(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 129 ☆ देश-परदेश – सड़क संगीत ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सड़क पर यातायात रोक कर कई स्थानों पर संगीत की महफिलें सजाई जाती हैं। अभी विवाह का सीजन भी चल रहा है, बैंड वादक सड़कों पर नागिन, भांगड़ा, ट्विस्ट और लोक संगीत की धुनें खूब बजती हैं।
उपरोक्त समाचार पढ़ा तो मन अत्यंत प्रसन्न हुआ, कि अब कान फाड़ू, तीखे और प्रैशर हॉर्न नहीं बजेंगे। उसके स्थान पर अब बांसुरी, तबला, वीणा और हारमोनियम जैसे भारतीय वाद्य यंत्रों की धुनों वाले हॉर्न बजेंगे।
कितना अच्छा समय होगा, आप को जब संगीत सुनने का मन कर रहा हो, किसी भी लाल बत्ती के पास किनारे पर खड़े होकर संगीत का लाभ ले सकते हैं। हम तो विचार कर रहें है, कि अपना निवास किसी हाइवे के पास ले लेवें। अभी नई योजना है, बाद में तो हाइवे के आसपास के घरों की कीमत बेहतशा बढ़ जाएगी।
आप कल्पना कीजिए सड़क पर एक गाड़ी तबला बजा रही है, तो दूसरी हारमोनियम क्या जुगलबंदी का माहौल बन जाएगा।
घर के बाहर जब कोई वीणा की आवाज सुनाई देगी या दूसरी कोई वाद्य यंत्र की आवाज ही उसकी पहचान बन जाएगी। हम बच्चों को बता सकेंगे कि तुम्हारा बांसुरी वाला दोस्त आया था या तबले वाली कुलीग आई थी। मोहल्ले में लोग आपके बच्चों के वाहन में लगे हुए वाद्य यंत्र के हॉर्न से पहचाने जाएंगे। हारमोनियम वाले का बाप या तबलची की अम्मा इत्यादि।
हमारे मोबाइल की ट्यून कब भारतीय वाद्य यंत्रों पर आधारित होगी, इंतजार हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल…“।)
अभी अभी # 668 ⇒ पेन पेंसिल श्री प्रदीप शर्मा
जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।
हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।
न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते, आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।
ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक, अ अनार का, A, एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक, दो, तीन, चार, लो भैया बन गया होशियार।
तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई। ।
लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता, तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।
पेम से ढाई आखर सीखने के बाद, हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।
तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा, जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।
हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।
पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो, पेन की धार देखो।
Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी। ।
आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था, खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,
जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए, मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।
पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है। Only Signatories become Dignitaries.
आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए, ईको फ्रेंडली हो गए, कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।
अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम, काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।
जीवन में थोड़ा नर्सरी, के.जी. भी हो जाए। पट्टी के साथ पहाड़ा भी हो जाए ..!!
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 286 ☆ संवेदनशून्यता…
22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में आतंकियों ने 28 निहत्थे लोगों की नृशंस हत्या कर दी। इस अमानुषी कृत्य के विरुद्ध देश भर में रोष की लहर है। भारत सरकार ने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को घेरना शुरू कर दिया है। तय है कि शत्रु को सामरिक दंड भी भुगतना पड़ेगा।
आज का हमारा चिंतन इस हमले के संदर्भ में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर हमारी सामुदायिक चेतना को लेकर है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी अभिव्यक्ति / उपलब्धियों / रचनाओं को साझा करने का सशक्त एवं प्रभावी माध्यम हैं। सामान्य स्थितियों में सृजन को पाठकों तक पहुँचाने, स्वयं को वैचारिक रूप से अभिव्यक्त करने, अपने बारे में जानकारी देने की मूलभूत व प्राकृतिक मानवीय इच्छा को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है।
