☆ सुखद सफर अंदमानची… भाग – २ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆
फ्लॅगपॉईंट
श्रीविजयानगर, अर्थात पोर्ट ब्लेअर.
वीर सावरकर हवाई अड्ड्यावर पंधरा जानेवारीला सकाळी साडे सहा वाजता आम्ही उतरलो. वीर सावरकर हवाई अड्डा हे नाव वाचताना मराठी असल्याचा अभिमान वाटला. समोरचा सावरकरांचा पुतळा बघून नतमस्तक होणार नाही असा एकही मराठी माणूस मिळणार नाही.
अंदमान निकोबारची राजधानी असलेलं हे ठिकाण. या मातीत पाऊल ठेवताना मान ताठ होते. उर देशाभिमानानं दाटून येतो
30 डिसेंबर 1943 ला इथं नेताजी सुभाषचंद्र बोस यांनी पहिल्यांदा तिरंगा फडकावला. अंदमान ब्रिटिश राजवटीतून मुक्त झाल्याची वार्ता हा तिरंगा सगळ्या जगाला सांगत होता. भारताला स्वातंत्र्य मिळण्यापूर्वी नेताजींच्या सेनेनं अंदमान स्वतंत्र केलं होतं. तो Flag point बघायला आम्ही संक्रातीच्या सरत्या संध्यासमयी गेलो होतो. काही वेळा पूर्वी सेल्युलर जेल बघून आलो होतो. अजून ते बघताना अंगावर आलेले रोमांच तसेच होते. स्वातंत्र युद्धाचा तो दैदीप्यमान इतिहास आणि तो काळ नजरेसमोर बिनचूक उभा करणारा तो लाईट एँड म्युझिक शो यांचा मनावर आणि शरीरावर झालेला परिणाम तेवढाच तीव्र होता. साखळदंडाचे आवाज कानात घुमत होते. इंग्रज अधिकाऱ्यांचे गडगडाटी सातमजली हास्य विसरणं शक्यच नव्हतं. जेलच्या प्रांगणातील पिंपळाच्या पानांची सळसळ धमन्यांतून वाहणाऱ्या रक्तात भिनली होती. हा इतिहास जिवंत ठेवण्यासाठी आजच्या भारतीयांना तो ऐकवण्यासाठी हा पिंपळ इथं ताठ उभा आहे. जाज्वल्य देशाभिमान असाच प्रज्वलित ठेवणाऱ्या पटांगणातील त्या दोन अखंड हुतात्मा ज्योती प्रत्येक भारतीय मनात हा इतिहास जागा ठेवतात. सात बाय साडेतीनची ती अंधारी कोठी, तिथंच जेवण, तिथंच झोप, शारीरिक विधींसाठी वेगळी व्यवस्था नाही. तांबरलेल्या लोखंडी थाळीत वाढलेलं बेचव कोरडं अन्न ज्यात अळ्या आणि किड्यांचं साम्राज्य. नाक दाबून प्यावं तरी पिऊ शकणार नाही असं घाणेरडा वास असलेलं पाणी प्यायला. हे सगळं कमी म्हणून दिवसभर शेकडो हजारो शहाळी सोलणं, काही टन तेल काढण्यासाठी कोलू ओढणं, पाठीवर आसूडाचे फटके झेलणं. हे सगळं कशासाठी तर मातृभूमीला स्वतंत्र करण्यासाठी. आपल्याच देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देण्यासाठी आपल्याच देशात असंख्य कोवळ्या हातांनी कोलू ओढले. साखळदंडांनी बद्ध असलेल्या हातापायांनी, ज्या बेड्या हालचाल केल्यास
हातापायांना जखमा करत असत. नुसतं ऐकून श्वास रोखला जातो, मन बधीर होतं. वेड लागेल असं वाटतं. पण हा सिनेमा नाही. किंवा ही काही काल्पनिक कथा कादंबरी नाही. हा खराखुरा इतिहास आहे स्वातंत्र्य चळवळीचा, हे सत्य आहे बलिदानाचं, ही सत्यकथा आहे वेड्या साहसी वीरांची. आज त्यांच्या मुळंच आपण स्वतंत्र भारतात ताठ मानेने जगू शकतो.
150 फूट उंच तिरंगा वाऱ्यावर लहरत होता. समुद्राच्या लाटा ओढीनं त्याच्या चरणाकडं धाव घेत होत्या. त्याला स्पर्श न होऊ देता ध्वजस्तंभापासून काही अंतरावर येऊन पुन्हा समुद्रमय होत होत्या. त्यांचा लयबद्ध आवाज गंभीर तरीही मोदमय होता. अभिमानानं जणू वंदे मातरम म्हणत असाव्यात. बंगालचा उपसागर अजूनही तो दिवस विसरला नाही. 2018 मध्ये पंतप्रधान मोदींनी पुन्हा एकदा तिथं ध्वजारोहण केलं आणि नेताजींना आदरांजली म्हणून या फ्लॅग पॉईंटचं पुनर्निर्माण पुनर्जीवन केलं. आज तो पॉईंट एक देखणं प्रेक्षणीय स्थळ आहे. इथं छानशी चौपाटी आहे. आमच्यातल्या एकीचा, सौ स्वाती मेहता हिचा वाढदिवस त्या दिवशी होता. तिरंग्याच्या साक्षीनं तो साजरा झाला. अहो भाग्यम्!! आपल्या तीन मुलींना घेऊन स्वतःच्या लग्नाची एनिव्हर्सरी साजरी करायला अंदमानला येण्याची कल्पना केवढी रोमांचकारक. पण… पण ती पाहण्याचं भाग्य आम्हाला लाभलं किंबहुना ती कल्पना प्रत्यक्षात आली ते आणि ते केवळ या वीरांच्या समर्पणानं, त्यागानं, अचाट देशप्रेमामुळंच हे विसरून चालणार नाही.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
अपनी धरती, अपने लोग थे। यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था। वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी। ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी। दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था। बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी। कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी। यहां बच्चे किलकारियां भरते थे। किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं। वह भी मुस्करा दी। फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी। जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया। परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली- “या अल्लाह रहम कर। साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?”
– “कुछ नहीं।”
– “कुछ तो है। आप फरमाइए।”
– “इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल … कल यह घर किसका होगा? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का। इस घर में इंसान कब बसेंगे ???”
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२० ☆ श्री सुरेश पटवा
दोपहर होने को थी। हमारी परीक्षा लेने के लिए दिनकर पूरी चमक से सिर के ऊपर तांडव नृत्य कर रहे थे। पानी की बोतलें खाली होने लगी थीं। लोग दूसरों की बोतलों को चाहत भरी निगाह से देखने लगे थे। तभी भीड़ की चाल सुस्त हुई और रुकावट आ गई। ज़ाहिर था कि मनुष्यों का ट्रैफ़िक जाम हो गया था। यह तो ठीक था कि सीढ़ियों के आसपास घने पेड़ की छाँह थी। कुछ उत्साही युवक इन पेड़ों की शाख पकड़ कर सीढ़ियों से हटकर पत्थरों पर चढ़ बंदरों की तरह चढ़ने-उतरने लगे। हमने उन बंदरों से ट्रैफ़िक जाम का कारण पूछा। उन्होंने बताया चढ़ने और उतरने वाली भीड़ सामने-सामने जम गई है। जब बहुत देर होने लगी, तो हम सीटी बजाते हुए बंदरों की तरह पत्थरों से कूदकर आगे बढ़े। काफ़ी मेहनत मशक्कत के बाद ट्रैफ़िक जाम स्थान पर पहुँच सीटी बजा-बजा कर एक तरफ़ का रास्ता खुलवाया। ट्रैफ़िक चालू हो गया। भलमनसाहत में एक अजनबी ने पानी भी पिलवा दिया। थोड़ी देर में हमारे साथी भी आ मिले।
एक साथी ने पूछा – इंद्र के बारे में कुछ और बताइए। ये पौराणिक कथाओं में हर कहीं प्रकट क्यों हो जाते हैं। महाभारत में अर्जुन के पिता बनकर आ जाते हैं।
हमने कहा – देखो भाई, इंद्र बड़ा रोचक चरित्र है। पौराणिक साहित्य में इन्द्रियों का स्वामी सत्ता लोभी वर्णित है। जैसे हम सभी इन्द्रिय लोभी हैं। इंद्र की सत्ता लोलुपता इससे पता चलती है कि वह अपनी पुत्री जयंती को शुक्राचार्य की तपस्या भंग करने भेजता है। यह जयंती को पसंद नहीं है, परंतु पिता की आज्ञा पालन हेतु वह शुक्राचार्य की सेवा करके दस वर्ष बिताती है। दोनों के संसर्ग से देवयानी का जन्म होता है। जिसका विवाह महाभारत के एक प्रमुख चरित्र ययाति से होता है। जो इंद्र सत्ता के कारण पुत्री तक को दाव पर लगा सकता है, वह नेताओं की तरह कुछ भी कर सकता था। इसी से उसकी सत्ता लोलुपता का पता चलता है। भारतीय दर्शन में ब्रह्म विचार आने के पश्चात विष्णु के अवतार मात्र अवतार ना रहकर ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। तब कृष्ण इंद्र की सत्ता की चुनौती देकर गिरिराज होकर इंद्र की पूजा स्थगित करवाते हैं। याने इंद्र की सत्ता के ऊपर ब्रह्म की सत्ता स्थापित होती है।
एक अन्य साथी ने पूछा- ‘हनुमान जी को बजरंग क्यों कहा जाता है ?
हमने बताया – हनुमान वानर के मुंह वाले अत्यंत बलशाली पुरुष हैं। जिनका शरीर वज्र के समान है। इंद्र का वज्र अस्त्र बहुत शक्तिशाली है। इंद्र के वज्र अस्त्र के वार से हनुमान के मुँह से सूर्य देव मुक्त तो हुए लेकिन उनकी देह वज्र की होने से उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ था। उनका अंग वज्र का था। वज्र+अंग = वज्रांग अर्थात् वजरंग हुआ। अवधी में ‘व’ शब्द नहीं होता ‘ब’ होता है। इसीलिए तुलसीदास जी ने हनुमान की महिमा और शक्तियों का बखान करने के लिए बजरंग बाण रचा था।
बन उपबन मग गिरि गृह माही, तुम्हरे बल हम डरपत नहीं।
अपने जन को तुरत उबारौ, सुमिरत होय आनंद हमारौ।
यह बजरंग बाण जेहि मारै, ताहि कहौ फिरि कौन उबारै।
पाठ करै बजरंग बाण की, हनुमत रक्षा करै प्रान की।
यह बजरंग बाण जो जापै, तासौं भूत प्रेत सब काँपै।
धूप देय जो जपै हमेशा, ताके तन नहि रहे कलेशा।
ध्यान दीजिए अवधी में वन को बन और उपवन को उपबन लिखा है। इस तरह वजरंग जी बजरंग जी हुए। आदमियों की तरह शब्द भी बहरूपिए होते हैं। अब देखो, बजरंग से एक शब्द गढ़ लिया ‘बजरंगी भाईजान’| इस नाम से फ़िल्म भी बन गई, और खूब चली। बजरंगी भाईजान पासपोर्ट-वीसा के बिना पाकिस्तान तक हो आए। यह फ़िल्म पाकिस्तान में भी खूब देखी गई। आख़िर वो लोग भी हैं तो हिंदुस्तानी ही, अपने सदियों पुराने मन से बजरंग को कैसे निकाल सकते हैं।
इसके बाद हनुमान जन्म कथा चर्चा चल पड़ी। उनको बताया कि यहाँ भी इंद्र की भूमिका है। पुंजिकथला नाम की एक अप्सरा थी जो इंद्र के दरबार में नृत्य किया करती थी। पुंजिकथला जिसे पुंजत्थला भी कहा जाता है, एक बार धरती लोक में आई। महर्षि दुर्वासा एक नदी के किनारे ध्यान मुद्रा में तपस्या कर रहे। पुंजत्थला ने उन पर बार-बार पानी उछाला, जिससे उनकी तपस्या भंग हो गई। तब उन्होंने पुंजत्थला को शाप दे दिया कि तुम इसी समय वानरी हो जाओ। वह उसी समय वानरी बन गई और पेड़ों पर इधर उधर घूमने लगी। देवताओं के बहुत विनती करने के बाद ऋषि ने उन्हें बताया की इनका दूसरा जन्म होगा और यह वानरी ही रहोगी लेकिन अपनी इच्छा के अनुसार अपना रूप बदल सकेगी।
केसरी सिंह नाम के एक राजा वन में एक मृग का शिकार करते ऋषि आश्रम पहुंचे। वह मृग घायल था और वह ऋषि के आश्रम में छुप गया ऋषि ने राजा केसरी से कहा कि तुम मेरे आश्रम से इसी समय अतिशीघ्र चले जाओ नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा। यह सुनकर केसरी हँसने लगे और बोले ‘मैं किसी शाप को नहीं मानता।’ क्रोध में आकर ऋषि ने उन्हें भी शाप दे दिया और कहा कि ‘तुम बांदर हो जाओ’ उधर पुंजत्थला भी बांदरी थी।
इन दोनों ने भगवान शिव की तपस्या की भगवान शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम अगले जन्म में वानर के रूप में ही जन्म लोगे। तुम दोनों को एक पुत्र होगा जो बहुत तेजस्वी और बहुत पराक्रमी होगा जिनका नाम युगों युगों तक लिया जाएगा फिर उन दोनों वानरों का शरीर वही पर त्याग कर दोनों ने अलग-अलग रूप में अलग-अलग राज्य में जन्म लिया। जिसमें केसरी वासुकि नाम के एक राजा के यहां जन्म लेकर वह वानरों के राजा बना और पुंजत्थला पुरू देश के राजा पुंजर के यहां जन्मी।
पुराणों के अनुसार समुद्रमंथन के बाद शिव जी ने भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखने की इच्छा प्रकट की। उनका वह आकर्षक रूप देखकर वह कामातुर हो गए, और उनका पुंसत्व तिरोहित हो गया। वायुदेव ने शिव जी के अंश को वानर राजा केसरी की पत्नी अंजना के गर्भ में पवन देव द्वारा स्थापित कर दिया। इस तरह अंजना के गर्भ से वानर रूप हनुमान का जन्म हुआ, इसलिए उन्हें शिव का 11 वां रूद्र अवतार माना जाता है। साथ में पवन पुत्र भी कहा जाता है।
वृतांत मिलता है कि महाराज पुंजर ने अपनी बेटी अंजना का विवाह महाराज वासुकि के पुत्र केसरी से किया कुछ दिनों के उपरांत उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम वज्रअंग अर्थात् बजरंगबली हनुमान केसरी नंदन आदि नामों से जाना जाता है उन्हें पवन पुत्र भी कहा जाता है क्योंकि हनुमान जी के पालनहार वायु देवता ही हैं उन्होंने हनुमान जी को जन्म से लेकर हमेशा उनका साथ दिया है और उनका पालन पोषण भी वायु देवता के निकट ही हुआ है इसलिए उनको पवन पुत्र भी कहा जाता है और यह थी माता अंजना की विस्तृत कहानी। हनुमान के अलावा अंजना के गर्भ से पांच पुत्रों का भी जन्म हुआ था। जिनके नाम हैं, मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान, धृतिमान।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – कामना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 219 ☆
☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कामना… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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चाह नहीं मेरी कि मुझको मिले कहीं भी बड़ा इनाम
इच्छा है हो सादा जीवन पर आऊँ जन-जन के काम ॥
निर्भय मन से करूँ सदा कर्त्तव्य सभी रह निरभिमान
सेवाभाव बनाये रक्खे मन में नित मेरे भगवान ॥
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रहूँ जगत् के तीन-पाँच से दूर मगर नित कर्म-निरत
भाव कर्म औ’ मन से जग में करता रहूँ सभी का हित ॥
मन में कभी विकार न उपजे, देश प्रेम हो सदा प्रधान
सद्विचार का रहूँ पुजारी, बुद्धि सदा यह दें भगवान ॥
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख पुरुष वर्चस्व और नारी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 270 ☆
☆ पुरुष वर्चस्व और नारी… ☆
पितृसत्तात्मक युग के पुराने क़ायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरुष को सर्वश्रेष्ठ समझ समस्त अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे विवशतापूर्वक आज तक बजाना पड़ रहा है। तदोपरांत उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह अब गृहस्थी के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी; उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ता-उम्र नाचेगी; उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी…जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसके लिए तो हर हुक्म बजाना अपेक्षित है… दासी और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना उसकी मात्र नियति है। इस संदर्भ में सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ वनवास झेला और लक्ष्मण- रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम …सीता-हरण और आगे की कथा से तो आप सब परिचित हैं। ज़रा स्मरण कीजिए– शापित अहिल्या को, जिसे उसके पति त्रषि गौतम के श्राप-स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने वेश बदल कर उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। छल भी पुरुष द्वारा और उद्धारक भी पुरुष ही… इससे अंदाज़ लगा सकते हैं आप उसके दबदबे का, उसकी सर्वमान्य सर्वोच्च सत्ता का। महाभारत की पात्र द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीरहरण हुआ। प्रश्न उठता है, क्या किसी ने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका और उनकी निंदा की? शायद सब मर्यादा से बंधे थे और समर्पित थे राज्य के प्रति… सो! अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राजसभा में उपस्थित हर शख्स अंधा था, नपुंसक था, साहसहीन था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठजन भी अपनी पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे… आखिर क्यों? क्या उनका मौन रहना अक्षम्य अपराध नहीं था?
आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वा दिया गया, जहां लव और कुश का जन्म हुआ। अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर लव व कुश द्वारा राम का घोड़ा पकड़ने पर राम का वहां आकर वीर बालकों से उनका परिचय पूछना, सीता से भेंट होना तथा उसका अग्नि-परीक्षा देना और पति के साथ अयोध्या लौट जाना। तदोपरांत एक धोबी के कहने पर सीता को अपनी पवित्रता का प्रमाण देने के विरोध में राम को संतान सौंप पुन: धरती में समा जाना–क्या संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात् उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना…क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहाँ हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना… क्या वह अनुचित नहीं था? इसमें आश्चर्य क्या है … आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगा उसे बे-वजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुज़रिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधिकार कहां प्रदत्त है? वह हाड़-मांस की पुतली, जिसे भावहीन व संवेदनशून्य समझा जाता है; फिर उसमें बुद्धि होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है– ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’ यदि वह अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और उसके साथ ही समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे उसकी अस्मत लूट; किस प्रकार नरक में धकेल देते हैं…इससे तो आप सब परिचित हैं। वैसे जुर्म का बढ़ता ग्रॉफ़ भी इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए काफी है। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि उस पीड़िता को कितनी शारीरिक यंत्रणा व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा? उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष, मासूम बच्ची अथवा महिला को कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना; पति के अधिकारों के विस्तृत दायरों व कारस्तानियों की कल्पना तो आप भली-भांति कर ही सकते हैं।
आइए! चर्चा करते हैं पुरुष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर-ज़बर्दस्ती करना; जन्म के पश्चात् नवजात बालिका का मुख न देखना; प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखा देना तथा पत्नी के देहांत के पश्चात् दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना…सामान्य-सी बात है; घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है तथा बेटे को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष-अपराध क्षम्य स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण; हर पल उस मासूम पर दोषारोपण; व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है; इसने तो आते ही हमारे हाथ में कटोरा थमा दिया… ऐसे हृदय-विदारक जुमलों का सामना; तो उस अभागिन को आजीवन करना पड़ता है।
विवाह के अवसर पर पाँव में पायल, पाँव की अंगुलियों में बिछुए, हाथ में कंगन, अंगुलियों में अंगूठियां, कमर पर करधनी, नाक में नथ, कानों में कुंडल, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर व टीका और सिर से पांव तक आभूषणों से लदी, सजी-धजी महिला को आप क्या कहेंगे…मात्र एक वस्तु, जिसे उसके पति की ख़िदमत में पेश किया जाना है। वह कहां समझ पाती है कि वे आभूषण उसे बिना हथकड़ी के उम्र-भर बांधने का प्रयोजन हैं। महिला को ‘सदा सुहागिन रहो,’ व ‘पुत्रवती भव’ आदि आशीष भी उस ब्याहता के लिए नहीं; उनके अपने पुत्र की चिरायु व वंश बढ़ाने के लिए होते हैं।
काश! वह पुरूष वर्चस्व के दायरे को समझ पाती कि विवाहोपरांत तो दुल्हन से उसकी पहचान भी छीन ली जाती है, क्योंकि उसे पति के नाम व जाति से पुकारा जाता है। वह वस्तु-मात्र रह जाती है, जिसका कोई अस्तित्व व मूल्य नहीं होता। सारे व्रत, उपवास, कठोर नियम व कानून तो स्त्री के लिए बनाए गए हैं–जैसे करवाचौथ, पति की लंबी आयु के लिए पत्नी को ही रखना पड़ता है; पति इसके लिए बाध्य नहीं है। प्रश्न उठता है…पति के लिए व्रत रखने का प्रावधान क्यों नहीं? शायद! उसके पति को पत्नी के साथ की दरक़ार अथवा आवश्यकता नहीं है। वैसे भी पत्नी की चिता ठंडी होने से पूर्व ही रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं। क्या ऐसे समाज में स्त्री को समानता का दर्जा मिल पाना मात्र कपोल-कल्पना नहीं है? नहीं …नहीं… नहीं… कभी नहीं मिल पाता उसे समानता का अधिकार…बल्कि उसे तो आजीवन उसी भ्रम में जीना पड़ता है कि भले ही वह पत्नी है या मां– उसकी कोई अहमियत नहीं; न परिवार में, न ही समाज में… वह तो माटी की गुड़िया है…स्पंदनहीन, चेतनहीन व अस्तित्वहीन…जिसे आजीवन दूसरों की करुणा-कृपा पर आश्रित रहना पड़ता है।
विवाह के पश्चात् उसका पति हर पल उस निरीह पर निशाना साधता है। वैसे भी हर अपराध के लिए अपराधिनी तो औरत ही समझी जाती है, भले ही वह अपराध उसने किया ही न हो, क्योंकि उसे तो विदाई की बेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है; कभी अकेले इस चौखट पर पाँव नहीं रखना है। दूसरे शब्दों में उस पराश्रिता को आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है… बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है तथा कभी भी कोई ग़िला-शिक़वा या शिक़ायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है, उस विवाहिता से मुक्ति पाने का उपक्रम… कभी गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना; कभी नदी किनारे पाँव फिसल जाना; तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना। मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यंत्रणा से कौन परिचित नहीं है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी उन हादसों का शिकार क्यों नहीं होती? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो उसे ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव तक, पिता द्वारा निर्देशित राह पर चल कर समस्त दायित्वों का वहन करना अनिवार्य होता है और उसके पश्चात् बेटा निर्धारित परंपरा का वहन बखूबी करता है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत चलता रहता है।
आधुनिक युग में नारी को प्रदत्त हैं समानाधिकार… हाँ! उसे स्वतंत्रता प्राप्त हुई है और उसे मनचाहा करने का अधिकार भी है। वह अपने ढंग से जीने को स्वतंत्र है तथा किसी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर उसकी शिकायत भी दर्ज करवा सकती है। परंतु मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है… ‘आखिर कहां हैं वे क़ायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?’ शायद! वे फाइलों के नीचे दफ़न हैं। कल्पना कीजिए – ‘जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात् उसके माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ?’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर दुष्कर्म करने को ले जायेगा इस बदसूरत को? कितना चाहिए… इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं और इल्ज़ाम लगाए जाते हैं …पहले पुलिस- स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में…वे ऊल-ज़लूल बातें सुन अचंभित रह जाते हैं; उनके पांव तले से ज़मीन खिसक जाती है और लंबे समय तक वे उस सदमे से उबर नहीं पाते। यह सब सुनकर कलेजा मुंह को आता है, जब उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर ही प्रदान नहीं किया जाता और वे मूक प्राणी की भांति लौट आते हैंक्षप्रायश्चित भाव के साथ… आखिर क्यों उन्होंने बेटी को जन्म दिया और वह हादसा होने पर उन्होंने पुलिस-स्टेशन का रुख क्यों किया? उम्र-भर वह मासूम कहाँ उबर पाती है उस सदमे से…वे दुष्कर्मी, सफ़ेदपोश बाशिंदे रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं अपने घरों की ओर, ताकि दिन के उजाले में वे पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहला सकें।
कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा व कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा व आलोचना करते हैं…यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना ही नहीं; जीना भी दूभर हो जाता है। 15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्य-स्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील की निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच अथवा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण को; धारा 407 के अंतर्गत अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है…और इसी बिनाह पर स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया। अक्सर कार्य-स्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बातें कही जाती हैं; उन्हें ज़िंदगी से बेदखल करने के फरमॉन सुनाए जाते हैं तथा उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है। इतना ही नहीं, उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा उसे बदनाम करने की हर संभव कोशिश की जाती है। क्या यह पुरुष वर्चस्व नहीं है, जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति सब पर तेज़ी से अपने वर्चस्व का दायरा बढ़ाता तथा अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।
आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। आजकल ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ का बोलबाला है। चंद स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़; विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’ को अपना रही हैं। अक्सर इसका ख़ामियाज़ा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि कुछ समय के पश्चात् पुरुष साथी ही उसे यह कहकर छोड़ देता है…’तुम्हारा क्या भरोसा… जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई; कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी?’… इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर। वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को ‘पर-स्त्री गमन’ अर्थात् दूसरी औरत से संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर पुरुष को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने का उपक्रम अर्थात् औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते- खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसे हादसों से महिलाओं की साख पर भी तो आँच आती ही है, परंतु वे ऐसा सोचती कहाँ हैं कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरुष तो महिला पर सदैव पूर्णाधिकार चाहता है तथा अहं फुंफकारने की दशा में वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से निष्कासित करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘औरत पहले भी उपेक्षित थी, दलित थी, गुलाम थी और सदा रहेगी, क्योंकि पुरुष की सोच व दूषित मानसिकता में बदलाव आना सर्वथा असंभव है। सतयुग से चला आ रहा यह अनवरत सिलसिला कभी थमने वाला नहीं।’ परंतु अपवाद-स्वरूप चंद भले लोग समाज की रीढ़ होते हैं तथा उनकी सकारात्मक सोच, त्याग व परोपकार आदि शुभ कर्मों पर सृष्टि कायम है।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम नवगीत – बावरे मंजुल नयन भी…।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – नवरात्रि।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – अब तो छोड़ो तुम नादानी। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)