(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति कोम. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ” इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.
शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.
(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से जुड़ा है एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है। निश्चित ही उनके साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा विज्ञान पर आधारित सांस्कृतिक आलेख “ निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ”।)
साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-8
निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती
उन्हाळ्यात जठराग्नी उत्तम कार्य करतो त्यामुळे जास्त उपवास नसतात परंतु आषाढी नंतर मात्र पावसाळा म्हटलं की भूक मंदावते पोटाचे विकार टाळण्यासाठी काहीजण चातुर्मास तर काही लोक श्रावण महिना उपवास करतात .या काळात एक वेळेस जेवण घेतले जाते ज्यांना शक्य नसेल ते दूध फल आहार किंवा पचायला हलके पदार्थ सेवन करतात .या महिन्यात बहुतेक सणाला नैवेद्य म्हणून उकडीचे पदार्थ जसे कडबू ,फळं, दिवे, मोदक, कढी ,खिचडी, दुधातली दशमी, मुगाची डाळ घालून भाजी असे जे पचायला सहज सुलभ असतात . *या काळात मौसाहार वर्ज्य मानला जातो* कारण मुळात माणूस हा शाकाहारी प्राणी आहे . मुळात हे समजून घेणे गरजेचे आहे की हे कुणी धर्म पंडीतांनी सांगितलेले नसून नैसर्गिक आहे गाईला, घोड्याला, शेळी, बकरी यांना कोणत्याही पंडीताने गवत खायला सांगितले नाही तर ते निसर्ग नियम पाळतात . जे प्राणी ओठ लावून पाणी पितात ते सर्व शाकाहारी व जे जिभेने पाणी पितात ते मौसाहारी त्यांच्या दातांंची रचना वेगळी असते माणसाला वाघ कुत्रा यांच्यासारखे सुळे नसतात . शिवाय निदान पावसाळ्यात आपण ज्यांना खातो त्यांना होणारे आजार माशा जंतू संसर्ग इत्यादी बाबींचा विचार करून वैज्ञानिक दृष्टीने ठरवलेला हा नियम आहे. त्यामुळे विरोधासाठी विरोध हे तत्त्व सोडून कुठलीही टोकाची भूमिका नसावी, कालसापेक्ष यात काही बदल नक्कीच ग्राह्य असतात. महालक्ष्मी नवरात्री पासून हळूहळू तळीव पदार्थांचे आहारातील प्रमाण वाढवणारे सण येतात जसे महालक्ष्मी, दसरा, दिवाळी, नागदिवे मकर संक्रांत कारण शरीराला स्निग्धते सोबत उष्मांक मिळणे सुद्धा गरजेचे असते. म्हणून जवळजवळ सर्वच सणांना भरपूर तळलेले गोड पदार्थ (फक्त एक सुचवावेसे वाटते पूर्वी हे सर्व पदार्थ गूळ वापरून केले जात असत तसे ) असावेत .
पुढे उन्हाळ्याची चाहूल लागली की, पन्हे मठ्ठा ताक लस्सी सरबत आंब्याचा रस कुरवडी पापड लोणची या पदार्थांची रेलचेल सुरू होते . एकूणच काय तर आपली संस्कृती म्हणजे जे देहाला ते देवाला अशी आहे . स्थल काल परत्वे यात भेद नक्कीच आहेत जसे देशावरच्या देवाला बिन मिठाचा भात तर कोकणातील देवाला भात मासे , तरीसुद्धा नारळी पौर्णिमेला नारळी भातच असतो भात मासळी नाही हे विसरू नये.
बिन मिठाचा भातच का? सुरुवातीला साधं वरण भातच का? खावा शेवटी दहीभातच का? खावा या सर्वांनाच धार्मिक सोबतच वैज्ञानिक सुद्धा कारणे आहेत ती जाणून घेण्याचा प्रयत्न करावा .केवळ धर्माला विरोध म्हणून सगळ्याला विरोध ही बाब नक्कीच मानवासाठी घातक ठरेल .जगातला कुठलाही धर्म वाईट कर्माचे समर्थन करत नाही तर आपण स्वार्थासाठी त्याचे हवे तसे अर्थ लावत असतो. हे सर्वांसाठीच घातक आहे याचा विचार होणे गरजेचे आहे अर्थातच हे सर्व माझे मत आहे परंतु विज्ञानाची जोड नक्कीच आहे.
HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA:
ACTING LIKE A HAPPY PERSON:
TAKING CARE OF YOUR BODY
One of the happiness activities described by the positive psychologists for taking care of your body is acting like a happy person.
Laughter Yoga suits best in this category. It is voluntary laughter, for no reason, to create instant joy. It’s scientifically proven, easy to learn and a lot of fun.
It’s based on the principle: motion creates emotion. You act happy and you start feeling happy.
We demonstrate three laughter exercises – milk shake laughter, mobile laughter and hearty laughter – in this video. You can practice these any time and feel happier.
“Pretending that you are happy – smiling, engaged, mimicking energy and enthusiasm – not only can you earn some of the benefits of happiness (returned smiles, strengthened friendships, successes at work and school) but can actually make you happier.
“So go for it. Smile, laugh, stand tall, act lively and give hugs. Act as if you were confident, optimistic, and outgoing. You’ll manage adversity, rise to the occasion, create instant connections, make friends, influence people, and become a happier person.”
SONJA LYUBOMIRSKY/ THE HOW OF HAPPINESS
Founders: LifeSkills
Jagat Singh Bisht
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
Radhika Bisht:
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की चौथी कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆
☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆
एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।
अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।
महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।
मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।
शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।
एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।
इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?
(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)
विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ। संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग एक ”। यह व्यंग्य अनायास ही हमें सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली एवं उस प्रणाली से पीड़ितों की दशा-दुर्दशा बयान करती है। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 9 ☆
☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆
बाबूलाल का उस दफ्तर में करीब पांच सौ का बिल पड़ा है। तीन-चार महीने गुज़र गये हैं लेकिन बिल का अता-पता नहीं है। जब भी बाबूलाल दफ्तर जाता है, बिल पास करनेवाला बाबू उसकी नाक के सामने अपना रजिस्टर रख देता है। कहता है, ‘यह देखो,हमने तो पास करके भेज दिया है। कैशियर के पास होना चाहिए। हमने अपना काम चौकस कर दिया।’
बाबूलाल गर्दन लम्बी करके रजिस्टर में झाँकता है,पूछता है, ‘किसने रिसीव किया है?’
बाबू कहता है, ‘अरे ये गुचुर पुचुर कर दिया है। पता ही नहीं चलता किसके दस्कत हैं।’
बाबूलाल कहता है, ‘थोड़ा रजिस्टर देते तो मैं कैश में दिखाऊँ।’
बाबू बित्ता भर की जीभ निकालता है, कहता है, ‘अरे बाप रे! आफिशियल डाकुमेंट दफ्तर से बाहर कैसे जाएगा? अनर्थ हो जाएगा।’
कैश वाला बाबू सुंघनी चढ़ाता हुआ अपना रजिस्टर दिखाता है, कहता है, ‘हमारे रजिस्टर में कहीं एंट्री नहीं है। बिल होता तो कहीं एंट्री होती।’ फिर बगल में बैठी महिला से कहता है, ‘देखो, इनका कोई चेक बना है क्या।’
महिला, उबासी लेती, फाइल में रखे चेकों को खंगालती है,फिर सिर हिलाकर घोषणा करती है कि नहीं है।
बाबूलाल पन्द्रह बीस दिन में पाँव घसीटता पहुँच जाता है। हर बार उसे दोनों रजिस्टर सुंघाये जाते हैं, और हर बार चेक वाली महिला सिर हिला देती है।
एक दिन बाबूलाल भिन्ना जाता है। बिल पास करनेवाले से कहता है, ‘तुम्हारे रजिस्टर को देख के क्या करें? हर बार नाक पर रजिस्टर टिका देते हो।’ गुस्से में अफसर के पास जाकर शिकायत करता है तो वे कहते हैं, ‘डुप्लीकेट बिल बनाकर ले आओ।’
बाबूलाल दुबारा बिल बना देता है। पास करनेवाले बाबू के पास जाता है तो वह बिल पर चिड़िया बनाकर कहता है, ‘कैश से लिखवाना पड़ेगा कि भुगतान नहीं हुआ।’
बाबूलाल सुंघनी वाले बाबू के पास पहुँचता है। बाबू बिल देखकर महिला की तरफ बढ़ा देता है। महिला देखकर सोच में डूब जाती है, बुदबुदाती है, ‘कैशबुक देखनी पड़ेगी।’
फिर भारी दुख से बाबूलाल की तरफ देखकर कहती है, ‘सोमवार को आ जाओ। हम देख लेंगे।’
सोमवार को बाबूलाल पहुँचता है तो कैश वाला बाबू चुटकी से नसवार का सड़ाका लगाता है, फिर कहता है, ‘तुम्हारा पुराना बिल मिल गया।’
बाबूलाल चौंकता है, पूछता है, ‘बिल मिल गया?’