यहाँ प्रश्न हमले के बाद से अगले दो-तीन दिन की अवधि में प्रेषित की गईं पोस्ट़ों को लेकर है। स्थूल रूप से तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर देखने को मिलीं। पहले वर्ग में वे लोग थे, जो इन हमलों से बेहद उद्वेलित थे और तुरंत कार्यवाही की मांग कर रहे थे। दूसरा वर्ग हमले के विभिन्न आयामों के पक्ष या विरोध में चर्चा करने वालों का था। इन दोनों वर्गों की वैचारिकता से सहमति या असहमति हो सकती है पर उनकी चर्चा / बहस/ विचार के केंद्र में हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं सुरक्षा पर हुआ यह आघात था।
एक तीसरा वर्ग भी इस अवधि में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय था। बड़ी संख्या में उनकी ऐसी पोस्ट देखने को मिलीं जिन्हें इस जघन्य कांड से कोई लेना-देना नहीं था। इनमें विभिन्न विधाओं की रचनाएँ थीं। इनके विषय- सौंदर्य, प्रेम, मिलन, बिछोह से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक आदि थे। हास्य-व्यंग के लेख भी डाले जाते रहे। यह वर्ग वीडियो और रील्स का महासागर भी उँड़ेलता रहा। घूमने- फिरने से लेकर हनीमून तक की तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर की जाती रहीं।
यह वर्ग ही आज हमारे चिंतन के केंद्र में है। ऐसा नहीं है कि किसी दुखद घटना के बाद हर्ष के प्रसंग रुक जाते हैं। तब भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि मोहल्ले में एक मृत्यु हो जाने पर मंदिर का घंटा भी बांध दिया जाता है। किसी शुभ प्रसंग वाले दिन ही निकटतम परिजन का देहांत हो जाने पर भी यद्यपि मुहूर्त टाला नहीं जाता, पर शोक की एक अनुभूति पूरे परिदृश्य को घेर अवश्य लेती है। पड़ोस के घर में मृत्यु हो जाने पर बारात में बैंड-बाजा नहीं बजाया जाता था। कभी मृत्यु पर मोहल्ले भर में चूल्हा नहीं जलता था। आज मृत्यु भी संबंधित फ्लैट तक की सीमित रह गई है। राष्ट्रीय शोक को सम्बंधित परिवारों तक सीमित मान लेने की वृत्ति गंभीर प्रश्न खड़े करती है।
इस वृत्ति को किसी कौवे की मृत्यु पर काग-समूह के रुदन की सामूहिक काँव-काँव सुननी चाहिए। सड़क पार करते समय किसी कुत्ते को किसी वाहन द्वारा चोटिल कर दिए जाने पर आसपास के कुत्तों का वाहन चालकों के विरुद्ध व्यक्त होता भीषण आक्रोश सुनना चाहिए।
हमें पढ़ाया गया था, “मैन इज़ अ सोशल एनिमल।” आदमी के व्यवहार से गायब होता यह ‘सोशल’ उसे एनिमल तक सीमित कर रहा है। संभव है कि उसने सोशल मीडिया को ही सोशल होने की पराकाष्ठा मान लिया हो।
आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-
॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥
( 10.181.2)
अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।
कठोपनिषद, सामुदायिकता को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-
॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥
ऐसा नहीं लगता कि सोशल मीडिया पर हर्षोल्लास के पल साझा करनेवाले पहलगाम कांड पर दुखी या आक्रोशित नहीं हुए होंगे पर वे शोक की जनमान्य अवधि तक भी रुक नहीं सके। इस तरह की आत्ममुग्धता और उतावलापन संवेदना के निष्प्राण होने की ओर संकेत कर रहे हैं।
कभी लेखनी से उतरा था-
हार्ट अटैक,
ब्रेन डेड,
मृत्यु के नये नाम गढ़ रहे हम,
सोचता हूँ,
संवेदनशून्यता को
मृत्यु कब घोषित करेंगे हम?
हम सबमें सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। वांछनीय है कि हम तटस्थ होकर अपना आकलन करें, विचार करें, तदनुसार क्रियान्वयन करें ताकि दम तोड़ती संवेदना में प्राण फूँके जा सकें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सवेरे वाली गाड़ी…“।)
अभी अभी # 667 ⇒ सवेरे वाली गाड़ी श्री प्रदीप शर्मा
एक बोलचाल वाला कवि वही होता है, जो आपके मनोभावों को अपने शब्दों में डाल दे। हमने तब कहां शैलेंद्र का नाम तक सुना था। रेडियो पर आता जाता रहता था, लेकिन हमारा ध्यान सिर्फ धुन और गायक की आवाज तक ही सीमित रहता था।
मेहमान किस घर में नहीं आते थे तब, यह सब उन्हीं घरों की कहानी तो है।
इसे संयोग ही कहेंगे कि हमारे यहां आने वाले अक्सर मेहमान सवेरे वाली गाड़ी से ही जाया करते थे। लेकिन हमको जब बाहर जाना होता था तो हम शाम वाली मीटर गैज वाली अजमेर खंडवा से ही जाते थे। तब हमारी दौड़ भी ननिहाल तक ही तो सीमित थी। ।
आजकल तो मेहमान सिर्फ शादियों में आते हैं, और वह भी सिर्फ गार्डन, होटल अथवा रिसॉर्ट में। उनके आने की पूर्व सूचना भी जरूरी होती है, और उन्हें यह भी बोल देना पड़ता है कि रिसॉर्ट सिर्फ एक दिन के लिए लिया है। अपना आईडी प्रूफ साथ लेकर आवें। सबकी मौसा और फूफागिरी निकल गई है अब तो।
हमें अच्छी तरह याद है तब कोई मेहमान खाली हाथ नहीं आता था। सामान लेकर ही आता था, लेकिन आते ही सबसे पहले हमें अपने काम। की चीज मिल ही जाती थी। छोटी सी हमारी मुट्ठी, और बित्ती भर डिमांड। और तो और, तब हमें खुश होना भी आता था। ।
