(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 18☆
☆ उपदेशक और समुपदेशक ☆
अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो, सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।
लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।
एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’
तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।
उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है। राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।
समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।
समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना जीवनोत्सव. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं. हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं. उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने एक ऐसे चरित्र का विश्लेषण किया है जो आपके आस पास ही मिल जायेंगे. एक खानदानी मामूली आदमी की किसी भी हरकत को नजरअंदाज किया जा सकता है किन्तु, एक बड़े आदमी की एक एक हरकत पर समाज की नजर रहती है। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य “बड़ा आदमी साइकिल पर ”.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 21 ☆
☆ व्यंग्य – बड़ा आदमी साइकिल पर ☆
मगन बाबू ख़ानदानी रईस हैं, वैसे ही जैसे हम ख़ानदानी मामूली आदमी हैं। वे विशाल भवन, पन्द्रह-सोलह कारों और दीगर संपत्ति के स्वामी हैं।
मौजी तबियत के आदमी हैं। नौकरों और परिवार के सदस्यों से उनकी चुहलबाज़ी चलती है। तुफ़ैल मियाँ उनके ख़ास मुँहलगे नौकर हैं। वे जब-तब तुफ़ैल मियाँ के पेट में गुदगुदी मचाते रहते हैं और तुफ़ैल मियाँ नाराज़ी का अभिनय करते, शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करते रहते हैं। एकान्त पाकर मगन बाबू तुफ़ैल मियाँ को कुछ ‘जनता छाप’ गालियाँ भी देते हैं। तुफ़ैल मियाँ ऊपर से ग़ुस्से का प्रदर्शन करते हुए भीतर-भीतर गदगद होते रहते हैं।
उस दिन मगन बाबू अधिक ही मौज में थे। न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दीवार से टिकी तुफ़ैल मियाँ की साइकिल एकाएक उठायी और सवार होकर पैडल मारते हुए बंगले के गेट से बाहर निकल गये।
बंगले में तहलका मच गया— ‘बाबूजी साइकिल पर बैठकर निकल गये’, ‘मगन बाबू साइकिल पर बाहर चले गये।’ भारी दौड़-धूप शुरू हो गयी। तुफ़ैल मियाँ चप्पलें फेंककर पीछे-पीछे दौड़े। तीन-चार सेवक और दौड़े। तुरन्त दो कारें गैरेज से निकलीं और बाबूजी की तलाश में दौड़ पड़ीं। मगन बाबू की माताजी ऊपर से उतरकर लॉन में परेशान घूमने लगीं। बंगले के सारे प्राणी नाना प्रकार की वेशभूषा में लॉन पर जमा होकर उत्सुकता से ख़बर का इन्तज़ार करने लगे।
मगन बाबू उस समय पैडल मारते हुए बाज़ार से गुज़र रहे थे। पीछे-पीछे चार-पाँच नौकर ‘बाबूजी’ ‘बाबूजी’ चिल्लाते उनके पीछे भाग रहे थे। तुफ़ैल मियाँ उन्हें अपने सर की कसम देते दौड़ रहे थे। लेकिन मगन बाबू मौज में दाहिने-बायें सिर हिलाते बढ़ते जा रहे थे।
बाज़ार के लोग यह कौतुक देख देखकर दूकानों के सामने जमा हो रहे थे। मगन बाबू को सब जानते थे। जो नहीं जानते थे वे दूसरों से पूछ रहे थे, ‘यह क्या है भाई?’ जानकार हँसकर सिर हिलाते, कहते, ‘वे मगन बाबू हैं न? साइकिल पर निकल पड़े हैं। मौजी आदमी हैं। ‘जो मगन बाबू से ज़्यादा परिचित थे,वे उन्हें सम्बोधन करके ‘वाह बाबू साहब’ ‘वाह बाबू साहब’ कह रहे थे। मगन बाबू के इस कौतुक ने पूरे बाज़ार में मौज और दिल्लगी का वातावरण बना दिया था। जहाँ देखो वहाँ ‘मगन बाबू भी क्या हैं!’, ‘मगन बाबू भी खूब हैं!’ सुनायी पड़ रहा था।
