(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता – “परीक्षा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 112 ☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना “अपेक्षाएँ हो रही बूढ़ी…”।)
☆ तन्मय साहित्य #127 ☆
☆ अपेक्षाएँ हो रही बूढ़ी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता “ख़त — ”।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी # 103 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
अथ श्री पाण्डे कथा (14) – गतांक से आगे
रामायण पाण्डे कथा भी बाँच लेते और थोड़ी बहुत जानकारी ज्योतिष की भी रखते थे। गाँव के लोग अक्सर गुमे हुये गाय बैल व चोरी गई चीजों का पता लगाने पांडेजी के पास आते और कार्य सिद्ध हो जाने पर अपने खेत से उपजी भाटा-भाजी, कुम्हड़ा, लौकी, तरोई आदि उन्हे दक्षिणा में दे जाते। बरसात आती तो किसान मंदिर में रामायण को घेर बैठ जाते और बरखा कब होगी या नक्षत्रों की स्थिति पूंछते । रामायण अपना पंचांग निकालते और गणना कर बताते कि
“बरस लगेंगी ऊतरा, माँड पियेंगे कूतरा।“ (ऊतरा नक्षत्र लगते ही वर्षा शुरू हो गई है इसलिए बाकी नक्षत्रों में भी पानी खूब बरसेगा)
जब चित्रा नक्षत्र लग जाता और बारिश होने लगती तो रामायण किसानों को सलाह देते
“चित्रा बरसें तीन भये, गोऊँ सक्कर माँस। चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥“
(चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने वाला है इसलिए गेहूँ और गन्ना की फसल अच्छी होगी पर कोदों तिली व कपास मत बोना इसकी फसल खराब होगी।)
कभी कभी तो रामायण दो तीन महीने पहले ही अकाल की भविष्यवाणी कर देते। जब किसान घबरा कर कारण पूंछते तो कहते कि
“पंचमी कातिक सुकल की , जो होबैं सनिवार। तौ दुकाल भारी परें ,मचिहै हाहाकार॥ “
(इस बार कार्तिक शुक्ल पंचमी को शनिवार का दिन पड़ने वाला है इसलिए भारी अकाल पड़ेगा पहले से व्यवस्था रखो )
कभी कभी औरतें भी मंदिर आती और पंडिताइन के पास बैठ जाती गप्पें करती और अपना भविष्य जानने के लिए धीरे से उकसाती। औरतों को बस दो ही चिंता होती एक अगली संतान मौड़ा होगा की मौड़ी और दूसरी पिछले साल जन्मा मौड़ा जिंदा रहेगा कि नहीं।
ऐसी ही सास बहू की जोड़ी को रामायण ने एक दिन मंदिर की ओर आते देखा। ‘दोनों पेट से थी’ , रामायण समझ गए कि कैसा प्रश्न सामने आने वाला है। उन्होने पंडिताइन से कहा
‘भागवान तुमाए जजमान आ रय हें, लाओ हमाइ पोथी पत्रा दे देओ’।
सास बहू ने आते ही पहले पंडिताइन को पायें लागी कहा और फिर ओट से पंडित जी को। ‘सूखी रहा का’ आशीर्वाद से दोनों को संतोष न हुआ और दोनों एक साथ अपने बढ़े हुये पेट पर हाथ का इशारा कर पूंछ बैठी ‘ का हुईहे महराज।‘
रामायण चुप रहे तो सास बोल पड़ी जा बहू तो चार चार मौडियन की मतारी हो गई है हमाओ कुल कैसे चलहे महराज ।‘
रामायण उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे बोल उठे
‘सास बहू की एकई सोर, लच्छों कड़ गई पांखा फोर।‘ (जहाँ सास बहू का प्रसव एक साथ होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती और पांखा(दीवार) फोड़कर भी निकल जाती है, परिवार गरीब हो जाता है।)
सास को रामायण का यह व्यंग्य समझ में न आया, बहू से बोली पंडितजी को दंडवत करो और मौड़ा पैदा हो ऐसा आशीर्वाद माँगो।
अब रामायण से रहा न गया मन ही मन सोचा कि कैसी सास है बहू पेट से है और उसे दंडवत प्रणाम करने को कह रही है। खैर बिना विलंब किए उन्होने पुत्र होने की आशीष दी पर सास को इंगित कर यह कहावत भी जड़ दी
‘सावन घोरी भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय। जेठे बहू आषाढ़ें सास, तौ घर हू है बाराबाट॥‘
(जिस घर में सावन में घोड़ी, भादों में गाय व माघ मास में भैंस बियाती है और जेठ में बहू तथाआषाढ़ में सास का प्रसव होता है तो ऐसा घर बुरी तरह विनष्ट हो जाता है।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ कथा कहानी # 26 – स्वर्ण पदक🥇 – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
नलिन कांत बैंक की शाखा के वरिष्ठ बैंकर थे. याने सेवानिवृत्त पर आदरणीय. उन्हें मालुम था कि मान सम्मान मांगा नहीं जाता, भय से अगर मिले तो तब तक ही मिलता है जब तक पद का भय हो या फिर सम्मान देने वाले के मन में भय अभी तक विराजित हो. मेहनत और ईमानदारी से कमाया धन और व्यवहार से कमाया गया मान अक्षुण्ण रहता है, अपने साथ शुभता लेकर आता है. नलिनकांत जी ने ये सम्मान कमाया था अपने मधुर व्यवहार और मदद करने के स्वभाववश.