मेहमानों के मनोरंजन के लिए तब कहां टीवी मोबाइल अथवा शानदार होटलें और मॉल थे। बस बाजार घूम लिए, सराफा हो आए और हद से हद गन्ने का रस पी लिया। हां एक फिल्म जरूर परिवार साथ देखता था, जब उनके जाने की तारीख पक्की हो जाती तब।
मेहमान कब रुके हैं,
कैसे रोके जाएंगे।
कुछ ले के जाएंगे,
कुछ दे के जाएंगे ;
रात से ही माहौल बन जाता था, सवेरे वाली गाड़ी से चले जाएंगे। जब आए थे, तब भी कुछ दिया था, और अब जा रहे हैं तब भी। मां ने हमें मना कर रखा था, फिर भी मुट्ठी गर्म करके ही जाते थे। ।
दुनिया है सराय, रहने को हम आए। सराय में कुछ दिनों के लिए रहा जाता है और घर में हमेशा के लिए। कहीं घर टूट रहे हैं, कहीं परिवार बिखर रहे हैं। मेहमानों जैसा प्रेम आज घरों में कहां ! आप सवेरे वाली गाड़ी से जाएं, अथवा फ्लाइट से। आखिर आप भी तो एक मेहमान ही हैं।
लीज यानी पट्टा भी ९९ साल का ही होता है। आप भी अपना बोरिया बिस्तर बांध लें। लेकिन जाएं यहां से खाली हाथ। जितनी धन दौलत अच्छे काम में लगाना है, लगा दें, जितना प्यार बांट सकते हैं, बांट दें। निश्चल प्रेम का अकाल पड़ा हुआ है इस जगत में। ।
शैलेन्द्र एक, कोमल हृदय मार्मस्पर्शी कवि थी। उनके गीतों में आपको छल कपट नहीं मिलेगा, सिर्फ प्रेम और एकता और भाईचारे का संदेश मिलेगा। आज उनकी यह सीख किस काम की, जरा विचार करके देखिए ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पौ फटना…“।)
अभी अभी # 666 ⇒ पौ फटना श्री प्रदीप शर्मा
DAWN BURST
रात्रि विश्राम के लिए बनी है, दिन भर का थका मांदा इंसान, निद्रा देवी की गोद में अपनी थकान मिटाता है, प्रकृति भी रात्रि काल में सोई सोई सी प्रतीत होती है, क्योंकि अधिकांश पशु पक्षी भी इस काल में अपनी दैनिक गतिविधियों को विराम दे देते हैं।
प्रकृति में जीव भी हैं और वनस्पति भी ! जीव भले ही रात्रि में विश्राम करे, उसका दिल धड़कता रहता है, सांस चलती रहती है।
एक नई सुबह के साथ कैलेंडर ही नहीं बदलता, हमारी उम्र भी एक दिन घट/बढ़ जाती है। हमें पता ही नहीं चलता, हमारे नाखून बढ़ जाते हैं, सुबह फिर शेव करनी पड़ती है।
उधर भले ही पेड़ पौधे भी हमें रात्रि विश्राम करते प्रतीत होते हैं, हवा मंद गति से चलती रहती है, सुबह के स्वागत में कहीं कोई कली चटकती है तो कहीं कोई फूल खिलता है। पक्षियों का चहचहाना शुरू हो जाता है, पेड़ पौधों में नई कोपलें दृष्टिगोचर होने लगती है।।
अचानक बहुत कुछ घटने लगता है। लगता है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है। आसमान शनै: शनै: साफ होने लगता है। पौ फटने लगती है। पौ जब फटती है, तब सूर्योदय होता है अथवा जब सूर्योदय होता है, तब पौ फटती है। दिल टूटने की आवाज़ कुछ दीवाने भले ही सुन लें, पौ फटने की आवाज़ अभी तक तो विज्ञान ने भी नहीं सुनी।
अगर पौ नहीं फटेगी तो क्या सुबह नहीं होगी, सूरज नहीं निकलेगा। पंचांग में रोज सूर्योदय और सूर्यास्त का समय दिया रहता है, पौ फटने न फटने से पंचांग को क्या लेना देना। भले ही आसमान में किसी दिन बादलों के कारण सूर्य नारायण देरी से प्रकट हों, पौ तो वक्त पर फट ही चुकी होती है।।
हमने आसमान में बादलों को फटते देखा है, तीन चौथाई जल के होते हुए भी यहां कभी ज्वालामुखी फटते हैं तो कभी इस धरती के कलेजे को भी फटते देखा है। इंसान के भी अपने दुख दर्द हैं। कहीं कुछ फटा है तो कहीं कुछ टूटा फूटा है। एक बाल मन तो फकत एक गुब्बारे के फूटने से ही उदास हो जाता है। पेट्रोल के भाव सुनकर तो फटफटी की आंखें भी फटी की फटी रह गई हैं आजकल।
क्या पौ रात भर से भरी बैठी रहती है, जो सुबह होते ही फट जाती है, पौ का शाम से कुछ लेना देना नहीं, यह सिर्फ सुबह का नज़ारा है। जो सुबह ही फट गई, फिर उसके शाम को पौ बारह होने की संभावना वैसे भी खत्म ही हो जाती है। खेद है, प्रकृति प्रेमी और पर्यावरण प्रेमी भी पौ फटने की घटना को गंभीरता से नहीं लेते।
कवि और कविता की कल्पना की उड़ान चारु चन्द्र की चंचल किरणों से भले ही खेल ले, उसे सूरज का सातवां घोड़ा तक नजर आ जाए, मंद मंद हवा का शोर और कल कल करते बहते झरने की आवाज उसे सुनाई दे जाए, लेकिन पौ फटने का स्वर वह नहीं पकड़ पाया। फिर भी मेरी हिम्मत नहीं कि इस सनातन सत्य को मैं झुठला सकूं कि पौ नहीं फटती। जंगल में मोर नाचा, सबने देखा। आज ही सुबह सुबह, खुले आसमान में पौ फटी, कोई शक ? पौ फटना शुभ है। एक शुभ दिन की शुरुआत होती है पौ फटने से। आपका आज का दिन शुभ हो।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख विश्वास–अद्वितीय संबल। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 273 ☆
☆ विश्वास–अद्वितीय संबल… ☆
