श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 288 ☆ अपना समुद्र, अपना मंथन…
महासागर अपने आप में अथाह जगत है। जाने कबसे अनुसंधान हो रहे हैं, तब भी महासागर की पूरी थाह नहीं मिलती।
भीतर भी एक महासागर है। इसकी लहरें निरंतर किनारे से टकराती हैं। लहरों के थपेड़े अविराम उथल-पुथल मचाए रखते हैं। भीतर ही भीतर जाने कितने ही तूफान हैं, कितनी ही सुनामियाँ हैं।
भीतर का यह महासागर, इसकी लहरें, लहरों के थपेड़े सोने नहीं देते। अक्षय व्यग्रता, बार-बार आँख खुलना, हर बार-हर क्षण भीतर से स्वर सुनाई देना-क्या शेष जीवन भी केवल साँसे लेने भर में बिताना है?
योगेश्वर ने अर्जुन से कहा था, ‘प्रयत्नाणि सिद्धंति परमेश्वर:’ प्रयत्नों से, कठोर परिश्रम से लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है, ईश्वर को भी सिद्ध किया जा सकता है। तो क्या हम कभी मथ सकेंगे भीतर का महासागर?
मंथन इतना सरल भी तो नहीं है। देवताओं और असुरों को महाकाय पर्वत मंदराचल की नेति एवं नागराज वासुकि की मथानी करनी पड़ी थी।
समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।
क्या हम कभी पा सकेंगे उन चौदह रत्नों को जो छिपे हैं हमारे ही भीतर?
स्वेदकणों से कमल खिला सकें तो इस पर विराजमान माता लक्ष्मी की अनुकम्पा प्राप्त होगी। धन्वंतरि का प्रादुर्भाव, हममें ही अंतर्निहित है, अर्थात हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ में है। इस मंथन में कालकूट भी है और अमृत भी। जीवन में दोनों आएँगे। कालकूट को पचाने की क्षमता रखनी होगी। निजी और सार्वजनिक जीवन में अस्तित्व को समाप्त करने के प्रयास होंगे पर हमें नीलकंठ बनना होगा।
न गले से उतरा, न गले में ठहरा,
विष न जाने कहाँ जा छिपा,
जीवन के साथ मृत्यु का आभास,
मैं न नीलकंठ बन सका, न सुकरात..!
अमृतपान कल्पना नहीं है। सत्कर्मों से मनुष्य की कीर्ति अमर हो सकती है। अनेक पीढ़ियाँ उसके ज्ञान, उसके योगदान से लाभान्वित होकर उसे याद रखती हैं, मरने नहीं देतीं, यही अमृत-पान है। नेह का निर्झर किसी के होने को सतत प्रवहमान रखता है, सूखने नहीं देता। सदा हरित रहना ही अमृत-पान है।
भूख, प्यास, रोग, भोग,
ईर्ष्या, मत्सर, पाखंड, षड्यंत्र,
मैं…मेरा, तू… तेरा के
सारे सूखे के बीच,
नेह का कोई निर्झर होता है,
जीवन को हरा किए होता है,
नेह जीवन का सोना खरा है,
वरना, मर जाने के लिए
पैदा होने में क्या धरा है..!
अमृत-पान करना है तो महासागर की शरण में जाना ही होगा। यह महासागर हरेक के भीतर है। हरेक के भीतर चौदह रत्न हैं।… और विशेष बात यह कि हरेक को अपना समुद्र स्वयं ही मथना होता है।
मंथन आरंभ करो, संभावनाओं का पूरा महासागर प्रतीक्षा में है।
© संजय भारद्वाज
अक्षय तृतीया, प्रातः 6:35 बजे, 30 अप्रैल 2025
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