साइकिल की रफ़्तार थोड़ी धीमी होते ही तुफ़ैल मियाँ और दूसरे सेवकों ने उनके पास पहुँचकर साइकिल को थाम लिया। तब तक एक कार भी आ पहुँची। मगन बाबू को साइकिल से उतारकर कार में बैठाया गया। बाज़ार वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ उनके इर्दगिर्द जमा हो गयी थी। ‘अरे वाह रे बाबू साहब!’ ‘धन्य हो बाबू साहब!’ की टिप्पणियाँ चल रही थीं। मगन बाबू मन्द मन्द हँस रहे थे।
कार के बंगले में दाख़िल होने पर मगन बाबू बाहर निकलकर लॉन में आरामकुर्सी पर फैल गये। उनकी माताजी विह्वल भाव से उनके शरीर पर हाथ फेरने लगीं। बंगले के सब छोटे-बड़े उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उलाहने के स्वर में टिप्पणियाँ आ रही थीं, ‘कुछ तो सोचना चाहिए’, ‘कुछ हो जाता तो?’, ‘बड़ी बेफिक्र तबियत के हैं’, वगैरः वगैरः। तुफ़ैल मियाँ कह रहे थे, ‘अबकी बार आप ऐसा करके देखिए, लौट के मुझे ज़िन्दा न पाएंगे। ‘ माताजी कह रही थीं, ‘तू क्यों हमको इतना सताता है रे? सब दिन बच्चा ही बना रहेगा? छः बच्चों का बाप बन गया, कुछ तो समझ से काम ले।’ और मगन बाबू आँखें बन्द किये मन्द-मन्द मुस्कराए जा रहे थे।
बंगले के भीतर उनकी पुत्री अपने चाचा से फ़ोन पर बात कर रही थी—-‘आज साइकिल से निकल पड़े। आफत मच गयी थी। बिलकुल ठीक हैं। कुछ नहीं हुआ। मानते नहीं हैं न। कुछ न कुछ मज़ाक करते ही रहते हैं।’
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी आरसा. सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं. सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। हिंदी में मराठी शब्द “आरसा” का अर्थ “दर्पण “है। सुश्री आरुशी जी के इस आलेख ने सहज ही स्वर्गीय मीनाकुमारी जी के चलचित्र “काजल ” के एक गीत की कुछ पंक्तियों को मानस पटल पर ला दिया । उन पंक्तियों को आपसे साझा करना चाहूंगा। उदाहारार्थ – “तोरा मन दर्पण कहलाए / भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए। “ सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं। उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #25 ☆
☆ आरसा ☆
अत्यावश्यक वस्तू… घरात हा पाहिजेच, निदान ज्या घरात बाईमाणूस राहत आहे त्या घरात तर पाहिजेच… हो ना!
नाही म्हणजे कसं, रोज त्यात पाहायला पाहिजे ना की चेहरा सुंदर झाला आहे की नाही? ते खूप जरुरी आहे, नाही तर सगळाच गोंधळ होईल हो… स्वतःची image, impression, वगैरे सगळं सांभाळावं लागत नाही का ! तेही योग्यच आहे म्हणा… first impression is the best impression असं कोणीतरी म्हणून ठेवलंय आणि त्यातच आम्ही बऱ्याच वेळा गुंतत जातो…
Impression म्हणजे नेमकं काय हे त्या आरशात पाहिल्यावर कळतं का हो? त्या आरशात नक्की काय काय दिसत असेल? मला तर असं वाटतं की आपल्याला जे दिसायला हवं असेल तेच दिसत असणार… सोयीस्कररित्या… आणि हे सगळं खरंच असतं का? हा प्रश्न स्वतःलाच विचारून स्वतःलाच उत्तर देता आलं पाहिजे, शिवाय खरं आणि खोटं ह्यातील फरक जाणवला की मग योग्य मार्ग नक्की सापडेल, जो शाश्वत असेल…