‘केवल विश्वास ही एक ऐसा संबल है,जो हमें मंज़िल तक पहुंचा देता है’ स्वेट मार्टिन का यह कथन आत्मविश्वास को जीवन में लक्ष्य प्राप्ति व उन्नति करने का सर्वोत्तम साधन स्वीकारता है,जिससे ‘मन के हारे हार है,मन के जीते जीत’ भाव की पुष्टि होती है। विश्वास व शंका दो विपरीत शक्तियां हैं– एक मानव की सकारात्मक सोच को प्रकाशित करती है और दूसरी मानव हृदय में नकारात्मकता के भाव को पुष्ट करती है। प्रथम वह सीढ़ी है, जिसके सहारे दुर्बल व अपाहिज व्यक्ति अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है और द्वितीय को हरे-भरे उपवन को नष्ट करने में समय ही नहीं लगता। शंका-ग्रस्त व्यक्ति तिल-तिल कर जलता रहता है और अपने जीवन को नरक बना लेता है। वह केवल अपने घर-परिवार के लिए ही नहीं; समाज व देश के लिए भी घातक सिद्ध होता है। शंका जोंक की भांति जीवन के उत्साह, उमंग व तरंग को ही नष्ट नहीं करती; दीमक की भांति मानव जीवन में सेंध लगा कर उसकी जड़ों को खोखला कर देती है।
‘जब तक असफलता बिल्कुल छाती पर सवार न होकर बैठ जाए; असफलता को स्वीकार न करें’ मदनमोहन मालवीय जी का यह कथन द्रष्टव्य है,जो गहन अर्थ को परिलक्षित करता है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास है; असफलता उसके निकट दस्तक नहीं दे सकती। ‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ सो! हौसले मानव-मन को ऊर्जस्वित करते हैं और वे साहस व आत्मविश्वास के बल पर असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं। जब तक मानव में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा व्याप्त होता है; उसे दुनिया की कोई ताकत पराजित नहीं कर सकती, क्योंकि किसी की सहायता करने के लिए तन-बल से अधिक मन की दृढ़ता की आवश्यकता होती है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘मनुष्य युद्ध में सहस्त्रों पर विजय प्राप्त कर सकता है, लेकिन जो स्वयं कर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सबसे बड़ा विजयी है।’ फलत: जीवन के दो प्रमुख सिद्धांत होने चाहिए–आत्म-विश्वास व आत्म- नियंत्रण। मैंने बचपन से ही इन्हें धारण किया और धरोहर-सम संजोकर रखा तथा विद्यार्थियों को भी जीवन में अपनाने की सीख दी।
यदि आप में आत्मविश्वास है और आत्म-नियंत्रण का अभाव है तो आप विपरीत व विषम परिस्थितियों में अपना धैर्य खो बैठेंगे; अनायास क्रोध के शिकार हो जाएंगे तथा अपनी सुरसा की भांति बढ़ती बलवती इच्छाओं, आकांक्षाओं व लालसाओं पर अंकुश नहीं लगा पायेंगें। जब तक इंसान काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार पर विजय नहीं प्राप्त कर लेता; वह मुंह की खाता है। सो! हमें इन पांच विकारों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए और किसी विषय पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए। यदि कोई कार्य हमारे मनोनुकूल नहीं होता या कोई हम पर उंगली उठाता है; अकारण दोषारोपण करता है; दूसरों के सम्मुख हमें नीचा दिखाता है; आक्षेप-आरोप लगाता है, तो भी हमें अपना आपा नहीं खोना चाहिए। उस अपरिहार्य स्थिति में यदि हम थोड़ी देर के लिए आत्म-नियंत्रण कर लेते हैं, तो हमें दूसरों के सम्मुख नीचा नहीं देखना पड़ता, क्योंकि क्रोधित व्यक्ति को दिया गया उत्तर व सुझाव अनायास आग में घी का काम करता है और तिल का ताड़ बन जाता है। इसके विपरीत यदि आप अपनी वाणी पर नियंत्रण कर थोड़ी देर के लिए मौन रह जाते हैं, समस्या का समाधान स्वत: प्राप्त हो जाता है और वह समूल नष्ट हो जाती है। यदि आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण साथ मिलकर चलते हैं, तो हमें सफलता प्राप्त होती है और समस्याएं मुंह छिपाए अपना रास्ता स्वतः बदल लेती हैं।
जीवन में चुनौतियां आती हैं, परंतु मूर्ख लोग उन्हें समस्याएं समझ उनके सम्मुख आत्मसमर्पण कर देते हैं और तनाव व अवसाद का शिकार हो जाते हैं, क्योंकि उस स्थिति में भय व शंका का भाव उन पर हावी हो जाता है। वास्तव में समस्या के साथ समाधान का जन्म भी उसी पल हो जाता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते; तीसरा विकल्प भी होता है; जिस ओर हमारा ध्यान केंद्रित नहीं होता। परंतु जब मानव दृढ़तापूर्वक डटकर उनका सामना करता है; पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि ‘गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में’ के प्रबल भाव को स्वीकार लेता है और सदैव विजयी होता है। दूसरे शब्दों में जो पहले ही पराजय स्वीकार लेता है; विजयी कैसे हो सकता है? इसलिए हमें नकारात्मक विचारों को हृदय में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिए।
