तो दूसरी ओर मीरा और राधा। मिलने की खुशी ना बिछड़ने का ग़म। सारे ये रिश्ते खो जाएँ।

मैं, मैं ना रहूँ, तू, तू ना रहे।

इक दूजे में खो जाएँ।

क्या खोना ही पाना है ?

तुझे खो दिया हमने पाने के बाद तेरी याद आए।

और याद भी कैसी !

याद में तेरी जाग जाग के हम,

रात भर करवटें बदलते हैं।

गुलज़ार तो प्यार को और कोई नाम ही नहीं देना चाहते।।

क्या धरती और क्या आकाश !सबको प्यार की प्यास। जब तक जीव और ब्रह्म अलग हैं, यह प्यार का सिलसिला चलता ही रहेगा। नदी सागर में मिलकर नदी नहीं रह जाती। सागर की लहरें फिर भी किनारे की ओर जाती हैं, और फिर लौट आती हैं। एक तड़प है प्यार में, कई अफ़साने हैं।

किसी से मिलन है, किसी से जुदाई। नये रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना, मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना। हाँ ! दीवाना हूँ मैं, ग़म का मारा हूँ मैं। माँगी खुशियाँ मगर, ग़म मिला प्यार में। आज कोई नहीं मेरा, इस संसार में।।

प्यार अगर बाँटने की चीज है, तो सहेजने की भी। प्रेम, इश्क, प्यार सबमें ढाई आखर ही हैं। हमें पंडित बनकर क्या करना। वफ़ा, बेवफ़ा तो ठीक है, बस आपस में नफ़रत पैदा न हो। किसे मालूम था कि राजनीति भी नफ़रत पैदा कर सकती है। इतने साल हम खुशहाल थे, क्योंकि हमारे दिलों में नफ़रत नहीं थी।

वे आए हैं, तोहफ़ों का टोकरा साथ लाए हैं। अपनों के लिए मोहब्बत है, परायों के लिए नफ़रत। फ़लसफा प्यार का तुम क्या जानो ! तुमने कभी प्यार ना किया। तुमने इंतज़ार ना किया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुरभित सुंदर सुखद सुमन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆

कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं, जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है। आजकल जिस तेजी से लोग दलबदल कर रहें हैं,ऐसा लगता है मानो वैचारिक मूल्यों का कोई मूल्य ही नहीं रह गया है।

कीचड़ में धसा हुआ व्यक्ति बहुत जोर लगाने पर भी ऊपर नहीं आ पाता है। दलदल में डुबकी लगाना कोई मज़ाक की बात नहीं है लेकिन बिना मेहनत सब पाने की चाहत रखने वाला बिना दिमाग़ लगाए कुछ भी करेगा। सब मिल जायेगा पर नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।

रोज – रोज का कलह आपको भटकने के लिए कई रास्ते देगा। जब जहाँ मन पड़े चल दीजिए, आपके समर्थक आपका पीछा करेंगे, यदि कोई अच्छी जगह दिखी तो कुछ वहीं रुक कर अपना आशियाना बना लेंगे। मिलने – बिछड़ने का यह सफर दिनोदिन अनोखे रंग में रंगने लगा है। शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप दृढ़संकल्प करें और जीत न सकें। तो बस, जो सही है वही करें; उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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