हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) 

शेरू का बलिदान

अब तक आपने पढ़ा कि – शेरू अचानक एक दिन मिला था, उसका मिलना मजबूरी भूख  संवेदना तथा प्रेम निवेदन की कथा बनकर रह गई।  वहीं दूसरे भाग में उस अबोध जानवर की कहानी पढ़ी जिसकी संवेदना को मानवीय संवेदनाओ से कहीं भी कमतर नहीं ‌आका जा सकता।  अब आगे पढें उसके त्याग व बलिदान की कथा जो किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगी। आज जब इंसान लोभ मोह तथा स्वार्थ के दलदल में जकड़ा पडा़ है, तब शेरू बाबा का बलिदान हमें अवश्य ही कुछ सोचने पंर मजबूर करता है। शेरू का निष्कपट प्रेम तथा बलिदान मानव समाज को झकझोरने के लिए प्रर्याप्त है। इस कथा को पढ़ते कहीं मुंशी प्रेमचंद की कथा कहानियों की याद आ जाये,  तो आश्चर्य नहीं। अब आगे पढ़ें ——-

समय धीरे धीरे अपनी मंथर गति से ‌चल रहा था। उसकी जवानी अपने पूरे उफान पर थी। ऐसे में वह अपनी बिरादरी के चार चार लोगों पर अकेला भारी‌ पड़ता। किसी की क्या मजाल जो पास भी फटक जाय। वह जिधर से निकलता शान से आगे बढ़ता चला जाता बेख़ौफ़ और बिरादरी के लोग गुर्राते ही रह जाते।

अब बरसात का मौसम आ गया था।

अचानक से एक दिन शेरू गंभीर रूप से बीमारी से जकड़ गया था।  उसे पतले दस्त आ रहे थे। मुंह से झाग भी निकल रहा था। इसके चलते वह कुछ भी खा पी नहीं पा रहा था। बस वह घर के अंधेरे कोने में पड़ा सूनी-सूनी आंखों से मेरी राहें तकता रहता। जब मुझे देख लेता तो वहीं पड़े पड़े धीरे-धीरे सिर उठा अपनी पूंछ हिलाता।

मेरे प्रति अपना प्रेम प्रकट करता, मैंने उसे पशू डाक्टर को दिखाया बहुत सारा इलाज चला।  लेकिन कोई आशातीत सफलता नहीं मिली। उसका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता चला जा रहा था। जिससे मेरा मन काफी विचलित था। आज उसने पानी भी नहीं पिया था। जब मैं पाही पर चला था तो शेरू  भी मेरे पीछे पीछे लड़खड़ाते कदमों से मेरे पीछे पीछे चला आया।

मैंने उसे अपने पीछे आने से उसे बहुत रोका लेकिन मेरे लाख प्रयासों के बाद भी वह नहीं माना और पीछे चलता हुआ आकर हर रोज की भांति दरवाजे पर बैठ गया। शायद उसे अपने जीवन के आखिरी पलों का आभास हो चला था।

वह बहुत उदास था पुरवा हवाएँ काफी तेज चल रही थी। कमरे के बीच टिमटिमाती लालटेन की पीली रोशनी के बीच मैं अपने बिस्तर पर अननमना सा लेटा हुआ था। रह-रह कर फड़कते अंग और दिल की अंजानी बेचैनी घबराहट किसी अनहोनी का संकेत दे रहे थे। जो सोने में बाधक बन रहे थे। लेकिन तेज पुरवा हवा के ‌झोंकों ने कुछ देर बाद नींद से बोझिल आंखों को सुला दिया था। शेरू अगल बगल की झाड़ियों के बीच हल्की सरसराहट सी सुनता‌ तो सतर्क‌ हो उठता तथा चौकन्ना हो भौंकने गुर्राने लगता, जिससे बार बार मेरी नींद में खलल पड़ता। मैं बार बार उसे चुप कराता लेकिन वह फिर भौंकना चालू कर देता। मैंने उसे गुस्से में डंडा फेंक मारा, हालांकि उसे चोटें नहीं लगी लेकिन फिर भी मारे डर वह कूंकूं करता थोड़ी दूर भाग गया था और फिर वह तत्काल भौंकने लगा था। उसे आने वाले ‌संभावित खतरे का आभास हो चला था, जब कि मैं किसी भी खतरे से अनजान था। उसका बार बार भौंकना मुझे खल रहा था।