जब मन कमज़ोर होता है, तो परिस्थितियां समस्याएं बन जाती हैं। जब मन मज़बूत होता है; वे अवसर बन जाती हैं। ‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना/ वैसे तो हर शख़्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’ इसलिए मानव को हर परिस्थिति में सम रहने की सीख दी जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ– ‘दिन-रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों के महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं।’ सच ही तो है ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती।’ इसी संदर्भ में सैमुअल बैकेट का कथन अत्यंत सार्थक है– ‘कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। फिर कोशिश करो; जब तक अच्छी नाकामी आपके हिस्से में नहीं आती।’ इसलिए मानव को ‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे भीतर एक ज़माना है। ‘वैसे भी ‘मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए। उम्मीद एक दिन टूटेगी ज़रूर और तुम उससे आहत होगे।’ यदि आपमें आत्मविश्वास होगा तो आप भीषण आपदाओं का सामना करने में सक्षम होगे। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो सत्कर्म व शुद्ध पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं की जा सकती।
योगवशिष्ठ की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है, जो मानव को सत्य की राह पर चलते हुए साहसपूर्वक कार्य करने की प्रेरणा देती है।
‘सफलता का संबंध कर्म से है और सफल लोग आगे बढ़ते रहते हैं। वे ग़लतियाँ करते हैं, लेकिन लक्ष्य-प्राप्ति के प्रयास नहीं छोड़ते’–कानरॉड हिल्टन का उक्त संदेश प्रेरणास्पद है। भगवद्गीता भी निष्काम कर्म की सीख देती है। कबीरदास जी भी कर्मशीलता में विश्वास रखते हैं, क्योंकि अभ्यास करते-करते जड़मति भी विद्वान हो जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी यह संदेश दिया है कि ‘अतीत में मत रहो। भविष्य का सपना मत देखो। वर्तमान अर्थात् क्षण पर ध्यान केंद्रित करो।’ बोस्टन के मतानुसार ‘निरंतर सफलता हमें संसार का केवल एक ही पहलू दिखाती है; विपत्ति हमें चित्र का दूसरा पहलू दिखाती है।’ इसलिए क़ामयाबी का इंतज़ार करने से बेहतर है; कोशिश की जाए। प्रतीक्षा करने से अच्छा है; समीक्षा की जाए। हमें असफलता, तनाव व अवसाद के कारणों को जानने का प्रयास करना चाहिए। जब हम लोग उसकी तह तक पहुंच जाएंगे; हमें समाधान भी अवश्य प्राप्त हो जाएगा और हम आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होते जाएंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन की बातें, मन ही जाने…“।)
अभी अभी # 665 ⇒ मन की बातें, मन ही जाने श्री प्रदीप शर्मा
मन रे, तू काहे न धीर धरे ! गोपियों ने तो आसानी से कह दिया, उधो ! मन नहीं दस बीस। मन की शरीर में एक्ज़ेक्ट लोकेशन किसी को पता नहीं है। कभी लोग दिल को मन मान बैठते हैं, तो कभी दिमाग को।
मन संकल्प विकल्प करता है, और दिमाग सोचता है। अगर कभी, मन नहीं करे, तो दिमाग कुछ सोचता भी नहीं। आप कह सकते हैं कि दिल और दिमाग़ पर मन की दादागिरी है।।
अध्यात्म में मन पर लगाम कसने की बात की जाती है। मन बड़ा उच्छ्रंखल है ! साहिर ने मन पर पीएचडी की है ! तोरा मन दर्पण कहलाये। भले बुरे, सारे कर्मों को, देखे और दिखाए। यानी मन, मन ना हुआ, किसी पुराने फिल्मी थिएटर का प्रोजेक्टर हुआ। वह फ़िल्म देखता भी है, और उसे दर्शकों को दिखाता भी है। एक व्यक्ति मन मारकर प्रोजेक्टर चलाता है, हम मन लगाकर फ़िल्म देखते हैं। सही भी तो है ! कहीं हमारा मन लग जाता है, और कहीं हमें मन को मारना पड़ता है।
हमारे शरीर में जितना स्थूल है, वह सूक्ष्म यंत्रों से देखा जा सकता है। दिल, दिमाग़, लिवर और किडनी ! किडनी दो, बाकी तीनों एक एक। दो दो हाथ, दोनों कान, दो ही आँख, और एक बेचारी नाक ! हमारी समझ से बाहर की बात है। दाँतों तले उँगली दबाइए, और उस बनाने वाले का एहसान मानिए।।
जो हमारे अंदर है, लेकिन नहीं नज़र आते, वे मन, चित्त, बुद्धि, और अहंकार हैं। जब हम मन की बात करते हैं, तो कभी उसके विकारों की बात नहीं करते। दुनिया में इतनी बुराई है, कि हमें अपनी बुराई कहीं नजर ही नहीं आती। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मन के विकार माना गया है। भले ही आप इन्हें विकार मानें, लेकिन इनके बिना भी कहीं संसार चला है।
बुद्धि का काम सोच विचार करना है। चित्त और मन को आप अलग नहीं कर सकते ! हमारे लिए तो दिल, चित्त और मन सब एक ही बात है। कौन ज़्यादा मगजमारी करे। हमारी आम भाषा में अगर कहें तो भई दिल को साफ रखो। किसी के प्रति मन में मैल न आने दो और चित्त शुद्धि के प्रति सजग रहो।।
एक गांठ होती है, जिसे प्रेम की गांठ कहते हैं। यह जितनी मजबूत हो, उतनी अच्छी ! दुश्मनी की गांठ अगर ढीली होती जाए, खुलती चली जाए, तो बेहतर। दुश्मनी दोस्ती में बदल जाए, तो और भी बेहतर।
मन में भी गांठ पड़ जाती है ! यह बहुत बुरी होती है। चिकित्सा पद्धति में शरीर की किसी भी गांठ का इलाज है, मन की गांठ का नहीं। प्रेम, भक्ति और समर्पण ही वह संजीवनी औषधि है, जो मन की गांठ को खोल सकते हैं। जब मन मुक्त होता है, मस्त होता है, तब ही ये बोल सार्थक होते हैं;
मन मोरा बावरा !
