Anonymous Litterateur of social media # 220 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 220)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 220
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक नवगीत – दूर कर दे भ्रांति…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 219 ☆
☆ नवगीत – दूर कर दे भ्रांति… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ जीवन यात्रा – कहीं न कहीं हरे-भरे पेड़ अवश्य ही होंगे… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(कथा बिम्ब में पांच साल पहले प्रकाशित मेरी आत्मकथा)
बहुत वर्ष पहले ‘कथा बिम्ब’ के भाई अरविंद ने आत्मकथ्य लिखने का प्रेमपूर्वक आग्रह किया था । तब लिख नहीं पाया । पत्रकारिता ने बहुत कुछ पीछे ठेल रखा था । अब पूरी तरह सेवानिवृत्त और स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन का समय मिला तो अपने बारे में लिखने का अवसर भी मिल गया ।
मैं मूल रूप से पंजाब के नवांशहर दोआबा जिले से हूं । इसमें शहीद भगतसिंह का पैतृक गांव खटकड कलां भी शामिल होने के कारण पंजाब सरकार ने अब इस जिले का नाम शहीद भगतसिंह नगर कर दिया है । मुझे बहुत गर्व है कि शहीद भगतसिंह की स्मृति में पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड द्वारा खोले गये गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में सन् 1979 में मुझे हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला । सन् 1985 में मुझे कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिया गया । इस तरह शहीद के परिवार सदस्यों से मुलाकातें भी होती रहीं । मेरा लेख ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ : शहीद भगतसिंह के पुरखों का गांव ।
खैर । पढाई से बात शुरू करता हूं । जो लडका बड़ा होकर स्कूल प्रिंसिपल बना और स्कूल को सर्वश्रेष्ठ स्कूल का पुरस्कार दिलाया , वही लड़का कभी पांचवीं कक्षा तक स्कूल का भगौड़ा लड़का था । पिता जी छोड़ कर जाते और कुछ समय बाद बेटे को देखने आते तो पता चलता कि बरखुरदार फट्टी बस्ता रख कर भाग चुके हैं । पिताजी का माथा ठनकता और उनकी छठी इंद्री बताती कि हो न हो , यह लड़का छोटी जाति के नौकर के घर जा छिपा है । वे वहां पहुंचते और थप्पडों से मुंह लाल कर घर ले आते । फिर ठिकाना बदलता और फिर खोजते । फिर वहीं थप्पडों से बेहाल । पिता जी , दादी और घर के लोग यह मानते कि यह बच्चा नहीं पढ़ेगा । दादा जी कहते कोई बात नहीं । गांव में तीन तीन भैंसे हैं । बस । कोई गम नहीं । खेतों में चराने चले जाना । मैं मन ही मन इस काम से भी कांप जाता । भैंस चराने का गुण आया ही नहीं।
थोड़ा बड़ा हुआ तो दादी को हमारे चचा के लडके शाम ने बताया कि दादी, एक बह्मीबूटी आती है । इसे रोज सुबह पिला दो । उसने पंसारी की दुकान से ला दी । दादी ने खूब घोट कर पिलाई । साथ में वृहस्पतिवार के व्रत ताकि देवता की कृपा हो जाए । पता नहीं , देवता खुश हुए या बूटी असर कर गयी कि मैं मिडल क्लास में सेकेंड डिवीजन में पास हो गया । दादी ने परात में लड्डू रखे और खुशी में मोहल्ले भर में बांटे ।
यह है मेरी पढ़ाई का हाल । ग्यारहवीं तक मेरे पिता, दादा और दादी का निधन हो चुका था जो मुझे पढाई में सफल देखना चाहते थे । मैं इतना सफल हुआ कि तीनों वर्ष कॉलेज में प्रथम रहा । पर अफसोस अब कोई परात भर कर लडडू बांटने वाला नहीं था । मैं कमरा बंद कर खूब रोता अपनी ऐसी सफलता पर जिसे कोई देखने वाला नहीं था । महाविद्यालय की पत्रिका का छात्र संपादक भी रहा । यहीं से संपादन में रूचि बढ़ी । फिर बीएड में भी छात्र संपादक । इसी प्रकार गुरु नानक देव विश्वविद्यालय की प्रभाकर परीक्षा में स्वर्ण पदक पाया । हिंदी एम ए की हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में ।
बात साहित्य की करें । मेरे परिवार का साहित्य से दूर दूर तक नाता नहीं था लेकिन ‘हिंदी मिलाप’ अखबार प्रतिदिन घर में आता था , जिसे मैं जरूर पढता था । उसमें फिक्र तौंसवीं का व्यंग्य काॅलम ‘प्याज के छिलके’ बहुत पसंद आता । ‘वीर प्रताप’ अखबार ने मुझे नवांशहर का बालोद्यान का संयोजक बना रखा था । यह अखबार इस नाते फ्री घर में डाला जाता था । इस तरह दो अखबार पढने को मिलते । रेडियो खूब सुनता । बाल कहानियों को जरूर सुनता । दादी भी सर्दियों में अंगीठी के आसपास बिठा कर कहानियां सुनाती । वही राजकुमार, राजकुमारियों के किस्से । पर हर राजकुमार किसी न किसी राजकुमारी को राक्षस की चंगुल से छुडाकर लाता । बस । ‘दरवाजा कौन खोलेगा’ कथा संग्रह में मैंने भूमिका में यही लिखा कि हर जगह राक्षस है । राजकुमारी कैद है । राजकुमार का संघर्ष है । यही जीवन है ।