मेरी नींद बाधित हो रही थी। फिर भी मैं करवट बदल सोने का प्रयास कर रहा था। तभी एक भयानक काला कोबरा झाड़ियों से निकल मेरे ‌बिस्तर की तरफ बढ़ा था और उसे देखते ही शेरू के दिल में स्वामीभक्ति का‌ ज्वार उमड़ आया। अब शेरू और सांप के बीच धर्म युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अपनी-अपनी आन पे अड़े थे। जहां भूखा सांप ‌भोजन के लिए अंदर आने को आतुर था, वहीं शेरू अपना सब कुछ न्योछावर कर उसे बाहर रोकने पर आमादा था। इस महासंग्राम में जहां क्रोधित सर्प फुंफकार‌ भर‌‌ रहा‌ था, वहीं शेरू ‌अपनीं स्वामिभक्ति की‌‌ मौन साधना को पूर्ण रूपेण समर्पित था। पूरी ताकत से शेरू ने‌ सांप को भीतर आने से रोक‌ रखा था। सांप की फुफकार सुन मेरी नींद खुली थी और बाहरी दृश्य देख मैं घबरा उठा। पसीने से तर-बतर मेरा शरीर भी थर-थर कांप रहा था।  गला सूख गया जुबान तालू से जा चिपकी। भय के मारे मेरे गले से सिर्फ गों गों की फंसी फंसी आवाज निकल रही थी तथा मैं बदहवासी की हालत में अपने पांव जमीन पर  उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। ऐसे में मैं स्वास रोके शेरू और सांप का धर्मयुद्ध देखने के लिए विवश था। अगर कोई रास्ता होता तो न जाने मैं कब का भाग खड़ा होता। इस महासंग्राम में ना जाने कितने बार‌ उस सर्प ने शेरू को काटा होगा, लेकिन हर बार शेरू दूनी ताकत से सांप को अपने तीखे नाखूनों के प्रहार से विदीर्ण कर मौत के मुंह में सुला दिया तथा सांप के जहर से कुछ दूर जा अपनी मौत के गले मिल गया। मैं घबराहट में चेतना शून्य हो गया।

सबेरे मेरे मुंह पर पानी के छींटें मार बेहोशी से जगाया गया। सामने सांप की क्षत-विक्षत शरीर तथा कुछ दूरी पर शेरू का निर्जीव शरीर देख मेरे जेहन में रात की सारी घटना घूम गई।

उस दिन चार रोटियां तथा कटोरे भर दूध पिला शेरू की ठंड से प्राण रक्षा की थी, लेकिन आज शेरू जानवर होते हुए भी अपनी संवेदनशीलता के चलते अपनी जान देकर अपनी वफादारी का फर्ज निभा गया। उस समय जिसने भी शेरू की कर्म निष्ठा को देखा सुना सबकी नजरें तथा सिर शेरू के प्रति सम्मान में झुकती चली गई।

शेरू का इस तरह अचानक उस दुनियां से जाना मेरे लिए किसी सदमे से कम‌ नहीं था। मेरे भीतर बैठा एक संवेदनशील इंसान भीतर ही भीतर ‌टूट चुका था। उस समय मैं शेरू के साथ बिताए पलों की स्मृतियों तथा आंख में आंसू लिए उसे उसी बाग में दफना रहा था, जहां उसने कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे एक इतिहास रचा था। उसे दफन करते हुए मेरा मन अपनी कायरता पर आत्मग्लानि से भर उठा ‌था।

उसी स्थान पर कालांतर में कुछ स्थानिय लोगों ने एक मकबरा बनवा दिया था जिसके भीतर भित्तिचित्रों में शेरू बाबा की कर्मनिष्ठा की कहानी अंकित हो गई थी।

