जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – अंगूठा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
पिता जी नम्बरदार थे । कोर्ट कचहरी गवाही देने या तस्दीक करने जाते । कभी कभार मैं भी जाता । बीमार होने के कारण साबूदाने की खीर लेकर । तहसील की दीवार पर जामुनी रंग के अंगूठे ही अंगूठे बने देखकर पूछा -यह क्या है ? पिता जी ने बताया -लोग अनपढ़ हैं और जमीन बेचने के बाद स्याही वाले पैड से अंगूठा लगाते हैं । फिर स्याही मिटाने के लिए इस दीवार पर अंगूठा रगड़ कर चले जाते हैं ।
बालमन ने प्रण लिया था कि मैं अपनी जमीन नहीं बेचूंगा । मैं ऐसा अंगूठा कभी नहीं लगाऊंगा । पचास साल तक यह प्रण निभाया । पर कुछ मजबूरी , कुछ गांव से दूरी और बेटियों की शादी में आखिर जमीन बेचनी ही पडी । अब बेशक मैं पढा लिखा हूं पर किसान की अंगूठा लगाने की मजबूरिया इसमें छिपी हैं । आखिर किसान का अंगूठा कैसे लग ही जाता है या घुटना टेक ही देता है ?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष
उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका था।
मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।
देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी।
धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा “क्षमादान ”। बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 ☆
? लघुकथा – क्षमादान ?
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।
आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।
परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।
उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।
स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार पसंद आएगा।” वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।
उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”
“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”
वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’
योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’
रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।
भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।
जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
☆ कथा कहानी ☆ पड़ोस ☆ श्री कमलेश भारतीय☆
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी की आज ही पूरी हुई ताज़ा कहानी जिसे उन्होंने ‘पाठक मंच’ पर आज ही साझा किया है, उस कहानी को हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। संभवतः यह प्रयोग डिजिटल माध्यम में ही संभव है। )
पड़ोस का मकान बिक गया।
यह कोई ऐसी बड़ी बात तो नहीं पर मन बहुत उदास। क्यों? अरे यार। तुम भी। यहां देश का पता नहीं क्या क्या बिक गया और तब तो विचलित नहीं हुए। पड़ोस का एक छोटा सा मकान बिक गया और रोने को हो आए? हद है। देश में क्या क्या नहीं बिक रहा और इस छोटे से, बेढब से मकान के बिक जाने पर आंखों में आंसू? लानत है।
लगभग चौबीस साल पहले इस शहर में आया था ट्रांस्फर होकर। तब किरायेदार था, फिर खरीद लिया यही मकान और अपने देस को छोड़ कर यहीं का होकर रह गया। परदेस को अपना देस मान इससे लगाव कर लिया, दिल लगा लिया। यह पड़ोसी अपने से लगने लगे।
पड़ोस के इस घर में दो भाई और उनके प्यारे प्यारे बच्चे रहते थे। यों दो भाइयों की बात तो ऐसे कर रहा हूं जैसे विभाजन के बाद भारत पाकिस्तान की बात हो। नहीं यार। इतनी दूर की उड़ान क्यों? पर यह सच जरूर कि जमाने की हवा के मुताबिक दोनों भाई अलग अलग रहते थे। मैना सी एक प्यारी सी बच्ची घर आंगन में फुदकती और चहकती रहती। शांति और सौहार्द्र की तरह। और कभी कभी लड़ने झगड़ने की आवाजें भी आतीं जैसे भारत पाक में छिटपुट लड़ाइयां बाॅर्डर पर होती रहती हैं। यह लड़ाई मां को रखने को लेकर होती। मां बेचारी दोनों बेटों में बंटी रहती। ऐसी