हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #173 ☆ अनुभव और निर्णय ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 173☆

☆ अनुभव और निर्णय 

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #171 ☆ कविता – आराधना… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “आराधना…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 171 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – आराधना… ☆

करते हैं सदा ध्यान

मिलता है हमें ज्ञान

तुम्हारे ही प्रभु नाम का

करती हूँ।

गुणगान

हूँ मैं याचक

तेरी आराधना करती हूँ।

मैं राधा भी हूँ, मीरा भी हूँ

प्रणय का भाव रखती हूँ।

न रहे कभी भाव का आभाव

यही प्रभु आपसे आराधना करती हूँ।

जो दीन है हीन है।

जो भटके हुये है

जो तेरे दर पर नहीं रख पाते सर अपना।

रास्ता उनको दिखाओ सही अपना।

यही प्रभु आराधना करती हूँ।

जीवन एक संघर्ष है।

चहुँ ओर झंझावात है

कहीं घात प्रतिघात है।

रहे सदा सदभावना

मन में

रहे सिर्फ हर्ष ही हर्ष

यही प्रभु आपसे आराधना करती हूँ

करती हूँ यही कामना।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #158 ☆एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 158 ☆

एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

याद आपकी आती रही रात भर

दिल मेरा गुदगुदाती रही रात भर

सपनों में  तेरे इस कदर खो  गए

चाँदनी  मुस्कराती  रही  रात भर

इश्क  में  तेरे बदनाम हम हो गए

दूरियां  हमें  डरातीं  रहीं  रात भर

यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे

आँख मेरी डबडबाती रही रात भर

हवा भी अब  प्रेम  गीत  गाने लगी

छूकर  हमें  लुभाती  रही  रात भर

खुद की बेबसी पर चुप हम हो गये

दुनिया  हमें  हँसाती  रही  रात भर

उनके कदमों की आहट जब भी सुनी

नींद “संतोष” न आती रही रात भर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #165 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिना निमित्त – आधार ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 165 – विजय साहित्य ?

☆ आधार ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

(अंतरराष्ट्रीय महिला दिना निमित्त कवितेचा यथोचित सन्मान)

मी एक स्त्री

माझं अस्तित्व

नाही कुणाची परंपरागत मालकी.

मी आहे बाई माणूस

आहे माझ्यातही

कर्तृत्व गाजवणारे शौर्य..!

 

मला  जगायचे आहे

मानानं,स्वाभिमानांन

जाज्वल्य आणि अस्मितेनं..!

राखायचे आहे घरदार..

जागतिक महामारी संकटात

बाळगायची आहे

सावधानी वारंवार ..!

 

मला सावरायचं आहे

माझं कुटुंब..पती.. मुलं

सासू सासरे..

आप्तेष्ट गोतावळा

आणि द्यायचा आहे आकार

माझ्या वर्तमानाला..!

निरामय आरोग्यात

रहायचे आहे मला

सेवा आणि भुतदयेनं

जबाबदारी आणि

कर्तव्य परायणतेनं

जिंकायचं आहे..

माझ्यातलं बाईपण मला…!

 

मला आहे जगायचे

एका एका श्वासासाठी..

वासंनांध नजरेला

द्यायची आहे मूठमाती..

त्यांच्याच आयाबहिणी

सुरक्षित रहाव्या म्हणून

शिकवायचाय धडा..

स्त्री ला अबला समजणाऱ्या

कर्तृत्वहीन भेकड पुरुषांना..!

 

मला द्यायची आहे सोडचिठ्ठी

रिती,रिवाज आणि

हुंडाबळी सारख्या भूतकाळाला.

द्यायची आहे दिशा

माझ्या उज्ज्वल भविष्याला..

 

दाखवायाची आहे

माझ्या त्या कलागुणांची

तेजोमय कलाप्रभा..

करायचे आहे साकार

माझ्याच ध्येयांकित वर्तमानाला..

आणायचाय खेचून

आत्मनिर्भर भारत..

माझ्यातलं बाईपण जपणारा…

 

मला  जगायचे आहे..

