हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 100 ☆ शांति और सहयोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “शांति और सहयोग…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 100 ☆

☆ शांति और सहयोग… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

मैंने कुछ कहा और बुद्धिजीवियों ने उसे संशोधित किया बस यहीं से अहंकार जन्म लेता है कि आखिर मुझे टोका क्यों गया। सीखने की प्रक्रिया में लगातार उतार- चढ़ाव आते हैं। जब हम सुनना, गुनना और सीखना बंद कर देते हैं तो वहीं से हमारी बुद्धि तिरोहित होना शुरू कर देती है। क्या सही है क्या गलत है ये सोचने समझने की क्षमता जब इसके घेरे में आती है तो वाद- विवाद होने में देर नहीं लगती है। कदम दर कदम बढ़ाते हुए व्यक्ति बस एक दूसरे से बदला लेने की होड़ में क्या- क्या नहीं कर गुजरता।  होना ये चाहिए कि आप अपनी रेखा निर्मित करें और उसे बढ़ाने की ओर अग्रसर हों। सबको जोड़ते हुए चलने में जो आंनद है वो अन्य कहाँ देखने को मिलेगा।

आजकल यूट्यूब और इंस्टाग्राम में पोस्ट करने का चलन इस कदर बढ़ गया है कि हर पल को शेयर करने के कारण व्यक्ति कोई भी थीम तलाश लेता है। उसका उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही लाइक व सब्सक्राइब करना ही होता है। यू टयूब के बटन को पाने की होड़ ने कुछ भी पोस्ट करने की विचारधारा को बलवती  किया है। तकनीकी ने एक से एक अवसर दिए हैं बस रोजगार की तलाश में भटकते युवा उसका प्रयोग कैसे करते हैं ये उन पर निर्भर करता है।

एप का निर्माण और उसे  अपडेट करते रहने के दौरान अनायास ही संदेश मिलता है कि समय के साथ सामंजस्य करने का हुनर आना चाहिए। कदम दर कदम बस चलते रहना है। एक राह पर चलते रहें, मनोरंजन के अवसर मिलने के साथ ही रोजगार परक व्यवसाय की पाइप लाइन बनाना भी आना चाहिए। सभी बुद्धिजीवी वर्ग को इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि सबके विकास को, सबके प्रयास से जोड़ते हुए बढ़ना है। एक और एक ग्यारह होते हैं इसे समझते हुए एकता की शक्ति को भी पहचानना होगा। संख्या बल केवल चुनावों में नहीं वरन जीवन हर क्षेत्र में प्रभावी होता है। कैसे ये बल हमारी उन्नति की ओर बढ़े इस ओर चिन्तन मनन होना चाहिए।

आजकल जाति वर्ग के आधार पर निर्णयों को प्रमुखता दी जाती है। इसे एकजुटता का संकेत माने या अलगाव की पहल ये तो वक्त तय करेगा।किन्तु प्रभावी मुद्दे मीडिया व जनमानस की बहस का हिस्सा बन कर सबका टाइम पास बखूबी कररहे हैं। आक्रोश फैलाने वाली बातों पर चर्चा किस हद तक सही कही जा सकती है। इन पर रोक होनी चाहिए। कार्यों का होना एक बात है किन्तु बिनाबात के हल्ला बोल या ताल ठोक जैसे कार्यक्रम किसी भी हद तक सही नहीं कहे जा सकते हैं। इन सबका असर जन मानस  पर पड़ता है सो सभी को एकजुटता का परिचय देते हुए सहयोगी भाव से  सही तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 157 ☆ आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व…! इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 157 ☆

? आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व.. ?

