हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा – डी.एन.ए.  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – डी.एन.ए. ।)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा –  डी.एन.ए.  ?

जय के कमरे की बत्ती जल रही थी। दरवाज़े का अधिकांश हिस्सा भिड़ाया हुआ ही था पर एक सीधी रोशनी की लकीर टेढ़ी होकर मेरे कमरे की फ़र्श पर पड़ रही थी। तो क्या वह भी अनिद्रा का शिकार है?

मैं उसके दर्द को समझ रहा था क्योंकि मैं स्वयं भुग्तभोगी था। अल्पायु में रुक्मिणी का सर्वस्व त्यागकर अचानक मेरे जीवन से रूठकर चली जाना मेरे लिए असह्य था।

रुक्मिणी मेरी केवल पत्नी या जीवन संगिनी ही नहीं थी। वह मेरी शक्ति थी। एक विचारधारा थी। वह सोच थी। किसी शिक्षक की भाँति मार्गदर्शन किया करती थी। विवाह के एक लंबे अंतराल के बाद हमें माता -पिता बनने का आनंद मिला था। शायद जय के रूप में मुझे खुशी देने के लिए ही वह जीती रही। उसके अचानक देहावसान से मैं टूट गया था। मरने का मन करता था पर मेरे सामने एक लक्ष्य था। जय को पालना था।

सबने कहा था, अपनों ने समझाया था, घरवालों ने सलाह दी, ससुरालवालों ने इच्छा व्यक्त की कि पुनर्विवाह कर लो पर मैं रुक्मिणी का स्थान किसी को न दे सका। वह मेरी रूह बन मुझ में ही समा गई थी।

मेरे चेहरे पर एक उदासी छाई रहती थी। नेत्र सदैव तरल रहते। मेरा चीत्कार करने को मन करता था पर जय को देख अपने भावों का दमन करता चला गया। मित्रों की संख्या घटती गई। निरंतर उदास रहनेवाला मित्र भला किसे भाता! जो सच्चे मित्र थे वे सदैव साथ रहते थे। मैंने भी समय के साथ समझौता कर लिया। दुख की चादर सदा के लिए ओढ़ ली। वह दुख की चादर जो रुक्मिणी के विरह से मिली थी। मैं ऐसा करके सदैव यही प्रतीत करता कि वह मेरे आस पास ही है। उसका स्नेहसिक्त व्यक्तित्व ही ऐसा था।

ममता, स्नेह वात्सल्य का वह एक अनोखा मिसाल थी। जय को अपनी गोद में लिटाकर जब वह लोरी सुनाती तो वह ऐसे पलकें बंद कर लेता मानों परियों की दुनिया में सैर कर रहा हो। अभागा बेचारा! वात्सल्य की छाया समय से पहले ही छूट गई। मैं जय को कभी भी लोरी न सुना सका। सुनाता भी कैसे भला, मेरे कंठ ही वेदना से अवरुद्ध हो जाते और अश्रु की धार बहने लगती। जय के कपोल टपकती बूँदों से तर हो जाते। नन्हे सुकोमल हाथ उन्हें पोंछने लगते।

मैंने सब सह लिया, विरह की वेदना में झुलसता रहा और जय को रुक्मिणी की स्मृतियों के सहारे पाल ही लिया। जय बड़ा हुआ विवाह के बाद उसने घर बसाया पर मेरे भीतर धधकती वेदना के स्पंदन से वह कभी अनभिज्ञ न रहा।

फिर यह क्या हुआ? मेरे दुर्भाग्य के तार उसके भाग्य से क्यों जुड़ गए? मेरे व्यथित हृदय के झंकृत वेदना उसकी भी वेदना क्यों बन गई?

मैं वार्द्धक्य की सीमा पर हूँ वह जवानी में ही अकेला क्यों हो गया! मेरे सामने जय था, एक सशक्त ज़िम्मेदारी थी, पर जय? क्या वह

राधा का इस तरह अचानक जाना सहन कर पाएगा? क्या वह राधा से विरह सह पाएगा ? डरता हूँ वह उत्तेजित होकर कहीं कुछ कर न ले….

दरवाज़े से छनकर आती रोशनी बंद हो गई। जय ने कमरे की बत्ती बुझा दी। द्वार खुला और एक छाया मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी शांत पड़ी देह पर चादर ओढ़ा गई। मेरे माथे को चूमकर वह लौट गया।

अपने कमरे के दरवाज़े तक पहुँचकर उसने कहा, ” सो जाइए बाबूजी, अभी ज़िंदगी भर कई रातें जागनी होंगी हमें। फ़िक्र न करें मैं भी विरह सह लूँगा। उसकी छाया में ही तो पला हूँ न! मैं आत्महत्या नहीं करूँगा। “

मैं स्तंभित हो गया। पिता की व्यथा से परिपूर्ण विचार क्या पुत्र को डी.एन.ए में मिलते हैं?

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 219 – कोख परीक्षा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “कोख परीक्षा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 219 ☆

🌻लघु कथा🌻 🩺कोख परीक्षा🩺

आज के इस भागती दौड़ती तेज रफ्तार की दुनिया जहाँ  माँ – बाप, संवेदना, ममता, दया, सेवा, मानवता, बधाई, दुख – सुख यहाँ तक कि किराए की कौख भी मिलने लगी है।

किसे अपना कहा जाए किसे नकारा जाए समझ नहीं आता। नारी से नारी के लिए कोख परीक्षा मातृत्व पर सवाल खड़ी कर रही है।

परंतु फिर भी जमाना चल रहा है। अब तो आप जिस चेहरे की काया कृति चाहते हैं डॉक्टर वह भी कोख में बनाते चले जा रहे हैं।

जाने भविष्य क्या होगा। परंतु जो भी हो नारी की मातृत्व शक्ति को सृष्टि भी नहीं बदल सकती।

ईशा को कोख परीक्षा के लिए ले जाया जा रहा था। पतिदेव का सख्त आदेश और निर्णय बेटा ही वंश का वारिस होगा।

सफेद पड़ा शरीर, आँखें चेहरे पर धँसी, मानो कई रातों से सोई नहीं।

पता चला कोख में एक नहीं जुड़वा बेटी है। बस फिर क्या था!!!! अस्पताल से गाड़ी सीधे ईशा के मायके की ओर बढ़ चली। कारण सिर्फ इतना कि ईशा ने अपना कोख गिराने से मना कर दिया।

गाड़ी से उतरते समय ईशा ने पतिदेव के पैरों पर शीश रखते कहा– मैं उस दिन का इंतजार करूंगी। जब आपको लेकर कोई गाड़ी किसी वृद्धा आश्रम के सामने रुके। बेटों से वंश – – – – गहरी सांस छोड़ते।

मेरी बेटियाँ, आज नहीं कल कोख का महत्व समझ जाएंगी। परंतु किराए का बेटा क्या कोख परीक्षा समझ पाएगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – अनजान प्रदेश – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक कहानी के पीछे की अप्रतिम विचारणीय लघुकथा “– अनजान प्रदेश –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — अनजान प्रदेश — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक जहाज समुद्र में कहीं खो गया था। उसमें दो सौ यात्री थे। व्यापक रूप से खोज की जा रही थी, लेकिन जहाज का कहीं पता चलता नहीं था। इतनी बड़ी घटना का कोई गवाह न होना दुख को और बढ़ाता था। गवाह का प्रसंग होने से लोगों का ध्यान एक पक्षी पर जाता था। लोग जब भी खोज के लिए समुद्र में जाते थे उन्हें वह पक्षी दिखाई देता था। पक्षी खोज में लगे हुए लोगों की बड़ी सी नाव के ऊपर उड़ने का इतना अभ्यस्त हो गया था कि नाव के मस्तूल पर आ बैठता था। दंत कथा के हिसाब से अर्थ बनाएँ तो वह अर्थ इस तरह से होता वह पक्षी लोगों के साथ खोज कार्य में सहयोगी था।

पक्षी के साथ संपर्क गाढ़ा होते जाने की प्रक्रिया में उन लोगों को लगता था वह कुछ बोलना चाहता है। पर उसकी भाषा तो उसकी अपनी थी जिसे समझ पाना किसी के वश में होता नहीं था। यदि पक्षी लुप्त जहाज से संबंधित किसी घटना का जिक्र करना चाहता हो तो लोगों को बड़ा कुतूहल होता था। वे आपस में तय करते थे उन्हें पक्षी की भाषा के मर्म तक पहुँचना होगा। दो – चार बार नाव से यहाँ आने पर कुछ लोगों ने कहा उन्होंने पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख ली। अब वह दिन दूर नहीं जब पक्षी की पूरी भाषा अपनी समझ में आने लगेगी।

वे लोग दो – चार दिन से अधिक खोज के लिए जाने वाले नहीं थे। उस पक्षी का आकर्षण हुआ कि दो – तीन दिन की उनकी सीमा टूट गयी और वे समुद्र में इस तरह से बार – बार जाने लगे कि खोया हुआ जहाज मिलने पर ही उनके खोज – कार्य में विराम लगेगा। पर यह जोश हुआ तो उस पक्षी के बल पर। वे समूह में इतने लोग थे और पक्षी अकेला था। उन्हें किसी कोण से थोड़ा आतंक भी महसूस हुआ। समुद्र में दो सौ लोग एक जहाज में लापता हुए थे और एक पक्षी मानो उतने लोगों का प्रतिनिधित्व करता था।

आतंक से ही यह छन कर आया कि अपनी भाषा के रहते पक्षी की भाषा में समर्पित होना तो बहुत ही दूरंदेशी सोच का परिणाम है। उन्होंने आपस में तय किया खोज – कार्य में अब अंकुश लगाते हैं। उन्होंने तालियाँ बजा कर अंकुश का समर्थन किया। पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख लेने का जो लोग दावा करते थे अब उस दावे को छोड़ा। वे तट पर लौटे। उन लोगों की भाषा कमोबेश एक ही तरह से हुई — वहाँ मानो पक्षी का ‘समुद्र’ था और यहाँ इन लोगों की अपनी ‘जमीन’ थी।

— समाप्त  —

© श्री रामदेव धुरंधर

28 — 02 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-सुनो!

-कहो !

-मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ ।

-कहो न फिर !

-समझ नहीं आता कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं?

-अरे! तुम्हें भी सोचना पड़ेगा?

-हां ! कभी कभी हो जाता है ऐसा !

-कैसा ?

-दिल की बात कहना चाहता हूँ पर शब्द साथ नहीं देते !

-समझ गयी मैं !

-क्या.. क्या… समझ गयी तुम ?

-अरे रहने भी दो ! कब कहा जाता है सब कुछ !

-बताओ तो क्या समझी ?

-कुछ अनकहा ही रहने दो ।

-क्यों ?

-ऐसी बातें बिना कहे, दिल तक पहुंच जाती हैं !

-फिर तो क्या कहूं‌ ?

-अनकहा ही रहने दो !

-क्यों?

-तुमने कह दिया और दिल ने सुन लिया! अब जाओ !

-क्यों ?

-शर्म आ रही है बाबा! अब जाओ !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – बंधन… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन।)

☆ लघुकथा # 61 – बंधन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“तुम्हें पता है तुम्हारी मां ने क्या किया, मोहल्ले की सारी औरतें नीचे आई है अब चलो जवाब दो? बच्चों की तरह हरकतें करती हैं। मैं कुछ बोलती हूं तो तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम्हारी मां की शिकायत करती रहती हूं।”

“क्या हुआ तुम माँ पर क्यों चिल्ला रही हो?”

“वह सुबह से गायब है बच्चों की तरह  नजर रखनी पड़ती है शांति जी ने कहा।”

रामप्रसाद जी ने गंभीरता से गहरी सांस ली और कहा “भाग्यवान नाम तो तुम्हारा शांति है पर क्यों अशांति मचा रखी हो? मां ने कहा है कि वह तुम्हारे और हमारे लिए कुछ सामान लेने जा रही हैं इसलिए आज मुझसे वह ₹10,000 लेकर गई हैं अभी आ रही होगी।”

“चलो ! देखो तुम्हारी मां ने क्या किया है?”

“क्या हुआ भाभी जी आप सब लोग आज यहां पर?”

“क्या बताएं भाई साहब, आपकी मां हमारी सभी की सास और बेटियों को लेकर कुंभ स्नान के लिए गई हैं। सब लोग बिना बताए ही घर से निकल गई है अब हमें बड़ी घबराहट हो रही है।”

“आप लोग घबराइए नहीं मैं ड्राइवर को फोन लगा कर पूछता हूं।”

उन्होंने फोन किया तब ड्राइवर ने कहा कि- “मां जी ने कहा कि आपने ही आदेश दिया है।”

माँ ने ड्राइवर से फोन ले लिया कहा –“चिंता मत करो हम लोग दो-तीन दिन में आराम से घर पहुंच जाएंगे। तुम सभी के लिए मैं प्रसाद भी ले आऊंगी और अब दोबारा फोन करके परेशान मत करना।”

“भाई साहब अगली बार से आप माताजी से कह दीजिएगा कि हम सभी की सास और बेटियों को लेकर न जाया करें अकेले उन्हें जहां जाना हो वहां जाये।”

सभी पड़ोस की औरतें चली गईं।

“श्रीमान जी कुछ कहती थी तो तुम्हें लगता था कि मैं उन पर शक करती हूं। बताओ अब किसी मुश्किल में खुद फंसेंगी और सबको फसाएंगे अब क्या होगा?”

“उनसे भी मेरा ममता का बंधन है वह भी तो मेरी मां है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ?

उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।

घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।

उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।

– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।

– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।

उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।

-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!

– है कोई उपाय इसका तो बोलो?

– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।

– अच्छा! मुझे भी बताओ?

– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?

बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।

-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।

– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।

दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।

ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।

सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।

सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।

माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?

बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।

बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।

दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।

अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।

परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 – पुष्पांजलि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री  विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆

🌻लघु कथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷

मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी  होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।

विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है,  पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।

बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।

पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।

साधना का पूरा  शरीर  सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।

सभी कहने लगी हद कर दी इसने  पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।

पं बने साधु कहने लगे—

जाकी रही भावना जैसी।

प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका – थपेड़े – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– थपेड़े –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ गद्य क्षणिका ☆ — थपेड़े — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

आकाश प्रेम से देखता था, चाँद आत्मीयता से तकता था, पृथ्वी खुशी से स्पंदित होती थी। यह एक बालक के जन्म का उत्सव था। अच्छा करने में बालक की अद्भुत लगन थी। पर बालक बड़ा होने की प्रक्रिया में परिवर्तित दिखायी दिया। तब तो आकाश, चाँद और पृथ्वी का उत्सव शिथिल पड़ गया। बालक पूर्व जन्म से कुछ ले कर धरती पर आया था जिसे जमाने के थपेड़ों ने नष्ट करके उसे अपने धरातल पर खड़ा कर लिया था।
***
© श्री रामदेव धुरंधर
28 – 09 – 2024
संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 60 – नजर बदलिए… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नजर बदलिए।)

☆ लघुकथा # 60 – नजर बदलिए श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जीवन के कई अर्थ हमें पिछली सीट पर बैठ कर ही समझ में आते हैं। कभी-कभी अपनी गाड़ी की स्टेरिंग दूसरे के हवाले कर देनी चाहिए। कभी अपने रोजमर्रा के काम भी हमें छोड़कर कुछ अलग करने की सोचना चाहिए।  इसी उधेड़बुन में शांति खोई हुई थी। तभी अचानक उसके पतिदेव ने कहा कि तुम बहुत ही अच्छा गाना गाती हो एक सुंदर सा मधुर गीत सुनाओ और आज खाना मैंने बाहर से ऑर्डर कर दिया है। आज हम दोनों मिलकर कैंडल लाइट डिनर करेंगे, कुछ ही देर बाद बच्चे भी आ जाएंगे।

बहुत ही अच्छा अभिनव पर इतने दिनों बाद आपके अंदर ऐसा बदलाव कैसे आया?

बस आज मन किया कि जीवन की सारी वस्तुओं को छोड़कर पुराने शौक ही को पूरा किया जाए और स्वयं को अपलोड किया जाए। जीवन की इस नवीनता के अपने को माधुर्य में डुबो देना चाहिए।

शांति ने कहा जनाब आज बदले बदले लग रहे हैं।

हां भाग्यवान नजर बदल के देखो नजरिया बदल जाएगा…..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 45 – लघुकथा – दिवाली के दिये ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – दिवाली के दिये)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 45 – लघुकथा – दिवाली के दिये  ?

“माँ हम दीवाली नहीं मनाएँगे क्या? देखो सबके घर में दीये जल रहे हैं। ” गंगा के आठ साल के बेटे ने अपनी माँ से पूछा।

“दीवाली तो अमीरों का उत्सव है बेटा। हम गरीब हैं न हम उत्सव नहीं मना पाते। दीये जलाने के लिए दीये भी तो चाहिए होते हैं न!” गंगा ने अपने इकलौते बेटे को समझाते हुए कहा।

यह दीये की ज़रूरत वाली बात बाल मन में कहीं बस गई।

गंगा विधवा थी। मजदूरी करके जो दिहाड़ी कमाती थी उसी से उन दोनों का पेट पलता था। रास्ते के किनारे गली के भीतर पतरे की झोंपड़ी थी जो उनका घर था। कई अनेक उन जैसे गरीब श्रमिक वहाँ रहते थे। पर उन लोगों की अवस्था गंगा से अच्छी थी क्योंकि वहाँ चार हाथ काम करते थे। यहाँ गंगा अकेली पड़ गई थी। ध्याढ़ी पुरुष मजदूरों को प्रतिदिन 500 रुपये मिलते हैं और स्त्रियों को 350 रुपये दिए जाते हैं। गंगा अकेली थी तो पति वाला हिस्सा उसकी तकदीर में न था। उसे अपने 350 रुपये में ही गुज़ारा करना पड़ता था।

दो वक्त की रोटी वह जुटा लेती थी। एक दो जोड़े कपड़े साल में खरीद लेती थी पर इससे अधिक उसके लिए कुछ और करना संभव न था।

कंस्ट्रक्शन कंपनी वालों ने चार दिन की छुट्टी कर दी थी। अर्थात रोज़ की दिहाड़ी बंद हो रही थी। पर साहब ने दीवाली से पहले हर मज़दूर को एक जोड़े वस्त्र और हज़ार रुपये दिए थे।

गंगा को साड़ी मिली थी। वह अपने बेटे को लेकर बाज़ार गई और उसके लिए शर्ट पैंट खरीदे गए। हाथ में पैसे थे तो उस दिन ठेले पर पाव-भाजी और गुलाब जामुन खाया।

गंगा का बेटा राजू खुश था पर झोंपड़ी में दीये न जलाए जाने का उसे दुख था। वह दूर खड़े होकर लोलुप दृष्टि से बंगले में रहनेवाले बच्चों को आतिशबाज़ी करते हुए देखता। आँखों में उत्साह और जिज्ञासा तैरती रहती, नज़रें आकाश की ओर उठी रहती और रंगीन रोशनी कई छटाओं को बिखेरते हुए देखकर उसका चेहरा चमक उठता।

दीवाली खत्म हो गई। गंगा काम पर गई तो एक प्लास्टिक की थैली लेकर राजू मोहल्ले -मोहल्ले घूमने लगा। जहाँ भी उसे बुझे हुए, फेंके गए मिट्टी के दीये मिले उसने उन्हें इकट्ठे कर लिए।

माँ के लौटने से पहले वह घर लौट आया। हैंड पंप के नीचे ठंडी में बैठकर दीयों को साफ़ किया। उन्हें घर के सामने सूखने के लिए बिछा दिया और माँ की प्रतीक्षा करने लगा।

माँ के लौटने पर बड़ी खुशी से उसने माँ को सारे दीये दिखाए और कहा -माँ अगले साल हम दीवाली में दीये जलाएँगे। देख मैंने कितने दीये इकट्ठे कर लिए।

गंगा अपने लाडले को सीने से लगाकर फ़फ़क उठी। आज उसे अपनी गरीबी और वैधव्य पर पहली बार तीव्र दर्द महसूस हुआ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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