हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अधूरी बात… ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘ऐ ठहरो!’ गढ़वाल राइफल्स का फौजी गौण सिंह थपलियाल की आवाज़ कड़क हो गई, ‘देख नहीं रहे हो बोट भर चुकी है ?’

‘मगर मेरे सारे घरवाले तो उसमें बैठ गये। मेरे अब्बा, अम्मीं, मेरे बच्चे और मेरी बीवी -।’ वह आदमी हाथ में एक भारी सा बैग थामे गिड़गिड़ा रहा था।

‘तो क्या? बाद में आना। अगली पारी में।’ गौण सिंह मानो किसी बेजान दीवार से बात कर रहा है। उसकी आवाज़ को कोई संवेदना छू तक नहीं जाती।

नाव में बैठी उसकी बीवी उठ खड़ी हो गई, ‘सा‘ब जी, उसे हमारे साथ आने दो। वरना मुझे भी यहाँ उतार दो।’

‘ऐ औरत, चुप मारके बैठो। वरना सभी को उतार देंगे। फिर डूब मरना बाढ़ के इन सैलाबों में।’ आवाज़ में मिलिट्री रोब की तल्खी उतर आयी।

उस आदमी की बूढ़ी माँ अपनी आँखें पोंछती जा रही थी। डोगरी में उसने भी कुछ कहने की कोशिश की। मगर होठों के शब्द मुँह के अंदर ही गुम हो गये। उसके बच्चे और अब्बा असहाय सा इधर उधर देख रहे थे।

किया क्या जाए? यह काम ही ऐसा है कि सख्त होना पड़ता है। वरना बाढ़ के पानी में अगर मिलिट्री रेसक्यू बोट ही डूब जाए तो ऊपरवालों को जवाब देना नहीं पड़ेगा ? और अखबार में जो छी छी होगी – वो ?

करे तो क्या करे गौण सिंह ? उसका मिजाज तो ऐसे ही खट्टा है। चार दिनों से घर पर बात भी जो न हो सकी। क्या सोच रहे हैं बाबूजी, अम्मां, ? और रामबाला ? बस, यह बात करने के लिए ही तो थपलियाल ने आते समय बीवी को मोबाइल खरीद कर दिया था, ‘रोज एकबार मुझसे बात कर लिया करना। बार्डर की पोस्टिंग पर तो इससे बात नहीं हो पायेगी। तब तो छावनी के टेलिफोन से ही मैं बात कर लूँगा। बस, जब यूनिट स्टेशन पर रहेगा तो इससे जब चाहे बात कर लेना।’

मगर चार दिन हो गये मोबाइल एकदम गूँगा बना बैठा है। धत तेरी की। जम्मू कश्मीर में बाढ़ क्या आयी चिनाब झेलम के सैलाब में गांव, कसबे तो क्या शहर की इमारतें भी डूबने लगीं। साथ साथ ले डूबी सेना के जवानों की इस खिड़की से आती जाड़े की धूप सी मुठ्ठी भर खुशी को भी। ज़ाहिर है थपलियाल का मिजाज चिड़चिड़ा हो गया है।

फिर राजस्थान से जब उसका ब्रिगेड कश्मीर के लिए रवाना हुआ तो फोन पर यह बात सुनकर अम्मां तो क्या बाबूजी भी रो पड़े थे, ‘सारे देश में पोस्टिंग के लिए और कोई जगह नहीं मिली? वहाँ तो आये दिन बम और धमाके और फायरिंग -’

मोबाइल पर मेसेज में एक ‘जोक’ आया था। कश्मीर और खूबसूरत बीवी में क्या समानता है? दोनों पर पड़ोसी नजर गड़ाये रहते हैं। कैंटीन में जवान उसे पढ़कर खूब हँस रहे थे। लेकिन नौकरी नौकरी है। और आर्डर आर्डर। इससे छुटकारा कहाँ ? तो चलो …….

फिर, सूबेदार शिवपाल यादव गाली देते हुए कह नहीं रहा था ? ‘ये कश्मीरी साले सब बेईमान हैं। खायेंगे हिन्दुस्तान का और वफ़ादारी निभायेंगे पाकिस्तान से। सब के सब आईएसआई के एजेंट।’

उधर जब मिलिट्री का कारवाँ ट्रकों पर गुजरता है तो गौण सिंह ने सड़कों पर खड़े लोगों में – खासकर नौजवानों की निगाहों में देखा है – एक धिक्कार! एक घृणा!

बार बार गढ़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं – मिलिट्री के काले करतूतों का पर्दाफाश होता है और मुँह पर कपड़े बांधे किशोर वय के लड़के सड़क पर आकर जवानों पर ढेला पत्थर फेंकते हैं। उन्हें खदेड़ने के लिए जम्मू कश्मीर पुलिस लाठी भाँजने लगती है। अंत में फिर फौज को बुलायी जाती है। और अगर कहीं गोली चल जाए, और कोई हादसा हो जाए तो फिर से वही चक्र चलने लगता है।

अपने लापता बेटों की तस्वीर लेकर मायें निकल आती हैं – सड़कों पर। मिलिट्री बूटों तले रौंदी गई इज्जत के चिथड़ों को लेकर माँ, बाप और बहनें वादिओं की सरज़मीं को ग़मज़दा बना देती हैं।

मगर हस्तिनापुर की जनता कितनी भी रोये, मना करे, द्रौपदी का चीरहरण होता रहता है। इंद्रप्रस्थ के कानों जूँ तक नहीं रेंगती। कुरुक्षेत्र के मैदाने जंग में किसान और मामूली जनता की औलादों की लाशों का अंबार अठ्ठारह रोज तक लगते रहे। तो आज भी दिल्ली अपनी कुंभकर्णी नींद से जागती नहीं …..

जखम के सिक्के के भी दो पहलू हैं। एक तरफ अगर पुलिस मिलिट्री के प्रति कश्मीरी अवाम का आक्रोश है, तो दूसरी ओर चस्पाँ है धर्म के नाम पर अपने घर से खदेड़े गये कश्मीरी पंडितों का दर्द। राजनीति के सिक्के के भी दो पहलुएँ हैं। एक तरफ अगर है – हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बीच की जन्मावधि खटास, तो दूसरी तरफ है यह सवाल – क्या पाकिस्तान बन जाने से वहाँ के अवाम बहुत खुश हैं? तर्जे जफा और दर्दे जिगर तो दोनों तरफ बराबर है। तो?

करीब तीन महीने से ज्यादा हो गया है जब अबकी बार गौण सिंह थपलियाल घर से वापस आया था। मोबाइल पर रामबाला से तो हर रोज बात होती रही। कभी कभी दिन में दो दफे। रात के सोते समय भी गौण एकबार हरे बटन को दबा लिया करता था, ‘क्या कर रही है …..?’

