(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पुराने समय में गर्मी की छुट्टियों में यात्रा करना बड़ा कठिन कार्य होता था। ट्रेन की नब्बे दिन अग्रिम टिकट सुविधा का लाभ लेकर टिकट किसी गर्म कोट की जेब में संभाल कर रखने के चक्कर में पच्चीस प्रतिशत राशि से डुप्लीकेट टिकट खरीदने पड़े थे। क्योंकि कोट ड्राई क्लीन करने के लिए, बिना जेब टटोलने पर देने के कारण हमारे हाथ मोटे वाले सोट्टे से पिताश्री द्वारा तोड़ ही डाले गए थे।
आज तो किसी भी पल टैक्सी, हवाई यात्रा की व्यवस्था ऑन लाइन उपलब्ध हों गई हैं।बस पैसा फेंको और तमाशा देखो। जयपुर से सबसे पहले टैक्सी (एक तरफ शुल्क) से दिल्ली की रवानगी की गई। नब्बे के दशक डिलक्स बस में यात्रा करना अमीर परिवार के लोग करते थे या बैंक / सरकारी कर्मचारी प्रशासनिक कारण से यात्रा कर रहे होते थे। विगत दिनों टैक्सी यात्रा के समय बसों का कम दिखना और टैक्सियों का अधिक चलन को हमारी प्रगति का पैमाना भी माना जा सकता हैं।
करीब तीन सौ किलोमीटर के रास्ते में दोनों तरफ सौ से अधिक अच्छे बड़े होटल खुल चुके हैं। इन होटलों में खाने के अलावा अनेक दुकानें भी हैं। जहां पर कपड़े, ग्रह सज्जा और अन्य आवश्यकताओं का सामान उपलब्ध हैं। बच्चों के मुफ्त झूले इत्यादि भी राहगीर को आकर्षित करते हैं। कई होटलों में दरबान आपकी कार का दरवाज़ा खोल/ बंद करने के बाद बक्शीश की उम्मीद से रहता हैं। मुफ्त कार की सफाई भी राहगीर को वहां रुकने की इच्छा प्रबल कर देती हैं। टैक्सी ड्राइवर को मुफ्त भोजन देकर होटल वाले इस खर्चे को यात्री द्वारा खरीदे गए भोजन के बिल में ही तो जोड़ कर अपनी लागत निकाल लेते हैं। सभी व्यापार करने वाले इस प्रकार की रणनीति अपना कर ही सफल होते हैं।
हमारे टैक्सी चालक ने भी तीव्र गति से हमें दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय विमानतल पर समय पूर्व पहुंचा दिया। अब लेखनी बंद कर रहा हूँ, सुरक्षा जांच के बाद अगले भाग में मिलेंगे।
☆ ॥ गुरुनानक ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
भारतवर्ष अपनी दिव्यता के कारण देवभूमि के नाम से विख्यात है। प्रकृति ने जैसे यहाँ अपना अनुपम सौदर्य बिखेरा है वैसे ही यहाँ पर महान विभूतियों को समय-समय पर अवतीर्ण कर इसको धन्य किया है। इसी पावन भूमि को अनेकों धर्मांे का उद्ïगम स्थल होने का गौरव प्राप्त है। अपने उच्च आध्यात्मिक चिन्तन, आदर्श आचरण और स्नेहिल सरल जीवन पद्धति के कारण इसे विश्व में आज भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। महान मनीषियों, चिन्तकों, दार्शनिकों और भक्तों ने मानव जाति के कल्याण हेतु जो उपदेशामृत यहाँ उपलब्ध कराया है वह विश्व ज्ञान भण्डार की अमूल्य निधि है। सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म और उनकी विभिन्न शाखाओं का यहीं प्रादुर्भाव हुआ। सिक्ख धर्म के संस्थापक आदिपुरुष गुरुनानक भी यहीं ईसा की पन्द्रहवीं (15 अप्रैल 1469 को जन्म) शताब्दी में पैदा हुये थे। उनके धार्मिक उपदेश गुरुग्रंथसाहेब में संग्रहीत हैं।
गुरुनानन देेव ने प्रकृति के सौन्दर्य, विचित्रता और विधान में ही उस परमात्मा के दर्शन किये जो निराकार, अदृश्य और सर्वशक्तिमान है किन्तु समस्त विश्व का मालिक है। उसको उनने ‘मालिक’ कहा है और अपने को उसका शिष्य। इसीलिए उनकी मान्यतानुसार उनका धर्म सिक्ख (शिष्य) है। परमात्मा को ‘अकालपुरुष’ या ‘ओंकार’ नाम से बखाना है और ‘ऊँ’ संकेत से माना है। नानकदेव जी, सत्य, सदाचार सद्ïभाव और शक्ति के उपासक थे और तत्कालीन समाज में प्रचलित अंधविश्वासों, रूढिय़ों और बुराइयों का विरोध कर उन्होंने उन्हें त्यागने के उपदेश दिए है। उन्होंने सनातन धर्म के सार तत्वों को अपना कर ”वाहे गुरु’’ की प्रतिष्ठा की। वाहे गुरु सर्वव्यापक और कण-कण में विद्यमान तत्व है। समाज की सुख-शांति के लिए उन्होंने मनुष्य को सरलता, समानता और निश्छल व्यवहार करने और पाखण्ड से दूर रहने का रास्ता अपनाने को कहा। बुराई का विरोध और अच्छाई की वकालत की नीति अपनाने का संदेश दिया।