निस दिन गाए, गीत मिलन के ..
चिंता को चिता कहा गया है !
कम सोचो। चिंतन अधिक करो। किसी माँ को कभी मत सिखाना कि चिंता मत करो। माँ का नाम ही care and concern है। हम भी अगर खुद का खयाल रखें, और थोड़ी बहुत दूसरों की भी चिंता करें, तो कोई बुरा नहीं। मन लगा रहेगा, दिल को तसल्ली मिलेगी और हाँ, थोड़ा बहुत चित्त भी शुद्ध होगा।।
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
☆ आलेख ☆ ||छलावा|| ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆
बेवकूफ़ बनाना नहीं पड़ता बल्कि स्वयं बन चुकी होती हैं “घर की प्रौढ़ स्त्री“।
जीवन के बीचों-बीच फंसी इन स्त्रियॉं का ना ही मायका होता है और ना ही ससुराल
डाक्टर के पास से आते ही यह पर्ची निकाल टेबल्स पे रख दर्द निवारण दवाई नहीं बल्कि बेलन थाम लेती हैं।
कोई फर्क नहीं पड़ता की डाक्टर ने क्या कहा?
उनकी हड्डी क्यो घिस रही है? हड्डी ही घिसी है कोई टूट फूट थोडे़ ही हुई है।
बच्चे अब बडे़ हो चुके हैं उन्हे मां की आवश्यकता नहीं बल्कि उनके पास जीवन की तमाम सुविधा हैं।
पति के पास वक़्त की होती है बहुत कमी क्योंकि घर की महिलाओं के पास ही तो है वक़्त ही वक्त।
एक छलावे से खुद को छल के ना जाने क्यों वह प्रौढ़ स्त्री अपने ही घर में घुटन महसुस करती है।
नहीं पड़ता किसी को फर्क वह मरती है या जीती है हर रोज़।
उसके कंधे पे लादी गयी है जिम्मेवारी अनेकानेक।
सांस लेने की हिम्मत कम पड़ जाये इस लिए वह खुले में सांस लेना छोड़ चुकी होती है।
उन तमाम उलझकर में फंसी कभी कहा नहीं कि – मुझे भी जीना है जीवन कुछ रोज़।
बच्चों के कमरे हो चुके है अलग और पतिदेव माँ की सेवा के बाद सो जाते हैं थककर।
कमरे के अंधकार में रातभर कहाँ सोती हैं वह दो प्रौढ़ आंखे।
अपनी गृहस्थी बांधकर रखने के लिए रखना होगा सासु माँ को भी खुश।
निर्णय लेने की क्षमता नहीं है उनके पास, क्योंकि वह प्रौढ़ है और प्रौढ़ की गृहस्थी होती ही कहाँ है?
उन प्रौढ़ स्त्रीयों के लिए कुछ ख़ास नहीं होता है करने के लिए, बस कोल्हू के बैल बनकर अपने घर में घुमना पड़ता है, दिन और रात।
मृत जज्बातों के साथ जीवित रहती है, वह घर की प्रौढ़ स्त्री।
चेहरे पे लकीरें समेटे हुए चिड़चिड़ी महिला का खिताब पा चुकी होती है।
उनके पास कहने सुनने के लिए कुछ खास नही बचा होता बल्कि वह रसोई घर में बावर्ची बनके अपनीं बची खुची हड्डी को भी गलाती नजर आ रही होती है!!
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विस्तार है गगन में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 241 ☆कर्म करते रहें… ☆
कहते हुए नित जा रहे सब, एकता के साथ में।
पूरे सपने होंगे उनके, हाथ थामे हाथ में।।
कोशिश करेंगे वक्त बदले, भावना हो नेक की।
सबसे आगे चलते जाना, ढाल बन हर एक की।।
कर्म से कुछ भी असंभव नहीं है भाग्य के भरोसे जो व्यक्ति बैठता है उसे वही मिलता है जो कर्मशील व्यक्ति छोड़ देते हैं।
एक बहुत पुरानी कहानी है एक गुरु के दो शिष्य थे एक तो बहुत मेहनत करता व दूसरा हमेशा ही इस आसरे रहता कि जैसे ही पहले वाला काम कर देगा तो वह तुरंत उसके साथ आगे आकर शामिल हो जायेगा। हमेशा वो मुस्कुराता हुआ गुरू जी के पास पहुँच कर कहता देखिए गुरुदेव ये कार्य सही हुआ है या नहीं। गुरु आखिर गुरु होते हैं उनसे कोई बात छुपी तो रह नहीं सकती।
एक दिन गुरू जी दोनों शिष्यों को बुलाया और कहा कि तुम दोनों में से कौन जाकर पहाड़ी से आवश्यक जड़ी बूटी ला सकता है।
पहले शिष्य ने कहा गुरू जी मैं लेकर आता हूँ दूसरे ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि यही ठीक होगा तुमको जड़ी- बूटी की जानकारी भी है। पहला शिष्य तुरंत ही चलने लगा तो गुरू जी ने उसे रोकते हुए कहा कि पहाड़ी के पास एक आश्रम है हो सकता है वहाँ पर तुम्हें जड़ी बूटी महात्मा जी के पास ही मिल जाय तुम उनसे मेरा संदेश कह देना।
यहाँ दूसरा शिष्य मन ही मन मुस्कुराता हुआ जाने लगा तो गुरू जी ने उसे पुकारा बेटा तुम यहाँ आओ आज तुम गुरु माँ के साथ काम करो जो भी कार्य वो कहें कर देना मैं आज वेद पाठ करूँगा बीच में मुझे मत टोकना।