बाह्यरुपतील चेहरा ह्या काचरुपी आरशात नक्कीच दिसतो, पण मनाचे प्रतिबिंब कुठल्या आरशात दिसेल? शक्यता कमी आहे… कदाचित निरखून पाहिलं तर हे नक्की जाणवेल… मनरुपी डोहात डोकावून पाहायचं धाडस करावंच लागेल कधी ना कधी तरी, जर स्वतःचा खरा चेहरा पाहायचा असेल तर… सर्व मुखवटे दूर करून… तो खोटा मेक अप धुऊन टाकणे गरजेचं आहे, कारण आपले व्यक्तिमत्व आणि जगासमोर ठेवलेले व्यक्तिमत्त्व ह्यात जर फरक असेल तर मानसिक ओढाताण अटळ आहे… शाश्वत अशाश्वत दुनियेतील काय हवं आहे हे मनाशी ठरवणे आवश्यक आहे… मनाची खरी हाक ऐकून त्याप्रमाणे जगणं आवश्यक आहे…
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है “एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ”।)
विरुपक्ष (अर्थ : एक महीने के एक पक्ष अथार्त 15 दिनों के लिए वीर) को भगवान ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि वह ‘चंद्रमा’ का एक ‘पक्ष’ या चंद्रमा का पृथ्वी के चारो और पूरे चक्कर का आधा समय जो की करीब 15 दिन होते है को चुन सकता है या तो कृष्ण पक्ष (काला या अँधेरा आधा मार्ग) या शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा मार्ग), अपने चुने हुए आधे चक्र के दौरान, वह कभी भी किसी के भी द्वारा पराजित नहीं होगा, और यदि उसने अपनी पसंद के एक महीने का एक आधा भाग चुना, जिसमें वह पराजित नहीं हो सका, तो वह उस माह के अगले या दूसरे आधे भाग या 15 दिनों में पराजित हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर उसने किसी के साथ लड़ने के लिए चंदमा के चक्र का उज्जवल आधा भाग या शुक्ल पक्ष चुना है, तो वह कभी भी पूरे 15 दिनों के इस उज्ज्वल आधे भाग में किसी से पराजित नहीं होगा। लेकिन जब चंद्रमा का अगला चरण अर्थात अँधेरा आधे भाग या कृष्ण पक्ष आयेगा तो वह उसमे पराजित हो सकता है। इसी तरह अगर वह अँधेरा भाग या कृष्ण पक्ष चुनता है तो 15 दिनों तक पराजित नहीं होगा और 15 दिनों बाद जब उज्जवल भाग या शुक्ल पक्ष शुरू होगा तो उसमे पराजित हो सकता है ।
विरुपक्ष अपने चुने हुए अंधेरे आधे भाग में युद्ध भूमि में आया, इसलिए वह उस आधे भाग में पराजित नहीं हो सकता था। उसने वानरों को बुरी तरह से मारना शुरू कर दिया।जल्द ही भगवान हनुमान विरुपक्ष के रास्ते में आ गए। भगवान हनुमान ने बहुत कोशिश की और विरुपक्ष के साथ लगातार लड़ते रहे,लेकिन भगवान ब्रह्मा जी से मिले वरदान की वजह से वह उसे हराने में असमर्थ थे।
भगवान राम के समूह में हर कोई चिंतित था। तब विभीषण ने भगवान राम को सुझाव दिया कि, “हम विरुपक्ष को तब तक पराजित नहीं कर सकते जब तक चंद्रमा अपने आधे अंधेरे चक्र को आधे उज्ज्वल चक्र में बदलकर हमारी सहायता नहीं करेंगे”
उसी समय भगवान इंद्र आकाश में दिखाई दिए और कहा, “हे राम, आपका युद्ध मानवता के लिए है। मैं चंद्रमा को आदेश देता हूँ, ताकि वह अपने चरणों को बदल दे और दूसरे आधे चक्र में चला जाए”
कुछ देर बाद चंद्रमा ने अपने मासिक चक्र के आधे अंधेरे भाग, कृष्ण पक्ष को आधे चमकीले या उज्जवल, शुक्ल पक्ष भाग में बदल दिया, और जल्द ही विरुपक्ष का शरीर घटना शुरू हो गया। चूंकि अब विरुपक्ष का शरीर कमजोर हो गया, तो भगवान हनुमान ने उसे पकड़ लिया और फिर उसे मार डाला।ऐसा कहा जाता है कि तब से चंद्रमा पृथ्वी के इर्दगिर्द अपने सामान्य आधे चक्र से आधे चक्र के अंतराल से अपना मासिक क्रम दोहरा रहा है।
भगवान राम ने अपने हाथों को आकाश में चंद्रमा की ओर बढ़ा कर चंद्रमा को प्रणाम एवं धन्यवाद किया।
जल्द ही चंद्रमा के देवता भगवान राम के सामने प्रकट हुए और उनसे अनुरोध में कहा, “हे भगवान! आप मुझे धन्यवाद क्यों दे रहे है? मेरी चमक शक्ति और शीतलता, आपका ही प्रताप है।यदि आप वास्तव में मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं, तो मुझे वचन दीजिये कि जैसे आप अपने इस युग के अवतार में सूर्य वंश में जन्मे है, वैसे ही अगले युग के अवतार में आप मेरे वंश अथार्त चंद्र वंश में जन्म लेंगे”