‘चुप रहिए जी। बाऊजी का खाना लगा रही हूँ।’

‘अभी तुम लोगों ने खाना नहीं खाया? यहाँ तो रात भी बूढ़ा गई है।’

‘हम मिलिट्री ड्यूटी पर थोड़े न हैं।’

मोबाइल पर आती गिलास और लोटे की खनक, माँ की खांसी की आवाज सुनते सुनते थपलिआल की नाकों में माँ के आँचल की महक आने लगती। इतने में बाबूजी की आवाज आती, ‘बहू, एक रोटी और दे जाना। आज चने की दाल किसने बनायी? तू ने या तेरी सास ने….?’

उधर से माँ की आवाज आती, ‘ मैं कबसे ऐसी दाल बनाने लगी ?’

‘हाँ, जभी मैं सोचूँ – इतनी जायकेदार कैसे बन गयी?’

शायद मोबाइल को आँचल में छुपा कर रामबाला यहाँ से वहाँ दौड़ती रही। और बीच बीच में फुसफुसाकर बात कर लेती, ‘थोड़ी देर बाद फोन नहीं कर सकते?’

‘तुझसे बात किये बगैर जो नींद नहीं आती।’

तब तक बाबूजी शायद फिर से कहते, ‘पता नहीं अपना बेटा वहाँ क्या खा रहा है। हाँ, सुना तो है मिलिट्री में फल, मेवे, मटन सब रोज़ रोज़ मिलै।’

इधर से गौण कहता, ‘मगर माँ या बीवी के हाथ का खाना नहीं मिलता रे। और तू भी नहीं मिलती ….।’

‘धत्!’कितनी बार मारे गुस्सा और शर्म के रामबाला ने मोबाइल के लाल बटन को झट से दबा दिया। और थपलियाल को फिर से हरी झंडी लहरानी पड़ी, ‘हैलो, तू ने लाइन काट क्यों दिया?’

घर से लौटने के शायद डेढ़ महीने बाद रामबाला ने उसे वो बात बतायी थी। एक रात जब दोनों बात कर रहे थे …..

‘सुनिए जी, आप से एक बात करनी थी।’

‘क्या ?’

मगर उधर से सिर्फ खामोशी। गढ़वाल की हवा हिमालय में दौड़ रही थी। उसी की साँय साँय ……

‘अरे बोल न। क्या बात है?’

फिर भी रामबाला चुप रही।

‘इस तरह से तो तुझे मुझे और उलझन में डाल देगी। घर में सब ठीक है न? बाऊजी ….अम्मां ?’

‘सब ठीक है। वो बात नहीं है-।’

‘तो फिर क्या हुआ ? तेरे पीहर में ?’

‘वहाँ सब ठीक है जी।’

अब थपलियाल को गुस्सा आ गया, ‘अरे तो बोलती क्यों नहीं – बात क्या है? मुझे कन्फ्यूज कर रही है।’

‘आप न – आप न – बाप बननेवाले हैं -’

बस गढ़वाल ने लाल बटन दबा दिया।

तब से रोज़ रात को जबतक उसकी हालचाल ठीक से न ले ले, थपलियाल को चैन नहीं आता। इसी लिए आज चार दिनों से उसका मिजाज ट्रिगर पर उँगली धरे बैठा है। कितना कुछ पूछने बताने की चाह है, मगर सारी बातें अधूरी रह गई।

पता नहीं दोस्तों के कहने पर या कहाँ से उसे पता चला था तो बड़ी समझदारी दिखाते हुए उसने पूछ लिया था, ‘वो कुछ हिलता डुलता है ?’

उधर से खिलखिलाने का फव्वारा फूट पड़ा, ‘अरे डाक्टरनी ने कहा है – वो तो चार महीने बाद ही होता है, जी।’

‘ओ -!’गौण सिंह थपलियाल बहुत निराश हो गया था।

वज़ह तो सभी ज़गह करीब करीब एक ही होती है। इंसानी काली करतूत। भले बेचारी प्रकृति के मत्थे सारा दोष मढ़ दिया जाता है – कि यह कुदरत का कहर है ! उत्तराखंड में अगर होटल, आश्रम और बाँध बनाने के चक्कर में पहाड़ की छाती को खोखला कर देने से जल प्लावन आता है, तो यहाँ भी अमुक एस्टेट और लैंड प्रापर्टी बनाने के चक्कर में झीलों का गला घोंट दिया जाता है। नतीज़तन जब पहाड़ की बर्फ पिघल कर बहने लगी तो चेनाब और झेलम में उसे फैलने की ज़गह ही न मिली, क्योंकि झीलें तो गायब थीं। तो सैलाब घुस गया गली मुहल्ले में। हर आशियाना उजड़ कर रह गया।

कुदरत ने कहर बरपाया तो क्या हुआ, भारतीय मिलिट्री को मौका मिल गया – इन्सानियत का हाथ बढ़ाने। उनके खिलाफ यहाँ की मिट्टी में जो जहर घुल गया है, उसी में अमृत घोलने का प्रयास होने लगा। अपनी जान हथेली पर रखकर फौजी जवान बचाव कार्य में जुट गये। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए पहुँच गये हर गली मुहल्ले में।

तो आपात सेवा में फौजिओं को तैनात कर दिया गया। गढ़वाल रेजिमेंट्स के लोग कूपवाड़ा में दो बोट, भोजन के पैकेट्स और दवाई लेकर हाजिर हो गये।

बड़ी बड़ी इमारतों में जहाँ पहली मंजिल तक पानी पहुँच गया था और सारे लोग दूसरी मंजिल पर जाकर बैठे रहे, वहाँ तो भोजन सामग्री बाँट कर वे आगे बढ़ गये, मगर जिन झीलों की बगलवाले मुहल्लों में जहाँ निरन्तर पानी का दबाव था, या जहाँ गरीब जनता का एक मंजिला आशियाना पूरी तरह डूब चुका था, उन लोगों को बोट पर बैठाकर करीब तीन किमी दूर तक पंचायत भवन में ठहराया जा रहा था। उम्रदराज मरीजों को मिलिट्री अस्पताल में पहुँचाना तो था ही। इधर गैस्ट्रोएंटराइटिस का भी प्रकोप होने लगा। सरकारी व्यवस्था के लिए यह समस्या भी – एक तो करैला ऊपर से नीम चढ़ा – की स्थिति हो गई।

विद्या नौटियाल बोट को चला रहा था और गौण सिंह पतवार को सॅँभालते हुए दूसरे छोर पर बैठा था। सामान कुछ बॅँट गये थे। अभी काफी बोट में पड़े हुए थे। लालबाग चैराहे के पास आकर विद्या आसपास के मकानों की छत पर खड़े लोगों से पूछ रहा था, ‘ इधर सब खैरिअत है न? किसी को कोई जरूरत हो तो बताना। कहीं कोई परिवार मुसीबत में हो तो हमें बताओ। हम भर सब मदद करेंगे।’

औरतों ने उन्हें देखते ही नकाब नीचे कर लिया था। उनकी आँखों की पुतलियां घूम फिर कर इन पर ठहर जातीं।