मेरी पहली रचना ‘नयी कमीज’ जनप्रदीप समाचार-पत्र में प्रकाशित हुई । पिता जी मेरी पुरानी कमीज नौकर के बेटे के लिए ले गये थे । वह गांव भर में नाचता फिरा और मन ही मन शर्मिंदा होकर सोचता रहा कि हमारी उतरन भी नौकर के बेटे की खुशी का कारण बन सकती है ? समाजसेवा का भाव जगा । मैं सन् 1979 से लेकर 1990 तक खटकड कलां में प्रिंसिपल रहा । साथ में चंडीगढ से प्रकाशित ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का आंशिक संवाददाता भी । मेरी रूचि साहित्य के साथ साथ पत्रकारिता में जुनून की हद तक बढती चली गयी । मेरे पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर लिखी : एक संवाददाता की डायरी कहानी को सारिका में तो नीले घोडे वाले सवारों के नाम’, कहानी को धर्मयुग ने जुलाई, 1982 के अंकों में प्रकाशित किया । पहली बार पता चला कि लेखक की फैन मेल क्या होती है । प्रतिदिन औसतन दो तीन पत्र इन कहानियों पर मिलते । तब मैंने सोचा कि कम लिखो और कोशिश कर अच्छा लिखो । इसी प्रकार ‘कथा बिम्ब’ में प्रकाशित कहानी : सूनी मांग का गीत पर भी अनेक पत्र मिले । कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, अज्ञेय व श्रीपत राय के संपादन में कहानियां प्रकाशित होने का सुख मिला । श्रीपत राय ने तो एक वर्ष में मेरी आठ कहानियां प्रकाशित कीं । मुलाकात के दौरान उलाहना दिया कि बारह कहानियां क्यों नहीं लिखीं ? इस प्रोत्साहन से ज्यादा क्या चाहिए ? ज्यादा लेखन का कोई तुक नहीं । मेरे कथा संग्रह बडे़ रचनाकारों के सुझावों पर प्रकाशित हुए । बिना कुछ रकम दिए ।
सन् 1975 में मैं केंद्रीय हिंदी निदेशालय की ओर से अहिंदी भाषी लेखकों के अहमदाबाद में एक सप्ताह के लिए लगने वाले लेखक शिविर के लिए चुना गया । तब राजी सेठ वहीं रहती थीं और उन्होने भी इस शिविर में भाग लिया और उनकी पहली कहानी ‘क्योंकर’ कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी । राजन सेठ के नाम के नाम से । लड़कों जैसा नाम होने के कारण उन्होंने अपना नाम राजी सेठ कर लिया । विष्णु प्रभाकर हमारी कहानी की क्लास लेते थे । इन दोनों से मेरा व्यक्तिगत परिचय तब से चला आ रहा है । विष्णु जी के बाद उनके परिवार से जुड़ा हुआ हूं । विष्णु जी के अनेक इंटरव्यूज प्रकाशित किए । तीन बार आमंत्रित भी किया क्योंकि संयोगवश हिसार पोस्टिंग हो जाने पर पता चला कि हिसार में अपने मामा के पास विष्णु जी ने पढ़ाई की । नौकरी की और साहित्यिक यात्रा शुरू की । बीस वर्ष यहीं गुजारे पर सीआईडी के पीछे लग जाने से दिल्ली चले गये और फिर नहीं लौटे । हां , हिसार के प्रति लगाव बहुत अधिक । आमंत्रण पर नंगे पाँव दौड़े आते । ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कथा समारोह में आए । जब उन्हें मान सम्मान की राशि का लिफाफा सौंपा तो स्नेह से भावुक होकर बोले -तेरे जैसा शिष्य भी सौभाग्य से मिलता है ।
मेरे जीवन में कहानी लेखन में रमेश बतरा का बहुत बडा योगदान है । चंडीगढ हम लोग इकट्ठे होते और रमेश का कहना था कि यदि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना । लगातार नयी कहानी। फिर वह ‘सारिका’ में उपसंपादक बन कर चला गया । जहां भी संपादन किया मेरी रचनाएं आमंत्रित कीं । ‘कायर’ लघुकथा उसके दिल के बहुत करीब थी । वह कहता था कि यदि मैं विशव की श्रेषठ लघुकथाओं को भी चुनने लगूं तो भी इसे रखूंगा । वरिष्ठ कथाकार राकेश वत्स की चुनौती भी बडी काम आई । वे एक ही बार नवांशहर आए और देर रात शराब के हल्के हल्के सरूर में जब चहलकदमी के लिए निकले तब वत्स ने मुझे और मुकेश सेठी को कहा कि मैं आपको कहानीकार कैसे मान लूं ? आपकी कहानियां न सारिका में , न धर्मयुग और हिंदुस्तान में आई हैं । फिर रमेश को बताया । उसने भी कहा कि वत्स की इस बात को और चुनौती को स्वीकार करो । फिर क्या था ? सारिका, नया प्रतीक, कहानी में स्थान मिला । अनेक अन्य भाषाओं में कहानियां अनुवादित हुईं । रमेश असमय चला गया । अब कोई दबाव नहीं । कोई चुनौती भी नहीं । कहानी भी नहीं । पहला कथा संग्रह ‘महक से ऊपर’ राजी सेठ के स्नेह से डाॅ महीप सिंह ने प्रकाशित किया : अभिव्यंजना प्रकाशन से । ‘महक से ऊपर’ । रॉयल्टी भी मिली और पंजाब भाषा विभाग से सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार भी । पहली कृति पर पुरस्कार और रॉयल्टी । नये कथाकार को और क्या चाहिए ?
सन् 1990 में ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के संपादक राधेश्याम शर्मा और समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर दैनिक ट्रिब्यून में मुझे पूर्णकालिक चाहते थे । मार्च माह की पहली तारीख को प्रिंसिपल, शिक्षण व अध्यापन को अलविदा कहने के बाद पत्रकारिता में आ गया । ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का कथा कहानी पन्ना संपादित करने का अवसर मिला । कश्मीर से दिल्ली तक के कथाकारों से काफी जानने और मिलने का मौका मिला । कथा व लघुकथा को विशेष स्थान दिया । इस बीच मेरे लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद, इस बार तो कथा संग्रह मां और मिट्टी, जादूगरनी , शो विंडो की गुडिया आदि प्रकाशित हुए । मजेदार बात है कि साहित्य में मुझे लघुकथाकार ही समझा जा रहा है जबकि मेरे छह कथा संग्रह हैं । जहां तक कि ग्रंथ अकादमी के लिए कथा संकलन संपादित करने वाले ज्ञान प्रकाश विवेक मेरा कथा संग्रह दरवाजा कौन खोलेगा पढ कर हैरान रह गये और फोन पर कहा कि यार , मुझे बहुत हैरानी हुई कि लोग आपको लघुथाकार ही क्यों मानते हैं ?
मुझे हिसार में ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के स्टाफ रिपोर्टर के रूप में अवसर मिला एक नये प्रदेश और संस्कृति को जानने का । इस दौरान डाॅ नरेंद्र कोहली के सुझाव पर मेरा कथा संग्रह ‘एक संवाददाता की डायरी’ तो डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरता के सुझाव पर जादूगरनी , ‘शो विंडो की गुडिया’ कथा संग्रह चंडीगढ के अभिषेक प्रकाशन से आए । ऐसे थे तुम , इतनी सी बात , मां और मिट्टी, दरवाजा कौन खोलेगा जैसे संकलन भी पाठकों तक पहुंचे ।
इस तरह अब तक मेरे सात कथा संग्रह और पांच लघुकथा संग्रह हैं । ‘एक संवाददाता की डायरी’ को अहिंदी भाषी लेखन पुरस्कार योजना में प्रथम पुरस्कार मिला और सबसे सुखद क्षण जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों यह पुरस्कार मिला । किसी रचनाकार के हाथों पुरस्कार मिलना आज भी पुलक से भर देता है । अटल जी ने वह संग्रह पढ़ने के लिए मंगवाया भी ।
काॅलेज छात्र के रूप में खुद की पत्रिकाएं प्रयास, पूर्वा और प्रस्तुत प्रकाशित कीं । दैनिक ट्रिब्यून से त्यागपत्र दिलवा कर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा मुझे नवगठित हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर ले गये । नयी अकादमी की कथा पत्रिका ‘कथा समय’ का संपादन किया । नये रचनाकारों को स्थान देना सदैव मुझे अच्छा लगता है । वरिष्ठ रचनाकारों की कहानियां भी दीं । नेहा शरद, शेखर जोशी , अमरकांत, नरेंद्र कोहली, राजी सेठ, वीरेंद्र मेंहदीरता, निर्मल वर्मा, रविंद्र कालिया, ममता कालिया की चुनी हुई कहानियां दीं ।
अब अकादमी के पद से मुक्त हूं । हिसार के एक प्रतिष्ठित सांध्य दैनिक नभछोर में प्रतिदिन संपादकीय आलेख और साहित्य हिसार का देखता हूं । अनेक यात्राएं करता हूं । साहित्यिक संस्थाओं के आमंत्रण पर अलग अलग मित्र बनते हैं । सीखने की कोशिश करता हूं । पुरस्कारों की सूची से कोई लाभ नहीं होगा । जो मुझे पढ़ते हैं , वही मेरा पुरस्कार हैंं । मेरे लघुकथा संग्रह ‘इतनी सी बात’ का फगवाड़ा के कमला नेहरू काॅलेज की प्रिंसिपल डाॅ किरण वालिया ने ‘ऐनी कु गल्ल’ के रूप में पंजाबी में अनुवाद करवा कर प्रकाशित करवाया । इसी प्रकार मेरा कथा संग्रह ‘मां और मिट्टी’ नेपाली में अनुवाद हुआ । यह सुखद अनुभूति किसी पुरस्कार से कम नहीं । मैं एक बात महसूस करता हूं और कहता भी हूं कि मैंने कम लिखा क्योंकि सन् 1982 में मंत्र मिल गया लेकिन मुझे उससे ज्यादा सम्मान मिला । मेरी इंटरवयूज की पुस्तक : यादों की धरोहर जालंधर के आस्था प्रकाशन से आने के बिल तीन तीन संस्करण आ चुके हैं । इसमें एक पत्रकार के रूप में अच्छे , नामवर साहितयकारों , रंगकर्मियों , पत्रकारों व संस्कृति कर्मियों के इंटरव्यूज शामिल हैं जो समय समय पर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के लिए किए गए थे । शीघ्र ही इंडियानेटबुक्स से महक से ऊपर का दूसरा संस्करण आयेगा । पत्रकारिता में भी ग्रामीण पत्रकारिता पर हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से तो साहित्यिक पत्रकारिता पर हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिले । रामदरश मिश्र की ये पंक्तियां बहुत प्रिय हैं :
मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी
मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे
जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे, ,,
इसी प्रकार अज्ञेय जी की ये पंक्तियां भी बहुत हौंसला देती हैं :
कहीं न कहीं
हरे-भरे पेड़ अवश्य ही होंगे
नहीं तो थका हारा बटोही
अपनी यात्रा जारी क्यों रखता ,,,,,
सच साहित्य ने क्या नहीं दिया ? जब मेरी बडी बेटी रश्मि रोहतक के पीजीआई में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी तब पुस्तक मेले से पुस्तकें लाकर उसके पास बैठ कर पढ़ता था । जब छोटी बेटी प्राची चंडीगढ़ के पीजीआई में तेइस दिन ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रही थी तब मैने तीन कहानियां लिखी थीं । यह साहित्य ही है जो दुख के समय मेरे काम आता रहा है । जब पिता , दादा और दादी नहीं रहे थे तब एक चौदह वर्ष के बालक को साहित्य ने सहारा दिया ।
सच अज्ञेय जी सही लिखते हैं : दुख सबको मांझता है । अमोघ शक्ति है साहित्य । साहित्यकार का सपना होता है कि कुछ लिखकर समाज को संदेश दे ।
मुंशी प्रेमचंद का मंत्र है कि साहित्यकार सुलाने के लिए नहीं , समाज को जगाने के लिए है ।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा
बहमनी और विजयनगर साम्राज्यों की सीमा कृष्णा नदी निर्धारित करती थी। कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे तक बहमनी साम्राज्य की सीमा थी और दक्षिणी किनारे से विजयनगर साम्राज्य आरम्भ होता था। कृष्णा नदी पश्चिमी घाट के महाराष्ट्र में महाबलेश्वर पर्वत की कंदराओं से निकलती है। जहाँ पर्यटक अक्सर घूमने जाते हैं। कृष्णा नदी की उपनदियों में कुडाळी, वेण्णा, कोयना, पंचगंगा, दूधगंगा, तुंगभद्रा, घटप्रभा, मलप्रभा, मूसी और भीमा प्रमुख हैं। कृष्णा नदी के किनारे विजयवाड़ा एंव मूसी नदी के किनारे हैदराबाद स्थित है। इसके मुहाने पर बहुत बड़ा डेल्टा है। इसका डेल्टा भारत के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है। कृष्णा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है। कृष्णा नदी 1400 किलोमीटर यात्रा तय करके हर मान सून में उपजाऊ डेल्टा प्रदान करती है। सबसे ऊँचा चिनाई नागार्जुन सागर बांध नरगुण्डा जिले में इसी नदी पर बना है। इस इलाक़े में दुनिया की सबसे तीखी मिर्च की खेती होती है। विजयनगर साम्राज्य की उन्नति से बहमनी साम्राज्य के विखंडन से पैदा हुए चारों मुस्लिम राज्यों को मिर्ची लगती थी।
दिल्ली के तुगलक वंश के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ़ इस्माइल मुख के विद्रोह से बहमनी सल्तनत (1347-1518) अस्तित्व में आया था। इसकी स्थापना 03 अगस्त 1347 को एक तुर्क-अफ़गान सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह ने की थी। 1518 में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप – गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर के मुस्लिम राज्यों का उदय हुआ।
हिन्दू विजयनगर साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था। कृष्णदेवराय ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह को बुरी तरह परास्त किया। रायचूड़, गुलबर्गा और बीदर आदि दुर्गों पर विजयनगर की ध्वजा फहराने लगी। किंतु प्राचीन हिंदु राजाओं के आदर्श के अनुसार महमूदशाह को जीता हुआ इलाका लौटा दिया। इस प्रकार कृष्णदेवराय यवन राज्य स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की।
तालीकोटा की लड़ाई के समय सदाशिव राय (1542-1570) का शासन चल रहा था। सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य के कठपुतली शासक थे। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ में थी। सदाशिव राय दक्कन की इन सल्तनतों को पूरी तरह से कुचलने की योजना बना रहा था। इन सल्तनतों को विजयनगर के मंसूबे के बारे में पता चल गया। उन्होंने एकजुट होकर लड़ने की योजना बनाई। बीजापुर के अली आदिल शाह प्रथम, गोलकुंडा के इब्राहिम कुली क़ुतुब शाह, अहमदनगर के हुसैन निज़ाम शाह प्रथम और मराठा मुखिया राजा घोरपड़े की संयुक्त सेना ने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। विजयनगर साम्राज्य और दक्कन सल्तनत की सेनाओं के बीच भयानक लड़ाई हुई, जिसे ‘तालिकोटा की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है।
तालिकोटा का मैदान हम्पी से 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के किनारे था। कृष्णा नदी के दक्षिणी किनारे पर राक्षस-तांगड़ी नामक दो गावं के बीच का खुला मैदान तालिकोटा के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ यह लड़ाई हुई थी। सदाशिव राय साम्राज्य के प्रधान थे, उन्होंने तालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर साम्राज्य की सेना का नेतृत्व किया था।
15 सितंबर 1564 को दशहरा के दिन राम राय ने दरबार में विचार-विमर्श के पश्चात आदेश दिया कि सभी दरबारी अपनी सेनाओं को लेकर तालीकोटा के मैदान में एकत्रित हों। 26 दिसंबर 1564 को संयुक्त मुस्लिम फ़ौज कृष्णा नदी के उत्तरी किनारे पर पहुँच गईं। दक्षिणी किनारे पर राम राय के सेनापतित्व में विजयनगर सेना उनका इंतज़ार कर रही थी। लड़ाई शुरू होने के पहले नदी पार करने को लेकर छुटपुट भिड़ंत होती रहीं। दोनों सेनाएँ एक महीने तक जासूसों के माध्यम से शक्ति संतुलन तौलती रहीं। निजाम शाह और क़ुतुब शाह ने नदी पार करके हमला करने की कोशिश में मार खाई और वे वैसा खेमे में लौट गए। मुस्लिम सेना ने बदली व्यूह रचना के मुताबिक़ युद्ध भूमि से हटकर दोनों तरफ़ से सशस्त्र घुड़सवार नदी पार करके दक्षिणी किनारे पर उतारे। उन्होंने बिच्छू डंक योजना के मुताबिक़ दोनों तरफ़ से विजयनगर सेना को घेरे में ले लिया।
23 जनवरी 1565 को कृष्णा नदी पर दोनों सेनाओं की भिड़ंत हुई। इतिहासकार स्वेल और फ़रिश्ता के अनुसार राम राय हुसैन निजाम शाह के आमने-सामने था और उनका भाई तिरुमला उनके दाहिनी तरफ़ बीजापुर फ़ौज के सामने, दूसरा भाई वेंकटद्रि अहमदाबाद-बिदर-गोलकुंडा के संयुक्त सेना के सामने से भिड़े। भयानक लड़ाई होने लगी। विजयनगर सेना का पड़ला भारी था। तभी दो घटनाओं में युद्ध का मुख मोड़ दिया। विजयनगर सेना के दो मुस्लिम सेनानायक जिहाद के नारे लगाते हुए, दगा करके मुस्लिम सेना के साथ हो गए। दूसरा, नदी पार करके आए घुड़सवारों ने विजयनगर सेना पर पीछे से घातक हमला कर दिया। विजयनगर की सेना तितर बितर हो गई। सैनिक जान बचा कर भागने लगे।
युद्ध के दौरान राम राय के जिन दो मुस्लिम सेना नायकों ने अचानक पक्ष बदल लिया था और वे मुस्लिम हमलावरों से जा मिले। इन दोनों ने राम राय को पकड़ लिया। निजाम शाह ने तलवार से राम राय का सर काट कर उसे भाले की नोक पर उठाकर युद्ध जीतने की घोषणा कर दी। राम राय का भाई तिरुमला किसी तरह हम्पी पहुँच खजाना और राज स्त्रियों को लेकर दक्षिण की तरफ़ पेनुगोंडा पहुँच राजा बनने की घोषणा कर सेना इकट्ठी करने लगा। लेकिन विजयनगर साम्राज्य इस हार से कभी उभर नहीं सका और धीरे-धीरे पतन की गर्त में चला गया।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 209 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆ गीता जशी समजली तशी… – मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक – भाग – ४ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆
मला आवडलेले गीतेतील पाच श्लोक
गीता हा अर्जुनाला पुढे करून सर्व मानव जातीला केलेला उपदेश आहे. ते आचरण शास्त्र आहे. त्यातील सर्वच श्लोक सारख्याच महत्त्वाचे आहेत. त्यामुळे त्यात सरस-निरस ठरवणे कठीण. तरीही ७०० श्लोकातून माझ्या दृष्टीने महत्त्वाचे वाटलेले पाच लोक निवडण्याचा प्रयत्न मी केला. त्यातील पहिला श्लोक म्हणजे उन्नतीचा मंत्रच व स्वावलंबनाचा धडा
१) उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् l
आत्मैव ह्यात्मनो बंन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:ll(६/५)
माणसाने स्वतः स्वतःचा उद्धार करावा. स्वत:च स्वतःच्या नाशाला कारण होऊ नये. प्रत्येक जण आपणच आपला बंधू (हित करणारा) आणि आपणच आपला शत्रू (अधोगती करणारा )असतो.