दूसरे शिष्य ने कहा जी गुरुदेव अब वो गुरु माँ के साथ उनकी मदद करने लगा उसे कोई काम करना अच्छा नहीं लग रहा था वो जो भी करता उससे गुरु माँ का काम बढ़ जाता इसलिए उन्होंने उससे कहा बेटा लकड़ी समाप्त होने वाली है तुम जंगल से काट कर ले आओ।
उसने कहा जी , मन ही मन बड़बड़ाता हुआ वो चल दिया उसे लकड़ी काट कर लाने में पूरा दिन लग गया जबकि पहला शिष्य जैसे ही पहाड़ी के पास पहुँचा तो वहीं पर उसे एक सुंदर ताल दिखाई दिया व पास ही एक कुटिया जिसमें लोगों का आना – जाना लगा हुआ था वो अंदर गया उसने उनको प्रणाम कर अपने गुरुजी का संदेश दिया। महात्मा जी ने कहा बेटा उसके लिए तुमको परेशान होने की आवश्यता नहीं है मैं तुम्हें जड़ी बूटी देता हूँ तुम ले जाओ पर इससे पहले तुम हाथ -मुँह धोकर भोजन करो तत्पश्चात ही जाना।
महात्मा जी ने अपने बाग के फल- फूल भी उसको दिए और कहा इसे अपने गुरू जी को मेरी ओर से भेंट कर देना।
संध्या के समय पहला शिष्य मुस्कुराता हुआ आश्रम पहुँचा वहीं दूसरे थका -हारा पहुँचा। गुरु जी ने दोनों शिष्यों को पास बुलाकर कहा बेटा कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता कर्म को पूजा मान कर जो कार्य किया जायेगा वो मन को खुशी देगा वहीं जो उदास मन से किया जायेगा वो थकान।
भाग्य का निर्माता वही होता है जो कर्म करता है सतत् कर्म करने वाले का भाग्य भगवान स्वयं लिखते हैं जबकि भाग्य से उतना ही मिलता है जो पूर्वजन्मों का संचय होता है जैसे ही उसका फल समाप्त हो जाता है व्यक्ति भाग्यहीन होकर आसरा तलाश करने लगता है जबकि कर्मशील व्यक्ति किसी भी परिवर्तन में नहीं विचलित होता।
☆ आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार… ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆
मध्य प्रदेश के सागर जिले के कस्बा बरीना (पर्वर्तित नाम) में डा.दंपति की कर्ज के दबाव में आत्महत्या की घटना मेरे लिए एक आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी। ये आश्चर्य उस समय और बढ़ गया है जब पता चला, दोनों दंपति डा. होने के साथ-साथ राज्य सरकार में पदस्थ है। जहां उनकी अच्छी खासी नियमित तनख्वाह भी है।
आंखें तब विस्मित रह गई जब मालूम हुआ उनका बेटा पहले ही पटना से एम. बी. बी.एस. की पढ़ाई भी कर रहा है।
सामाजिक सरोकार की दृष्टि से देखा जाए तो डा.दंपति (कपूरिया परिवार नाम परिवर्तित) देश के एक प्रतिशत से भी कम भाग्यशालीधनी परिवारों में से एक है।
भाग्यशाली और धनी इसलिए कि घर के तीन लोग, में से दो की अच्छी तनख्वाह, शहर में खुद का घर जमीन, जायदाद सबकुछ होने के साथ साथ घर का एक मात्र शेष सदस्य उनका इकलौता बेटा भी सफलता की राह पर उम्र का इंतजार करता हुआ दिखाई पड़ता है।
मगर फिर भी डा. दंपती द्वारा आत्महत्या कर ली गई हालांकि अभी विस्तृत अन्वेषण बाकी है, परंतु फिर भी यदि आरंभिक जानकारियों एवम छपी रिपोर्ट का विश्लेषण किया जाए तो आधुनिक समाज की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं एवं एकल परिवार होने के चलते विचारों के प्रवाह में किसी प्रकार के समायोजन की कमी के साथ ही, एक पीढ़ी द्वारा सब कुछ अगली पीढ़ी के लिए तैयार करके देने की अंतहीन प्रवृत्ति बढ़ती हुई दिखाई देती है।
कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी क्षति पूर्ति संभव नहीं परंतु इसकी पुनर्वृति तो रोकी जा सकती है। आत्महत्या की इस घटना में जो लोग असमय इस दुनिया से चले गए के प्रति सम्मान सहित परिवार में बचे इकलौते बेटे पर बीत रही मानसिक पीड़ा को समझते हुए ऐसी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए शेष समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता है।
परिवार में “सुविधाओं को सुख की गारंटी” मानने वालों के लिए यह घटना एक विचारणीय प्रश्न के रूप में होनी चाहिए।
कपूरिया दंपति जैसी सोच रखने वाले समाज में अभी भी अनेक लोगों के लिए एक सबक हो सकता है की अगली पीढ़ी के बारे में स्वयं ही सारे निर्णय लेने से पहले एक बार उनसे भी पूछ लिया जाए कि उन्हें क्या चाहिए और किसी कीमत पर?