बाबू नाक के निचले गन्दे हिस्से को गन्दे तौलिया से पोंछते हुए कहता है, ‘हाँ,कागजों में दब गया था। ढूँढ़ा तो मिल गया। कल आकर चेक ले लो।’
बाबूलाल के जाने के बाद बाबू तौलिया झाड़ता हुआ महिला से शिकायती लहज़े में कहता है, ‘पाँच सौ रुपल्ली के बिल के पीछे दिमाग खा गया। कुछ लोग बड़े सनकी होते हैं।’
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की तेरहवीं कड़ी Topper…। सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। जीवन के सूर्यास्त के पूर्व जब हम आकलन करते हैं कि वास्तव में Topper कौन रहा? आप भी कल्पना कर के देखिये और आलेख के अंत में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिख भेजिये। आरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं। उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #13 
☆ Topper… ☆
दुसरी तिसरीपर्यंत ती वर्गात topper होती… त्यानंतर ती त्यांच्या गावी निघून गेली… मग आमचा संपर्क तुटला… आज जवळ जवळ तीस वर्षांनी भेट झाली, ह्या फेसबुकमुले… भेटल्यावर एवढ्या गप्पा होतील असं वाटलं नव्हतं… ३० वर्षांचा काळ खूप मोठा आहे… कसं, काय कधी अशी चौकशी करत गाडी स्वप्नांवर येऊन थांबली… ह्या स्टेशनवर आम्ही जरा जास्तच मोठा hault घेतला…
साहजिकच होतं ते म्हणा… सुरुवातीला उघडपणे बोलणं थोडं कठीण गेलं… पण मग आतली सगळी जळमटे काढून टाकता आली…
काही नाही गं, एकदा संसारात पडलं की सगळं मागे पडतं, नवरा, मुलं, घर, नातेवाईक, सासू सासरे ह्यांना खुश ठेवण्यात दिवस जातात, आपलं असं काही करता येत नाही… कारण इथेही topper राहायचं असतं… तो मान मिळवायचा असतो… त्यात अयोग्य काहीच नाही… आपणच निवडलेली नाती आहेत ना, मग त्यात काय एवढं…
अशी सुरुवात झाली, आणि आज कालची मुलं किती हुशार आहेत, त्यांना किती साऱ्या गोष्टी माहीत असतात ह्या विषयावर भरभरून बोललो… बोलताना दोघींच्या लक्षात आलं की, कुठे तरी चुकतंय… काही तरी राहून जातंय ह्याची जाणीव तीव्र झाली… आणि मग, जे व्हायला नको होतं तेच नेमकं झालं…
थोडं दुःख वाटू लागलं, आपण करिअर केलं नाही ह्याचं…
मी तिला एक किस्सा सांगितला…
काही वर्षांपूर्वी बंगलोरला असताना मराठी अभिनेत्रीशी गप्पा मारायचा योग आला, तेव्हा त्या जे बोलल्या त्याचा मी माझ्या आयुष्याशी संबंध लावू शकते…
त्या म्हणाल्या… लग्नाआधी सिने सुष्टी असेल, नाटक असेल सगळीकडे खूप काम केलं, पण लग्न झाल्यावर माझ्या जीवनातील priorities बदलल्या, आणि त्या स्वीकारून मी पुढे चालत राहिले, जवळ जवळ 15 वर्ष मी ह्या इंडस्ट्री पासून दूर होते, नवऱ्याची बदली जिथे होईल तिथे त्याच्याबरोबर गेले, घर संसार मुलगा ह्यातच रमले, अभिनयाला विसरले नाही, पण आता त्याच्याकडे बघायची वेळ नव्हती… हे मनाशी पक्क होतं… एवढंच सांगते, माझ्या नवऱ्याला आणि मुलाला जेव्हा माझी साथ हवी होती तेव्हा ती मी दिली… आज मी हक्काने मला जे करायचं आहे ते करते, कारण मी माझी जबाबदारी योग्य वेळी पूर्ण केली आहे, आता मला माझी space हवी आहे… आणि ती मी घरातल्या सगळ्यांकडे मागू शकते… पण त्यासाठी मला 15 वर्ष द्यावी लागली .. आधी द्यावं लागतं निःसंकोचपणे आणि मग जे हवंय ते मिळवणं सोपं जातं… प्रत्येक वेळी माझी space माझी space करून चालत नाही, नाही तर नात्यातील space वाढेल हे लक्षात ठेवायला हवं… धीर सोडून चालत नाही ! अहो, साधं उदाहरण घ्या, एक महिना नोकरी केल्यावरच तुम्हाला पगार मिळतो… अगदी एवढं व्यवहारी राहून पण चालत नाही… तेव्हा येतंय ना लक्षात काय करायचं आहे ते ?
