मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 21 – स्त्री जन्म  ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  स्त्री जन्म  और उससे  जुडी हुई विसंगतियों पर आधारित एक भावप्रवण कविता  – “स्त्री जन्म । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 22☆ 

 

 ☆ स्त्री जन्म  ☆

 

लाभलासे स्त्री जन्म हा

लेक तुझी मी भाग्याची।

दोन्ही कुळं उद्धरीन

जाण मनी तव कार्याची।

 

शिक्षण रुपी रसाचे

करीन नित्य  मंथन।

स्वत्व लेणे उजळीन

करून मनी चिंतन।

 

आदर्श संसार जणू

वान घेतले सतीचे।

कर्तृत्वाने मिरवीन

नाव माझिया पतीचे।

 

काम क्रोध लोभ सारे

जसे मायावी हरिण।

सद्बुद्धी हात हाती

अखंडीत मी धरीन ।

 

मद मोह मत्सराने

खीळ तुटते नात्याची।

पाजता ग प्रेमामृत

बाधा टळली वैऱ्यांची।

 

सत्कर्माच्या वृंदावनी

दारी लाविते तुळस।

उद्योगाचे घाली पाणी

नित्य सोडून आळस।

 

स्त्री जन्माच्या कळसाला

असे त्यागाचा आधार।

उमगता संसाराचे

होई स्वप्न हे साकार।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 22 – व्यंग्य – शोधछात्र का ज्ञानोदय ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने  एक ऐसे शोध छात्र  के  चरित्र का विश्लेषण किया है जो अपने गाइड  का झोला थामे आपके आस पास ही भरे बाजार मिल  जायेगा।  झोला मात्र  सांकेतिक वस्तु है  और इस  संकेत के पीछे भी एक दुनिया है। हम कुछ बिरले शोध छात्र  एवं गाइड को इस श्रेणी में नहीं रखते  किन्तु, समाज में यह छवि ऐसे ही नहीं बन पड़ी है।  फिर डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “शोधछात्र का ज्ञानोदय ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 22 ☆

 

☆ व्यंग्य  – शोधछात्र का ज्ञानोदय  ☆

 

पता नहीं कहाँ से पूछता-पाछता वह मेरे घर आया।पुराने संस्कारों का युवक दिखता था। मैला सा कुर्ता-पायजामा, बढ़ी हुई दाढ़ी, और चेहरे पर ईमानदारी और सादगी का भाव।बैठकर भक्तिभाव से कहने लगा, ‘सर, मैं शोध करना चाहता हूँ। आपकी विद्वत्ता की बहुत प्रशंसा सुनी इसलिए आपके पास चला आया। मुझे अपने निर्देशन में ले लीजिए। आपकी कृपा से मेरा कल्याण हो जाएगा।’

मैं अभिभूत हो गया। सोचा, अभी भी विद्वत्ता के कद्रदाँ हैं; अभी भी ऐसे शोध छात्र हैं जो नाम के पीछे नहीं जाते, काम देखते हैं। मैंने उसका शोध विषय देखा, ‘सिनाप्सिस’ बनवायी और विषय पर विस्तार से चर्चा की। शोध की विधि और सम्बन्धित पुस्तकों के बारे में खूब चर्चा हुई।

उसने मेरे निर्देशन में पंजीकृत होने के लिए आवेदनपत्र विश्वविद्यालय में भेज दिया। फिर वह लगभग रोज़ ही मेरे पास आने लगा। हम सिर से सिर जोड़कर घन्टों चर्चा करते।वह रोज़ कुछ न कुछ लिखकर लाता और मुझे दिखाता। कभी कोई  पुस्तक लेकर आ जाता और शंका निवारण करता। हमारा काम तेज़ी से चल रहा था। वह बीच बीच में अभिभूत होकर मेरी तरफ हाथ जोड़ देता, कहता, ‘वाह सर, क्या ज्ञान है आपका! मुझे विश्वास है, आपके सहारे मेरी नैया पार हो जाएगी।’ मेरा सिर भी तब आकाश में था।

