(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास
उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।
घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।
उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।
– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।
– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।
उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।
-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!
– है कोई उपाय इसका तो बोलो?
– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।
– अच्छा! मुझे भी बताओ?
– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?
बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।
-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।
– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।
दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।
ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।
सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।
सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।
माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?
बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।
बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।
दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।
अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।
परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆
🌻लघुकथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷
मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।
विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है, पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।
बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।
पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।
साधना का पूरा शरीर सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।
सभी कहने लगी हद कर दी इसने पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।
पं बने साधु कहने लगे—
जाकी रही भावना जैसी।
प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।
(ई-अभिव्यक्ति में श्री राजेंद्र निगम जी का स्वागत। आपने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा गिरिमा घारेखान जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “नंगे पैर”।)
☆ कथा-कहानी – नंगे पैर – गुजराती लेखिका – गिरिमा घारेखान ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
‘पापा, शांतु काका, गुजर गए।’ चाय का खाली कप लेने के लिए आए, विरल ने बहुत धीमे शरद भाई को कहा।
‘अरे ! कब ? यह तुम्हें किसने कहा ?’ शरद भाई के कांपते हाथों से चाय की प्याली गिर गई। उसके टुकड़े खन खन… की आवाज के साथ चारों ओर बिखर गए।
‘रात्रि नींद में ही हार्ट अटैक हुआ। आप बाथरूम में थे, तब ही उनके घर से फोन आया था।’ विरल ने शरदभाई के पास बैठकर उनकी पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा।
जयश्री तुरंत दौड़ कर झाडू व सूपडी ले कर आ गई। ‘पापा, पैर ऊपर उठा लें, काँच चुभ जाएँगे, अभी आप नीचे मत उतरना।’
‘लेकिन मुझे तो शांतु के घर जाना है।’ शरदभाई की आवाज एकदम किसी बालक जैसी हो गई थी।
‘पापा, लेकिन अभी वक्त है। काका को तो आठ बजे तब निकालेंगे, जब सब आ जाएंगे, उसके बाद ही।’
‘निकालेंगे ?’ शरदभाई ने कहा तो विरल को था, लेकिन उनकी नजर हवा में थी, मानो दूर वे कुछ देख रहे हों।
जयश्री ने विरल की ओर तेज नजरों से देखा।
‘सॉरी पापा, निकालना नहीं, विदा करना है।’ विरल ने पापा की पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा। आधी सदी से भी अधिक पुराना जिगरी दोस्त जब विदा हो जाए, तब पापा की हालत क्या हो रही होगी, यह विरल समझ सकता था। लेकिन इस समय तो उसे पापा के बी.पी. की चिंता हो रही थी|
‘पापा, प्लीज आप पैर ऊपर ले लो न।’ जयश्री ने दूसरी बार कहा। पलंग पर कुछ अंदर खिसक कर शरदभाई ने पैर हवा में लटकाए। उन्हें लग रहा था, मानो इस समय वे बिना किसी आधार के ही हवा में लटक रहे हों। जयश्री काँच के टुकड़ों को इकठ्ठा करती रही। विरल अन्य दो-तीन परिचितों को यह दुखद समाचार देने के लिए फोन करने हेतु अंदर गया।
शरदभाई देर तक अपने लटके हुए पैरों की ओर देखते रहे। वे पैर धीरे-धीरे छोटे होते गए और फिर किसी दस वर्ष के बालक के पैर बन गए। मन ने एक नाव बन कर भूतकाल के किसी बड़े महासागर की ओर प्रयाण किया।
उस दिन शाला से लौटते समय उसकी चप्पल अचानक टूट गई थी। दोपहर का एक बजा था और उस समय रास्ते बहुत तप रहे थे। नंगे पैर चलने की आदत उसे बिल्कुल नहीं थी| कंधे पर बस्ता व हाथ में टूटी चप्पल लेकर वह शाला के नजदीक एक छाँहवाली जगह देख कर खड़ा रह गया था। उसे फ़िक्र थी, कि वह घर अब इस हालत में कैसे जाएगा। तब उसकी ही कक्षा का, लेकिन अन्य विभाग में पढनेवाला शांतु वहाँ से निकला। दोनों के घर पास-पास ही थे. लेकिन शांतु कभी घर के बाहर दिखाई नहीं देता था, इसलिए विशेष पहचान नहीं थी।
शांतु उसे देख कर एकदम खड़ा रह गया था।
‘क्या हुआ ? यहाँ क्यों खड़े हो ? घर नहीं आना है क्या ?’
‘चप्पल टूट गई है। पैर बहुत जलते हैं। क्या करूँ ? घर कैसे जाऊँ ?’ शरद की आवाज रोने जैसी हो गई थी।
‘अरे, इसमें क्या परेशानी है ? मैं तो चप्पल कभी पहनता ही नहीं। देखो, कुछ नहीं होता है।’
शरद की नजर शांतु के पैरों पर गई। वास्तव में उसके पैरों में चप्पल नहीं थीं। उसे समझ नहीं आया कि बगैर चप्पल पहने घर के बाहर पैर कैसे रख सकते हैं ! मोहल्ले में थप्पा या ऐसा ही कोई खेल हो, तब बात अलग है।
‘तुम्हारे पैर जलते नहीं हैं, रास्ते कितने गर्म हैं !’
‘शरद, देखो मेरी तरह करो। जब धूप हो, तब दौड़ो और फिर जब पेड़ या मकान की छाँह आए, तब खड़े रह कर थकान को कम करो। दौड़ना लेकिन सड़क के बीच नहीं, पास की धूल पर दौड़ो, तब पैर कम जलेंगे। दौड़ने की रेस करते चलोगे, तो जल्दी पहुँच जाओगे। चलो, आना है ?’ शांतु इस तरह बोल रहा था, मानो बगैर चप्पल के चलना ही स्वाभाविक है।
शरद कुछ झिझका। लेकिन शांतु के बगैर जाना संभव भी नहीं था। उसने शांतु के साथ दौड़ना शुरू किया। पैर बहुत जलते, उसके पहले ही छाँह मिल जाती थी। अधिक परेशानी नहीं हुई। घर पहुँच गए।
दूसरे दिन चप्पल थी, लेकिन फिर भी वह पिछले दिन की जगह पर ही खड़ा रहा। शांतु ने उसे देखा और वह भी खड़ा रह गया।
‘क्यों ? आज तो चप्पल पहनी है !’
‘हाँ, लेकिन तुम्हारे साथ दौड़ना है। मजा आता है। आज तो मैं तुमसे भी तेज दौडूंगा।’
चप्पल पहन कर दौड़ना उसे सुविधाजनक नहीं लगा। इसलिए शरद ने चप्पल हाथ में ले लीं और फिर प्रतियोगिता में दौड़ने लगा। शांतु शायद जानबूझकर धीमे दौड़ रहा था। शरद को जीतने में मजा आया, मात्र उस दिन ही नहीं, बल्कि रोज।
शाला में परीक्षा पूर्ण हुई। परिणाम के दिन शरद शाला से बाहर आया, उसका चेहरा लटका हुआ था। उसने शांतु को देखते ही कहा, ‘आज दौड़ना नहीं है, चाहे घर देर से ही पहुँचे।’
‘क्यों, क्या हुआ ?’
‘गणित में पास नहीं हुआ।’ आँखों में आएँ आँसू गाल पर टपकें, उसके पहले ही शरद ने कमीज की बाँह से उन्हें पोंछ लिया।
शांतु गंभीर हो गया। ‘अब तुम्हारी माँ नाराज होंगी ?’
‘नहीं, पिताजी। अब वे मेरी ट्यूशन कराएँगे, जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।’
फिर उसे शांतु के परिणाम पूछने का याद आया। ‘तुम्हारा क्या परिणाम आया ?’
‘मेरा तो हर वक्त पहला नंबर आता है।’ शांतु के इस उत्तर से मानो अचरज हुआ हो|
‘तुम्हें कौन पढ़ाते हैं- पिताजी या माँ ?’
‘मैं तो स्वयं ही पढता हूँ। मेरी माँ तो…।’ शांतु ने अधिक बात करने के स्थान पर दौड़ना शुरू कर दिया था।
दूसरे दिन शरद पहली बार शांतु के घर आया था। उसे आश्चर्य हुआ – कितना छोटा घर था ! और वह भी खाली-खाली। शांतु से उम्र में कुछ बड़ी बहन रसोईघर में कुछ पका रही थी। शांतु उसके छोटे भाई को पढ़ा रहा था। शरद को देख कर वह तुरंत खड़ा हो गया था।
शरद घर में चारों ओर देख रहा था। खूँटियों पर गरीबी लटकी हुई दिखाई दे रही थी। ‘गरीब इंसान का घर ऐसा होता है ?’ शरद सोचने लगा। पिताजी इसके साथ पढ़ाई करने के लिए अनुमति देंगे ? लेकिन उसे शांतु बहुत पसंद था। कल प्रार्थना-कक्ष में सामान्य सभा में आचार्यजी ने उसकी कितनी तारीफ़ की थी ! ‘शांतनु मेहता ऐसा, शांतनु मेहता वैसा…|’ शांतनु मेहता को खड़ा कर उन्होंने जब आगे बुलाया, तब मालूम हुआ कि शांतनु मेहता तो उसका मित्र शांतु था।
शरद ने शांतु से पूछ ही लिया, ‘तुम मेरे घर पढ़ाने के लिए आओगे ? मुझे ट्यूशन के सर से नहीं पढ़ना। पिछले वर्ष आते थे, तो मुझे फुट-पट्टी से मारते थे।’ शांतु ने कुछ विचार कर जवाब दिया था, ‘मेरे पिताजी अभी मील गए हैं, उनसे पूछ कर बताउँगा।’
दूसरे दिन से रोज शाम को वह शरद को पढ़ाने के लिए आने लागा। धीरे-धीरे शरद को मालूम हुआ कि उसके मित्र की माँ तो उसके छोटे भाई को जन्म दे कर ही भगवान के पास चली गई थी। घर का काम करने के लिए उसकी बहन ने पढ़ाई छोड़ दी थी और पिताजी भी बीमार रहते थे। वे कभी मील जाते थे और कभी नहीं भी जाते थे। कुछ दिनों के बाद शरद को यह भी मालूम हुआ कि शांतु के पास यूनिफार्म के लिए भी सिर्फ एक ही कमीज थी, जिसे वह रोज शाला से आकर धो कर सुखा देता था।
शुरू- शुरू में शरद की माँ रोज शांतु को नाश्ता देती थी, लेकिन शांतु उस नाश्ते की ओर देखता भी नहीं था। उसका जवाब रोज लगभग एक ही रहता था, ‘मैं घर से खा कर ही निकलता हूँ, मौसी मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है।’ उसके जाने के बाद माँ फिर पिताजी को कहती थीं, ‘देखा कितना स्वाभिमानी लड़का है ! गरीब है, लेकिन खानदानी कहाँ जाएगी ?’
दीवार पर लगी घड़ी में एक बजने की टकोर लगी और शरदभाई की नजर घड़ी पर गई। घंटे का काँटा सात व आठ के बीच था और मिनट का काँटा छह के आँकड़े पर स्थिर हो गया था। सेकंड का काँटा तेजी से घूम रहा था और वह तीव्र गति से दोनों से आगे बढ़ रहा था। शरदभाई की नजर उसके साथ-साथ गोल-गोल घूमने लगी। दिमाग में चल रही टक-टक दीवार पर लगी घड़ी की टक-टक के साथ ताल मिला रही थी। मन की यह घड़ी कैसी कर्कश आवाज में टकोर बजा रही थी ?
वह अनुभव भी कर्कश ही था न ! उस दिन शांतु की खानदानी कसौटी पर आ गई थी। शरद के पिताजी की महँगी घड़ी कहीं गुम हो गई थी। घर में बहुत खोज करने के बाद वे गुस्से में बोले थे, ‘मैंने तुम्हारी माँ को इंकार किया था, ऐसे लड़कों को घर नहीं बुलाएँ। जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है, चोरी भी करा लेती है।’ फिर माँ पर गुस्सा हुए थे। ‘तुम बहुत तारीफ़ करती थी न ? अब देख ली उसकी खानदानी ?’ फिर शरद व उसकी माँ ने बहुत इंकार किया, लेकिन तब भी शांतु जब शाम को आया, तब उन्होंने उससे पूछ ही लिया, ‘ए लड़के, कल से मेरी घड़ी घर में दिखाई नहीं दे रही है, तुमने…’ फिर उनकी नजर शरद की गिडगिडाती हुई आँखों पर पड़ी इसलिए आखिर में उन्होंने ‘ली है ?’ शब्दों के स्थान पर ‘देखा है ?’ में तब्दील कर दिया।
शब्द बदल दिए थे, लेकिन लहजा नहीं बदला था। जो काम घर में पहने जा रहे पैबंद लगी कमीज या बाजरी की सूखी रोटियाँ न कर सकीं, वह काम पिताजी द्वारा न कहे गए शब्दों ने कर दिया। वे अदृश्य शब्द तलवार की तरह हवा में तैरते रहे। शांतु का चेहरा क्षण भर जमे हुए आँसुओं की तरह हो गया। फिर वे आँसू पिघल कर उसकी आँखों में चमकने लगे। शरद ने पहली बार शांतु की आँखों में आँसू देखे थे। वह दौड़ता हुआ अपने घर चला गया। उसके बाद पिताजी की घड़ी तो उनकी गादी के कोने से नीचे मिल गई। सोते समय घड़ी निकाल कर वे उसकी जगह रखना भूल गए, अतः गादी का कोना ऊँचा कर वहाँ रख दी और फिर उसे भूल गए|
उसके बाद शरद ने बहुत कहा, लेकिन शांतु ने फिर कभी अपने पैर उसके घर में नहीं रखे। शरद की पढ़ाई की अच्छी प्रगति देख, उसके पिताजी ने उसे शांतु के घर पढ़ाई के लिए जाने की इजाजत दी थी। दोनों ग्यारहवीं कक्षा तक साथ ही पढ़े। शांतु ने बहुत मेहनत की थी| सेकेंड्री का उसका परिणाम बहुत अच्छा आया था। लेकिन उस परिणाम को देखे बगैर ही उसके पिताजी गुजर गए। यह तो अच्छा था कि इसके पहले ही उन्होंने अपनी बेटी का विवाह कर दिया था। शांतु ने लंबी छुट्टियों में राशन की दुकान में अनाज भरने की नौकरी की और कॉलेज का शुल्क इकठ्ठा कर लिया था। हालाँकि बाद में जब तक वह पढ़ा, तब तक उसे छात्रवृत्ति मिलती रही। शरद को और अधिक अच्छे कॉलेज में पढ़ाने के लिए उसके पिताजी ने उनके भाई के पास मुंबई भेज दिया था। पिताजी के साथ जो वैचारिक संघर्ष हो जाते थे, उन्हें टालने के लिए वह छुट्टियों में बहुत कम वक्त के लिए आता। इसलिए शांतु से मिलना मुश्किल से ही संभव हो पाता था। शांतु सुबह कॉलेज चला जाता था, दोपहर नौकरी करता था और शाम को छोटे भाई को पढ़ाता और घर के काम करता था। शरद भी अपने बड़े कुटुंब में सब से मिलने-जुलने में व्यस्त रहता था।
बी.ए. करने के बाद शरद मुंबई में ही बस गया और शांतु को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। हर दो-तीन वर्ष में उसका तबादला होता रहता था। ऐसा हो ही न पाता कि दोनों मित्र उनके पुराने गाँव में कभी मिलें। शरद को उसके समाचार मिलते रहते थे। शांतु को अच्छी पत्नी मिली थी और यह भी सुना था कि उसके बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे थे। यह सब जानकार शरद खुश रहता था।
फिर निवृत्ति के बाद दोनों मित्र अपने गाँव में स्थाई हो गए। उन्हीं पुराने घरों में रहने के लिए। हालाँकि शांतु का घर अब पुराना नहीं रहा था। उसने उसे नया रूप-रंग दे दिया था। दोनों मित्र रोज शाम को मिलते और फिर टहलने के लिए जाते। किसी ठेला-गाड़ी पर चाय पीते और कभी किसी होटल पर जा कर नाश्ता आदि करते और बगीचे में जा कर गपशप करते। शरद के बहुत कहने के बावजूद शांतु ने कभी उसके घर में कदम नहीं रखा था। वह कहता, ‘दोस्त, मुझे उसके लिए आग्रह न कर। उस घाव को वैसा ही रहने दो, उस रिस रहे घाव ने ही मुझे सतत पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। इसी ने मुझे बहुत मेहनत कर नौकरी में आगे बढ़ने, अच्छा कमाने, मेरे बच्चों को उज्जवल भविष्य प्रदान करने की उमंग को सदैव जीवंत रखा। अन्यथा मैंने ग्यारहवीं के बाद कहीं क्लर्क की नौकरी पर काम करना शुरू कर दिया होता।’
शरद हाथ जोड़ कर कहता, ‘लेकिन यार… इतने वर्षों के बाद अब भी ! मेरे पिताजी की भूल के लिए, तुम कहो उतनी बार मैं माफी मांगने के लिए तैयार हूँ।’
‘नहीं यार, दोस्ती में यह सब नहीं होता है।’ शांतु फिर शरद का हाथ पकड़ लेता। ‘बस तुम्हारे जैसे मित्र के साथ वक्त बिताने के लिए ही तो मैं इतने वर्षों के बाद अपने वतन आया हूँ। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दो।’
शरदभाई ने शांतु का हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ लंबा किया और विरल ने वह हाथ थाम लिया।
‘पापा, आठ बजने वाले हैं, चलो चलते हैं। आप कुर्ता पहन लें।’
शरदभाई ने कुर्ता पहना और बाहर जाने के लिए निकले। विरल की नजर उनके पैरों पर पड़ी। ‘पापा, चप्पल तो पहनो !’
‘आज नहीं पहनना है। अंतिम बार अपने मित्र के साथ अब नंगे पैर चलना है।’ शरदभाई ने लंबे कदम बढाते हुए कहा। विरल कुछ भी नहीं समझा, वह तो बस उनके क़दमों के पीछे चलता रहा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद– “बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆
☆ बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।
तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।
“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं,” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा,” कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।
ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”
मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।
कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”
देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनय करना तो दूर की बात थी।
तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”
“हां, कर तो सकते हो,” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनय करें तो बात बन सकती है। फिर देवांश ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”
यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर पूछा, “क्यों सही है ना?”
“हां सरजी, मैं करके रहूंगा,” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।
राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।
वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।
उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।
देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”
“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।
तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”
यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”
इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है,” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।
“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए,” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता,सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”
तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।
अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”
“अरे! दोस्ती में कैसी माफी,” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”
तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”
प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।
पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नजर बदलिए।)
जीवन के कई अर्थ हमें पिछली सीट पर बैठ कर ही समझ में आते हैं। कभी-कभी अपनी गाड़ी की स्टेरिंग दूसरे के हवाले कर देनी चाहिए। कभी अपने रोजमर्रा के काम भी हमें छोड़कर कुछ अलग करने की सोचना चाहिए। इसी उधेड़बुन में शांति खोई हुई थी। तभी अचानक उसके पतिदेव ने कहा कि तुम बहुत ही अच्छा गाना गाती हो एक सुंदर सा मधुर गीत सुनाओ और आज खाना मैंने बाहर से ऑर्डर कर दिया है। आज हम दोनों मिलकर कैंडल लाइट डिनर करेंगे, कुछ ही देर बाद बच्चे भी आ जाएंगे।
बहुत ही अच्छा अभिनव पर इतने दिनों बाद आपके अंदर ऐसा बदलाव कैसे आया?
बस आज मन किया कि जीवन की सारी वस्तुओं को छोड़कर पुराने शौक ही को पूरा किया जाए और स्वयं को अपलोड किया जाए। जीवन की इस नवीनता के अपने को माधुर्य में डुबो देना चाहिए।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – दिवाली के दिये।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 45 – लघुकथा – दिवाली के दिये
“माँ हम दीवाली नहीं मनाएँगे क्या? देखो सबके घर में दीये जल रहे हैं। ” गंगा के आठ साल के बेटे ने अपनी माँ से पूछा।
“दीवाली तो अमीरों का उत्सव है बेटा। हम गरीब हैं न हम उत्सव नहीं मना पाते। दीये जलाने के लिए दीये भी तो चाहिए होते हैं न!” गंगा ने अपने इकलौते बेटे को समझाते हुए कहा।
यह दीये की ज़रूरत वाली बात बाल मन में कहीं बस गई।
गंगा विधवा थी। मजदूरी करके जो दिहाड़ी कमाती थी उसी से उन दोनों का पेट पलता था। रास्ते के किनारे गली के भीतर पतरे की झोंपड़ी थी जो उनका घर था। कई अनेक उन जैसे गरीब श्रमिक वहाँ रहते थे। पर उन लोगों की अवस्था गंगा से अच्छी थी क्योंकि वहाँ चार हाथ काम करते थे। यहाँ गंगा अकेली पड़ गई थी। ध्याढ़ी पुरुष मजदूरों को प्रतिदिन 500 रुपये मिलते हैं और स्त्रियों को 350 रुपये दिए जाते हैं। गंगा अकेली थी तो पति वाला हिस्सा उसकी तकदीर में न था। उसे अपने 350 रुपये में ही गुज़ारा करना पड़ता था।
दो वक्त की रोटी वह जुटा लेती थी। एक दो जोड़े कपड़े साल में खरीद लेती थी पर इससे अधिक उसके लिए कुछ और करना संभव न था।
कंस्ट्रक्शन कंपनी वालों ने चार दिन की छुट्टी कर दी थी। अर्थात रोज़ की दिहाड़ी बंद हो रही थी। पर साहब ने दीवाली से पहले हर मज़दूर को एक जोड़े वस्त्र और हज़ार रुपये दिए थे।
गंगा को साड़ी मिली थी। वह अपने बेटे को लेकर बाज़ार गई और उसके लिए शर्ट पैंट खरीदे गए। हाथ में पैसे थे तो उस दिन ठेले पर पाव-भाजी और गुलाब जामुन खाया।
गंगा का बेटा राजू खुश था पर झोंपड़ी में दीये न जलाए जाने का उसे दुख था। वह दूर खड़े होकर लोलुप दृष्टि से बंगले में रहनेवाले बच्चों को आतिशबाज़ी करते हुए देखता। आँखों में उत्साह और जिज्ञासा तैरती रहती, नज़रें आकाश की ओर उठी रहती और रंगीन रोशनी कई छटाओं को बिखेरते हुए देखकर उसका चेहरा चमक उठता।
दीवाली खत्म हो गई। गंगा काम पर गई तो एक प्लास्टिक की थैली लेकर राजू मोहल्ले -मोहल्ले घूमने लगा। जहाँ भी उसे बुझे हुए, फेंके गए मिट्टी के दीये मिले उसने उन्हें इकट्ठे कर लिए।
माँ के लौटने से पहले वह घर लौट आया। हैंड पंप के नीचे ठंडी में बैठकर दीयों को साफ़ किया। उन्हें घर के सामने सूखने के लिए बिछा दिया और माँ की प्रतीक्षा करने लगा।
माँ के लौटने पर बड़ी खुशी से उसने माँ को सारे दीये दिखाए और कहा -माँ अगले साल हम दीवाली में दीये जलाएँगे। देख मैंने कितने दीये इकट्ठे कर लिए।
गंगा अपने लाडले को सीने से लगाकर फ़फ़क उठी। आज उसे अपनी गरीबी और वैधव्य पर पहली बार तीव्र दर्द महसूस हुआ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय लघुकथा “संगम में समागम”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 217 ☆
🌻🙏 संगम में समागम 🙏🌻 🌧️जलसंरक्षण🌧️
प्रयागराज कुंभ का महापर्व, आस्था की डुबकी, श्रद्धा की चुनरी, पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी, सरकार की चुनौती, अमृत स्नान की मारामारी, सोशल मीडिया की उन्नति, साधु-संतों की डेरी, लुटपाट की होशियारी, हजारों नाकेबंदी, फिर भी मन को भाते पूरी कचौरी 😊 मन बड़ा ही प्रसन्नता से भरा है।
गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम 144 वर्षों का सुयोग, बड़ी कठिनाई से आज साक्षी संगम में स्नान करने पहुंचीं। गदगद ह्रदय से वह डुबकियाँ लगाकर माँ गंगा को साड़ी, चुनरी, पुष्प अर्पित करके, 🙏 हाथ जोड़ यही प्रार्थना करते दिखी– ‘हे गंगा मैया जब किसी अबोध, अबला नारी को अपने लाज, स्वाभिमान को बचाने की बात आए, बस आप लहरों की तरह उसके साथ लिपटी रहियेगा। क्योंकि अब किसी द्रौपदी की तरह चीर हरण में गिरधारी नहीं आयेंगे। इस धरा पर आप साक्षात सर्व शक्ति मान, निर्मल मातृशक्तियों की पहचान है। आज के बदलते परिवेश में मेरी ये आस्था, लाजकी चुनरी आपके श्री चरणों में।’
आसपास कुंभ स्नान करते लोगों ने यह बात सुनी, नतमस्तक होकर साक्षी के शब्दों को “हर हर गंगे” के साथ स्वीकृति देते दिखाई दिए।
साक्षी की चुनरी साड़ी लहराते हुए माँ गंगा संगम में समागम होते देखती रही। मानों लहरे हिलोर लेती कह रही हो——
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – प्रेम
“सुबह का धुँधलका, गुलाबी ठंड, मंद बयार, उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट, उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन, उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील, उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर, उसके मौन में बसते अतल सागर, उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली, उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”
“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।
“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित। पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मूक प्रेम।
लघुकथा – मूक प्रेमसुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा
काफी समय से अम्मा एक कटोरे में दाने लेकर बाहर बिछे पलंग पर बैठ जाती , मुट्ठी भर दाने जमीन पर बिखरा कर आवाज लगाती आ .. आ…कुछ ही देर में कबूतर वहां जुटने आरंभ हो जाते. देखते ही देखते सारा आंगन कबूतरों से भर जाता. अम्मा धीरे-धीरे सारे दाने कबूतरों के सामने बिखेर देती. दाने चुगने के बाद कबूतर इकट्ठे होकर अम्मा के पलंग के पास जमा हो जाते और गुटरगूं करते मानो उसका धन्यवाद कर रहे हों.अम्मा भी बड़े प्यार से उनके साथ न जाने क्या-क्या बतियाती रहती .कुछ कबूतर तो उड़कर अम्मा के पलंग पर उसके समीप जा बैठते और अपने प्यार का इजहार करते. अम्मा प्यार से उन्हें सहलाती तो वे आंखें मूंद उस प्रेम को महसूस करते.अब दोनों ही एक दूसरे की प्रेम की भाषा समझते थे.
रोज के समय पर आज कबूतर वहां आए तो देखा अम्मा पलंग पर नहीं थी. आंगन में लोगों का जमावड़ा लगा था. मूक प्राणी कुछ नहीं समझ सके.
कुछ समय बाद वहां से अम्मा की अर्थी उठी. बेटा बड़ा अफसर था इसलिए अच्छी खासी भीड़ शव यात्रा में थी. लगभग नब्बे वर्ष की उम्र पार कर चुकी अम्मा की अर्थी पर फूल बरसाए जा रहे थे. वह अपने जीवन में सारे सुख देख चुकी थी इसलिए बैंड बाजे बज रहे थे .
तभी कबूतरों का एक बड़ा झुंड आया और शवयात्रा के साथ धीरे धीरे उड़ने लगा जैसे अम्मा की अर्थी को बेटे कंधा दे रहे हों .जब चिता को अग्नि देने के बाद लोग लौटने लगे तो सारे कबूतर भी धीरे धीरे उड़कर वापस लौटने लगे भूखे प्यासे, उदास, पस्त से। आज अम्मा के हाथों से दाने न मिलने पर सभी ने भूखे रहकर मानो उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए अपने मूक प्रेम को प्रदर्शित किया था.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा प्रबुद्ध पाठकों से उनकी प्रयोगशील लघुकथाओं के लिए आमंत्रण ।)
☆ प्रयोगशील लघुकथा से तात्पर्य ऐसी लघुकथा से है…☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
प्रयोगशील लघुकथा से तात्पर्य ऐसी लघुकथा से है…
प्रयोगशील लघुकथा वह है जिसमें लेखक पारंपरिक ढांचे से हटकर कुछ नया करने का प्रयास करता है। यह प्रयोग कथानक, कथ्य, भाषा, शैली या अन्य किसी भी स्तर पर हो सकता है। आइए इसे विभिन्न उदाहरणों से समझते हैं:
कथानक के स्तर पर प्रयोग:
पारंपरिक लघुकथा: एक सीधी-सादी कहानी जो शुरू से अंत तक एक ही क्रम में चलती है।
प्रयोगशील लघुकथा: कथानक को गैर-रैखिक (non-linear) तरीके से प्रस्तुत किया जाए। इसके अंतर्गत आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी की लघुकथा को रख सकते हैं। उनकी टेबल के बाद लघुकथा एक अलग कथानक तैयार की गई थी। जिसमें पूरी टेबल यानी पहाड़ी की सहायता से लघुकथा को संपूर्ण किया गया था।
कथ्य के स्तर पर प्रयोग:
पारंपरिक लघुकथा: कहानी का संदेश स्पष्ट और सीधा होता है।
प्रयोगशील लघुकथा: कथ्य को अमूर्त (abstract) या प्रतीकात्मक (symbolic) तरीके से प्रस्तुत किया जाए। जैसे, एक लघुकथा जो मानवीय भावनाओं को प्रकृति के माध्यम से दर्शाती है, जहां पेड़-पौधे या जानवर मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इसे काव्य पंक्तियों, गजल अथवा अन्य कथ्य के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जा सकता है।
भाषा के स्तर पर प्रयोग:
पारंपरिक लघुकथा: सरल और स्पष्ट भाषा का प्रयोग।
प्रयोगशील लघुकथा: भाषा को अलंकृत, काव्यात्मक या असंगत (absurd) तरीके से प्रयोग किया जाए। जैसे, एक लघुकथा जिसमें शब्दों का अर्थ बदल दिया जाए या शब्दों को उलट-पलट कर प्रस्तुत किया जाए, जिससे पाठक को एक नया अनुभव मिले। मगर इस सब के बावजूद लघुकथा का अपना स्वरूप ना बदले। विपरितार्थी शब्दों को लेकर भी लघुकथा रची जा सकती है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप इसमें किस तरह का प्रयोग कर सकते हैं।
शैली के स्तर पर प्रयोग:
पारंपरिक लघुकथा: सीधी-सादी शैली में लघुकथाएं कही जाती हैं।
प्रयोगशील लघुकथा: शैली में नवीनता लाई जाए। जैसे, एक लघुकथा जो पत्रों, डायरी के अंशों, या संवादों के माध्यम से लिखी गई हो। या फिर एक लघुकथा जो कविता और गद्य के मिश्रण से बनी हो। लघुकथा भले ही संवाद शैली में हो, मगर उसे चित्र प्रस्तुति के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है। अथवा आप शैली के रूप में नया प्रयोग भी कर सकते हैं।
उदाहरण:
कथानक के स्तर पर प्रयोग:
एक लघुकथा जो अंत से शुरू होती है:
उदाहरण:
“रमेश ने आखिरी सांस ली। उसकी आंखों के सामने पूरा जीवन फिर से घूम गया। बचपन की वो गलियां, पहली नौकरी, पत्नी से पहली मुलाकात… और फिर वो दिन जब उसने अपने बेटे को खो दिया।”
भाषा के स्तर पर प्रयोग:
एक लघुकथा जिसमें शब्दों का अर्थ बदल दिया गया हो:
“आकाश नीला था, पर नीला क्या था? क्या रंग होता है नीला? क्या यह वही है जो हम देखते हैं या वह जो हम महसूस करते हैं? नीला एक भावना थी, एक सपना, एक सच्चाई जो हवा में तैर रही थी।”
शैली के स्तर पर प्रयोग:
एक लघुकथा जो पत्रों के माध्यम से लिखी गई हो:
“प्रिय मित्र,
आज मैंने एक ऐसा सपना देखा जो सच्चाई से भी ज्यादा सच लगा। तुम्हें याद है वो पुराना घर? वहां की दीवारें अब भी मुझसे बातें करती हैं…”
इस प्रकार, प्रयोगशील लघुकथा पारंपरिक ढांचे को तोड़कर नए विचारों और अभिव्यक्तियों को जन्म देती है, जिससे पाठक को एक नया और रोचक अनुभव मिलता है।
तब यह प्रश्न उठ सकता है कि हम लघुकथा में इस तरह का प्रयोग किस तरह कर सकते हैं? क्या उसे किसी और उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है?
तब हमारा उत्तर होगा कि जी हां, प्रयोगशील लघुकथाओं को नए और रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है और उसे उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है। यहां कुछ ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जो विभिन्न स्तरों पर प्रयोग को दर्शाते हैं:
कथानक के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“वह दिन जब समय ने अपनी दिशा बदल ली। सुबह का सूरज पश्चिम में उगा और शाम को पूर्व में डूब गया। लोगों ने देखा कि उनके बचपन की यादें अचानक भविष्य में चली गईं, और भविष्य के सपने अतीत में खो गए। एक बूढ़ा आदमी जवान होने लगा, और एक बच्चे की आंखों में बुढ़ापे की झुर्रियां दिखाई देने लगीं। समय ने सब कुछ उलट दिया, पर किसी को पता नहीं चला कि यह सब क्यों हुआ।”
प्रयोग:
यहां कथानक में समय के साथ प्रयोग किया गया है। समय की दिशा उलट दी गई है, जो पाठक को एक नया और अलग अनुभव देता है।
कथ्य के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“एक पेड़ ने फैसला किया कि वह अब जड़ें नहीं बढ़ाएगा। उसने अपनी जड़ें जमीन से बाहर निकाल लीं और चलने लगा। लोग हैरान थे, पर पेड़ ने कहा, ‘मैं भी तुम्हारी तरह आजाद होना चाहता हूं।’ धीरे-धीरे उसकी पत्तियां झड़ने लगीं, और एक दिन वह सूखकर गिर गया। उसकी जगह एक नन्हा पौधा उग आया, जिसने फैसला किया कि वह कभी जड़ें नहीं छोड़ेगा।”
प्रयोग:
यहां कथ्य को प्रतीकात्मक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। पेड़ की आजादी की चाहत और उसके परिणाम को मानवीय भावनाओं से जोड़कर दिखाया गया है।
भाषा के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“शब्दों ने विद्रोह कर दिया। वे वाक्यों से निकलकर अलग हो गए और हवा में तैरने लगे। ‘प्यार’ शब्द ने कहा, ‘मैं अब किसी वाक्य का हिस्सा नहीं बनूंगा।’ ‘दर्द’ शब्द ने कहा, ‘मैं अब किसी के साथ नहीं जुड़ूंगा।’ शब्दों ने अपनी आजादी का जश्न मनाया, पर जल्द ही वे अकेले हो गए। उन्हें एहसास हुआ कि उनका अर्थ तभी है जब वे एक दूसरे से जुड़े हों।”
प्रयोग:
यहां भाषा के साथ प्रयोग किया गया है। शब्दों को मानवीय गुण दिए गए हैं, और उनकी आजादी की चाहत को एक नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
शैली के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“डायरी के पन्ने:
दिन 1: आज मैंने एक तितली देखी। वह मेरे हाथ पर बैठ गई। मैंने सोचा, क्या वह मेरी आत्मा है?
दिन 2: तितली उड़ गई, पर मैंने महसूस किया कि मेरा दिल भी उसके साथ उड़ गया।
दिन 3: आज मैंने देखा कि मेरी छाया भी मुझे छोड़कर चली गई। शायद वह भी तितली बन गई।
दिन 4: अब मैं खुद एक तितली हूं। मेरे पंख हैं, पर उड़ने का साहस नहीं।”
प्रयोग:
यहां शैली में प्रयोग किया गया है। कहानी को डायरी के पन्नों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक को एक अलग अनुभव मिलता है।
संवाद के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“दो पहाड़ों के बीच बातचीत:
पहाड़ 1: ‘तुम्हें लगता है हम हमेशा यहीं खड़े रहेंगे?’
पहाड़ 2: ‘हां, यही हमारी नियति है।’
पहाड़ 1: ‘पर मैं चलना चाहता हूं। समुद्र तक जाना चाहता हूं।’
पहाड़ 2: ‘तुम्हारे पैर कहां हैं?’
पहाड़ 1: ‘शायद मेरे सपनों में।’
पहाड़ 2: ‘तो फिर सपनों में चलो।’
और फिर पहाड़ 1 ने सपनों में चलना शुरू कर दिया।”
प्रयोग:
यहां संवाद के माध्यम से एक गहरी बात कही गई है। पहाड़ों को बोलते हुए दिखाकर एक नया प्रयोग किया गया है।
अमूर्तता के स्तर पर प्रयोग:
उदाहरण:
“एक रंग जो बोलता था। वह नीला था, पर उसकी आवाज लाल थी। जब वह बोलता, तो हवा में हरा रंग छा जाता। लोग उसे समझ नहीं पाते थे, पर वह बोलता रहा। एक दिन उसने कहा, ‘मैं वह हूं जो तुम देख नहीं सकते, पर महसूस कर सकते हो।’ और फिर वह गायब हो गया।”
प्रयोग:
यहां अमूर्तता के साथ प्रयोग किया गया है। रंगों को भावनाओं और ध्वनियों से जोड़कर एक नया आयाम दिया गया है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रयोगशील लघुकथा में कथानक, कथ्य, भाषा, शैली, संवाद, या अमूर्तता के स्तर पर नए और रचनात्मक प्रयोग किए जा सकते हैं। यह पाठक को एक नया अनुभव देती है और साहित्य को समृद्ध बनाती है।
फिर देर किस बात की — इस तरह के प्रयोग करने के बाद अपनी दो प्रयोगशील लघुकथाएं और उस विचार प्रक्रिया को, जिसकी वजह से लघुकथा ने जन्म लिया है, उसे अपने शब्दों में लिख कर और अपने भावों की अभिव्यक्ति सहित हमें इस ईमेल पर भेज दीजिए।