गुरुनानक ने विदेशों की भी यात्रायें की थीं। एक बार वे मक्का में ‘काबा’ की ओर पैर करके सो रहे थे। लोगों को इस पर आपत्ति होने पर उन्होंने कहा-”जहाँ अल्लाह न हो वहाँ मेरे पैर कर दीजिये।’’ कहते हैं जिस तरफ भी उनके पैर घुमाये गये ‘काबा’ को भी लोगों ने उसी ओर घूमते देखा। यह उनकी भावना और ईश्वर की उन पर कृपा का उदाहरण है। ईश्वर तो भावना को महत्व देते हैं आडम्बर को नहीं यह नानक जी का मान्य सिद्धान्त है।
अन्य घटना बगदाद की है। बगदाद का शासक अत्यन्त अत्याचारी और दुष्ट था। अनाचार से उसने लोगों की धन सम्पत्ति छीनकर इक ट्ïठी कर ली थी। देश की जनता दु:खी थी। शासक के व्यवहार से लोग त्रस्त थे। नानक जी को यह मालूम होने पर उन्होंने जनता को राजा के दुव्र्यवहार से बचाने और सम्राट को सीख देने के लिए एक मौन आयोजन किया। राजमहल के दरवाजे के पास बहुत से कंकड़ों का ढेर इकट्ïठा कर वहीं बैठे रहे। जब सम्राट को इसकी खबर मिली तो वह क्रोधित हो वहाँ आया और बोला-”ये कंकड़ इकट्ïठे कर यहाँ क्यों बैठे हो ?’’ नानक जी ने कहा ”मैंने ये सब कयामत के दिन जरूरत के माफिक पेश करने के लिए रखे हैं।’’ सुनकर सम्राट ने उपहास करते हुए कहा-”उस दिन तो कोई सुई धागा भी साथ नहीं ले जा सकता।’’ सम्राट के मन की बात सुनकर नानक देव ने कहा-”आपने लोगों से लूटकर जो सम्पत्ति इकट्ïठी की है वह तो ले जाई जा सकेगी इसीलिए इस महल के पास मैंने ये इकट्ïठा किया है।’’ नानक जी की व्यंगवाणी से आहत सम्राट ने उनके आशय को समझ लिया और अत्याचार से संपत्ति को संग्रह करना छोड़ दिया।
गुरु नानक देव ने संत कबीर की ही भाँति सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों का त्याग कर सरल चित्त से ईश्वर की उपासना को महत्व दिया है।
☆ ॥ विचार का महत्व ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
ऐसा शायद ही कोई हो जिसके मन में कोई विचार न उठते हों। हमेशा ही हर एक के मन में विचार आते रहते हैं। अगर कुछ अन्य नहीं तो यह ही कि आराम और सुख पाने को क्या किया जाय। जीवन में विचारों का बड़ा महत्व है। विचार ही सृजन के आधार है। जब तक कोई विचार उत्पन्न नहीं होता, तब तक व्यक्ति कोई क्रिया नहीं करता। और यदि क्रिया न हो तो कोई निर्माण नहीं हो सकता। किसी भी उदाहरण से इसे सरलता से समझा जा सकता है। विचार ही कार्य हेतु प्रेरक होता है। यदि बादशाह शाहजहाँ को अपनी पत्नी मुमताजमहल के लिए अप्रत्तिम सुन्दर मकबरा बनवाने का विचार न आया होता तो विश्वप्रसिद्ध ताजमहल जिसे देखने की लालसा संसार के हर भाग में चाहे वह कहीं भी रहता हेा व्यक्ति को बनी रहती है, न बना होता।
