हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 111 ☆ व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा एक सार्थक, तार्किक एवं समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆

? व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन  ?

सिद्धार्थ एक दिन पाकिस्तान सीमा के निकट घूम रहे थे. राज कुमार सबका मन जीत लेने वाले सैनिक की वेषभूशा में थे. तभी राजकुमार को एक उड़ता हुआ  ड्रोन  दिखा. ड्रोन तेजी से पाकिस्तान से भारत की ओर उडान भरता घुसा चला आ रहा था. राजकुमार ने अपनी पिस्टल निकाली निशाना साधा और ड्रोन नीचे आ गिरा. दौड़ते हुये राजकुमार ड्रोन के निकट पहुंचे, आस पास से और भी लोगों ने गोली की आवाज सुनी और आसमान से  कुछ गिरते हुये देखा तो वहां भीड एकत्रित हो गई. सखा बसंतक भी वहीं था जो आजकल पत्रकारिता करता है.  किसी सनसनीखेज खुलासे की खोज में कैमरा लटकाये बसंतक प्रायः सिद्धार्थ के साथ ही बना रहता है. सिद्धार्थ ने निकट पहुंच कर देखा कि ड्रोन में विस्फोटक सामग्री का बंडल बधां हुआ है. तुरंत मिलिट्री पोलिस को इत्तला की गई. पडोसी मुल्क की साजिश बेनकाब और नाकाम हुई. टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी. सिद्धार्थ की प्रशंसा होने लगी.

भाई देवदत्त को यह सब फूटी आंख नहीं भाया. शाम के टी वी डिबेट में भाई की पूरी लाबी सक्रिय हो गई. भाई ने कुतर्क दिया इतिहास गवाह है कि राजा शुद्धोधन के जमाने में जब उसने इसी तरह एक हंस को मार गिराया था तो “मारने वाले से बचाने वाला बडा होता है” यह हवाला देकर उसका गिराया हुआ हंस सिद्धार्थ को सौंप दिया गया था. अतः आज जब इस ड्रोन को सिद्धार्थ ने गिराया है तो, आई हुई मैत्री भेंट को उसे सौंप दिया जावे तथा  सिद्धार्थ को ड्रोन मार गिराने के लिये कडी सजा दी जावे. ड्रोन भेजने वालो को बचाने के अपने नैतिक कर्तव्य की भी याद भाई ने डिबेट में दिलाई.

सिद्धार्थ के बचाव में बहस करते प्रवक्ता ने तर्क रखा बचाने वाले से मारने वाला भी संदर्भ और परिस्थितियों के अनुसार बड़ा होता है.  कोरोना जैसे जीवाणुओ को मारना, खेलों में प्रतिद्वंदी खिलाड़ी को पटखनी देना,  ब्रेन डेड मरीज को परिस्थिति वश मारने के इंजेक्शन देना, आतंकवादियो को मारना, युद्ध में विपक्षी सेना को मारना,  सजायाफ्ता मुजरिम को फांसी देकर मारना भी बचाने वाले से मारने वाले को बड़ा बनाता है. भाई की लाबी ने बीच बीच में जोर से बोल बोलकर बाधा डालने की टी वी बहस परम्परा का पूरा निर्वाह किया. विधान सभाओ, राज्य सभा व लोक सभा कि तरह पता नही सबको समझ आने वाली सीधी सरल बातें भी भाई को क्या कितनी समझ आयी, पर टी वी डिबेट का समय समाप्त हो चुका था और अर्धनग्न बाला के स्नान का रोचक विज्ञापन चल रहा था जिसे देखने में देवदत्त खो गया.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 – इंसानियत की विरासत ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 4 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ इंसानियत की विरासत ☆

कई किस्से-कहानियाँ

सुने और देखे।

साँसों के लिए लड़ते

मौत के बढ़ते आंकड़े देखे।

दिलों को तोड़ने वालों को

दिल जोड़ते देखे।  

दिलों में जहर-नफरत भरने वालों के 

असली चेहरे देखे।  

भीड़ की सियासत और

खामोश सियसतदान देखे।  

 

विरासत में बहुत कुछ दिया

इंसानियत ने

ऐ दोस्त!