सनातन संस्कृति में भगवान शिव को सर्वशक्तिमान माना जाता है।  भगवान शिव की पूजा  शिवलिंग के स्वरूप में भी की  जाती है।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश, ये तीनों देवता सृष्टि की स्थापना , लालन पालन , तथा प्रलय के सर्वशक्तिमान देवता हैं।

दरअसल, भगवान शिव का कोई स्वरूप नहीं है, उन्हें निराकार माना जाता है। शिवलिंग के रूप में उनके इसी निराकार रूप की आराधना की जाती है।

शिवलिंग का अर्थ:

‘लिंगम’ शब्द ‘लिया’ और ‘गम्य’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ ‘आरंभ’ और ‘अंत’ होता है। दरअसल, मान्यता  है कि शिव से ही ब्रह्मांड प्रकट हुआ है और यह उन्हीं में मिल जाएगा।

शिवलिंग में ब्रम्हा विष्णु महेश तीनों देवताओ का वास माना जाता है। शिवलिंग को तीन भागों में बांटा जा सकता है। सबसे निचला हिस्सा जो आधार होता है, दूसरा बीच का हिस्सा और तीसरा शीर्ष सबसे ऊपर जिसकी पूजा की जाती है।

निचला हिस्सा ब्रह्मा जी (सृष्टि के रचयिता), मध्य भाग विष्णु (सृष्टि के पालनहार) और ऊपरी भाग भगवान शिव (सृष्टि के विनाशक) हैं। अर्थात शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है।

अन्य मान्यता के अनुसार,  शिव लिंग में  शिव और शक्ति,का एक साथ में वास माना जाता है।

पिंड की तरह आकार के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों कारण है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो शिव ब्रह्मांड के निर्माण के आधार मूल हैं। अर्थात शिव ही वो बीज हैं, जिससे पूरा संसार बना है। वहीं अगर वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो ‘बिग बौग थ्योरीज कहती है कि ब्रह्मांड का निमार्ण  छोटे से कण से हुआ है। अर्थात शिवलिंग के आकार को इसी से  जोड़कर  देखा जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रभा पारीक जी के कथा संग्रह  “शॉप-वरदान” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक:  शॉप-वरदान

लेखिका:  प्रभा पारीक

प्रकाशक: साहित्यागार,धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर- 302013

मोबाइल नंबर : 94689 43311

पृष्ठ : 346

मूल्य : ₹550

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ शॉप-वरदान की अनूठी कहानियाँ – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

किसी साहित्य संस्कृति की समृद्धि उसके रचे हुए साहित्य के समानुपाती होती है। जिस रूप में उसका साहित्य और संस्कृति समृद्ध होती है उसी रूप में उसका लोक साहित्य और समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है। लौकिक साहित्य में लोक की समृद्धि संस्कार, रीतिरिवाज और समाज के दर्शन होते हैं।

इस मायने में भारतीय संस्कृति में पुराण, संस्कृति, लोक साहित्य, अलौकिक साहित्य आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। समृद्ध काव्य परंपरा, महाकाल, ग्रंथकाव्य, पुराण,  वेद, वेदांग उपाँग और अलौकिक-लौकिक महाकाव्य में हमारी समृद्ध परंपरा को सहेज कर रखा है। इसी के द्वारा हम गुण-अवगुण, मूल्य-अमूल्य, आचरण-व्यवहार, देव-दानव आदि को समझकर तदनुसार कार्य-व्यवहार, भेद-अभेद, शॉपवरदान आदि का निर्धारण कर पाते हैं।

अमृत परंपरा का अध्ययन, चिंतन-मनन व श्रम साध्य कार्य करके उसमें से शॉप और वरदान की कथाओं का परिशीलन करना बहुत बड़ी बात है। यह एक श्रमसाध्य कार्य है। जिसके लिए गहन चिंतन-मनन, विचार-मंथन, तर्क-वितर्क और आलोचना-समालोचना की बहुत ज्यादा जरूरत होती है।

तर्क, विचार और सुसंगतता की कसौटी पर खरे उतरने के बाद उसका लेखन करना बहुत बड़ी चुनौती होता है। इसके लिए गहन अध्ययन व चिंतन की आवश्यकता होती है। इस कसौटी पर प्रभा पारीक का दीर्धकालीन अध्ययन, शोध, चिंतन एवं मनन उनके लेखन में बहुत ही सार्थक रूप से परिणित हुआ है।

वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण, भगवत आदि में वर्णित अधिकांश शॉप उनके वरदान के परिणीति का ही प्रतिफल है। हर शॉप उनके वरदान को पुष्ट करता है। इसी द्विकार्य पद्धति को प्रदर्शित करती पुस्तक में शॉप और वरदान की अनेकों कहानियां हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के अनेक पुष्ट परंपराओं और रीति-रिवाजों को हमारे समुख लाती है। इसी पुस्तक के द्वारा इन्हीं कथाओं के रूप में हमारे सम्मुख सहज, सरल, प्रवहमय भाषा में हमारे सम्मुख रखने का कार्य लेखिका ने किया है।

वेद, पुराण, श्रीमद् भागवत आदि का ऐसा कोई प्रसंग, कथा, कहानी, शॉप, वरदान नहीं जिसका अनुशीलन लेखिका ने न किया हो। प्रस्तुत पुस्तक इसी दृष्टि से बहुत उपयोगी है। साजसज्जा उत्तम हैं। त्रुटिरहित छपाई, आकर्षक कवर ने पुस्तक की उपयोगिता में चार चांद लगा दिए हैं। 346 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹550 वर्तमान युग के हिसाब से वाजिब है।

पुस्तक की उपयोगिता सर्वविदित हैं। साहित्य के क्षेत्र में इसका सदैव स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 110 ☆ बाल कविता – क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 110 ☆

☆ बाल कविता – क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

क्यों न मैं तुलसी बन जाऊँ

सारे जन के रोग मिटाऊँ।

घर – आँगन को कर दूँ  पावन

जीवन अपना सफल बनाऊँ।।

 

मैं हूँ रामा, मैं हूँ कृष्णा।

मैं हूँ श्वेत और विष्णु भी।

मैं होती हूँ वन तुलसी भी।

मैं होती नींबू तुलसी भी।

 

पाँच तरह की तुलसी बनकर

खूब ओषजन मैं फैलाऊँ।।

 

एंटी बायरल, एंटी फ्लू

एंटीबायोटिक मैं हूँ होती।

एंटीऑक्सीडेंट बनकर

एंटीबैक्टीरियल होती।।

 

एंटीडिजीज बनकर मित्रो

परहित में ही मैं लग जाऊँ।।

 

खाँसी, सर्दी या जुकाम भी

सब रोगों में काम मैं करती।

कालीमिर्च, अदरक, गिलोय सँग

काढ़ा बन अमृत बन दुख हरती।।

 

हर मुश्किल का करूँ सामना

जीवनभर उपहार लुटाऊँ।।

 

मैं लक्ष्मी का रूप स्वरूपा

मैं हूँ आर्युवेद में माता।

पूरा भारत करता पूजा

कोई मेरा ब्याह रचाता।।

 

मैं श्रद्धा का दीपक बनकर

सदा पुण्य कर मैं मुस्काऊँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #110 – आसरा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 110 – आसरा…! ☆

इवलासा जिव 

फिरे गवोगाव

आस-याचा ठाव 

घेत असे..

 

पावसाच्या आधी 

बांधायला हवे

घरकुल नवे 

पिल्लांसाठी..

 

पावसात हवे

घर टिकायला

नको वहायला

घरदार..

 

विचाराने मनी

दाटले काहूर

आसवांचा पूर 

आटलेला..

 

पडक्या घराचा 

शोधला आडोसा

घेतला कानोसा

पावसाचा..

 

बांधले घरटे

निर्जन घरात

सुखाची सोबत

होत असे..

 

घरट्यात आता

रोज किलबिल

सारे आलबेल

चाललेले..

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#132 ☆ अदले-बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “अदले-बदले की दुनियाँ…”)

☆  तन्मय साहित्य # 132 ☆

☆ अदले-बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

फिर ऊषा के साथ लौट वह आये।

 

अदले-बदले के दुनियाँ के रिश्ते हैं

जो न समझ पाते कष्टों में पिसते हैं

कठपुतली से रहें नाचते परवश में

स्वाभाविक ही मन को यही लुभाए….