उनके दो पुत्र हैं स्वर्ण कांत और रजत कांत. नाम के पीछे उनका केशऑफीसर का लंबा कार्यकाल उत्तरदायी था जब इन्होने गोल्ड लोन स्वीकृति में अपनी इस धातु को परखने की दिव्यदृष्टि के कारण सफलता पाई थी और लोगों को उनकी आपदा में वक्त पर मदद की थी. उनकी दिव्यदृष्टि न केवल बहुमूल्य धातु के बल्कि लोन के हितग्राही की साख और विश्वसनीयता भी परखने में कामयाब रही थी.
बड़ा पुत्र स्वर्ण कांत मेधावी था और अपने पिता के सपनों, शिक्षकों के अनुमानों के अनुरूप ही हर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करता गया. पहले स्कूल, फिर महाविद्यालय और अंत में विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त कर, अपनी शेष महत्वाकांक्षाओं को पिता को समर्पित कर एक राष्ट्रीयकृत बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी याने प्राबेशनरी ऑफीसर के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर सफलता पाई. बुद्धिमत्ता, शिक्षकों का शिक्षण, मार्गदर्शन और मां के आशीषों से मिली ये सफलता, अहंकार से संक्रमित होते होते सिर्फ खुद का पराक्रम बन गई.
दारातली मंजि-यांनी डवरलेली तुळस, कळ्यांनी पानोपानी लगडलेली सायली ,मोगरा ,एकाआड एक कळ्यांचा गुच्छ फुलवणारा निशिगंध, सगळी झाड वेली उन्हाची तगमग कमी होताच त्यांना पाणी देताना तरारून आली . त्यांचा मंद सुगंध वाऱ्यावर तरंगत आला अन्, मन प्रसन्न झाले.
वसंताच्या आगमनाने खरं तर सृजनाचा सोहळा सुरू झालाय. दारातला कडूनिंब आपली नवी नवेली पालवी हलवत वाऱ्यावर मस्त झुलतोय. त्याच्या पिवळसर पांढऱ्या इटुकल्या फुलांनी क्षणातच सगळीकडे थोडीफार पखरण केली त्याचा सुवासही आगळाच…! अंगणातली छोटीशी हिरवाई निरखताना वाटतं अरे ही तर चैत्रपालवी..! नव्या वर्षाच्या नव्या ऋतूची म्हणजे बहरा तल्या वसंताची गुढी आपण उभारतो. त्याच्या स्वागतासाठी आंबाही मोहराची मस्त सुगंधाची लयलूट करत असतो. चैत्रपालवी ने अवघा आसमंत नव उन्मेषाने झळाळून वाऱ्यावर डोलतो. पर्णहीन उघडा बोडका गुलमोहर, पळस लाल भडक केशरी फुलांनी अंगोपांगी बहरून उन्हाचं छत्र डोक्यावर घेऊन उभा राहतो. शिशिराची फुलं पाना आडून सुंदर पिसारा फुलवत सुगंध चौफेर पसरवतात. होरपळून टाकणाऱ्या उन्हाळ्याच्या सुरुवातीची अशी विविध रंगांची, गंधाची अन् रसाचीही उधळण करून ग्रीष्माचा दाह मनमोहक करण्याची निसर्गाची किमया मनाला स्पर्शून जाते. चैत्र शुद्ध प्रतिपदेला नव वर्षाची गुढी उभारताना आपण नव्या नवलाईने, नव्या उमेदीने अन नव्या चैतन्याने नववर्षाला सामोर जातो ते यामुळेच!.
चैत्र महिन्यात फुलातून, फळातून मधुरस नुसता पाझरत असतो. कदाचित यामुळेच चैत्राला मधुमास असही म्हणतात. वर्षाचा हा प्रथम मास म्हणजे सर्वांना आनंद देणारा उत्सवप्रिय लोकांना सण,उत्सव साजरे करण्यासाठी कारणे देणारा, प्रोत्साहन देणारा असा आहे. या महिन्यातील एक पूजा उत्सव म्हणजे गौरी. शंकराचा दोलोत्सव. काही ठिकाणी यावेळी गौरी शंकराचा विवाह सोहळा ही करतात. माझ्या माहेरी हा उत्सव पूजा आहे .नंतरच लग्नाच्या तिथी, मुहूर्त असतात. चैत्र शुद्ध तृतीया म्हणजे गौरीची तीज .अक्षय तृतीय पर्यंत हा दोलोत्सव असतो. गौरी म्हणजे साक्षात वनदेवी! तिला वसंत गौर ही म्हणतात. हळूहळू उन्हाळा वाढू लागतो आणि पाना आड दडलेल्या बाळ कैऱ्या बाळसं धरू लागतात. वाऱ्याबरोबर फांद्यांच्या झोक्यावर झोके घेऊ लागतात. त्याच बरोबर आंबट गोड पन्हं उन्हाची तगमग कमी करत, कैरीची वाटली डाळ पन्ह गौरीच्या दोलोत्सवाची, हळदी कुंकवाची लज्जत वाढवतात . त्याबरोबरच कलिंगडाची, काकडीची रसदार फोड हवीच असते. सुवासिनींची ओल्या हरभऱ्याची ओटी, त्यांची खमंग उसळ आणि थंडगार उसाचा रस याचा आस्वाद आगळाच..
श्रीराम दोलोत्सव, श्री हनुमान जयंती ही याच महिन्यात येतात. फाल्गुन ,चैत्र, वैशाख हे तीन महिने वसंत ऋतु असतो. पण चैत्र महिन्यात त्याचा सन्मान अधिक होतो असं वाटतं. कारण मनाला उल्हसित करणारे सण उत्सव सोहळे याचा आनंद या महिन्यात आपण जास्त घेतो.
रसदार फळं ,गंधमय फुलं, हिरवीगार चैत्रपालवी अशा बेसुमार रंगांनी नटलेला प्रखर उन्हाने अंग भाजेल असा, पण तरीही अत्यंत शितल सुखकारक अशा वाऱ्याने तनामनाला सुखविणारा, दृष्टीला भ्रांत करणारा चैत्रमास — मधुमास मनाला नेहमीच भुरळ घालतो एवढं खरं…!
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा ✈️
| स्वस्ति श्री जलदेवता प्रसन्ना भवतु |
| स्वस्ति श्री वनदेवता प्रसन्ना भवतु |
| स्वस्ति श्री निसर्गदेवता प्रसन्ना भवतु |
|जलवननिसर्गदेवता: सुप्रसन्ना: भवन्तु |
‘आकाशातल्या बाप्पाने’ अवाढव्य कॅनडाला जगातील सर्वाधिक सरोवरे, समुद्रासारख्या नद्या, घनदाट जंगले, माथ्यावर बर्फाचे मुकुट मिरवणारी पर्वतराजी, मनमोहक निसर्ग यांचा असा भरभरून आशीर्वाद दिला आहे. या स्वप्नसुंदर भूमीवरील आकाशाच्या भव्य घुमटातून डोकावणारा देवबाप्पा समाधानाने हसत असतो कारण कॅनडाने या साऱ्या दैवी देणगीची कसोशीने जपणूक केली आहे. या दैवी देणगीचा आदरपूर्वक सन्मान केला आहे.
फ्रँकफर्टला विमान बदलून टोरंटोला उतरलो. विमानतळावरील सोयी-सुविधा अनुभवून बोलक्या ड्रायव्हरच्या साथीने गुळगुळीत रस्त्यावरून हॉटेलपर्यंत अलगद पोहोचलो आणि प्रवासाचा सारा शीण पळाला.