इतने में एक मोटा थुलथुल आदमी गली की सीढ़िओं पर खड़े उन्हें आवाज देने लगा, ‘यहाँ नूरानी मस्जिद में हमारे आदमी हैं। दो दिनों से उन्होने उन्होने कुछ खाया नहीं है। आप इधर बोट लगाइये।’

‘आपकी तारीफ?’ नौटियाल ने बोट की मशीन बंद करते हुए पूछा।

‘अरे मुझे नहीं पहचाना? मैं हूँ – बिलाल भट्ट गिलानी। रूलिंग पार्टी का सेक्रेटरी।’

बस, यह राजनैतिक पैंतरा तो वेदव्यास ने ही लिख दिया था। कुरूक्षेत्र के युद्ध में गुरु द्रोण के शौर्य के आगे जब पांडव परेशान थे, तो वे सोचने लगे कि क्या किया जाए कि द्रोण अस्त्र त्याग करने में मजबूर हों। उसी समय अश्वत्थामा नाम का एक हाथी रणभूमि में मारा गया। द्रोण के बेटे का नाम भी अश्वत्थामा ही था। तो सबने मशविरा करके युधिष्ठिर को भेजा। द्रोणाचार्य के पास जाकर उसने कहा, ‘ अश्वत्थामा मारा गया।’ फिर धीरे से बोला, ‘जो गज है।’ यानी समूचा सच भी नहीं, झूठ भी नहीं। बेटे की मौत की गलत खबर से दुखी होकर द्रोण ने हथियार त्याग दिया और पांचालीका भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया।

बिलाल भट्ट ने कह दिया कि वह रुलिंग पार्टी का सेक्रेटरी है। वर्तमान या भूतपूर्व – किसे मालूम? प्रादेशिक सेक्रेटरी, या शहर का, या मुहल्ले का? खैर, नूरानी मस्जिद में देने के लिए ढेर सारे फुड पैकेट्स लेकर बोट से उतरते ही नौटियाल और थपलियाल ने देखा कई आदमी और औरतें उनके बोट के पास खड़े होकर चिल्ला रहे थे, ‘सा‘ब, आपलोगों ने हमें कुछ नहीं दिया। और उन लोगों के देने जा रहे हैं ?’

‘क्यों क्या बात है? तुम लोग मसजिद में जाकर भट्ट साहब से अपने पैकेट्स क्यों नहीं ले लेते?’गौण सिंह ने कहा।

‘वो हमें कुछ नहीं देंगे साहब। चाहे हम भूखों मर जाएँ।’एक आदमी ने दोनों हाथ उठाकर कहा।

‘मगर क्यों ?’

‘क्योंकि हम शिया हैं। वो सिर्फ सुन्निओं की पनाहगाह है।’

इतने में वो आदमी हाँफते हुए फिर से सीढ़ी पर हाजिर हो गया, ‘क्या बात है जनाब? उनलोगों से क्या बात कर रहे हैं? आइये, यहाँ सामान देते जाइये।’

नौटियाल ने ऊपर जाकर मस्जिद में झाँक कर देखा। वहाँ खास कोई न था। उसने कड़क कर पूछा, ‘बात क्या है? यहाँ तो कोई है ही नहीं। तो फिर किसके लिए आप फुड पैकेट्स यहाँ रखवाना चाहते हैं? उधर तो वे लोग खुद पैकेट्स लेने आये हैं।’

‘मैं ने कहा न – मैं सब बाँट दूँगा। आप यहाँ सामान रखिए और जाइये न।’उसका बात करने का अंदाज ही बहुत अक्खड़ था।

‘वो तो मदद के सामान बाजार में बेच देता है।’एक औरत, जिसकी गोद में एक बच्चा चीख रहा था, ने बताया।

‘ऐ बीवी।’डोगरी में गाली देते हुए बिलाल भट्ट गिलानी चिल्ला रहा था, ‘अपने बेटे का मुँह बंद रख। तब से भौंकता जा रहा है।’

विद्या नौटियाल और गौण सिंह की आँखें मिल गईं। आँखों ही आँखों में दोनों नें ने तय कर लिया। बोट के पास खड़े लोगों में फुड पैकेट्स बँटने लगे। उधर मस्जिद के सामने हो हल्ला मच गया। बिलाल भट्ट ने आवाज देकर अपने आदमिओं को बुला लिया, ‘ये इंडियन मिलिट्री हमारी मदद के लिए नहीं आते हैं। सब दिल्ली के एजेंट हैं। यहाँ हमारे जख्मों पर भी पाॅलिटिक्स कर रहे हैं।’

‘यह क्या बक रहे हैं?’गौण सिंह को गुस्सा आ गया, ‘हम तो जरूरतमंदों में ही जिन्स बाँट रहे हैं।’

बात बढ़ गई। और सात आठ लोग उधर खड़े हो गये। बिलाल चिल्ला रहा था, ‘गो बैक इंडिया। हमें आजादी चाहिए।’

स्थिति बिगड़ न जाए, इसलिए दोनों वहाँ से जल्दी जल्दी रवाना हो गये।

रास्ते में कई लोगों को बैठाकर वे सबको को टिकानेवाले उसी पंचायत भवन में ले जा रहे थे, तो रास्ते में वो परिवार उन्हें मिल गया। वह आदमी अब तक गिड़गिड़ा रहा था, ‘सा‘ब, दो दिनों से हमारे बच्चों को हम कुछ खिला न सके। खुदा के लिए, इन्हें लेते जाइये।’

नौटियाल ने कहा था, ‘देख लो भाई, अब जगह कितनी बची है। कितने लोग और बैठ ही सकते हैं ?’

एक एक करके उसका अब्बू, उसकी अम्मीं, एक बहन और बीवी और दो बच्चे – सभी बैठ गये। बोट में अब जगह कहाँ थी ?

तभी गौण सिंह थपलियाल को कहना पड़ा था, ‘नहीं जी, हम तुम्हें ले नहीं जा सकते।’

उसकी औरत चीख उठी, ‘उसे भी बैठा लो, साहिब।’

‘और बोट डूब जाए तो ? तुम जिम्मेदार होगी?’ घर पर बात न होने के कारण, और अभी इस झमेले से उसका दिमाग खट्टा हो गया था।

वो आदमी जाने क्या बुदबुदा रहा था। उसकी बीवी बोट पर खड़ी हो गई।

‘ऐ बैठ जाओ। सबको पानी में डुबोना है क्या?’विद्या नौटियाल की घुड़की से उसकी आँखों से आँसू की धार फूट पड़ी।

बाकी लोग गूँगी निगाहों से सबकुछ देख रहे थे। मन ही मन सब अपनी किस्मत से शायद शिकायत कर रहे होंगे।

चार दिनों से मेरी कोई खबर न पाकर रामबाला भी ऐसे ही रो रही होगी! सबकी नजर बचाकर रसोई में, या पानी भरते समय। खास कर कल जब राहत कार्य में लगे एक फौजी का सैलाब मे बह जाने की खबर टीवी में आ चुकी है। थपलियाल के मन में भादो कुहार के मौसम की तरह भावनाओं के बादल उमड़ पड़े। उसने दोस्त की ओर देखा, ‘क्यों विद्या, यह नहीं हो सकता कि तू इसे लेकर चला जा, मैं यहीं रुक जाता हूँ।’

‘पागल हो गया है क्या? तेरी ड्यूटी बोट पर है। वहाँ जवाब कौन देगा? सूबेदार तो हर समय डंडा लिये खड़ा रहता है।’

‘अगर लोगों को बचाने में मैं भी उसी तरह बह जाता तो? सुन, इन्हें उतार कर दूसरी खेप लेकर इधर ही चले आना। चल कर्नल साहब को समझा लेंगे।’

‘तू भी न यार, बड़ा जिद्दी है साले।’विद्या ने मुँह फेर लिया, ‘पतवार कौन सँभालेगा?’