लगभग एक माह बाद मुझे लगा, मेरा शिष्य कुछ अन्यमनस्क रहता है। एक दिन मुझसे पूछने लगा, ‘क्यों सर! क्या केवल काम के बल पर डिग्री मिल जाती है?’ मैंने उसे पूरी तरह आश्वस्त किया, लेकिन मुझे लगा कहीं कोई गड़बड़ी है।

दो चार दिन बाद वह फिर पूछने लगा, ‘सर, सुना है जो विभागाध्यक्ष होते हैं उनके निर्देशन में काम करने से सफलता प्राप्त करने में आसानी होती है क्योंकि उनके नाम का प्रभाव होता है।’  मैंने उसे फिर काफी समझाया लेकिन अब मेरी आवाज़ कमज़ोर पड़ रही थी। मेरी हालत कुछ उस दुकानदार की सी हो रही थी जिसका ग्राहक बार बार बगल वाली दुकान के चटकीले माल पर नज़र डाल रहा हो।

कुछ दिन बाद मेरा छात्र गायब हो गया। मैं समझ गया कि उसका ज्ञानोदय हो गया। फिर एक दिन वह मेरे पास आया। हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, क्षमा करें। लोगों ने मुझे समझाया है कि एक साधारण व्याख्याता के निर्देशन में शोध करने से मेरी लुटिया डूब जाएगी। कहते हैं, विभागाध्यक्ष का पल्ला थामो तभी वैतरणी पार होगी। मुझे क्षमा करें सर, मैं मुटुरकर साहब को अपना निर्देशक बना रहा हूँ।’ यह कहकर अपने सब पोथी-पत्रा समेटकर वह चला गया और मैं ग़ुबार देखता बैठा रह गया।

कुछ दिन बाद वह मेरा भूतपूर्व शोध छात्र मुझसे बाज़ार में टकराया। आगे आगे श्री मुटुरकर चल रहे थे और पीछे पीछे वह एक हाथ में थैला और दूसरे में मुटुरकर जी के छोटे पुत्र की अंगुली थामे चल रहा था। मैंने देखा उसके चेहरे से आत्मज्ञान की आभा फूट रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 7 – विशाखा की नज़र से ☆ रंगरेज़ ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना रंगरेज़ अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 7 – विशाखा की नज़र से

 

☆ रंगरेज़ ☆

 

तुम बन गए हो ,

मेरी यादों में पपड़ी के परत से

बन गई हूँ मैं रंगरेज़,

रंगती हूँ, यादों को

मनचाहे रंग से ।

 

ढकती हूँ तुम्हे हर बार,

कुरेदकर गहरे रंग से

कि मेरे जीवन का हल्का रंग,

न शामिल हो,

तेरे गहरे रंग में ।

 

कल, आज और कल को,

मैंने रंगा है सुनहरे रंग से

तुम थे शामिल,

उथले कभी गहरे नीले रंग से ।

 

लगी मोर के पंख सी

मेरी यादें,

इन सारे रंगों से

 

सजा लिया इसे कभी,

अपने मुकुट पर

या रच दिया “मेघदूतम”

बन कालिदास यादों के पंख से

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #26 – ☆ घर की घरघर…☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी घर की घरघर…  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  सुश्री आरुशी  जी  ने बिलकुल सत्य कहा है। प्रत्येक व्यक्ति का स्वप्न होता है अपने स्वयं के घर का।  सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रवीण दवणे जी के कथन सहसा सत्तर अस्सी के दशक के और शायद वर्तमान  में भी  घर की  चार दीवारों  के भीतर  की एक एक वस्तुओं से हमारी आत्मीयता को दर्शाते हैं।  यहाँ तक कि मन में चल रहे  किसी भी तरह के द्वंद्व (घर घर ) का समाधान भी घर पर ही आकर मिल पाता है। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #26 ☆

 

☆ घर की घरघर…  ☆

 