ओटावा ही कॅनडाची राजधानी आहे पण आर्थिक राजधानी टोरंटो आहे . सांस्कृतिक विविधता असलेल्या टोरंटो शहराने इतिहासाच्या पाऊलखुणा जपल्या आहेत तसेच गगनाला भिडणारे टॉवर्सही उभारले आहेत. बसमधून कॅसालोमा इथे उतरलो. कॅसालोमा हा किल्ल्यासारखा राजवाडा सर हेनरी यांनी शंभर वर्षांपूर्वी बांधला.९८ दालने, ३० बाथरूम्स, दोन गुप्त भुयारी रस्ते, आठशे फूट लांबीचे अंतर्गत जोडणी करणारे टनेल, २५ फायर प्लेसेस, १७०० बाटल्या मावतील एवढी वाईनसेलर, दहा हजार ग्रंथ असणारी लायब्ररी असा सारा अफलातून कारभार आहे. त्या महालासभोवती पाच एकर जागेवर कारंजी आणि सुंदर पुतळे असलेला रंगीबेरंगी फुलांनी डवरलेला सुंदर बगीचा आहे. आपल्याला फक्त त्या बागेत फेरफटका मारुन उंची महालाचे दर्शन व फोटो घेता येतात.
बाटा शू म्युझियममध्ये जगभरातील वैविध्यपूर्ण १३००० बुटांचा संग्रह आहे. चीनमधील एम्ब्रॉयडरी केलेल्या रेशमी बुटांपासून बॉलरूम डान्सिंग बुटांपर्यंत सारे प्रकार या संग्रहात आहेत. शोकेसमध्ये बुटाचा स्टॅन्ड ठेवलेला असावा अशी या इमारतीची रचना आहे.इटॉन सेंटर या शॉपिंग मॉलचे एक प्रवेशद्वार एका रेल्वे स्टेशन जवळ तर दुसरे प्रवेशद्वार त्यापुढच्या स्टेशनजवळ एवढा तो भरपूर लांब, अवाढव्य मॉल आहे.
साऱ्या आधुनिक इमारतींचा मानबिंदू म्हणजे सी -एन् टॉवर ! ३६५ मीटर्स म्हणजे ११९८ फूट उंच असलेला हा टॉवर काही वर्षांपूर्वी जगातला सर्वात उंच टॉवर होता. लिफ्टने दीड मिनिटात या टॉवरच्या ऑब्झर्वेशन डेस्कवर पोचलो. पायाखालच्या काचेच्या जमिनीवरून खालची माणसे, गाड्या बुद्धिबळातल्या सोंगट्यांएवढी दिसंत होती. अनेक जण त्या काचेवर झोपून सेल्फी काढण्यात रमले होते. इथे रेस्टॉरंट, थिएटर अशा सोयी आहेत तसेच भक्कम दोराच्या सहाय्याने या टॉवरला बाहेरून फेरी मारण्याचा धाडसी खेळही आहे.
काही वर्षांपूर्वी नायगाराचा अनुभव अमेरिकेच्या बाजूने घेतला होता. आता तोच नायगारा कॅनडाच्या बाजूने अनुभवायचा होता. लांबूनच त्याचा घनगंभीर आवाज कानावर आला. चंद्रकोरीच्या आकारातून धमासान कोसळणारा तो जलप्रपात पाहिला आणि समर्थ रामदास स्वामींचे शब्द आठवले ;
‘गिरीचे मस्तकी गंगा, तेथूनी चालली बळे
धबाबा लोटल्या धारा, धबाबा तोये आदळले’
जणू ते प्रचंड पाणी आकाशातून येऊन आवेगाने पाताळात घुसत होते. पाण्यावर पडलेल्या सूर्यकिरणांमुळे इंद्रधनुष्यांचे अनेक शेले त्यावर तरंगत होते. नजर खिळवून ठेवणारे, तनमन व्यापून टाकणारे ते दृश्य होते.
१८००० वर्षांपूर्वी हिमयुगाचा अंत होऊ लागला तेंव्हा सध्याच्या अमेरिका आणि कॅनडा देशांच्या सरहद्दीवर असलेल्या पाच ग्रेट लेक्स भागातलं बर्फ वितळू लागलं. लेक एरी भागातील बर्फ संथपणे उत्तरेला ओन्टारिओ सरोवर भागाकडे वाहू लागलं.वाहताना वाटेत एका कड्यावरून कोसळू लागलं तोच हा सुप्रसिद्ध नायगारा धबधबा! कालौघात खडकांची झीज होऊन धबधबा मूळ जागेपासून मागे जातो. जून, जुलै, ऑगस्टमध्ये भरभरून कोसळणारा धबधबा प्रवाशांना आकर्षित करतो. या धबधब्यात बंद पिंपात बसून उडी मारण्याचं वेडं साहसही अनेकांनी केलं आहे. धबधब्याच्या पार्श्वभूमीवर चित्रित केलेले ‘नायगारा,’ ‘सुपरमॅन’ असे अनेक चित्रपट आहेत. हिवाळ्यात एरी सरोवराचं पाणी गोठतं. जलप्रवाह अतिशय क्षीण होतो. १८४८ च्या मार्च महिन्यात तर हा धबधबा पूर्णतः गोठला होता.