वह औरत बोली, ‘मेरा खाविंद कर लेगा, सा‘ब।’

जगह की अदला बदली हो गई। गौण सिंह थपलियाल बोट से उतर कर वहीं खड़ा है, वह आदमी बोट पर पतवार सँभाले बैठा है। बोट चल पड़ा ……

उस औरत की आँखों में एक अलग सैलाब उमड़ पड़ा है …….वह क्या बुदबुदा रही है ?

उसकी ओेर देखते हुए गौण के मन में यही होता है – हम तो यहाँ इनके आँसू पोंछने के लिए आये थे, मगर यह आँसू ……? इसको कौन सा नाम देंगे? उसे लगा यह आँसू कोई नोनाजल नहीं बल्कि एहसान की भावना की अमृत धार है।

उसे लगा भले ही टावर न मिलने से मोबाइल का कनेक्षण नहीं हो पा रहा है, मगर रामबाला से उसकी अधूरी बात पूरी हो गई …

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

पताः फ्लैट नं. 301, चैथी मंजिल, टावर नं 1, मंगलम आनन्दा, फेज 3 ए,  रामपुरा रोड, सांगानेर, जयपुर, 302029 मो. 9455168359, 9140214489.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ४ – बाप-बेटा – भूख और मौत ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ४ ☆

☆ कथा कहानी ☆ ~ बाप-बेटा – भूख और मौत ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

खेत में काम करते-करते करीब तीन बज गए थे। सूरज भी यह देखकर हैरान था कि यह आदमी है या दानव। बिना कुछ खाए पिये, सुबह से लगा तो शाम तक लगा ही रह गया। रोटी तो दूर, एक गिलास पानी भी उसे अभी तक नसीब नही हुआ था। ऐसा बिल्कुल नही था कि दीनानाथ को भूख प्यास नही लगी थी। दीनानाथ को जोर की भूख के साथ साथ प्यास भी लगी थी। लेकिन उनका बेटा किशन, यदि अपनी जिद्द पर अड़ा तो अड़ा ही रह गया। अपने बाबूजी को खेत में खाना – पानी लेकर नही गया तो नही गया। किशन की माँ गिडगिड़ाते गिडगिड़ाते थक गयी, लेकिन किशन को क्या, उसको तो अपने मित्रों के साथ कहीं और जाना था, तो जाना था, उसके लिये यह बात बिल्कुल सामान्य बात थी।

 थक हार कर सुरसतिया खाना लेकर खेत में पहुंची, तो उसे दीनानाथ कहीं भी दिखाई नही दिए। लू के थपेड़ो ने दीनानाथ पर जो कहर बरपाना था, बरपा दिया था।

टूटे पेड़ की जड़ के नीचे ऐठे हुए दीनानाथ को अब धूप नही लग रही थी। क्योंकि उनके साँसों ने भी साथ छोड़ दिया था। सुरसतिया की चीख पुकार सुनकर गांव के लोग भाग कर खेत में आये और दीनानाथ को उठाकर घर ले आये।

घर पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। सुरसतिया का रो रो कर बुरा हाल था। लोगों के बीच से किसी की आवाज आयी कि यदि दीनानाथ को भूख से मरा घोषित करा दिया जाय तो पाँच लाख की सहायता राशि मिल जायेगी।

यह बात किशन के कानों तक पहुंची तो उसकी बेचैनी बढ़ गयी। गांव के लेखपाल पवन मौर्या कही दूर के नही रहने वाले थे। वे भी बगल के गांव नौताल के रहने वाले थे। दीनानाथ की मृत्यु की खबर सुनकर वे भी द्वार करने आये थे।

किशन के कान में भूख से मरने वाली बात गूँज रही थी। अब वह पवन लेखपाल के पीछे ही पड़ गया। साहब, कुछ ले देकर बस यही रिपोर्ट लगा दीजिए। मेरा बड़ा काम हो जाएगा।

 गांव के कुछ नौजवान यह सब देख रहे थे। मनोज से जब नही रहा गया तो, उसने किशन पर चिल्लाते हुए कहा। अबे नालायक! पहले अपने बाबूजी के क्रिया – कर्म की तैयारी कर, उनका अंतिम संस्कार कर, फिर भूख से मरने और पैसे की बात करना -कराना। मनोज की बातों का कुछ भी असर किशन पर नही पड़ रहा था। वह तो अपने बाबूजी का पोस्टमार्टम करवाना चाहता था। क्योंकि भूख से मरने की पुष्टि तो पोस्टमार्टम में ही होती। पवन लेखपाल के मन में रह रह कर लालच आ रहा था, लेकिन उसकी चिंता यह थी की एस0 डी0 एम0 साहब तो इस बात पर कभी भी राजी नही होंगे, कि यह रिपोर्ट लगे कि दीनानाथ भूख से मर गया क्योंकि अब देश विकास की गति में आगे निकल चुका है। देश की सरकार हर एक नागरिक को राशन की दुकान से अन्न एवं अन्य सुविधा देने के लिये कृत संकल्पित है। पवन कई बार यह बात एस0 डी0 एम0 साहब के मुँह से सुन चुका था कि कोई ऐसा काम नही होना चाहिए जिससे सरकार की छवि को नुकसान हो। यह तो इस सरकार में भूख से मरने वाली बात है, जो बहुत बड़ी बात हुई। वैसे दीनानाथ का भी राशन कार्ड बना था और वह हर महीने राशन की दुकान से राशन उठाता था।

 सुरसतिया को अच्छी तरह से पता था कि आज उसके पति दीनानाथ की मौत भूख प्यास से तो हुई है, लेकिन राशन की कमी से नहीं हुई है। इसलिए वह ऐसी रिपोर्ट लगवाने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थी।

लेकिन दीनानाथ का एकलौता बेटा किशन अपने बाबूजी को भूख के कारण ही मरना सुनना चाह रहा था।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पाप)

☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

(कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2024 में प्रथम पुरस्कार प्राप्त लघुकथा)

कन्या पैदा हुई। घर के सब लोग एकदम ख़ामोश थे। कन्या के गले में तम्बाकू रख दिया गया, कन्या हिचकी भी नहीं ले पाई। दो मर्दों ने, जिनमें से एक कन्या का पिता था, गड्ढा खोदा और निरासक्त भाव से उसे धरती के अँधेरे में पहुँचा दिया। दफ़न के वक्त कन्या के पिता ने कन्या से कहा, “जा, जहाँ से आई थी, आगे अब भैया को भेजना।”

कन्या का पिता कन्या को दफ़न करने और पुजारी जी को सीधा पहुँचाने के बाद कन्या की माँ के पास आ बैठा। वह रो रही थी। कन्या के पिता ने कहा, “रोती क्यों हो? वंश तो बेटे से ही चलेगा न!”

“हमारा अंश थी वह! दुनिया मे आई और आँख खोलने से पहले चली भी गई। भारी पाप लगेगा हमें।”

“पाप क्यों लगेगा, हमने कौन सी गऊ हत्या की है?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #208 – बाल कथा – लेजर का रहस्य – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय और ज्ञानवर्धक कहानी-  “लेजर का रहस्य)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 208 ☆

☆ बाल कथा – लेजर का रहस्य ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

एक दिन छोटा सा लड़का अरुण अपनी किताबों में खोया हुआ था। अचानक उसकी नजर लेजर बीम पर पड़ी। उसने पढ़ा कि यह प्रकाश की गति, यानी 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड, से चलती है!

अरुण के मन में एक सवाल कौंधा—क्या यह किसी खतरे को रोकने के लिए इस्तेमाल हो सकती है?

उत्सुकता में वह अपने पिता, डॉ. विजय, के पास गया, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। “पापा, क्या लेजर से कोई हथियार बनाया जा सकता है?” अरुण ने पूछा।

डॉ. विजय ने मुस्कुराकर कहा, “शायद, बेटा। यह सोचने वाली बात है।”

फिर वे चले गए, और अरुण का मन और भी जिज्ञासु हो गया।

दिन बीतते गए, और अरुण ने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। लेकिन एक सुबह, डॉ. विजय अचानक अरुण के पास आए। उनके चेहरे पर गर्व और उत्साह था।

“शाबाश, बेटा! तुम्हारी वजह से आज मैंने एक बेहतरीन काम किया है!” उन्होंने कहा।

अरुण की आंखें चमक उठीं। “पापा, वह काम क्या है?” उसने उत्सुकता से पूछा।

डॉ. विजय ने मुस्कान के साथ एक कमरे की ओर इशारा किया। “आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूं।”

वे एक प्रयोगशाला में गए, जहां एक चमकदार मशीन रखी थी। डॉ. विजय ने कहा, “यह एक लेजर बीम हथियार है! यह प्रकाश की गति से चलती है और किसी भी उड़ने वाले यान या खतरे को चंद सेकंड में नष्ट कर सकती है।”

अरुण का मुंह खुला का खुला रह गया। “लेकिन पापा, यह कैसे हुआ?” उसने पूछा।

डॉ. विजय ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “एक दिन तुमने मुझसे पूछा था कि क्या लेजर से हथियार बनाया जा सकता है। उस सवाल ने मुझे प्रेरित किया। मैंने दिन-रात मेहनत की, इलेक्ट्रो-ऑप्टिक सिस्टम और लेजर तकनीक पर काम किया, और यह चमत्कार बन गया। तो शाबाशी के असली हकदार तुम हो, बेटा!”

अरुण हैरान रह गया। क्या उसका एक साधारण सवाल इतना बड़ा आविष्कार बन सकता है?

उस दिन से अरुण की जिज्ञासा और बढ़ गई। वह सोचता रहा कि उसका अगला सवाल क्या होगा, जो शायद दुनिया बदल दे। डॉ. विजय ने हथियार को देश की रक्षा के लिए तैयार किया, लेकिन अरुण के मन में एक रहस्य बना रहा—क्या और भी चमत्कार उसकी जिज्ञासा से पैदा होंगे?

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© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-04-2025 

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – आत्मनिर्भरता।)

☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

पंद्रह दिन हो गये दुबे  जी का निधन हुए. सारे रिश्तेदार अपने घर लौट गए. बेटा बहू परसों ही बैंगलोर जाने वाले हैं।

वे माँ से बोले – आप भी चलो। आप अकेले यहां रहकर क्या करोगी?पड़ोस के वर्मा अंकल और भी कई लोग मकान हमारा खरीदना चाहते हैं, अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। यह मकान बेच देंगे।

– मकान बेचने के विचार से पहले कम से कम एक बार मुझसे चर्चा तो करना था । इस मकान की मालकिन तुम्हारे पापा ने मुझे बनाया है। उन्होंने यह मेरे नाम से ही खरीदा था। हम दोनों ने इसे बड़े प्यार से सजाया है।

कमल जी गुमसुम छत पर बैठकर आगे के जीवन की उधेडबुन मे लगी थी।

कैसै कटेगा यह शेष जीवन? दुबे जी मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया। हर काम में हमेशा मेरा साथ दिया। अब अकेले क्यों छोड़ कर चले गए?

पडोसन सखी रागिनी आई और बोली- क्या हुआ बहन जी आप यहां छत पर अकेले क्यों बैठी हो? कुछ खाना खाया या नहीं। चलो साथ में थोड़ा पार्क में घूमते हैं।

कुछ सोचते हुए कमल ने पडोसन से कहा – रागिनी तुम कह रही थी कि पास में इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चे घर मकान ढूंढ रहे हैं। वह पेइंग गेस्ट की तरह रहना चाहते हैं।  क्या उन्हें तुम मेरे घर बुला लाओगी। मैं उन्हें अपने घर में रखूंगी। ध्यान देना लड़कियां होनी चाहिए। देखो रागिनी  तुम मेरी मदद करना।

चलो मैं अभी उनसे मिला देती हूं वह तीन लड़कियां पास में बंटी की मम्मी के यहां रहती हैं वह उन्हें बड़ा परेशान करती है।

– बेटी निशा तुम लोग घर ढूंढ रही हो ना यह आंटी का घर पार्क के पास है देखा है ना। क्या  वहां पर तुम लोग रहोगे? जितना पैसा यहां देते हो उतना ही वहां पर देना पड़ेगा और तुम्हें आराम रहेगा।

– ठीक है आंटी हम थोड़ी देर बाद अपना सामान लेकर आप बोलो तो घर आ जाते हैं क्योंकि यह आंटी तो हमसे घर खाली करा रही हैं।

– चलो बेटा साथ में घर देख लो।

घर देख कर वे बोलीं – आपका घर तो बहुत अच्छा है हम तीनों लड़कियां 5000 आपको देगी।

तभी बेटे अविनाश ने कहा – माँ, यह क्या नाटक लगा के रखा है?

– देखो अविनाश मैं तुम्हारे घर जाकर नहीं रहूंगी। तुम लोगों का जितना दिन मन करता है इस घर में रहो बाकी मैं अपना खर्चा चला लूंगी। तुम लोगों से एक पैसा नहीं मांगूंगी। तुम्हारे दरवाजे पर नहीं जाऊंगी और अपना घर भी नहीं बेचूंगी ।

जिंदगी भर कभी काम नहीं किया पर मैं अब आत्मनिर्भर बनूंगी।

 © श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 – स्नेह का साहित्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा स्नेह का साहित्य”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆

🌻लघु कथा🌻  ? स्नेह का साहित्य  ?

आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।

पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।

हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।

साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।

आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”

आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”

सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।

समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”

“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।

अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप  दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”

चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।

आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।

कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 284 ☆ कथा-कहानी – जानवर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी  एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय कथा – ‘जानवर’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 284 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जानवर

रोज़ की तरह सवेरे सवेरे ही केदार दादा घर का दरवाज़ा खोलकर बरामदे में बैठ गये। सामने सड़क पर लोगों का आना-जाना चल रहा था। खरखराते हुए हल, ढचर-ढचर करती बैलगाड़ियां,चंगेर में बच्चों को लिए, उंगलियों से अंग्रेज़ी का अक्षर ‘वी’ बना कर उसके बीच में इधर-उधर देखती घूंघटवाली औरतें— सब अपने अपने काम पर जा रहे थे। केदार के सामने आने पर लोगों का उनसे ‘राम राम’ का आदान-प्रदान होता।

केदार की नींद सवेरे चार बजे ही खुल जाती है। वे लेटे-लेटे करवटें बदलते बाहर सड़क पर होने वाले तरह-तरह के शब्द सुनते रहते हैं—चमरौधे जूतों की चर्रमर्र, हलों की खरखराहट, गुज़रते हुए लोगों के बतयाने की आवाज़ें, बाहर घास पर मुंह मारते मवेशियों की चभड़-चभड़। पांच बजे सवेरे से पास के मन्दिर में ऊंचे स्वर में भगवत लाल का भजन शुरू हो जाता है। भगवत लाल दस साल से भी अधिक समय से यह काम समर्पित होकर कर रहा है।

जब अंधेरा बिल्कुल सिमट जाता है तब केदार बाहर निकल कर तख्त पर बैठ जाते हैं। इसी तरह बहुत वक्त गुज़र जाता है। जब पुन्नू घोसी दूध दे जाता है तभी भीतर जाकर चाय बनाते हैं और पीकर बाहर बैठ जाते हैं।

एकाएक उनका पालतू बिल्ली का बच्चा भीतर से रेंगकर बाहर आया और उनके पैरों के पास खड़े होकर उनके मुंह की तरफ मुंह उठाकर ‘म्याऊं म्याऊं’ करने लगा। यह बच्चा बिलौटा था, यानी नर। वह काले और सफेद रंग का बहुत प्यारा लगने वाला बच्चा था। जब  वह केदार की तरफ मुंह उठाकर चिल्लाता तो ऐसा लगता जैसे कोई बच्चा शिकायत कर रहा हो।

केदार उसकी तरफ झुक कर प्यार से बोले, ‘कहो सीताराम, भूख लग आयी? थोड़ा रुको, दूध आता ही होगा।’

बिलौटा थोड़ी देर तक इसी तरह चिल्लाता रहा, फिर कूद कर उनकी गोद में चढ़ गया और उनकी जांघ पर सर रखकर आराम से ऊंघने लगा। केदार उसके मखमल से शरीर पर हाथ फेरने लगे।

केदार घर में अकेले रहते हैं। पत्नी की आठ साल पहले मृत्यु हो गयी थी। थोड़ी सी ज़मीन है जो बटाई पर दे देते हैं। एक बेटा है जो भोपाल में प्रोफेसर है। शादीशुदा है, तीन बच्चों का बाप। दो बेटियां हैं जो अच्छे घरों में चली गयी हैं। बेटा सत्यप्रकाश साल में एकाध बार ही घर आता है। उसके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए होता यह है कि जब बाप को छुट्टी मिलती है तब बच्चों को नहीं मिलती, और जब बच्चों को दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टी मिलती है तब बाप को नहीं  मिलती। वही गर्मी की छुट्टी में आठ दस दिन के लिए आना हो पाता है, वह भी अनिश्चित। कुछ  ऐसा भी लगता है कि सत्यप्रकाश का मन अब गांव में नहीं लगता, इसलिए वह किसी न किसी बहाने अपना आना टालता रहता है।

पहले यह होता था कि सत्यप्रकाश कह देता कि वह  अमुक महीने में आएगा और केदार दादा दिन गिनना शुरू कर देते। बताया हुआ महीना आने पर वे रोज़ शाम को बस अड्डे पर बैठ जाते और रात दस बजे तक बैठे रहते। उनकी नज़र हर बस को व्यग्रता से छानती रहती। अन्त में वे उदास चेहरे से घर लौट आते। फिर जब सत्यप्रकाश आता तो वे उसे उलाहना देते।

सत्यप्रकाश के दो बेटे और बीच में एक बेटी थी। बेटे आठ और तीन साल के और बेटी पांच साल की थी। केदार के प्राण उन बच्चों में लगे रहते। जब बच्चे आ जाते तो वे बहुत खुश रहते। उनकी उंगली पकड़कर उन्हें सारे गांव में घुमाते। छोटे अरुण की अटपटी बातों के जवाब वैसी ही अटपटी भाषा में देते। घर में जो भी आदमी आता उससे बच्चों के बारे में ही बात करते। केदार दादा के वे दस बारह दिन जैसे पंख लगाकर उड़ जाते।

जब बच्चे चले जाते तो केदार बहुत उदास हो जाते। उनके जाते वक्त बस-अड्डे पर केदार की आंखें भर भर आतीं। वे खड़े-खड़े चेहरा इधर-उधर घुमाते रहते। बच्चे निस्पृह भाव से ‘टाटा’ करते हुए चले जाते और केदार के लिए घर तक पहुंचना मुश्किल हो जाता। दो तीन दिन तक उन्हें खाने-पीने इच्छा न होती। वे मुंह लटकाये तख़्त पर बैठे रहते।  कोई मिलने वाला आता तो बार-बार कहते— ‘बच्चों की याद आ रही है।’ वे महीनों तक बच्चों की शरारतों और उनके भोलेपन की चर्चा करते रहते।

तीन चार बार केदार शहर जाकर बेटे के घर में रहे थे। उन्होंने सोचा था वहां बच्चों के साथ मन लगा रहेगा। लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें लगता जैसे वे अपने स्वाभाविक वातावरण से टूट गये हों। उन्हें लगता जैसे वे बिलकुल फालतू और बाहरी आदमी हों। सब अपने अपने काम में लगे रहते और वे पलंग पर करवट बदलते रहते या बरामदे में कुर्सी पर बैठे इधर-उधर ताकते रहते।बच्चे भी उनके पास बैठने के बजाय अपने साथियों के साथ खेलना पसन्द करते। मुहल्ले में उनको अपने प्रति उदासीनता और रुखाई का भाव नज़र आता। एक  दो बुजुर्गों के साथ उठना-बैठना हो जाता था, लेकिन वहां भी उन्हें आराम और निश्चिंतता महसूस न होती। वे  मुहल्ले की सड़क पर निरुद्देश्य घूमते रहते और मुहल्लेवालों की उपेक्षापूर्ण नज़रों के सामने सिकुड़ते रहते।