काय, तुम्हालापण पटतंय ना !
आम्ही दोघी ह्या विचारला मनात घोळवत पुढच्या कामाला लागलो…
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है “स्वयं की खोज में”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #1 ☆
☆ स्वयं की खोज में ☆
दीवाली या दीपावली शब्द में, ‘दीप’ का अर्थ है प्रकाश और ‘अवली’ का अर्थ है पंक्ति ।तो दिवाली/दीपावली का अर्थ है रोशनी की पंक्ति । दिवाली हिन्दुओं का सबसे प्रमुखएवं बड़ा, रोशनी का त्यौहार है । यह त्यौहार भारत और अन्य देशों में जहाँ भी हिंदू रहते हैं हर साल शरद ऋतु, अक्टूबर या नवंबर माह में मनाया जाता है । आध्यात्मिक रूप से दिवाली त्यौहार अंधेरे पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अज्ञानता पर ज्ञान, जुनून पर शांति, और निराशा पर आशा की जीत को दर्शाता है । लोग दिवाली की रात्रि सभी जगहों, बाहरी दरवाजे और खिड़कियों, मंदिरों के आसपास, इमारतों आदि में मिटटी के दीपक जला कर जश्न मनाते है। दिवाली की रात्रि चारो ओर चमकीले लाखों रोशनी के पुंज बहुत भव्य दिखाई देते हैं ।
इस त्यौहार की तैयारी और अनुष्ठान आम तौर पर पाँच दिनों तक होते हैं (कुछ स्थानों जैसे महाराष्ट्र में छह दिनों तक) । लेकिन दिवाली की मुख्य उत्सव रात्रि हिंदू चंद्र सौर माह ‘कार्तिक’ की सबसे अंधेरी, अमावस्या (नई चंद्रमा की रात्रि ) को होती है । दीवाली रात्रि मध्य अक्टूबर और मध्य नवंबर के बीच होती है ।
दिवाली की रात्रि से पहले, लोग अपने घरों और कार्यालयों को कई अलग-अलग तरीकों से साफ, पुनर्निर्मित और सजाते हैं । दिवाली की रात्रि को, लोग नए कपड़े पहनते हैं, अपने घर के अंदर और बाहर प्रकाश के लिए दीये (मिट्टी का दीपक) और मोमबत्तियां जलाते हैं, परिवार के साथ देवी लक्ष्मी जी (प्रजनन क्षमता और समृद्धि की देवी) एवं गणेश जी की पूजा (प्रार्थना) में भाग लेते हैं । पूजा के बाद, बच्चे और बड़े मिलकर आतिशबाजी चलाते हैं, फिर सब मिलकर मिठाई और कई अन्य स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को परिवार के सदस्यों के साथ खाते हैं और करीबी दोस्तों एवं रिश्तेदारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता है । दीपावली के आसपास का समय एक प्रमुख खरीदारी अवधि को भी चिह्नित करता है । भारत के क्षेत्र के आधार पर उत्सव के दिनों के साथ-साथ दिवाली के कुछ महत्वपूर्ण अनुष्ठान हिंदुओं के बीच कुछ भिन्न भिन्न रूप से होते हैं । भारत के कई हिस्सों में, दिवाली उत्सव गोवत्स द्वादशी से शुरू होते हैं, इस दिन गायों और बछड़ों की पूजा की जाती है । अगले दिन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग में धनतेरस होती है। (अधिकतर लोग धनतेरस से दिवाली उत्सव शुरू करते हैं और दिवाली उत्सव की प्रार्थना का पहला दिन गोवत्स