अब जिसे जो भी देखना है

बस वह वही देखे।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 91 – आलेख – प्रणाम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  ज्ञानवर्धक एवं विचारणीयआलेख  “ प्रणाम  । इस सार्थक, ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 91 ☆

 ? आलेख – प्रणाम ?

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कर प्रणाम तू बंदे
छूट जाएंगे दुख के फंदे
मनुज कर प्रणाम तू भूलोक
सुधार अपना इह लोक परलोक

प्रणाम करना हमारे हिंदू संस्कृति की मूल और प्रथम पहचान है। जब हम किसी से मिलते हैं प्रणाम करते हैं। शाश्वत भगवान से आरंभ कर बड़ों को, गुरुजनों को, माता पिता को और हमें जिन्हें लगता है कि हमें इनको श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करना चाहिए, उन्हें प्रणाम करते हैं। आरंभ से यही सिखाया जाता है।

आजकल ज्यादातर घरों में या यूं कह लीजिए प्रणाम का प्रचलन ही खत्म होने लगा है और कुछ बचता तो इस सोशल मीडिया के चलते सब कुछ बदल गया है। अब बहुत कम घरों में बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद लेकर, कहीं बाहर निकलना या शुभ काम के लिए जाना होता है। जैसे सब कुछ भुला बैठे हैं। हमारी अपनी परंपरा धूमिल होती चली जा रही है। प्रणाम करने से स्वयं का ही फायदा होता है। मन में विश्वास और एक अलग ही उर्जा स्फूर्ति बढ़ती है।

आप सभी को एक पुरानी कहानी का वर्णन कर रही हूं। एक ब्राह्मण के यहाँ बालक ने जन्म लिया। ब्राह्मण महान ज्योतिष था। उसने देखा कि उसके बच्चे की आयु केवल सात वर्ष है। वह बड़े सोच विचार में पड़ गया। पत्नी ने पूछा “क्या बात है स्वामी आप बालक के जन्म से प्रसन्न नहीं हुए?” ब्राह्मण ने कहा “प्रिये खुशी कैसे मनाए। बेटा हमारे पास केवल सात वर्ष ही रह पाएगा।” पत्नी ने कहा “आप चिंता ना करें।”

बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ और प्रणाम करने का अर्थ समझ गया तब माँ ने उसे प्रणाम का मतलब समझा रोज़ तैयार कर नदी जाने वाले रस्ते में बिठा देती थी और समझाती की ‘बेटा यहाँ से जितने भी ऋषि मुनि और देव आत्मा निकले सभी को झुककर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करना।’ बालक माँ का आज्ञाकारी था। सुबह से बैठ जाता। वहाँ से जितने भी ऋषि मुनि निकलते सभी को प्रणाम करते जाता था।

एक दिन वहाँ से वेद व्यास जी अपने शिष्यों सहित निकले। उन्हें बालक ने तत्काल प्रणाम किया। वेदव्यास जी ने “चिरंजीव भव:” का आशीर्वाद दिया। पास बैठी माँ ने तत्काल खड़े होकर महर्षि से प्रश्न किया “या तो आपका आशीर्वाद झूठा है या फिर मेरे बेटे का जन्म से मरण सात साल का लिखा हुआ आयु?”

अब तो वेदव्यास जी असमंजस में पड़ गए। अपने वचन की रक्षा के लिए तपोबल से उस ब्राह्मण के बालक की आयु को शतायु करना पड़ा। प्रणाम करने का इतना बड़ा उपहार पाकर ब्राह्मण की पत्नी खुशी खुशी घर को लौट चली। और प्रणाम के बदले शतायु और परलोक जाने के बाद श्री हरि के चरणों में स्थान पाने के हकदार बने। मतलब प्रणाम करने से सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं।

आज भी यदि फिर से सभी घरों में बड़ों को सम्मान पूर्वक प्रणाम की परंपरा आरंभ की जाए तो आधी लड़ाई तो यूं ही खत्म हो जाएगी।