 

थे जो मित्र आज वे ही प्रतिद्वंद्वी हैं

आत्मनियंत्रण कहाँ सभी स्वच्छंदी हैं

अतिशय प्रेम जहाँ ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही दिवास्वप्न दिखलाये…..

 

चाह सभी को बस आगे बढ़ने की है

कैसे भी हों सफल, शिखर चढ़ने की है

खेल चल रहे हैं शह-मात अजूबे से

वक्त आज का सबको यही सिखाये…..

 

आदर्शों के हैं अब भी कुछ अभ्यासी

कीमत उनकी कहाँ आज पहले जैसी

अपनों के ही वार सहे आहत मन पर

रूख हवा का नहीं समझ जो पाए….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 26 ☆ बुंदेली गीत – नातेदारी ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण बुंदेली गीत  “छोटी बहन”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 26 ✒️

?  बुंदेली गीत – नातेदारी — डॉ. सलमा जमाल ?

चन्दा मोरो मम्मा लागे ,

बहना लगत तरैंयां ।

बिन्ना गुंइयां जैसीं लग रईं ,

अंगना मोऐ औरैंयां ।।

 

धरा हमाई मैया जैसी ,

छाती पै है बिठाऐ ,

सूरज कक्का आकें मौंसें ,

भौतई लाड़ – लड़ाऐं ,

हमें रखात हैं पेड़ई – पौधे ,

वे सब मोरे भैया ।

चन्दा ————————–।।

 

पशु – पक्षी हैं पुरा – परोसी ,

बिषधर पेड़ हैं दुश्मन ,

लहलहात खेतन के बीचां ,

करौ प्रभु जी के दरसन ,

कोयल ,पपीहा ,गाना – गावैं ,

मोर नाचे ता — थैया ।

चन्दा ————————- ।।

 

नदी पहाड़ उर ताल लगत हैं ,

हमाऐ बड़े सयाने ,

गलत काम सें रोकत हैं ,

खड़े हैं छाती ताने ,

‘सलमा ‘ नातेदारी , सबसें ,

कोऊ अकेलो नईंयां ।

चन्दा ————————- ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 32 – आत्मलोचन – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 32 – आत्मलोचन– भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

हर व्यक्ति को किसी न किसी वस्तु से लगाव होता है, गॉगल, रिस्टवॉच, बाइक, कार, वाद्ययंत्र आदि, पर आत्मलोचन को अपनी सिटिंग स्पेस याने चेयर या डेस्क से बेइंतहा लगाव था. सीमित आय के बावजूद मेधावी पुत्र के लिये शिक्षक पिता ने घर में पढ़ने के लिये शानदार कुर्सी और दराज़ वाली टेबल उपलब्ध करा दी थी. स्कूल और कॉलेज में फ्रंट लाईन पर बैठने की आत्मलोचन की आदत थी और जब कोई शरारती सहपाठी उसकी सीट पर बैठ जाता तो साम दाम दंड भेद किसी भी तरह अपनी सीट हासिल करना उसका लक्ष्य बन जाता. इसमें शिक्षक का रोल भी महत्वपूर्ण होता जो उसके मेधावी छात्र होने का हक बनता था.

