हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्थितप्रज्ञ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – स्थितप्रज्ञ ? ?

शव को

जलाते हैं,

दफनाते हैं,

शोक, विलाप,

रुदन, प्रलाप,

अस्थियाँ, माँस,

लकड़ियाँ, बाँस,

बंद मुट्‌ठी लिए

आदमी का आना,

मुट्‌ठी भर होकर

आदमी का जाना,

सब देखते हैं,

सब समझते हैं,

निष्ठा से

अपना काम करते हैं,

श्मशान के ये कर्मचारी;

परायों की भीड़ में

अपनों से लगते हैं…,

घर लौटकर

रोज़ाना की सारी भूमिकाएँ

आनंद से निभाते हैं,

विवाह, उत्सव,

पर्व, त्यौहार,

सभी मनाते हैं,

खाते हैं, पीते हैं,

नाचते हैं, गाते हैं…,

स्थितप्रज्ञता को भगवान

मोक्षद्वार घोषित करते हैं,

धर्मशास्त्र संभवत: 

ऐसे ही लोगों को

स्थितप्रज्ञ कहते हैं….!

?

 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल ☆ बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ।)

✍ बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ… ☆ श्री हेमंत तारे  

गरचे यूं होता के मैं इक मुसव्विर होता

मेरे जेहन में तू और तेरा तसव्वुर होता

रंग, ब्रश, कैनवास मैं और तू संग रहते

मैं तिरी तस्वीरे बनाता और मुनव्वर होता

*

मिरा नसीब है के तू यहीं है, आसपास है

तू मिरे पास न होता तो मैं मुन्फरिद होता

*

अच्छा है कोई, ख़्वाहिश बाकी न रही

अब पुरसुकूँ हूँ मैं, वर्ना मुन्तजिर होता

*

बहुत उलझनें है यार सियासत में यहाँ

मैं चाहिता वर्ना तो क़ाबिज़े इक्तिदार होता

*

वो शाइर अच्छा है कहते हैं सभी

गर मशायरा पढता तो मुकर्रर होता

*

वो तो इक संग ने पनाह दे दी वरना

ये हक़ीर ठोकरें दर – ब- दर होता

*

‘हेमंत अब और नही, उसपे एतिमाद नही

वो सलीके से निभाता तो उसपे ऐतिबार होता

(मुसव्विर = चित्रकार, मुनव्वर = प्रकाशमान/ प्रसिद्ध, मुन्फरिद = एकाकी, मुन्तजिर = पाने की चाह में प्रतिक्षित, काब़िज़ = मालिकाना हक, इक्तिदार = सत्ता, मुकर्रर = बार – बार का आग्रह, संग = पत्थर, हक़ीर = तुच्छ/ तिनका, एतिमाद = भरोसा, ऐतिबार = भरोसा / विश्वास)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆

✍ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

आदमी है या है बला तौबा

कर रहा दोस्त बन दग़ा तौबा

 *

इश्क़ से मैंने कर लिया तौबा

मुस्तक़िल पर न रह सका तौबा

 *

मयकशी की न याद फिर आई

मदभरी आँख का नशा तौबा

 *

शूल भी फूल भी हैं राहों में

शूल मुझको ही क्यों चुभा तौबा

 *

साँस लेना भी आज दूभर है

ये प्रदूषण भरी हवा तौबा

 *

ज़िस्म का लम्स क्या हुआ तेरे

धड़कनों में उछाल सा तौबा

 *

दोस्त अग़यार सा मिला मुझसे

ये तग़ाफ़ुल नहीं क़ज़ा तौबा

 *

मैक़दे की बना वो रौनक है

मय से जिसकी है बा-रहा तौबा

 *

वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक

कर गुनाहों से बा ख़ुदा तौबा

 *

अय अरुण इस डगर पे मत जाना

प्यार जिसने किया किया तौबा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 100 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 6 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 100 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 6 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

ठेका लिया है जिनने ईमानदारियों का,

ठगना है पेशा उनकी दूकानदारियों का,

हर वृक्ष में समाया रहता है डर हमेशा 

पर्यावरण सुधारक नेता की आरियों का

0

फल भुगतना ही पड़ा इन्सां को अपने पाप का, 

वक्त फिर अवसर नहीं देता है पश्चाताप का, 

जिनने लूटी है किसी बेटी-बहू की आबरू 

उनकी संतानें झुका देती हैं सिर माँ-बाप का।

0

मेरे चेहरे का पानी थे, 

वे घर के छप्पर-छानी थे, 

झुके, न झुकने दिया कभी भी 

मेरे पिता स्वाभिमानी थे।

0

आशिकों पर अगर सितम होंगे, 

तेरी महफिल में फिर न हम होंगे, 

चाटुकारों की भीड़ तो होगी, 

तुम पे मिटने के पर न दम होंगे।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ साझेदार…! ☆ सुश्री प्रतिभा श्रीवास्तव ‘अंश’ ☆

सुश्री प्रतिभा श्रीवास्तव ‘अंश’

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं समाजसेवी सुश्री प्रतिभा श्रीवास्तव ‘अंश’ जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। कई सामाजिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा 2016 से सतत पुरस्कृत/अलंकृत/सम्मानित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पाण्डुलिपि पुरस्कार से सम्मानित। काव्य संग्रह “आवरण शब्दों का”, दर्जनों साझा संग्रह और एक सृजन समीक्षा प्रकाशित। साहित्यिक प्रतियोगिताओं में निर्णायक की भूमिका का निर्वहन। नाटक हम नही सुधरेंगे’ और ‘हाँ, नही आती शर्म’  में बेहतरीन अभिनय हेतु सम्मानित। दूरदर्शन व आकाशवाणी पर काव्य प्रस्तुति।  गिनीज वर्ल्ड विश्व रिकॉर्ड में “माँ”पर आधारित कविता (कुछ कहना है) चयनित। गृहशोभा – सरिता , मुक्ता, कादम्बिनी, मधुरिमा आदि सैकड़ों पत्रिकाओं व देश-प्रदेश के साथ ही विदेशी समाचार पत्रों में कविता का प्रकाशन। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम भावप्रवण कविता – साझेदार…!)

☆ कविता ☆ साझेदार…! सुश्री प्रतिभा श्रीवास्तव ‘अंश’

जो नहीं थे,

मेरे सुख के साझेदार,

जिनके लिए मेरी खुशियों का

कोई मोल  ही न था…

जो मेरे होकर भी मेरे ना थे…

उन तमाम लोगों को आज

अपने दुख से बेदखल करती हूँ

कि न आये वो, दुख में मेरा हाथ थामने!

 

जानना जरूरी होगा, सभी को

कि अकेला पड़ जाना

और अकेले छोड़ देने की

महीन रेखा को,

उससे उठते दर्द की परिभाषा कहीं लिखी नहीं जाती,

पर मैं लिखूंगी, इसकी परिभाषा

अपनी वसीयत में!

 

  जरूरत को पूरा करना

हर बार जरूरी नहीं होता

कभी वक्त वेवक्त प्रेम/परवाह जताना भी अपनेपन की निशानी है….

ये निशानियां अब नजर नहीं आती…

मुझे! तुम में तुम नजर नहीं आते

इसलिए भी मैं,  तुम्हें अपने दुख से बेखल करती हूँ।

 

मुझे कोई रोग कोई पीड़ा

है कि नहीं, नहीं जानती

फिर भी चेहरे का पीला पड़ना

मन खाली होना और दिल का भारी होना

यह सब क्यूँ हो रहा है…?

आँसू आँख में अटके रहते.

कि कभी कोई आयेगा….पोछने

इस इंतजार में मन मकड़ी के जालों की तरह उलझा रहता..

जो नहीं देता मेरे मन पर दस्तक… क्या करूँ मैं?

ऐसे अपनों का…!

 

जो नहीं बैठा, मुझे अपना समझकर

मेरे साथ, उन सभी को

मैं अपने दुख से बेदखल करती हूँ..

 

कि मत आना राम नाम सत्य कहने भी,

कि उस समय भी तुम दुख का कारण बनोगे…

तुम दुख में भी, दुख का कारण बनो,

ऐसा मैं हरगिज नहीं चाहती

इसलिए भी

जो नहीं थे मेरे सुख के साझेदार

उन तमाम लोगों को

अपने दुख से बेदखल कर रही हूँ…

©  सुश्री प्रतिभा श्रीवास्तव ‘अंश’

संपर्क – 213/ सेक्टर 2, ‘A’ साकेत नगर, भोपाल – 462024 – मो नं.-9977588010

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नौजवान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – नौजवान ? ?

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

बूढ़े किस्सों और

अबोध सपनों के बीच,

बिछ जाता है सेतु की तरह,

लोग उसे नौजवान कहने लगे हैं।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 174 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 174 – मनोज के दोहे ☆

सूरज की दादागिरी, चलती है दिन रात।

हाथ जोड़ मानव करें, वरुणदेव दें मात।।

 *

धूप दीप नैवेद्य से, प्रभु को करें प्रसन्न।

द्वारे में जो माँगते, उनको दें कुछ अन्न।।

 *

बैशाख माह में दान का, होता बड़ा महत्व।

यही पुण्य संचित रहे, सत्य-सनातन-तत्त्व।।

 *

मंदिर चौसठ योगनी, भेड़ाघाट सुनाम।

तेवर में माँ भगवती, त्रिमुख रूप सुख धाम।।

 *

पहलगांव में फिर दिया, आतंकी ने घाव।

भारत को स्वीकार यह, नर्किस्तानी ताव।।

 *

भारत को सुन व्यर्थ ही, दिलवाता है ताव।

फिर से यदि हम ठान लें, गिन न सकेगा घाव।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 234 – बुन्देली कविता – जे नैंना कजरारे… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – जे नैंना कजरारे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 234 – जे नैंना कजरारे… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

लखतन जे नैना कजरारे

  सवई भये मतवारे।

 

सोने कोई देह द्विपत है

ऊ  पै गानों-गुरिया।

करन फूल प्रानन रस घोरत

सुर छेड़त बांसुरिया |

 

जी की तना हेर लेतीं हो

ऊ तन होय उजयारी ।

जादा हँसी कहाँ नौ निकरे

लगी नथुनिया तारौ ।

 

ऐंसी उठन चलन है तुमरी

जैसे नदी  असाढ़ी।

बाजूबन्द नँद हैं जैसे

खेत रखाउत बाड़ी ।

 

हिरनी जैंसी निधा तुमाई

तुरतई प्रान पछोरे ।

जीबन राजा की फुल बगिया

सवई खड़े कर जोरें ।

 

हमइ सॉंगरे बच निकरे हैं

सबके प्रान निकारे

लखतन जे नैंना कजरारे ।

सबड़ भये मतवारे ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 234 – “गतिशील हो गई हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत गतिशील हो गई हैं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 234 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “गतिशील हो गई हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

परी बनी ,हरी-हरी

पहिन साडियाँ

सिल्की दिखा किये हैं

सुबह की पहाडियाँ

 

हौले से तह किये

लगीं जैसे दुकान में

ठहरी प्रसन्नता हो ।

खुद के मकान में

 

चिडियों की चहचहाहटों

के खुल गये स्कूल

 पेड़ों के साथ पढ ने

आ जुटीं झाडियाँ

 

धुँधला सब दिख रहा है

यहाँ अंतरिक्ष में

खामोश चेतना जगी

है वृक्ष-वृक्ष  में

 

जैसे बुजुर्ग, बादलों

के झूमते दिखें

लेकर गगन में श्वेत-

श्याम बैल गाडियाँ

 

गतिशील हो गई हैं

मौसम की शिरायें

बहती हैं धमनियों में

ज्यों खून सी हवायें

 

या कोई वैद्य आले

को  लगा देखता

कितनी क्या ठीक चल

रहीं , सब की नाडियाँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14 – 06 – 2022

 संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – चिरंजीव ? ?

मैं, विधाता की रचना,

विधान को चुनौती दूँगा,

तजकर शरीर अपना,

शब्दों में ज़िंदा रहूँगा!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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