हर कृति, हर निर्माण, हर उपलब्धि के लिए पहले विचार आवश्यक है। परन्तु जीवन में सामान्यत: विचारों को उचित महत्व नहीं दिया जाता। कई विचार उठते हैं और समाप्त हो जाते हैं और हमेशा के लिए खो जाते हैं। प्रक्रिया आगे बढऩे नहीं पाती। मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की लहरियाँ उसी तरह खेलती हैं जैसे समुद्र में जलोर्मियाँ। बहुत सी लहरें तट तक आती और उसे छूकर गीला कर समाप्त हो जाती है। किन्तु कुछ लहरें इतनी प्रबल होती है कि वे तट पर स्थित चट्ïटानों और बस्तियों को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं। यही बात निरन्तर उठने वाले विचारों पर भी लागू होती हैं। कुछ तो कमजोर होते हैं पर कुछ इतने प्रबल होते हैं कि उनका प्रभाव मानव चेतना पर पड़ता है। ऐसे अनेकों महापुरुष, समय-समय पर इस धराधाम में आये जिनके विचारों ने जनजीवन में भारी परिवर्तन लाया है। ऐसे महान व्यक्ति धार्मिक, सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक सभी क्षेत्रों में हुए हैं। महात्मा बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मौहम्मद पैगम्बर, कबीर, तुलसीदास, कार्ल माक्र्स, महात्मा गांधी, इत्यादि उन्हीं महानों में से कुछ हैं जिनके विचारों ने मानव समाज को संपूर्ण विश्व में एक नई दिशा और नई दृष्टिï दे, नई जीवनी शक्ति दी है। इनके विचारों ने अनुपम साहित्य का सृजन किया है। इसी से विचारब्रह्म या शब्दब्रह्म की परिकल्पना की गई है। जो सतï्-चितï् आनन्द का पर्याय है। सदï्विचार ही जीवन के नव निर्माता पोषक प्रकाशदाता तथा अमरता देनेवाले होते हैं। इसी से हमारी वैदिक संस्कृति का उदï्घोष है- ‘असतो मा सदï्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतगमय।’
जो जैसा सोचता-विचारता है, वैसा ही बन जाता है। इसीलिये सभी के लिये सही सोच सही विचार या सही चिन्तन परम आवश्यक है। एक के विचार अनेकों पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। माता-पिता के विचार संतान पर, शिक्षक के छात्रों पर, अधिकारी के अपने अधीनस्थों पर तथा नेताओं के समाज पर व अनुयायियों पर निश्चित असर डालते हैं। कहावत है-”यथा राजा तथा प्रजा’’। इसीलिये सुविचारवान, विवेक शील शिक्षक को राष्टï्र निर्माता कहा गया है क्योंकि अपने शिक्षकीय जीवनकाल में वह अपने विचारों और व्यवहारों या चरित्र से बहुत बड़ी संख्या में अपने छात्रों को जो देश के भावी नागरिक होते हैं, प्रभावित करता है।
अपने उच्च आदर्श, गंभीर चिन्तन और आध्यात्मिक सोच के कारण ही भारत को विश्व में अनुकरणीय धर्मगुरु का सम्मान प्राप्त है।
सही विचारों पर ध्यान केन्द्रित करना सबके कल्याण की कामना कर चिन्तन करना एक आह्लादकारी प्रक्रिया है। यह मन और जीवन को पावनता प्रदान करने का उत्तम साधन है। सद्ïविचार और सदाचार धन से अधिक मूल्यवान है। यह एक सुखद जनहितकारी मंगल अनुष्ठान है। आत्मोत्कर्ष और मानव कल्याण हित सद्ïविचारों की उत्पत्ति वैसी ही आवश्यक और महात्वपूर्ण है जैसे जीवन रक्षा के लिये कृषि द्वारा अन्नोत्पादन।-
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है- ☆
लगभग पंद्रह दिन पहले हमारे शहर में पानी कटौती की घोषणा की गई थी। चार बांधों की कुल क्षमता उनत्तीस टीएमसी है। जुलाई के आरंभ तक केवल अढ़ाई टीएमसी पानी ही शेष बचा था। शहर आतुरता से मानसून की बाट जोह रहा था। कटौती आरम्भ हुई। बमुश्किल दो या तीन बार ही कटौती अमल में लाई जा सकी। इस बीच वर्षा ने शहर में मानो अपना डेरा ही डाल लिया। सूखा शहर आकंठ डूब गया पानी की अमृत बूँदों में। पिछले बारह दिनों में बारह टीएमसी पानी बांधों में जमा हो चुका। मूसलाधार वर्षा ने बांधों का चालीस प्रतिशत कोटा बारह दिनों में ही पूरा कर दिया। यह तब है जब मनुष्य पिछले कुछ दशकों से हरियाली पर निरंतर धावा बोल रहा है। खेती की ज़मीन बिल्डरों के हवाले कर रहा है, पेड़ काट रहा है, काँक्रीट के जंगल बना रहा है। डामर और सीमेंट की चौड़ी सड़कों, प्लास्टिक वेस्ट, ई-कचरा, कार्बन उत्सर्जन से प्रकृति की श्वासनली बंद करने का प्रयास कर रहा है।