धबधब्याच्या पाण्यावर जल विद्युत केंद्र चालविले जाते. विद्युत केंद्राचा पाणीपुरवठा खंडित होऊ नये म्हणून एरी सरोवरातून नायगारा नदीत दोन मैल लांबीच्या साखळीला खूप मोठे लोखंडी , तरंगणारे प्लॅटफॉर्मस् सोडलेले आहेत. त्यामुळे सरोवरातील हिमखंडांना अटकाव होऊन विद्युत केंद्राचा पाणीपुरवठा चालू राहतो.
नायगारावरील तरंगती इंद्रधनुष्ये डोळ्यात साठवून आम्ही ‘जर्नी बिहाइंड दी फॉल्स ‘ साठी एका लिफ्टने जमिनीच्या पोटात दीडशे फूट खाली गेलो. नंतर एका लहानशा ओल्या टनेलमधून गेल्यावर आम्ही थेट नायगाराच्या कोसळणाऱ्या पाण्याच्या पडद्यामागे उभे ठाकलो.आवेगाने अविरत कोसळणाऱ्या नायगाराचे थंडगार तुषार, अंगावर शिरशिरी आणंत होते. तिथून थोडे वर चढल्यावर अर्धवर्तुळाकार ऑब्झर्वेशन गॅलरी आहे. तिथून दिसणारा, आपल्या बाजूने लांबट अर्धवर्तुळाकार कोसळणारा धबधबा पाहताना डोळ्याचं पारणं फिटतं.
आता आम्हाला नायगाराची गळाभेट घ्यायची होती. ‘हॉर्न ब्लोअर’ नावाच्या क्रूझमधून धबधब्याला समोरून भिडताना अंगावर जलतुषारांचा फवारा उडत होता. रेनकोट घालूनही सर्वांग भिजंत होतं. नायगाराच्या उसळत्या पाण्यात शिरलेली बोट हेलकावत होती. कोसळणार्या धारा, त्यावर तरंगणारे धुक्याचे ढग, कानामनात भरून राहिलेली ती अजस्त्र ऊर्जा सारेच विलक्षण अद्भुत वाटत होते.
रात्री आमच्या हॉटेलरुमच्या काचेच्या खिडकीतून दिसणारा नायगारा संथगतीने खाली उतरत आहे असं वाटंत होतं. दिवसभरच्या श्रमाने नायगारा थोडा दमल्यासारखा दिसंत होता. झोप येईपर्यंत त्याचे दर्शन घेतले. पुन्हा पहाटे उमलती सूर्यकिरणे त्यावर पसरली. इंद्रधनुष्याचा सप्तरंगी खेळ सुरू झाला. पाण्याचा प्रचंड मोठा रंगीत पडदा झिरमिळत घरंगळू लागला.
जगातील सर्व प्रवाशांना नायगाराचे आकर्षण आहे .अमेरिका व कॅनडा यांनी अनेक सोयी- सुविधा तिथे निर्माण करून, तंत्रज्ञानाच्या सहाय्याने धबधब्याला माणसाळले आहे.भरदार आयाळ असलेल्या सिंहाच्या गळ्यात पट्टा बांधावा तसे! सदर्न ऑंटारिओ भागात नायगारा नदीचा संगम लेक ऑंटारिआमध्ये होतो. त्याला ‘नायगारा ऑन दी लेक’ म्हणतात. इथल्या छोट्या शहरावर ब्रिटिश वास्तुशैलीची छाप आहे. इथे अनेक वायनरीज आहेत. जगप्रसिद्ध ‘आइस वाइन’ इथे बनविली जाते. अतिशय थंड हवेत वेलीवर लगडलेल्या द्राक्षांमध्ये बर्फ तयार होतो. त्या द्राक्षातून निघालेला थेंबभर रस खूप गोड असतो. म्हणून त्यापासून बनविलेली वाइन,इतर वाइनपेक्षा जास्त मधुर असते. डेझर्ट वाइनसाठी आइस वाइन उत्तम समजली जाते.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “कभी न भाते नेह के सपने… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 28 – सजल – कभी न भाते नेह के सपने… ☆