अगर आज कपुरिया परिवार के पीछे बचे एकमात्र वारिस उनके बेटे से पूछा जाए की क्या उसने चाहा था इस कीमत पर उसे एक बना हुआ बड़ा हॉस्पिटल या तीन करोड़ का बंगला मिले तो यकीनन वो मना ही करेगा।
ऐसे में वो आत्मघाती महत्वाकांक्षा किसकी थी?
यदि दोनों विवेकशील दंपति ने लोन लेकर अस्पताल बनाने का निर्णय जो लिया था उस समय क्या भविष्य के खतरों एवं विपरीत परिस्थितियों का संपूर्ण आकलन किया था?
यदि किया था तो क्या उसमें अपने वर्तमान जीवन को प्राथमिकता देते हुए अपने लिए कुछ संभावना रखी थी?
मैं माता-पिता को स्वार्थी न होने की सलाह नहीं देना चाहता मगर अगली पीढ़ी के लिए, जो लोग अपनी कीमत पर उनका भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं? उन्हे एक बार खुद से भी पूछ लेना चाहिए क्या इसमें उस अगली पीढ़ी की इच्छा भी शामिल है ? यदि हां तो क्या सब संभावित खतरों से उसे अवगत कराया गया है?
संभवत नहीं।
यहां एक पक्ष और उभर कर आता है वह है लोन मिलने की सरलता, विशेष रूप से प्राइवेट बैंकों द्वारा दिए जाने वाले आकर्षक ऑफर एवं लोन लेने के लिए प्रेरित करना। लोन देना, बैंकों का काम है इसके लिए प्रेरणा देना भी उनके कार्य का हिस्सा हो सकता है, मगर जहां बाजारवाद की इस प्रक्रिया में सब अपना अपना रोल निभा रहे है, बैंक व्यवस्था जो की वृहत आर्थिक नीतियों का हिस्सा है, यही बैंक व्यवस्था कई बार तात्कालिक रूप से लोन देने के लिए, छोटे मोटे नियमों का उल्लघंन करने को प्रेरित भी करती है जबकि बाद में उसी वजह से उत्पन जटिलता, इस तरह की घटनाओं का कारण बनती है। ऐसे में नियमों को क्षणिक उल्लंघन कितना दुःशकर हो सकता है ये आकलन भी हमें ही करना है।
यहां यह भी विचारणीय है कि, क्या हमें अपनी सीमा और महत्वाकांक्षाओं को पहचाना नहीं चाहिए?
संभावनाओं के आधार पर बड़े आर्थिक लाभ के लिए वर्तमान में सब कुछ दांव पर लगा देना ही तो जुआ है। क्या ऐसी बुराई की परिणति जो एक युद्ध के रूप में हमारे इतिहास में महाभारत जैसी विध्वंशक घटना के रूप में दर्ज है, से हमने कुछ नहीं सीखा?
शिक्षा का अभिप्राय केवल गणित के हिसाब लगाकर अच्छे भविष्य को देखना मात्र नही है।
शिक्षा महज आर्थिक गणना का नाम भी नहीं है। शिक्षा एक सार्वभौमिक सत्य की तरह है जो आदमी के सामाजिक, पारिवारिक, एवं वैचारिक मूल्यों के साथ विकसित होती है या यूं कहें कि होनी चाहिए। इन सामाजिक, एवं वैचारिक मूल्य की कमी का ही भयावह परिणाम इस तरह की घटनाएं है, जहां वर्तमान में सब कुछ अच्छा होने के बावजूद, एक और अच्छे कल के लिए, अक्सर अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता है।
आज के समय में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, एवम येन केन प्रकारेन आगे बढ़ने की मानसिकता के साथ साथ श्रेष्ठ से भी आगे सर्वश्रेष्ठ के लिए दौड़ते रहना ही विकास एवं आर्थिक संबलता का पैमाना बनाता जा रहा है, जिसकी परिणीति यदा-कदा हमारे समाज में होने वाली इस तरह की विभत्स घटनाओं के रूप में सामने आती है।
प्रश्न यह है कि इसका हल क्या है?
कैसे रुकेंगी ये आत्महत्याऐं? क्या एक और घटना के साथ अखबार में एक और खबर छपकर रह जाएगी?
बढ़ती आत्महत्याएं, हमारे लिए सामाजिक सरोकार की आवश्यकता के साथ-साथ व्यक्तिगत मंथन और भविष्य के प्रति जागरूक होने के साथ, अपने सपनों के प्रति थोड़ा और उदार होने की मांग भी कर रही है।
साथ ही एक सोच कि “हम जिम्मेदार मां बाप अपने रहते ही l सबकुछ कर दें, ताकि अगली पीढ़ी को कुछ ना करना पड़े या अगली पीढ़ी खुश रहे, ” ऐसे विचारों के साथ एक विचार और जोड़ने की आवश्यकता है। जो की
एक सर्वविदित सत्य कि तरह हमारे आस पास ही है बस उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है जिसके अनुसार “कोई भी जीवन अपने जन्म के साथ ही अनेकों संभावना एवं घटनाओं के एक क्रम के साथ जन्म लेता है जिसमें उस नव जीवन को कुछ सौभाग्य परिवार से, कुछ समाज से, तो कुछ उसके जीवन में “खुद के पुरुषार्थ” से मिलता है। इसमें “खुद का पुरुषार्थ” का हिस्सा उस जीवन विशेष के प्रयास एवं विवेक पर छोड़ना होगा, जिसकी चिंता में हम तथाकथित विचारशील लोग, अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं, वो भी उस व्यक्ति सहमती – असहमति पूछे बिना।