भगवान राम मुस्कुराये और चाँद से कहा, “यह मेरे लिए खुशी होगी। मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे अगले अवतार में मैं चंद्र वंश (चंद्रवंशी) में जन्म लूँगा ।
हम सभी जानते हैं कि अगले अवतार में, भगवान विष्णु का जन्म चंद्र वंश में भगवान कृष्ण के रूप में हुआ था ।
((सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं । वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की एक भावप्रवण कविता “मयख़ाना “।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 12 ☆
☆ मयख़ाना ☆
मयखाने के पास में मेरी भी दुकान है,
हर रोज मैं शरीफों के चेहरे देखती हूँ ।
सफेदपोश लिपे हुए कमसिन चेहरें,
जेबें टटोलते हुए सहर देखती हूँ ।
हरी भरी सब्जियां सूखती हैं दुकानों में
और शाम को छलकते हुए जाम देखती हूँ।
भूख से बिलखते बच्चे हाथ फैलाते हैं
काँच से बच्चों की जान सस्ती पाती हूँ ।
लड़खड़ाते कदमों को थामे नन्हीं ऊँगलियाँ
डरे हुए चेहरों की जिंदगियाँ देखती हूँ ।
दर्दहीन कमजोर आँखों में खून खौलता है
मयखाने के दर पर उनका नसीब देखती हूँ ।
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनकी कविता चिंतामणी चारोळी जो श्री गणेश जी का प्रासादिक वर्णन किया गया है। श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )
☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 11 ☆
☆ चिंतामणी चारोळी ☆
(माझ्या “चिंतामणी चारोळी “संग्रहातील श्रीगणेशाचे प्रासादिक वर्णन करणाऱ्या न ऊ चारोळ्या)
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.
वरिष्ठ रचनाकार, काव्य जगत से अपने लेखन की शुरुआत करने वाली, श्रेष्ठ व्यंग्य लेखिका अनेक सम्मान से सम्मानित आज की श्रेष्ठ कथा लेखिका बहुमुखी प्रतिभा की धनी सूर्यबालाजी से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व तथा विविध लेखन विधा के संदर्भ में सूर्यबाला जी ने बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुति दी है। प्रस्तुत है सूर्यबाला जी से डॉ भावना शुक्ल जी की बातचीत…..
हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार सूर्यबाला जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 19 साहित्य निकुंज ☆
☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆
(मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है….)
डॉ भावना शुक्ल – आपके लेखन में स्त्रीत्व की सुगंध समाहित है आपका सम्पूर्ण लेखन स्त्री वाद पर ही आधारित है, इस पर प्रकाश डालिए?
सूर्यबाला – सच पूछिए तो मैंने मात्र स्त्री-केंद्रित लेखन, यानी स्त्री समस्याओं से जुड़ा लेखन कम ही किया है। लेकिन यह सच है कि मेरे लेखन के केंद्र में स्त्रीत्व एक सुगंध की तरह व्याप्त है। मैं प्रकृति की इस रचना, स्त्री को बहुत अनूठे गुणों, और छबियों से युक्त मानती हूं, विलक्षण मानती हूं, स्त्री और, स्त्री-शक्ति को। मेरे पास मेरा अपना स्त्री-वाद है वह फार्मूले वाला वाद नहीं, स्त्री-भाव वाला स्त्री-वाद। इस भाव और वाद के केंद्र में वह स्त्री है जिसकी कोशिशों से ही यह विश्व सुंदर बन सकता है, स्त्री चाहेगी तभी, अन्यथा नहीं।
डॉ भावना शुक्ल – ‘सुबह के इंतजार तक’ शीर्षक उपन्यास की मानू बलात्कार के अवांछित आघात को किस तरह वहन करती है ? क्या स्नेह और सहानुभूति ही उसका आधार है?