महाभारत के युद्ध के समय दुर्योधन के कटु शब्दों के कारण भीष्म पितामह दूसरे दिन “प्रातः पांडव का वध निश्चित करूंगा” कह कर प्रण किये। रात में ही श्री कृष्ण जी द्रोपदी को लेकर भीष्मपितामह के शिविर पर पहुँच गए और बाहर स्वयं खड़े होकर द्रौपदी को अंदर जाने का आदेश दिए। द्रोपदी ने जैसे ही जाकर भीष्म पितामह को प्रणाम किया उन्होंने ‘सौभाग्यवती भव:’ का आशीर्वाद दिया और कहा-” इतनी रात तुम्हें यहाँ शायद माधव ही लेकर आए हैं। क्योंकि यह काम केवल वही कर सकते हैं।”
और बाहर निकलकर श्री कृष्ण और पितामह दोनों एक दूसरे को प्रणाम करते हैं। बदले में दूसरे दिन युद्ध में पाँचों पांडवों जीवित रहते हैं। श्री कृष्ण समझाते हैं “द्रौपदी यदि तुम और बाकी रानियों ने राजमहल में सभी बड़ों को नित प्रणाम और श्रद्धा पूर्वक प्रेम से, विनय से आदर किया होता तो आज महाभारत नहीं होता।”

प्रणाम का एक अर्थ ‘विनय या विनत’ भी है जिसका मूल अर्थ है आदर करना या सम्मान करना। प्रणाम बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की भांति काम करता है। प्रणाम प्रेम है, प्रणाम अनुशासन हैं, प्रणाम शीतलता है, प्रणाम आदर्श सिखाता है, प्रणाम से सुविचार आते हैं, प्रणाम झुकना सिखाता है, प्रणाम क्रोध मिटाता आता है, प्रणाम हमारी संस्कृति है।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 99 ☆ मोकाट गुरं ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 99 ☆

☆ मोकाट गुरं ☆

मला संपवायचंय, ‘मला’

आणि तिथं पेरायचय तुला

तू उगवतेस झाड होऊन

मी असतो गवतासारखा पसरून

उन्हाळ्यात जातो वाळून

तरीही फिनिक्स पक्षासारखा पुन्हा येतो वर

झाडांच्या अन्नाचे शोषण करणारा

मी एक स्वार्थी जीव

कधीकधी माझीच मला येते कीव…

झाडं फळं विकत नाहीत

सावली दिली म्हणून सेवा शुल्क मागत नाहीत

आॕक्सिजनचं मोलही सांगत नाहीत

सारंच फुकट देतात

माणसाला फुकटचं खायला आवडतं

हे त्याला माहीत असावं

फक्त एक बी पेरा

फक्त एक झाड लावा

अन् मिळवा सारं फुकट, फुकट, फुकट

तसा तर माझा कुणालाच उपयोग नाही

असं वाटत असतानाच

काही मोकाट गुरं

माझा फडशा पाडून गेली

आणि मग लक्षात आलं

कुठलाही जीव निरुपयोगी नाही

आपल्यालाही जगाव लागेल

या मोकाट गुरांच्या पोटासाठी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#52 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #52 –  दोहे ✍

मौन नहीं मुखरित हुआ, किया शब्द संधान ।

तुमने तो केवल सुनी,  देहराग की  तान  ।।

 

आंखों में तस्वीर है  शब्दों में  तासीर ।

एकांगी हो पथ अगर, बढ़ जाती है पीर ।।

 

भिक्षुक से ज्यादा सदा, है दाता का मान ।

रखा कटोरा रिक्त तो यह भी है अहसान।।

 

मधुर मदिर मनभावनी, लजवंती अभिराम।

वय: संधि शीला सदृश्य, यह फागुनायी शाम।।

 

सौम्या, रम्याकामिनी, छवि सौंदर्य प्रबोध।

बसी रहो उर उर्वशी, एकमात्र अनुरोध ।

 

सम्मोहित ऐसा किया, लेता हिया हिलोर ।

कब संझवाती बीतती, कब होती है भोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 51 – झाँक रही वेदना… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “झाँक रही वेदना…  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 51 ☆।। अभिनव गीत ।।

झाँक रही वेदना …  ☆

अपने में हिलगी है ,

एक अदद टहनी खजूर की |

डोरी पर क्लिप लगी सूख रही

कुर्ती ज्यों  डायना कुजूर की ||

 

नीचे है रेत ,धूप

चढ़ी आसमान में |

बदल गयी गढ़ी जैसे

खाली मकान में |

 

मुर्गी की कलगी है

रक्तवर्ण ,अग्निरेख दूर की |

या जैसे लाल सुर्ख आँखों से

झाँक रही वेदना मजूर की ||

 

लम्बग्रीव- तना  ,पीठ

जैसेघड़ियाल की |

छाया तक नहीं मिली

जिसकी पड़ताल की|

 

शाप ग्रस्त  मुलगी  है

रूपवती जैसे अखनूर  की |

नजरों में चढ़ी रही कब से वह

ऐसे ही बेशक हुजूर  की ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-04-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘गठबंधन खुलि खुलि जाय)  

☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

डी एन ए भी गजब की चीज है लौट लौटकर वहीं गठबंधन करता है जो जांच की मांग रखता है ।

जब वे हिमालय से ज्ञान लेकर लौटे तो उन्होंने सबसे पहले गधों के बाजार देखने की इच्छा जाहिर की, गुरु जी ने मुझे आदेश दिया कि जाओ इनको गधों के बाजार की सैर करवा दो ………।

हम दोनों चल पड़े, एक बड़ा भूभाग है जिसमें गधों का बाजार भरा रहता है, गधे के महत्व के अनुसार हर क्षेत्र में सीमाएं निर्धारित की गईं हैं ताकि सुशासन विज्ञापनों में जिंदा रहे, समय समय पर गधों के खरीददार, गधों की कीमत तय करते रहते हैं, कीमतों में नियंत्रण के लिए कई बार गधों की शिफ्टिंग भी करनी पड़ती है, “गधे मेहनती होते हैं” और गठबंधन की राजनीति खूब जानते हैं , ताने -उलाहने देना उनकी हिनहनाहट में दिख जाता है, कभी रूठ भी जाते हैं मनाओ तो मान भी जाते हैं, कुर्सी के चक्कर में खींझना, खिसियाना ये खूब जानते हैं ……………!

ये देखिए इस गधे का रेट इस समय सबसे ज्यादा चल रहा है “गठबन्धन मास्टर” है ये, जहाँ उम्मीद भी नहीं होती है वहां गठबन्धन कराके कुर्सी खाली करा लेता है । बड़े बड़े महागठबंधनों को एक झटके में तोड़ देना इसकी खास दुलत्ती में शामिल होता है ………… बाल ….

साब बालों पे मत जाईये बाल कम इसलिए हैं कि गठबन्धन के चक्कर में दूसरों के बाल नोंचने के साथ अपने बाल भी नोंचवाना पड़ता है इन दिनों बाजार में इसके चर्चे खूब हैं इसलिए रेट भी ज्यादा चल रहा है ……..

देखिए इस शेड में चलिए …..

यहाँ पर पुराने गधे और नये गधे साथ साथ आपस में दुलत्ती मारते रहते हैं, यहां के नये गधे आलू को  फेक्ट्री में बना हुआ मानते हैं, इस शेड के गधों में अजीब तरह की हताशा है कई बिना बिके रात को गधैया के चक्कर में भाग जाते हैं और कई को तरह तरह की बीमारियां हो गईं हैं ……..!

गठबन्धन के तरह तरह के नाटक देेखना हो तो आगे वाले शेड की तरफ चलिए, यहां के गधे बहुत नौटंकीबाज होते हैं इनका रेट चढ़ता गिरता रहता है, पर मजाक करके हंसने हंसाने के ये विशेषज्ञ हैं, दुलतती मारने में इतने तेज हैं कि कुर्सी में टांग फसाके गिरा देगें और खुद बैठ जाएंगे, गधों के गठबन्धन का मुखिया कहता रहा कि महागठबंधन की मजबूती के लिए २० सूत्रीय कमेटी हर महीने मींटिग करेगी, खूब मीटिंगे हुई, खूब खाया पीया गया जब खा खा के सबके पेट निकल आए तो छबि बनाने के चक्कर में “छबि और छोड़” वाले रास्ते से महुआ पीने भाग गए, लौटे तो नशे में अपनो को दुलतती मार मार कसाई के घर में घुस गए …….!

ये गेट के अंदर सुरक्षित गधों को देख रहे हैं न,अरे यही जिनके एक ही रंग की पछाड़ी ह  ,इनकी खासियत है ये मौके आने पर कोई को भी बाप बना लेते हैं और बाद में उसको बधिया बनाके ईंटा पत्थर ढ़ोने लायक बना देते हैं, इस शेड में हमेशा ताला लगा के रखा जाता है, यहां विशेष प्रकार के शौचालय बनाए गए हैं और साल में दो बार इनको शुद्ध जल पिलाया जाता है ……….!

चलें थोड़ा आगे चलते हैं हालांकि आप की हालत बता रही है कि आप थोड़े ज्यादा थक गए हैं कुछ चाय -पानी ले ली जाए …….

इधर पड़ोस में आलूबंडा ,चाय की दुकान है जहां खाट में ढाढ़ी मूंछे वाले खरीददार गठबंधन पर बहस कर रहे हैं, सुटटा खीचते हुए वे बोले – जब गठबंधन निजी सियासी फायदे के लिए किया जाता है तो चुनाव के बाद बड़े नेताओं को जनता की थाली में उल्टी करने की आदत हो जाती है, डीएनए की भले जांच न हो पर गंगा मैया का बेटा बनने का फैशन चल पड़ता है ………….

– भैया ,बिना शक्कर की दो चाय बना दोगे क्या ?

– पुलिया के ऊपर बैठ कर कांच के गंदे से गिलासों में चाय की चुस्कियां लेते हुए साहेब भावुक हो गए, कहने लगे – ये “गठबंधन “बहुत बुरा शब्द है भैया ……..!

मैंने पुलिया के नीचे झांका …… पानी के डबरे में उसका झिलमिलाता चेहरा दिख रहा था जो मुझसे प्रेम के बहाने का गठबंधन करके किसी और के साथ सात फेरे, चौदह वचनों के गठबंधन के साथ भाग गई थी ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #42 ☆ रेशम के धागे ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है रक्षाबंधन पर्व पर विशेष कविता “# रेशम के धागे #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 41 ☆

☆ # रेशम के धागे # ☆ 

कितने पवित्र है

यह रेशम के धागे

जिनकी बहना है

उनके तो है भाग जागे

गर बहन नहीं हो

तो जीवन है सूना

गर भाई नही हो

तो जीवन में दर्द है दूना

भाई-बहन सा प्यार

जग में मिलना है दुश्वार

यह याद दिलाने आता है

राखी का त्योहार

 

इक बहना ने,

आरती उतारी, टिका लगाया

भाई के कलाइपे राखी बांधी

भाई ने रख्खा सरपे हाथ

बोला-

तुझपे ना आए कोई आंधी

जीवन भर तेरी

रक्षा करूंगा

पूरी तेरी मै हर इच्छा करूंगा

तू जरूरत में आवाज़ तो देना

भैया कहके मुझे बुलाना

आ जावूंगा मैं दौड़के

सारे काम काज छोड़के

तू तो है दुनिया में न्यारी

मां-बाबा और हम

सबकी प्यारी

वो भाई को

ऐसे लिपट गई

मानो सारी दुनिया

वहीं सिमट गई

भूल गई वो दु:ख दर्द सारे

जैसे मिल गये उसे चांद-सितारे

राखी,

भाई बहन के स्नेह का

अनमोल है बंधन

मै शत् शत् करता हूं

इस पवित्र रिश्ते को वंदन

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 44 ☆ वृद्धापकाळातील वेदना ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 44 ☆ 

☆ वृद्धापकाळातील वेदना ☆

वृद्धापकाळातील यातना

बोलक्या, तरी अबोल होती

स्व-अस्तित्व मिटतांना

डोळ्यांत अश्रू तरळती…०१

 

वृद्धापकाळातील यातना

थकवा प्रचंड जाणवतो

आधार हवा, प्रत्येक क्षणाला

जवळचाच तेव्हा, मागे सरकतो… ०२

 

वृद्धापकाळातील यातना

विधिलिखित असतात

परिवर्तन, नियम सृष्टीचा

विषद, लिलया करून देतात…०३

 

वृद्धापकाळातील यातना

भोगल्याशिवाय, गत्यंतर नाही

प्रभू स्मरण करत रहावे

तोच आपला, भार वाही…०४

 

वृद्धापकाळातील यातना

न, संपणारा विषय हा

“राज” हे कैसे, प्रस्तुत करू

अनुभव, प्रत्येकाला येणार पहा…०५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

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≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #101 ☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 101 ☆

☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी

मुहल्ला लकड़गंज शूरवीरों का मुहल्ला है। मुहल्ले की सबसे लोकप्रिय जगह नुक्कड़ पर बनी कलारी है। शाम को सात बजे के बाद मुहल्ले के साठ प्रतिशत वयस्कों के कदम उसी दिशा में जाते हैं।  जाते वक्त वे बहुत सामान्य, ढीले-ढाले और भीरु लोग होते हैं, लेकिन लौटते में वे दुनिया को ठेंगे पर रखते, देश के प्रधान-मंत्री से लेकर मुहल्ले के थानेदार तक को ललकारते लौटते हैं। फिर रात के बारह एक बजे तक ज़्यादातर घरों में धमाचौकड़ी मचती है, बर्तनों और चीज़ों की तोड़फोड़ होती है, उसके बाद बेहोशी की शान्ति छा जाती है।

यह कार्यक्रम और वीरता साल दर साल इसलिए चलती रहती है क्योंकि घरों की ज़्यादातर महिलाएँ धार्मिक प्रवृत्ति की हैं और उनको घुट्टी में पिलाया गया है कि पति भले ही दारू पीकर पूरे घर को सिर पर उठाता हो लेकिन वह दरअसल परमेश्वर है और उसकी पूजा फूल-पत्र को छोड़कर और किसी चीज़ से नहीं करनी है।

मुहल्ले के इन्हीं सूरमाओं की पहली पाँत में नट्टूशाह हैं। घर में बच्चे अभी इतने बड़े नहीं हुए कि उन्हें ठोक-पीट कर काबू में रख सकें, इसलिए शाम को पीने के बाद शेर बनकर दहाड़ने लगते हैं। तीन चार घंटे ऐसा नाटक करते हैं कि रोज़ मुहल्लेवालों का बिना टिकट भरपूर मनोरंजन होता है। गालियों में नाना प्रकार के प्रयोग करते हैं, रोज़ दो चार नयी गालियाँ रच लेते हैं। पूरे घर में खाना बिखेरते हैं, और फिर जो सोते हैं तो सबेरे दस बजे तक मुर्दे की तरह पड़े रहते हैं। मक्खियाँ उनके मुँह में अनुसंधान करती रहती हैं। पत्नी आजिज़ है।

एक रात नट्टूशाह रोज़ की तरह पीने के दैनिक कार्यक्रम के बाद अपनी पत्नी शीला देवी का जीना हराम कर रहे थे। उनका प्रिय शगल अपनी पत्नी के नातेदारों को रोज़ मौलिक गालियाँ देना था। शीला देवी सुनती रहती थीं और कुढ़ती रहती थीं।

उस रात शीला देवी परेशान होकर कह बैठीं, ‘बाप के घर में कभी ऐसा तमाशा नहीं देखा। कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसे लोगों के साथ जिन्दगी काटनी पड़ेगी।’

और बस नट्टूशाह शुरू हो गये। हाथ नचाते हुए बोले, ‘तुमने बाप के घर में देखा ही क्या था। वह फटीचर कंगाल बुड्ढा क्या दिखाएगा?’ फिर छाती ठोकते हुए बोले, ‘यह सब तो हम रईसों, दिलवालों के घर में देखने को मिलेगा। उस बुड्ढे चिरकुट के घर में क्या मिलेगा?’

स्त्रियाँ स्वभावतः मायके के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं। शीला देवी एड़ी से लेकर चोटी तक सुलग गयीं। बोलीं, ‘खबरदार जो मेरे बाप के बारे में कुछ ऐसा वैसा मुँह से निकाला।’

शीला देवी उस वक्त खाना बना रही थीं। नट्टूशाह उकडूँ बैठकर अपना चेहरा उनके चेहरे के पास लाकर बोले, ‘सच्ची बात सुनने में मिर्चें लगती हैं। हम रईसों के सामने उस बुड्ढे की क्या हैसियत है?कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली!’

क्रोध में शीला देवी का माथा घूम गया। हाथ में चिमटा था। दाँत पीसकर चिमटे को पतिदेव के मुँह की तरफ धकेल दिया। नट्टूशाह एक तो नशे में टुन्न थे, दूसरे वे उकड़ूँ बैठे थे। चिमटा अचानक ही रॉकेट की तरह उनके मुँह के सामने आ गया। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि यह स्त्री सदियों के पढ़ाये पाठ को भूलकर इस तरह पापाचार करेगी। शीला देवी फिर भी अपनी मर्यादा नहीं भूल पायीं, इसलिए चिमटा नट्टूशाह की ठुड्डी छूकर रह गया। लेकिन इस अचानक हमले से राजा भोज अपना सन्तुलन खोकर पीछे की तरफ उलट गये।

कुछ देर तक तो उन्हें समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो गया। सदियों की बनायी इमारत एक पल में ढह गयी। अविश्वास की स्थिति में वे चित्त पड़े, सिर को बार बार झटका देते रहे। फिर अपने को समेटकर जितनी जल्दी हो सका, उठे। भारी बेइज्जती हो गयी थी।

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव अन्य कमज़ोर और खीझे पुरुषों की तरह उन पर हाथ उठाएंगे। उन्होंने चिमटे को अपनी रक्षा का हथियार बनाया। चिमटा मज़बूत, मोटा था। शराबियों से रक्षा के लिए काफी था। नट्टूशाह बार बार उनकी तरफ लपकते थे और वे बार बार चिमटा उनकी तरफ धकेल देती थीं। नट्टूशाह हर बार भयभीत होकर पीछे हट जाते थे। नशे के कारण हाथों पर इतना काबू नहीं था कि चिमटे को पकड़ कर छीन सकें। नशा इतना था कि एक की जगह तीन तीन चिमटे दिखते थे। एक को पकड़ते तो दो छूट जाते थे।

वे चार पाँच कोशिशों में थक गये।  बिस्तर पर लेट कर हाँफते हुए बोले, ‘हरामजादी, सबेरा होने दे। झोंटा पकड़कर घर से न निकाला तो कहना। फिर जाना उसी कंगाल बाप के पास।’

शीला देवी जानती थीं कि सबेरे नट्टूशाह सामान्य, पालतू गृहस्थ बन जाएंगे। वे निश्चिंत होकर लेट गयीं। कुछ देर तक पश्चाताप हुआ कि पति पर हाथ उठाया, फिर सोचा कि धमकाया ही तो है, मारा कहाँ है?अगर धमकाने से घर में शान्ति रहती है तो क्या बुरा है?’

सबेरा होते ही नट्टूशाह अपनी विशिष्टता खोकर एक मामूली इंसान और ज़िम्मेदार गृहस्थ बन गये। सारे काम ऐसे तन्मय होकर निपटाते रहे जैसे रात को कुछ हुआ ही न हो। लेकिन शाम होते ही कच्चे धागे से बँधे मैख़ाने में पहुँच गये। वहाँ पहुँचने के आधे घंटे के भीतर ही वे जार्ज पंचम बन गये। जिनके सामने दिन में मुँह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी उनका नाम लेकर  जी भरकर गालियाँ देते रहे और मन की भड़ास निकालते रहे।

लड़खड़ाते कदमों से घर की तरफ बढ़े कि एकाएक शीला देवी का चिमटा हवा में तैर गया। नट्टूशाह का आधा नशा उतर गया। लड़खड़ाते कदम अपने आप सध गये। अब घर पहले जैसा निरापद नहीं रहा। स्त्रियाँ धरम छोड़कर चलने लगें तो घर को नरक बनते कितनी देर लगती है?

आगे आगे उनके मित्र छैलबिहारी पूरी सड़क नापते जा रहे थे। बड़े ज्ञानी माने जाते थे। कलारी में दो पेग के बाद उनके श्रीमुख से ज्ञान के फुहारे छूटते थे। नट्टूशाह ने आवाज़ देकर उन्हें रोका, कहा, ‘दादा, आपसे एक जरूरी बात करनी थी। घर में कल रात बहुत अधरम की बात हो गयी। तब से दिमाग खराब है।’ उन्होंने रात की पूरी घटना सुनायी। फिर बोले, ‘आप सयाने आदमी हो। धरम करम वाले हो। थोड़ा चलकर उनको ऊँचनीच समझा दो। धरम के खिलाफ जाएंगीं तो उनका ही परलोक बिगड़ेगा।’

छैलबिहारी उनकी बात सुनकर एक मिनट सोच कर बोले, ‘भैया, ऐसा है कि आजकल की लेडीज़ का कोई भरोसा नहीं है। हम समझाने जाएंगे तो हो सकता है हमारी भी बेइज्जती हो जाए। आप उनके हज़बैंड हो, आप ही उन्हें समझाओ तो ठीक होगा। उन्हें बताना कि रामायन में लिखा है कि स्त्री के लिए पति के सिवा दूसरा देवता नहीं होता। पति की इंसल्ट करेंगीं तो एक दिन उसका दंड भुगतना पड़ेगा।’

इतना ज्ञान देकर छैलबिहारी लटपटाते हुए आगे बढ़ गये। नट्टूशाह झिझकते हुए घर में घुसे और कमरे में कुर्सी पर बैठ गये। शीला देवी आँगन में सब्ज़ी छीलने में लगीं थीं। पतिदेव को मौन बैठा देखकर समझ गयीं कि कल के चिमटा-प्रकरण का कुछ असर हुआ है।

थोड़ी देर विचार में डूबे रहने के बाद नट्टूशाह बाहर निकलकर पत्नी के पास पड़े स्टूल पर बैठ गये। उनके चेहरे को थोड़ी देर पढ़कर धीरे धीरे बोले, ‘देखो, कल आपसे बड़े अधरम की बात हो गयी। आप जानती हो कि शाम को हम जरा दूसरे मूड में रहते हैं,लेकिन आपको अपना धरम नहीं छोड़ना चाहिए था। शास्त्रों में पति को परमेश्वर का दरजा दिया गया है। हमसे गलती हो सकती है, लेकिन आपको अपने धरम से नहीं डिगना चाहिए। इसमें आपका बड़ा नुकसान हो सकता है।’

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव की यह विनम्रता कल की घटना के कारण है और अब जीती हुई ज़मीन को छोड़ना मूर्खता होगी। वे गंभीर मुख बनाकर बोलीं, ‘यह परवचन हमें न सुनाओ। हम धरम अधरम समझते हैं। आप चाहते हो कि आप रोज हमारे मायके वालों को गालियाँ सुनाओ और हम बैठे बैठे सुनें, तो अब यह नहीं होगा। परलोक में हमसे जवाब माँगा जाएगा तो तुम्हारी करतूत भी तो बखानी जाएगी। सारा धरम हमारे ही लिए है, मर्दों का कोई धरम नहीं है क्या?’

नट्टूशाह लम्बी साँस लेकर खड़े हो गये। चलते चलते बोले, ‘भई, हम तो आपका भला चाहते हैं, इसलिए आपको समझाया। आपको अधरम के रास्ते पर चलना है तो चलिए। नतीजा आप ही भोगोगी,हमें क्या!अभी हम थोड़ा अन्दर लेटने जा रहे हैं। खाना बन जाए तो बुला लेना। हमें झगड़ा-फसाद पसन्द नहीं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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