मसूरी में प्रारंभिक प्रशिक्षण के दौरान एकेडमी की एक प्रथा का पालन हर प्रशिक्षार्थी को करना पड़ता था जिसमें हर दिन बैठने  का सीक्वेंस, सीट और पड़ोसी का बदलना अनिवार्य था. आत्मलोचन को इस परंपरा से बहुत दिक्कत होती थी पर वो कुछ कर नहीं सकता था. इस का लॉजिक यही था कि अलग अलग स्थानों और अलग अलग व्यक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कला का विकास हो जो भावी पोस्टिंग में काम आ सके. प्रशिक्षण और फिर प्रेक्टिकल एक्सपोज़र के विभिन्न दौर से गुजरने के बाद अंततः आत्मलोचन जी IAS,  चिरप्रतीक्षित कलेक्टर के पद पर नक्सली समस्याग्रस्त जिले में पदस्थ हुये. जिला छोटा पर नक्सली समस्याओं से ग्रस्त था. आवास तुलनात्मक रूप से थोड़ा छोटा पर सर्वसुविधायुक्त था और ऑफिस नया चमचमाता हुआ अपने राजा का इंतज़ार कर रहा था जो इस जिले के पहले direct IAS थे. वे सारे अधीनस्थ अधिकारी /कर्मचारी जो अब तक किसी अधेड़ उम्र के राजा के सिपाहसलार थे अब राजा के रूप में राजकुमार सदृश्य व्यक्ति को पाकर अचंभित थे और शायद हर्षित भी. उन्हें लगा कि कल के इस छोकरे को तो वो आसानी से बहला फुसला लेंगे पर ऐसा न होना था और न ही हुआ. जब भी कोई युवा कलेक्टर के पद पर इस उम्र में पदस्थ होता है तो अपने सपनों, हौसलों और आदर्शों को मूर्त रूप देने की कशिश ही उसका दृढ़ संकल्प होता है और इसे सफल बनाने में उसकी प्रतिभा, प्रशिक्षण और प्रेक्टिकल एक्सपोज़र बहुत काम आते हैं.

आत्मलोचन जी के इरादे टीएमटी सरिया के समान बचपन से ही मजबूत थे और बहुत जल्द सबको समझ आ गया कि साहब कड़क हैं और वही होता है जो साहब ठान लेते हैं. पर कलेक्टर का पद सुशोभित करने के बावजूद कलेक्टर कक्ष की कुर्सी साहब को रास नहीं आ रही थी तो उनकी पसंद के अनुसार दो नई कुर्सियां आर्डर की गई एक जिस पर आत्मलोचन जी ऑफिस में सुशोभित हुये और दूसरी उनके बंगले पर उनके (work from home too) के लिये भेजी गई.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 109 ☆ स्कूल की बड़ी बहनजी – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “स्कूल की बड़ी बहनजी”)

☆ संस्मरण # 109 – स्कूल की बड़ी बहनजी – 2  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

वर्ष 1995 की गर्मियों में जब चौंतीस वर्षीया अर्थ शास्त्र में स्नातकोत्तर और बीएड की उपाधिधारी युवा रेवा रानी घोष ने अखबार में एक विज्ञापन देखा तो अपनी जन्म स्थली रांची को छोड़कर सुदूर आदिवासी अञ्चल में आदिवासियों की सेवा करने चली आई । यह संकल्प जब उन्होंने अपने पिता जोगेश्वर घोष और माता भवानी घोष को बताया तो घर में तूफान उठना स्वाभाविक था । ऐसे में वह विज्ञापन जब बड़ी बहन छविरानी घोष ने देखा तो वह आनंद से उछल पड़ी। विज्ञापन देने वाले डाक्टर प्रवीर सरकार, रामकृष्ण मिशन रांची के स्वामी गंभीरानन्द जी के द्वारा दीक्षित थे और इस प्रकार  उनके गुरु भाई थे। बहन ने माता-पिता को समझाया कि ‘रेवा समाज सेवा की इच्छुक है, यदि उसका विवाह कर भी दिया तो भी वह अपने संकल्प के प्रति समर्पित रहेगी और ग्रहस्थ जीवन के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी उसे जाने दें ।‘ और इस प्रकार 02.02.1962 को रांची वर्तमान झारखंड में  जन्मी एक युवती अपने नाम के अनूरुप रेवा अञ्चल की आदिवासी बालिकाओं की बड़ी बहनजी बनकर अमरकंटक आ गई ।