सूर्यबाला – इस छोटी की उपन्यासिका ‘सुबह के इंतजार तक…’ की किशोर नायिका मानू अपने भाई की पढ़ाई का छूट जाना (पिता की छंटनी के कारण) बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह आज से तीस वर्ष पहले की कहानी है। अपने मामा के कारखानें के किसी वर्कर के कुकृत्यों का अभिशाप भुगतती मानू, अपने माता-पिता को इस आघात से भी विगलित नहीं देख पाती और एक अंधेरी सुबह, छोटे भाई के साथ घर छोड़ देती है। एक तरह से माता-पिता को जैसे मुक्त कर देती है। असंभव सी लगती इस कहानी में मानू उस विनम्र लेकिन दृढ़ संकल्पी स्त्री की छवि निर्मित करती है जो आक्रामकता से नहीं बल्कि विनम्र आत्मस्वीकार से अपने आस-पास वालों को वश में करती है। मेरे पास ऐसी बहुत सी स्त्री छबियां है जो कंदील की तरह मेरे जीवन और लेखन में जहां तहां जगमगाती दिख जायेगी आपको। मेरे पहले उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ की शिवा ने भी अपने संवेदनशील स्त्री चरित्र से पाठकों को मुग्ध किया है। ये स्त्रियां आज के समय में भी लेने से ज्यादा देने के सुख में विश्वास करती हैं। यूं भी यह सिर्फ स्त्री का गुण नहीं, वरन मानवीय गुणों की श्रेणी में आता है।
डॉ भावना शुक्ल – आपका नया आया उपन्यास “कौन देस को वासी….वेणु की डायरी“ इन दिनों विशेष रूप से चर्चा में है? आपको क्या लगता है। इसकी किस विशेषता की वजह से पाठक इसे सराह रहे हैं?
सूर्यबाला – बहुत मुश्किल है बताना। स्वयं मुझे आश्चर्य हो रहा है। कभी सोचा नहीं था कि इस तेज रफ्तार समय में इस लगभग चार सो पृष्ठ वाले उपन्यास को पाठक इतने धैर्य से पढ़ेंगे और मुक्तभाव से सराहेंगे। लोगों को यह भी अच्छा लगा कि इस पूरे उपन्यास के इतने चरित्रों मैं किसी चरित्र के साथ जजमेंटल नहीं हुई हूं। वे इस उपन्यास के प्रमुख चरित्रों वेणु के साथ ही नहीं, बल्कि उसकी मां, तीनों बहनों वसुधा, वृंदा, विशाखा तथा विदेश में मिले स्त्री चरित्रों के साथ भी इतना जुड़ाव महसूस करेंगे। एक पाठक ने लिखा है, इस उपन्यास को मैंने सिर्फ पढ़ा नहीं जिया है। कभी वेणु बन कर तो कभी मां, कभी विशाखा बन कर तो कभी वसु…. एक कारण शायद यह भी हो कि मैंने मात्र पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों को कथा रूप में समांतर पाठकों के सामने रख दिया है और निर्णय उनके ऊपर छोड़ दिया है। मैं स्वयं निर्णायक नहीं हुई हूं। पाठक पूरी तरह स्वतंत्र है परंपराओं और आधुनिकता तथा पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के बीच से रास्ता निकालने के लिए।
डॉ भावना शुक्ल – इन दिनों विवाह स्थायी क्यों नहीं हो पा रहे हैं?
सूर्यबाला – कोई एक स्थूल कारण नहीं। पर कुछ चीजें शीशे की तरह साफ है। समय की रफ्तार बहुत तेज है। किसी के पास आपसी संबंध, दायित्व निभाने का समय नहीं। समय नहीं तो ‘साथ’ नहीं, और साथ की कामना की चाहना धीरे-धीरे रितती चली जाती हैं। हर किसी के लिए विश्वास और संबंधों से ज्यादा कैरियर प्रमुख हो गया है। जीवन के सारे बहुत महत्वपूर्ण संबंध भी ‘अर्थ शास्त्र से जुड़ गए हैं। सबसे बढ़कर अब स्त्री ने अपने साथ निभाने वाली भूमिका से, त्याग और समर्पण वाले आदर्शों से किनारा कर लिया है। तो विवाह संस्था औंधे मुंह गिरेगी ही। आज भी जहां स्त्री, परिपक्व समझदार होती है, वह पति परिवार को बखूबी संभाल ले जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है दिनोंदिन तलाक की समस्या का बढ़ते जाना। यूं भी असफल विवाह के लिए तलाक एक सीमित समधान है मैंने कहीं लिखा था, तलाक स्वर्ग की गारंटी नहीं।
हमें दूसरों की भावना को समझने उसकी पसंद नापसंद की कद्र करनी होगी। बात बड़ी नहीं होती, बड़ी बना दी जाती है। सिर्फ एक दूसरे की भावना और पसंद को समझ कर हम एक दूसरे का दिल जीत सकते हैं। आज हर व्यक्ति बेसब्र है, हर किसी को अपनी शर्तों पर जीना है। ऐसे में ‘सहभाव’ और सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है!