जब वे वापस अपने गांव लौटते तो उन्हें लगता जैसे मन और  शरीर के सब तार फिर ढीले हो गये हैं। बस से उतरते ही उन्हें लगता जैसे गांव ने अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उन्हें गले से लगा लिया हो और उनके मन से एक बोझ उतर गया हो। गांव पहुंचकर वे प्रोफेसर चतुर्वेदी के बाप होने के बजाय केदार दादा हो जाते और यह फर्क उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता।

वह बिलौटा पिछली गर्मियों में केदार के घर में आया था जब सत्यप्रकाश बच्चों के साथ आकर जा चुका था। तब हमेशा की तरह केदार बहुत मायूस थे। वे रात को घर के आंगन में चुपचाप लेटे आकाश के तारों को देखते रहते। किसी काम में उनका मन न लगता।

ऐसे ही जब  एक शाम को केदार भीतर खंभे से टिके खामोश ज़मीन पर बैठे थे तब प्यारेलाल सेठ का छोटा लड़का विजय उस बिलौटे को लिये आया। बोला, ‘ दादाजी, इसे रख लो। कोई कुत्ता वुत्ता मार डालेगा।’

केदार बोले, ‘तू अपने घर क्यों नहीं ले जाता?’

वह बोला, ‘दद्दा गुस्सा होंगे। अम्मां से पूछूंगा। वे कह देंगीं तो ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘इस दलिद्दर को मैं कहां रखूंगा? हग-मूत कर सारा  घर खराब करेगा।’

विजय बोला, ‘आप अभी रख लो, दादाजी। फिर मैं ले जाऊंगा।’

केदार बोले, ‘ठीक है। छोड़ जा। एक से दो भले।’

केदार ने बिलौटे को एक कोने में बांध दिया। उसके सामने एक कटोरी में दूध रख दिया। वह उसे पीने लगा। अकेला पड़ जाने पर वह ज़ोर से चिल्लाने लगता। केदार के नज़दीक आने पर चुप होकर एक तरफ दुबक जाता। रात को केदार ने उसे कोठरी में एक बोरा बिछाकर उस पर बैठा दिया और बाहर से सांकल चढ़ा दी। विजय फिर उसे नहीं ले गया। दूसरे दिन वह बता गया कि उसके दद्दा बिलौटे को रखने  के लिए तैयार नहीं हैं। वह बोला, ‘अब आपको रखना हो तो रखे रहो, नहीं तो जैसा ठीक समझो करो।’ केदार ने बिलौटे को अपना लिया। 

धीरे-धीरे उन्हें बिलौटे की क्रियाओं में आनन्द आने लगा। वह घर में पड़ी चीज़ों से अपने आप ही खेलता रहता। लुढ़कने वाली चीज़ों को धक्का देकर उनके आगे-पीछे भागता रहता। चींटियों को देखकर वह कूद-कूद कर उन्हें पकड़ता। केदार दूर बैठे उसकी शरारतों का मज़ा लेते रहते ।

धीरे-धीरे वह उन्हें बहुत प्यारा लगने लगा। उसकी हरी-नीली आंखें, छोटा सा मुंह और छोटे-छोटे पंजे बहुत अच्छे लगते। धीरे-धीरे बिलौटे का डर भी दूर होने लगा और वह केदार को अपने रक्षक के रूप में पहचानने लगा। अब वह भूखा होने पर केदार के पास आकर मुंह उठाकर चिल्लाने लगता। केदार हंसकर उसे दूध लाकर देते।

सबसे बड़ी बात यह हुई कि बिलौटे ने केदार के मन की सारी उदासी छांट दी। केदार घर में आते ही उसके साथ व्यस्त हो जाते, उसकी उछलकूद और शिकायतों का मज़ा लेते रहते। बिलौटे ने उनके जीवन की रिक्तता भर दी। उनके कहीं बैठते ही वह उछलकर उनकी गोद में आ जाता और आंखें बन्द करके सोने की मुद्रा बना लेता। अब रात को केदार अपनी खाट की बगल में ही उसे एक बोरी पर बैठा कर टोकरी से ढंक देते। गांव में कहीं जाने पर वे  अक्सर उसे अपनी बांहों में लिये रहते। उनके  परिचित कहते, ‘बुढ़ापे में अच्छी माया में फंस गए तुम।’

केदार जवाब देते, ‘क्या करें? जब तक जीवन है तब तक कुछ सहारा तो चाहिए।’

अगली गर्मियों में फिर सत्यप्रकाश हर साल की तरह बतायी हुई तारीख से दस दिन देर से आया। लेकिन इस बार केदार को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। वे सीताराम को अपनी गोद में लेकर बस-स्टैंड जाते और आखिरी बस देखकर लौट आते। अब उन्हें  पहले जैसी उदासी महसूस नहीं होती थी।

अन्ततः सत्यप्रकाश बच्चों के साथ हमेशा की तरह अपराधी भाव लिये हुए आया। बच्चों से मिलकर केदार बहुत खुश हुए। लेकिन सत्यप्रकाश को यह  देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने इस बार उसके सामने शिकायतों का पिटारा नहीं खोला।

वे बच्चों की उंगली थाम कर गांव में घूमते, लेकिन उनकी गोद में सीताराम बैठा रहता। बच्चों को भी यह  खिलौना पाकर बहुत खुशी थी। वे उसके साथ दिनभर खेलते-कूदते रहते, उसकी क्रियाओं का मज़ा लेते रहते। लेकिन केदार भी दूर से उन पर नज़र रखते। बिलौटे के प्रति थोड़ी सी क्रूरता होते ही वे बच्चों को मना कर देते।

वे कहीं से घूमघाम कर  लौटते तो बहू से पूछते, ‘बेटा, सीताराम को दूध दे दिया था न?’ खाने के लिए बैठते तो फिर यही पूछताछ कर लेते। कहीं से देर से लौटते तो इत्मीनान कर लेते कि बिलौटा घर में ठीक-ठाक है या नहीं।

बहू संध्या ससुर का यह नया मोह देखकर उनका मज़ाक उड़ाने लगी थी। वह अपने पति से कहती, ‘देखना तुम्हारा छोटा भाई कहां है? लगता है आपके छोटे भाई साहब को भूख लगी है।’

सत्यप्रकाश हंसकर चुप हो जाता।

आठ दस दिन बाद फिर सत्यप्रकाश ने जाने की तैयारी की। हमेशा की तरह वह अपराध भाव से ग्रसित होकर बार-बार पिता के चेहरे की तरफ देखता, क्योंकि उसके जाते वक्त पिता की जो हालत होती थी उसे वह जानता था। लेकिन इस बार उसे पिता के चेहरे पर पहले  जैसी उदासी दिखायी नहीं पड़ रही थी। इस बात से उसे आश्चर्य भी हुआ और संतोष भी।