द्वादशी को नहीं मानते हैं बल्कि धनतेरस को ही पहला दिन मानते हैं) उससे अगला तीसरा दिन नर्क चतुर्दशी के नाम से मनाया जाता है चौथा दिन दिवाली के रूप में मनाया जाता है पाँचवा दिन गोवर्धन या गोबर्धन पूजा (गोबार अर्थात गाय का गोबर, क्योंकि पुराने समय में गांवों में लोग गाय के गोबर का प्रयोग बहुत से कार्यो में करते थे और उसमे कई औषधिय गुण भी होते हैं और उस समय में और कई जगह आज भी गाय के गोबर को भी एक प्रकार का धन ही माना जाता है) के नाम से मनाया जाता है जो की पति एवं पत्नी के रिश्ते को समर्पित है ।
छठे दिन भाई दूज, जो बहन-भाई के संबंध को समर्पित है, के साथ उत्सव समाप्त होता है । धनतेरस आमतौर पर दशहरा के अठारह दिन बाद आता है । जिस रात्रि हिन्दू दिवाली मनाते हैं उसी रात्रि, जैन भी भगवान महावीर द्वारा मोक्ष की प्राप्ति को चिन्हित करने के लिए दिवाली नामक त्यौहार मनाते हैं एवं दिवाली के दिन ही सिख लोग मुगल साम्राज्य की जेल से गुरु हरगोबिंद जी की मुक्तई को चिन्हित करने के लिए ‘बंधी छोड़ दिवस’ मनाते हैं ।
दिवाली हिंदू कैलेंडर महीने कार्तिक में ग्रीष्मकालीन फसल कटने के बाद त्यौहार के रूप में भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है । दिवाली त्यौहार का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों जैसे पद्म पुराण और स्कंद पुराण में किया गया है- दोनों ग्रन्थ सहस्राब्दी ईस्वी के दूसरे छमाही में पूरा हुए थे, लेकिन माना जाता है कि इन ग्रंथो का पहले के युग के मुख्य लेखन से विस्तार किया गया था। स्कन्द पुराण में दीया (मिट्टी का दीपक) का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से सूरज के कुछ हिस्सों को दर्शाता है- जो सभी के जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का ब्रह्मांडीय दाता हैं, एवं अंधेरे के डर को दूर करने के लिए हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में मौसमी रूप से संक्रमण करता है । भारत के कुछ क्षेत्रों में हिंदू कार्तिक अमावस्या (दिवाली रात्रि) पर यम और नचिकेता (ज्ञान की अग्नि) की किंवदंती के साथ दिवाली को जोड़ते हैं ।कठ उपनिषद में नचिकेता की कहानी, सही बनाम गलत, वास्तविक धन बनाम क्षणिक धन, और अज्ञान बनाम ज्ञान, के वास्तविक अंतर के रूप में दर्ज की गई है । दुनिया भर के सबसे ज्यादा हिंदू भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण के 14 साल वन में रहने के बाद भगवान राम के द्वारा राक्षस राजा रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के सम्मान में दिवाली मनाते हैं । लंका से भगवान राम, देवी सीता और लक्ष्मण की वापसी का सम्मान करने के लिए, और अपने मार्ग को उजागर करने के लिए, ग्रामीणों ने बुराई पर भलाई की जीत का जश्न मनाने के लिए सबसे पहले मिट्टी के दीये जलाये और तब ही से दिवाली मनाने का चलन शुरू माना जाता है । कुछ लोगों के लिए महाभारत के अनुसार, दीवाली को पांडवों के बारह वर्षों के वनवास (निर्वासन) और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद की वापसी के जश्न के रूप में मनाते हैं ।