यातून लक्षात येते की प्रत्येकाने आपल्यातील दोषांकडे दुर्लक्ष न करता ते घालवण्याचा व सद्गुण जोपासण्याचा प्रयत्न करावा म्हणजेच बंधू व्हावे. ‘ जो दुसऱ्यावरी विसंबला त्याचा कार्यभाग बुडाला’ हेच येथे लक्षात ठेवावे. उच्च स्थितीला पोहोचावे व यशस्वी व्हावे.
अशा प्रकारे स्वतःच्या उद्धारासाठी कर्म करत असताना कोणते पथ्य पाळावे हे सांगणारा दुसरा श्लोक
२) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन l
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते सङ्गोsस्त्वकर्मणी ll(२/४७)
कर्म करत असताना कर्त्याची भूमिका कशी असावी याची चार सूत्रे येथे सांगितली आहेत. कर्म करण्याचा तुला अधिकार आहे, त्याच्या फळाविषयी कधीही नाही. कर्मफलाच्या इच्छेने कर्म करणारा होऊ नको. तसेच ते न करण्याच्या आग्रहही नको.
कर्म केल्याशिवाय कोणीही राहू शकत नाही. म्हणून स्वधर्माने प्राप्त झालेले कर्म उत्तम प्रकारे आचरावे. पण त्याचे फळ मिळणे आपल्या हातात नसते. फळ मिळणे हा भविष्यकाळ आहे. त्यात रमून वर्तमानातील कर्मावर दुर्लक्ष करू नये. कामातील आनंद घ्यावा. कर्मफल काहीही मिळो, त्याला कारण मी असे समजून कर्तुत्व अभिमान घेऊ नये. येथे अकर्म म्हणजे कर्म न करणे. मी कर्मच करत नाही म्हणजे फळाचा प्रश्न नाही असा विचार करून कर्म त्यागणे अयोग्य आहे.
अशा प्रकारे केलेले कर्म ईश्वरार्पण कसे करावे हे पुढील श्लोकात.
३) यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्l
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्ll (९/२७)
भगवंत अर्जुनाला सांगतात तू जे कर्म करतोस, जे खातोस, जे हवन करतोस, जे दान देतोस, जे तप करतोस ते मलाच अर्पण कर. माणसाची कर्मे ही साधारणपणे चार प्रकारची असतात आहार, यज्ञ, दान आणि तप. कर्म अर्पण करणे म्हणजे त्यातील कर्तृत्व भाव अर्पण करणे व फळ प्रसाद रूपाने ग्रहण करणे. यज्ञ म्हणजे फळांचा काही भाग समाजासाठी अर्पण करणे. दान म्हणजे सत्पात्री व्यक्तीला योग्य काळी शक्य ती मदत करणे आणि तप म्हणजे शरीर, मन आणि वाणी यांनी केलेली साधना. या सर्व ज्यावेळी भगवंतासाठी होतात, निस्वार्थ बुद्धीने अपेक्षा रहित होतात, तेव्हा प्रत्येक कर्म म्हणजे त्याची पूजा होते. त्याची प्राप्ती करून देणारे होते. बंध निर्माण होत नाही. अशीही कर्मा मागची खूबी व भक्तीचे व्यापकपण.
अशाप्रकारे कर्म करण्याचा अधिकार कोणाकोणाला आहे भगवंत सांगतात
४) मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येsपि स्यु: पापयोनय: l
हे अर्जुना, स्त्रिया, वैश्य, शूद्र तसेच पापयोनी कुणीही असो माझ्या आश्रयाला आले असता परमगतीला प्राप्त होतात. म्हणजे भगवंत प्राप्तीचा अधिकार सर्वांना आहे. तेथे कोणताही भेदभाव नाही. म्हणून सर्व जातीत आणि स्त्रिया सुद्धा संत पदाला पोचल्या. त्यांनी भगवंताची प्राप्ती करून घेतली. जो त्याच्या आश्रयाला जातो तो त्याचाच होतो. वेदाने जे अधिकार नाकारले ते गीतेने मिळवून दिले. म्हणून शबरी अनन्य भक्तीने मुक्त झाली व वाल्याचा वाल्मिकी झाला. आपणही जातीपातीवरून भेदभाव करू नये. सर्वाभूती परमेश्वर लक्षात घ्यावे.
गीता ग्राह्य व अग्राह्य दोन्ही गोष्टी सांगते. कोणत्या गुणाचा त्याग करावा म्हणजे सत मार्ग सापडतो त्याचे मार्गदर्शन गीता करते.
काम क्रोध आणि लोभ ही तीन प्रकारची नरकाची द्वारे आहेत. आपला नाश करणारी आहेत. म्हणून या तिघांचा त्याग करावा.
हे तीनही तामसी गुण आहेत. माणसाच्या अधोगतीला कारण होणारे आहेत. मोठे मोठे विद्वानही यांच्या अधीन होऊन आपल्याच अपयशाला कारण झाले. उदाहरणार्थ विश्वामित्र (काम), दुर्वास (क्रोध). अतृप्त इच्छा क्रोधाला जन्म देतात. त्या कामना पूर्ण करण्यासाठी द्रव्यासक्ती निर्माण होते हाच लोभ. त्यासाठी अवैध मार्गाचाही अवलंब केला जातो. परिणामतः नरकासारख्या हीन अवस्थेत राहण्याची वेळ माणसावर येते. म्हणून योग्य वेळीच विवेक व वैराग यांच्या बळावर या तीनही टाळाव्या व मिळेल त्यात सुखी समाधानी राहावे.
