हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण # 55 – इक्ष्वाकु के वंशज !! ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक अत्यंत मनोरम अभिनवगीत – “इक्ष्वाकु के वंशज !!। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 55 ☆।। अभिनव-गीत /संदर्भ/पुराण ।। ☆

☆ इक्ष्वाकु के वंशज !!

तुम सुनो !

इक्ष्वाकु के वंशज !!

मैं सिरहाने रोज रखती हूँ तुम्हारी

त्राण देने को नियत पद-रज ।।

 

इन गहन पौराणिका –

बारीकियों में ।

खोजती आयी समय

को सीपियों में ।

 

जहाँ से आये

हमारे पूर्वज ।।

 

किस तरह बिखरी

हमारी परिस्थितियाँ ।

वाध्य दिखती सभी

अनुगामी  समितियाँ ।

 

जो उठाये थीं हमारे

सब जयी ध्वज ।।

 

नहीं बजती है हमारी

सुधा -सरगम। 

टूटता दिखने लगा है

विवश संयम ।।

 

दुखी बैठे हैं सभी

पंचम – षड़ज ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-09-2018

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘हम न मरब)  

☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कानों को सुनाई पड़ा कि मैं थोड़े देर पहले मर चुका हूं। फिर किसी ने कहा कि मुझे मरे काफी देर हो चुकी है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और बोला कि ये मरने के करीब पहुंच गए हैं, उधर से आवाज आई डाक्टर झूठ बोल रहा है, उनको मरे बहुत देर हो गई है।

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं, कुछ लोगों ने मुझे मरा घोषित कर दिया है और कुछ लोग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता।

 गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, पहिचान कर भी अनजान बनने का नाटक करता रहा, पहिचान था पर ऐन वक्त नाम भूल जाता था।  धीरे धीरे शरीर फैलता रहा,वजन बढ़ता गया,वजन कम करने का प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको बहुत पहले हजारों रुपए उधार दिये थे उनमें से तीन  खुशी खुशी कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। जब वे तीन कंधा देने तैयार हुए तो मुझे लगा कि अब उधारी दिया पैसा डूब जायेगा, क्योंकि ये तीनों जल्दी मचा रहे हैं और कंधा देने वाले चौथे आदमी की तलाश में हैं ताकि मरे हुए को जल्दी मरघट पहुंचाया जा सके। मैं सचमुच मर चुका हूं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि बीच-बीच में वसूली के मोह में सांस लौट लौट कर आ-जा रही थी।वे तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी।किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें हल्की सी खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी धीरे-धीरे खिसक गये। मैं फिर बेहोश हो गया, फिर मैंने तय किया कि अब मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए, हालांकि मैं मरना नहीं चाहता था पर आखिरी समय में दुनियादारी के इस तरह के चरित्र को देखकर मर जाना ही उचित समझा,  मैंने सोचा उधारी वसूल हो न हो,अच्छे दिन आयें चाहें न आयें….. कम से कम वे तीनों मुझे ठिकाने लगाने में ईमानदारी बरत रहे हैं, बाकी करीब के लोग दूर भाग रहे हैं, ऐसे समय जरूरी है कि मुझे तुरंत मर जाना चाहिए….  और मैं मर गया।

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर अभी भी कोई मानने तैयार नहीं है , और कंधा देने में आनाकानी कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल है, वे तीनों भी फिर से आने में डर रहे होंगे क्योंकि नेताओं ने इन दिनों  ऐसा माहौल बनाकर रखा है कि लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #46 ☆ कटघरा ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# कटघरा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 46 ☆

☆ # कटघरा # ☆ 

आज हर कोई व्यस्त है

अपने आप में मस्त है

खुली आंखों से सब देखकर

वो अस्वस्थ है,पस्त है

झोपड़ियाँ उजाड़कर

महल बन रहे हैं

जंगल विस्फोटों से

दहल रहे हैं

पर्यावरण आँसू

बहा रहा है

बाढ़, तूफान

सब कुछ निगल रहे हैं

 

भूख और प्यास

रास्ते में खड़े है

अधनंगे से

मरणासन्न पड़े है

इनकी सुध

किसी को नहीं है

गरीबी के मुकुट में

सदियों से जड़े हैं

कभी कभी हक के लिए

रास्ते पे उतरते हैं

अपनी जायज मांगों के लिए

आंदोलन करते

फिर अचानक एक

सैलाब आता है

आंदोलन टूटता है

लोग बे मौत मरते है

ऐसे वाकयों से अख़बार

भरे पड़े है

न्याय की आंख पर पट्टी,

मुंह पर ताले जड़े हैं

अब इंसाफ पिंजरे में

बंद है

और हम सब

सभ्य, शिक्षित लोग

समाज के

कटघरे में खड़े है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 48 ☆ फुलपाखरू… Butterfly ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 48 ? 

☆ फुलपाखरू… Butterfly ☆

फुलपाखरू… किती निर्मळ आणि स्वच्छंदी जीवन असतं त्याचं…, जीवशास्त्र हे सांगतं की फुलपाखराचे आयुमान फक्त चौदा दिवसाचं असतं… तरी सुद्धा ते किती आनंदात जगतांना आपल्याला दिसतं… या फुलावरून त्या फुलावर लीलया उडतं, जीवन कसं जगावं याचा परिपाठ जणू ते सर्वांना शिकवत असतं…आपल्याच विश्वात रममाण असणारं हे फुलपाखरू खरेच एक आदर्शवादी कीटक आहे… वास्तविकता त्याला पण खूप शत्रू परंपरा लाभलेली आहे, तरी सुद्धा तो आपला जीवनक्रम विना तक्रार पूर्ण करतं… या उलट शंभर वर्ष वयाचा गर्व असणाऱ्या माणसाला नेहमीच आपल्या कार्याचा, आपल्या नावाचा, आपल्या पदाचा गर्व असतो, तो त्या गर्वातच संपून सुद्धा जातो… अहो शंभर वर्ष आयुष्य जरी माणसाचं असलं, तरी मनुष्य तितका जगतो का…? यदाकदाचित एखादा जगला तरी… ” वात, कफ, पित्त…”  हे त्रय विकार त्याला शांत जीवन जगू देतात का…? अगणित विकार उद्भवुन लवकर मरण यावे म्हणून हा मनुष्य देवाला साकडं घालत असतो… मग काय कामाचं ते शंभर वर्षाचं आयुष्य. आणि म्हणून मला फुलपाखरू खूप आणि खूपच आवडतं… *( short but sweet life… )

एक चांगला गुरू म्हणून मी त्याकडे नेहमी पाहतो, जीवन जगण्याची कला मी त्याकडूनच अवगत केलीय… जेव्हा जेव्हा मी उदास होतो, मला कंटाळा येतो, तेव्हा मी फुलपाखराला आठवतो… मला एक लहानपणी कविता होती, फुलपाखरू छान किती दिसते, फुलपाखरू… आणि तेव्हापासून त्याची आणि माझी घट्ट मैत्री झाली आहे…

My dear friend the butterfly… forever 

शेवटी एकच सांगावे वाटते की इथे आपले काहीच नाही, सर्व सोडावे लागणार आहे, मग कशाला उगाचच व्यर्थ गर्व करून रहावं… प्रेम द्या प्रेम घ्या, आणि प्रेमानेच मग मार्गस्थ ही व्हा…!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #105 ☆ व्यंग्य – साहब लोग का टॉयलेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब लोग का टॉयलेट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 105 ☆

☆ व्यंग्य –  साहब लोग का टॉयलेट

उस दफ्तर में दो टॉयलेट हैं। एक साहब लोगों का है और दूसरा क्लास थ्री और फ़ोर के लिए। साहब लोग भूलकर भी दूसरे टॉयलेट में नहीं जाते, और साहबों को छोड़कर दूसरों को पहले टॉयलेट में जाने की सख़्त मुमानियत है। क्लास थ्री या फ़ोर का कोई रँगरूट अगर भूल से साहब लोग के टॉयलेट में चला जाए तो उसकी ख़ासी लानत- मलामत होती है। ख़ुद बड़े बाबू उसकी क्लास लेते हैं।

कभी एक और दफ्तर में जाना हुआ था। वहाँ टॉयलेट के दरवाज़े पर एक पट्टिका लगी थी जिसका कुछ हिस्सा दरवाज़े के पल्ले से छिपा था। पट्टिका पर लिखा दिखायी पड़ा— ‘शौचालय अधिकारी’। देखकर चमत्कृत हुआ। यह कौन सा पद निर्मित हो गया? थोड़ा आगे बढ़ा तो पूरी पट्टिका दिखी। पूरी इबारत थी—‘शौचालय अधिकारी वर्ग’, यानी अधिकारी वर्ग के लिए आवंटित टॉयलेट था।

पहले जिन टॉयलेट्स की बात की उसके बड़े साहब अपने वर्ग के टॉयलेट में कुछ सुधार चाहते हैं। वे कहीं ऐसे नल देख आये हैं जिनमें हाथ नीचे लाते ही अपने आप पानी गिरने लगता है और हाथ हटाने पर अपने आप बन्द हो जाता है। नल खोलने या बन्द करने की ज़रूरत नहीं होती। बड़े साहब तत्काल अपने टॉयलेट में ऐसे ही नल लगवाना चाहते हैं। लगे हाथ वे पुराने फर्श को तोड़कर चमकदार टाइल्स भी लगवाना चाहते हैं ताकि टॉयलेट साहब लोग के स्टेटस के अनुरूप हो जाए। बड़े साहब की इच्छा को छोटे साहबों ने ड्यूटी के रूप में ग्रहण किया और तत्काल ठेकेदार को काम सौंप दिया गया।

लेकिन समस्या यह आयी कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक साहब लोग ‘रिलीफ़’ पाने के लिए किधर जाएँगे। बड़े साहब का आदेश ज़ारी हुआ कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक सभी अफ़सरान थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में ही राहत पायेंगे। चार छः दिन की तो बात है।

लेकिन यह फ़रमान सुनते ही साहब लोगों के मुख मुरझा गये। थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में कैसे जाएँगे?क्या अब साहब लोगों और निचली क्लास के लोगों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा? ‘रबिंग शोल्डर्स विथ देम!’

एक दो दिन के अनुभव के बाद साहबों के बीच भुनभुन होने लगी।’इन लोगों में एटीकेट नहीं है। टॉयलेट में एक दूसरे से बात करेंगे या एक दूसरे पर हँसेंगे। एक दूसरे का मज़ाक उड़ायेंगे। वो धनीराम तो वहाँ जोर जोर से गाने लगता है। टॉयलेट का भी कुछ एटीकेट होता है। वहाँ हम इनके बगल में खड़े होते हैं तो बहुत ‘एम्बैरैसिंग’ लगता है।’रिलीफ़’ का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। उस पर साइकॉलॉजी का असर होता है।’

टॉयलेट का काम शुरू होने के दो दिन बाद दास साहब बड़े साहब के पास जाकर बैठ गये हैं। कहते हैं, ‘सर, मेरी रिक्वेस्ट है कि लंच ब्रेक आधा घंटा बढ़ा दिया जाए।’रिलीव’ होने के लिए सिविल लाइंस तक जाना पड़ता है। यहाँ बहुत ‘अनकंफर्टेबिल’ ‘फ़ील’ होता है।’एडजस्ट’ करने में दिक्कत होती है। अटपटा लगता है। ऑफ़िस में हम साथ साथ बैठ सकते हैं, लेकिन टॉयलेट में आजू-  बाजू खड़ा होना बहुत मुश्किल है।’इट इज़ ए डिफ़रेंट फ़ीलिंग ऑलटुगैदर।’ लगता है जैसे हमारी साइज़ कुछ छोटी हो गयी हो।’
बड़े साहब सहानुभूति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘आई कैन अंडरस्टैंड इट। यू कैन टेक मोर टाइम आफ़्टर लंच। आई वोन्ट माइंड इट। तीन चार दिन की बात है।’
दास साहब संतुष्ट होकर उठ जाते हैं। फिर भी दफ्तर में हल्का टेंशन रहता है। ज़्यादातर साहब लोग ‘रिलीव’ होने के लिए बाहर भागते हैं, लेकिन डायबिटीज़ वालों को मजबूरन दफ्तर में ही ‘रिलीव’ होना पड़ता है।

छः दिन में टॉयलेट का सुधार संपन्न हो गया। साहब लोगों ने राहत की साँस ली। बड़े साहब ने सबसे पहले नये ‘गैजेट्स’ का इस्तेमाल किया और फिर बाकी साहब लोगों ने भी उनका आनन्द लिया। छः दिन बाद आखिरकार वो ‘डिस्टर्बिंग फ़ीलिंग’ ख़त्म हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆

भोर का समय है। लेखन में मग्न हूँ। एकाएक कुछ नगाड़ों के स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। विचार करता हूँ कि आज श्री गणेशोत्सव का नौवाँ दिन है। अपवादस्वरूप ही इस दिन विसर्जन होता है। फिर इस वर्ष भी सार्वजनिक गणपति की स्थापना नहीं हुई है। ऐसे में सुबह-सुबह नगाड़ों का स्वर कहाँ से आ रहा है? जिज्ञासा के शमन के लिए बाहर निकलता हूँ और देखता हूँ कि गाजे-बाजे के साथ एक मुनिवर का आगमन हो रहा है। भक्तों की भीड़ मुनिवर के आगे और पीछे पैदल चल रही है। सबसे आगे नगाड़ा बजाने वाले चल रहे हैं। अवलोकन करता हूँ कि हर भक्त बेहद महंगे वस्त्र धारण किये है। पदयात्रा में भव्यता और प्रदर्शन है। इन सबके बीच केवल मुनिवर हैं जो सारे प्रदर्शन से अनजान चिंतन और दर्शन में डूबे हैं। सच्चे निस्पृही, सच्चे अपरिग्रही।

अपरिग्रह भाव मानसपटल पर फ्रीज़ होता है और चिंतन की लहरें उठने लगती हैं। याद आता है एक फक्कड़ साधू महाराज का प्रसंग। महाराज जी के पास ठाकुर जी का अत्यंत सुंदर विग्रह था। वे ठाकुर जी की दैनिक रूप से सेवा करते। स्नान कराते, वस्त्र बदलते, पूजन करते। फिर महाराज जी भिक्षाटन के लिए निकलते। भिक्षा में जो कुछ मिलता, पहले ठाकुर जी को भोग लगाते, पीछे आप ग्रहण करते।

एक रात ठाकुर जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बोले, ” महाराज जी, हर रोज सूखी रोटी खाते-खाते थक गया हूँ। कभी थोड़ा घी भी चुपड़ दिया न करो। माखन और गुड़ की कभी-कभार व्यवस्था कर लिया करो।”

महाराज जी नींद से उठकर बैठ गये। सोचने लगे, मेरा ठाकुर तो लोभी निकला! क्रोध में भरकर ठाकुर जी से बोले, ” तुम्हारा यह चटोरापन नहीं चलेगा। ऐसे तो मेरा अपरिग्रह ही नष्ट हो जायेगा।”

चेले को बुलाकर महाराज जी ने ठाकुर जी उसे सौंपते हुए कहा,” इन्हें ले जाओ और किसी मंदिर में विधिवत स्थापित कर दो। सेठों की बस्ती के किसी मंदिर में बैठाना जहाँ इन्हें रोज जी भर के मिष्ठान, पकवान मिल सकें। मेरे पास तो सूखे टिक्कड़ के सिवा और कुछ मिलने से रहा।”

तात्पर्य है कि अपरिग्रह का इतना कठोर पालन कि ठाकुर जी भी छोड़ दिये। वस्तुत: प्रदर्शन, अनावश्यक संचय की जड़ है। दर्शन में सुविधा से ‘प्र’ उपसर्ग जड़कर चैतन्य समाज जड़ हो चला है। अपने ही हाथों खड़े किये इस एकाक्षरी भस्मासुर से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए टेढ़ी खीर सिद्ध हो रहा है।

अंतिम बात, ‘टेढ़ी खीर’ का अर्थ कठिन होता है लेकिन ‘कठिन’ का अर्थ ‘असंभव’ नहीं होता।…विचार कीजिएगा।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:34 बजे, 18 सितम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 58 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 58 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 58) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 57 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

टूट कर चाहना किसी को

गुनाह है ग़र ,

तो फिर बेशुमार लोग

गुनहगार हैं यहाँ…

 

If loving someone overly

is  a  crime,

then countless people

are  culprits  here…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कशमकश का

अहम मत पालो,

जो काम ख़ुशी दे,

उसे अभी कर डालो…

 

Don’t get entangled into

the dilemma of ego,

Work that gives you

happiness, do it now…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 दोस्ती  का  हाथ जब

मैंने बढ़ा दिया तो…

फिर कभी गिना नहीं कि

किसने कब दग़ा दिया…

 

When I extended the

hand  of  friendship,

Then never counted

who betrayed me when!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

न  गिला  है कोई  हालात  से,

न शिकायत किसी की बात से

खुद ही सारे वर्क जुदा हो रहे,

मेरी ज़िन्दगी की किताब से…!

 

No grudge against any situation,

Not even a complaint with anyone

All the writing itself is vanishing,

from the manuscript of my life….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 59 ☆ दोहे ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  ‘सलिल – दोहे’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 59 ☆ 

☆ सलिल दोहे ☆ 

*

सलिल न बन्धन बाँधता, बहकर देता खोल।

चाहे चुप रह समझिए, चाहे पीटें ढोल।।

*

अंजुरी भर ले अधर से, लगा बुझा ले प्यास।

मन चाहे पैरों कुचल, युग पा ले संत्रास।।

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उठे, बरस, बह फिर उठे, यही ‘सलिल’ की रीत।

दंभ-द्वेष से दूर दे, विमल प्रीत को प्रीत।।

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स्नेह संतुलन साधकर, ‘सलिल’ धरा को सींच।

बह जाता निज राह पर, सुख से आँखें मींच।।

*

क्या पहले क्या बाद में, घुली कुँए में भंग।

गाँव पिए मदमस्त है, कर अपनों से जंग।।

*

जो अव्यक्त है, उसी से, बनता है साहित्य।

व्यक्त करे सत-शिव तभी, सुंदर का प्रागट्य।।

*

नमन नलिनि को कीजिए, विजय आप हो साथ।

‘सलिल’ प्रवह सब जगत में, ऊँचा रखकर माथ।।

*

हर रेखा विश्वास की, शक-सेना की हार।

सक्सेना विजयी रहे, बाँट स्नेह-सत्कार।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #88 ☆ मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक विचारणीय आलेख  “# मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव #। ) 

– श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 88 ☆ # मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव # ☆

भोजपुरी भाषा में एक कहावत है,

मन ना रंगायो ,रंगायो जोगी कपड़ा।

बार दाढ़ी रखि बाबा ,बनिए गइले बकरा।

इसी प्रकार मन की   मनोस्थिति पर   टिप्पणी करते हुए कबीर साहब ने कहा कि —-

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

कर का मनका (माला के दाने)डारि के ,मन का मनका फेर।।

कबिरा माला काठ की ,कहि समुझावत मोहि ।

मन ना फिरायो आपना, कहां फिरावत मोहिं।।

                अथवा

जप माला छापा तिलक,सरै न एकौ काम।

मन कांचे नांचे बृथा ,सांचे रांचे राम।।

तथा गोपी उद्धव संवाद में

सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से मन के मनोभावों का गहराई से चित्रण करते हुए कहा कि  #उधो मन ना भयो दस बीस# तथा अन्य संतों महात्माओं ने भी जगह जगह मन की गतिविधियों को उद्धरित किया है, और श्री मद्भागवत गीता में तो वेद ब्यास जी अर्जुन द्वारा मन की चंचलता पर भगवान कृष्ण से मन को बस में करने का उपाय पूछा था कि—- हे केशव ! आप मन को बस में करने की बात करते हैं —-जिस प्रकार वायु को मुठ्ठी में कैद नहीं किया जा सकता, फिर उसी तरह चंचल स्वभाव वाले मन को कैसे बस में किया जा सकता है।

जिसके प्रतिउत्तर में  भगवान कहते हैं —-हे अर्जुन! निरंतर योगाभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को बस में करना अत्यंत सरल है।

हमने अपने अध्ययन में यह पाया कि क्षणिक ही सही उत्तेजित अवस्था में कठोर  से कठोर साधना करने वाला साधक नियंत्रण खो कर पतित हो अपना मान सम्मान गंवा देता है। आइए हम अपने अध्ययन द्वारा  मानव मन के स्वभाव प्रभाव का अध्ययन करें और समझे कि किस प्रकार उत्तेजना तथा भावुकता का  देश काल परिस्थिति तथा कहानी दृश्य चित्र तथा चलचित्र से परिस्थितियों से  मन  कैसे प्रभावित होता है।

मन की गतिविधियों पर अध्ययन करने से पहले हमें अपनी शारिरिक संरचना पर ध्यान देना होगा।   और उसकी बनावट तथा उसकी कार्यप्रणाली को समझना होगा तभी हम मन  के स्वभाव  को आसानी से समझ पायेंगे।

पौराणिक तथा बैज्ञानिक  अध्ययन तथा मान्यता के आधार पर  पंच भौतिक तत्वों  क्षिति ,जल पावक गगन तथा समीरा के संयोग  से मां के गर्भ में पल रहा , हमारा स्थूल शरीर निर्मित है, तथा शारीरिक संचालन के लिए जिस प्राण चेतना की आवश्यकता होती है वह प्राण वायु है उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब प्राण शरीर से अलग होता है तब स्थूल शरीर मर जाता है उसी स्थूल शरीर में आत्मा निवास करती है जिसे इश्वरीय अंश से उत्पन्न माना जाता है , शरीर और आत्मा के बीच एक तत्व  मन भी रहता है

 जो इंद्रियों के द्वारा मन पसंद भोग करता है, तथा सुख और दुख की अनुभूति मन में ही होती है। शांत तथा उत्तेजित मन ही होता है मन ही मित्र है मन ही आप का शत्रु है यह अति संवेदनशील है  उसके उपर  परिस्थितियों तथा कथा कहानी गीत चलचित्र छाया चित्र का प्रभाव भी देखा गया है मन का क्षणिक आवेश व्यक्ति को पतन के गर्त में धकेल देता है। वहीं शांत तथा   एकाग्र मन आप को उन्नति शीर्ष पर स्थापित कर देता है।एक

तरफ कामुक दृश्य के चल चित्र तथा छाया चित्र उत्तेजना से भर देते हैं, वहीं भावुक दृश्य आपकी आंखों में पानी भर देते हैं इस लिए निरंतर योगाभ्यास तथा विरक्ति पथ पर चलते हुए लोककल्याण में रत रह कर हम अपनी आत्मिक शांति को प्राप्त कर आत्मोउन्नति कर सकते हैं।

ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की दूसरी कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य के मूल तत्त्व

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

साहित्य के परिदृश्य में व्यंग्य एक महत्त्वपूर्ण विधा है। व्यंग्य ही समाज में व्याप्त सभी प्रकार की बुराइयों और परिवर्तन को सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। व्यंग्य की प्रासंगिकता और पठनीयता ने पाठकों के साथ.साथ लेखकों को भी अपनी ओर खींचा है। कवि हो कहानीकार हो .सभी इस विधा में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं। उनको लगता है कि इसमें हाथ साफ़ करना सरल है सहज है। इस व्यंग्य विधा में आजमाइश के दौर में कुछ भी लिखा जा रहा है। मुश्किल यह भी है कि तकनीकी सुविधा ने इसे पाठक के पास पहुँचा दिया है। मोबाइल लेपटॉप पर लिखो और वहीं से ईमेल के माध्यम से पत्र.पत्रिकाओं तक पहुँचा दो। सम्पादक भी वहीं से अपने अख़बार में स्पेस दे देता है। कागज पर पढ़ने और कम्प्यूटर पर पढ़ने में अन्तर होता है। लेपटॉप या कम्प्यूटर में पढ़ना एक तकलीफ से गुजरना होता है। इस तकलीफ से बचने के चक्कर में अनेक रचनाएँ लेखक के नाम से अख़बार में जगह बना लेती हैं। यही व्यवस्था कहीं सुविधा देती हैतो कहीं संकट पैदा करती है।

विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक प्रभाव की पतली परत पूरे जनमानस पर दिखाई दे रही थी और उसके प्रभाव से मुक्त होने के संकेत नज़र नहीं आ रहें हैं.। पूरा भारतीय मानस और लेखक भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं .वैसे व्यंग्यकारों का प्रिय विषय राजनीति और पुलिस है क्योंकि यहाँ पर विसंगतियाँ और सामाजिक दंश आसानी से दिख जाता है। नज़र को साफ़ करने के लिये काजल या सुरमा नहीं लगाना पड़ता है। कलम उठाओ और लिख डालो. इनकी प्रवृत्ति और प्रकृति पर। करोना काल ने सामाजिक,मानवीय और शासकीय स्तर पर संवेदना के केन्द्र व्याप्त विसंगतियों को उघाड़ कर रख दिया.पिछले दिनों तो ऐसा लग रहा था कि जहाँ देखो वहाँ यह सत्ता के स्तर पर व्यंग्य बगरो बसंत है.लोग भूखे प्यासे बिना संसाधन के सैकड़ों किलोमीटर भाग रहें. लोग मर रहे हैं .शासन और उसकी अव्यवस्था अस्त व्यस्त थी. प्रकृति ने व्यंग्य के लिए सभी प्रकार की विसंगतियां बुराइयां मौजूद थी.बस आपको उसे कैच करना है। लोग  ने लोंका ;कैच किया भी। लोगों ने इस पर लिखा भी. मगर मैं दावे से कह सकता हूँ कि इन व्यंग्यों ने आप को चौंकाया नहीं .आप के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ नहीं खींचीं और न ही आप बेचैन दिखे और न ही आप विचलित हुए। मैं यह भी दावा करता हूँ कि इस परिदृश्य पर दसियों व्यंग्यकारों की सैकड़ों रचनाएँ मुझे अख़बारों के पन्नों पर दिखीं. जिन्हें लेखकों ने आपके मोबाइल और लेपटॉप के माध्यम से आपको पढ़वाया भी। पर काजू बादाम और किसमिस चिलगोजों के दौर में आपको एकाध रचना छोड़कर सभी स्मृति से गायब हो गयी हैं. जबकि हरिशंकर परसाई की अकाल उत्सव,.अपील का जादू या शरद जोशी की रचनाओं में जीप पर सवार इल्लियां शीर्षक मूल रहा है. जिसमें वे कांग्रेस के तीस वर्षों को याद करते हैं। उसी समय परसाई जी की रचना अपील का जादू.इसी तरह शंकर पुणतांबेकर की रचना एक मंत्री का स्वर्ग लोक में आदि उस दौर के लेखकों की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं. जो आपके स्मृति पटल से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। यहाँ भी साहित्य में मुक्ति का संकट है। नया तो स्वीकारना चाह रहे हैं पर पुराना हमारे मस्तिष्क पटल पर छाया हुआ है। पर ऐसा भी नहीं है कि अनेक रचनाएँ हमारे दिमाग के दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं। कुछ दिन पहले प्रेम जनमेजय के दो व्यंग्य ‘बर्फ का पानी’और ‘भ्रष्टाचार के सैनिक’ हमारे दिमाग पर अड्डा जमाये हैं। ‘बर्फ का पानी’ रचना अभी कालजयी रचना की प्रक्रिया से गुजर रही है। क्योंकि कालजयी रचना को प्राकृतिक रूप से पकने में समय लगता है।

किसी भी व्यंग्य रचना के निर्माण की पृष्ठभूमि में लेखक की दृष्टिए संवेदनाएं, सरोकार और वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने एक जगह कहा था ‘पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है’ यही पॉलिटिक्स लेखक से मनुष्य का निर्माण करती है। यह बात साहित्य के साथ व्यंग्यकारों के लिये फिट बैठती है.क्योंकि व्यंग्यकार अपना राँ मेटेरियल जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों से उठाता है। इस उठाने की प्रक्रिया में व्यंग्यकार के पास दृष्टि संवेदना और सरोकारों का होना ज़रूरी है। मेरा मानना है. इनकी अनुपस्थिति में व्यंग्य लेखन विकलांग दिखेगा। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गई हैं पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना है’ व्यंग्य भी जीवन और समाज के परिप्रेक्ष्य में ही सही परिलक्षित होता है। परसाई जी को यों ही बड़ा लेखक नहीं माना जाता है। उनमें तीनों चीज़ें आत्मसात थीं। एक दृष्टि ही है  जो समाज और जीवन में विसंगतियाँ बुराइयाँ आदि प्रवृत्तियों को पकड़ सकती है। दृष्टि को सम्पन्न करने के लिये मनुष्यता के ज़रूरी तत्त्वों को आधार मान वैचारिक प्रतिबद्धता का अनुशासन होना नितांत आवश्यक है। इस सम्बंध में मेरे पास दो उदाहरण हैं . पहला हरिशंकर परसाई की रचनाए ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ और दूसरा डॉ.प्रेम जनमेजय की रचनाए ‘बर्फ का पानी’ बर्फ का पानी रचना पढ़ते ही लेखक की दृष्टि संवेदना और सरोकार का आभास हो जाता है.परन्तु ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ को समझने के लिये इसकी पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है।

पिछले दिनों इस पर हमारे मित्र हिमांशु राय का संस्मरण भी फेसबुक पर काफ़ी चर्चित रहा। जबलपुर के आमनपुर क्षेत्र में एक काण्ड हुआ. जिसमें पुलिस की अकर्मण्यता के चलते एक मजदूर की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने एक झूठा केस लगाकर वामपंथी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी के एक सदस्य हिमांशु राय के पिता श्री एस एन राय के ऊपर हत्या का आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया। वे परसाई जी के अनन्य मित्र थे। वे पूरे घटनाक्रम से भलीभाँति परिचित थे। उस वक़्त मध्यप्रदेश में जनसंघ की सरकार थी। उन पर केस चला। निचली अदालत से सज़ा हुई। वे उच्च न्यायालय से बरी हो गए। जिस पुलिस दरोगा ने यह केस बनाया. वह इस काम में माहिर कुटिल तथा विशेषज्ञ था। इस काम के लिये वह सम्मान से जाना जाता था । बड़े.बड़े अफसर उससे झूठे केस बनाने में उसकी मदद लिया करते थे। मातादीन का चरित्र पुलिस का सच्चा चरित्र था। मात्र बीस प्रतिशत की फेंटेसी और अस्सी प्रतिशत की सच्चाई से यह कालजयी रचना बन गयी। मगर इस रचना के निर्माण में दृष्टि संवेदना और सरोकार तत्त्व विशेष रोल का निर्वाह कर रहे थे। इस कारण यह रचना क्लासिक और कालजयी है। परसाई जी ने पुलिस के प्रपंच को देखा महसूस किया तथा उसे पाखण्ड का जन सरोकारों के तहत उजागर किया।

व्यंग्य को परखने और रचने के लिये दृष्टि होना चाहिये और यह दृष्टि व्यापक अध्ययन और अनुभव से विकसित होती है। यही संकेत देती है कि आपको किसके पक्ष में खड़े होना है . तय है शोषित के पक्ष में। दृष्टि विकसित न होने पर व्यंग्यकार हानि.लाभ का गुणा भाग करने लगता है। और इस गुणा भाग से उपजने वाले व्यंग्य में भौंथरापन आ जाता है। वह जीवन और समाज की समस्या से भागने लगता है। विसंगतियों  विडम्बनाओं भ्रष्टाचार रूढ़िवादिता आदि से किनारा काट उन चीज़ों पर केन्द्रित हो जाता है जिनके होने और न होने से व्यक्ति का जीवन प्रभावित नहीं होता।

व्यंग्यकार की संवेदना ही जीवन के रचाव को पढ़ने में समर्थ होती है। गरीब मजदूर शोषित स्त्री वर्ग की निरीहता कमज़ोरी दर्द को संवेदन ही महसूस करती है। परसाई की रचना अकाल उत्सव शरद जोशी की ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ अनेक रचनाएँ बनती हैं।

मकान टपकने वाली रचना पर परसाई जी लिखते हैं. मैं समझ गया कि ज्यों.ज्यों देश में इंजीनियरिंग कॉलेज़ खुलते जा रहे हैं त्यों.त्यों कच्चे पुल और तिड़कने वाली वाली इमारतें क्यों अधिक बन रही हैंए और जब हर ज़िले में कॉलेज हो जायेगा तब हम कहाँ रहेंगे

व्यंग्यकारों के पक्ष में एक बात और सामने दिखती है कि वह विकृतियों संगतियों से मुँह नहीं चुरा सकता है. भाग नहीं सकता है। यदि वह भागता है या भागने का प्रयत्न करता है. तो पक्का है कि वह गुणा भाग लाभ हानि के चक्कर में पड़ गया है। वह व्यंग्यकार कहलाने का हक़ भी खो देता है। यदि उसकी संवेदनाएँ उसके सरोकार उसकी प्रतिबद्धता भागने से रोकने का कार्य करते हैं. तभी व्यंग्यकार में मनुष्य के दर्शन होते हैं। व्यंग्यकार का भागना बहुत जटिल विचारणीय चिंता करने काम ही बेईमानी भरा  है. भागने की संभावना तलाशना ही व्यंग्यकार का कमीनापन है और उसे व्यंग्य लिखना छोड़ कर प्रेम कविताए कहानी लिखना शुरू कर देना चाहिये। क्योंकि समाज की समस्याओं से बचने और उपदेश देने की गुंजाइश यहाँ अधिक होती है।

व्यंग्यकार को संवेदनशील होने के साथ कठोर भी होना पड़ता है। उस माँ की तरह संवेदनशील जो अपनी संतान को लाड़.प्यार तो करती है और अच्छा मनुष्य बनाने के लिये कठोर दण्ड भी देती है। इस चीज़ को समझना सरल नहीं है। व्यंग्यकार की कठोरता सामाजिक और वैयक्तिक अनुशासन बनाये रखती है। वर्त्तमान समय के युवा आलोचक रमेश तिवारी का कहना है कि व्यंग्य लिखना असहमत होना है। व्यंग्य सहमति या संगति में नहीं लिखा जा सकता है। इसके लिये असहमति और विसंगति अनिवार्य है। इसे पढ़कर याद आता हैए असहमति लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है। लोकतंत्र का प्राण है,यानी व्यंग्य लिखना मात्र असहमत होना नहीं. बल्कि यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना भी है। जिस समाज में जितना व्यंग्य और व्यंग्यकार की जितनी उपलब्धता होगी वह लोकतंत्र उतना ही मजबूत और दीर्घकालीन भी होगा। यह सब व्यंग्यकार में उपलब्ध दृष्टि संवेदना और सरोकारों से ही आता है। सरोकारों में दृढ़ता व्यंग्यकार को शोषित.पीड़ित वर्ग के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध भी बनाती है। व्यंग्य.रचनाकार के सरोकार समाज में ग़रीब दलित शोषित की रूढ़िवादिता भ्रष्टाचार और कूपमंडूकता के प्रति सजगए सतर्क और समर्पित भी बनाती है तथा जीवन को निकट से देखने.पढ़ने की दृष्टि भी विकसित करते हैं।

यहाँ पर मैं एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ . जबलपुर में सन् 1961 में एक साम्प्रदायिक दंगा हुआ था. जो बढ़ता हुआ आसपास के ज़िलों तक फैल गया था। दंगा चरम स्थिति में था। उस वक़्त शहर का हर वर्ग परसाई को जानने लगा था। तब परसाई जी और उनके मित्र श्री हनुमान वर्मा मायाराम सुरजन महेन्द्र वाजपेयी रामेश्वर प्रसाद गुरु जी आदि दंगा क्षेत्र में जाते रहे और लोगों को समझाते रहे। उनकी बात का गहरा असर हुआ और दंगा शीघ्र समाप्त करने में प्रशासन को उनसे सार्थक मदद मिली। यह समाज के रचनाकार और ज़िम्मेदार लोगों के सरोकार ही थे जो खतरे की परवाह न करते हुए उन्हें दंगाग्रस्त क्षेत्रों में ले गये।

यहाँ पर अपनी बात ख़त्म करने के पहले या भी जोड़ना चाहूँगा कि व्यंग्य लिखने के पूर्व लेखक को मानवीय संवेदनाए शोषण आदि के कारणों को जानने पढ़ने के लिये उसकी भाषा व्यंग्यकार को पढ़ना आना चाहिये।

हरीश पाठक ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि व्यंग्यकार को अपनी बात लिखने के लिये व्यंग्य की भाषा और उसके शिल्प को उसके अनुरूप रचाव करना भी आना चाहिए. क्योंकि व्यंग्य की भाषा और शिल्प अन्य विधाओं से भिन्न होता है। अतः यदि इस बात को नज़र अंदाज़ किया गया तो व्यंग्य सपाट हो जायेगा।

और अंत में एक छोटी पर मोटी सी बात है कि जीवन के मूल्य तत्त्व ही व्यंग्य के मूल तत्त्व हैं।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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