अब उस रास्ते से ‌आते जाते लोग शेरू बाबा की कर्म निष्ठा को प्रणाम करते हैं। न जाने कब व कैसे वह स्थान शेरू बाबा के मकबरे के रूप में चर्चित हो गया तथा यह किंवदंती प्रचलित हो गई कि शेरू बाबा हर आसंन्न संकट से सबकी प्राण रक्षा करते हैं। और आज लोग अपने तथा परिवार की हर संकट से रक्षा के लिए शेरू बाबा के मकबरे पर मन्नतें मांगा करते हैं और शेरू के त्याग बलिदान की कथा कहते सुनते नजर आते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 13☆ शारदी चाँदनी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  शारदी चाँदनी ।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 13 ☆

☆ शारदी चाँदनी ☆

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

सावनी घन घटा से उमड़ते , स्वप्न से तुम यहां  चले आना

प्राण के तार खुद जनझना के , याद की वीथिका खोल देंगे

नैन मन की मिली योजना से,  चित्र सब कुछ स्वतः बोल देंगे

बात करते स्वतः बावरे से , प्रेम रंग में रंगे सांवरे से

वीणा से गीत गुनगुनाते , स्वप्न से तुम यहां  चले आना

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

 

है कसम तुम्हें मेरे सपन की, राह में भटक तुम न जाना

दिन कटे काम की उलझनो में , रात गिनते गगन के सितारे

सांस के पालने में झुलाये , आस डोरी पे सपने तुम्हारे

मंद मादक मलय के पवन से , गंध भीनी बसाये वसन से

मोह से मोहते मन लुभाते , स्वप्न से तुम यहां चले आना

है कसम तुम्हें मेरे सपन की, राह में भटक तुम न जाना

शारदी चांदनी सा धुला मन,  जब पपीहा सा तुमको पुकारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – गुरुदत्त ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : गुरुदत्त पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ गुरुदत्त  ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक, निर्माता, कोरियोग्राफर और अभिनेता थे। उन्होंने 1950 और 1960 दशक में कई उत्कृष्ट फ़िल्में बनाईं जैसे प्यासा, कागज़ के फूल, साहिब बीबी और ग़ुलाम और चौदहवीं का चाँद। प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका के 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल किया गया है और साइट एन्ड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण द्वारा, दत्त खुद भी सबसे बड़े फ़िल्म निर्देशकों की सूचि में शामिल हैं। उन्हें कभी कभी “भारत का ऑर्सन वेल्स” (Orson Welles)  भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के “सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं” के सूची में भी शामिल किया गया। गुरुदत्त 1950 दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी फ़िल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में प्रदर्शन पर अब भी सराहा जाता है।

गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था। उनके माता पिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता शुरुआत के दिनों एक विद्यालय के हेडमास्टर थे जो बाद में एक बैंक के मुलाजिम हो गये। माँ एक गृहिणीं थीं जो बाद में एक स्कूल में अध्यापिका बन गयीं। गुरुदत्त जब पैदा हुए उनकी माँ की आयु सोलह वर्ष थी। वसन्ती माँ घर पर प्राइवेट ट्यूशन के अलावा लघुकथाएँ लिखतीं थीं और बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं।

गुरु दत्त ने अपने बचपन के प्रारम्भिक दिन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजारे जिसका उन पर बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। उनका बचपन वित्तीय कठिनाइयों और अपने माता पिता के तनावपूर्ण रिश्ते से प्रभावित था। उन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरुदत्त रख लिया।

गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और चौदह वर्षीय गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते। यहीं से उनके मन में कला के प्रति संस्कार जागृत हुए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 68 ☆ सोच व व्यवहार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख सोच व व्यवहार।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 68 ☆

☆ सोच व व्यवहार

सोच व व्यवहार आपके हस्ताक्षर होते हैं। जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं। ‘सोच बदलिए, व्यवहार स्वयं बदल जाएगा, क्योंकि व्यवहार आपके जीवन का आईना होता है।’ सब्र व सहनशीलता मानवता के आभूषण है, जो आपको न तो किसी की नज़रों में गिरने देते हैं, न ही अपनी नज़रों में। इसलिए जीवन में सामंजस्य बनाए रखें, क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप खुद हैं। खुद को समझ लीजिए, सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाएगा। इसलिए सबसे विनम्रतापूर्ण व्यवहार कीजिए। रिश्तों को निभाने के लिए इसकी दरक़ार होती है। नम्रता से हृदय की पावनता, सामीप्य ,समर्पण व छल-कपट से महाभारत रची जा सकती है। इसलिए सदैव सत्य की राह का अनुसरण कीजिए। भले ही इस राह में कांटे, बाधाएं व अवरोधक बहुत हैं और इसे उजागर होने में समय भी बहुत लगता है। परंतु झूठ के पांव नहीं होते। इसलिए वह लंबे समय तक कहीं भी ठहरता नहीं है।