अशा प्रकारे स्वतः स्वतःचे हित साधणे. फलेच्छारहित कर्म करणे. ते ईश्वरा अर्पण करणे. असे कर्म कोणीही करू शकतात. मात्र तेथे लोभ नको. हा मार्ग सुख समाधान देणारा. म्हणून मला हे पाच श्लोक आवडले. नित्य आचरणात आणण्यासारखे आहेत.
☆ बालमनाचा शोध घेणाऱ्या नाट्यछटा – लेखिका : सुश्री रेश्मा संतोष चव्हाण ☆ परिचय प्रा. भरत खैरकर☆
पुस्तक : बालमनाचा शोध घेणाऱ्या नाट्यछटा
कवी : सुश्री रेश्मा संतोष चव्हाण
नुकतचं एक छोटेखानी पुस्तक वाचण्यात आलं.. “मलाही काही सांगायचयं… ” सौ. रेश्मा संतोष चव्हाण ह्या शिक्षिकेचं हे नाट्यछटेचं पुस्तक.. हाती घेतल्यावर वाचकाला त्याच्या बालपणात घेऊन जातं.. एका दमात वाचून काढल्याशिवाय राहवत नाही..
दिवाकरांची “बोलावणं आल्याशिवाय नाही.. ” ही नाट्यछटा वाचून प्रोत्साहित.. प्रेरित.. झालेल्या लेखिकेने अशा अनेक छोट्या छोट्या नाट्यछटा लिहून वाचकाला अगदी खिळवून ठेवले आहे.. छोट्या वीस नाट्यछटा ह्या पुस्तकात आपण वाचू शकतो..
” फ्रेंडशिप डे” मधून लहान मुलांचं भावविश्व उलगडून दाखविलं आहे.. मित्रांबद्दलचे लहान मुलांचे विचार आणि मोठ्यांमधला फ्रेंडशिपडेचा उत्साह याची छान तुलना ह्या नाट्यछटेत आहे.. “घरातला भ्रष्टाचार” नावाची नाट्यछटा, छोट्या मोठ्या कामासाठी आपण कसे पॉकेट मनी मागतो किंवा हलक्याफुलक्या कामासाठी कशी घरातली मंडळी एकमेकांना वापरते.. लहानांना वापरतात.. हा एक भ्रष्टाचारच आहे. असं काहीसं मजेशीर वर्णन आपण ह्यात वाचू शकतो..
पंढरपूर आळंदी सारख्या ठिकाणी गेल्यावर मंदिराच्या बाहेरील गंध लावणारी मुले आणि त्यांचे भाव विश्व “देवाचं गंध” ह्या नाट्यछटेत आपण वाचू शकतो..
ह्या मुलांचा प्रामाणिकपणा आणि अगतिकतेतून आलेली गंध लावायची वेळ आपणास हेलावून सोडते.
“कचरा उचलणारी मुलं” बघितल्यावर त्यांच्याहीकडे लक्ष देण्याची गरज आहे, असं सांगत त्यांचं बालमन कसं शाळेच्या गेटवर उरलेल्या छोट्या पेन्सिलचे तुकडे.. रबराचे तुकडे.. डब्यात ही मुलं जमा करतात व शाळेशी संबंध प्रस्थापित करतात असं काहीसं मन हेलावणार “मलाही खूप शिकायचं” ही नाट्यछटा सांगून जाते.
“मी बोलतोय डोमकावळा” ही नाट्यछटा तर मनुष्याच्या जीवनात असलेलं कावळ्यांचं महत्व वाचकाला समजावून देते. वर्षश्राद्धांच्या दिवसांमध्ये पितृपक्षात कशी आमची मौज असते हे कावळ्यांच्या तोंडून ऐकण्याची मजा औरच आहे.. ” दाराचे कुलूप” ही नाट्यछटा आधुनिक कुटुंब व त्यात होणारी मुलांची घुसमट आपणांसमोर मांडते.. कॉम्प्युटर गेम आणि कॅंडी क्रश मध्ये अडकलेल्या मुलांना.. कुलूप बंद दाराआड पालक कसे गुंतवतात.. हे वाचून मन विषण्ण होते.
” मुलीसारखं जगू दे” या नाट्यछट्टेमध्ये एका मुलीनंतर आपल्याला मुलगा पाहिजे होता तरी मुलगीच झाली म्हणून अट्टाहासापोटी त्या मुलीला मुलाचा पेहराव आणि मुलांसारखं चालचालन शिकविणारी आई व ती मुलगी यांचा संघर्ष दाखविला आहे..
” समजूतदार” असण्याचे किती तोटे असतात हे सांगताना छोटी मुलगी आपला सगळेजण कसे वापर करतात तरीही ते आपणास किती छान वाटतं! हे तिचं बालमन वाचकांशी बोलतं. ” मोर नाचतो मनी” ही पौगंडावस्थेत असलेल्या.. आलेल्या.. मुला-मुलीचं भावविश्व सांगणारी सुंदर अशी नाट्यछटा आहे. ह्यामधून लेखिका विद्यार्थ्यांचे मानसशास्त्र जपणारी.. जाणणारी.. आहे हे लक्षात येतं.
” मधली सुट्टी” मध्ये बाईसोबत डबा खाण्याची कशी मज्जा असते.. शिवाय त्याक्षणी बाई.. वर्गातल्या बाई पेक्षा कशा वेगळ्या असतात! हे विद्यार्थी- शिक्षिकेचं नातं.. शब्दापलीकडचं आहे हे सांगून जातं. ” वृद्धाश्रम” ही अजून एक नाट्यछटा.. ज्या मुलांना अनाथाश्रमातून आणलं.. त्यांनीच आपल्या बापाला वृद्धाश्रमात ठेवावं हे दुर्दैव मांडणारी आहे..
” लग्नाला नको ग बाई” मधील मुलगी मोठ्यांच्या मध्ये फसल्यावर तिला तिच्या आवडीच्या.. बाजूच्या गोष्टी करता येत नाही.. ते दुःख याठिकाणी व्यक्त करते. ‘हे नको करु.. ते नको करू’ असे सांगणारे पालक तिच्या मनाचा विचार करत नाही हे मांडलेले आहे.
” येळ नाय मला” मधल्या एका कामवालीचा तोरा बघण्याजोगा आहे.. ती किती बिझी आहे हे फारच छान पद्धतीने लेखिकेने वर्णन केलेला आहे.. तिचा बाज आणि ठसका व्यवस्थित सांभाळण्यात आला आहे. ” सायंटिस्ट व्हायचं मला” ह्या नाट्यछटेत ‘काड्या करणाऱ्या मुलाचं’ वर्णन आहे.. कुकरच्या शिट्टीला फुगा लावून तो फुगवायचा.. अशी अफलातून सायंटिफिक आयडिया त्याच्या डोक्यात येते.. ती वाचून वाचक चकित होतात!
” माऊली” नावाची शेवटची सायकल रुपी नाट्यछटा मुलांना आपल्या वस्तूची देखभाल कशी करावी.. हे शिकून जाते..
एकूणच ह्या पुस्तकांमध्ये आलेल्या सर्वच नाट्यछटांची भट्टी एकदम मस्त जमली आहे.. लेखिकेने पंधरा ते सोळा वर्षापर्यंतच्या मुलांचा विचार करून लिहिलेल्या ह्या नाट्यछटा खरंच वाचनीय आहे.. वाचकाला त्या आपल्या बालपणामध्ये फिरवून आणतात.. बालपणात घेऊन जातात.. हे पुस्तक सर्व प्राथमिक.. माध्यमिक शाळांमध्ये असावे इतके सुंदर आहे.. मुलांकडून जर ह्या नाट्यछटा करून घेतल्या तर.. बऱ्याच अंशी “संस्कार” व “शिकवण” देण्याची ताकद ह्यात असल्याचं लक्षात येईल.. लेखिकेला पुढच्या वाटचालीसाठी शुभेच्छा..
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नसीहत बनाम तारीफ़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 263 ☆
☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆
‘नसीहत वह सच्चाई है, जिसे हम कभी ग़ौर से नहीं सुनते और तारीफ़ वह धोखा है, जिसे हम पूरे ध्यान से सुनते हैं’–जी हाँ! यही है हमारे जीवन का कटु सत्य। हम वही सुनना चाहते हैं, जिसमें हमें श्रेष्ठ समझा गया हो; जिसमें हमारे गुणों का बखान और हमारा गुणगान हो। परंतु वह एक धोखा है, जो हमारे विकास में बाधक होता है। इसके विपरीत जो नसीहत हमें दी जाती है, उसे हम ग़ौर व ध्यान से कभी नहीं सुनते और न ही जीवन में धारण करते हैं। नसीहत हमारे भीतर के सत्य को उजागर करती है और हमें सही राह पर चलने को प्रेरित करती है; पथ-विचलित होने से हमारी रक्षा करती है। परंतु जीवन में चमक-दमक वाली वस्तुएं अधिक आकृष्ट करती हैं, क्योंकि उनमें बाह्य सौंदर्य होता है। यही आज के जीवन की त्रासदी है कि लोग आवरण को देखते हैं, आचरण को नहीं।
‘आवरण नहीं, आचरण बदलिए/ चेहरे से अपने मुखौटा उतारिए/ हसरतें रह जाएंगी मुंह बिचकाती/ तनिक अपने अंतर्मन में तो झांकिए।’ ये स्वरचित पंक्तियां जीवन के सत्य को उजागर करती हैं कि हमें चेहरे से मुखौटा उतार कर सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए। हमारे हृदय की वे हसरतें, आशाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं पीछे रह जाएंगी; उनका हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा, क्योंकि झूठ हमेशा पर्दे में छिप कर रहना चाहता है और सत्य अनेक परतों को उघाड़ कर प्रकट हो जाता है। भले ही सत्य देरी से सामने आता है और वह केवल उपयोगी व लाभकारी ही नहीं होता; हमारे जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है तथा उसकी सार्थकता को नकारने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। सत्य सदैव कटु होता है और उसे स्वीकारने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसलिए सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा साहित्य में वर्णित है, जो सबके लिए मंगलकारी है। सत्य सदैव शिव व सुंदर होता है, जो शुभ तथा सर्वजन- हिताय होता है।
सौंदर्य के दो रूप हैं–बाह्य व आंतरिक सौंदर्य। बाह्य सौंदर्य रूपाकार से संबंध रखता है और उसमें छल की संभावना बनी रहती है। इस संदर्भ में यह कथन सार्थक है– ‘Beautiful faces are always deceptive.’ क्योंकि जो चमकता है, सदैव खरा व सोना नहीं होता। उस पर भरोसा करना आत्म-प्रवंचना है। यदि सोने को कीचड़ में फेंक दिया जाए, तो भी उसकी चमक-दमक कम नहीं होती और हीरे के जितने भी टुकड़े कर दिए जाएं; उसकी कौंध भी यथावत् बनी रहती है। इसलिए आंतरिक सौंदर्य अनमोल होता है और मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों का संचय करना चाहिए। प्रसाद जी भी जीवन में दया, माया, ममता, स्नेह, करूणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग आदि की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे जीवन को केवल सुंदर ही नहीं बनाते; आलोकित व ऊर्जस्वित भी करते हैं। वास्तव में वे अनुकरणीय जीवन-मूल्य हैं।
जीवन में दु:ख व करुणा का विशेष स्थान है। महादेवी जी दु:ख को जीवन का अभिन्न अंग स्वीकारती हैं। क्रोंच वध को देखकर बाल्मीकि जी के मुख से जो शब्द नि:सृत हुए, वे ही प्रथम श्लोक के रूप में स्वीकारे गये। ‘आह से उपजा होगा गान’ भी यही दर्शाता है कि दु:ख, दर्द व करुणा ही काव्य का मूल है और संवेदनाएं स्पंदन हैं, प्राण हैं। वे जीवन को संचालित करती हैं और संवेदनहीन प्राणी घर-परिवार व समाज के लिए हानिकारक होता है। वह अपने साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। जैसे सिगरेट का धुआं केवल सिगरेट पीने वाले को ही नहीं; आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। उसी प्रकार सत्साहित्य व धर्म-ग्रंथों को उत्कृष्ट स्वीकारा गया है, क्योंकि वे आत्म-परिष्कार करते हैं और जीवन को उन्नति के शिखर पर ले जाते हैं। इसलिए निकृष्ट साहित्य व ग़लत लोगों की संगति न करने की सलाह दी गई है और बुरी संगति की अपेक्षा अकेले रहने को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। श्रेष्ठ साहित्य मानव को शीर्ष ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्य की सीख देते हैं, क्योंकि समन्वय के अभाव में जीवन में संतुलन नहीं होगा और दु:ख अनवरत आते रहेंगे। सो! मानव को सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और दु:ख में विचलित होने से परहेज़ रखना चाहिए। यहां मेरा संबंध अपनी तारीफ़ सुनकर फूलने से है। वास्तव में वे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमारी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं तथा उन शक्तियों व गुणों को दर्शाते हैं;जो हमारे भीतर होती ही नहीं। यह प्रशंसा का भाव हमें केवल पथ-विचलित ही नहीं करता, बल्कि इससे हमारी साधना व विकास के पहिये भी थम जाते हैं। हमारे अंतर्मन में अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हृदय में संचित स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि दैवीय भाव इस प्रकार नदारद हो जाते हैं, जैसे वह उनका आशियाँ ही न हो।
वास्तव में निंदक व प्रशंसा के पुल बांधने वाले हमारे शत्रु की भूमिका अदा करते हैं। वे नीचे से हमारी सीढ़ी खींच लेते हैं और हम धड़ाम से फर्श पर आन पड़ते हैं। इसलिए कबीरदास जी ने निंदक को सदैव अपने अंग-संग रखने की सीख दी है, क्योंकि ऐसे लोग अपना अमूल्य समय लगाकर हमें अपने दोषों से परिचित कराते हैं; जिनका अवलोकन कर हम श्रेष्ठ मार्ग पर चल सकते हैं और समाज में अपना रुतबा क़ायम कर सकते हैं। सो! प्रशंसक निंदक से अधिक घातक व पथ का अवरोधक होते हैं, जो हमें अर्श से सीधा फर्श पर धकेल देते हैं।
हम अपने स्वाभावानुसार नसीहत को ध्यान से नहीं सुनते, क्योंकि वह हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराती है। वैसे ग़लत लोग सभी के जीवन में आते हैं, परंतु अक्सर वे अच्छी सीख देकर जाते हैं। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ग़लती बेशक भूल जाओ, लेकिन सबक अथवा नसीहत हमेशा याद रखो, क्योंकि दूसरों के अनुभव से सीखना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कला है।’ इसलिए जीवन में जो आपको सम्मान दे; उसी को सम्मान दीजिए, क्योंकि हैसियत देखकर सिर झुकाना कायरता का लक्षण है। आत्मसम्मान की रक्षा करना मानव का दायित्व है और जो मनुष्य अपने आत्म- सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह किसी अन्य के क्या काम आएगा? सो! विनम्र बनिए, परंतु सत्ता व दूसरों की हैसियत देखकर स्वयं को हेय समझ, दूसरों के सम्मुख नतमस्तक होना निंदनीय है, कायरता का लक्षण है।
इच्छाओं की सड़क बहुत दूर तक जाती है। बेहतर यही है कि ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं। जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लेते हैं तो तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं प्रकट होती। सो! जब हमारे मन में आत्म-संतोष का भाव व्याप्त होता है; हम किसी को अपने से कम नहीं आंकते। सो! झुकने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?
अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि संवाद में विश्वास रखें, विवाद में नहीं, क्योंकि विवाद से मनमुटाव व अंतर्कलह उत्पन्न होता है। हम बात की गहराई व सच्चाई से अवगत नहीं हो पाते और हमारा अमूल्य समय नष्ट होता रहता है। संवाद की राह पर चलने से रिश्तों में मज़बूती आती है तथा समर्पण भाव पोषित होता है। इसलिए हमें दूसरों की नसीहत पर ग़ौर करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मानव को जीवन में जो अच्छा लगे; अपना लेना चाहिए तथा जो मनोनुकूल न हो; मौन रहकर त्याग देना चाहिए। सो! प्रोत्साहन व प्रशंसा के भेद को समझना आवश्यक है। प्रोत्साहन हमें ऊर्जस्वित कर बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है, वहीं प्रशंसा का भाव हमें फ़र्श पर ला पटकता है। यदि प्रशंसा गुणों की जाती है तो सार्थक है और हमें अच्छा करने को प्रेरित करती है। दूसरी ओर यदि प्रशंसा दुनियादारी के कारण की जा रही है, उसके परिणाम विध्वंसक होते हैं। जब हमारे भीतर अहम् रूपी शत्रु प्रवेश पा जाता है तो हम अपनी ही जड़ें काटने में मशग़ूल हो जाते हैं। हम अपने सम्मुख दूसरों के अस्तित्व को नकारने लगते हैं तथा अपने सब निर्णय दूसरों पर थोप डालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने आदेशों के अनुपालना न होने पर हम प्रतिपक्षी के प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करते। हर चीज की अधिकता बुरी होती है, चाहे अधिक मीठा हो या अधिक नमक। अधिक नमक रक्तचाप का कारण बनता है, तो अधिक चीनी मधुमेह का कारण बनती है। सो! जीवन में संतुलन रखना आवश्यक है। जो भी निर्णय लें–उचित- अनुचित व लाभ-हानि को देख कर लें अन्यथा वे बहुत हानि पहुंचाते हैं। ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही न ज़िंदगी को रुसवा कीजिए/ हसरतें न रह जाएंगी दिल में अधूरी/ कभी ख़ुदा से भी राब्ता किया कीजिए। ‘जी हां! आत्मावलोकन कीजिए। विवाद व प्रशंसा रूपी रोग से बचिए तथा दूसरों की नसीहत को स्वीकारिए, क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का अनुसरण करते हैं और जीवन में खुशी व सुक़ून से जीवन जीते हैं। कोई सराहना करे या निंदा–लाभ हमारा ही है, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है तो निंदा सावधान होने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए मानव को अच्छी नसीहतों को विनम्र भाव से जीवन में धारण करना चाहिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 25
दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ
विधा- कविता
कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।
इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।
रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।
कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-
प्रकृति का अनुपम शृंगार,
हमें मिला अद्भुत उपहार,
कण-कण रोमांचित करती हुई,
बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।
ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।
डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –
मानो कोई नटखट बालक,
मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।
इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।
कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-
जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,
अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,
आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,
वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।
शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।
संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो, न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-
अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।
प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।
कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।
कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-
प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।
डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –
ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,
फूलों की जगह ।
शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