इसके अतरिक्त, दीपावली को देवी लक्ष्मी के उत्सव से जोड़ा जाता है, जिनकी हिन्दुओं में धन और समृद्धि की देवी के रूप में पूजा की जाती है, और जो भगवान विष्णु की पत्नी है । दिवाली का 5 दिवसीय त्यौहार उस दिन शुरू होता है जब देवी लक्ष्मी का जन्म, सुर (देवता) और असुर (राक्षसों) द्वारा दूध के लौकिक महासागर के मंथन से हुआ था (धन तेरस); जबकि दिवाली की रात्रि वह दिन है जब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चुना और उनका विवाह हुआ था ।
दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी के साथ साथ भक्त, भगवान गणेश को प्रसाद अर्पित करते हैं, जो नैतिक शुरुआत और बाधाओं को निडरता से हटाने के प्रतीक हैं । एवं देवी सरस्वती, जो संगीत, साहित्य और शिक्षा की प्रतीक हैं और भगवान कुबेर, जो पुस्तक रखने, छुपा खजाना और धन प्रबंधन का प्रतीक है,की भी पूजा करते हैं । अन्य हिंदुओं का मानना है कि दीवाली वह दिन है जब भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी वैकुंठ में उनके निवास स्थान पर आये थे । जो लोग दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं उन्हें लक्ष्मी माँ की अच्छी मनोदशा का लाभ मिलता है, और इसलिए आगे के वर्ष के लिए मानसिक और भौतिक कल्याण का आशीर्वाद मिलता है । भारत के पूर्वी क्षेत्र, जैसे ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हिंदू, दिवाली की रात्रि देवी लक्ष्मी के बजाय देवी काली की पूजा करते हैं, और त्यौहार को काली पूजा कहते हैं ।
गोवर्धन के दिन भारत के ब्रज और उत्तर मध्य क्षेत्रों में, भगवान कृष्ण व्यापक रूप से पूज्येहैं। इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत की प्रार्थना करते हैं । भारत के कुछ क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अनाकूट) के दिन, कृष्ण भगवान को 56 या 108 विभिन्न व्यंजनो का भोग लगाया जाता है और प्रसाद वितरित किया जाता है । पश्चिम और भारत के कुछ उत्तरी हिस्सों में, दिवाली का त्यौहार एक नए हिंदू वर्ष की शुरुआत को चिन्हित करता है ।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका विचारणीय आलेख “दोस्ती क्या?”।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 8 ☆
☆ दोस्ती क्या? ☆
प्यार, वफ़ा, दोस्ती के/सब किस्से पुराने हो गए/एक छत के नीचे रहते हुए/एक-दूसरे से बेग़ाने हो गए/ अजब-सा है व्याकरण ज़िन्दगी का/हमें खुद से मिले जमाने हो गए/यह फ़साना नहीं, हक़ीक़त है जिंदगी की,आधुनिक युग की….जहां इंसान एक-दूसरे से आगे बढ़ जाना चाहता है, किसी भी कीमत पर…. जीवन मूल्यों को ताक पर रख, मर्यादा को लांघ, निरंतर बढ़ता चला जाता है। यहां तक कि वह किसी के प्राण लेने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। औचित्य -अनौचित्य व मानवीय सरोकारों से उसका कोसों दूर का नाता भी नहीं रहता। रिश्ते-नाते आज कल मुंह छिपाए जाने किस कोने में लुप्त हो गए हैं।