कीमती न थी कि दोनों में से कोई उसे रखने को राजी होता पर आंगन एक था और मां एक थी। किसी को तो रखनी ही पड़ती। मां बूढ़ी हो चुकी थी और चलने फिरने से लाचार भी। वाॅकर लेकर चलती और कभी कभी हमारे आंगन में भी आ जाती, छोटी सी पोती के सहारे के साथ। अपना दुख दर्द बयान कर जाती। मुझे संभालते नहीं, बल्र्कि रखना ही नहीं चाहते। क्या करूं? कहां जाऊं? बोझ सी लगती हूं दोनों बेटों को। बहुओं की चिख चिख मुझे लेकर ही होती है। बेचारे सच्चे हैं क्योंकि छोटे छोटे काम धंधे हैं और बच्चे हैं। ऐसे में मेरी दाल रोटी भी भारी लगे तो क्यों न लगे? वैसे मैं स्वेटर बुन लेती हूं। आप बुनवा लो तो कुछ मेरी रोटी भारी न लगे। खैर। हम भी अपनी मां खो चुके थे। परदेस में वह मां जैसी लगने लगी और जरूरत न होते हुए भी कुछ स्वेटर बनवा लिए। मां के चेहरे पर खुशी आ जाती। जब वे मेरा नाप देखने को अधबुना स्वेटर छाती से लगातीं तो लगता कि मां ने गले से लगा लिया हो। मेरी मां भी वैसे क्रोशिया बुन लेती थीं और सौगात में बना बना कर ऐसी चीज़ें देती रहती थीं। वैसे हमारे घर की कहानी भी इससे अलग कहां थी? हम तीन भाई थे और मां किसके पास रहे, यह समस्या रहती थी। तीनों अलग अलग शहरों में और दूर दूर। मां की समस्या यह कि वे अपना पुश्तैनी घर छोड़ने को तैयार नहीं थीं। वे जब मेरे पास आतीं तो ये दोनों मांएं अपने अपने बच्चों के व्यवहार पर खूब बतियातीं। जब मेरी मां इस दुनिया में नहीं रही तब पड़ोस वाली मां बहुत प्यारी और अपनी सी लगने लगी।
खैर। पड़ोस के दोनों बेटे छोटे छोटे काम धंधे करते और कभी बेरोजगारी भी काटते और फिर कहीं नये काम पे लग जाते। सुबह सवेरे शेव करते समय दोनों घरों के साथ लगती छोटी सी दीवार पर शीशा टिका एक बेटा जब शेव करने लगता तो बातचीत भी हो जाती और वह कुछ न कुछ नयी जानकारियां देता रहता। कैसे महंगाई डायन उन्हें डरा रही थी। बच्चे धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। ज्यादा पढ़ाने की हिम्मत न थी। फिर भी लड़की को पढ़ा रहे थे ताकि उसे ठीक से घरबार मिले। कभी किसी आसपास के शहर में भी काम करने जाते। ऐसे में एक बेटा बीमार हुआ और बड़े अस्पताल में भर्ती किया गया। सुबह वही शेव करने के समय पर मुलाकात न होने पर पता चला। हम पति पत्नी ने पड़ोसी का फर्ज निभाते शाम को अस्पताल जाकर खोज खबर लेने की सोची। गये भी और यह भी सोचा कि कुछ मदद की जाये। हमने दबी जुबान से कही यह बात उनकी पत्नी को लेकिन इतनी स्वाभिमानी कि मदद मंजूर ही नहीं की। यहां तक कह दिया कि जब ठीक हो जाएं और लौटा सको तो लौटा देना, फिलहाल रख लो। वह खुद्दार स्त्री नही मानी तो हमारे मन में उसी प्रति इज्जत और बढ़ गयी । इंसान पैसे की कमी से भी टूटता नहीं। यह खुद्दारी बहुत खुश कर गयी।
……….
उस खुद्दार औरत का नाम गुड्डी था। वह जिस भी हाल में थी, उसी में खुश रहती। जैसा भी पुराना घर था, उसे साफ सुथरा रखती। सुबह सवेरे उठकर बुहारती और आंगन धो लेती। एक छोटी सी क्यारी में लगाये फूल पौधो को पानी देती। फिर पति के काम पर चले जाने के बाद सिलाई मशीन चलाती रहती ताकि कुछ पैसे कमा सके।
कुछ घर छोड़कर जब एक ठीक ठाक से घर की महिला ने क्रैच खोला तो गुड्डी को सहायिका की जगह रख लिया। इस तरह गुड्डी के सिलाई मशीन चलाने की आवाज़ कम हो गयी।
हर आदमी छोटा हो या बड़ा सीखता है और कुछ काम बढ़ाना चाहता है। लगभग एक सात तक क्रैच में रहने के बाद गुड्डी ऊब गयी या सारी बारीकी समझ गयी और उसने वहां काम छोड़ दिया। इधर हमारे घर एक काम वाली आई तो उसकी नन्ही सी बच्ची कहां रहे? सो गुड्डी ने मौके पर चौका मारा और उस बच्ची को संभालने का जिम्मा ले लिया यानी अपना क्रैच खोलने का सपना देखा। कुछ माह वही इकलौती बच्ची उसके क्रैच की शान बनी रही। गुड्डी उसे कागज़ पर लिखना पढ़ना भी सिखाती। कुछ माह बाद जब वह कामवाली हमारा काम छोड़ गयी तो गुड्डी का क्रैच भी बंद हो गया और उसकी सिलाई मशीन फिर चलने लगी।
……….