सत्य की ख़्वाहिश होती है कि सब उसे जान लें, जबकि झूठ हमेशा भयभीत रहता है कि कोई उसे पहचान न ले। सत्य सामान्य होता है। जिस क्षण आप उसका बखान करना प्रारंभ करते हैं, वह कठिनाई के रूप में सामने आता है। सो! सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… उपहास, विरोध और अंतत: स्वीकृति। सत्य का प्रथम स्तर पर उपहास  होता है ओर लोग आपकी आलोचना करते हैं और नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करते हैं।  यदि आप उस स्थिति में भी विचलित नहीं होते, तो आपको विरोध को सामना करना पड़ता है। यदि आप फिर भी स्थिर रहते हैं, तो सत्य को अर्थात् जिस राह का आप अनुसरण कर रहे हैं, उसे स्वीकृति मिल जाती है। लोग आपके क़ायल हो जाते हैं और हर जगह आपकी सराहना की जाती है। परंतु आपके लिए हर स्थिति में सम रहना अपेक्षित है। सो! सुख में फूलना नहीं और दु:ख में उछलना अर्थात्  घबराना नहीं … सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखने का सही अंदाज़ व सुख, शांति व प्रसन्नता प्राप्त करने का रहस्य है।

सो! यदि आप सुख पर पर ध्यान दोगे, तो सुखी होगे, यदि दु:ख पर ध्यान दोगे, दु:खी हो जाओगे।

दरअसल, आप जिसका ध्यान करते हो, वही वस्तु व भाव सक्रिय हो जाता है। इसलिए ध्यान को सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि यह अपनी वासनाओं अथवा इंद्रियों पर विजय पाने का माध्यम है। इसलिए ‘दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखने का संदेश दिया गया है, क्योंकि खुद से उम्मीद रखना हमें प्रेरित करता है; उत्साहित करता है और दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है; हमारे हृदय को आहत करता है। इसलिए दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें। उम्मीद हमें आत्मनिर्भर नहीं होने देती। इसलिए परिस्थितियों को दोष देने की बजाय अपनी सोच को बदलो, हालात स्वयं बदल जाएंगे।

मुझे स्मरण हो रही हैं, ग़ालिब की यह पंक्तियां ‘उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर लगी थी/ आईना साफ करता रहा’…यही है जीवन की त्रासदी। हम अंतर्मन में झांकने की अपेक्षा, दूसरों पर दोषारोपण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ सुक़ून पाते हैं। चेहरे को लगी धूल, आईना साफ करने से कैसे मिट सकती है?  सो! हमारे लिए जीवन के कटु यथार्थ को स्वीकारना अपेक्षित है। आप सत्य व यथार्थ से लंबे समय तक नज़रें नहीं चुरा सकते। अपनी ग़लती को स्वीकारना खुद में सुधार लाना है, जिससे आपका पथ प्रशस्त हो जाता है। आपके विचार पर दूसरे भी विचार करने को बाध्य हो जाते हैं। इसलिए जो भी कार्य करें, यह सोचकर तन्मयता से करें कि आपसे अच्छा अथवा उत्कृष्ट कार्य कोई कर ही नहीं सकता। काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता, इसलिए हृदय में कभी भी हीनता का भाव न पनपने दें।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है व विकास में अवरोधक है। इसे कभी जीवन में प्रवेश न पाने दें। यह मानव को पल-भर में अर्श से फ़र्श पर ला पटकने की सामर्थ्य रखता है। अहंनिष्ठ लोग खुशामद की अपेक्षा करते हैं और दूसरों को खुश रखने के लिए उन्हें चिंता, तनाव व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। चिंता चिता समान है, जो हमारे मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न करती है और यह तनाव हमें अवसाद की स्थिति तक पहुंचाने में सहायक होता है… जहां से लौटने का हर मार्ग बंद दिखाई पड़ता है और आप लंबे समय तक इस ऊहापोह से स्वयं को मुक्त नहीं करा पाते। यदि किसी के चाहने वाले अधवा प्रशंसकों की संख्या अधिक होती है, तो यही कहा जाता है कि उस व्यक्ति ने जीवन में बहुत समझौते किए होंगे। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं, जो आपके सामने कहे गए हों,  बल्कि उन शब्दों में है, जो आपकी अनुपस्थिति में आपके लिए कहे गए हों। यही है खुशामद व सम्मान में अंतर। इसलिए कहा जाता है कि ‘खुश होना है तो तारीफ़ सुनिए, बेहतर होना है तो निंदा, क्योंकि लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…  यही है आधुनिक जीवन का कटु सत्य। हर इंसान यहां निपट स्वार्थी है, आत्मकेंद्रित है। यह बिना प्रयोजन के किसी से ‘हेलो -हाय’ भी नहीं करता। इसलिए आजकल संबंधों को ‘हाउ स से हू’ तक पहुंचने में  देरी कहां लगती है।