पानी की निकासी और धरती में समाने के प्राकृतिक मार्ग अनेक स्थानों पर हमने बंद कर दिये हैं। हम प्रकृति को प्यासा मार रहे हैं और प्रकृति हमारे लिए जगह-जगह बारहमासी प्याऊ लगाने में जुटी है।
प्रकृति चराचर की माँ है। माँ सदैव दाता ही रहती है। सुमित्रानंदन पंत जी की सुप्रसिद्ध कविता ‘यह धरती कितना देती है’ स्मरण हो आती है। इस लम्बी कविता की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ देखिए-
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे….
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला…!
मैंने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे….!
देखा आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं…!
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ
हरे भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे
बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा..!
यह धरती कितना देती है…! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को…!
सोचता हूँ प्रकृति कितना देती है। अपनी स्वार्थलोलुपता में प्रकृति के मूल पर चोट कर मनुष्य, मौसमी असंतुलन का शिकार हो रहा है। सनद रहे, इस असंतुलन से संतुलन की ओर लौटने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ दान का सुसंस्कार ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
एक सद्गृहस्थ थे। बड़ी सादगी से संयमित जीवन बिता रहे थे। अपने परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत थे। सबकों सदाचार की प्रेरणा देते थे। नीति पूर्वक अपनी आजीविका कमाते थे और संतोष पूर्वक रहते थे। जितना परोपकार बन सकता था करते रहते। अपने धन और समय का यथा संभव परमार्थ में नियोजन करते और आत्म शांति का अनुभव करते थे। शांति की साधना के लिए पारंपरिक रूप से वे वन तो नहीं गये वरन तपोवन की सी शांति उन्हें उनके घर में ही उपलब्ध हो गई। उनकी ऐसी योग साधना से देवता बड़े प्रसन्न हुये। एक दिन देवराज इंन्द्र ने प्रकट होकर उस विरक्त गृहस्थ से अपनी प्रसन्नता दिखाते हुए वरदान माँगने को कहा।
सरल और संतुष्ट गृहस्थ के सामने बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। आखिर जिसे कुछ नहीं चाहिए वह क्या माँगे ? जिसका मन निश्छल है और जिसे संतोष प्राप्त है उसके सामने तो विश्व की सारी संपदा भी धूल के समान तुच्छ होती है।
कहा है-
गोधन, गजधन, वाजि धन और रतन धन खान,
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
वरदान माँगने की इच्छा न होते हुए भी उसने इसलिए कि कही देवराज को बुरा न लगे और वरदान न माँगने को कहीं वे अपना अपमान न समझ ले उसने बड़े सोच विचार से विनम्रता पूर्वक वरदान माँगा। वरदान में गृहस्थ ने देव राज से यह वरदान देने के प्रार्थना की कि जहाँ भी उसकी छाया पड़े वहाँ पर कल्याण की वर्षा हो। ऐसे अनोखे वरदान माँगने वाले गृहस्थ को ‘तथास्तु’ कह कर उसका मुँह माँगा वरदान तो दिया किन्तु आश्चर्य और उत्सुकता से उसके द्वारा ऐसे वरदान माँगने का अभिप्राय जानना चाहा। उन्होंने उससे कहा कि किसी को हाथ उठाकर या उसके सिर पर हाथ रखकर कृपा करने से तो आनंद मिलता है, दूसरे पर उपकार भी किया जा सकता है प्रशंसा भी पाई जा सकती है और आभार भी किन्तु छाया के पडऩे पर कल्याण देने पर तो लेने वाला देने वाले से और देने वाला लेने वाले से पूर्णत: अपरिचत बने रहेंगे। आप किसका कल्याण कर रहे आपको मालूम भी न रहेगा।