अपने क्रैच का सपना टूटने के बाद गुड्डी ने एक और काम करने की सोची। जैसे उसके घर के सामने वाली खट्टर आंटी किट्टी के बहाने कमेटी निकालती थी और इन दिनों उसने वह काम बंद कर रखा था। इसी काम को गुड्डी ने शुरू करने का फैसला लिया और बाकायदा एक छोटी सी मीटिंग आसपास के घरों की महिलाओं की बुलाई अपने छोटे से आंगन में। सभी आईं और वह महिला भी आई जो इस काम को छोड चुकी थी। फैसला हो गया कि कमेटी चलेगी पर गुड्डी अपनी औकात जानती थी। इसलिए किट्टी नहीं होगी। चाय का एक प्याला जरूर अपनी ओर से पिला देने का वादा किया जिसे सबने खुशी खुशी मान लिया।
इस तरह मुश्किल से दो माह गुजरे होगे कि कमेटी और किट्टी का एकसाथ काम छोड़ चुकी तजुर्बेकार महिला ने अपना हिस्सा वापस मांग लिया। गुड्डी ने पूछा तो कहने लगी -मज़ा कोई नहीं। न कोई गेम, न खाना पीना। फिर क्या करना इस किट्टी और कमेटी का? इस तरह उस औरत ने गुड्डी की छोटी सी कोशिश को तारपीडो कर दिया। बड़ी मुश्किल से बाकी महिलाओं को मना कर गुड्डी ने एक साल निकाला और फिर इस काम से भी तौबा कर ली। क्या पड़ोस इतनी मदद भी न कर सका कि एक छोटा सा सपना पूरा कर लेने देता? सोचता रहा पर मेरे सोचने से क्या होता? छोटे आदमी के सपने बड़े लोग अक्सर तोड़ देते हैं। गुड्डी ने फिर सिलाई मशीन के साथ अपना सफर शुरू किया।
……….
स्वच्छता अभियान को लेकर आस पड़ोस बड़ा फिक्रमंद रहता। यानी जरा सा कूड़ा कचरा देखा नहीं तो हाय तौबा शुरू हो जाती। सब ऐसे जाहिर करते जैसे उनसे बेहतर कोई स्वच्छता प्रेमी नहीं। फिर भी गुड्ढी के घर की दीवार के आसपास कूड़े के ढेर लगे रहते। बेचारी कुछ दिन बर्दाश्त करती रही। आखिर संकोच छोड़ सामने आई और उसने दीवार पर लिख कर लगा दिया -यहां कूड़ा फेंकना मना है। अब बताओ अपने समाज में कौन परवाह करता है ऐसे नोटिसों की? यहां तो कितने नोटिस अपना ही मज़ाक उड़ाते दिखते हैं। सो वही हश्र गुड्डी के नोटिस का हुआ। इस पर गुड्डी ने कमर कसी और नज़र रखने लगी कि कौन कूड़ा फेंकने आता है चोरी चोरी। हंगामा कर दिया मासूम सी दिखने वाली गुड्डी ने। जरा लिहाज नहीं किया किसी का और इस तरह गुड्डी ने साबित किया कि चाहे छोटे वर्ग के लोग हों वे लेकिन अपने हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। यह गुड्डी का एक नया चेहरा सामने आया था।
……….
समय बीतता गया। पड़ोस के परिवार के बच्चे बड़े होने लगे और अपने बड़ों की तरह घर के हालात देख कर पढ़ाई छोड़ कर दुकानों पर सेल्समेन लग गये। गुड्डी का बेटा अभी छोटा था और वह हमारे दोहिते की उम्र का था। दोनों में दोस्ती हो गयी। हमारा दोहिता और वह एक दूसरे के फैन बन गये। न उसे कुछ सुहाता अपने दोस्त के बिना और न हमारे दोहिते को कुछ अच्छा लगता अपने दोस्त के बिना। वे ड्राइंग रूम में बैठे कैरम बोर्ड खेलते रहते और उनकी हंसी सारे घर में खुशबू की तरह फैलती रहती।
दीवाली आई तो कुछ दिन पहले से हमारा दोहिता अपनी मां के पीछे पड़ा रहता कि पटाखे लेकर दो। बेटी उसे लेकर बाजार जाती और पटाखे ला देती। अब दोहिते को तो साथ चाहिए था पड़ोस वाले दोस्त का। वह सकुचाता हुआ आता और वैसे ही सकुचाता चला जाता। पटाखे छोड़ने में कोई उत्साह न दिखाता। तब दोहिते ने पूछ ही लिया-नितिन। क्या बात है तुम्हें पटाखे छोड़ने की खुशी नहीं होती?
-होती है पर मेरे पास पैसे नहीं कि खरीद सकूं। दूसरे के पैसे के पटाखे छोड़ने में कैसी खुशी?
यह बात दोहिते आर्यन अपनी मां को बताई और कहा-मम्मी। आप नितिन को भी पटाखे ले दो न।
सच। इस बात से जो पड़ोस के बीच एक आर्थिक खाई थी उसे दोहिते व नितिन की दोस्ती ने उजागर कर दिया। सबसे बड़ी बात कि दीवाली पर नितिन घर से ही नहीं निकला।
……….
आखिर गुड्डी के जेठ और पति ने यह पार्टी मकान बेचने का फैसला कर लिया। निकलते निकलते बात मुझ तक आई। मैं गुड्डी के पति से मिला और पूछा कि क्या बात हुई? हमारा पड़ोस या यह मोहल्ला अच्छा नहीं रहा?
-नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।
-फिर?
-हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं। बेटी तो ब्याह दी। तब आप भी आए थे लेकिन बेटों की शादियों के बाद इस छोटे से घर में बहुएं रहेंगी कहां?
-अरे
– तो बनवा लेना एक दो कमरे।
-नहीं जी। इतनी हिम्मत कहां? मुश्किल से दिल रोटी चला रहे हैं।यह क्या कम है।
-मकान बेच दोगे तो किराया कहां से भर दोगे?
-जी नहीं। मकान इस एरिये में महंगा बिकेगा क्योंकि पाॅश और शरीरों का एरिया है। हम किसी बस्ती मे कम पैसों में अपने अपने नये बड़े मकान ले लेंगे।
मैं एकदम चौंका। और सहज ही किसान से मजदूर बन जाने की नौबत कैसे आती है, यह बात समझ आई। ये लोग बच्चों के भविष्य की खातिर एक पाॅश एरिये को छोड़ कर किसी छोटी सी बस्ती में रहने के गये। जहां अगली पीढी का क्या होगा? कौन देखता और सोचता है …..
मैं खाली मकान के लिए दो बूंद आंसुओं से जैसे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ…..
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं अनुकरणीय लघुकथा नया पाठ। यह लघुकथा हमें वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुलाने की प्रेरणा देती हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस अनुकरणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 63 ☆
☆ नया पाठ ☆
बचपन से ही वह सुनती आ रही थी कि ’तुम लडकी हो, तुम्हें ऐसे बैठना है, ऐसे कपडे पहनने हैं, घर के काम सीखने हैं’और भी ना जाने क्या – क्या। कान पक गए थे उसके यह सब सुनते – सुनते। ’सारी सीख बस मेरे लिए ही है, भैया को कुछ नहीं कहता कोई’ – बडी नाराजगी थी उसे।
आज बच्चों को आपस में झगडते देखकर सारी बातें फिर से याद आ गईं। झगडा खाने के बर्तन उठाने को लेकर हो रहा था। ‘माँ देखो मीता अपनी प्लेट नहीं उठा रही है। उसे तो मेरा काम करना चाहिए, बडा भाई हूँ ना उसका।‘ तो – उसने गुस्से से देखा। ‘बडा भाई छोटी बहन के काम नहीं कर सकता क्या? जब मीता तेरा काम करती है तब? चल बर्तन उठा मीता के।‘
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆
…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।
.. क्यों भला?
…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।
… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।
… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।
…सबको यही धमकी देता है?
…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बिठा रखा है।
… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?
… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!
…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?
…किसान फसल काट रहा है।
…कौनसी फसल है?
…गेहूँ की।
…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?
…कमाल है। इतना भी नहीं जानते! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट यहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
☆ ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(यह लघुकथा कुछ वर्ष तक पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में शामिल रही)
– भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शाॅर्टकट,,,
– शॉर्टकट तो है पर ,,,
-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।
-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,
– शॉर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?
– क्योंकि आपकी तरह हर कोई शॉर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पर ठहरिए ,,,
-हां , कहिए ।
– बुरा तो नहीं मानेंगे ?
– अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।
-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?
– सो कैसे ?
– अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शॉर्टकट अपना रहा है । चाहे शॉर्टकट कितना ही ,,,
– बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।
-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆
भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।
वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?
एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।
सत्य है ! बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?
नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।
बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?
शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।
मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?
प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।
इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल। ये ऐतिहासिक लघुकथाएं अविस्मरणीय विरासत हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 62 ☆
☆ ऐतिहासिक लघुकथा – बेगम हजरत महल ☆
निहायत खूबसूरत और नाजुक सी दिखनेवाली एक लडकी को उसके घरवाले अपनी गरीबी से परेशान हो नवाब वाजिद अली शाह के महल में छोड गए। गरीबी झेलकर आई यह लडकी महल के ठाठ–बाट आँखें फाडे देख रही थी। उसे दासी का काम दिया गया था, नवाब की बेगमों की सेवा करना। वह अपना काम कर तो रही थी लेकिन वह इसके लिए बनी ही नहीं थी। तभी तो अपनी बला की खूबसूरती और बुद्धिमानी से बहुत जल्दी नवाब वाजिद अली शाह की नजरों में खास बन गई। यही लडकी आगे चलकर अवध की बेगम हजरत महल कहलाई। बेगम जितनी सुंदर थीं उतनी ही बहादुर, खुद नवाब इनकी वीरता के कायल थे। देशभक्ति का जज़्बा तो मानों इनमें कूट- कूटकर भरा था। नवाब के सामने भी शासन के अधिकतर निर्णय बेगम ही किया करती थीं, नवाब भी उनका सम्मान करते थे। अपनी समझदारी से वे अंग्रेज़ों की कूटनीति से नवाब को बचाना चाहती थीं परंतु सन् 1856 में अंग्रेज़ों ने धोखे से नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज ही दिया। बेग़म इस घटना से जरा भी विचलित नहीं हुई, वह जानती थी कि इस समय उसके कमजोर पडने से शासन बिखर जाएगा। उसने दृढता से लखनऊ पर अपनी सत्त्ता कायम रखी।
सन् 1857 में बेग़म ने अपने ग्यारह साल के बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित कर दिया और स्वयं उसके नाम पर अवध में दस महीने राज किया। 10 मई सन् 1857 की बात है जब मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था। इस विद्रोह ने पूरे भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वाधीनता आंदोलन का रूप ले लिया। इस विद्रोह की आँच लखनऊ भी पहुँच गई। अवध में बेगम ने सन् 1857 की क्रांति का नेतृत्व संभाला। सन् 1857 में अंग्रेज़ों से लड़नेवाली सबसे बड़ी सेना बेग़म की ही थी और इन्होंने ही अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला किया। इनमें देश के प्रति समर्पण की भावना ऐसी थी कि जिसे देखकर अवध की जनता ने भी पूरे जोश के साथ इनका साथ दिया। लखनऊ में आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपनी सेना का उत्साह बढाने के लिए बेगम हाथी पर सवार होकर आ गईं और सैनिकों के साथ युद्ध करती रहीं। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का सबसे अधिक दिन चलने वाला युद्ध लखनऊ में हुआ। अपने ही भरोसेमंद सैनिकों के अंग्रेज़ों से मिल जाने से वे लखनऊ के युद्ध में हार गईं। बेगम ने तब भी हार नहीं मानी और अवध के बाहरी हिस्सों में जाकर जनता में स्वाधीनता की चेतना जगाती रहीं।
अंग्रेज़ बेगम के साथ समझौता करना चाहते थे लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुईं। उन्हें तो अपने अवध पर एकछत्र राज्य चाहिए था। अंग्रेज़ों ने इन्हें पेंशन भी देनी चाही, लेकिन बेगम को अपनी स्वतंत्रता ही चाहिए थी और कुछ भी नहीं। वे नेपाल चली गईं, सन् 1879 में वहीं उनकी मृत्यु हो गई।