जिस दिन वे जाने वाले थे उस दिन ही केदार एकाएक परेशान हो गये। वजह यह थी कि उस सवेरे अरुण एकाएक उनसे बोला, ‘दादाजी, हम सीताराम को अपने साथ ले जाएं ? हम उसके साथ खेलेंगे।’

केदार यह सुनकर बहुत परेशान हो गये। हड़बड़ाकर बोले, ‘नहीं बेटा, हम तुम्हारे लिए दूसरा बिल्ली का बच्चा ढूंढ देंगे। सीताराम को मत ले जाओ। हम इससे भी अच्छा तुम्हें लाकर देंगे।’

अरुण ने दो-तीन बार और उनसे आग्रह किया, लेकिन केदार के मुंह से ‘हां’ नहीं निकला। अन्ततः अरुण चुप हो गया। इस बात पर संध्या मन ही मन ससुर से क्रुद्ध हो गयी।

जब केदार सबको छोड़ने चलने लगे तो उन्होंने सीताराम को सावधानी से कमरे में बांध दिया।

बस-अड्डे पर सबके बस में बैठ जाने पर वे नीचे खड़े रहे। उनके अधिक उद्विग्न न होने के कारण सत्यप्रकाश भी प्रसन्न था।

बस चलने को ही थी। एकाएक अरुण को शरारत सूझी। वह खिड़की से झांककर चिल्लाकर बोला, ‘ देखिए दादाजी, हम सीताराम को चुपचाप ले आये।’

सुनते ही केदार लपक कर बस में चढ़ गये और अरुण की सीट के पास जाकर झांक-झांककर पूछने लगे, ‘कहां है? कहां है?’

अरुण ताली बजा-बजाकर हंसने लगा, ‘दादाजी बुद्धू बन गये।  दादाजी बुद्धू बन गये।’

केदार खिसियानी हंसी हंसकर अरुण  का गाल थपककर नीचे उतर आये। संध्या ने व्यंग्य से पति की तरफ देखा और सत्यप्रकाश ने कुछ  लज्जित भाव से अपनी नज़र दूसरी तरफ घुमा ली।

बस स्टार्ट होकर चल दी। बच्चे दूर तक खिड़की में से हाथ हिलाते रहे और केदार प्रत्युत्तर में हाथ हिलाते रहे। इसके बाद वे घूमकर सधे कदमों से घर की तरफ चल दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “खोया हुआ कुछ…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “खोया हुआ कुछ…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-सुनो।

-कौन?

-मैं।

-मैं कौन?

– अच्छा। अब मेरी आवाज भी नहीं पहचानते?

– तुम ही तो थे जो काॅलेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे। बहाने से मेरे काॅलेज के आसपास मंडराया करते थे। सहेलियां मुझे छेड़ती थीं। मैं कहती कि नहीं जानती।

– मैं? ऐसा करता था?

– और कौन? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये। मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे। फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी।

– अरे ऐसे?

– हां। बिल्कुल। याद नहीं कुछ तुम्हें?

– फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी।

-एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी।

– कितने वर्ष बीत गये। कहां से बोल रही हो?

– तुम्हारी आत्मा से। जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं। बाॅय। खुश रहा करो। जो बीत गयी सो गयी।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हँसो कि… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा हँसो कि…)

☆ लघुकथा – हँसो कि… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

सिर के बल चलता हुआ वह ऐसे लग रहा था कि जैसे कोई हाँडी लुढ़कती आ रही हो। उसके आगे-पीछे भीड़ थी। भीड़ में से कुछ लोग उस पर पत्थर फेंक रहे थे। जब भी पत्थर पड़ता, वह बिलबिलाकर पत्थर मारने वाले के पीछे भागता और फिर वापस रास्ते पर लौट आता। वह वीभत्स दिखता था और हास्यास्पद भी। उसकी टाँगें बाँहो की जगह पर चिपकी थीं और बाँहें टाँगों की जगह। उसकी आँखें पीठ पर थीं, इसी कारण वह बार-बार ठोकर खा रहा था। कान बाँहों पर चिपके थे, नाक हथेली पर रखी थी, सिर के बाल पेट पर लटक रहे थे। दोनों टाँगें विपरीत दिशाओं में घिसटती हुई ज़मीन को कुरेदे जा रही थीं, हाथ हवा में टहनियों की तरह झूल रहे थे। यह तो मैं जानता था कि पिछले काफ़ी समय से विशेषज्ञों की देखरेख में इसके सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था, पर इसका यह सौन्दर्यीकृत रूप देखकर मुझे बरबस हँसी आ गई।

“हँसो, हँसो, ख़ूब ज़ोर से हँसो, तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को तो रोना ही है।” इतिहास की आवाज़ में चीत्कार था, धिक्कार था, हँसी थी, जो रुदन के कंठ में फँसी थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 345 ☆ लघुकथा – “वॉइस नोट…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 345 ☆

?  लघु कथा – वॉइस नोट…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बेटे बहू दुबई में बड़े पद पर काम करते हैं, रमेश जी  उनके पास कुछ समय के लिए चले आया करते हैं। आज उनका वीजा समाप्त हो रहा था, उन्हें वापस दिल्ली लौटना पड़ेगा ।

रमेश जी के जागने से पहले ही बच्चे ऑफिस जा चुके थे। उन्होंने अपना बैग संभाला , तो केयर टेकर शांति दीदी दरवाजे पर एक थैले में टिफिन, पानी की बोतल और दवाइयों की छोटी डिब्बी लिए खड़ी थीं । रमेश जी बोले अरे यह रहने दो, मुझे फ्लाइट में ही खाने को कुछ मिलेगा ।

शांति ने कुछ कहा नहीं, उसने अपना मोबाइल चालू किया और एक वाइस नोट सुना दिया , शांति दीदी! वॉइस नोट में बहू की आवाज़ थी, “आज पापा दिल्ली वापस जा रहे हैं। वो मना करेंगे टिफिन ले जाने से, लेकिन आप उनकी मत सुनना। टिफिन पैक कर देना। दवाई और पानी भी साथ रख देना।”

रमेश जी चुपचाप बच्चे की तरह टिफिन तो लिया ही, साथ ही शांति के मोबाइल से वह वाइस नोट भी खुद को फॉरवर्ड कर लिया ।

दिल्ली में सुबह की चाय के साथ अपने कमरे में बैठे वे बारम्बार मोबाइल पर वही वाइस नोट  सुन रहे थे । उनके चेहरे पर न दिखने वाली खामोश मुस्कान थी, और आँखों में नमी। वे रॉकिंग चेयर पर  टिक गए। फिर से मोबाइल वही वाइस नोट दोहरा रहा था।

बहू से उनकी  ज़्यादा बातें नहीं हो पातीं थी। वह ऑफिस में बड़े जिम्मेदारी के पद पर थी। लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि उसकी अनबोली खामोशी में भी कितना अपनापन और फिक्र छुपी होती है।

वह वॉइस नोट सिर्फ शब्द नहीं थे , उसमें परिवार की धड़कन थी ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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