हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कविता – पल… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा पल…।)

☆ लघुकथा – पल… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

मैं इकट्ठा करता रहा, पलों को,

कभी इस हाथ में, कभी उस हाथ में,

समय ही नहीं था, मिलता था,

उन पलों को खर्च करने के लिए,

बस इकट्ठा ही करता रहा,

इसी में लगा रहा, कितने इकट्ठे हों,

बाद में इन्हें खर्च करूंगा, अकेले ही,

सब रिश्ते नाते छूट गए, नहीं संभले,

मैं अपने दायरे में ही सिमटता गया,

पल तो मृग मरीचिका की तरह थे,

मेरे अपने थे ही नहीं, कैसे रुकते,

मैं क्या, कोई भी नहीं रोक सका पलों को,

सूखी रेत की तरह,  हाथों से फिसलते गए,

कौन रोक सका है, जाते हुए पलों को,

भूल गया था कि, पलों को रोका नहीं जाता,

पलों के साथ, साथ, जिया जाता है,

रिश्ते नातों के साथ, पलों को जिया जाता है,

दोस्तों के साथ, पलों को बिताया जाता है,

राज की बात थी, बहुत देर से जाना,

पल नहीं रुकते, आना चाहिए, पल बिताना.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 216 ☆ # “पुस्तक दिवस पर…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता पुस्तक दिवस पर…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 216 ☆

☆ # “पुस्तक दिवस पर…” # ☆

यह कैसी मूर्खतापूर्ण सोच है

यह कैसी नेगेटिव अप्रोच है

कि पुस्तकों की क्या जरूरत है

इन्हें पढने की किसको फुर्सत है

वह क्या जाने

इन पुस्तकों में क्या खास है

बहुत कुछ समाविष्ट है इनमें

जिन्हें पढ़ने की आस है

इनमें –

ज्ञान है संस्कार है

विज्ञान है चमत्कार है

अर्थ है कारोबार है

योगी का योग

सन्यासी का संसार है

धम्म का गूढ़ रहस्य

जीवन का सार है

प्रेम और विरह  है

संबंधों की टूटती धार है

अंधकार की पीड़ा है

निर्बल की वेदना है

सत्य की खोज है

जीने की चेतना है

संतो की वाणियाँ है

अनूठी कहानियाँ है

उपदेश है तपस्या का

जांबाज कुर्बानियां है

कवियों की कविताएं है

प्रेम और श्रृंगार है

कलम के कलमकारों की

रचनाएं बेशुमार है

भ्रमण की गुनगुन

फूलों का पराग है

मन को मंत्र मुग्ध  करता

संगीत और राग हैं 

शतरंज के खेल हैं 

सियासत के दांव हैं 

कहीं कड़ी धूप तो

कहीं ठंडी छांव हैं 

सदियों की रीतियाँ हैं 

झकझोरती कुरीतियां हैं  

मानवता को शर्मसार करती

समाज की नीतियां हैं 

कहीं सूरज चांद

तू कहीं नीला आसमान हैं 

कहीं मनभावन निसर्ग तो

कहीं गीत गाता इंसान हैं 

पुस्तकें हमारा अतीत हैं 

पुस्तकें  जीवन संगीत हैं 

पुस्तकें हमारी धरोहर हैं 

पुस्तकें शब्दों से हमारी प्रीत है

इन्हें बचाना हमारा धर्म है

इसमें हमें कैसी शर्म है

इनमें छिपे कई मर्म हैं 

इन्हें संजोकर रखना हमारा कर्म है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ??

अंजुरि में भरकर बूँदें

उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं

अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी

की ओर..,

 

मुट्ठी में धरकर दाने

उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे

उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

 

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के

पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को

ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

….तुम कब लौटोगे मनुज..?

?

© संजय भारद्वाज  

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 158 ☆ गीत – ।।खाली मुट्ठी हाथ की जाओगे सब छोड़।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 158 ☆

☆ गीत – ।।खाली मुट्ठी हाथ की जाओगे सब छोड़।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

खाली मुट्ठी हाथ की  जाओगे सब छोड़।

तिनका – तिनका रिश्तों का तू मिल कर जोड़।।

***

हर किसीको अहमियत देना सीख ले आदमी।

हर किसी के दर्द को भी दीख ले बस आदमी।।

बरसों के बने रिश्ते तू     पल भर में मत तोड़।

खाली मुट्ठी हाथ की जाओगे सब छोड़।।

***

हर क्षण पल-  पल में  बदल रहा है आदमी।

हर किसी के सुख में दे दखल रहा है आदमी।।

क्रोध नहीं प्रेम की ओर तू खुद को जरा मोड़।

खाली मुट्ठी हाथ की जाओगे सब छोड़।।

***

शांत रह जो कमाया क्रोध में मत बहा उसको।

क्यों नफरत की दीवार उठाई तू   ढहा उसको।।

एक ही मिला जीवन तू आदमी बन जरा बेजोड़।

खाली मुट्ठी हाथ की जाओगे सब छोड़।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #223 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – क्रोध… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – क्रोध। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 223

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – क्रोध…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

क्रोध न हल देता झगड़ों का क्रोध सदा ही आग लगाता।

जहाँ उपजता उसके संग ही सारा ही परिवेश जलाता ॥

मन अशांत कर देता सबका कभी न बिगड़ी बात बनाता ।

जो चुप रहकर सह लेता सब उसको भी लड़ने भड़काता ॥

*

हल मिलते हैं चर्चाओं से, आपस की सच्ची बातों से।

रोग दवा से ही जाते हैं हों कैसे भी आघातों से ॥

प्रेमभाव या भाईचारा, आपस में विश्वास जगाता।

वही सही बातों के द्वारा सब उलझे झगड़े निपटाता ॥

*

इससे क्रोध त्याग आपस का खोजो तुम हल का कोई साधन

जिससे आपस का विरोध-मतभेद मिटे विकास अनुशासन ॥

काम करो ऐसा कुछ जिससे हित हो सबका आये खुशियाँ।

कहीं निरर्थक भेद बढ़े न रहे न दुखी कभी भी दुखियाँ ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एकता और शक्ति ☆ हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

☆  कविता ☆  एकता और शक्ति  ☆

(काव्य संग्रह ‘शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे…’ से)

ब्रेकिंग न्यूज़ आती है

उतरता है

तिरंगे में लिपटा

अमर शहीद!

 

तुम खोते हो

सैकड़ों के बराबर – एक सैनिक

किन्तु,

उसका परिवार खो देता है

बहुत सारे रिश्ते

जिन्हें तुम नहीं जानते।

 

तुमने अपनी

और

उसने अपनी

रस्म निभाई है।

बस यही

एक शहीद की

सम्मानजनक विदाई है।

 

चले जाओगे तुम

उसकी विदाई के बाद

भूल जाओगे तुम

उसकी शहादत

और शायद

तुम्हें आएगी बरसों बाद

कभी-कभी उसकी याद।

 

उसने अंतिम सफर में

तिरंगे को ओढ़कर

सम्मानजनक विदाई पाई है

जरा दिल पर हाथ रख पूछना

क्या तुमने बतौर नागरिक

सुरक्षित सरहदों के भीतर

अपनी रस्म निभाई है ?

 

तुम्हें मिली है

स्वतन्त्रता विरासत में

लोकतन्त्र के साथ।

एक के साथ एक मुफ्त!

जिसकी रक्षा के लिए

उसने अपना सारा जीवन

सरहद पर खोया है।

उसकी अंतिम बूँद के लिए

अपना पराया भी रोया है।

 

तुम नहीं जानते

एक सैनिक का दोहरा जीवन!

वह जीता है एक जीवन

अपने परिवार के लिए

और

दूसरा जीवन

सरहद की हिफाजत के लिए।

 

वह भूल जाता है

अपनी जाति, धर्म और संप्रदाय।

वर्दी पहनने के बाद

कोई नहीं रहता है

हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई

हो जाते हैं सच्चे भाई-भाई

उनका एक ही रहता है धर्म

मात्र – राष्ट्र धर्म!

 

वे लड़ते हैं तुम्हारे लिए

कंधे से कंधा मिलाकर।

जाति, धर्म, संप्रदाय, परिवार

अपना सब कुछ भुलाकर।

और तुम

महफूज सरहद के अंदर

लड़ाते रहते हो आपस में कंधा

कभी धर्म का,

कभी जाति का,

कभी संप्रदाय का।

फिर

एकता और शक्ति की बातें करते हो

अमर शहीदों पर पुष्प अर्पित करते हो

धिक्कार है तुम पर

कब कंधे से कंधा लड़ाना बंद करोगे

कब कंधे से कंधा मिलाकर चलोगे

कब अपना राष्ट्रधर्म निभाओगे?

 

इन सबके बीच कुछ लोगों ने

जीवित रखी है मशाल

निःस्वार्थ बेमिसाल

तुम बढ़ाओ  तो सही

अपना एक हाथ

अपने आप जुड़ जायेंगे

करोड़ों हाथ।

बस इतनी सी ही तो  चाहिए

तुम्हारी इच्छा शक्ति,

राष्ट्रधर्म और राष्ट्रभक्ति….

तुम्हारी एकता और शक्ति

 

©  हेमन्त बावनकर  

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिहीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कविता ? ?

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

मानसरोवर का अनहद,

शिवालय का नाद कविता,

अयोध्या का चरणामृत,

मथुरा का प्रसाद कविता,

अंधे की लाठी,

गूँगे का संवाद कविता,

बारम्बार करता नमन संजय,

माँ सरस्वती साक्षात कविता!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #47 – नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का।)

? रचना संसार # 47 – नवगीत – भीषण दोहन हुआ प्रकृति का…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

बदला है परिवेश हमारा,

फटते वसन पुराने हैं।

रीति-रिवाजों को भूले सब,

दो आँखों के काने हैं।

 *

सभी रसोई  हुई आधुनिक,

सिलबट्टा  अब ओझल है।

टूटे मिट्टी के चूल्हे हैं,

नीर बहाता ओखल है।।

कुतर रहे पीतल के बर्तन,

चूहे बड़े सयाने हैं।

 *

भीषण दोहन हुआ प्रकृति का,

लुप्त हो रहे हैं जंगल।

दंश मारते लोभी बिच्छू,

यश-वैभव के हैं दंगल ।।

निगल रहे छोटी मछली को,

मगरमच्छ से थाने हैं।

 *

दर्प दिखाता अब दिनकर भी,

हुआ  विदेशी है घन भी।

पीली पड़ी दूब आँगन की,

घटते जाते पशुधन भी।।

ढोल बजाते लोभी नेता,

दाँव-पेंच सब जाने हैं।

 *

बंद फाइलों में घोटाले,

क्रोधित होता है  सागर।

जोशीमठ की देख त्रासदी,

विचलित जग है नटनागर ।।

खोटे सिक्के राजनीति के,

अम्मा चलीं भुनाने हैं।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #274 ☆ भावना के दोहे – जिंदगी ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – जिंदगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 274 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – जिंदगी ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

आँधी से डरता नहीं, नहीं रुके हैं पाँव।

चलते जाना मार्ग में, मगर कहाँ है छाँव।।

*

उजड़ गई है ज़िन्दगी, घर सारा वीरान।

दिल में सबके उठ रहा, हिंसा का तूफ़ान।।

*

बिन मौसम बरसात हो, ओलों की भरमार।

बिगड़ी उपज किसान की, करते सुधी विचार।।

*

सुखमय मौसम में उठा, कैसा झंझावात।

भेंट चढ़ा आतंक की, होता है प्रतिघात।।

*

बात-बात पर क्यों भला, नित्य अकारण क्रोध।

पहले तो तुमने कभी, किया न तनिक विरोध।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #256 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 256 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

करें सृजन ऐसा सदा, बढ़े राम से प्रीति |

राम नाम का जाप कर, चलें नीति संग रीति ||

*

प्रेम प्रकट उनसे किया, शब्द हुए तब मूक |

भाव चेहरे के कहें, अन्तस के हर रूप ||

*

नैनों से नैना मिलें, होकर जब आसक्त |

झुके नयन खुद ही करें, प्रेम आपना व्यक्त ||

*

कहने को तो जगत में, सुख के दिवस अनंत |

दुख का रेला बहे तो, सुख का होता अंत ||

*

सुख की गहराई कभी, माप सका है कौन |

दुख के दल दल में फँसे, प्रश्न खड़े हैं मौन ||

*

जीवन भर छूटे नहीं, सुख की गहरी आस |

जीवन मर्यादित रहे, यही बात है खास ||

*

दो मुख के संसार में, करते दुहरी बात |

चाल दुरंगी चल रहे, आज यही हालात ||

*

तन मन जन धन पर कभी, करना नहीं गुमान |

तभी बढ़ेगा आपका, इस जीवन में मान ||

*

कोरी बातों से कभी, बनें न कोई काम |

मिलते निष्ठा, लगन से, हमें सुखद परिणाम ||

*

अन्तस की सुनिए सदा, कहता यह संतोष |

रखें नियंत्रित जीभ को, किए बिना ही रोष ||

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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