(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “विकल्प”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 102 ☆
☆ लघुकथा — विकल्प ☆
जैसे ही वाह-वाह करके भीड़ छटी मित्र ने पूछा,” तुझे यह विचार कहां से आया?”
“इन लोगों को अनाप-शनाप पैसा खर्च करते हुए देखकर।”
“कब?” मित्र ने पूछा।
“5 साल पहले,” उस मध्यस्थ ने कहा, “उस समय भी उनके मोहल्ले की सड़क नहीं सुधरी थी और आज भी वैसी की वैसी हैं।”
“अच्छा!”
“हां,” मध्यस्थ बोला, “उसी के सुधार के लिए वे पंच पद पर चुनाव लड़ना चाहते थे।”
“और तूने सभी को बैठाकर समझौता करवा दिया।”
“हां,” मध्यस्थ बोला, “जिस पैसे से वे चुनाव लड़ना चाहते थे उसी पैसे को अब वे यहां खर्च करके गली की सड़क बनवा देंगे।”
“इससे तुझे क्या फायदा मिला?” मित्र ने पूछा तो मध्यस्थ बोला,”मैंने अपने टैक्स के लाखों रुपए बर्बाद होने से बचा लिए।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – निश्चय
उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।
जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।
एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।
दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “अधिकार”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 109 ☆
लघुकथा – अधिकार
एक छोटे से गांव में अखबार से लेकर तालाब, मंदिर और सभी जगहों पर चर्चा का विषय था कि कमला का बेटा गांव का पटवारी बन गया है।
कमला ने अपने बेटे का नाम बाबू रखा था। कमला का बचपन में बाल विवाह एक मंदबुद्धि आदमी से करा दिया गया था। दसवीं पास कमला पहले ही दिन पति की पागलपन का शिकार हो गई और फिर मायके आने पर घर वालों ने भी अपनाने से इंकार कर दिया। पड़ोस में अच्छे संबंध होने के कारण उसने अपनी सहेली के घर शरण ली।
फिर आंगनबाड़ी में आया के रूप में काम करने लगी। अपना छोटा सा किराए का मकान ले रहने लगी।
कहते हैं अकेली महिला के लिए समाज का पुरुष वर्ग ही दुश्मन हो जाता है। गांव के ही एक पढे-लिखे स्कूल अध्यापक ने सोचा मैं इसको रख लेता हूं। इसका तो कोई नहीं है मेरी तीन लड़कियां है। उसका खर्चा पानी इसके खर्च से आराम से चलेगा और पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।
गुपचुप आने जाने लगा। कमला मन की भोली अपनी तनख्वाह पाते ही उसे दे देती थी। सोचती कि मेरा कोई तो है जो सहारा बन रहा है।
धीरे-धीरे गांव में बात फैलने लगी मजबूरी में दोनों को शादी करनी पड़ी। एक वर्ष बाद कमला को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु उसके दुख का पहाड़ तो टूट पड़ा। बच्चा जब साल भर का हुआ तब उसे शाम ढलते ही दिखाई नहीं देता था।
कमला ने सोचा मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं। आदमी अब तो दूरी बनाने लगा कि खर्चा पानी इलाज करवाना पड़ेगा।
धीरे-धीरे दोनों अलग हो होने लगे वह फिर अपने परिवार के पास चला गया। रह गई कमला अकेले अपने बाबू को लेकर। समय पंख लगा कर उड़ा जैसे तैसे दूसरों की मदद से पढ़ाई कर बाबू बी.काम. पास हुआ।
तलाक हो चुका था, कमला और अध्यापक का। पटवारी फार्म भरने के समय वह चुपचाप पिताजी के नाम और माता जी के नाम दोनों जगह कमला लिखा था। हाथ में पटवारी की नियुक्ति का कागज ले जब वह घर जा रहा था। रास्ते में पिताजी ने सोचा शायद बेटा माफ कर देगा, परंतु बाबू ने पिताजी की तरफ देख कर गांव वालों के सामने कहा…. मरे हुए इंसान का अधिकार खत्म हो जाता है। अपने लिए मरा शब्द और अधिकार बाबू के मुंह से, सुनकर कलेजा मुंह को आ गया।
आरती की थाल लिए कमला कभी अपने बाबू को और कभी उसके नियुक्ति पत्र में लिखें शब्दों को देख रही थीं । अश्रुं की धार बहने लगी सीने से लगा बाबू को प्यार से आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। पूरे अधिकार से स्वागत करते हुए कमला खुश हो गई।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – [1] चेहरा [2] संस्कृति ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
[1]
चेहरा
देखा जाए तो बात कुछ भी नहीं । देखा जाए तो बात विश्वास की है । वे एक अधिकारी थे और मेरे ही किसी काम से घर आमंत्रित थे । छोटा सा काम था । उन्होंने करने में उदारता दिखाई । मैंने हार्दिक धन्यवाद कर चाय पेश की । नमकीन फांकते फांकते यों ही ध्यान आया कि चलो, आगे संपर्क जोड़े रखने के लिए मोबाइल नम्बर ही ले लूं ।
जवाब में बोले- मैं यह बीमारी नहीं पालता । कौन हर समय अधिकारियों की पकड़ में रहे। अब देखो न, यहां बैठे आराम से चाय की चुस्कियों के बीच मोबाइल की घंटी बज उठे तो सारा मजा,,,,,
इतना कहने की देर थी कि कोट की जेब में छिपाए उनके मोबाइल की घंटी बज उठी । उनका चेहरा देखने लायक था । पर वे अपना चेहरा छिपाना चाहते थे ।
[2]
संस्कृति
-बेटा , आजकल तेरे लिए बहुत फोन आते हैं ।
– येस मम्मा ।
-सबके सब छोरियों के होते हैं । कोई संकोच भी नहीं करतीं । साफ कहती हैं कि हम उसकी फ्रेंड्स बोल रही हैं ।
– येस मम्मा । यही तो कमाल है तेरे बेटे का ।
-क्या कमाल ? कैसा कमाल ?
– छोरियां फोन करती हैं । काॅलेज में धूम हैं धूम तेरे बेटे की ।
– किस बात की ?
– इसी बात की । तुम्हें अपने बेटे पर गर्व नहीं होता।
– बेटे । मैं तो यह सोचकर परेशान हूं कि कल कहीं तेरी बहन के नाम भी उसके फ्रेंड्स के फोन आने लगे गये तो ,,,?
– हमारी बहन ऐसी वैसी नहीं हैं । उसे कोई फोन करके तो देखे ?
– तो फिर तुम किस तरह कानों पर फोन लगाए देर तक बातें करते रहते हो छोरियों से ?
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #74 – दु:ख, पाप और कर्म☆ श्री आशीष कुमार☆
दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?
एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।
वह उसका मैल निकालने के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती, परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।
अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें परमेश्वर से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – [1] खंडित मूर्ति [2] पहचान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
[1]
खंडित मूर्ति
मैं पत्रकार था। और वे एक बडे कार्यालय में उच्चाधिकारी। उन्होंने मुझे अपने जीवन की उपलब्धियों को बयान करने वाली बी चौथी फेहरिस्त थमाई। अनेक पुरस्कार। इस सबमें सबसे ज्यादा मुझे उनका जीवन संघर्ष प्रभावित कर रहा था। जब देश विभाजन के बाद वे रिक्शा चलाकर और सडक किनारे लगे लैमपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढाई पूरी करते थे। ऐसे व्यक्तित्व पर पूरी भावना में बहकर मैंने लिखने का मन बनाया।
उनके साथ ज्यादा समय बिता सकूं , इसलिए उन्होंने मुझे अपने कार्यालय से फारिग होते ही बुला लिया। उनके साथ झंडी वाली गाड़ी में बैठकर मैं उनके भव्य राजकीय आवास पहुंचा। वे अपने ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गए। आराम की मुद्रा में। मैंने सोचा कि वे दफ्तर की फाइलों को भुलाने की कोशिश करते रहे हैं ।
मैं क्या देखता हूं कि उनके आवास पर तैनात छोटा कर्मचारी आया और उन्होंने सोफे पर बैठे बैठे पांव पसार दिए। और वह कर्मचारी उकडूं होकर उनके जूतों के फीते खोलने लगा। जैसे कोई गुलाम सेवा में जुटा हो।
अरे, यह क्या ? मेरे मन में उनकी मूर्ति टूटते देर नहीं लगी। और उन्हें इसकी आवाज तक सुनाई नहीं दी।
[2]
पहचान
कंडक्टर टिकट काट कर सुख की सांस लेता अपनी सीट तक लौटा तो हैरान रह गया। वहां एक आदमी पूरी शान से जमा हुआ था। कोई विनती का भाव नहीं। कोई कृतज्ञता नहीं। आंखों में उसकी खिल्ली उड़ाने जैसा भाव था।
कंडक्टर ने शुरू से आखिर तक मुआयना किया। कोई सीट खाली नहीं थी। बस ठसाठस भरी थी। वह टिकट काटते अब तक दम लेने के मूड में आ चुका था।
-जरा सरकिए,,,
उसने शान से जमे आदमी से कहा।
-क्यों ?
-मुझे बैठना है।
-किसी और के साथ बैठो। मैं क्यों सिकुड़ सिमट कर तंग होता फिरुं ?
-कृपया आप सरकने की बजाय खड़े हो जाइए सीट से। कंडक्टर ने सख्ती से कहा।
जमा हुआ आदमी थोड़ा सकपकाया , फिर संभलते हुए क्यों उछाल दिया।
-क्योंकि यह सीट मेरी है।
-कहां लिखा है?
जमे हुए आदमी ने गुस्से में भर कर कहा।
-हुजूर, आपकी पीठ पीछे लिखा है। पढ़ लें।
सचमुच जमे हुए आदमी ने देखा, वहां साफ साफ लिखा था। अब उसने जमे रहने का दूसरा तरीका अपनाया। बजाय उठ कर खड़े होने के डांटते हुए बोला-मुझे पहचानते हो मैं कौन हूं ? लाओ कम्पलेंट बुक। तुम्हारे अभद्र व्यवहार की शिकायत करुं।
-वाह। तू होगा कोई सडा अफसर और क्या ? तभी न रौब गालिब कर रहा है कि मुझे पहचानो कौन हूं मैं। बता आज तक कोई मजदूर किसान भी इस मुल्क में इतने रौब से अपनी पहचान पूछता बताता है ? चल, उठ खड़ा हो जा और कंडक्टर की सीट खाली कर। बड़ा आया पहचान बताने वाला। कम्पलेंट बुक मांगने वाला। कम्पलेंट बुक का पता है, कंडक्टर सीट का पता नहीं तेरे को?
उसने बांह पकड़ कर उसे खड़ा कर दिया। अफसर अपनी पहचान बताये बगैर खिड़की के सहारे खड़ा रह गया।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “क्या बोले?”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 101 ☆
☆ लघुकथा — क्या बोले? ☆
आज वह स्कूल से आई तब बहुत खुश थी। चहकते हुए बोली, ” मम्मीजी! आप मुझे रोज डांटती थी ना।”
” हां। क्योंकि तू शाला में कुछ ना कुछ चीजें रोज गुमा कर आती है।”
” तब तो मम्मीजी आप बहुत खुश होंगी,” उसने अपने बस्ते को पलटते हुए कहा।
” क्यों?” मम्मी ने पूछा,” तूने ऐसा क्या कमाल कर दिया है?”
” देखिए मम्मीजी,” कहते हुए उसने बस्ते की ओर इशारा किया,” आज मैं सब के बस्ते से पेंसिल ले-लेकर आ गई हूं।”
” क्या!” पेंसिल का ढेर देखते ही मम्मीजी आवक रह गई। उसने झट से ने खोला और कहना चाहा,” अरे बेटा, तू तो चोरी करके लाई हैं।” मगर वह बोल नहीं पाए।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित हृदय को झकझोरने वाली लघुकथा ‘सिहरन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 81 ☆
☆ लघुकथा – सिहरन… ☆
आशा! चल तेरा कस्टमर आया है।
बिटिया तू बैठ, मैं अभी आई काम करके।
जल्दी आना।
थोडी देर बाद फिर आवाज – आशा! आ जल्दी, कस्टमर है।
बिटिया तू खेल ले, मैं अभी आई काम करके।
हूँ —।
बिटिया तू खाना खा ले, मैं अभी आई काम करके।
हूँ – उसने सिर हिला दिया ।
ना जाने कितनी बार आवाज आती और आशा सात – आठ साल की बिटिया को बहलाकर नीचे चली जाती।
ऐसे ही एक दिन – बिटिया तू पढाईकर, मैं बस अभी आई काम करके।
अम्माँ ! अकेले कितना काम करोगी तुम? मैं भी चलती हूँ तेरे साथ काम करने। तुम कहती हो ना कि मैं बडी हो गई हूँ?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – आत्मकथा
बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।
उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’
कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “धन्य हैं“।)
☆ लघुकथा – धन्य हैं ☆
जब बहुत देर तक कोई ऑटोवाला जाने को तैयार न हुआ, तो योगेश का धैर्य जवाब दे गया। वह अपने एक मित्र और उसकी नवविवाहित पत्नी के साथ ऋषिकेश अपने एक अन्य मित्र के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए आया हुआ था। हरिद्वार स्टेशन के बाहर से उन्हें ऋषिकेश तक जाने वाला ऑटो पकड़ना था। धूप जोरों पर थी। आज गंगा दशहरा होने के कारण अत्यधिक भीड़ भी थी। रोजमर्रा के रास्ते को भी शायद बदल दिया गया था, जिसकी वजह से ऑटो रिक्शा वाला बीस की जगह पचास रुपए प्रति सवारी मांग रहा था, जो योगेश का मित्र देने को तैयार नहीं था।
एक ऑटो रिक्शा को रोककर योगेश ने कुछ बातचीत की, और अपने दोस्त को आवाज लगाई, ‘आ जाओ राजेश, यह चलने को तैयार है।” गंतव्य स्थान पर पहुंचकर योगेश ने राजेश को अपनी पत्नी के साथ अंदर जाने को कहा और उससे छुपा कर चुपचाप ऑटोवाले को डेढ़ सौ रुपए पकड़ा दिए।
विवाह समारोह से निपटने के बाद राजेश ने हरिद्वार के किसी गुरुजी के पास उनके आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त की, और सभी वहां चले गए। गुरु जी से मिलने के उपरांत राजेश ने जब उनके चरणों में हजार रुपए रखे, तो योगेश चौंक गया, और सोचने पर मजबूर हो गया, ‘अपनी मेहनत की कमाई में से अपने या अपनी पत्नी के ऊपर तो सौ-पचास रुपए भी ज्यादा खर्च ना हो जाएं, इसके लिए इतनी झक्क मारता रहा, अपनी नवविवाहित पत्नी का भी ख्याल नहीं रखा, और यहां ए.सी. आश्रम में पसर कर बैठे इस तथाकथित साधु को कितने रुपए लुटा दिए? कमाल है? कुछ तो सिद्धि है इन साधु, संतों और बाबाओं में, जो ऐसे महाकंजूस मानवों को भी चूस लेते हैं। धन्य हैं…।”