सद्गृहस्थ ने विनम्रता से कहा-‘भगवन्ï सच्चा दान तो वही है जो औरों का कल्याण करे परन्तु दाता को यह भी ज्ञान न हो कि कल्याण किस व्यक्ति विशेष का हुआ। केवल परहित की भावना से दान उपकार करे तो वह दाता के लिये भी हितकारी है और जिसका कल्याण होता है उसको भी। दाता को देने का अभिमान भी नहीं होता और उसके निश्चित क्रिया-कलापों में दैनिक जीवन में कोई व्यवधान भी नहीं होता। ‘
दान का यही रूप पवित्र और महान है तथा दाता को महामानव की श्रेणी में पहुँचाता है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम
प्रेम केवल मनुष्य नहीं अपितु सजीव सृष्टि का शाश्वत और उदात्त मूल्य है। इस उदात्तता के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। उदात्त प्रेम के इस रूप को प्राचीन भारत में मान्यता थी। विवाह के आठ प्रकारों की स्वीकार्यता इस मान्यता की एक कड़ी रही।
कालांतर में लगभग एक हज़ार साल के विदेशी शासन ने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी उलटफेर किया। इस उलटफेर ने वर्ग और वर्ण के बीच संघर्ष उत्पन्न किया। इसके चलते प्रेम की अनुभूति तो शाश्वत रही पर सामाजिक चौखट के चलते अभिव्यक्ति दबी- छिपी और मूक होने लगी।
1931 में आया पहला बोलता सिनेमा ‘आलमआरा’ और मानो इस मूक अभिव्यक्ति को स्वर मिल गया। यह स्वर था गीतों का।
अधिकांश फिल्मों की कहानी का केंद्र नायक, नायिका और उनका प्रेम बना। यह प्रेम फिल्मी गीतों के बोलों में बहने लगा। ख़ासतौर पर 50 से 70 के दशक के गीतों की समष्टि में व्यक्ति को अपनी भावना की अभिव्यक्ति मिलने लगी। कुछ ऐसी अभिव्यक्ति जैसी ‘उबूंटू’ के भाव में है। समष्टि के लिए रचे गीत वह गा सकता था, गुनगुना सकता था/ थी, जिनमें निगाहें कहीं थीं और निशाना कहीं था। इन प्रेमगीतों ने भारतीय समाज को मन के विरेचन के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म दिया।
गीतकारों ने गीत भी ऐसे रचे जिसमें प्रेम अपने मौलिक रूप में याने उदात्त भाव में विराजमान था। प्रेम को विदेह करती यह बानगी देखिए, ‘दर्पण जब तुम्हें डराने लगे, जवानी भी तुमसे दामन छुड़ाने लगे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए..।’
स्थूल को सूक्ष्म का प्रतीक मानने की यह अनन्य दृष्टि देखिए, ‘तुझे देखकर जग वाले पर यकीन क्योंकर नहीं होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा…/ अंग-अंग तेरा रस की गंगा, रूप का वो सागर होगा..।’
प्रेम के मखमली भावों की शालीन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का यह ग़जब देखिए, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात ज़रा सी।’ श्रृंगार भी शालीनता से ही अलंकृत रहा,’ मन की प्यास मेरे मन से न निकली, ऐसे तड़पूँ हूँ जैसे जल बिन मछली।’
प्रीत की उलट रीत कुछ यों अभिव्यक्त हुई है, ‘दिल अपना और प्रीत पराई, किसने है यह रीत बनाई..।’ इस रीत के रहस्य को छिपाये रखने का भी अपना अलग ही अंदाज़ है, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाके चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई..।’ प्रेयसी के अधरों तक पहुँचे शब्दों में ‘अ-क्षरा’ भाव तो सुनते ही बनता है, ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो..।’ होठों की बात कहने के लिए मीत को बुलाना और मीत को सामने पाकर आँख चुराना दिलकश है, साथ ही अपनी बीमारी के प्रति अनजान बनना तो क़ातिल ही है, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ../ तुम्हीं को दिल का राज़ बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ,…हमें क्या हो गया है..!’
चाहत अबाध है, ‘चाहूँगा तुझे सांझ सवेरे’.., चाहत में साथ की साध है, ‘तेरा मेरा साथ रहे..’ चाहत में होने से नहीं, मानने से जुदाई है,’जुदा तो वो हैं खोट जिनकी चाह में है..।’ अपने साथी में अपनी दुनिया निहारता है आदमी, ‘तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो’ पर गीत दुनियावी आदमी को दुनिया की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है, ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसीके लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’
उदात्त प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका तक सीमित नहीं रहता। इसके घेरे में सारे रिश्ते और सारी संवेदनाएँ आती हैं। देश के प्रति निष्ठा हो, भाई- बहन का सहोदर भाव हो या पिता से परोक्ष बंधी पुत्री की गर्भनाल हो.., गीतों में सब अभिव्यक्त होता है। कलेजे के टुकड़े को विदा करती पिता की यह पीर साहिर लुधियानवी की कलम से निकल कर रफी साहब के कंठ में उतरती है और सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होकर अमर हो जाती है, ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले/ मैके की ना कभी याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले..।’ उदात्त में पराकाष्ठा समाहित है तब भी इसी गीत में उदात्त की पराकाष्ठा भी हो सकती है, इसका प्रमाण छलकता है, ‘..उस द्वार से भी दुख दूर रहे, जिस द्वार से तेरा द्वार मिले..।’
गीत बहते हैं। गीतों में प्यार की लय होती है। प्यार भी बहता है। प्यार में नूर की बूँद होती है,..’ ना ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं/ नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है।’
उदात्त प्रेम ऐसा ही होता है, फिर वह चाहे फिल्मी गीतों के माध्यम से मुखर होकर गाए या भीतर ही भीतर अपना मौन गुनगुनाए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ ॥ प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
हर दिन सबेरे अखबारों, रेडियो और टी. व्ही. से ऐसे समाचार पढऩे और सुनने को मिलते हैं जो मन को पीड़ा अधिक देते हैं खुशियाँ कम। कोई न कोई दुखद घटना जो मानवता के जिस्म पर घाव करती है और समाज के चेहरे पर काला दाग लगाती है, रोज इस विश्व में कहीं न कहीं घटती नजर आती है। धर्म और सदाचार पर ये तेजाब सा छिडक़ जाती हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? कारण तो अनेक होते हैं परन्तु गहराई से विचार करने पर इन सबका मूल कारण मनुष्य में स्वार्थ और द्वेष भाव की बढ़त और प्रेमभाव की कमी मालूम होती है।
आदिम मानव ने हजारों वर्षांे में धीरे-धीरे क्रमिक विकास से सुख-शांति और अपनी आगे उन्नति करने के लिये जिस प्रेम भावना और आपसी सद्ïभाव को पल्लवित किया है उसी की छाया में उसने जनतांत्रिक शासन प्रणाली को प्राचीन राजतंत्र या ताना शाही की बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकने के लिए, प्रतिष्ठित किया है। आज विश्व के अधिकांश देशों में जनतांत्रिक शासन पद्धति ही प्रचलित है जिसके मूलाधार हैं-(1) स्वतंत्रता, (2) समता, (3) बन्धुता और (4) न्याय। किन्तु पिछले अनुभवों से ऐसा लग रहा है कि यह प्रणाली भी अपने वाञ्छित परिणाम दे सकने में असफल रही है। कारण है मनुष्य का स्वार्थ और न समझी। उसकी कथनी और करनी में भारी अन्तर है। लगता है उसने जनतंत्र के मूल भूत आधारों को समझा ही नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वन्छंदता नहीं है और न समता का अर्थ एकरूपता। इसी प्रकार बन्धुता का आशय सबल के द्वारा निर्बल का शोषण नहीं और न्याय का मतलब अपना निर्णय औरों पर थोपना नहीं हैं जैसा कि प्राय: हर क्षेत्र में देखा जा रहा है। यदि सिद्धान्तों की व्याख्या ही सही नहीं की जायेगी और उन पर सही आचरण न होगा तो सही परिणाम कैसे मिलेंगे ? आज यही हो रहा है। इसीलिए सदाचार की जगह दुराचार बढ़ता जा रहा है। राजनीति जिसे धर्मनीति से अनुप्रमाणित होना चाहिए उल्टे धर्मनीति की विरोधी बन उसे रौंद रही है। धर्म निरपेक्षता जिसका अर्थ वास्तव में सर्वधर्म सद्ïभाव है अपने वास्तविक अर्थ को खोकर विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सद्ïभाव को पुष्ट करने के बदले टकराव का कारण बन गई है। दुनियाँ का हर धर्म मानव कल्याण के लिए है और जीवन में सुख-शांति के लिये प्रेम और सह अस्तित्व की ही शिक्षा देता है। सहानुभूति और सदाचार ही सिखाता है परन्तु स्वार्थ के जुनून में अज्ञानी मनुष्य को हर जगह केवल धन और भौतिक सुख साधनों में ही आकर्षण दिखाई दे रहा है। व्यक्ति का व्यवहार आज अर्थ केन्द्रित या धन केन्द्रित हो गया हैं धर्म केन्द्रित या अध्यात्म केन्द्रित नहीं रहा है। यही आज की त्रासदी का मूल कारण है। उसका लालच ही उससे अनैतिक कार्य करा रहा है जिससे अपराध बढ़ रहे हैं और हाहाकार मचा है।
भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये हैं जो क्रमिक रूप से हैं -(1) धर्म, (2) अर्थ, (3) काम और (4) अंतिम मोक्ष। जीवन में इनकी प्राप्ति के लिए साधना भी इसी क्रम से की जानी चाहिए जिससे जीवन का समाज में सही विकास हो और सुख-शांति बनी रहे, किन्तु आज अर्थ और काम का ही वर्चस्व दिख रहा है धर्म और मोक्ष की ओर तो कोई देखना भी नहीं चाहता इसी से सारी विसंगतियाँ है और मानव जीवन हर दिन दुख के गर्त में गिरता जा रहा है तथा विश्व अशांत है।
हितकर और सुखद वातावरण के निर्माण के लिये प्रेम और सदाचरण की आवश्यकता है जो मन और बुद्धि के संतुलित समुचित परिपोषण से ही संभव है। इस हेतु प्रयास किये जाने चाहिये।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 141 ☆
☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆
‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’ कबीरदास जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है,निराकार है और उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार उत्पन्न करते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर एक-दूसरे का दुश्मन भी बना देते हैं।
सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी,तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे,कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं,अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल,फिर बोल’ की सीख दी गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते,आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित,असंयमित व अशोभनीय भाषा का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग आजकल टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते,क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल,अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।
‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाय’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, कि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है,वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है,उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना,काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं,क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।
अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं,जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है तो वह सम्मान का कारक बनती है,अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं,विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।
जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या,बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव,छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी,बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है,जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण,फ़िरौती,दुष्कर्म,हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं। लॉकडाउन में घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना,पत्नी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाना,परिवाजनों से मान-मनुहार करना पुरुष मानसिकता के अनुरूप उसे रास नहीं आया,जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा,ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।
☆ ॥ विभाजन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
एक देश के विभाजन के समय विभाजन की रेखा एक पागल खाने के बीच से निकलती थी। दोनों देश के अधिकारियों ने पागलों की जिम्मेदारी लेने में आनाकानी की क्योंकि पागलों से उनकी परेशानी बढ़ सकती थी और रोज का सुख-चैन नष्ट हो सकने की संभावना थी। प्रकरण को निपटाने के लिए तय हुआ कि क्यों न संबंधित पागलों की राय ले ली जाय कि कौन किस देश में रहना चाहता है।
अधिकारियों ने पागलों से कहा-”देखो, देश का बँटवारा होना है। आप इस देश में रहना चाहते हो या उसमें’‘
पागलों ने कहा-”हम गरीबों का पागलखाना भला क्यों बाँटा जा रहा है ? हमने ऐसी क्या गलती की है जो हमें सजा दी जा रही है। हम तो सब लोग एक साथ रहते हैं। सब एक से हैं। कोई मतभेद नहीं है। हम सबके साथ रहने में आपको क्या आपत्ति है ?’‘
अधिकारियों ने कहा-”आपको कहीं जाना नहीं है। रहना वहीं है जहाँ रह रहे हो। सिर्फ इतना बताना है कि तुम किस देश में जाना चाहते हो- यहाँ या वहाँ। कहाँ रहना चाहते हो इसमें या उसमें ?’‘
पागलों ने कहा-”भला ये भी कोई बात है। हमें जब कही जाना ही नहीं है, रहना यही है तो बँटवारे की बात पागलपन नहीं है ? ऐसा भी भला कोई बँटवारा है ? हम तो यूँ ही अच्छे है। ‘‘
अधिकारियों को लगा कि वे मुश्किल में फँस गये। पागलों से कौन माथापच्ची करे। पागल खाने के बीच से विभाजन रेखा पर एक दीवार उठवा दी जाये, बस झंझट दूर हो। ऐसा ही कर दिया गया।
दीवार बन जाने पर पागल कभी उस पर चढ़ कर झाँकते और दूसरों से कहते-”इन समझदार लोगों ने ये क्या बँटवारा किया है ? न हम कहीं गये न तुम। इस दीवार ने हमारा मिलना-जुलना, हँसना-बोलना बंद करा दिया। ऐसा करने से इन्हें क्या मिला ?’‘
एक पागल चिल्ला उठा-”अरे जिनने ये दीवर उठवाई है वे पागल हैं। उन्होंने देश को कहाँ बाँटा देश तो जहाँ के तहाँ है। उन्होंने तो दिलों को बाँटने की कोशिश की है। उनसे तो हम अच्छे हैं जो एक दूसरे के दिल को समझते हैं। मगर अब हमें अलग खानों में बंद कर दिया गया है।’‘
जब-जब आदमी पर मूर्खता का जुनून सवार होता है तब तब वह जन समुदाय को यों ही रंग, जाति, वेश, भाषा, प्रदेश और धर्मों के या ऐसे ही किन्हीं अन्य के घेरों में बंद कर उन्हें विभाजित करता आया है-शायद केवल अपने ही किसी स्वार्थ के लिए, जो नई तबाही लाता है और उसकी भर नहीं सब समाज की सारी खुशी और सुख शांति नष्ट कर देता हैं।
हर विभाजन संपत्ति को घटाता और विपत्ति को बढ़ाता है।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “व्यास पूर्णिमा ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख से सीखें और सिखाएं # 108 ☆
☆ व्यास पूर्णिमा☆
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थात् महान गुरु को अभिवादन, जिन्होंने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और निर्जीव में।
इस बात पर सभी एकमत हैं कि जिससे भी ज्ञान मिले वो हमारा गुरु कहलाता है। किंतु क्या ऐसा कहना सही होगा। ज्ञान तो वक्त के साथ – साथ कड़वे अनुभवों से मिलता है। हर पल कहीं न कहीं से कुछ न कुछ हम सीखते रहते हैं। किंतु वास्तव में इन सबको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। गुरु बिनु ज्ञान न होय। कोई भी सच्चा ज्ञानी तभी हो सकता है जब उसके मन का अंधकार दूर होकर उसकी अंतरात्मा प्रकाशित हो उठे। और ऐसा केवल सच्चा मार्गदर्शक ही कर सकता है।
जहाँ जाने से मन को सुकून मिले और ऐसा लगने लगे कि अब जीवन को जानने व समझने की खोज खत्म हो गयी है वहीं पर विश्राम करते हुए ध्यानस्थ हो जाना चाहिए। जितने भी संत महात्मा हुए हैं वे सभी इसी तरह शांत- चित्त से समाज में रहते हुए भी परमात्मा के साथ एकीकार हो गए हैं।
व्यास पूर्णिमा यही संदेश सदियों से जनमानस को देती हुई चली आ रही है। हमारा सनातन धर्म पूर्णतया वैज्ञानिक मापदंडों पर खरा उतरता है। ॐ में सम्पूर्ण सृष्टि को समाहित करते हुए जब कोई मंत्र बोला जाता है तब वो स्वयं सिद्ध होकर जनमानस के ऊर्जान्वित करता है।
चौमासे की शुरुआत से ही पूजा पाठ का जो दौर शुरू होता है वो देवउठनी एकादशी पर पूर्णता को प्राप्त करता है। प्रकाश का जीवन में आगमन ही अंधकार का अंत होता है। इसे श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य से ही पाया जा सकता है।
आइए विचारों की समस्त उथल- पुथल को गुरु को सौंप कर राष्ट्रहित में कुछ अच्छा करें कुछ सच्चा करें।