माझ्या मनाचं तारूण्य

आणि भावभावनांचं सौंदर्य

अबाधित राखण्यासाठी

मला रहायचं नाही निराधार

बनायचं आहे आधार…

बाईपण हरवलेल्या अन्

स्त्रीत्वं हिरावून घेतलेल्या

अनेकानेक माय भगिनींचा…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा १ ते ४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा १ ते ४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ (अनेक देवता सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – १ ते ४ अश्विनीकुमार; ५ ते ८ सवितृ;

९ ते १० अग्नि; ११ – देवी; १२ – इंद्राणी; १३, १४ द्यावापृथिवी;

१६ ते २१ विष्णु; : छंद – गायत्री

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील बावीसाव्या  सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे अनेक देवता सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिल्या चार ऋचा अश्विनीकुमारांचे, पाच ते आठ या ऋचा सवितृ देवतेचे, नऊ आणि दहा ऋचा अग्नीचे आवाहन करतात. अकरावी ऋचा देवीचे, बारावी ऋचा इंद्राणीचे तर तेरा आणि चौदा या ऋचा द्यावापृथिवीचे आवाहन करतात. कण्व ऋषींनी या सूक्तातील सोळा ते एकवीस या ऋचा विष्णू देवतेच्या आवाहनासाठी रचलेल्या आहेत. 

या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी अश्विनीकुमारांना उद्देशून रचलेल्या पहिल्या चार ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद 

प्रा॒त॒र्युजा॒ वि बो॑धया॒श्विना॒वेह ग॑च्छताम् अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑

प्रातःकाळी शकट जोडुनी सिद्ध होत अश्विन

जागृत करि निद्रेतुनिया त्यांच्या जवळी जाउन

झणी घेउनी यावे त्यांना अमुच्या यज्ञाला

आम्हा हो ते प्राप्त कराया अर्पण सोमरसाला ||१||

या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑ अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे

महारथी ते चंडप्रतापी अजिंक्य असती रणी

दिव्य रथावर आरुढ होती सहजी रणांगणी

द्युलोकाप्रत जाऊन भिडती कुमार ते अश्विनी

उभय देवतांनो झणी यावे हो अमुच्या या यज्ञी ||२||

या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम्

ऐकुनिया रव अश्विनांच्या शकट प्रतोदाचा

सोमरसाला सिद्ध करूनी तुमच्या स्वागताला

आशा जागृत होइल सत्य तत्वांचा लाभ 

तुम्हा कृपेने वाहुदेत सुखसमृद्धीचे ओघ ||३||

न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः अश्वि॑ना सो॒मिनो॑ गृ॒हम्

आरूढ होउनि रथावरती तुम्ही अश्विन देवा

त्वरित धावता ज्या भक्ताने केला तुमचा धावा 

भक्ताचा त्या निवास आहे जवळी सन्निध

ज्याने तुमच्यासाठी केले सोमरसाला सिद्ध ||४||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. )

https://youtu.be/vYklP6fMug0

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 1 to 4

Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 1 to 4

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ हा माझा मार्ग एकला… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ हा माझा मार्ग एकला… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

हा माझा मार्ग एकला.. आता  तुम्ही कुणीच येऊ नका माझ्या सोबतीला. घेतलीय काठी माझ्या आधाराला. येथून पुढच्या प्रवासात मीच ऐकेन माझ्याच संवादाला. आपुलाच संवाद आपुल्याशी,आत्मसंवाद. करेन सारीच उजळणी गत आयुष्याची, काय मिळविण्यासाठी किती दयावे लागले याच्या जमाखर्चाची. हाती उरले ते काय आणि सोबत नेतोय काय याच्या खातरजमेची. मागे आता माझे उरले आहे इतिहासातले फक्त पिकलेले पान..तुमच्या नव्या पिढीच्या शिलेदारांना दिलाय मी जीवनाचा मंत्र  खरा.. ज्यात मिळेल फक्त सात्त्विक समाधान तोच राजमार्ग धरा..तेच  मला गवसले  म्हणून तर या एकलेपणाच्या पथावर मन:शांतीचे दिप उजळले.. या निर्जन एकांतात देखिल मनास भीतीचा लवलेशही स्पर्शून जात नाही… आणि मनही कशातही गुंतून राहिले नाही.. सगळे काही आलबेल नव्हते जीवनात, संघर्षाविना सहजी नव्हते नशिबात.षडरिंपूच्या मातीचच देह होता माझा,  भोवतालच्या माया , ममता, माणूसकिच्या  संस्काराने प्रोक्षळला गेला तो.. मग मी ही त्यात वाटत चालत होतो. खारीचा माझा  वाटा मी पण माणूसच होतो तर मी कसा राहावा एकटा.. परंपरेची भोयी खांद्यावर घेऊन संसाराची पालखी  मिरविली. कष्टाचे उद धूप जाळले  संसारा बरोबर समाजाचे मंदिरही उजाळले. नैवैधयाची भाजी भाकरी महाप्रसाद म्हणूनी वाटली..जो जो आला भेटला तोषविले त्याला त्याला..तृप्तात्मयाच्या आर्शिवादाने भरून गेली झोळी.. सुख शांतीचा बुक्का लागला कपाळी.. तोच विठूरायाने दिली वारीची हाळी.. हा मग मी निघलो सर्व संग परित्याग करुनी.हा वेड्यानो अश्रू नका आणू नयनी…हा माझा मार्ग एकला.. आता  तुम्ही कुणीच येऊ नका माझ्या सोबतीला. घेतलीय काठी माझ्या आधाराला. येथून पुढचा प्रवासात मीच ऐकेन माझ्याच संवादाला.. .

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 139 ☆ जन जागरूकता बढ़ती रहे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जन जागरूकता बढ़ती रहे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 139 ☆

☆ जन जागरूकता बढ़ती रहे  ☆

न नुकुर करते पूरा समय बीतता जा रहा है किन्तु वे टस से मस न हुए, ऐसा किसी व्यक्ति के साथ नहीं बल्कि पूरी उस सामाजिक सोच  के साथ है, जो समय के साथ बदलना ही नहीं चाहती। बस एक जैसा जीवन व्यतीत करते हुए पूरी उम्र बीती जा रही है। जिन मुद्दों को स्वतंत्रता के पूर्व उठाया गया था वही आज भी चले आ रहे हैं। जनता नए विचारों को आत्मसात करती जा रही है, किन्तु कुछ दल आज भी वही पुराना घोषणा पत्र, वही घिसे पिटे तर्क। अब कौन उन्हें समझाए कि  आज हम लोग डिजिटल हो चुके हैं सब कुछ गूगल से सर्च करके ही प्रत्याशी का चयन करते हैं। विभिन्न दलों के प्रवक्ता अपने दलों के समर्थन में जो तर्क देते हैं उन्हें सत्यता की कसौटी में परख कर ही चयन करते हैं। पहले कहा जाता था कि नेता पाँच साल में एक बार मुँह दिखाते हैं किन्तु अब ऐसा नहीं रहा, आगामी चुनावों की तैयारी में पूरा शीर्ष नेतृत्व 24×7, 365 दिन लगा रहता है। अब सबको समझ में आ गया है कि एक- एक पल का हिसाब  जनता  रखती है।

सच्चे मायनों में यही श्रेष्ठ लोकतंत्र का लक्षण है। लोक का ध्यान रखने वाली सरकार ही चुनी जाएगी। लोगों के मन से भय चला जाए, वे निर्भीक होकर  अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकें। सबको समान मौलिक अधिकार मिलें, सभी शिक्षित हों।

अब हम लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी वैचारिक सोच को रख कर निर्णय लेने लगें हैं। वैसे भी सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुंबकम, तमसो मा ज्योतिर्गमय हमारी परंपरा का हिस्सा रहे हैं और रहेंगे भी। तो आइए सद्विचारों के पोषक बनें और सही निर्णय लेने की ओर सदैव अग्रसर रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 199 ☆ व्यंग्य – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   व्यंग्य  – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 199 ☆  

? व्यंग्य – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन – ?

विश्व पुस्तक मेले का हाल नंबर 2 हिंदी प्रकाशकों के स्टॉल्स से भरा हुआ है। प्रत्येक प्रकाशक के पास कविता के बाद संभवतः व्यंग्य की ही सर्वाधिक पुस्तकें हों, संकलन या व्यक्तिगत किताबें खूब छप रही हैं। आई एस बी एन सहित और बिना इसके भी। अनेक ओहदों वाले जिनके पास समय ही नहीं, वे भी रातों रात बड़े लेखक बने दिखते हैं।

मेरे पास एक प्रकाशक का प्रस्ताव आया था की मैं कोई सौ पृष्ठ व्यंग्य भेज दूं और राशि ले लूं, घोस्ट राइटर के रूप में। अर्थात व्यंग्यकार के रूप में खुद को स्थापित करने की चाहत रखने वाले हैं, जो बडी राशि देकर घोस्ट राईटिंग खरीद रहे हैं।  ठीक हो सकता है कि ऐसा लेखन जो महज रुपयों या नाम हेतु हो साहित्य  की शास्त्रीयता को नुकसान पहुंचा सकता है।

अन्यथा किसी भी विधा की लोकप्रियता उसे बढ़ाती ही है नुकसान नहीं पहुंचाती।

क्रिकेट का उदाहरण सर्वाधिक सरल है उसकी बढ़ती लोकप्रियता ने नए फार्मेट लाए, खिलाड़ियों को शोहरत और रुपए दिलवाए, किंतु क्रिकेट तो क्रिकेट ही है उसे नुकसान नहीं पहुंचा। टेस्ट मैच की शास्त्रीयता अपनी जगह है ही। इसी तरह साहित्य यदि मौलिक है तो जितना अधिक लिखा जाए, बेहतर ही  होगा।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 150 ☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 150 ☆

☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गुड़िया रानी समझदार हैं

     भोली- भाली पर हैं छोटी।

 

बहुत देर में भोजन करतीं

      थोड़ा खातीं फल औ’ रोटी।।

 

स्वयं कभी ना भोजन खाएँ।

      बाबा, दादी उन्हें खिलाएँ।

 

जॉब करें मम्मी औ’ पापा।

     लेकिन जल्दी खोएँ आपा।।

 

अक्सर होती है तकरार।

     गुड़िया का दोनों से प्यार।।

 

गुड़िया माँ- पापा से बोली।

     बातों में मिसरी – सी घोली।।

 

नहीं सुहाए मुझको झगड़ा।

   मैं डर जाती जब हो तगड़ा।।

 

कोमल मन है मेरा समझो।

     खुशियों को बाँटों ना गम दो।।

 

 समझ गए गुड़िया की बात।

      कटें प्रेम से दिन औ’ रात।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #151 ☆ नरहरी दास…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 151 ☆ नरहरी दास…! ☆ श्री सुजित कदम

विश्व कर्मा ब्राह्मणात

जन्मा आले नरहरी

वंश परंपरा थोर

श्रद्धा भक्ती परोपरी..! १

 

कर्ते मुरारी अच्युत    

आणि कृष्णदास हरी

पणजोबा आजोबांची

कृपादृष्टी सर्वांवरी…..! २

 

सोनाराच्या व्ववसायी

पारंगत नरहरी

मुळ नाव महामुनी

शैव उपासना करी….! ३

 

संत नरहरी यांसी

जाहलासे साक्षात्कार

शिव विठ्ठल एकच

ईशकृपा चमत्कार….! ४

 

पांडुरंग परमात्मा

तोच शिव भगवान

नरहरी सोनारांस

प्राप्त झाले दिव्य ज्ञान. ५

 

शैव वैष्णवांचा  त्यांनी

दूर केला विसंवाद

अध्यात्मिक अभंगाने

नित्य साधला संवाद .. !  ६

 

शतकात  चौदाव्या त्या

शिवभक्ती आचरीली

संसारीक कार्य सिद्धी

सदाचारे स्विकारीली…! ७

 

उदावंत कुलातील 

शिवभक्त चराचरी

संकीर्तनी असे दंग

अहोरात्र नरहरी…! ८

 

असे कुशल सोनार        

 निर्मीतसे अलंकार

हरी आणि हर दोघे

परब्रम्ह अवतार….! ९

 

शिव पिंडीमध्ये पाही

विठ्ठलाचे निजरुप

वैष्णवांचा दास सांगे

हरीहर एकरुप…! १०

 

एका सोनसाखळीने

घडविला चमत्कार

पाही रूप नरहरी

शिव पांडुरंगा कार…! ११

 

समरसतेचा पंथ

नाही मनी कामक्रोध

केला प्रचार प्रसार

भक्ती मार्ग नितीबोध…! १२

 

केली प्रपंचात भक्ती

अक्षरांत विठू माया

अभंगात गुंफीयली

दैवी हरीहर छाया…! १३

 

ज्ञानयोगी कर्मयोगी

नऊ दशके प्रवास

सुवर्णाचे अलंकार

अनुभवी शब्द खास…! १४

 

माघ कृष्ण तृतीयेला

पुण्यतिथी महोत्सव

हरिऐक्य दिन जगी

सौख्य शांतीचा उत्सव…! १५

 

पंढरीत महाद्वारी

समाधिस्थ नरहरी

नोंद भक्ती भावनांची

अभंगात दिगंतरी…! १६

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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