वक्त, दोस्ती व रिश्ते बदलते मौसम की तरह रंग बदलते हैं; इन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता है। वक्त निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; सबको एक लाठी हांकता है अर्थात् समान व्यवहार करता है। वह राजा को रंक व रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है। वैसे दोस्ती के मायने भी आजकल बदल गए हैं। सच्चे दोस्त मिलते कहां है, क्योंकि दोस्ती तो आजकल पद-प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो कोई हाथ तक भी नहीं मिलाता, हाथ थामने की बात तो बहुत दूर की है। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। रिश्तों को ग्रहण लग गया है और उन्हें उपयोगिता के आधार पर जाना-परखा जाता है। सो! इन तीनों पर विश्वास करना आत्म-प्रवंचना है। इसलिए कहा जाता है कि बाहरी आकर्षण देख कर किसी का मूल्यांकन मत कीजिए, ‘अंदाज़ से न नापिए, किसी इंसान की हस्ती/ बहते हुए दरिया अक्सर गहरे हुआ करते हैं’ अर्थात् चिंतनशील व्यक्ति न आत्म-प्रदर्शन में विश्वास रखता है, न ही आत्म-प्रशंसा सुन बहकता है। बुद्धिमान लोग अक्सर वीर, धीर व गंभीर होते हैं; इधर-उधर की नहीं हांकते और न ही प्रशंसा सुन फूले समाते हैं। इसलिए सही समय पर, सही दिशा निर्धारण कर, सही लोगों की संगति पाना मानव के लिए श्रेयस्कर है। सो! सूर्य के समान ओजस्वी बनें और अंधेरों की जंग में विजय प्राप्त कर अपना अस्तित्व कायम करें।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन व जगत् बहुत सुंदर है… आवश्यकता है उस दृष्टि की, क्योंकि सौंदर्य वस्तु में नहीं, नज़रिए में होता है।  इसलिए सोच अच्छी रखिए और दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का त्याग कीजिए। आप स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं और आपके अंतर्मन में असीमित दैवीय शक्तियां का संचित हैं। सो! संघर्ष कीजिए और उस समय तक एकाग्रता से कार्य करते रहिए, जब तक आप को मंज़िल की प्राप्ति न हो जाए। हां! इसके लिए आवश्यकता है सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य ही शिव है। शिव ही सुंदर है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘मुश्किलें चाहे कितनी बड़ी क्यों न हों, हौसलों से छोटी होती हैं। इसलिए खुदा के फैसलों के समक्ष नतमस्तक मत होइए। अपनी शक्तियों पर विश्वास कर, अंतिम सांस तक संघर्ष कीजिए, क्योंकि यह है विधाता की रज़ा को बदलने का सर्वश्रेष्ठ उपाय। मानव के साहस के सम्मुख उसे भी झुकना पड़ता है। इसलिए मुखौटा लगाकर दोहरा जीवन मत जिएं, क्योंकि झूठ का आवरण ओढ़ कर अर्थात् ग़लत राह पर चलने से प्राप्त खुशी सदैव क्षणिक होती है, जिसका अंत सदैव निराशाजनक होता है और यह जग-हंसाई का कारण भी बनती है। सो! जीवन में सकारात्मक सोच रखिए व उसी के अनुरूप कार्य को अंजाम दीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 66 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 66 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