प्यार, वफ़ा, दोस्ती अस्तित्वहीन हो गये हैं, क्योंकि संसार में केवल स्वार्थ का बोलबाला है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में चारों ओर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अविश्वास, संत्रास आदि का भयावह वातावरण सुरसा के मुख की भांति निरंतर फैलता जा रहा है तथा स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, परोपकारादि भावनाओं को अजगर की भांति लील रहा है।
इन विषम परिस्थितियों में संशय, संदेह व आशंका के कारण, केवल दूरियां ही, नहीं बढ़ती जा रहीं, मानव भी आत्म-केंद्रित हो रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी के मध्य पसरा मातम-सा सन्नाटा, अजनबीपन का अहसास, संवादहीनता का परिणाम है, जो मानव को संवेदन-शून्यता के कग़ार पर लाकर नितान्त अकेला छोड़ देता है और मानव एकांत की त्रासदी झेलता हुआ अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है। उसे कोई भी अपना नहीं लगता क्योंकि उसकी संवेदनाएं, अहसास, जज़्बात उसे मृत्तप्राय: प्रतीत होते हैं…किसी वे किसी दूसरे लोक के भासते हैं।
वह लौट जाना चाहता है, अतीत की स्मृतियों में….
जहां उसे बचपन की धमाचौकड़ी,मान-मनुहार,पल- प्रति पल बदलते मनोभावों की यादें आहत-विकल करती हैं। युवावस्था की दोस्ती एक-दूसरे पर जान लुटाने तथा मर-मिटने की कसमें, उसके अंतर्मन को कचोटती हैं। वह निश्छल प्रेम की तलाश में भटकता रहता है, जो समय के साथ नष्ट हो चुकी होती हैं। मानव उसे पा लेना चाहता है,जो कहीं नि:सीम गगन में लुप्त हो चुका होता है, जिसे पाना कल्पनातीत व असंभव हो जाता है। वे नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते, परंतु क्षितिज के उस पार मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु उसकी अंतहीन तलाश सदैव जारी रहती है।
सुक़ून के चन्द पलों की तलाश में वह आजीवन भटकता रहता है, जहां उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है। वह स्वयं से बेखबर, अजनबी सम बनकर रह जाता है। वह मृग-मरीचिका सम भौतिक सुख- सुविधाओं की तलाश में निरंतर भटकता रहता है और एक दिन इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।
काश! इंसान का अंतर्मन दैवीय गुणों से लबरेज़ से रहता और सहृदयता व सदाशयता को जीवन में धारण कर, अहं को शत्रु सम त्याग देता,तो विश्व में समन्वय,सामंजस्य व समरसता का सुरम्य वातावरण रहता। किसी के मन में किसी के प्रति शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता का भाव न रहता…चारों ओर शांति का साम्राज्य प्रतिस्थापित रहता। वह मौन को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार, नवनिधि सम संजो कर रखता व आत्मलीन रहता…. अंतरात्मा के आदेश को स्वीकारता। इस स्थिति में वह राग-द्वेष, स्व-पर से निज़ात पा लेता। उसे प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता। वह संत एकनाथ की भांति कुत्ते में भी प्रभु के दर्शन पाता और रोटी पर घी लगाकर उसे रोटी खिलाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ता। वह हर पल अनहद नाद की मस्ती में खोया अलौकिक आनंद को प्राप्त होता क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है …जीते जी मुक्ति पाना।
(डॉ भावना शुक्ल जी को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक भावप्रवण कविता “स्त्री क्या है ?”। )