डॉ भावना शुक्ल – क्या आज की स्त्री मुक्त हो पाई है। या वह मार्ग तलाश रही है, क्यों?
सूर्यबाला – ये मुक्ति, मुक्ति का शोर मचाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो वास्तविक मुक्ति का मतलब भी नहीं जानते। ‘मुक्ति’ नापतौल कर, गज फुट से मापी और मांगी जाने वाली चीज नहीं है। मुक्ति एक मानसिकता है, एक विचार है जो आपकी दृष्टि को फैलाव देता है। इससे आप दूसरो को भी रोशनी देते हैं। मुझे नहीं लगता है कि बहुत सी स्त्रियों को पता भी है कि आखिर उनकी तलाश है क्या? कैसी मुक्ति? किससे मुक्ति? मैंने बहुत सी साक्षर, महिलाओं को इतनी तंग मानसिकता का देखा है कि आश्चर्य हुआ है….. उन्हें सिर्फ अपनी स्पेस चाहिए। मुक्त तो वह स्त्री हुई न जो दूसरों की ‘स्पेस’ की चिंता करती हो, या वह जो दूसरों की स्पेस पर भी अपना वर्चस्व चाहती हो।
डॉ भावना शुक्ल – आज के समय में पाठक की मर्मज्ञता क्या दृश्य माध्यम से पूर्ण हो सकती है?
सूर्यबाला – शायद आपका आशा यह है कि क्या दृश्य माध्यम आज एक मर्मज्ञ पाठक/श्रोता या दर्शक की अपेक्षा पूरी करने की स्थिति में हैं? तो बिलकुल नहीं। दृश्य माध्यम पूरी तरह हवाई, अतिशयोक्ति पूर्ण चीजें परस रहे हैं। उन्हें सिर्फ टी.आर.पी. की चिंता है। वे दर्शकों की रूचियों का परिष्कार नहीं उसे प्रदूषित कर रहे हैं। वे टी.आर.पी. का बहाना लगा कर अत्यंत फूहड़, अव्यवहारिक और सतही मनोरंजन दे रहे हैं, और दोष दर्शकों के माथे मढ़ रहे हैं, यह कहकर कि उन्हें यही पसंद आता है। यदि दर्शकों को पसंद आ भी रहा हो तो भी उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का ध्यान रखकर वह देना चाहिए जो लोगों के लिए श्रेयस्कर हो। वह नहीं जो मात्र उनके आर्थिक लाभ का माध्यम बनें।
डॉ भावना शुक्ल – कहानी या उपन्यास लिखते समय आप किस मानसिक स्थिति से गुजरती है?
सूर्यबाला – मैं कभी पहले से विषय निश्चित कर, योजना बना कर नहीं लिखती। रचना, कृति मेरे अंदर वर्षों, महीनों बड़े सपनीले मनोरम और आभासी रूप में रहते रहे हैं तब किसी दिन भावना का आवेग चरम पर होने पर कलम कागज पर चलने लगती है। वह एक बेसुधी की सी स्थिति होती है उस स्थिति, भावना से जुड़ा सबकुछ हम उतारते चले जाते हैं…. वहां भावना और आवेग प्रधान होते हैं। समय, सुविधा और स्थितियां जितनी देर साथ देती हैं, उतना लिखती हूं। या फिर उस समय अंदर का भी आवेग थमा, ‘इंधन’ चुका तो कलम फौरन रोक देती हूं।
इस लिखे हुए को मैं पूरी तरह बंद कर आंखों से ओझल कर देती हूं। दो चार दिन या हफ्ते बाद खोल कर पढ़ती हूं…. जहां कहीं जो अटकता है, या बहुत भावावेगी लगता है, उसे काटती तराशती संतुलित करती हूं। प्रेशर या दबाव बाहर का नहीं मेरे अंदर बैठे अदृश्य आलोचक या पाठक का कह लीजिए, उसका होता है। यही होना चाहिए भी, ऐसा मैं मानती हूं।
डॉ भावना शुक्ल – आपने व्यंग्य विधा में भी कलम चलाई है आपकी दृष्टि इस ओर कैसे गई?
सूर्यबाला – व्यंग्य लेखन भी मेरी कलम की स्वतः स्फूर्त विधा है। मैंने कहानियां लिख चुकने के महीनों वर्षों बाद व्यंग्य लिखना नहीं प्रारंभ किया, बल्कि व्यंग्य, कहानियां और उपन्यास सब साथ साथ ही चले। वह आठवें नवें दशक का समय था जब मैं एक साथ कहानियां, व्यंग्य, उपन्यास और बाल साहित्य चारों विद्याओं के धाराप्रवाह लिख रही थी। अंदर जितना जो था, वह भी संभाषित विधाओं को सौंप रही थी।
लेखन में हमेशा मैंने एक अनुशासन भी बरता, जब जो विधा, जो रचना नहीं संभली, फौरन छोड़ दी। अतः मेरे पूरे लेखन में सायास कुछ भी नहीं।
डॉ भावना शुक्ल – उपन्यास कहानी व्यंग पर आप ने धारदार कलम चलाई है क्या कभी आपके मन में कविता लिखने का भाव नहीं उपजा ?
सूर्यबाला – लीजिए, मेरी शरूआत ही कविताओं से हुई है। यह पहली कविता भी अनायास ही लिख गई। मैंने कभी उस आठ नौ वर्ष की उम्र में कविता लिखने की सोची भी नहीं थी। एक दिन अनायास ही अकेले में सूझ गई, कुछ कविता टाइप पंक्तियां-
तुम बांसुरी हमारी, हो प्राण से प्यारी….
उस उम्र के लिहाज़ से इस पहली कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी भी ठीक ठाक ही लगती है- कृष्ण की बांसुरी पर सम्मोहित गोपियों के लिए वे पंक्तियां हैं-
यदि मार्ग में कोई रोक सके
तो प्राण उठा रख देती हैं।
प्राणों की बलि रखकर फिर भी….
आना वे नहीं भूलती हैं।
किशोर वय की प्रायः सभी कविताएं उत्तर प्रदेश के उन दिनों के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र ‘आज’ में छपती रहीं। उन्हीं किन्हीं दिनों क्रमशः कविता का जादू उतरता गया, कहानियां अपना वर्चस्व बढ़ाती गयीं।
डॉ भावना शुक्ल – लेखन आपके जीवन में क्या मायने रखता है क्या यह आपका अनिवार्य अंग बन गया है?
सूर्यबाला – अब इसमें दुविधा संशय नहीं रह गया है कि लिखना मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन गया है। मुझे लिख कर शांति मिलती है सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है। जीवन में इससे बढ़ कर कुछ चाहिए भी नहीं। मेरी जरूरतें बहुत सीमित हैं। कुछ प्यार भरे रिश्ते, अपना भरापूरा कुटुंब और अपनी कलम, बस…..
लोग अकसर मुझे फोन कर करके दूसरों को मिले पुरस्कारों का हवाला देकर टटोलते भी हैं कि फलां फलां को मिल गया… अमूक पुरस्कार….. लेकिन आपको….. मुझे हंसी आती है…. उन्हें कैसे समझाऊं कि एक अच्छी रचना पूरी करने के बाद का सुख लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। उसे उसी नशे में धुत होना चाहिए। मेरी जिद् ही कहिए कि आधी सदी से ऊपर हो गए, मैंने आज तक किसी पुरस्कार के लिए अपनी कोई पुस्तक नहीं भेजी। किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ी। ऊपर ऊपर इसका नुकसान भी उठाया। पर इस जिद ने मुझे बहुत रिलेक्श रखा। अब तक के जीवन में, छोटे या बड़े, जो पुरस्कार स्वयं मेरे पास आए, उन्हें बेशक मैंने सरआंखों से लगाया। ये बिन मांगे मिले मोती थे।…..
डॉ भावना शुक्ल – अंत में आप अपनी किसी भी विधा का एक प्रेरणात्मक अंश हमारे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कीजिए ?
सूर्यबाला – मेरे नये आये उपन्यास ‘कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी’ के परिशिष्ट का एक अंश जहां वेणु का अमेरिका में पला बढ़ा और भारत पर हंसने वाला बेटा, बेटू अपने पिता को उस डच बॉस जॉन मार्टिन के बारे में बता रहा है कि किस तरह उसका ‘योगी बॉस’ इंडिया से प्रभावित है-
‘.—-’ एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो मद्राः’ और ‘संतोष परम् सुखम्’ कोट करता रहता है दूसरी तरफ ‘इंडियन वे ऑफ मगिंग’, ‘इंडियन वे ऑफ लर्निंग,’ ‘इंडियन वे ऑफ लिविंग’ तक विश्लेषित करते हुए कहता है कि- नाउ इज़ द टाइम जब ‘वेस्ट’ को ‘ईस्ट’ से जूझ कर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं इंडियंस। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन इंश्योरेंस ऐंड बैंकिंग तक…. दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियंस का ही बोलबाला है।’
सूर्यबाला
बी. 504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड देवनार मुंबई-88
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख मूर्खों के पांच लक्षण . मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बात का अनादर..। डॉ मुक्ता जी ने व्हाट्सएप्प पर प्राप्त एक सन्देश से प्रेरित इस आलेख की रचना की है। यह निश्चित ही सोशल मीडिया पर प्राप्त संदेशों पर सार्थक साहित्य की रचना एक सकारात्मक कदम है । इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 21 ☆
☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆
मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बात का अनादर..। व्हाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है.भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन- मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई भी अटपटी बात करता है, अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है, अपनी विद्वत्ता का अकारण बखान करता है, बात-बात पर क्रोधित होता है, दूसरों की पगड़ी उछालने में पल भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि कि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। नास्तिक व्यक्ति परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं करता और वह स्वयं को सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर…परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं, ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, उपास्य है।
गर्व, घमण्ड, अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो परमात्म-प्राप्ति में बाधक है। वास्तव में गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का,जो मानव की नस-नस में व्याप्त है अर्थात् वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। इसका दूसरा भयावह पक्ष भी है, जो आपके पास है, उसके कारण आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखलाते हैं, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता रहता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसको सही राह दिखलाने की चेष्टा करता है, जीवन के कटु यथार्थ अर्थात् उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है, वह उस पर ज़ुल्म ढाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, वह उसके प्राण लेकर ही अहंतुष्टि करता है। अपने अहंभाव के कारण वह आजीवन सत्मार्ग पर नहीं चल पाता।
अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक पर रख व सीमाओं को लांघ कर, अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अपशब्द कहता है। जब उसे इससे भी संतोष नहीं होता, वह गाली-गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए, हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है कि बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराजू में रखकर तौलिए और यदि वह उस कसौटी पर खरा उतरता है, तो उचित है, वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए। वह आपके गले की फांस बन सकता है।
प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से, ये उत्पन्न होते हैं, अस्तित्व में आते हैं। इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है, सबको एक लाठी से लांघता है, सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्द कोश के दायरे बाहर रहता है। परशुराम का क्रोध सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।
हठ…हठ का प्रणेता है क्रोध। बालहठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने का हठ कर लेते हैं, जो असंभव होता है। परंतु उन्हें बहलाया जा सकता है। इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बालमन कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह उसे विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की किसी में सामर्थ्य नहीं होती क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है,उससे कभी भी टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत को जला कर तमाशा देखता है और स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है। उसके सपने जलकर राख हो जाते हैं।
मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान स्वी- कारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं- पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय कृत्यों का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट ‘ अर्थात् बॉस/ मालिक सदैव ठीक कर्म करता है। गलत शब्द उसके शब्द कोश की सीमा से बाहर रहता है।वह निष्ठुर प्राणी कभी भी, कुछ भी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती।
यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान गलतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं जो स्थायी भावों के साथ-साथ,समय-समय पर उठते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी इन्हें धारण कर लेता है, उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है। वह विपरीत पक्ष के व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार देता ही कहां है। अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे हुए, चंद वाक्यों का प्रयोग-उपयोग वह हिटलर की भांति धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्नचित्त रहता है, सदैव अपनी-अपनी हांकता है और चंद लम्हों में लोग उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं और उससे निज़ात पाना चाहते हैं ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला गया कोई वाक्य उनके लिए भविष्य में संकट व जी का जंजाल न बन जाये। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है… नियति बन जाती है।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक सामयिक रचना “धनतेरस त्यौहार ”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . )