हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 103 ☆ आलेख – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख  “मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 103 ☆

☆ जल ही जीवन है – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ 

मैंने देखा मेरा एक पड़ोसी पानी का स्विच ऑन करके भूल जाता है, बल्कि दिन में एक बार नहीं, बल्कि कई-कई बार। सदस्य दस के आसपास, लेकिन सभी बादशाहत में जीने वाले, देर से सोना और देर से जगना। ऐसे ही कई बादशाह और भी पड़ोसी हैं, जो पानी की बरबादी निरन्तर करने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं। मैं कई बार उन्हें फोन करके बताता हूँ, तो कभी आवाज लगाकर जगाता हूँ। उनमें कुछ बुरा मानते हैं तो अब उनके कान पर जूं रेंगाना बन्द कर दिया है। सब कुछ ईश्वर के हवाले छोड़ दिया है कि जो करा रहा है वो ईश्वर ही तो है, क्योंकि वे सब भी तो उसकी संतानें हैं। उनमें भी जीती जागती आत्माएं है, जो पानी बहाकर और बिजली फूँककर आनन्दित होती हैं। पानी की बर्बादी करने में दो ही बात कदाचित हो सकती हैं कि या तो वे बिजली का प्रयोग चोरी से कर रहे हैं या उन्हें दौलत का मद है। खैर जो भी हो, लेकिन मुझे पानी की झरने जैसी आवाजें सुनकर ऐसा लगता है कि यह पानी का झरना मेरे सिर पर होकर बह रहा है,जो मुझमें शीत लहर-सी फुरफुरी ला रहा है।

पता नहीं क्यों मैं पानी की बचत करने की हर समय सोचा करता हूँ। बल्कि, पानी की ही क्यों, मैं तो पंच तत्वों को ही संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए निरन्तर मंथन किया करता हूँ। बस सोचता हूँ कि ये सभी शुद्ध और सुरक्षित होंगे तो हमारा जीवन भी आनन्दित रहेगा। वर्षा होने पर उसके जल को स्नान करनेवाले टब और कई बाल्टियों में भर लेता हूँ। उसके बाद उस पानी से पौधों की सिंचाई , स्नान, शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ। अबकी बार तो मैंने उसे कई बार पीने के रूप में भी प्रयोग किया। जो बहुत मीठा और स्वादिष्ट लगा। टीडीएस नापा तो 40-41 आया। जबकि जो जमीन का पानी आ रहा है, उसका टीडीएस 400 के आसपास रहता है। क्योंकि जमीन में हमने अनेकानेक प्रकार के केमिकल घोल दिए हैं। मेरे गाँव के कुएँ का जल भी वर्षा के जल की तरह मीठा और स्वादिष्ट होता था, अब इधर 40 वर्षों में क्या हुआ होगा, मुझे नहीं मालूम।

सेवानिवृत्त होने के बाद कपड़ों की धुलाई घर में मशीन होते हुए भी मैं हाथों से कपड़े धोता हूँ, ताकि शरीर भी फिट रहे और पानी भी कम खर्च हो। बल्कि सर्विस में रहने के दौरान भी यही क्रम चलता रहा, तब कभी मेरे साथ धुलाई मशीन नहीं रही।

कपड़ों से धुले हुए साबुन के पानी को कुछ तो नाली की सफाई में काम में लेता हूँ और शेष पानी से जहाँ गमले रखे हैं, अर्थात छोटा-सा बगीचा है ,उसके फर्स की धुलाई भी करा देता हूँ। कई प्रकार के हानिकारक कीट पानी के साथ बह जाते हैं और बगीचा भी ठीक से साफ हो जाता है।

आरओ से शुद्ध पानी होने पर जो गन्दा पानी निकलता है, उसे मैं शौचालय में , या कपड़े धोने में या पौंछे आदि में प्रयोग करता हूँ। आरओ का प्रयोग घर-घर में हो रहा है, अब सोचिए लाखों लीटर पानी बिना प्रयोग करे ही नालियों में बहकर बर्बाद किया जा रहा है। लेकिन मैं उसकी भी बचत करता हूँ। मुझे ऐसा करके सुख मिलता है।

स्नान मैं सावर से भी कर सकता हूँ और काफी देर तक कर सकता हूँ, लेकिन मैं नहीं करता, बस एक बाल्टी पानी से ही अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर नहाता हूँ, नहाते समय जो पानी फर्स पर गिरता है, उससे भी बनियान या रसोई का मैला कपड़ा धो लेता हूँ। प्रायः नहाने के लिए साबुन प्रयोग नहीं करता हूँ। बाल कटवाने पर महीने में एकाध बार ही करता हूँ, वैसे मैं बाल और मुँह आदि धोने के लिए आंवला पाऊडर और ताजा एलोवेरा प्रयोग करता हूँ। स्नान करने के बाद कमर को तौलिए से अच्छे से रगड़ता हूँ, ताकि पीठ की 72 हजार नस नाड़ियां जागृत होकर सुचारू रूप से अपना काम करती रहें।

सब्जी, फल आदि को धोने के बाद जो पानी बचता है, उसे भी मैं शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ।

घर में लोग दाल बनाते हैं, तो उसे कई बार धोते हैं और पानी फेंकते जाते हैं। मैं एकाध बार थोड़े पानी से धोकर, उसे पकाने से दो-तीन घण्टे पहले भिगो देता हूँ, वह जब अच्छी तरह फूल जाती है, तब उसे धोकर स्टील के कुकर में धीमी आंच पर पकाने रख देता हूँ, इस तरह दाल एक सीटी आने तक अच्छी तरह पककर तैयार हो जाती है। गैस का खर्च आधा भी नहीं होता है। इस तरह पानी और गैस दोनों ही कम व्यय होते हैं। इसी तरह तरह मैं सब्जियां बनाते समय करता हूँ कि पहले सब्जी को अच्छे से धोता हूँ, फिर उसे छील काटकर बनाता हूँ, इस तरह पानी भी कम खर्च होता है और सब्जी के विटामिन्स भी सुरक्षित रहते हैं। उसे धीमी आंच पर पकाता हूँ, अक्सर लोहे की कड़ाही या स्टील के कुकर का प्रयोग करता हूँ, ताकि पकाने में उपयोगी तत्व मिलें , क्योंकि अलमुनियम आदि के कुकर या कड़ाही, पतीली आदि बर्तनों में पकाने से अलमुनियम के कुछ न कुछ हानिकारक गुण सब्जी या दाल में अवश्य समाहित हो जाते हैं, जो धीमे जहर का काम कर रहे हैं, कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ने का एक बहुत कारण यह भी है, जिसे हम कभी नहीं समझना चाहते हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे पहले इसका प्रयोग भारतीय जेलों में रसोई में प्रयोग करने के लिए इसलिए किया था कि देश स्वतंत्रता दिलाने वाले भारतीय जेलों में ही बीमार होकर जल्दी मर जाएँ।

मैं सड़क राह चलते, रेलवे स्टेशन आदि कहीं पर भी खुली टोंटियाँ देखता हूँ, तो रुककर उन्हें बन्द कर देता हूँ।

मकान में जब कभी कोई टोंटी आदि खराब होती है, उसे तत्काल ही ठीक करने के लिए प्लम्बर बुलाकर ठीक कराता हूँ।

मेरा संकल्प रहता है कि पानी का दुरुपयोग मेरे स्तर से न हो, उसका सही सदुपयोग हो। जो भी लोग मेरे संपर्क में आते हैं, चाहे वह कामवाली हों या कोई अन्य तब मैं उन्हें जागरूक कर समझाता हूँ कि पानी जीवन के लिए अमृत तुल्य होता है, इसका दुरुपयोग जो भी लोग करते हैं उन्हें ईश्वर कभी भी क्षमा नहीं करते हैं। बल्कि पानी के साथ -साथ हमें पंच तत्वों का संरक्षण भी अवश्य करते रहना चाहिए। मैं तो इन्हें सुरक्षित एवं संरक्षित करने लिए निरन्तर प्रयास करता रहता हूँ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #106 – माझी कविता…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 106 – माझी कविता…! 

 

अक्षर अक्षर मिळून बनते माझी कविता

आयुष्याचे दर्पण असते माझी कविता

अक्षरांतही गंध सुगंधी येतो जेव्हा

काळजातही वसते तेव्हा माझी कविता….!

 

कधी हसवते कधी रडवते माझी कविता.

डोळ्यांमधले ओले पाणी माझी कविता.

तुमचे माझे पुर्ण अपूर्णच गाणे असते.

ओठावरती अलगद येते माझी कविता…..!

 

आई समान मला भासते माझी कविता.

देवळातली सुंदर मुर्ती माझी कविता.

कोरे कोरे कागद ही मग होती ओले.

जीवन गाणे गातच असते माझी कविता….!

 

झाडांचाही श्वासच बनते माझी कविता.

मुक्या जिवांना कुशीत घेते माझी कविता.

अक्षरांसही उदंड देते आयुष्य तिही.

फुलासारखी उमलत जाते माझी कविता….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#126 ☆ झूठा अभिनय… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “झूठा अभिनय….”)

☆  तन्मय साहित्य  #126 ☆

☆ झूठा अभिनय… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

विस्मय में आदमी, संशय में हैं

शहर मेरा दहशत में, भय में हैं।

 

फिर पड़ोसी की साँसें क्यों तेज हुई

कुछ खराबी, मेरे ही ह्रदय में  है।

 

ना रिदम,ना गला ना ही स्वर मुखर

बेसुरे  गीत  बेढंगी  लय  में है।

 

थोड़े अक्षत के दाने कुमकुम अबीर

कामना उनकी ब्रह्म से विलय में है।

 

जो सृजन शांति की बातें कर रहे

अग्रषित वे ही सृष्टि के प्रलय में हैं।

 

ये प्रदर्शनीयाँ, चित्र ये अजायबघर

कितना आनंद झूठे  अभिनय में है

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 20 ☆ गीत – योग अपनाओ यारो ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक गीत  “योग अपनाओ यारो”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 20 ✒️

?  गीत – योग अपनाओ यारो —  डॉ. सलमा जमाल ?

अच्छी सेहत के लिए,

योग अपनाओ यारो ।

अपने प्यारे देश को,

निरोग बनाओ यारो ।।

 

जन्म के बाद दाई मां,

शिशु को योगा कराती,

मजबूत हड्डी होती,

चलना बैठना सिखाती,

बचपन गया तुम बालिग़,

ऊर्जा जगाओ यारो ।

अच्छी ——————— ।।

 

रोज़ सुबहा उठकर,

नित्य कर्म से फ़ारिग़ होना,

फ़िर पैदल सैर करना,

बाद में नहाना – धोना,

पड़ोसियों को बुलाकर,

महफ़िल सजाओ यारो ।

अच्छी ——————— ।।

 

बैठे हों चाहे लेटे,

व्यायाम ही करना है,

स्वस्थ शरीर बनाकर,

ग़रीबों के दुख हरना है,

आलोम – विलोम से दिल,

मजबूत बनाओ यारो ।

अच्छी———————।।

 

पद्मासन हो या बज्रासन,

हो कपाल भारती,

जीवन चर्या का हिस्सा बन,

सज जाए आरती,

छोटे – बड़े सभी का,

अब आलस भगाओ यारो ।

अच्छी ——————– ।।

 

बुरी आदतें ना रखना,

जीवन हो शाकाहारी,

फ़ल, मेवे, दूध, छांछ,

फ़िर ना लगती बीमारी,

सौगंध भारत मां की,

संकल्प उठाओ यारो ।

अच्छी ———————-।।

 

असली पूंजी है इंन्सा का,

रोग मुक्त होना,

ऑक्सीजन लेना हर दिन,

प्रकृति का है ख़जाना,

यह तन दिया ख़ुदा ने,

तुम इसको बचाओ यारो ।

अच्छी ———————-।।

 

नमाज़ में है योगा तुम,

यह बात याद रखना,

इस्लाम मानने वालो,

तुम रोज़ नमाज़ पढ़ना,

‘सलमा’ दीन और दुनियां,

दोनों सजाओ यारो ।

अच्छी ———————–।।

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ आलेख # 25 – प्रबुद्धता या अपनापन ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस  प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.

एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर, आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.

साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं, पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता, आप ?

शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं.जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.

जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था.एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.

स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.

हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है.हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है। पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं

पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?

क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.

एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो,शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं।

शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 102 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (3)

पंडित केरी पोंथियाँ, ज्यों तीतुर कौ ज्ञान।

औरण सगुण बतात हैं, अपनौ फंद न जान॥

शाब्दिक अर्थ:-  पंडित जी अपनी पोथियों के साथ प्राय: तोता या तीतर पक्षी को साथ लेकर सड़क के किनारे बैठे बैठे लोगों का भविष्य फल बताते हैं। उनकी पोंथियाँ में ज्ञान तीतर के ज्ञान जैसा ही होता है जो दूसरों का सगुन तो बता देता हैं पर पंडित जी अपना स्वयं का  भविष्य नहीं जान पाते और ज़िंदगी सड़क के किनारे बैठे बैठे काट देते हैं।

रामायण पाण्डे के दिन बहुरे। हिरदेपुर गाँव दमोह से कोई 3-4 मील दूर था और बाँसा, जो कोपरा नदी के तट पर बसा है,  से भी नजदीक ही था। काली मिट्टी के खेत में उपज अच्छी हो जाती थी। मंदिर से लगी खेती को रामायण पाण्डे अधिया बटाई पर किसी भी काश्तकार को दे देते और गेंहू, ज्वार, मूंग और तिलहन की इतनी उपज तो हो ही जाती कि भगवान का दोनों समय का भोग लग जाता और उसी भोग से पंडित जी के परिवार का भरण पोषण हो जाता। रामायण ज्यादा लालची न थे अत: खेती की उपज बढ़ाने के कोई अन्य उपाय उन्होने कभी सोचे ही नहीं। बटाईदार जितना दे जाते खुशी खुशी भगवान का प्रसाद समझ मंदिर से लगी कोठरी में रखवा लेते। जब कभी किसान दूध और दही भी भगवान को चढ़ा जाते वह भी रामायण पाण्डे और उनके परिवार के काम आ जाता। पर पंडिताइन को इतने से संतोष न था और उनकी ताने बाजी चलती रहती। पंडिताइन हमेशा रामायण से कहती

‘दूसरन खों तो पुथन्ना पढ़ पढ़ खूब ज्ञान देत हो अपने बारे में भी कच्छु सोचो।‘

रामायण ऐसे अवसर पर चुप रह जाना ही पसंद करते और सिर्फ इतना कहते ‘अरी भागवान संतोष रख, भोले की कृपा से अच्छे दिन आए हैं।‘ पर पंडिताइन भी कहाँ मानती दो चार बातें और सुना देती और जब रामायण के तर्कों के आगे उनकी न चलती तो बिसुरते हुये कह उठती

‘सजीवन के भविष की तो सोचो तुमाए तरीका से तो  चल गई गिरस्ती और हो गओ मोड़ा को बियाव।‘

हार थक रामायण यह कहावत कह चुप हो जाते

“माखी गुड माँ गड़ी रहे पंख रहे लिपटाय हाथ मले अरु सिर धुने कहे लालच बुरी बलाय।‘

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 125 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 125 ?

☆ गझल… ☆

तुझे स्वप्न जागेपणी खास आहे

 जुना ध्यास या प्रेम पर्वास आहे

 

कधी शाम म्हणते कधी कृष्ण कान्हा

तुझे नाव माझा जणू श्वास आहे

 

फुलाला कसे काय नाकारते मी ?

अरे काळजाशी तुझा वास आहे

 

जरी  मी न राधा नसे गोपिकाही

तरी रंगलेला इथे रास आहे

 

मला लाज लज्जा मुळी आज नाही

सुगंधी सुखाचाच सहवास आहे

 

कुण्या कारणाने अशी धीट झाले

तुझा  संग  साक्षात मधुमास आहे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011
मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २० – भाग ३ – कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २० – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ✈️

सियाम रीपहून आम्ही कंबोडियाची राजधानी नामपेन्ह इथे आलो. तिथले ‘रॉयल पॅलेस’ एका स्वच्छ, भव्य बागेत आहे. हरतऱ्हेची झाडे व अनेक रंगांची फुले फुलली होती. नागचाफा ( कैलासपती ) म्हणजे कॅननबॉलचा महाप्रचंड वृक्ष होता. त्याला बुंध्यापासून गोल फळे लगडली होती. कमळासारख्या गुलाबी मोठ्या पाकळ्या असलेल्या या फुलात मधोमध छोटी शंकराची पिंडी व त्यावर पिवळट केसरांचा नागाचा फणा असतो. एक मंद मादक सुवास सगळीकडे दरवळत होता. राजवाड्याचे भव्य खांब अप्सरांच्या शिल्पांनी तोललेले  आहेत. राजवाड्याची उतरती छपरे हिरव्या, निळ्या, सोनेरी रंगाची आहेत. आवारात वेगवेगळे स्तूप आहेत. हे स्तूप म्हणजे राजघराण्यातील व्यक्तींचा मृत्यू झाल्यावर त्यांचे दागिने, कपडे, रक्षा ठेवण्याची जागा आहे. राजाची रक्षा सोन्याच्या कमलपात्रात ठेवली आहे.

सिल्व्हर पॅगोडा पाहिला. पॅगोडाच्या आतील संपूर्ण जमीन  चांदीची आहे. एक किलो १२५ ग्रॅम वजनाची एक लादी अशा ५३२९ चांदीच्या लाद्या इथे बसविण्यात आल्या आहेत. या साऱ्या लाद्या फ्रान्समध्ये बनविल्या आहेत. प्रवाशांना त्यातील एक लादी काढून दाखविण्याची सोय केली आहे. या पॅगोडामध्ये सोने, रत्ने वापरून केलेला बुद्धाचा घडीव पुतळा आहे. त्याच्या कपाळावर आठ कॅरेटचा हिरा जडविलेला आहे. त्याच्या मुकुटावर व अंगावर मिळून २०८६ रत्ने बसविलेली आहेत अशी माहिती गाईडने दिली. या रत्नजडित बुद्धाच्या मागे थोड्या उंचीवर संपूर्ण एमरेल्डचा (Emerald ) पोपटासारख्या रंगाचा पण पारदर्शक असा बुद्धाचा पुतळा आहे. त्याच्या मागे जाऊन पाहिले की आरपार पोपटी उजेड दिसतो.

म्युझियममध्ये होडीच्या आकाराचे मोठे तंतुवाद्य होते. कंबोडियामध्ये उत्तम प्रतीचा पांढरा व हिरवट मार्बल मिळतो. तो वापरून हत्तीचे, बुद्धाचे पुतळे बनविले आहेत. सॅण्डस्टोन मधील स्कंद म्हणजे कार्तिकेयाची मूर्ती आहे. सहाव्या शतकातील शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी श्री विष्णूची मूर्ती आहे. ब्रह्मा-विष्णू-महेश, शिवलिंग, सिंह, गरुड, वाली-सुग्रीव यांच्या मूर्ती आहेत. अर्धनारीनटेश्वराची ब्रांझमधील मूर्ती आहे. नागाच्या वेटोळ्यावर बसलेल्या बुद्धाला काही लोकं काडीला लावलेला मोगरा व लाल फूल वाहत होते.उदबत्यांचे जुडगे लावीत होते. तीन-चार हजार वर्षांपूर्वीची शस्त्रास्त्रे, वाद्ये, दागिने,सिल्कची वस्त्रे विणण्याचे माग, राजाचा व धर्मोपदेशकाचा ब्राँझचा पुतळा अशा असंख्य गोष्टी तिथे आहेत.

मानवतेला काळीमा फासणारा एक काळाकुट्ट काळ कंबोडियाने अनुभवला आहे. क्रूरकर्मा पॉल पॉट या हुकूमशहाने त्याच्या चार वर्षांच्या कारकिर्दीत ( १९७६ ते १९७९) वीस लाख लोकांना यमसदनास पाठविले. हे सर्व लोक त्याच्याच धर्म- वंशाचे होते. बुद्धीवादी सामान्य नागरिक म्हणजे शिक्षक, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, संपादक, डॉक्टर, वकील अशा लोकांचा पहिला बळी गेला. पॉल पॉटने हिटलरसारखे कॉन्संस्ट्रेशन कॅ॑पस् उभारले होते. महाविद्यालये , शाळा बंद होत्या. निरपराध लोकांना तिथे आणून हालहाल करुन मारण्यात आले. आम्हाला एका शाळेतील असा कॅम्प दाखविण्यात आला. गाईड बरोबर फिरताना, तिथले फोटो, कवट्या बघताना अश्रू आवरत नाहीत. गाईडचे नातेवाईकही या छळाला बळी पडले होते. एखादा माणूस असा राक्षसासारखा क्रूरकर्मा होऊ शकतो यावर विश्वास बसत नव्हता. पण हा चाळीस -बेचाळीस वर्षांपूर्वीचा सत्य इतिहास आहे. क्रूरतेची परिसीमा गाठलेला, माणुसकी हरवलेला!

कंबोडियन लोक साधे, गरीब व कष्टाळू आहेत. आपल्या परंपरा, धर्म आणि रूढी जपणारे आहेत. एप्रिल महिन्यात त्यांचे नवीन वर्ष सुरू होते. नोव्हेंबर मधील पौर्णिमेला बोन ओम थोक नावाचा सण साजरा करण्याची प्रथा बाराव्या शतकापासून आहे. त्यावेळी नद्यांमध्ये बोटीच्या स्पर्धा होतात. फटाके वाजविले जातात.  केळीच्या पानातून अन्नाचा भोग (नैवेद्य ) दाखविला जातो. आता कंबोडियातील बहुतांश लोकांनी बुद्ध धर्म स्वीकारलेला आहे. त्यामुळे बुद्ध पौर्णिमा ही विशेष प्रकारे साजरी होते. मे ते ऑक्टोबर हा तिथला पावसाळ्याचा ऋतू आहे. त्यामुळे नोव्हेंबर ते साधारण फेब्रुवारी मध्यापर्यंत कंबोडियाला जाण्यासाठी योग्य काळ आहे. त्यानंतर मात्र चांगलाच उन्हाळा असतो.

कंबोडियात परंपरेप्रमाणे क्रामा म्हणजे एक प्रकारचे छोटे उपरणे वापरण्याची पद्धत आहे. आम्हालाही एकेक क्रामा भेट म्हणून देण्यात आला. उन्हापासून संरक्षण करायला, लहान बाळाला गुंडाळून घ्यायला, झाडावर चढण्यासाठी अशा अनेक प्रकारे त्याचा वापर केला जातो.

अनेक शतके पिचत पडलेल्या कंबोडियाच्या राजवटीने गेली दहा वर्षे आपली दारे जगासाठी उघडली आहेत. या दहा वर्षात पर्यटनाच्या दृष्टीने अनेक सुधारणा करण्यात आल्या आहेत. भारतीय प्रवासी कमी असले तरी युरोप व इतर प्रवाशांचा चांगला ओघ असतो. आम्ही राजधानी नामपेन्ह  इथे भारतीय उच्चायुक्तांची त्यांच्या कार्यालयात जाऊन भेट घेतली. त्यांच्या राहण्याची व कार्यालयाची जागा एकाच छोट्या बंगल्यात होती. त्यांनी कंबोडियाबद्दल थोडी माहिती दिली.रबर,टिंबर, तयार कपडे यामध्ये कंबोडियाची निर्यात वाढत आहे तर औषधे, प्रक्रिया केलेले अन्न, पेट्रोल व पेट्रोलियम उत्पादने चीन, तैवान, थायलंड, सिंगापूर येथून आयात केली जातात. व्यापार व इतर व्यवहार अमेरिकन डॉलरमध्ये होतात. कंबोडिया भारताकडून औषधे, वाहनांचे सुटे भाग, मशिनरी, कॉस्मेटिक्स आयात करतो. पण अजूनही गुंतवणुकीला भरपूर वाव आहे. सिंगापूर, चीन, कुवेत, कोरिया,कतार यांनी बांधकाम व्यवसायात व शेतकी उत्पन्नात चांगली गुंतवणूक केली आहे. खाण उद्योग, वीज निर्मिती, रस्तेबांधणी तेल व गॅस संशोधन यामध्ये गुंतवणुकीला भरपूर वाव आहे.चीनने नेहेमीप्रमाणे मुसंडी मारली आहे. दोन मोठ्या सरकारी इमारती ‘फुकट’ बांधून देऊन उत्तरेकडील सोन्याच्या खाणीचे कंत्राट मिळविले आहे. उदासीनता झटकून भारतानेसुद्धा येथील संधीचा फायदा घेतला पाहिजे.

सांस्कृतिक आणि अध्यात्मिक समृद्धी असलेल्या या देशाला आपले पूर्ववैभव प्राप्त करता येईल अशी आशा करुया.

भाग – ३ व कंबोडिया समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 27 – सजल – युग बदले पर कभी न बदले… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “युग बदले पर कभी न बदले… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 27 – सजल – युग बदले पर कभी न बदले… 

समांत- आदा

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 30

 

कट्टरता का ओढ़ लबादा।

खुद तो बने हुए हैं दादा ।।

 

दूर रहें पढ़ने-लिखने से, 

खुद को कहते हैं शहजादा।

 

नारी को समझे हैं दासी,

सारा अपना बोझा लादा।

 

कट्टरता जग का है दुश्मन,

मानवता का हुआ बुरादा।

 

युग बदले पर कभी न बदले,

तोड़ी हैं सारी मर्यादा।

 

छद्म वेश धरकर हैं चलते,

लड़ने को होते आमादा।

 

काट पतंगें सद्भावों की

रिपु दल का है बुरा इरादा।

 

मानवता कहती है जग में

रक्त बहे न करो यह वादा ।

 

लहू एक रंग हर प्राणी में ,

फिर क्यों होता धर्म तकादा ।

 

बड़े धुरंधर क्यों बनते हो,

मानव-धर्म ही* सीधा-सादा।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

30 अगस्त 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #112 – “एकता और शक्ति” – श्री अमरेन्द्र नारायण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अमरेंद्र नारायण जी की पुस्तक “एकता और शक्ति”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

☆ “एकता और शक्ति” – श्री अमरेन्द्र नारायण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

Unity And Strength

एकता और शक्ति 

लेखक… अमरेन्द्र नारायण

प्रकाशक :  राधाकृष्ण प्रकाशन,राजकरल प्रकाशन समूह, 7/31 अंसारी रोड दरयागंज, नई दिल्ली  

अमेज़न लिंक >> एकता और शक्ति

एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है। इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है।श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे।पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है।

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं। ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है। ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है। यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है। 

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है. आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.  

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है। वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं। एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है। साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है।

श्री अमेरन्द्र नारायण

अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया।

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—“फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स”  का उर्दू अनुवाद “खुशबू सरहदों के पास” नाम से प्रकाशित हो चुका है। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है। महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है। उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं। श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है।

 श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये. यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता. पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares