हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “इन सर्दियों में” : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं … रमेश पठानिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “इन सर्दियों में” : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं …रमेश पठानिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

रमेश पठानिया से मेरा परिचय नया ही है, ज्यादा पुराना नहीं पर हर रचनाकार एक दूसरे को जानता है, यह भी सच है । इसी विश्वास पर रमेश पठानिया ने अपना काव्यसंग्रह भेजा- “इन सर्दियों में” । मिल तो सितबर या उससे कुछ पहले गया था लेकिन लगभग डेढ़ महीने की बीमारी ने इसे दूर लाकर सर्दियों में पढ़ने का अवसर दिया यानी ‘इन सर्दियों में’ को सर्दियों में ही पढ़ा । सुबह सवेरे पिछले एक सप्ताह से लगा था इसे बांचने जैसे चाय की चुस्कियां लेने जैसा । मैंने रमेश को फोन पर कहा भी कि सर्दियों में इन कविताओं को पढ़ने का अहसास और मज़ा ही कुछ और है । खैर।

इन कविताओं की पंक्तियों से गुजरते हुए ऐसे लगा जैसे ये कविताएं उदास प्रेम की कविताएं हैं जो पहाड़ों में पनपीं, फूली फलीं , फैलीं और पहाड़ों में ही सिमट कर कवि को उदास कर गयीं । वैसे सभी पहाड़ पर जाना पसंद करते हैं , मैं भी , लेकिन कहते हैं कि पहाड़ रहने के लिए नहीं, घूमने के लिए अच्छे लगते हैं । जो बर्फबारी सैलानियों के लिए एक खुशी का अहसास है , वही वहां के निवासियों के लिए शामत जैसा । इसीलिए रमेश लिखते हैं शीर्षक कविता में :

इस महानगर में

सोच रहा हूं

वही महिला उतने ही बोझ तले

घास उठाकर कमान सी झुकी हुई

जा रही होगी ?

कुछ किताबों में कविता में कवि ढूंढ रहा है :

अब भी बाकी हों उस बुकमार्क पर

या फिर कुछ किताबों में

अंडरलाइन हों कुछ लाइनें

,,,,,

किताबों की कभी सुन लिया करो

पास से गुजरो कभी तो ठहर जाओ

दो घड़ी देख लो उन्हें

जो राह तकती हैं तुम्हारी,,,

पास से गुजरो कभी तो

ठहर जाना कुछ पल वहीं

तुम्हारी राह तकती हैं

किताबें कई ,,,,

अरसे से किताबें नहीं खरीदीं अब

न उनमें बुकमार्क होंगे

न होंठों की लाली

न सूखे गुलाबों की महक

फिर ऐसी किताबों का क्या करूंगा?

तन्हा सी इस ज़िंदगी में ।

कवि चाहता है कि जिंदगी के संदूक में

रखी तुम्हारी यादों को मैं

उलट पुलट कर देखता हूं

महसूस करता हूं

और चुप हो जाता हूं

लम्बे अंतराल के लिए

सर्दियों में अपने पुराने प्रेम को याद करता कवि लिखता है :

मखमली सुबह के दिन आ गये

नरम नरम दोपहर के दिन आ गये

सुनहरी शामों के दिन

गर्म लिहाफों के दिन आ गये

जो पीछे रह गये

वो बिसार दे

जो आज है उसे गुजार ले ,,,

बहुत सारी स्मृतियों को अपनी कविताओं में समेटने के बाद रमेश कहते हैं :

लगता है अब

वो किसी और सदी की बात थी

फिर गिरी शिमला में बर्फ

सब पारदर्शी

यादों की बुक्कल तो

इस शहर में अब भी ओढ़े हूं ,,,

कवि खुद से सवाल भी करता है :

यादों को करीने से

तह कर रख पाना

कहां संभव है ,, ?

हिरण शावकों की तरह

कुलांचें भरती रहती हैं ,,,

अंतिम कविता तक प्रेम की स्मृतियों में ठहराव आता है और वे लिखते हैं :

अब जाकर नदी के पानी में ठहराव है

क्षितिज शून्य नहीं लगता अब

नीला आसमान मुस्कुराने लगा है

इस मौसम की तासीर

मेरे हक में बदलेंगी।

इस कविता संग्रह में कवि ने ‘प्राकृतिक आपदा’ और ‘सूखा’ कवितांओं के माध्यम से ज़िंदगी की सच्चाई को भी छुआ है और दिखाने की कोशिश की ।

वैसे वे कहते हैं :

ऊन के गोले सी नरम

तुम्हारी यादों को

अंगीठी के किनारे बैठकर

मैं महसूस करता हूं ,,,

तो यह रहा सफर रमेश पठानिया के काव्य संग्रह ‘इन सर्दियों में’ का । आशा करता हूं कि रमेश की काव्य यात्रा जारी होगी और फिर कभी या जल्द ही नयी सर्दियों के नये अहसास हमें पढ़ने को मिलेंगे । शुभकामनाएं ।

इसीलिए पहाड़ के मुकाबले महानगर के अनुभव पर कहते हैं :

ऐसा लगता है महानगर सबका है

लेकिन महानगर का अपना कोई नहीं है ,,,,..

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “चालीस पार की औरत” (काव्य संग्रह) – कलावंती सिंह ☆ समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

डॉ. नूपुर अशोक

पुस्तक चर्चा ☆  “चालीस पार की औरत” (काव्य संग्रह) – कलावंती सिंह ☆ समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक ☆  

पुस्तक चर्चा 

कविता संग्रह – चालीस पार की औरत

लेखक – कलावंती सिंह

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन , जयपुर 

मूल्य – 120 रुपए

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

? यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है ✍️ डॉ. नूपुर अशोक ?

“एक लड़की मेरे सपनों में, अँधेरों से उजालों की तरफ आती-जाती है”- ये कलावंती की लिखी हुई पंक्तियाँ हैं और वह मुझे हमेशा उजालों की तरफ आती हुई लड़की की तरह ही याद आती रही है।

उसके साथ ही मुझे याद आता है वह समय जब हमें ऐसा लगता था कि हम पूरी दुनिया का प्रतिकार कर सकते हैं, अपनी बात दुनिया से कह सकते हैं और उन्हें दे सकते हैं अपना परिचय।

‘परिचय’ नाम था हमारी उस संस्था का जिसमें शामिल थे रांची में रहने वाले हम लगभग समवयसी रचनाकार। एक-दूसरे की रचनाएँ पढ़ते-सुनते और साहित्यिक चर्चाएँ करते थे। वहीं मेरा परिचय कलावंती से हुआ था। ‘परिचय’ के गमले में उगने वाले हम सब पौधे समय के साथ अपनी ज़मीन तलाशते धीरे-धीरे अपनी दुनिया बनाते चले गए और सबने अपनी-अपनी पहचान बनाई । 

कई वसंत और कई पतझड़ों से गुज़रने के बाद पेड़ भी शायद अपने उन दिनों को याद करते होंगे जब वे किसी गमले में, किसी क्यारी में, किसी ग्रो-बैग में दूसरे पौधों के साथ अंकुरित हो रहे थे। तब वे भी शायद अपनी डाल पर आकर बैठने वाले हर पंछी से पूछते होंगे कि उन पौधों को कहीं देखा है? कहाँ हैं वे हमारे साथी? इसी तरह की अकुलाहट ने एक दूसरे की खोज करते हुए हमें फिर से जोड़ दिया। पुनर्मिलन की यह पुलक दुगुनी हो गई जब कलावंती का नया कविता संग्रह देखा।

यह कविता संग्रह कई मायनों में खास है। इसका शीर्षक ही यह स्पष्ट कर देता है कि यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है। नौकरी का दायित्व, गृहस्थी की रोज़मर्रा ज़िंदगी और पारिवारिक-सामाजिक जीवन के बाद अपनी अस्मिता की खोज करती उसकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट कहीं से कुछ बचे-खुचे पल चुरा कर ही लेखन कर पाती है।

लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद भी इन कविताओं को संग्रह का रूप लेने में कई वर्ष बीत जाते हैं। पर कविताओं का कालजयी सत्य आज भी उतना ही जीवंत है –

“लड़की घर से निकलती है

घर की तलाश में….

….. बाबूजी की चिताओं सी ताड़ हुई

अम्मा की खीझ में पहाड़ हुई ….”

कई सालों से स्त्री विमर्श और स्त्री चेतना पर चर्चाएँ होने के बावजूद ये पंक्तियाँ आज भी उतनी ही सार्थक हैं –

“तुम उर्वशी हो, अहिल्या हो

कैकेयी हो, कौशल्या हो,

किन्तु तुम सब की नियति

किसी न किसी राम या गौतम से जुड़ी है”

स्त्री के संघर्ष के अलावा इनमें उसकी उपलब्धियों के स्वर भी हैं –

“काश पिता देख पाते कि

मैंने ठीक उनके सपनों से

कुछ नीचे ही सही

पर बना तो ली है

अपनी एक दुनिया”

चालीस पार कर चुकी यह स्त्री अब किसी भय से आक्रांत नहीं है –

“कभी-कभी बड़ी खतरनाक होती है

ये चालीस पार की औरत

वह तुम्हें ठीक-ठीक पहचानती है”

मोनालिसा पर सात अलग-अलग कविताओं में कलावंती ने उससे एक संवाद किया है –

“क्या यह दुख किसी सुंदर सृजन से

पहले का दुख है

जो सुख से भी ज़्यादा सुंदर होता है”

इसी तरह बेटियों पर चार कविताएं है –

“इस नास्तिक समय में

रामधुन सी बेटियाँ

इस कलयुग में

सत्संग सी बेटियाँ”

तुलसी, कृष्ण, मोनालिसा, होरी, गौरैया सभी से कलावंती प्रश्न करती है। और अपनी ही कुछ पंक्तियों में कहती है –

“जानती हूँ पूछ रही हूँ जो तुमसे

वह अनुत्तरित है युगों से ही

फिर भी पूछना मेरे विवशता है

और

उत्तरहीनता तुम्हारी”

चालीस पार की इस स्त्री का प्रेम भी परिपक्वता लिए हुए है –

“वह प्रेम जो मेरे लिए रहा

पूजा, प्रार्थना और अजान की तरह

उसे स्वीकारूंगी अब

अपनी पहचान की तरह”

अपने जीवन के कई दशकों की तपस्या को कवयित्री ने इस संग्रह के माध्यम से सामने रखा है।  इस संग्रह का आवरण अनुप्रिया ने बनाया है जो इसकी कविताओं के मुख्य स्वर को प्रतिध्वनित करता है। इसकी भूमिका लिखी है सुविख्यात कवयित्री अनामिका ने जो अब साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। उन्हीं के शब्दों में –“कलावंती की स्त्री केन्द्रित कविताएं एक सबल प्रतिपक्ष रचती हैं।“

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 102 – “अपना अपना सच” – श्री संतोष परिहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष परिहार जी के कहानी  संग्रह  “अपना अपना सच ” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

APNA-APNA SACH

पुस्तक : अपना अपना सच (कहानी संग्रह)

कहानीकार- श्री संतोष परिहार

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य : १५० रु

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 102 – “अपना अपना सच ” – श्री संतोष परिहार ☆  

कहानियों के जरिये चरित्र के जीवन के सच का मूल्यांकन कथाओ में किया गया है । संग्रह में फुल 17 कहानियां  हैं । संग्रह की पहली कहानी जीवन एक आशा है जिसमें वृद्ध ठाकुर काका के आशावान जीवन को वर्णित किया गया है।देश का वोटर नेताओं के किए गए वादों को सच मान लेता है और उनके संबोधन में सपने बुन लेता है घर आजा मोहन कहानी में यही भाव अभिव्यक्त किए गए हैं। तेरे जाने के बाद में एक पिता के व्याकुल मन का सच है ।  “दे दाता के नाम” कहानी में दहेज  प्रथा पर कहानीकार का प्रहार है । संग्रह की सभी कहानियां हृदयस्पर्शी है जिन में जीवन का कटु सत्य है और समाज की विसंगतियों  पर लेखक ने  अपनी कलम से  सुधार करने का यत्न किया है । “बड़प्पन” कहानी में बताने का यत्न किया गया है की आदमी अपनी जाति से नहीं  कर्म से बड़ा होता है ।कहानियों की  घटनाएं हम सबके आसपास ही घटित हो रही है जिन्हें लेखक ने इस तरह लिपी बद्ध किया है कि पाठक को लगता है कि वह समस्या उसके  अपने ऊपर ही बीत रही है ।

समाज का शोषित वर्ग जैसे  बेटियां,स्त्रियां,बुजुर्ग,बच्चों और जानवर सभी के विषय में  कथाओं का संग्रह है।

पुस्तक बार बार पठनीय है।  संतोष परिहार जी हिंदी कहानी जगत के पुरस्कृत बहुपठित कहानीकार हैं उनसे हिंदी कथा को और बहुत सी आशाये हैं। 

समीक्षक – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह) ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह) ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पुस्तक – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह)   

कवि – श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ 

प्रकाशक –  AISECT Publications (1 January 2021)

पृष्ठसंख्या –   187

मूल्य – रु 250/-

अमेजन का लिंक >>>> “बचपन रसगुल्लों का दोना”

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

सातवीं साहित्यिक कृति के रूप में मेरे सद्य प्रकाशित बाल गीत संग्रह ” बचपन रसगुल्लों का दोना” पर व्यक्त आत्मकथ्य – “सुरेश कुशवाहा तन्मय”

जब मन होता है कि, कोई कविता नई लिखूँ

तब मैं बच्चों से, खुलकर बातें कर लेता हूँ,

लौट लौट अपने बचपन की, यादें लेकर के

नए समय की नाव, बालपन की मैं खेता हूँ।

पहले हम बच्चे ही थे, फिर समय के साथ बड़े हुए, गृहस्थी बसी, घर में दो बेटियाँ और एक बेटे का आगमन हुआ। बच्चों के बढ़ते कद के साथ ही ज्यों ज्यों हमारी उम्र ढलती गई, हम वापस बच्चे होते गए। अब 73 वर्ष की यह आयु तो एक तरह से वापसी की ही अवस्था है। तो मानता हूँ मैं कि, अब हममें पूर्ण रूप से बचपन लौट आया है। फर्क इतना है कि, प्रारंभ वाला बचपना नितांत अबोध था और अभी वाले बचपने में जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभव हैं। मन में विचार उठने लगे क्यों न इस बचपने को एक बार फिर कागज पर उतारा जाए। इसी सोच के दरमियान कोरोना के आपदा काल के चलते बाहरी गतिविधियों से भी छुट्टी मिल गई,और इस प्रकार बाल कविताओं के इस दूसरे संग्रह के सृजन का शुभारंभ हुआ। इसमें भरपूर सहयोग परिवार का और लेखन में निरंतरता की प्रेरणा मेरे 10 वर्षीय पोतेराम दिव्यांश की रही। प्रतिदिन वह पूछता था कि दादूजी आज कौन सी नई कविता लिखी ? इस प्रकार उसकी उत्सुकता मुझे सतत लिखने को प्रेरित करती रही।

यह सर्वमान्य तथ्य है कि बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में बाल कविताएँ/बाल गीत बच्चों को सबसे ज्यादा प्रिय होते हैं। कविताएँ बच्चों के कोमल ह्रदय को बहुत सहज, सरल व सरस तरीके से प्रभावित कर उनके मन को आसानी से छूती है। इसमें कविता की भाषा, शैली, शिल्प और कथ्य के साथ लय अथवा गीतात्मकता इसके आकर्षण को और बढ़ा देती है। बाल कविता/बाल गीतों का लक्ष्य भी यही रहता है कि बच्चे खेलते-कूदते, हँसते-गाते हुए एक जिम्मेदार नागरिक बनने की दिशा में आगे बढ़ते रहें।

कहा गया है कि, बाल्यावस्था जिज्ञासु तथा कल्पनाजीवी होती है, वहीं किशोर अवस्था में वह स्वप्नदर्शी होता है, इस वय में किशोरों के मन में अनेक रंग-बिरंगे स्वप्न आते जाते रहते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर अपने सभी रचनाधर्मी साथियों के सत्संग का लाभ लेते हुए निश्छल ह्रदय बच्चों से जो कुछ सीखा है उसे पूरी ईमानदारी से अपनी इन कविताओं में उतारने का मेरा प्रयास रहा है।

क्या है इन कविताओं/गीतों में, यह ये स्वयं बताएंगी, जब आप निर्मल मन से इन्हें पढ़ेंगे। एक-एक कविता लिखने के बाद मैंने असीम सुख पाया है इनसे। चाहता हूँ इस सुख के कुछ सुकून भरे शीतल छींटे आप तक भी पहुँचे और प्रतिक्रिया में आप सुधि पाठकों से उम्मीद करता हूँ कि,आप भी अपने विचारों से मुझे अवगत कराएँगे। इन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ या भूल हुई हो तो नि:संकोच वह भी बताएँ ताकि मैं अपने एवं अपनी रचनाओं में सुधार कर सकूँ।

आभार प्रदर्शन के लिए मेरे पास शुभचिंतक मित्रों की एक लंबी सूची है। उन सबका नामोल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है, कुछ नाम लिखकर मैं बाकी साथियों से दूर नहीं होना चाहता। इसलिए भोपाल, जबलपुर, खरगोन, खंडवा सहित देश भर सेजुड़े सभी भाई-बहनों के प्रति ह्रदय से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

इस संग्रह के लिए मैंने जबलपुर से छंद एवं व्याकरण शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी तथा भोपाल से बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र के सचिव/निदेशक सुविज्ञ साहित्यविद श्री महेश सक्सेना जी से इन बाल कविताओं पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए अनुरोध किया। अर्जी स्वीकार की गई, इसके लिये आप दोनों साहित्य मनीषियों के प्रति ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ। इसी के साथ जिनका उल्लेख अति महत्वपूर्ण है, जिनके चित्रांकन मेरी कविताओं को संजीवनी प्रदान करते रहे हैं, मेरे अनुजवत प्रिय साथी श्री बृजेश बड़ोले जी के प्रति विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ। इससे पूर्व भी मेरे दो कविता संग्रह में उन्होने आवरण पृष्ठ सहित अनेक चित्र उकेरे हैं।

आभार मेरे परिजनों का भी जिनके बिना सन 1970 से चल रही मेरी ये साहित्यिक यात्रा संभव ही नहीं है। इस अवसर पर सबसे पहले अपनी सहधर्मिणी स्वर्गीय मीना की स्मृति के साथ आगे बढ़ता हूँ। बहू सुप्रिया व पुत्र कुन्तल का यह कहना कि पापाजी आप लिखते रहें, इन्हें छपवाने की जिम्मेदारी हमारी है। वहीं दोनों बेटियाँ दीप्ति व श्रुति से मिला प्रोत्साहन कभी कलम की स्याही सूखने नहीं देता है। इस संग्रह की सभी कविताओं का टंकण एवं व्याकरणगत त्रुटियाँ ठीक करने में बेटी श्रुति का सहयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वैसे भी वह मेरी रचनाओं की प्रथम श्रोता/पाठक है। पत्रकार होने के साथ ही श्रुति स्वयं एक संभावनाशील साहित्यकार है, इस नाते उसकी सलाह मेरे लिए सदैव महत्वपूर्ण रही है।

अंत में यही अनुरोध है कि, जैसे आप ने मेरी पूर्व कृतियों पर अपनी प्रतिक्रिया से मेरा उत्साह वर्धन किया वैसे ही इस बालकाव्य संग्रह

 “बच्चे रसगुल्लों का दोना” को भी आपका प्यार-दुलार मिलेगा।

सुख से जीने का हुनर, बच्चे हमें सिखाएँ

सखा मित्र बन संग में, आगे कदम बढ़ाएँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

बी – 101, विराशा हाइट्स, दानिश कुँज ब्रिज, कोलार रोड, भोपाल – 462042 (म.प्र)

मोबाइल- 9893266014

ईमेल – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “क्रौंच” – श्री संजय भारद्वाज ☆ प्रोफेसर नंदलाल पाठक

प्रोफेसर नंदलाल पाठक

(क्षितिज प्रकाशन एवं इंफोटेन्मेन्ट द्वारा आयोजित श्री संजय भारद्वाज जी के कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ का ऑनलाइन लोकार्पण कल रविवार 31 अक्टूबर 2021, रात्रि 8:30 बजे होगा।  प्रोफेसर नन्दलाल पाठक जी ने क्रौंच पुस्तक की भूमिका लिखी है, जिसे हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा कर रहे हैं।)

? क्रौंच कविताएँ अब पाठकों की संपत्ति बन गई हैं, कवि की यही सफलता है✍️ प्रोफेसर नंदलाल पाठक ?

 

मेरे लिए काव्यानंद का अवसर है क्योंकि मेरे सामने संजय भारद्वाज की क्रौंच कविताएँ हैं। संजय जी की ‘संजय दृष्टि’ यहाँ भी दर्शनीय है।

कविता के जन्म से जुड़ा क्रौंच शब्द कितना आकर्षक और महत्वपूर्ण है। प्राचीनता और नवीनता का संगम भारतीय चिंतन में मिलता रहता है।

क्रौंच की कथा करुण रस से जुड़ी है। संजय जी लिखते हैं,

यह संग्रह समर्पित है उन पीड़ाओं को जिन्होंने डसना नहीं छोड़ा, मैंने रचना नहीं छोड़ा।

यह हुई मानव मन की बात।

‘उलटबाँसी’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं-

लिखने की प्रक्रिया में पैदा होते गए/ लेखक के आलोचक और प्रशंसक।

बड़ी सहजता से संजय जी ने यह विराट सत्य सामने रख दिया है-

जीवन आशंकाओं के पहरे में / संभावनाओं का सम्मेलन है।

पन्ने पलटते जाइए और आपको ऐसे रत्न मिलते रहेंगे।

मेरे सामने जीवन और जगत है उसे मैं देख रहा हूँ लेकिन ‘संजय दृष्टि’ से देखता हूँ तो लगता है सब कुछ कितना संक्षिप्त है, सब कुछ कितना विराट है।

संजय जी की रचनाओं में सबसे मुखर उनका मौन है।

इन रचनाओं को पढ़ते समय मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि कवि ने छंद, लय, ताल, संगीत आदि का कोई सहारा नहीं लिया। यह इस बात की ओर स्पष्ट संकेत है कि कविता यदि कविता है तो वह बिना बैसाखी के भी अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। संजय भारद्वाज कवितावादी हैं।

भारत जैसे महान जनतंत्र की हम में से प्रत्येक व्यक्ति इकाई है। जनतंत्र की महानता की भी सीमा है। राजनीतिक प्रदूषण से बचना असंभव है, तभी तो-

कछुए की सक्रियता के विरुद्ध / खरगोश धरने पर बैठे हैं।

क्रौंच कविताएँ अब पाठकों की संपत्ति बन गई हैं, कवि की यही सफलता है।

आवश्यक है कि क्रौंच का का एक अंश आप सब के सामने भी हो-

तीर की नोंक और

क्रौंच की नाभि में

नहीं होती कविता,

चीत्कार और

हाहाकार में भी

नहीं होती कविता,

…………………..

अंतःस्रावी अभिव्यक्ति

होती है कविता..!

मेरी शुभकामनाएँ हैं कि संजय जी ऐसे ही लिखते रहें।

 

प्रोफेसर नंदलाल पाठक

पूर्व कार्याध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी

 

? ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री संजय भारद्वाज जी को उनके नवीन काव्य संग्रह क्रौंच के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ?

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह  “जीवन वीणा” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)

कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज

मूल्य : १५० रु

पृष्ठ : १५०

आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆   

जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों,  वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है,  तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक,  प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.

उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं

” घड़ी दिखाई देती है,  समय तू भी तो दिख “.

वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…

” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण,  ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी,  कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.

उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है,  बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है,  उसने मुझे ऐसा धकियाया है,  जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.

गीत,  बाल कवितायें,  क्षणिकायें,  नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी,  दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है,  जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं,  किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है,  मुझे तो अपनी बात कहनी है “.

कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है,  शिष्ट है,  नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम,  राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.

उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व,  समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये,  क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी,  अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है,  जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है,  जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं,  तो वे कुछ बड़ा,  शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.  

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी की पुस्तक  “सकारात्मक सपने” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ 

 पुस्तक चर्चा

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कृति …सकारात्मक सपने

लेखिका …अनुभा श्रीवास्तव

प्रकाशक … डायमण्ड पाकेट बुक्स दिल्ली

मूल्य …११० रु

पृष्ठ .. १२४

साहित्य अकादमी म प्र. संस्कृति परिषद के सहयोग से प्रकाशित एवं लेखिका को इस कृति पर  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त। 

युवा लेखिका ने समय समय पर यत्र तत्र विभिन्न विषयो पर युवा सरोकारो के स्फुट आलेख लिखे , जिनमें से शाश्वत मूल्यो के आलेखो को प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कर प्रकाशित किया गया है .

आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख 

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

–  अनुभा श्रीवास्तव

खूशी की तलाश , आपदा प्रबंधन , कन्या भ्रूण हत्या , स्थाई चरित्र निर्माण हेतु नैतिकता की आवश्यकता , कम्प्यूटर से जीवन जीने की कला सीखने की प्रेरणा , देश बनाने की जबाबदारी युवा कंधों पर , कचरे के खतरे , धार्मिक पर्यटन की विरासत , आरक्षण धर्म और संस्कृति , आम सहमति से समस्याओ का स्थाई निदान, कागज जलाना मतलब पेड जलाना , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई , तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय , शब्द मरते नहीं , कैसे हो गांवो का विकास , मुखिया मुख सो चाहिये , गर्व है सेना और संविधान पर , कार्पोरेट जगत और हिन्दी , संचार क्रांति , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई , महिलायें समाज की धुरी , जीवन और मूल्य जैसे समसामयिक विषयो पर आज के युवा मन के विचारो को प्रतिबिंबित करते छोटे छोटे सारगर्भित तथ्यपूर्ण आलेखो में अभिव्यक्त किया गया है .

लेख विषय की सहज अभिव्यक्ति करते हैं व मानसिक भूख शांत करते हैं . पुस्तक पढ़ने योग्य है , वैचारिक स्तर पर  संदर्भ हेतु संग्रहणीय भी है . युवाओ हेतु विषेश रूप से बहुउपयोगी है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  स्व रामनुजलाल श्रीवास्तव जी के कथा संग्रह “हम इश्क के बन्दे हैं” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा


पुस्तक : हम इश्क के बंदे हैं (कहानी संग्रह)

लेखक : स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव

प्रकाशक : त्रिवेणी परिषद, यादव कालोनी जबलपुर

मूल्य : २०० रु ,

पृष्ठ : १५०

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 99 – “हम इश्क के बंदे हैं” – स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ☆ 

स्व रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ जी ने हिन्दी गीत , कवितायें , उर्दू  गजलें , कहानियां , लेख ,पत्रकारिता , प्रकाशन आदि बहुविध साहित्यिक जीवन जिया . उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से  साहित्यिक में महत्वपूर्ण योगदान दिया .  तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में  ‘प्रेमा’ की बडी प्रतिष्ठा रही है . उन की धरोहर कहानी कृति “हम इश्क के बंदे हैं ” जिसका प्रथम प्रकाशन १९६० में हुआ था , उसे त्रिवेणी परिषद के माध्यम से साधना उपाध्याय जी ने संस्कृति संचालनालय म प्र के सहयोग से पुनर्प्रकाशित किया है . इस कहानी संग्रह में शीर्षक कहानी हम इश्क के बंदे हैं , बिजली , कहानी चक्र , मूंगे की माला , क्यू ई डी , मयूरी , जय पराजय , वही रफ्तार , भूल भुलैया , बहेलिनी और बहेलिया , आठ रुपये साढ़े सात आने , तथा माला नारियल कुल १२ कहानियां संग्रहित हैं .

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की पंक्तियां हैं

सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई , सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी .

ये सारी कहानियां सुख दुख , हार जीत , जीवन की अनुभूतियों , व्यवहार , इसी भावना की राजधानी के गिर्द बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं . ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से हिन्दी कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों जैसा दृश्य उपस्थित करती हैं .  कहानी “वही रफ्तार” को ही लें …

कहानी १९५७ के समय काल की है अर्थात १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के सौ बरस बाद का समय . तब के जबलपुर का इतिहास , भूगोल , अर्थशास्त्र , समाज शास्त्र , राजनीति सब कुछ मिलता है कहानी में . सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है .

कहानी से ही उधृत करता हूं ” अरे अब तो अंग्रेजी राज्य नहीं है . अब तो अपना राज्य है . अपना कानून है . अब तो होश में आओ रे मूर्खो . “

हम आप भी तो यही लिख रहे हैं , मतलब साहित्यकार पीढ़ी दर पीढ़ी लिख रहा है , वह लिख ही तो सकता है . पर लगता है मूर्ख होश में आने से रहे .

एक दूसरा अंश है , जिसमें रिक्शा वाला सवारी से संवाद करते हुये कहता है ” दिन भर में रुपया डेढ़ रुपया मार कूट कर बचा भी तो मंहगाई ऐसी लगी है कि पेट को ही पूरा नहीं पड़ता ” . कहानी का यह अंश बतलाता है १९५७ में रिक्शा वाला दिन भर में रुपये डेढ़ रुपये कमा लेता था. जो उसे कम पड़ता था . कमोबेश यही संवाद आज भी कायम हैं . यह जरूर है कि अब रिक्शे की जगह आटो ने ले ली है , रुपये डेढ़ रुपये की बचत तीन चार सौ में बदल गई है .

इस कहानी में तत्कालीन जबलपुर का वर्णन  भी बड़ा रोचक है ” देवताल के नुक्कड़ पर , गढ़ा की संकरी सड़क में कुछ घुस कर एक मोटर दीख पड़ी ” या “ग्वारी घाट सड़क पर रिक्शेवाला दाहिने मुड़ने लगा तभी सवारी ने कहा सीधे चलो चौथे पुल से इधर दो दो रेल्वे फाटक पड़ेंगे ” छोटी लाइन की समाप्ति और शास्त्री ब्रिज के निर्माण ने यह भूगोल अवश्य बदल दिया है .

अब आपके सम्मुख इस कहानी का कथानक बता देने का समय आ गया है . जो आपको निश्चित ही चमत्कृत कर देगा , यही कहानीकार की विशिष्ट कला है .  

आज भी रोज कमाने खाने वाले मजदूर में यह प्रवृत्ति देखने में आती है कि यदि  किसी तरह उनके पास अतिरिक्त कमाई हो जावे तो बजाय उसे संग्रह करने के वह अगले दिन काम पर ही नही जाते .  वही रफ्तार कहानी में एक रिक्शे वाले जग्गू को उसके चातुर्य से , एक प्रेमी जोड़े से अतिरिक्त आय हो जाती है . वह स्वयं साहब बनकर मजे करना चाहता है और एक सरल हृदय बारेलाल के रिक्शे पर सवारी करता है . साहबी स्वांग करते हुये जग्गू बारेलाल के रिक्शे से अपने मित्र तीसरे रिक्शेवाले मनसुख के घर पहुंचता है . जब बारेलाल पर यह भेद खुलता है कि उस पर अकड़ दिखाता रौब झाड़ता जो उसके रिक्शे की सवारी कर रहा था वह स्वयं भी एक  रिक्शेवाला ही है , तो वह भौंचक रह जाता है . किन्तु फिर भी वह उससे किराया लेने से मना कर देता है तब तीसरा रिक्शे वाला मनसुख जिसके घर जग्गू पहुंचता है वह कहता है ” भाई बारेलाल , यह सच है कि नाई नाई से हजामत की बनवाई नही लेता . पर मैने जो रूखी सूखी बनाई है , आओ हम तीनो बांटकर खा लें और इस सालेसे पूछें कि आज क्या स्वांग किया है .
बारेलाल कहता है , हाँ यह हो सकता है .
 
बारे लाल जग्गू से कहता है ” साले बेईमान एक दिन की बादशाहत में जिंदगी कट जायेगी ? गधे , घोड़े बैल का काम करो , आधा पेट खाओ . फैक्टरी की छंटनी के मारे ऐसी भीड़ कि रिक्शा मिलना भी हराम है . ….

मनसुख बोला धीरज धरो भैया सब ठीक हो जायेगा .

कैसे ?

ऐसे कि जैसे जग्गू बाबू बना था . समय आने पर नकली बाबू का भेद खुल गया न . इसी तरह नकली स्वराज्य और असली स्वराज्य का भेद खुल जायेगा . और समय आते क्या देर लगती है ?

आ ही तो गया सत्तावन गदर का साल .

सत्तावन अत्ठावन सब बीत गये परन्तु गरीबों के लिये तो वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी सो अब भी है .

इस वाक्य से कहानी पूरी होती है . स्व रामानुज लाल श्रीवास्तव की अभिव्यक्ति भारत के अधिकांश गरीब तबके की मन की स्थिति का निरूपण है  . कहानियां सत्य घटनाओ पर आधारित अनुभूत समझ आती हैं .  

प्रश्न है कि क्या राजनीती की लकड़ी ही हांड़ी आज भी वैसे ही चुनाव दर चुनाव नही चढ़ाई जा रही . जग्गू , मनसुख और बारेलाल की पीढ़ीयां बदल चुकी हैं , पर समाज की विसंगतियों की वही रफ्तार कायम है .

सभी कहानियां भी ऐसी ही प्रभावकारी हैं . किताब जरूर पढ़िये . सत्साहित्य के पुनर्प्रकाशन की जो ज्योति त्रिवेणी परिषद ने प्रारंभ की है , वह प्रशंसनीय है . ऐसा पुराना साहित्य जितना अधिक प्रचारित प्रसारित हो बढ़िया है . यह नई पीढ़ी को दिशा देता है . स्वागतेय है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆बूझोवल – रचनाकार – महादेव प्रेमी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा पुस्तक की समीक्षा  “बूझोवल

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ बूझोवल – रचनाकार – महादेव प्रेमी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

 

पुस्तक-  बूझोवल

रचनाकार-  महादेव प्रेमी

प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, रेमंड शोरूम, राधा कृष्ण मार्केट, एसबीआई के पास, गंगापुर सिटी- 322201 जिला -सवाई माधोपुर (राजस्थान)

पृष्ठ संख्या- 116

मूल्य- ₹195

पहेलियों का इतिहास काफी पुराना है. जब से मानव ने इशारों में बातें करना सीखा है तब से यह अभिव्यक्त होते आ रहे हैं. आज भी ये इशारें विभिन्न रूपों में प्रचलित है. जब घर पर कोई मेहमान आता है तब मां अपने बच्चों को इशारा कर के चुप करा देती है. बच्चे मां का इशारा तुरंत समझ जाते हैं. 

अधिकांश बाल पत्रिकांए इन्हीं इशारों पर आधारित बाल पहेलियां प्रकाशित करती है. इन में वर्ग पहेली, प्रश्न पहेली, चित्र पहेली और गणित पहेलियां मुख्य होती है. कई किस्सेकहानियों में भी पहेलियां प्रयुक्त होती आई है. अकबर-बीरबल, विक्रम-बेताल के किस्से पहेलियों पर ही आधारित है. ऋग्वेद, बाइबिल, महाभारत, संस्कृत साहित्य आदि में पहेलियां भरी हुई है.

पहेलियां पूछना और बूझाना हमारी सांस्कृतिक परंपरा रही है. दादीनानी से हम ने कई पहेलियां सुनी है. वे आज भी हमें याद है. इसी तरह संस्कृत साहित्य में भी कई रोचक पहेलियां प्रयुक्त हुई है. इन्हें प्रहेलिका कहते हैं. इन प्रहेलिका में पहेलियों के गूढ़ रूप का ज्यादा प्रचलन रहा है. संस्कृत की एक पहेली देखिए-

श्यामामुखी न मार्जारी, द्विजिह्वा न सर्पिणी

पंचभर्ता न पांचाली, यो जानाति स पंडित.

यानी काले मुखवाली होते हुए बिल्ली नहीं है.  दो जिह्वा  होते हुए भी सर्पिणी नहीं है.  पांच पति वाली होते हुए भी द्रोपदी नहीं है. जो इस का नाम बता देगा वह पंडित यानी ज्ञानवान कहलाएगा. जिस का उत्तर कलम है. यानी पुराने जमाने की नीब वाल पेन. जिस की नीब में बीच में चीरा लगा होता है. 

ऐसी कई पहेलियों ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है. अमीर खुसरों का नाम पहेलियों के लिए ही प्रसिद्ध है. इन के अलावा अनेक साहित्यकारों ने पहेलियां लिखी है. मगर, खुसरों को छोड़ दें तो अधिकांश साहित्यकारों ने कथासाहित्य के साथसाथ पहेलियोें की रचनाएं की है.

पारंपरिक रूप से पहेलियां मानव की बुद्धिलब्धि जानने और उस की क्षमता विकसित करने का एक साधन रही है. ये हमेशा ही सरलसहज, कठिन और गूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होती रही है. इन पहेलियों में किसी वस्तु के गुण, रूप या उपयोगिता का वर्णन संकेत में किया जाता है. इसी के आधार पर इस का उत्तर बताना होता है. 

ये पहेलियों सदा से मानव को चुनौतियां प्रस्तुत करती रही है. इस रूप में और आधुनिक समय में भी इस का महत्व बना हुआ है. पुराने समय में यह राजामहाराज के लिए मनोरंजन और आनंद उठाने के लिए उपयोग में आती थी. वर्तमान में इस का उपयोग मानव मस्तष्कि के विकास और उस की क्षमता बढ़ाने और उस की क्षमता जानने के लिए उपयोग हो रहा है.

इसी परिपेक्ष्य में ‘महादेव प्रेमी’ ने अपनी पुस्तक- बूझोवल, में पहेलियां प्रस्तुत कर के इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है. प्रस्तुत पुस्तक में आप की पहेलियां सरल और गूढ़ दोनों रूपों में लिख कर प्रस्तुत की है. इस में पहेलियां कई रूपों में प्रयुक्त हुई है.

पहेली के वाक्य में छूपे उत्तर की पहेलियां अपने विशिष्ट रूप के कारण ज्यादा सहज व सरल होती है. इस में उत्तर रूपी शब्द पहेलियों में ही व्यक्त होता है. उसे ढूंढ कर या बूझ कर पहेली का उत्तर बताना होता है. बस इस के लिए थोड़ा सा दिमाग लगाना होता है. उत्तर सामने होता है. जिस से ज्यादा आनंद की प्राप्ति होती है. 

उल्टा किया तो हो गया राजी

डाल दिया तो बन गई भाजी.

करते हैं सब ही उपयोग मेेरा

क्या मूल्ला है क्या काजी.

यह इसी प्रकार की पहेली है. इस का उत्तर इसी पहेली में छूपा हुआ है. ये पहेलियां सरल व सहज होती है. जिन्हें पढ़ने में आनंद की अनुभूति होती है. इस अनुभूति के कारण व्यक्ति पहेलियों को पढ़ते चले जाता है.

छज्जे जैसे कान है मेरे

सब से लंबी नाक .

खंबे जैसे पैर है मेरे

बच्चों जैसी आंख. 

इस पहेली में सहजता से उत्तर का पता चल जाता हैं. उत्तर का पता चलते ही मन प्रसन्न हो जाता है. हम भी कुछ जानते हैं यह भाव अच्छा लगता है. इस से पहेलियां पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है. 

तीन अक्षर का मेरा नाम

उल्टा-सीध एक समान.

मेरे साथ ही आप सभी के 

बनते रहते हैं पकवान.

इसे पहेली को बूझ कर देखिए. यदि उत्तर पता चल जाए तो मन प्रसन्न हो जाएगा. नहीं चले तो कोई बात नहीं, आप का मन-मस्तिष्क इस का उत्तर खोजने के लिए प्रेरित हो जाएगा. जब तक उसे इस का उत्तर नहीं मिलेगा तब तक वह उत्तर खोजने के प्रयास में लगा रहेगा.

पहेलियां मस्तिष्क को सक्रिय और क्रियाशील रखने में मुख्य भूमिका निभाती है. संकेताक्षर में लिखी पहेलियां मन को बहुत लुभाती है. इस से पढ़ने वाले का आत्मविश्वास बढ़ता है. इसी संदर्भ में यह पहेली देखिए-

धोली धरती काला बीज

बौने वाला गाए गीत.

इस पहेली को पढ़ कर आप मन ही मन मुस्करा रहे होंगे. इस बात का पता है मुझे. हम सब यही चाहते हैं कि आप कि यह मुस्कान सदा बनी रही. क्यों कि इस पुस्तक के रचनाकार ने अपनी पुस्तक का श्रीगणेश कुछ इसी तरह की पहेली के साथ किया है.

नर शरीर धारण किया

मुख किया पशु समान.

प्रथम पूज्य देवता भये

पहेली है आसान.

कुछ इसी तरह की आसान और आनंददायक पहेलियों इस पुस्तक में प्रस्तुत की गई है. पहेलियों की भाषा सरल और सहज है. इन पहेलियां में रूप, गुण और उस के स्वरूप के वर्णन कर के संकेत रूप में इन का लिखा गया है. 

इस अर्थ में प्रस्तुत पुस्तक के रचनाकार ने अच्छी पहेलियां प्रस्तुत की है. सभी पहेलियां बच्चों के साथ बड़ों के लिए उपयोगी है. कहींकहीं भाषा का प्रवाह बाधित हुआ है. जिसे संपादक ने अपनी कुशलता से दूर कर दिया गया हे.

इस पुस्तक का प्रकाशन किताबगंज द्वारा किया गया है. इस रूप में इस की साजसज्जा और प्रस्तुतिकरण बहुत बढ़िया है. 116 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹195 है. उपयोगिता की दृष्टि से वाजिब है. कुल मिला कर पुस्तक बहुउपयोगी बनी है. इस का साहित्य के क्षेत्र में तनमनधन से स्वागत किया जाएगा. ऐसा विश्वास है. 

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

04/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226 

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ “प्रकृति की पुकार”- संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा पुस्तक की समीक्षा  “प्रकृति की पुकार

आप साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  )

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ प्रकृति की पुकार – संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- प्रकृति की पुकार 

संपादक- डॉक्टर सूरज सिंह नेगी, डॉक्टर मीना सिरोला

प्रकाशक- साहित्यागार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राज)

पृष्ठ संख्या- 340

मूल्य- ₹500

 

सभी सुनें प्रकृति की पुकार

प्रकृति अमूल्य है। हमें बहुत कुछ देती है। जिसका कोई मोल नहीं लेती है। यह बात अस्पताल में कई मरीज बीमारी के दौरान जान पाए हैं। 10 दिन के इलाज में ऑक्सीजन के ₹50000 तक खर्च करने पड़े हैं। यही ऑक्सीजन प्रकृति हमें मुफ्त में देती है। जिसका कोई मोल नहीं लेती है। यह हमारे लिए सबसे अनमोल उपहार है।

तालाबंदी यानी लॉकडाउन के इसी दौर में नदियां स्वत: ही शुद्ध हुई है। हम लाखों रुपए खर्च कर उसे शुद्ध नहीं कर पाए थे। मगर तालाबंदी यानी लॉकडाउन ने इसे संभव कर दिया। कल-कल करती गंगा साफ-सुथरी हो गई। उसकी स्वच्छता अद्भुत थी। मगर तालाबंदी खत्म होते ही नदिया पुन: गंदी होना शुरू हो गई है।

सामान्य दिनों में हमें दूर की चीजें साफ दिखाई नहीं देती हैं। तालाबंदी ने ही वायु को शुद्ध कर दिया था। हवा में तैरती गंदगी कम हो गई थी। बहुत दूर की चीजें साफ दिखाई देने लगी थी। 

यह सब हमारी प्रकृति के बदलते स्वरूप के कारण संभव हुआ था। तालाबंदी के दौरान वाहन बंद हो गए थे। ध्वनि और वायु प्रदूषण कम हो गया था। इसका असर प्रकृति पर दिखने लगा था।

प्रकृति के इसी दौर में, उसकी पुकार को संपादक सूरजसिंह नेगी ने सुना और महसूस किया। उनके मन में 5 जून 2019 के दिन यानी विश्व पर्यावरण दिवस पर यही पुकार मस्तिष्क में गूंजी। तब उन्होंने भूली-बिसरी यादें पाती को पुनर्जीवित करने वाली अपनी मुहिम में इसी प्रकृति की पुकार को भी अपना अभियान बनाया।

स्मरण रहे कि नेगी जी ने राजस्थान में पाती प्रतियोगिता की मुहिम चला रखी है। जिसमें कई विद्यालय के छात्र, अनेक कनिष्ठ और वरिष्ठ रचनाकार इसमें प्रतिभाग कर सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने इसी अभियान में ‘प्रकृति की पाती मानव के नाम’ को शामिल किया। प्रतियोगिता आयोजित की। ताकि मानव मन को प्रकृति की पुकार को सुना जा सके। ताकि हम मानव अपने-अपने स्तर पर उसकी आवाज सुनकर उसे सजा और संवार सकें।

बस! इसी को पाती प्रतियोगिता के रूप में रूपांतरित किया गया। इसमें कनिष्ठ और वरिष्ठ- दो वर्ग में बांटा। फलस्वरूप इस प्रतियोगिता को अच्छा प्रतिसाद मिला। 250 से अधिक पत्रों में से 118 पत्रों का चयन कर “प्रकृति की पुकार” नामक पुस्तक में चयनित पत्रों को स्थान दिया गया।

प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित हरेक पाती अनोखें और अलग अंदाज में लिखी गई है। प्रकृति ने रचनाकार को आत्मसात कर मानव के नाम अनोखी पाती लिखी है। इसमें कई रंग, कई भाव, कई भंगिमा और कई आयाम प्रस्तुत किए गए हैं।  जिसमें विविध रंग भरे हुए हैं। यह सब रंग हमें भातें और सुहाते हैं। साथ ही रुचिका लगते हैं। बस पढ़ने, गुनने और महसूस करने की जरूरत है।

प्रस्तुत पुस्तक उसी पाती मुहिम का अंग है। इसमें रचनाकारों द्वारा प्रकृति की पाती मानव के नाम लिखी गई है। इसी में प्रकृति अपने मन की बात, मानव के द्वारा कह रही है।

आज की आवश्यकता को देखते हुए “प्रकृति की पुकार” बहुत ही आवश्यक पुस्तक है। इसका संपादन सूरजसिंह नेगी व डॉक्टर मीना सिरोला ने किया है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ आकर्षक है। त्रुटि रहित छपाई, बेहतरीन आवरण पृष्ठ, ऊत्तम साजसज्जा, हार्डकवर बाइंडिंग और 340 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 वाजिब है। प्रकृति व मानव की भलाई की दृष्टि से यह बहुत ही उपयोगी पुस्तक है। जिसे समस्त रचनाकारों को ससम्मान भेंट किया गया है। यह पुस्तक सभी के लिए अनुपम उपहार है।

आशा है कोरोना काल में देखी व महसूस की गई विसंगतियों को दूर करने के लिए इस पुस्तक का सभी हार्दिक स्वागत करेंगे। ऐसा विश्वास है। इस पुस्तक के संयोजन के लिए सभी बधाई के पात्र हैं।

 

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226 

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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