अत्यंत जिव्हाळ्याचा विषय. आयुष्यभर कष्ट करायचे आणि आपलं स्वतःच घर बांधायचं, असं प्रत्येकच स्वप्न असतं. पण घर म्हणजे नीसत्य चार भिंती नाहीत हेही विसरून चालत नाही. हे सांगत असताना प्रवीण दवणे म्हणतात, आपली घरातील बारीकसारीक गोष्टीशी आपले केवढे भावतंतू जडलेले असतात, ते घर दूर गेल्याशिवाय काळात नाही. त्या तंतूंना ताण बसल्याशिवाय घराची ऊब कळतच नाही. अगदी नेहमी झोपायची जागा, जवळची भिंत, नेहमीची अभ्र हरवलेली, उजव्या कोपऱ्याला कापूस बाहेर पडता पडता सावरणारी उशी – या सर्वांशी आपलं केवढं गहनगूढ नातं असतं.

ते असंही म्हणतात की, आपल्या घरात आपण किती मोकळे असतो. हवं ते हवं तितकं गुणगुणतो. मोठ्याने गडगडून हसतो. राग आल्यावर न आवरता चिडतो. हट्टी होतो, रुसतो. केव्हा प्राजक्ताचा बहर होऊन देठादेठात बहरतो.

या सगळ्या मनमोकळ्या अभिव्यक्तीला जिथं आवराव लागतं, ते घर उसन्या दागिन्यांसारखं वाटतं.

अशाच अनेक अनुभूतींना आपलंसं करता येतं ते घर आपलं असतं, आणि आपणच त्याला आपलंसं करायचं असतं, एकाने पसरलं तर दुसऱ्याने आवरायचं, सावरायचं असतं. मनातली घरघर घरात आलं की दूर होते, हे नक्की, आणि ह्याला पर्याय नाही…

 

© आरुशी दाते, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 – आघात ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “आघात।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 ☆

 

☆ आघात

 

भगवान राम ने गरुड़ को वरदान दिया कि “आपने मेरी जिंदगी बचाई है, और आज से लोग जो अपने रिश्तेदारों और दोस्तों की मृत्यु होने के बाद डरते और उदास अनुभव करते है, मृत्यु के विषय में गुप्त ज्ञान सुनने के बाद निडर और शाँत अनुभव करेंगे और आज से इस ज्ञान को ‘गरुड़ पुराण’ के नाम से जाना जायेगा जो जीवों को भौतिक दुनिया से दिव्य दुनिया तक ले जायेगा”

भगवान राम को प्रणाम करने के बाद गरुड़ वैकुण्ठ वापस चले गए। तब भगवान हनुमान ने सभी को बताया कि नागपाश से भगवान राम और लक्ष्मण को बचाने के लिए भगवान गरुड़ को बुलाने के लिए यह सुझाव जाम्बवन्त जी ने दिया था।

सुग्रीव ने भगवान राम से पूछा, “मेरे भगवान कैसे यह संभव है? आप अचेत कैसे हो सकते हो?, और कौन आपको बंधी बना सकता है?”

तब जाम्बवन्त ने कहा, “ऋषि कश्यप की दो पत्नियां कद्रू और विनीता (अर्थ : ज्ञान, लज्जावान) थीं। कद्रू ने हजारों नागो को जन्म दिया जिन्हें पृथ्वी पर साँपो केपूर्वजमाना जाता है। विनीता ने शक्तिशाली गरुड़ को जन्म दिया।

एक बार कद्रू और विनीता घोड़े उच्चैहश्र्वास (अर्थ : लंबे कान या जोर का झुकाव) की पूंछ के रंग पर एक शर्त लगाती है । उच्चैहश्र्वास सात सिरों वाला, उड़ने वाला एक समुद्री घोड़ा था जो महासागर मंथन के या समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ था।

कद्रू ने दावा किया कि उच्चैहश्र्वास की पूंछ का रंग काला है और विनीता ने दावा किया कि यह सफेद है।तो यह शर्त रखी गई की जिसकी बात झूठी निकलेगी वह दूसरे की सेवा करेगी।कद्रू ने अपने पुत्रोंनागोंको उच्चैहश्र्वास की पूंछ पर लटक कर छल से उसे काला दिखाने का आदेश दिया । इस प्रकार, दैवीय घोड़े की सफेद पूंछ काली प्रतीत होने लगी क्योंकि उस पर कद्रू के पुत्र नाग लटक गए थे । इस प्रकार विनीता और गरुड़ को कद्रू की सेवा करने के लिए मजबूर किया गया । उनके साथ कद्रू और उनके पुत्रो ने बहुत बुरी तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया।

बाद में नाग, गरुड़ और उनकी माँ को मुक्त करने को इस शर्त पर सहमत हुए, यदि गरुड़ देवताओं के राजा इंद्र के कब्जे में स्थित अमृत, को लाकर उन्हें देगा।गरुड़ ने स्वर्ग से अमृत प्राप्त किया और स्वयं और अपनी माँ को कद्रू और उनके पुत्र नागों की दासता से मुक्त करा दिया। लेकिन धोखाधड़ी और अपमान ने गरुड़ को नागों/सांपों का प्रतिद्वंद्वी बना दिया।

जब गरुड़ ने इंद्र से अमृत के बर्तन को चुराया, तो इंद्र शक्तिशाली पक्षी गरुड़ की ताकत से ईर्ष्यावान था, परन्तु भगवान विष्णु गरुड़ की अखंडता से प्रभावित थे क्योंकि गरुड़ ने खुद के लिए अमृत की एक बूंद भी नहीं ली थी तो भगवान विष्णु ने गरुड़ से वरदान माँगने को कहा।

गरुड़ ने तुरंत कहा कि वह भगवान विष्णु सेउच्चपद चाहते हैं। भगवान विष्णु, जो सभी चालकियों के स्वामीहैं, उन्होंने गरुड़ से अपने ध्वज को सजाने के लिए ध्वज पर हमेशा बने रहने को कहा क्योंकि ध्वज हमेशा जीव से ऊपर ही होता है।

इसके अतरिक्त भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा, “भविष्य में जब मैं राम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लूँगा तो आप एक बार मेरा जीवन बचायेंगे, और उस दिन आप निश्चित रूप से मेरे से उच्च पद पर होंगे क्योंकि जीवन बचाने वाला व्यक्ति हमेशा उससे ऊपर रहता है जिसका जीवन उसने बचाया है”

गरुड़ की भक्ति से भगवान विष्णु इतने प्रभावित हुए की उन्होंने गरुड़ को अपना स्थायी वाहन बना लिया।

गरुड़ की शादी उन्नति (अर्थ : प्रगति की भावना) से हुई, उनके दो बेटे हुए सम्पती जिनसे हम देवी सीता की खोज के समय समुद्र तट पर मिले थे, और दूसरे जटायु थे जिन्होंने रावण से देवी सीता को बचाने के लिए अपना जीवन खो दिया”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 12 ☆ मी कवी हुनार  ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  मी कवी हुनार है।  श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 12 ☆

 

☆ मी कवी हुनार ☆

(काव्यप्रकार -विडंबन.)

 

लयी लयी वाटायचं कराव्यात मस्त कविता !

पन् काय करु ,काय करू…?..

 

ईचार केला किती बी  तरी सुचतच न्हाई वो कविता !

स्पर्धा तर सोडाच पन् कविता वाचन्याजोगी तरीहवी !

आन् रोज रोज म्हन्ते …मी हुईन कवी ! मी हुईन कवी!!

 

पन् घोडंच कुठं पेंड खातंयं ते काई कळंना !

आन् आजपावतूर मला काही कविता कराया जमना !!

नवस केलं सायास केलं केलं देवदेव !

पन् न्हाई आली कुनालाच माजी वं कीव !!

 

 

म्हनलं जरा यावं भेटून फिल्मसिटीत ईनोदाच्या ईरांनला !

पन् कसलं काय आन् फाटक्यात पाय ,तितं

टाईमच हाय कुनाला. !!

 

भेटलं असतं कवी गुलजार !

पन् ते तरी म्हना काय कामाचं!

आपलं लिखान हाय इडंबन अन् हाय कि वो  ईनोदाचं !!

 

लयी डोस्कं खाजिवलं आन् केला मी ईचार !

 

बसले एकदाची लिव्हायला तर !

शेजापाजारच्या आयाबायांनी केलं की हो बेजार !

मंग म्हनलं हितं बसून आपली कविता न्हाई हुनार !!

 

तुकोबांनी आख्खी गाथा लिव्हली भंडाऱ्यावर !

आपनबी जावं की आपल्या डोंगरावर !

तडक उठले अन् तरातरा गेले अजिंक्यताऱा किल्ल्यावर ! !

घेतला भारी पेन आन् लिव्हायला लागले कागदावर. !

 

आली थंड झुळूक आन् कवा  लागला डोळा न्हाई मला कळ्ळं !

डरकाळी बिबट्याची ऐकून काळीजच माजं किवो हाल्लं !

 

आता कुटं पळू न् काय करु समजना मला !

पट्कन् उटूनशनी पळावं तर पायच लागलं कापायला !!

 

बिबट्या बिबट्या म्हनून जीव खाऊन वराडले !

 

आले आले म्हनून सुनबाईनं आवाज दिला !!

म्हनलं बरं झालं ती तरी आली माज्या मदतीला !!!

हात दिला तिच्या हातात न् लागले मी पळायला !

तर चहाची कपबशी घेऊन सुनबाई  उभी मला उठवायला !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सतारा

भ्रमण – ९०२८८१५५८५

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆ चेहरे ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “चेहरे”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆

☆ चेहरे

ओळखीचे वाटतात सगळेच चेहरे
अनोळख्या ठिकाणी जेव्हा मी जातो.

सारखेच भाव चेह-यावर असतात
सपाट शून्य मलूल चेहरा मी पाहतो.

तनावाने त्रस्त काळजीचे काहूर
भविश्याचे प्रश्न चेह-यावर पाहतो.

भूतकाळाचे गाठोडे पाठीवर लादून
ओझ्याने वाकलेला  कणा मी पाहतो.

चेह-यात चेहरे नित शोधतो मी
माझाच चेहरा जेव्हा मी पाहतो.

© सुजाता काळे,
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 22 ☆ संगति का असर होता है ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “संगति का असर होता है”‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’, इस कथन में जो विरोधाभास है उस के इर्द गिर्द यह विमर्श अत्यंत विचारणीय है एवं आपको निश्चित ही विचार करने के लिए बाध्य कर देगा। आलेख के मूल में हम पाते हैं  कि हमें अच्छी या बुरी संगति की पहचान  होनी चाहिए एवं अपने स्वभाव को बदलने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 22 ☆

 

☆ संगति का असर होता है 

झूठ कहते हैं, संगति का असर होता है। ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’ कितना विरोधाभास निहित है इस कथन में…यह सोचने पर विवश करता है, क्या वास्तव में संगति का प्रभाव नहीं होता? हम बरसों से यही सुनते आए हैं कि अच्छी संगति का असर अच्छा होता है।सो! बुरी संगति से बचना ही श्रेयस्कर है। जैसी संगति में आप रहेंगे, लोग आप को वैसा ही समझेंगे। बुरी संगति मानव को अंधी गलियों में धकेल देती है, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। वैसे ही उसे दलदल-कीचड़ की संज्ञा दी गयी है। यदि आप कीचड़  में कंकड़ फेंकेंगे, तो छींटे अवश्य ही आपके दामन को मैला कर देगे। सो! इनसे सदैव दूर रहना चाहिए। इतना ही क्यों ‘Better alone than a bad company.’ अर्थात् ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ हां! पुस्तकों को सबसे अच्छा मित्र स्वीकारा गया है जो हमें सत्मार्ग की ओर ले जाती हैं।
परंतु इस दलील का क्या… ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया, न फूलों को चुभना रास आया’ अंतर्मन में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न करता है और मस्तिष्क को उद्वेलित ही नहीं करता, झिंझोड़ कर रख देता है। हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर सत्य क्या है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे परमात्मा की सत्ता व गुणों का बखान करना। हम समझ नहीं पाते …आखिर सत्य क्या है? इसे भी परमात्मा के असीम  -अलौकिक गुणों को शब्दबद्ध करने की भांति असंभव है। शायद! इसीलिए उस नियंता के बारे में लोग नेति-नेति कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
परमात्मा निर्गुण, निराकार, अनश्वर व सर्वव्यापक है। उसकी महिमा अपरम्पार है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और उसकी महिमा का बखान करना मानव के वश से बाहर है। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट झलकता है कि जो निराकार है…जिसका रूप- आकार नहीं, जो निर्गुण है.. सत्, रज,तम तीनों गुणों से परे है, जो निर्विकार अर्थात् दोषों से रहित है तथा जिसमें शील, शक्ति व सौंदर्य का  समन्वय है…वह श्रद्धेय है, आराध्य है, वंदनीय है।
प्रश्न उठता है, जो शब्द ब्रह्म हमारे अंतर्मन में बसता है, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं, उसे मन की एकाग्रता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एकाग्रता ध्यान की वह स्थिति है, जिस में मानव क्षुद्र व तुच्छ वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। परन्तु सांसारिक प्रलोभनों व मायाजाल में लिप्त बावरा मन, मृग की भांति उस कस्तूरी को पाने के निमित्त इत-उत भटकता रहता है और अंत में भूखा-प्यासा, सूर्य की किरणों में जल का आभास  पाकर अपने प्राण त्याग देता है। वही दशा मानव की है, जो नश्वर भौतिक संसार व मंदिर-मस्जिदों में उसे तलाशता रहता है, परंतु निष्फल। मृग-तृष्णाएं उसे पग-पग पर आजीवन भटकाती हैं। वह बावरा इस मायाजाल से  आजीवन मुक्त नहीं हो पाता और लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। उसे कहीं भी सुक़ून व आनंद की प्राप्ति नहीं होती।
जहां तक  कांटों को महकने का सलीका न आने का प्रश्न है, यह प्रकाश डालता है, मानव की आदतों पर, जो लाख प्रयास करने पर भी नहीं बदलतीं, क्योंकि यह हमें पूर्वजन्म  के संस्कारों के रूप में प्राप्त होती हैं। कुछ संस्कार हमें  पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं। यह विभिन्न संबंधों के रूप में  हमें प्राप्त होते हैं, जिन्हें  प्राप्त करने में  हमारा कोई योगदान नहीं होता। परंतु कुछ संस्कार हमें माता-पिता, गुरुजनों व हमारी संस्कृति द्वारा प्राप्त होते हैं, जो हमारे चारित्रिक गुणों को विकसित करते हैं।अच्छे संस्कार हमें आदर्शवादी बनाते हैं और बुरे संस्कार हमें पथ-विचलित करते हैं  … हमें  संसार में अपयश दिलाते हैं। इन कुसंस्कारों के कारण समाज में हमारी निंदा होती है और लोग हमसे घृणा करना प्रारंभ कर देते हैं। बुरे लोगों का साथ देने से, हम पर उंगलियां उठना  स्वाभाविक है। क्योंकि ‘यह मथुरा काजर की कोठरी,  जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् ‘जैसा संग वैसा रंग’। संगति का रंग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है। कबीर दास जी की यह पंक्ति’ कोयला होई ना उजरा,सौ मन साबुन लाय’  कोयला सौ मन साबुन से धोने पर भी कभी उजला नहीं हो सकता अर्थात् मानव की जैसी प्रकृति-प्रवृत्ति होती है, सोच होती है, आदतें होती हैं, उनसे वह आजीवन वैसा ही व्यवहार करता है।
इंसान अपनी आदतों का गुलाम होता है और सदैव उनके अंकुश में रहता है तथा उनसे मुक्ति पाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए कहा जाता है कि इंसान की आदतें, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। सो! प्रकृति के विभिन्न उपादान फूल, कांटे आदि अपना स्वभाव कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? फूलों की प्रकृति है हंसना, मुस्कराना, बगिया के वातावरण को महकाना, आगंतुकों के हृदय को आह्लादित व उन्मादित करना। सो! वे कांटो के चुभने के दायित्व का वहन कैसे कर सकते हैं? इसी प्रकार शीतल, मंद, सुगंधित वायु याद दिलाती है प्रिय की, जिसके ज़ेहन में आने के परिणाम-स्वरूप समस्त वातावरण आंदोलित हो उठता है तथा मानव अपनी सुधबुध खो बैठता है।
यह तो हुआ स्वभाव, प्रकृति व आदतों के न बदलने का चिंतन, जो सार्वभौमिक सत्य है।  परंतु अच्छी आदतें सुसंस्कृत व अच्छे लोगों की संगति द्वारा बदली जा सकती है। हां! हमारे शास्त्र व अच्छी पुस्तकें इसमें बेहतर योगदान दे सकती हैं…उचित मार्गदर्शन कर जीवन की दिशा  बदल सकती हैं। जो मनुष्य नियमित रूप से ध्यान-मग्न रहता है…केवल अध्ययन नहीं, चिंतन-मनन करता है,आत्मावलोकन करता है, चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाता है, इच्छाओं की दास्तान स्वीकार नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्तियों के इस मायाजाल से स्वत: मुक्ति प्राप्त कर सकता है… संस्कारों को धत्ता बता सकता है और अपने स्वभाव को बदलने में समर्थ हो सकता है।
सो! हम उक्त कथन को मिथ्या सिद्ध कर सकते हैं कि सत्संगति प्रभावहीन होती है क्योंकि फूल और कांटे अपना सहज स्वभाव-प्रभाव हरगिज़ नहीं छोड़ते। कांटे अवरोधक होते हैं, सहज विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, सदैव चुभते हैं, पीड़ा पहुंचाते हैं, दूसरे को कष्ट में देखकर आनंदित होते हैं। दूसरी ओर फूल इस तथ्य से अवगत होते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, फिर भी वे निराशा का दामन कभी नहीं थामते… अपना महकने व मुस्कुराने का स्वभाव नहीं त्यागते। इसलिए मानव को इनसे संदेश लेना चाहिए तथा जीवन में सदैव हंसना-मुस्कुराना चाहिए,क्योंकि खुश रहना जीवन की अनमोल कुंजी है, जीवन जीने का सलीका है।इसलिए हमें सदैव प्रसन्न रहना चाहिए ताकि दूसरे लोग भी हमें देखकर उल्लसित रह सकें और अपने कष्टों के चंगुल से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
अंतत: मैं कहना चाहूंगी कि परमात्मा ने सबको समान बनाया है।इंसान कभी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता…उसके कर्म-दुष्कर्म ही उसे अच्छा व बुरा बनाते हैं…उसकी सोच को सकारात्मक व नकारात्मक बनाते हैं। अपने सुकर्मों से ही प्राणी सब का प्रिय बन सकता है। जैसे प्रकृति अपना स्वभाव नहीं बदलती, धरा, सूर्य, चंद्र, नदियां, पर्वत, वृक्ष आदि निरंतर कर्मशील रहते हैं, नियत समय पर अपने कार्य को अंजाम देते हैं, अपने स्वभाव को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागते…सो! हमें इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सत्य की राह का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि इनमें परार्थ की भावना निहित रहती है…ये किसी को आघात नहीं पहुंचाते, किसी का बुरा नहीं चाहते। हमारा स्वभाव भी वृक्षों की भांति होना चाहिए। वे धूप, आतप, वर्षा, आंधी आदि के प्रहार सहन करने के पश्चात् भी तपस्वी की भांति खड़े रहते हैं, जबकि वे जानते हैं कि उन्हें अपने फलों का स्वाद नहीं चखना है। परंतु वे परोपकार हित सबको शीतल छाया व मीठे फल देते हैं, भले ही कोई  इन्हें कितनी भी हानि पहुंचाए। इसी प्रकार सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करती हैं, चंद्रमा व तारे अपने निश्चित समय पर दस्तक देते हैं तथा थके-हारे मानव को निद्रा देवी की आग़ोश में सुला देते हैं ताकि वे ताज़गी का अनुभव कर सकें तथा पुन:कार्य में तल्लीन हो सकें। इसी प्रकार वर्षा से होने से धरा पर हरीतिमा छा जाती है, जीवनदायिनी फसलें लहलहा उठती हैं सबसे बढ़कर ऋतु-परिवर्तन जीवन की एकरसता को मिटाता है।
मानव का स्वभाव चंचल है। वह एक-सी मन:स्थिति में रहना पसंद नहीं करता। परंतु जब हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है, जो भूकंप, सुनामी, भयंकर बाढ़, पर्वत दरकने आदि के रूप में समय-समय पर प्रकट होते हैं।यह कोटिशः सत्य है कि जब प्रकृति के विभिन्न उपादान अपना स्वभाव नहीं बदलते,तो मानव क्यों अपना स्वभाव बदले…जीवन में बुरी राहों का अनुसरण करे तथा दूसरों को व्यर्थ हानि पहुंचाए? सो! जैसा व्यवहार आप दूसरों से करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिये सदैव अच्छा सोचिए,अच्छा बोलिए, अच्छा कीजिए, अच्छा दीजिए व अच्छा लीजिए। यदि दूसरा व्यक्ति आपके प्रति दुर्भावना रखता है, दुष्कर्म करता है, तो कबीर दास जी के दोहे का स्मरण कीजिए ‘जो ताको  कांटा  बुवै, ते बूवै ताको फूल अर्थात् आपको फूल के बदले फूल मिलेंगे और कांटे बोने वाले को शूल ही प्राप्त होंगे। इसलिए इस सिद्धांत को जीवन में धारण कर लीजिए कि शुभ का फल शुभ अथवा कल्याणकारी होता है। यह भी शाश्वत सत्य है कि कुटिल मनुष्य कभी भी अपनी कुटिलता का त्याग नहीं करता,जैसे सांप को जितना भी दूध पिलाओ, वह काटने का स्वभाव नहीं त्यागता। इसलिए ऐसे दुष्ट लोगों से सदैव सावधान रहना चाहिए… उनकी फ़ितरत पर विश्वास करना स्वयं को संकट में डालना है तथा उनका साथ देना अपने चरित्र पर लांछन लगाना है, कालिख़ पोतना है। सो! मानव के लिए, दूसरों के व्यवहार के प्रतिक्रिया-स्वरूप अपना स्वभाव न बदलने में ही अपना व सबका हित है, सबका मंगल है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  कल स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका

लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’

दक्षिण अफ्रीका के जुलू  आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।

इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।

‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।

लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग  माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक  कहता है-

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।

अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।

……….क्रमशः

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 20 ☆ दोहे ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  के अतिसुन्दर  “दोहे ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 20 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ दोहे

 

देख शरद की चाँदनी,

झूम उठा है चंद

पूनम के आगोश में,

हैं जीवन मकरंद।

 

देते हैं शुभकामना,

बाँट सको तुम प्यार।

जीवन में खुशियाँ सभी,

हर दिन हो त्यौहार।।

 

जो समझा सके मन को,

है चाबी वो खास।

पहुँच सकेगा  है वहीं,

होगा दिल के पास।।

 

मन से मालामाल वहीं,

जो दोषों से दूर।

जीवन में खुश है वहीं,

खुशियों से भरपूर।।

 

राजनीति का शोरगुल

छल छन्दी व्यवहार।

श्वेत कबूतर उड़ गए

अपने पंख पसार।।

 

रचती जाती पूतना ,

षड्यंत्री हर जाल ।

मनमोहन तो समझते,

उसकी हर इक चाल।।

 

महँगाई का दंश हम,

सहते हैं हर बार।

लुटते-लुटते लुट गए,

सबके ही घर बार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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