मैंने जब उनसे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ के आरंभ की कहानी जाननी  चाही तो वे भूतकाल में खो गई । वर्ष 1996 में जब यह विद्यालय शुरू हुआ तो पहला ठिकाना लालपुर गाँव का एक कच्चा मकान बना । लाल सिंह धुर्वे की इस झोपड़ी में कोई दरवाजा न था । आसपास के गांवों से पंद्रह  बच्चियाँ लाई गई, जिनमे से अधिकांश अत्यंत पिछड़ी आदिवासी आदिमजनजाति   बैगा समुदाय की थी । कच्ची झोपड़ी में डाक्टर सरकार और रेवारानी घोष इन्ही बच्चियों के साथ रहते और रात में बारी-बारी से चौकीदारी करते ताकि छात्राएं भाग न जाए। बाद में जब टीन का दरवाजा लग गया तो रतजगा कम हुआ पर दिन तो और भी मुश्किल भरे थे । पहली दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली बालिकाओं को माता-पिता की याद आती और वे दरवाजा खोलकर भाग देती, तब डाक्टर सरकार के साथ बहनजी भी कक्षा में पढ़ाना छोड़ उस बालिका के पीछे दौड़ लगाते और उसे पकड़ कर वापस पाठशाला में ले आते । अबोध बालिकाएं कभी रोती, कभी मचलती और हाथ पैर फटकारती । उन्हें प्यार से समझा बुझाकर स्कूल में रोके रखना दुष्कर कार्य था । शुरुआत के दिन मुश्किल भरे थे, फिर एक और शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी आ गए, तब बच्चों को दिन में सम्हालना सरल हो गया ।

छोटी-छोटी बालिकाओं का पेट भरना भी एक बड़ी समस्या थी । डाक्टर सरकार सदैव इसी जुगाड़ में लगे रहते कि किसी तरह कहीं से धन मिले तो अनाज खरीदें।  अक्सर उतनी धान नहीं मिल पाती की बच्चों को भरपेट भोजन कराया जा सके ।  और ऐसे में कभी भात तो कभी पेज से काम चलता । पेज बैगा आदिवासियों का प्रिय पेय है, इसे पकाने मक्का, कोदो,कुटकी, चावल को कूट-पीसकर हँडिया में डाल चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है और एक या दो घंटे बाद जब यह भलीभाँति सिक जाता है तब उसमें पर्याप्त ठंडा पानी डाल कर उसे पिया जाता है । अकेला चावल गले न उतरता, दालें खरीदना तो आर्थिक स्थिति में संभव नहीं था । ऐसे में चावल को खाने के लिए पकरी की भाजी का प्रयोग होता । पकरी, पीपल जैसा ही वृक्ष है और पतझड़ के बाद जब नई कपोलें इसमें आती तो उन्हें उबालकर सब्जी के रूप में खाया जाता । कसैले स्वाद वाली पकरी की भाजी खाने में बैगा कन्याएं तो सिद्धहस्त थी पर रेवा इसे बमुश्किल गुटक पाती। 

अक्सर यह होता कि चावल इतना पर्याप्त न होता कि सबका पेट भरा जा सके। ऐसे में बालिकाएं भोजन पकाने के बर्तन की तांक-झांक करती और जब हँडिया को खाली देखती तो अपनी थाली में से एक एक मुट्ठी अन्न  निकाल देती । यही पंद्रह मुट्ठी अन्न डाक्टर सरकार और बड़ी बहनजी का उदर पोषण करता । 

विद्यालय के दिन फिरे, भारत सरकार के आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के संज्ञान  में डाक्टर सरकार का यह प्रकल्प आया । केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की संयुक्त टीम ने लालपुर की झोपड़ी में संचालित विद्यालय का  निरीक्षण किया और फिर भवन निर्माण हेतु अनुदान स्वीकृत किया । लेकिन एक बार फिर  प्रारब्ध के आगे पुरुषार्थ हार गया । समीपस्थ ग्राम भमरिया में भवन निर्माण का काम शुरू हुआ। नीव बनते ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने भोले भाले आदिवासियों को भड़काने में सफलता पाई और डाक्टर सरकार को  ग्रामीणों के तीव्र, कुछ हद तक हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा। इन विकट  परिस्थितियों में पोड़की के गुलाब सिंह गौड़ ने अपनी जमीन भवन निर्माण हेतु दी और जब 2001 में विद्यालय  भवन बन गया तो थोड़ी राहत मिली । सभी बच्चे और कर्मचारी उस भवन में रात्रि विश्राम करते और सुबह उसी जगह बच्चे पढ़ते । बाद में जनसहयोग से कर्मचारी आवास, छात्रावास, अतिथिगृह आदि निर्मित हुए।

मैंने पूछा भवन आदि बनने के बाद तो समस्या खत्म हो गई होगी । रेवारानी घोष कहती हैं कि कठिनाइयाँ बहुत आई पर बाबूजी (डाक्टर सरकार) अनोखी मिट्टी के बने थे । एक बार तो लगातार तीन साल तक केंद्र सरकार से अनुदान नहीं मिला । बच्चों को भोजन की व्यवस्था किसी तरह उधार और दान की रकम से चलती रही पर कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया जा सका। सभी लोग बाबूजी के साथ खड़े रहे और जब अनुदान की रकम आई तो बाबूजी ने पुराना हिसाब चुकाया, उन लोगों को भी बुला-बुलाकर बकाया वेतन दिया गया जो स्कूल छोड़ कर अन्यत्र चले गए थे । 

मैंने कहा आप स्थानीय लोगों से जनसहयोग क्यों नहीं लेती। वे कहती हैं कि यहाँ के मूल निवासी अत्यंत गरीब हैं, उनके खुद के खाने का ठिकाना नहीं रहता, ऐसे में उनसे आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करना अमानवीय होगा । हाँ अक्सर विद्यालय में सार्वजनिक कार्यक्रम होते रहते हैं तब यहाँ के आदिवासी सेवा कार्य में पीछे नहीं रहते।

मैंने कहा कि जब आप युवा थी और उच्च शिक्षित थी तो सरकारी नौकरी कर घर बसाने की इच्छा नहीं हुई ।  वे कहती हैं कि रामकृष्ण मिशन से मानव सेवा की जो शिक्षा मिली थी उसको निभाना ही लक्ष्य था। कभी भी अपने इस निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ। ऐसा कहते हुए उनकी आँखों में चमक आ गई ।

उनसे पढ़कर अनेक आदिवासी बैगा बालिकाएं शासकीय सेवा में हैं और कुछ अल्प शिक्षित इसी विद्यालय में कार्य करती हैं । वे सब अक्सर अपनी मातृ स्वरूपा बहनजी से मिलने सेवाश्रम आती हैं और बहनजी भी कितनी व्यस्त क्यों न हों अपनी इन मुँह बोली बेटियों को गले लगाती है ।       

बच्चों के बीच बड़ी बहनजी के नाम से लोकप्रिय रेवा रानी घोष आज भी कर्मचारी आवास के छोटे से कमरे में रहती हैं । और राम कृष्ण मिशन से मानव सेवा ही माधव सेवा है के जो संस्कार उन्हे मिले थे उसका पालन पूरी निष्ठा, लगन और समर्पण भाव से कर रही हैं । आप उन्हें कभी रसोई घर में भोजन पकाते तो कभी बच्चों को पढ़ाते तो यदाकदा प्राचार्य कक्ष में देख सकते हैं ।                          

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 132 ☆ काहूर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 132 ?

☆ काहूर… ☆

माझ्या मनीचे काहूर

कुणा सांगू सईबाई

असे एकाकी हा जीव

जशी अंगणात जाई

 

जशी अंगणात जाई

अंगोपांगी फुलारते

मनी सुगंधाची कळी

अपसूक उमलते

 

अपसूक उमलते

निळे कमळ पाण्यात

गतकाळाचे तरंग

कसे दाटती डोळ्यात

 

कसे दाटती डोळ्यात

जुन्या आठवांचे थवे

भाग्य तेच तेच लाभे

फक्त जन्म नव नवे

 

© प्रभा सोनवणे

१६ मे २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares