हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – चिराग की रोशनी… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– चिराग की रोशनी…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ लघुकथा — चिराग की रोशनी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

किस्से कहानियों में वर्णित भीमकाय अलादीन एक आदमी के सामने आ खड़ा हुआ। अब अलादीन हो तो उसके हाथ में चिराग कैसे न हो। आदमी अपने सामने खड़े विराट अलादीन से कुछ डरा हुआ तो था, लेकिन उसके चिराग से आदमी का मन तो खूब पुलकित हो रहा था। बात यह थी उसने अलादीन के बारे में जो पढ़ा था उसी का वह प्रत्यक्ष दर्शन कर रहा था। आदमी ने तो यहाँ तक अपने मन में गुनगुना लिया यह अलादीन है और इसके हाथ में जो चिराग है इससे तो वह देने का एक खास इतिहास रचता रहा है। तब तो अलादीन देने की भावना से ही मेरे सामने आया हो।

आदमी का गणित सही निकला। अलादीन ने उससे बड़े प्यार से कहा –– अब मैं हूँ तो तुमने समझ ही लिया हो मैं अलादीन हूँ और मेरे हाथ में देने का चिराग है। तो हे बालक, मेरे इस चिराग से कुछ मांग लो। मांगो तो तुम्हें निराशा नहीं होगी।

आदमी को चिराग से कुछ मांगने के लिए कहा गया और वह था कि अलादीन से उसका चिराग ही मांग लिया। अलादीन यह समझ न पाया, लेकिन आदमी ने समझ कर ही तो अलादीन से उसका चिराग मांगा। अलादीन चिराग दे कर मुँह लटकाये वहाँ से चला गया।

आदमी ने अनंत खुशी से विभोर हो कर चिराग को वंदन किया और उससे अपने लिए विशाल संसार मांगा। पल भर में आदमी को गाँव, शहर, हाट, अनुपम प्रकृति और जन समुदाय से युक्त एक संसार मिल गया। आदमी इतने बड़े संसार में इस हद तक खोया कि वह समझ न पाया वह है तो कहाँ है? उसे अपनी बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों की बड़ी चिन्ता होने लगी थी। सब कहाँ खो गए? आदमी अलादीन के चिराग से अर्जित अपने ही संसार में अपनों से दूर अपने को तन्हा पाने लगा था।

शुक्र था कि वह आदमी का सपना था। सपना टूटते ही आदमी हड़बड़ा कर पलंग से उतरा। अलादीन का चिराग अब उसके घर में नहीं था, लेकिन उसके अपने घर का चिराग तो था। वह अपने घर के चिराग की रोशनी में अपने परिवार को अपने सामने पा कर अपार आनन्द की अनुभूति कर रहा था।

© श्री रामदेव धुरंधर

03 – 05 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “बलि…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “बलि…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पता नहीं क्यों सब गड्ढमड्ढ सा हुआ जा रहा है। ‌वह एक राजनीतिक समारोह की कवरेज करने आया हुआ है। रोज़ का काम जो ठहरा पत्रकार का ! रोज़ कुआं खोदो, रोज़ पानी पियो ! रोज़‌‌ नयी खबर की तलाश।

फिर भी आज सब गड्ढमड्ढ क्यों हुआ जा रहा है? क्या पहली बार किसी को दलबदल करते देख रहा है? यह तो अब आम बात हो चुकी ! इसमें क्या और किस बात की हैरानी? फिर भी दिल है कि मानता नहीं। मंच पर जिस नेता को दलबदल करवा शामिल किया जा रहा है, उसके तिलक लगाया जा रहा है और मैं हूं कि बचपन में देखे एक दृश्य को याद कर रहा हूँ। ‌किसी बहुत बड़े मंदिर में‌ पुराने जमाने के चलन के अनुसार एक बकरे को बांधकर लाया गया है और उसके माथे पर तिलक लगाया जा रहा है और‌ वह डर से थरथर कांप रहा है और यहां भी दलबदल करने वाले के चेहरे पर कोई खुशी दिखाई नहीं दे रही। बस, एक औपचारिकता पूरी की जा रही है और‌ गले में पार्टी का पटका लटका दिया गया है। चारों ओर तालियों की गूंज‌ है और मंदिर में‌ बकरा बहुत डरा सहमा हुआ है। दोनों एक साथ क्यों याद‌ आ रहे हैं? यह मुझे क्या हुआ है? किसने धकेला पार्टी बदलने के लिए? सवाल मन ही मन उठता रह जाता है लेकिन बकरे की बेबसी सब बयान कर रही है…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लाइलाज ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। लोक साहित्य पर पुस्तक, चार उपन्यास एवं आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। हंस, वनमाली, वागर्थ, भाषा, कथादेश, नया ज्ञानोदय, पाखी आदि कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020 तथा राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।

☆ कथा कहानी ☆ लाइलाज ☆ डॉ. हंसा दीप 

घर का ताला बंद करके निकली तो आज पड़ोस वाले घर में कुछ नये चेहरे दिखे। पिछले कुछ वर्षों से मैं देख रही थी कि कई पड़ोसी तो दिन-रात की तरह तेजी से बदलते हैं, तो कई मौसम की तरह कुछ महीनों में। कब, कौन-सा नया चेहरा आ जाए और यह कहते हुए हाय-हलो कर दे कि “हम आपके पड़ोसी हैं” पता ही नहीं चलता। खैर, ये पड़ोसी कुछ अलग थे, अपनों जैसे लगे। चेहरे-मोहरे देखकर सहज ही उनके भारतीय होने का अनुमान हुआ। वैसे इस मामले में कई बार मैंने धोखा खाया है। जब कभी किसी को देखकर लगता कि ये भारत से होंगे तो वे कहीं और के निकलते। कभी जवाब मिलता श्री लंका से, कभी बांग्लादेश तो कभी पाकिस्तान से। ये भारतीय चेहरे भारत की राजधानी दिल्ली से आए थे और इस तरह गलती की संभावनाएँ इस बार गलत निकलीं।

पहली मुलाकात में परिचय इतना ही हुआ। उनके साथ एक प्यारी-सी बच्ची थी। तकरीबन तीन से चार साल की तो होगी। मैंने उससे पूछा – “हाय बेटा, आपका नाम क्या है?”

“मिनी।”

अपनी हिन्दी में किसी बच्चे से बात करना इन दिनों एक अजूबा-सा था। सुकून मिला अपनों की सूची बढ़ाने का। अब तो जब-तब, कभी लिफ्ट में, कभी कचरा फेंकने के कमरे में तो कभी लॉबी में टकराते हम एक दूसरे से। कभी अकेले मिनी की मम्मी, कभी पापा, तो कभी तीनों साथ में दिखने लगे। दंपत्ति युवा थे मगर दोनों का चेहरा बुझा-बुझा-सा रहता था। ढीला-ढाला हाय-हलो, और ढीली-ढाली चाल-ढाल। न तो दोनों के कपड़े सिलवटों से मुक्त होते, न ही बाल करीने से सँवारे हुए होते। लगता जैसे उनके चेहरे ही नहीं पूरे व्यक्तित्व पर हवाइयाँ उड़ रही हों। मुझे लगा मानो कुछ तो ऐसा है जो उन्हें परेशान कर रहा है। कोई ऐसी वजह है कि वे दोनों खुश नहीं हैं। फिर एक दिन मैंने पूछ ही लिया– “कोई परेशानी है, जॉब नहीं है क्या?”

यह एक स्वाभाविक-सा प्रश्न था क्योंकि आमतौर पर एक परेशानी सबको रहती है कि “काम नहीं मिल रहा।” नये देश में आ तो जाते हैं लोग लेकिन जब बहुत पापड़ बेलने के बाद भी काम नहीं मिलता तो मानसिक तनावों से गुजरना पड़ता है।

“जॉब तो ठीक है आंटी जी, पर मिनी की तबीयत ठीक नहीं।” मिनी की मम्मी ने जल्दी से जवाब दिया। इतनी जल्दी मानो वह इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रही हो कि आपबीती सुनाकर मन हल्का कर ले। मैंने बच्ची को देखा। वह कहीं से बीमार नहीं लग रही थी।

“पेट दर्द होता है। रात में बहुत रोती है। हम भारत से यहाँ इसीलिये आए हैं कि इसका इलाज हो सके।”

“जॉब-वॉब की कोई चिंता नहीं है आंटी जी, बस इसका इलाज ठीक से हो जाए।” मिनी के पापा की आवाज आश्वस्त कर रही थी कि पैसों की वाकई कोई परेशानी नहीं है उन्हें।

“ओहो, क्या यहाँ आने के बाद पेट दर्द होने लगा?”

“नहीं, नहीं, पेट दर्द की परेशानी तो तब से है जब मिनी तीन महीने की थी।”

“अच्छा! डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“भारत के डॉक्टरों को कुछ समझ नहीं आया। तीन साल से इधर से उधर भटकाते रहे पर बच्ची को आराम नहीं मिला।”

“जब हमने देखा कि कैनेडा का मेडिकल सिस्टम अच्छा है तो बस यहाँ के लिये आवेदन कर दिया। यहाँ आने का हमारा मकसद इसका इलाज ही है आंटी जी, वरना हम तो बहुत खुश थे भारत में।” मिनी के पापा ने अपना स्वर मिलाया।

मुझे उत्सुकता थी यह जानने की कि कागजात तैयार होने में तो साल भर लग गया होगा। जितना समय इस प्रक्रिया में लगा उतने समय तक भारत में इलाज चल भी रहा था या नहीं। मेरी वह जिज्ञासा दबी की दबी रह गयी क्योंकि अभी-अभी परिचय हुआ है, ऐसे सवाल शिष्टाचार के खिलाफ हो सकते हैं। वैसे भी वह युवा जोड़ा था और मैं आंटियों की उस श्रेणी में थी जहाँ ऐसे सवालों का जी-भर कर मजाक उड़ाया जा सकता था।

मिनी की मम्मी ने मेरे क्षणिक मौन को तोड़ा- “हमारा अनुमान सही नहीं था। नाम का ही है यहाँ का सिस्टम आंटी, कोई दम नहीं है। यहाँ पर भी ठीक से इलाज नहीं हो रहा।” मिनी की मम्मी ने प्यार से मिनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

“आप प्रायमरी फिजिशियन के पास गए थे या फिर अस्पताल?”

“सब जगह गए आंटी जी, हम तो पिछले चार महीनों से यहाँ हैं। बस आपके पड़ोस में आए एक सप्ताह हुआ है।”

“कहाँ-कहाँ नहीं गए आंटी जी, बल्कि यूँ कहिए कि कभी इसके पास तो कभी उसके पास, जाते ही रहते हैं। इनके इलाज से हम तो बिल्कुल संतुष्ट नहीं हैं।” एक वाक्य मिनी की मम्मी कहती, दूसरा उसके पापा उसी बात का समर्थन करते हुए कहते।  

“मैं कुछ समझी नहीं!”

“देखिए आंटीजी, इसे यह तकलीफ बहुत दिनों से है, हमें पता है कि इसे किस चीज की जरूरत है। ये लोग तो कुछ और ही करते हैं।”

“मतलब?”

“हम कह रहे हैं कि हमें एक्सपर्ट के पास भेजो, वे कहते हैं, इसकी जरूरत नहीं। हम कहते हैं एक्सरे करवाओ पर वो अल्ट्रा साउंड करवा रहे हैं।”

“आप क्यों एक्सरे करवाना चाहते हैं?”

“एक्सरे में पता लगेगा न कि परेशानी क्या है, भारत में भी एक्सरे करके ही देख रहे थे सारे डॉक्टर।”

“परन्तु अभी तो आपने कहा कि भारत में कुछ नहीं हो पाया। आपको यहाँ के मेडिकल सिस्टम पर विश्वास है। अब जो वे कहते हैं, करना पड़ेगा न, यहाँ उन्हें अपनी तरह जाँच करनी होगी।”

“जाँच क्या आंटीजी, सारी रिपोर्ट तो हमारे पास पहले से है। हमने सारे पेपर्स दे दिए हैं इन्हें। हर बार ये लोग वही कर रहे हैं जो भारत में किया जा चुका है। बच्ची दर्द से परेशान है, देखा नहीं जाता हमसे। हम सो ही नहीं पा रहे हैं, रात-रात भर जागना पड़ता है।”

“रात भर सोऊँगा नहीं तो सुबह काम पर कैसे जा पाऊँगा, बताइए आप!”

“सच कहा, वह तो आपको देखकर ही लग रहा है।” मैंने उन दोनों पति-पत्नी के बुझे चेहरों को देखकर कहा।

“बस बार-बार बुला रहे हैं, कभी यहाँ तो कभी वहाँ। एक तो इतनी ठंड है यहाँ, माइनस दस और माइनस बीस में वैसे ही फ्रीज़ हो रहे हैं।”

“मैं कोई मदद कर सकूँ तो जरूर बताएँ।”

“आपकी नजर में कोई चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर हो तो बताएँ आंटी जी, जिससे हम थर्ड ओपिनियन ले सकें।”  

“मेरा चचेरा भाई है, जाना-माना बच्चों का विशेषज्ञ डॉक्टर। हालांकि वह कैनेडा में ही है पर दूसरे शहर में रहता है, एडमंटन में। मैं आपको उसका नंबर दे देती हूँ, आप बात कर लें शाम के समय।”

उन्होंने देर नहीं की, घर जाकर नंबर घुमाया और धरा आंटी का संदर्भ देकर बात कर ली। शाम को भाई का फोन आया – “दीदी वो आपके पड़ोसियों का फोन आया था। मैं बगैर देखे तो कुछ कह नहीं सकता, हाँ आप उनसे यह जरूर कह दें कि वे डॉक्टर की सुनें।”

भाई के कहे अनुसार संदेश तो पहुँचाया मैंने, पर थोड़ा-सा तराश दिया और कहा- “आप थोड़ा धैर्य रखें, सब कुछ ठीक हो जाएगा।”

“क्या ठीक हो जाएगा, कुछ तो कर नहीं रहे हैं यहाँ के डॉक्टर। पता नहीं कुछ आता-जाता भी है या नहीं। बच्चा परेशान है, हम सो नहीं पा रहे हैं और ये कह रहे हैं धीरज रखो।”  

मिनी की मम्मी की अधीरता को उसके पापा ने व्यक्त किया – “बताइए आंटी जी। इनको दिख रहा है कि हम किस कदर परेशान हैं, एक्शन लेना चाहिए न!”

“इतने दिन हो गये, डायग्नोस ही नहीं कर पा रहे हैं।”

“इनको हज़ार बार कहा कि एक्सरे लो और हमें स्पेशलिस्ट के पास भेजो, लेकिन नहीं, कोई सुनता ही नहीं है। भारत में कम से कम डॉक्टर सुनते तो थे।”

मैं क्या कहती! भारत से आयी थी तब मैं भी अपने परिवार वालों, जान-पहचान वालों को कई नुस्खे देती रहती थी और लेती रहती थी। भारत में नीम-हकीम-डॉक्टर की कोई कमी नहीं। डॉक्टरों को छोड़कर सारी जनता डॉक्टर है। मैं सोच में पड़ गयी थी। मिनी के मम्मी-पापा को आज तक कोई इलाज पसंद नहीं आया होगा और डॉक्टर बदलते रहे होंगे। कोई दवाई अपना असर करे उसके पहले दवाई बदल जाती होगी। अब तो देश भी बदल दिया है। मैं सोचने लगी उन सब डॉक्टरों के बारे में जो मरीजों और उनके परिवार वालों की डॉक्टरी को झेलते हुए इलाज करते हैं।  

अगले दिन सुबह दरवाजे पर ठक-ठक हुई। मिनी के पापा थे, कहने लगे – “आंटी जी, आज मेरी मीटिंग है और मिनी को लेकर एक नये क्लिनिक जाना है। प्लीज़, अगर आप साथ चले जाएँ तो उसकी मम्मी को थोड़ी मदद मिल जाएगी।”

मेरा पड़ोसी धर्म जाग उठा – “जरूर, आप चिंता न करें, मैं चली जाऊँगी।”

समय पर हम क्लिनिक पहुँचे। नये डॉक्टर ने सारी बातें सुनीं। मिनी की मम्मी के बहते आँसू हज़ार सलाह दे रहे थे। सहमी-सी मिनी कातर नजरों से मम्मी को रोते हुए देख रही थी। मैंने उसे बहलाते-फुसलाते कहा- “घबराओ नहीं बेटा, आप ठीक हो जाएँगे तो मम्मी नहीं रोएँगी।”  

डॉक्टर अधेड़ उम्र के थे। गोरी चमड़ी थी, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी। ऐनक नाक पर नीचे तक थी जिसे वे चढ़ाते नहीं थे बल्कि देखने के लिये खुली आँखों से देखते ताकि ऐनक सिर्फ कागज पर रहे। वे कुछ लिख रहे थे। मिनी की मम्मी ने अपनी पहली प्रतिक्रिया दी – “आंटी यह तो बड़ा खड़ूस लग रहा है।”

वाकई दो आँखें चश्मे के बाहर और दो अंदर, इस तरह चार आँखों से काम करने वाले मुझे भी कभी नहीं भाते थे। मैंने कहा – “देखते हैं क्या करता है, जरा रुको।” अहिन्दी भाषी के सामने हम कई बार अपने मन की बात हिन्दी में कहने में हिचकते नहीं। शिष्टाचार के खिलाफ जाकर एक-दो अपशब्द कहकर संतुष्ट होने की आदत-सी हो गयी थी। हमें फुसफुसाते देखकर डॉक्टर ने चश्मे से बाहर की दो आँखों से हम तीनों को बारी-बारी से घूरा, बच्ची को पास बुलाकर चैक किया, आँखें, चेहरा, पेट सब कुछ।

यह मौन हमें कुछ भयावह संकेत देने को उतावला हो रहा था।

“पहली बात, इसे यह परेशानी बहुत दिनों से है।” डॉक्टर ने हमें देखते हुए सख़्त आवाज के साथ कहा।

“जी” मेरे हलक में कुछ फँसा-सा था।

“दूसरा, मैं कोई ऐसी गारंटी नहीं दे सकता कि यह एक-दो दिन में ठीक हो जाएगी।” हम अवाक डॉक्टर का मुँह देख रहे थे।

“तीसरा, इलाज शुरू करने से पहले मुझे बेबी मिनी के रुटीन का चार्ट चाहिए। यह क्या खाती है, क्या पीती है, कब सोती है, कितनी बार उठती है, पी-पू हर चीज का रिकार्ड।”

मिनी की मम्मी हैरान-सी मुझे देखने लगी थी। आँखें मुझसे कह रही थीं– “कहा था न खड़ूस है।” मैंने हामी भरकर डॉक्टर से अतिरिक्त विनम्रता से कहा – “यह सो नहीं पाती है डॉक्टर!”

“तकलीफ हो तो कोई नहीं सो सकता, आप सो सकती हैं क्या?” चश्मे के बाहर से वे घूरती आँखें जैसे मुझे काटने को दौड़ रही थीं। मैं एकटक डॉक्टर को देखते हुए उसके द्वारा कहे जा रहे शब्दों को ध्यान से सुनने व समझने की कोशिश कर रही थी।

“मैं पहले इसकी तह तक जाकर देखूँगा कि वजह क्या है, इसके लिये कई टेस्ट करवाने पड़ेंगे।”

उसकी आवाज का तीखापन मिनी की मम्मी की आँखों में झलक आया था, रुआँसी-सी बोली- “सर सारी टेस्ट रिपोर्ट तो पहले से ही हैं। अगर आप एक्सरे करवा लें तो आपको अभी पता लग जाएगा।” अपनी वही रट फिर से उसकी जबान पर थी।

“मिस ममा, डॉक्टर कौन है यहाँ?”

“जी आप” उसने खिसियाते स्वर में कहा।

“मैंने जो कहा अगर आप कर सकती हैं तो बताइए, मैं अपने पेशेंट का इलाज शुरू करूँ।”     

मैंने हिन्दी में कहा – “देखो, परेशान तो हो रहे हो तुम, अब यह भी करके देख लो।”

डॉक्टर ने हम दोनों को बारी-बारी से देखकर कहा – “मैं बार-बार यह सुनना नहीं चाहता कि एक महीना हो गया, दो महीने हो गए। अगर आप मुझे समय दे सकती हैं तो अभी तय कर लीजिए।”

हम दोनों ने एक दूसरे को देखा, शायद यह कहते हुए- “कोशिश करने में हर्ज ही क्या है।” आँखें झपकाते हुए दोनों के सिर हिले, इलाज शुरू करने की हामी भरते हुए। मिनी के मम्मी-पापा खुश तो बिल्कुल नहीं थे पर शायद मेरा साथ पाकर वे हथियार डाल चुके थे। वैसे भी और कोई विकल्प तो था नहीं उनके पास। डॉक्टर का कहा मानने की कोशिश करते हुए मैंने मिनी का रोजमर्रा का चार्ट बनाने में भरपूर मदद की। हर सप्ताह मिनी और उसकी मम्मी हाजिरी दे आते और सप्ताह की रिपोर्ट भी। क्लिनिक ने एक लंबी सूची दे दी कि उसे क्या खिलाया जाए, क्या नहीं।

“कोई दवाई नहीं दे रहे”, “ये नहीं खाने दे रहे”, “वो नहीं पीने दे रहे”, “बच्ची दुबली हो रही है।” हर दिन हजार शिकायतों के साथ डॉ. खड़ूस के नाम की माला जपती मिनी की मम्मी इस बात को मानने से इंकार नहीं कर पा रही थी कि रोज एक-एक दिन के खत्म होते, धीमी गति से मिनी के सोने का समय बढ़ रहा है।

इस बात को छह महीने बीत गए।

अब वे दोनों, और मैं भी, हम तीनों बहुत खुश हैं। बगैर एक पैसा खर्च किए, बगैर दवाई के, सिर्फ रोजमर्रा के बदलाव से मिनी ठीक हो गयी। बताया गया कि उसे हर डेयरी प्रोडक्ट से एलर्जी है, इसलिये उन सब चीजों को खिलाने से बचना होगा। वह रात में जो गिलास भर कर दूध पीकर सोती थी उससे रात भर उसका पेट दर्द करता था। मिनी के मम्मी-पापा तीन साल के बाद अब आराम से सो रहे थे। उनके पूजा घर में डॉ. खड़ूस की तस्वीर लगी थी। हर सुबह नींद की खुमारी से अंगड़ाई लेकर वे दोनों डॉ. साहब की फोटो देखकर मुस्कुराते थे। मिनी का तो सफल इलाज किया ही था, साथ-साथ उन दोनों की भी लाइलाज बीमारी का इलाज कर दिया था। सचमुच की डॉक्टरी पढ़ी व समझी थी उन्होंने। अभी भी उन्हें डॉ. खड़ूस ही कहते लेकिन बहुत प्यार व आदर से।  

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ६ – लघुकथा – कृपाला ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ६ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ कृपाला ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

शिशु के क्षत -विक्षत शव को देखकर दुर्दांत का मन काँप उठा। उसके कम्पन मात्र से धरती के हर एक छोर में स्पंदन होने लगा।

शिशु के प्राणों को ले जाने के लिये आये, यमदूतों के भी पाँव धरती पर हो रहे इस कम्पन के कारण काँप रहे थे।

इधर कृपाला के बदन को नोचकर अपना हबस बनाने वाले दुर्दान्त के गुर्गो को यह पता था कि ऐसे अपराध की सजा उन्हें अपने प्राणों की कीमत चुका कर करनी पड़ सकती है। इसके वावजूद कामाग्नि में जल रहे पापीयों को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

दुर्दान्त अपने दौहीत्र के क्षत -विक्षत शव को जोड़कर उसमे प्राण संचार करना चाहता था। शिशु के प्राण अभी भी यमदूतों के हाथों तक नहीं पहुँचे थे।

मेरे शरीर के इन क्षत- विक्षत टुकड़ो को छूकर हमें अपवित्र मत करिये, नानाश्री ! मुझे ईश्वर के पास जाना है..!! शिशु की आत्मा बड़े ही कड़े शब्दों में दुर्दांत से चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी।

.. यदि आपको किसी की मदद करनी ही है, तो मेरी माँ की मदद करिये, जिसकी ममतामयी गोद से मुझे छीनकर, आपके ही लोगों ने ही मेरी हत्या कर दी और मेरी माँ को घसीटते हुए पीछे खंडहर की ओर ले गए। 

जाइये, नानाश्री..जाइये !! जाइये अपनी बेटी यानि मेरी माँ के अस्मत् एवं प्राणों की रक्षा कर सके तो करिये।

दुर्दांत के लिये यह बहुत ही कठिन घड़ी थी। उसके पैर काँप रहे थे और वह आगे को ओर बढ़ नहीं पा रहा था। खँडहर तक पहुंचने के पहले उसकी स्वयं की पुत्री कृपाला की अस्मत् लूट चुकी थी। वह खँडहर में बेसुध नंग धडंग पड़ी थी तथा अपने जीवन की अंतिम श्वासें गिन रही थी। पिता दुर्दान्त को देखकर उसने अपनी आँखें मूँद लीं, मानों उसकी आँखें अपने पापी पिता को देखना ही नहीं चाह रही थी।

दुर्दांत ने कृपाला के आँखों को खोलकर, उसे होश में लाने का प्रयास किया, लेकिन कृपाला के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।

बच्चे को गोद में लेकर झूला झूला रही एक युवती को देखकर दुर्दांत ने ही अपने लोगो को उस अंजान युवती के साथ मनोरंजन करने की अनुमति दी थी।

काफी दूरी होने के कारण वह यह नहीं जान पाया था कि आखिर वह युवती है कौन है ?

दुर्दांत के पश्चाताप की कटार अब उसके स्वयं के गर्दन पर थी। यमदूतों के हाथों में अब मृत्युलोक की तीन आत्मायें आ चुकी थीं। यमराज को अब इन तीनों आत्माओं के लिये स्वर्ग और नर्क तय करना था।

इधर यमदूतों के बीच, आपसी चर्चा इस बात कि थी कि उन कामांध दुष्टों का क्या होगा। अभी और कितनी कृपाला उनके हवस की शिकार होंगीं।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #210 – लघुकथा – किन्नर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित आपकी एक विचारणीय लघुकथा “किन्नर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 210 ☆

लघुकथा – किन्नर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

” माँ ! आप तो बचपन से मुझे जानती हो, मैं किसी लड़की से शादी नहीं कर सकता हूँ. फिर ये जिद क्यों ?”

” बेटा ! तू शादी कर ले. बाकि तेरे भैया सम्हाल लेंगे. कम से कम समाज में हमारी इज्जत तो रह जाएगी . फिर कोई यह तो नहीं जान पाएगा की तू, …” कहते हुए माँ गमले में लगे बोन्साई आम के वृक्ष को निहारने लगी.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #278 – कथा-कहानी ☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता कब तक दमन करेंगे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #278 ☆

☆ डाउटफुल मेन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(एक लघुकथा उन हिमायतियों के नाम)

नाम क्या है तेरा ?

सर, राम विश्वास।

इसका मतलब, राम पर विश्वास है तुझे

नहीं-नही सर, ये तो सिर्फ नाम है मेरा जो मेरे माँ-बाप का रखा हुआ है।

ये तो हिन्दू नाम है, हिन्दू धरम से है न तू ?

हाँ सर, कहने को हिन्दू हूँ पर मैं हिन्दू धर्म को नहीं मानता। मूर्तिपूजा और हिंदू धर्म के पाखण्डों से बहुत दूर हूँ, बल्कि कट्टर विरोधी हूँ मैं तो।

तो फिर किस धर्म को मानता है?

मैं.. मैं सर, वैसे तो किसी धर्म को नहीं मानता हूँ, एक अलग विचाधारा के उन्नत पंथ से जुड़ा हूँ न इसलिए।

ये अलग विचाधारा क्या होती है, क्या करते हो तुम लोग?

सर शुरुआत में तो हम मेहनतकश लोगों के अधिकार की लड़ाई लड़ते थे, पर उसके बाद से अब हिदू धर्म के तथाकथित रूढ़िवाद और आडम्बरों के साथ हिंदुओं के धर्मग्रंथ इनके तीज त्योहारों के विरोध की मशाल जलाए रखने का ध्येय बना रक्खा है। देश की बात करें तो भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे अर्थहीन नारे भी हमारी जमात के साथी अपनी जुबान पर नहीं लाते।

तूने गीता, रामायण या हिंदुओं की कोई किताबें पढ़ी है?

नहीं सर- मैं क्यों इन दकियानूसी किताबों में अपने समय को खोटी करूँगा, हाँ सुनी सुनाई बातों को लेकर इनकी आलोचनाओं में जरूर भाग लेता रहा हूँ।

कुरान पढ़ा है क्या?

नहीं सर, पर कुरान पर आधारित कई किताबें और  हिन्दू विरोध में हमारे अपने ही पंथ के बड़े-बड़े विचारकों द्वारा लिखे उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ , निबन्ध, लेख आदि अक्सर पढ़ता ही रहता हूँ।

अच्छा ये बता, हमारे धरम को मानेगा क्या, सीने पर बंदूक रखते हुए एक कड़क सवाल।

सर जान बख्श दी जाए तो कोई हर्ज नहीं है।

वैसे भी हमने कभी आपके धर्म की या आप लोगों की अलोचना से अपने को सदा दूर रखा है।

बातें बहुत शातिराना है तेरी, आदमी तू बहुत गड़बड़ लगता है मुझे।

अच्छा! एक काम कर अपनी पेंट उतार।

सर प्लीज़?

जल्दी से, देख रहा है न हाथ में ये बंदूक

जी, उतारता हूँ

तूने कहा बहुत किताबें पढ़ी है हमारे धरम की, तो कलमा भी पढ़ने में आया होगा कहीं, याद है तो सुना।

 हाँ-हाँ याद है न सर,

बोलने के लिए मुँह खोला ही था रामविश्वास ने कि,

धाँय..धाँय..धाँय.

साला डाउटफुल डर्टी मेन, अपने धरम का नहीं हुआ तो हमारा क्या होगा।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रवाह ? ?

वह बहती रही, मैं कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है।  तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

 वह बहती रही।

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:35, 21 मई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “बाबू रामदयाल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆

✍ लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बाबू रामदयाल आज बहुत दुखी हैं। मौत के तांडव की खबरों ने उन्हें हिला कर रख दिया है। उनके शहर में भी दो परिवार निराश्रित हो गए हैं। उन परिवारों के मुखिया एक दूसरे के मित्र थे और एक जघन्य घटना में दोनों एक साथ यमलोक सिधार गए। दोनों की पत्नियां शून्य में घूर रही हैं कि अब क्या होगा। उनके पति घूमने फिरने गए थे मृत्यु को गले लगाने नहीं। इस हादसे का जिम्मेदार कौन है, इसका उत्तर उन्हें कोई नहीं दे रहा।

शहर में गमगीन वातावरण बना रहा पूरे  दिन। उनकी मौत की खबरें अखबारों में छपी उनके सामने रखी हैं । जगह जगह शोक सभाओं के बारे में सुन रहे हैं। दोषियों को सबक सिखाए जाने की कस्में खाई जा रही, ऐसी खबर भी हैं। लोग दांत किटकिटा रहे हैं वाट्सएप फेसबुक पर।

बाबू रामदयाल की  हिम्मत नहीं हो रही  कि मृतकों के घर की ओर एक चक्कर मार आएं।  न अखबार पढ़ पा रहे न टीवी रेडियो सुन पा रहे। बस एकटक शून्य में दृष्टि गढाए हुए हैं जैसे अपनी खुली आंखों से अपना जनाजा देख रहे हों। पता नहीं क्यों उनके अंदर एक भय समा रहा है कि कोई उनके घर आकर उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला जाए तो उनकी पत्नी का क्या होगा। बिना पढी लिखी अधेड़ अवस्था में कैसे जीवन यापन करेगी। उनके बैंक खाते में भी इतने पैसे जमा नहीं हैं कि उसकी जिंदगी उनसे कट जाए। वे जो कमा कर लाते हैं उसीसे हम दोनों का पेट भरता है। और न जाने कितने प्रश्न उनकी आंखों में समाए हुए हैं जो उन्हें सोने भी नहीं दे रहे।

वे शांत मुद्रा में अपने घर के बाहर बैठे हैं। तभी उनके एक पड़ोसी सामने से गुजरते हुए हाथ उठा कर कहते हैं, कैसे हैं रामदयाल जी । बाबू रामदयाल उनकी ओर देखते हैं और पाते हैं कि पड़ोसी के चेहरे पर तो एक शिकन भी नहीं है। रामदयाल हक्के बक्के से अपने पड़ोसी को जाते हुए देखते रहते हैं। सोचते हैं कि वातावरण में पसरे सन्नाटे की क्या इन्हें भनक तक नहीं।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 120 – स्वर्ण पदक – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 120 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 1🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नलिन कांत बैंक की शाखा के वरिष्ठ बैंकर थे. याने सेवानिवृत्त पर आदरणीय. उन्हें मालुम था कि मान सम्मान मांगा नहीं जाता, भय से अगर मिले तो तब तक ही मिलता है जब तक पद का भय हो या फिर सम्मान देने वाले के मन में भय अभी तक विराजित हो. मेहनत और ईमानदारी से कमाया धन और व्यवहार से कमाया गया मान अक्षुण्ण रहता है,अपने साथ शुभता लेकर आता है. नलिनकांत जी ने ये सम्मान कमाया था अपने मधुर व्यवहार और मदद करने के स्वभाववश.उनके दो पुत्र हैं स्वर्ण कांत और रजत कांत. नाम के पीछे उनका केशऑफीसर का लंबा कार्यकाल उत्तरदायी था जब इन्होने गोल्ड लोन स्वीकृति में अपनी इस धातु को परखने की दिव्यदृष्टि के कारण सफलता पाई थी और लोगों को उनकी आपदा में वक्त पर मदद की थी. उनकी दिव्यदृष्टि न केवल बहुमूल्य धातु के बल्कि लोन के हितग्राही की साख और विश्वसनीयता भी परखने में कामयाब रही थी.

बड़ा पुत्र स्वर्ण कांत मेधावी था और अपने पिता के सपनों, शिक्षकों के अनुमानों के अनुरूप ही हर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करता गया. पहले स्कूल, फिर महाविद्यालय और अंत में विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त कर, अपनी शेष महत्वाकांक्षाओं को पिता को समर्पित कर एक राष्ट्रीयकृत बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी याने प्राबेशनरी ऑफीसर के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर सफलता पाई. बुद्धिमत्ता, शिक्षकों का शिक्षण, मार्गदर्शन और मां के आशीषों से मिली ये सफलता, अहंकार से संक्रमित होते होते सिर्फ खुद का पराक्रम बन गई.

जारी रहेगा… 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 69 – रेत… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रेत।)

☆ लघुकथा # 69 – रेत… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

शांति दास जी सोच रहे थे कि आसपास इतना सन्नाटा है। आजकल कोई सुबह की सैर को भी नहीं जाता।

सुबह हो गई अब चाय तो बना कर पी लेता हूं।

आवाज आई कचरे वाली गाड़ी आई सब लोग कचरा डालो ।

उन्होने सोचा चलो कचरा डालकर ही चाय पीता हूं ।

कचरा उठाकर  बाहर डालने के लिए गए, तभी कचरे वाले गाड़ी वाले ने कहा – बाबा मुंह पर कपड़ा बांधकर कचरा डाला करो बाहर आजकल मौसम ठीक नहीं है गर्मी बहुत हो रही है। सुना है लोगों को एक नई तरीके की बीमारी भी हो रही है।

शांति दास जी ने कहा-बेटा जान का खतरा तो वैसे भी है क्या करूं हमेशा आइसोलेशन में अकेला ही रहता हूं बेटा बहू ऊपर की मंजिल में रहते हैं नीचे मुझे अकेला छोड़ दिया।

पत्नी के गुजर जाने के बाद यह जिंदगी बोझ हो गई है।

बुढ़ापे के जीवन का बोझ मुझसे सहन भी नहीं होता। चाहता हूं कि मर जाऊं पर कोई बीमारी भी नहीं लगती।

ऐसा लगता है कि मरुस्थल के चारों ओर से में घिरा हूं और सब तरफ मुझे रेत ही रेत  दिखाई दे रही है।

कचरे की गाड़ी वाला ने कहा- बाबा आपकी बात जो है तो मेरे सर के ऊपर से जा रही है । ठीक है आपका जीवन आप जानो मैं आगे का कचरा लेता हूं। चाहे रेत कहो और चाहे  कुछ और कहो आपकी आप जानो …..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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