संकल्पों की साधना,

देती है विश्वास।

शांत भाव की कामना,

हृदय  जगाती आस।

 

रचते रचते रच गये,

मेरे मन के गीत

मन की सारी वेदना,

मन का है संगीत।

 

अंतर्मन की वेदना,

 समझ सका है कौन।

जीवन में जो खास है,

वही आज है मौन।

 

कोरोना के काल में,

घर-घर कारावास।

है स्वतंत्र तन-मन-लगन

देखो सबके पास ।।

 

स्वप्न हवाई हो रहे,

चितवन भरे उड़ान।

मन उमंग में बावरा,

हर पल से अनजान।।

 

गौतम जिनका नाम है,

कहलाए वे बुद्ध।

गूढ़ ज्ञान के पारखी,

करते नमन प्रबुद्ध।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #78 ☆ कविता – अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता अनुस्वार  ।  इस विचारणीय  कविता  के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 78 ☆

☆ कविता अनुस्वार ☆

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “ कारण। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 ☆

☆ कारण ☆

 “लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”

इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर !  वहाँ  चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद  है !” अनीता ने कहा, ”  यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे । और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे । मोबाइल पर कुछ देखेंगे ।”

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,”  अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकुँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, “तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि  तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आँख से आँसू निकल गए, “घर जा कर सास की जली कटी बातें सुनने से अच्छा है यहाँ सुकून के दो चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 39 ☆ सॉरी का चलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “सॉरी का चलन ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 39 – सॉरी का चलन ☆

कुछ लोगों को ये शब्द इतना पसंद आता है, कि वे कामचोरी करने के बाद इसका प्रयोग यत्र-तत्र करते नजर आ जाते हैं। उम्मीदों की गठरी थामकर जब कोई चल पड़ता है, तो सबसे पहले इसी शब्द से उसका पाला पड़ता है। जिसकी ओर भी उम्मीद की नज़र से देखो वो अपना पल्ला झाड़कर,आगे बढ़ जाता है। अब क्या किया जाए कार्य तो निर्धारित समय पर करना ही है, सो बढ़ते चलो, जो मेहनती है, वो अवश्य ही अपने उदेश्य में सफल होगा ।

क्षमा कीजिए का स्थान सॉरी शब्द ने तेजी के साथ हड़प लिया है। सनातन काल से ही क्षमा को वीरों का अस्त्र व आभूषण कहा जाता रहा है। इसका प्रयोग कमजोर लोग नहीं कर पाते हैं, वे क्रोधाग्नि में आजीवन जलकर रह सकते हैं किंतु अपना हृदय विशाल कर किसी को माफ नहीं कर सकते। जैन धर्म में तो क्षमा पर्व का आयोजन किया जाता है। जिसमें वे एक दूसरे से हाथों को जोड़कर अपनी जानी – अनजानी गलतियों के प्रति प्रायश्चित करते हुए दिखते हैं।

अच्छा ही है, अपनी पुरानी भूलों को भूलकर आगे बढ़ना ही तो सफल जिंदगी का पहला उसूल होता  है। पापों को धोने की परंपरा तो अनादिकाल से चली आ रही है। पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर हम यही तो करते चले आ रहे हैं।

क्षमा की बात हो और महात्मा गांधी जी का नाम न आये ये तो बिल्कुल उचित नहीं है। जिनका मन सच्चा होता है वे किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हो सकता है किसी व्यस्तता के चलते आज उन्होंने सॉरी कहा हो पर जैसे ही अच्छे दिनों की दस्तक होगी अवश्य ही हाँ कहेंगे, “अरे भई मेरी ओर भी निहारा कीजिए, हम भी लाइन में खड़े होकर कब से दस्तक दे रहे हैं।”

समय पर समय का साथ भले ही छूट जाए पर ये शब्द कभी नहीं छूटना चाहिए। आज वो सॉरी कह रहे हैं कल  सफ़लता हासिल करने के बाद आप भी इसे बोल सकते हैं। जिस तरह ब्रह्मांड में ऊर्जा घूमती रहती है, कभी नष्ट नहीं होती, ठीक वैसे ही ये शब्द  व्यक्ति, स्थान, भाव, उदेश्य को बदलता हुआ इस मुख से उस मुख तक चहलकदमी करता रहता है। लोगों को तो अब इसका अभ्यास हो चुका है। बात- बात पर सॉरी कहा औरआगे बढ़ चले।

बस कहते – सुनते हुए आगे बढ़ते रहें यही हम सबका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 46 ☆ राष्ट्र अस्मिता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “राष्ट्र अस्मिता .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 46 ☆

☆ राष्ट्र अस्मिता  ☆ 

भारतवासी भूल न जाना

राष्ट्र अस्मिता के हमले

घायल ये इतिहास पड़ा है

बन्द करो घातक जुमले।।

 

ऊँच- नीच और भेदभाव में

लुटे-पिटे हो तुम सारे

गलती पर गलती करते हो

जागो- जागो अब प्यारे

भूल न जाना क्रूर सिकंदर

भूल न जाना गजनी को

भूल न जाना तुगलक, गौरी

भूल न जाना मदनी को

 

ऐक्य बनाकर चलो सँभलकर

याद करो घाती पिछले।।

 

बाबर को तुम भूल न जाना

उसके रौरव जुल्मों को

मंदिर ढाए, बुर्ज बनाए

देखो सारे उल्मों को

भूल ना जाना नादिरशाह के

खूनी  रक्तापातों को

जुल्म न भूलें औरँगजेबी

शाहजहाँ की घातों को

 

अकबर के भी जुल्म न भूलो

फिर बन जाओगे पुतले।।

 

आसफ खां को भूल न जाना

मत भूलो शाह सूरी को

नहीं बाजबा खान को भूलो

मत भूलो अजमूरी को

देश को लूटा सब मुगलों ने

जमकर ही विनाश किया

अहंकार और जातिवाद ने

भारत सत्यानास किया

 

माटी की सब लाज बचाओ

याद करो कैसे कुचले।।

 

भूल न जाना तुम गोरों को

कैसे कत्लेआम किए

भाई- भाई खूब लड़ाए

सत्ता अपने नाम किए

भूल न जाना डलहौजी को

जिसने गोली प्रहार किए

नहीं भूलना डायर को भी

मानव नरसंहार किए

 

निर्दोषों का खून न भूलें

भूलों से भी ना पिघले।।

 

लूटा जमकर सभी खजाना

देश मेरा कंगाल किया

छोटे से इंग्लैंड ने खुद को

जमकर मालामाल किया

देश बाँटकर, लूटपाट कर

वैभव अपना बढ़ा लिया

मैकाले शिक्षा पद्धति से

नया बवंडर खड़ा किया

 

काले अंग्रेजो जागो

करो न नहले पर दहले।।

 

आजादी के बाद देखता

भारत की तस्वीर को

क्या सपने थे बलिदानी के

भूल गए सब पीर को

स्वारथ में सब लीन हो गए

छोड़ें अपने तीर को

श्रद्धांजलियाँ अर्पित कर दो

अनगिन भगत सुवीर को

 

भूल न जाओ शहादतों को

कुछ बन जाओ तुम उजले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 68 – पहले खुद को पाठ पढ़ायें  ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  पहले खुद को पाठ पढ़ायें .। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 68 ☆

☆ पहले खुद को पाठ पढ़ायें ☆  

 

पर्व दशहरा तमस दहन का

करें सुधार, स्वयं के मन का।

 

पहले खुद को पाठ पढ़ाएं

फिर हम दूजों को समझायें।

 

पर्वोत्सव ये परम्पराएं

यही सीख तो हमें सिखाए।

 

खूब ज्ञान की, बातें कर ली

लिख-लिख कई पोथियाँ भर ली।

 

प्रवचन और उपदेश चले हैं

पर खुद स्वारथ के पुतले हैं।

 

“पर उपदेश कुशल बहुतेरे”

नहीं काम के हैं, ये मेरे।

 

रावण आज, जलेंगे काले

मन में व्यर्थ, भरम ये पाले।

 

कल से वही कृत्य फिर सारे

मिटे नहीं, मन के अंधियारे।।

 

शब्दों की कर रहे जुगाली

कल से फिर खाली के खाली।

 

चलो स्वयं को, पाठ पढ़ायें

रावण मन का आज जलाएं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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