हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #108 – बाल कथा – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 108 ☆

☆ बाल कथा – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ??

इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #20 – परम संतोषी भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 20 – परम संतोषी भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा में निरीक्षण के दौरान बहुत से परिवर्तन आते हैं जिनसे संकेत मिल जाता है कि ब्रांच इज़ अंडर इंस्पेक्शन.

नीली, काली और लाल इंक के साथ नज़र आने लगती है हरियाली याने ग्रीन इंक. ये ग्रीन इंक अनुशासन, टाइमिंग, वेश विन्यास, कर्मठता, शांत वातावरण जो सिर्फ और सिर्फ कस्टमर की आवाजों का व्यवधान पाता है, की द्योतक होती है. आने वाले नियमित और अनुभवी, नटखट या चालाक कस्टमर समझ जाते हैं कि उनके अटके काम, इंस्पेक्शन के दौरान पूरे होने की संभावना बन गई है. हालांकि स्टाफ उनके काम इंस्पेक्शन के बाद करने का आश्वासन देकर और उनकी समझदारी की तारीफ कर उनको विदा करता रहता है.

इंस्पेक्शन के दौरान बुक्स तो बैलेंस हो जाती हैं पर स्टाफ की दिनचर्या अनबेलेंस हो जाती है. घर के लिये जरूरी किराना और सब्जियां लाने का काम, इंस्पेक्शन के बाद करने के आश्वासन के साथ मुल्तवी कर दिया जाता है. अगर शहर से पहचान और दोस्तो का दायरा बड़ा हो या फिर संतानें इतनी बड़ी हों कि सब्जी की खरीददारी कर सकें तो बैंक के लंच बॉक्स में सब्जी नज़र आ जाती है वरना कभी कभी तड़केदार दाल का सामना भी करना पड़ जाता है. इंस्पेक्शन के दौरान चाय कॉफी, उंगलियों के इशारे पर करने की व्यवस्था किया जाना भी स्टाफ के मॉरल को बूस्ट करने के काम आता है.

निरीक्षण में बेलेसिंग और पिछली तारीख की केशबुक के एक एक वाउचर को ग्रीन इंक से टिक करते हुये बेलेंस करना और चेक करने की परंपरा, बैंक मास्टर से पहले अस्तित्व में थी जिसके लिये बैलेसिंग एक्सपर्ट और अतिरिक्त स्टाफ की सहायता और छुट्टी के दिनों का भरपूर उपयोग किया जाता था. आसपास की छोटी व आश्रित शाखाओं के  समझदार और दुनियादार शाखा प्रबंधक भी अवकाश के दिनों में या शाखा से लौटने के बाद इस काम में पुण्य अर्जित करने का प्रयास करते थे ताकि वक्त आने पर रिलीफ अरेंजमेंट के लिये वो इस कारसेवा का नकदीकरण कर सकें.

निरीक्षण में ऋण विभाग महत्वपूर्ण होता है. समझदार और कुशल फील्ड ऑफीसर, पद ग्रहण करते ही पिछली इंस्पेक्शन रिपोर्ट पढ़ पढ़कर अपनी डेस्क चमकाना शुरु कर देते हैं. अनुभवी अधिकारी सारे बड़े ऋण खातों की फाइल और दस्तावेज सिलसिलेवार जमा लेते हैं. आवेदन, विश्लेषण और अनुशंसा, स्वीकृति, अनुमोदित कंट्रोल रिटर्न, इंश्योरेंस, वाहनों के प्रकरणों में रजिस्ट्रेशन, केश क्रेडिट खातों में अद्यतन रिव्यू रिन्यूअल, रिवाइवल, हर दस्तावेज अपने निरीक्षण के हिसाब से इस तरह पेश किया जाता है कि निरीक्षण अधिकारी भी खुश होकर कह देते हैं “बहुत अच्छा,कितने इंस्पेक्शन फेस कर चुके हैं. जवाब शब्दों से नहीं बल्कि विनम्रता में पगी हल्की मुस्कान से दिया जाना ही व्यवहारिक होता है. अग्रिम के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों का मितभाषी होना हमेशा फायदेमन्द होता है. जो पूछा जाय सिर्फ वही कम से कम शब्दों में प्रगट किया जाये. बड़बोले अक्सर गच्चा खा जाते हैं और चापलूसी हमेशा इंस्पेक्शन अधिकारी को शंकित करती है.

निरीक्षण अधिकारी भी मानवीय आवश्यकताओं और दुर्बलताओं से बंधे होते हैं सुबह नौ बजे से लगातार बैठकर काम करते रहने पर शाम 6 बजे के करीब संतोषी साहब आगे बढ़कर संक्षिप्त सांयकालीन वॉक प्रस्तावित करते थे और सहायक महाप्रबंधक के साथ शहर भ्रमण पर निकल जाते थे. लगभग 30-40 मिनट का यह वॉक, और बैंक के बाहर बह रही शुद्ध शीतल हवा, दिनभर की थकान और बोरियत को उड़न छू कर देती थी. इस दौरान नगर से संबंधित ऐतिहासिक और वर्तमान की जानकारियों पर ही चर्चा की जाती थी. शाखा के संबंध में कोई बात उठने पर संतोषी जी बड़ी चतुराई से विषय परिवर्तन कर देते थे. सहा. महाप्रबंधक महोदय समझते हुये हल्के से मुस्कुरा देते थे. अंत में कुछ दिनों की इस सायंकालीन समीपता के जरिये सहायक महाप्रबंधक महोदय, संतोषी जी के परिवार के बारे में काफी कुछ जान गये. नियमित संतुलित दक्षिण भारतीय भोजन, परिवार की पहचान पहले से दे रहा था और सहायक महाप्रबंधक ने संतोषी जी को आश्वास्त किया कि निरीक्षण समाप्ति के एक दिन पूर्व वे अवश्य ही उनके घर पर उनके परिवार के साथ बैठकर, अपनी पसंदीदा फिल्टर कॉफी का आनंद लेंगे. शाखा का निरीक्षण अपनी सामान्य गति से भी ज्यादा तेज गति से चलता रहा और धीरे धीरे अनुमानित क्लोसिंग डेट भी पास आ गई.

अपने आश्वासन के अनुरूप सहायक महाप्रबंधक महोदय, संतोषी जी के निवास पर पधारे. शाखा के मुख्य प्रबंधक वयस्त थे तो चाहने के बावजूद वे नहीं आ सके. पर सहायक महाप्रबंधक महोदय अकेले नहीं आये थे, वे अपने साथ चांदी के लक्ष्मी गणेश जी भी लेकर आये थे जो संतोषी जी के परिवार को उपहार स्वरूप दिये जाने थे. फिल्टर कॉफी की रिफ्रेशिंग सुगंध के बीच उस मेहमान का बड़े सम्मान और आत्मीयता के साथ स्वागत किया गया, जो अपनी निरीक्षणीय शुष्कता के बीच अपनी मानवीय स्निग्धता को अक्षुण्ण रखने में कामयाब थे. संतोषी जी की बेटियाँ की रौनक से घर प्रकाशित था और यह प्रकाश अलौकिक था. सुस्वादु भोजन से प्रारंभ निकटता, फिल्टर कॉफी की खुशबू के बीच ऐसी आत्मीयता में बदल गई कि सहायक महाप्रबंधक महोदय कब सर से अंकल बन गये, पता ही नहीं चला. इंस्पेक्शन के कारण अपनी संतानों से दूरी, इस परिवार से मिलकर अद्भुत शांति प्रदान कर रही थी. संतोषी जी के परिवार में बह रही स्निग्धता और आपसी स्नेह, संतोषी जी के संतुष्ट होने का स्त्रोत घोषित कर रहा था और सहायक महाप्रबंधक महोदय को भी रेट रेस याने चूहा दौड़ और टंगड़ीमार प्रतियोगिता की निर्थकता का संदेश दे रही थी. बैंक में कई वर्कोहलिक प्राणी पाये जाते हैं जिनकी घड़ी चौबीसों घंटे टिक टिक की जगह काम काम की ध्वनियों गुंजायमान करती रहती है. असंतुलित व्यक्तित्व, असंतुष्ट परिवार और कैरियर की हिमालयीन अपेक्षा, अक्सर अनुपयुक्त लक्ष्यों की जगह मानसिक शांति और प्रसन्नता छीन लेती है और मानव रुपी ये रोबोट, बड़ी आसानी से यूज़ किये जाते हैं. काम करना,दक्षतापूर्वक काम करना बुरा नहीं है पर अगर रेट रेस में जीतने की अतृप्त लालसा परिवार का संतुलन भंग कर रही है तो ऐसे प्राणियों को स्वयं विचार करने की आवश्यकता है. जीवन पर बैंक के साथ साथ परिवार का भी अधिकार और अपेक्षाएं होती हैं और परिवार के मुखिया होने के नाते दायित्व भी, कि परिवार और नियोक्ता के बीच में संतुलन बनाकर रखे.

यह कथा मैं अपने अमरीका प्रवास के दौर में लिख रहा हूँ और यहाँ के वर्क कल्चर में नियोक्ता संस्था द्वारा अपने इंप्लाइज की व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों को भी उतनी ही महत्ता दिये जाने की संस्कृति से परिचित हो रहा हूँ. विकासशील भारत और विकसित अमरीका के वर्क कल्चर की यह अनुभवित भिन्नता, बहुत कुछ समझाती है.

परम संतोषी कथा जारी रहेगी भले ही असंतुष्ट जीव इसे पसंद करें या न करें …. 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 97 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 97 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हांकों

शाब्दिक अर्थ :-एक जानकार के सामने अपना आधा अधूरा ज्ञान प्रस्तुत करना।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो संभावित कहानी हो सकती है वह कुछ कुछ ऐसी होगी :-

वर्तमान में उद्योग धंधों से विहीन  बुंदेलखंड  पुरातन काल में भी ऐसा ही रहा होगा। बहुसंख्य आबादी गाँव में रहकर खेती करती होगी और कुछ कुछ दूरी पर छोटे मोटे कस्बे होंगे जहाँ व्यापारियों के परिवार रहते होंगे जो ग्रामीणों की घर ग्रहस्थी की जरूरते पूरी करते होंगे।

ऐसे ही कोपरा नदी के किनारे बसे एक गाँव चोपरा में एक कृषक परिवार रहता था। उसकी एक बहन गाँव से थोड़ी दूर स्थित एक कस्बे हरदुआ में ब्याही थी और बहनोई छोटा मोटा एक व्यापारी था।  कृषक का पुत्र कलुआ  एक बार अपनी बुआ के घर हरदुआ गया। परम्परा के अनुसार भाई ने बहन के लिए गाँव से सब्जी भाजी, तिली, झुंडी (ज्वार) दूध आदि उपहार भेजे। कलुआ को अपने घर आया देख बुआ बड़ी खुश हुयी। बुआ ने अपने दोनों लड़कों बड़े बेटे पप्पूँ और छोटे बेटे गुल्लु से कलुआ की  दोस्ती करवाई और फिर अपने मायके के हालचाल पूंछने लगी कि भइया भौजी कैसे हैं, पड़ोसन काकी के क्या हाल चाल हैं, कुँआ वाली बुआ जिंदा है कि मर गयी और बरा (बरगद) वाली मौसी अभी भी बहु को गरियाती है कि नहीं, तला वाली बिन्ना (बहन) अभी अभी चुखरयाई (चुगलखोरी) करती है कि नहीं आदि आदि। कलुआ भी बुआ की सभी बातों का अपनी गमई जबान से जबाब देता जा  रहा था और बता रहा था कि आजकल अम्मा को कैसे बात बात मैं चिनचिनों लग जाता है ( किसी भी छोटी छोटी बात का बुरा लगा जाना) और बुआ अब तो घर घर मटयारे चूल्हे हो गयें हैं। इन सब बातों में पप्पूँ और गुल्लु को बड़ा मजा आ रहा कि अचानक बुआ ने बातचीत की धार यह कहते हुये मोड़ी कि सरमन बेटा को ऐसी बातें करना शोभा नाही देता है  और  खेती किसानी के बारे में पूंछने लगी । कलुआ को तो अब मानो मनमाफ़िक विषय मिल गया क्योंकि संझा सकारे (शाम और सुबह) खेत का चक्कर लगाना तो उसका प्रिय शगल था। वह बुआ को बताने लगा कि आजकल  खेती किसानी बहुत अच्छी नहीं रह गई है और हरवाहों को हर काम के लिए अरई गुच्चनी पड़ती है, फसल अच्छी होती है तो पड़ोसी गाँव के किसान जरबे मरबे लग जात हैं (ईर्ष्या करने लग जाते हैं)। कलुआ खेती किसानी की परेशानियाँ बता ही रहा था कि बड़ा बेटा पप्पूँ जो कस्बे के स्कूल में पढ़ता था बीच में ही उचक पड़ा और खेती किसानी पर अपना ज्ञान बघारने लगा तभी बुआ  पप्पूँ को डपटते हुये बोली  कि मम्मा के आंगे ममयावरे की नई हाँकी जात

और शायद  तभी से यह कहावत चल पड़ी होगी। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है “बूढ़ी बेड़िनी खौं काजर “ जिसका शाब्दिक अर्थ भी जानकार को ज्ञान बताना है। (बेड़िनी बुंदेलखंड के लोकनृत्यों की नर्तकी है)

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#114 – लघुकथा – रात पाली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “*रात पाली *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 114 ☆

? लघु कथा- ⛈️? रात पाली  ?

शहर से दूर एक आलीशान अपार्टमेंट बन रहा था। गाँव से बहुत मजदूर वहाँ काम करने आए थे। इस में महिलाएं भी शामिल थी। उनके साथ केतकी अपनी माँ के साथ आई थी। 15 साल की भोली भाली लड़की जिसकी उसके माँ के अलावा इस दुनिया में कोई सगा संबंधी और जान पहचान वाला नहीं था। माँ बेटी मिलकर काम किया करते थे।

गाँव से दूर रहने का कोई ठिकाना नहीं था इसलिए सभी वहीं पर डेरा डाल कर रहने लगे थे। यौवन से भरपूर केतकी जब मिट्टी रेत का तसला उठा कर चलती तो सभी की नज़रें उस पर टिकी रहती थी।

आखिर बीमार माँ कब तक निगरानी कर पाती। वह दिन भर चिंता और परेशानी लिए बीमार रहने लगी। अपार्टमेंट में काम करने वाले ठेकेदार से लेकर कर वहाँ के जो भी लोग थे सभी केतकी की सुंदरता और उसकी खिलखिलाती हंसी पर सभी नजर लगा हुए रहते थे।

    ठंड अपनी चरम सीमा पर थी उस पर बारिश। सभी रजाई शाल पर दुबके शाम ढले चुपचाप बैठे थे। उसी समय केतकी की माँ की अचानक तबीयत खराब हो गई और वह दौड़ कर ठेकेदार के पास गई।

उसने कहा मेरी माँ की तबीयत बहुत खराब है, आप कुछ मदद कर दीजिए डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। ठेकेदार ने समय की नाजुकता का फायदा उठा तत्काल कहा… तुम रात पाली  पर काम कर लो। तुम्हारी माँ को कुछ नहीं होगा।

माँ को अस्पताल भिजवा दिया गया। माँ अपनी ममता के पीछे केतकी ठेकेदार की मंशा भाप चुकी थी, परन्तु बेबस चुप रही।

सुबह सारे अपार्टमेंट और सभी के बीच हल्ला था कि ठेकेदार साहब बहुत भले आदमी है। कल रात उन्होंने केतकी की माँ की जान बचाई।

भगवान भला करे। ऐसे आदमी दुनिया में मिलते कहाँ हैं?

हम सब की उम्र भी उनको लग जाए। हम सब गरीबों के भगवान हैं। परन्तु केतकी की लगातार आँखों से बहते आँसू  कुछ और ही कह रह रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय  ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुष्प की अभिलाषा शीर्षक से लिखी कविता से आप भी चिरपरिचित हैं न ? आपने भी मेरी तरह यह कविता पढ़ी या सुनी जरूर होगी । कई बार स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी बच्चे को पुरस्कार लेते देख तालियां भी बजाई होंगी । मन में आया कि एक बार दादा चतुर्वेदी के जमाने और आज के जमाने के फूल में शायद कोई भारी तब्दीली आ गयी हो । स्वतंत्रता के बाद के फूल की इच्छा उसी से कयों न जानी जाए ? उसी के मुख से ।

फूल बाजार गया खासतौर पर ।

– कहो भाई , क्या हाल है ?

– देख नहीं रहे , माला बनाने के लिए मुझे सुई की चुभन सहनी पड रही है ।

–  अगर ज्यादा दुख न हो रहा हो तो बताओगे कि तुम्हारे चाहने वाले कब कब बाजार में आते हैं ?

–  धार्मिक आयोजनों व ब्याह शादियों में ।

– पर तुम्हारे विचार में तो देवाशीष पर चढ़ना या प्रेमी माला में गुंथना कोई खुशी की बात नहीं ।

– बिल्कुल सही कहते हो । मेरी इच्छा तो आज भी नहीं पर मुझे वह पथ भी तो दिखाई नहीं देता, जिस पर बिछ कर मैं सौभाग्यशाली महसूस कर सकूं ।

– क्यों? आज भी तो नगर में एक बडे नेता आ रहे हैं ।

– फिर क्या करूं ?

– क्यों ? नेता जी का स्वागत् नहीं करोगे ?

– आपके इस सवाल की चुभन भी मुझे सुई से ज्यादा चुभ रही है । माला में बिंध कर वहीं जाना है । मैं जाना नहीं चाहता पर मेरी सुनता कौन है ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – विश ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विश’।)

☆ कथा-कहानी  – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

छः-छः, सात-सात साल की दो बच्चियांँ खेल रही थीं कि उन्होंने एक टूटते हुए तारे को देखा। “देखो शूटिंग स्टार।” एक बच्ची चिल्लाई। दोनों ने प्रार्थना के अंदाज़ में हाथ जोड़कर आंँखें बंद कर लीं और कुछ बुदबुदाने लगीं। कुछ क्षण बाद पहली बच्ची ने दूसरी से पूछा, “तुमने कौन सी विश मांँगी?”

“मैंने विश मांँगी कि मेरे घर में चॉकलेट का पेड़ उग आए। पता है, मेरे पापा मुझे दूसरे-तीसरे दिन बाज़ार ले जाते हैं पर चॉकलेट महीने-दो महीने में ही दिलवाते हैं। घर में चॉकलेट का पेड़ होगा तो पापा से कहना ही नहीं पड़ेगा। तुमने कौन सी विश मांँगी?”

“मुझे चॉकलेट नहीं चाहिए, पापा चाहिएंँ। मेरे पापा फॉरेन में हैं न! मैं और मम्मा तीन साल से उन्हें मिले भी नहीं हैं। मैंने तो विश मांँगी कि पापा फॉरेन से वापस हमारे पास आ जाएंँ।”

“तुम पापा के बिना उदास हो जाती हो न!”

“हांँ, मम्मा भी उदास होती है। कभी-कभी तो इतनी अपसेट हो जाती है कि बिना बात के मुझे बुरी तरह डांँट देती है, कभी तो हाथ भी उठा देती है। उसके बाद रोने लगती है।” बच्ची यह सब बताते हुए रुआंँसी हो आई। दूसरी बच्ची ने उसे धीरे से खींचकर अपनी देह से सटा लिया। कुछ ही पलों बाद उसने झटके से अपने को उससे अलग किया,

“मैं जाती हूंँ।अंँधेरा हो गया, मम्मा अकेली है। “

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार

एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था। उसके घमंड के चलते आस पास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे। उसके घमंड की वजह से सारे  राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे।

एक बार उस गाँव से एक साधु महात्मा गुजर रहे थे उन्होंने ने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची। साधु तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए। राजा ने देखा तो वो गुस्से में भर गया । राजा बोला – ये क्या उदण्डता है महात्मा जी, आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?

साधु ने विनम्रता से उत्तर दिया – मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूँ। राजा को ये बात बहुत बुरी लगी वो बोला- महात्मा जी ये मेरा राज महल है कोई सराय नहीं, कहीं और जाइये।

साधु ने कहा – हे राजा, तुमसे पहले ये राजमहल किसका था? राजा – मेरे पिताजी का। साधु – तुम्हारे पिताजी से पहले ये किसका था? राजा– मेरे दादाजी का।

साधु ने मुस्करा कर कहा – हे राजा, जिस तरह लोग सराय में कुछ देर रहने के लिए आते है वैसे ही ये तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादाजी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिताजी का था, अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, ये राजमहल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है।

ये एक सराय ही है जहाँ एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है। साधु की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान सम्मान छोड़कर साधु के चरणों में गिर पड़ा और महात्मा जी से क्षमा मांगी और फिर कभी घमंड ना करने की शपथ ली।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 86 ☆ माँ सी …! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 86 ☆

☆ लघुकथा – माँ सी …! ☆

मीना की निगाहें कमला के घर पर ही लगी थीं। दो लडके बडी देर से उसके घर के बाहर चक्कर लगा रहे थे। दूर बैठी वह कमला के घर की चौकसी कर रही थी। कमला जब भी घर से बाहर जाती तो मीना की आँखें उसके घर पर ही लगी रहतीं। आँखें क्या तन मन से मानों वह उसी के घर में होती। कमला की जवान लडकी अकेली है घर में। पंद्रह- सोलह साल की ही होगी पर  अभी से बहुत सुंदर दिखती है, नजर हटती ही नहीं चेहरे से। वह मन ही मन सोच रही थी कि माँएं अपनी बेटियों की सुंदरता से कितनी खुश होती हैं लेकिन हमारे जैसी औरतें बेटी की सुंदरता से सहम जाती हैं।

बाईक पर आए दो लडकों को तांक – झांक करते देख उसने पूछा —

“ऐ – ऐ कहाँ जा रहे हो?”

“तेरा घर है यह? अपने काम से मतलब रख।”

वह तेजी से बोली — “हाँ मेरा ही घर है, अब बोल।”

“कमला बाई की लडकी से काम है।”

“क्या काम है? वही तो पूछ रही हूँ मैं?”

“उसी को बताना है। तू क्यों बीच में टांग अडा रही है?”   

वह कमला के घर का रास्ता रोक, कमर पर हाथ रखकर खडी हो गई- “तू पहले मुझे काम बता।”

“जबर्दस्ती है क्या? क्यों बताएं तुझे? साली धंधेवाली होकर बहुत नाटक कर रही है। चल यार, फिर कभी आएंगे हम।”

बात बढती देख वे दोनों तेजी से बाईक घुमाकर उसे गाली देते हुए वहाँ से चले गए।

“अरे! जब भी आएगा ना तू मीना ऐसे ही दरवाजे पर खडी मिलेगी। तू छू भी नहीं सकता मेरी बच्ची को।”

मीना जोर-जोर से चिल्लाकर बाईक पर पत्थर मारती जा रही थी। आस – पडोसवालों की भीड लग गई थी। वे हतप्रभ थे। मीना बाई की लडकी को तो बहुत पहले गुंडे उठा ले गए थे। ये तो कमला की लडकी है। भीड में खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

मीना आँसू पोंछते हुए बोली – “जानती हूँ मेरी लडकी नहीं है पर बेटी जैसी तो है ना ! अकेली कैसे छोड दूँ उसे?”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 96 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

जो जैसी करनी करें, सो तैसों फल पाय।

बेटी पौंची राजघर, बाबैं बँदरा खाय॥

शाब्दिक अर्थ :- बुरे काम करने का फल  भी बुरा ही मिलता है। बुरे सोच के साथ किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी ही एक सुकन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले बुरे विचार के साधू (बाबैं) को बंदरों (बँदरा) ने काट खाया और सुकन्या का विवाह साधू की जगह राजकुमार से हो गया।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो कहानी है वह बड़ी मजेदार है, आन्नद लीजिए। सुनार नदी के किनारे बसे रमपुरवा गाँव में एक बड़ा पुराना शिवालय था। गाँव के लोगों की मंदिर में विराजे भगवान शिव पर अपार श्रद्धा थी। गामवासी प्रतिदिन सुबह सबेरे नदी में स्नान करते और फिर भोले शंकर को जल ढारकर अपने अपने काम से लग जाते। एक दिन एक साधू कहीं से घूमता घामता गाँव में आया और उसने मंदिर में डेरा डाल दिया। मंदिर की और शिव प्रतिमा की साफ सफाई के बाद वह भजन गाने लगा। गाँव वालों को अक्सर भजन गाता,मंजीरा बजाता  यह सीधा साधा साधू बहुत पुसाया और वे उसे प्रतिदिन कुछ कुछ न कुछ भोजनादी सामग्री भेंट में देने लगे। इस प्रकार साधू ने मंदिर के पास एक कुटिया बना ली और वहीं रम गया। गाँव के लोग अक्सर साधू से अपनी समस्या पूंछते, बैल गाय घुम जाने अथवा अन्य परेशानियों का उपाय पूंछते और साधू उसका समाधान बताता। गाँव की महिलाएँ और कन्याएँ भी कहाँ पीछे रहती वे भी अपने दांपत्य सुख को लेकर या विवाह के बारे में साधू से पूंछती  और साधू उन्हे उनके मनवांछित जबाब दे  देता। इस प्रकार साधू की कीर्ति आसपास के अनेक गाँवों में फैल गयी।  रमपुरवा गाँव से कोई पांचेक मील दूर सुनार नदी किनारे एक और गाँव था बरखेड़ा। इस गाँव में एक विधवा ब्राम्हणी, अपनी सुंदर युवा पुत्री के साथ, रहती थी । पुत्री विवाह योग्य हो गई थी पर गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब विधवा ब्राम्हणी और कन्या ने ने इस साधू की ख्याति सुनी तो वे भी, रमपुरवा गाँव  के शिवालय साधू से मिल, विवाह  के बारे में जानने पहुँची। साधू उस सुंदर कन्या पर रीझ गया और उससे विवाह करने का इच्छुक हो गया किन्तु साधू होने के कारण वह ऐसा कर नहीं सकता था। अत: उसने विधवा ब्राम्हणी से कहा कि कन्या का भाग्य बहुत खराब है और इस पर सारे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि है। इसके निवारण का उपाय करने वह स्वयं अमावस्या के दिन बरखेड़ा गाँव आयेगा। नियत तिथी को साधू विधवा ब्राम्हणी के घर पहुँचा और उसने उसकी छोटी सी झोपड़ी कों देख कर कहा इस जगह रहने से इस कन्या का विवाह जीवन भर न होगा अत: यह झोपड़ी  छोडनी पडेगी। विधवा ब्राम्हणी बिचारी पहले से ही गरीब थी नई झोपड़ी बनाने पैसा कहाँ से लाती इसलिए उसने साधू से कोई दूसरा उपाय बताने को कहा। साधू तो मौके कि तलाश में ही था उसने सलाह दी कि कन्या को एक पेटी में बंद कर नदी में बहा दो एकाध दिन बाद कन्या किनारे लग कर बरखेड़ा गाँव वापस आ जाएगी और इससे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि का दोष दूर हो जाएगा और इसका विवाह किसी धनवान से हो जाएगा तथा ससुराल में कन्या राज करेगी। विधवा ब्राम्हणी कन्या का उज्ज्वल भविष्य की सोचकर इस योजना के लिए तैयार हो गई। अमावस्या की काली अंधेरी रात को साधू ने विधवा ब्राम्हणी के साथ मिलकर कन्या को एक बक्से में बंद कर नदी में डाल दिया और स्वयं अपनी कुटिया की ओर तेज गति  चल पड़ा। कुटिया में पहुँच कर वह कल्पना में डूब गया कि कुछ समय में वह बक्सा बहता हुआ आवेगा और फिर वह उसे यहाँ से बहाकर कहीं  दूर ले जाएगा और फिर उस सुंदर कन्या से विवाह कर अनंत सुख भोगेगा। इधर बक्सा बहते बहते नदी के दूसरे किनारे की तरफ चला गया।  कुछ दूर घने जंगल में एक राजकुमार शिकार खेल रहा था उसने इस बहते बक्से को देखा और उसे अपने सिपाहियों की मदद से बाहर निकलवाकर उत्सुकतावश खोला। जैसे ही उसने बक्सा खोला तो उसमे से वह सुंदर कन्या निकली। कन्या ने राजकुमार को अपनी आप बीती और साधू के कुटिल चाल की बात सुनाई। राजकुमार ने उसकी दुखभरी कहानी सुनकर उससे विवाह करने की इच्छा दर्शायी और अपने साथ राजमहल चलने को कहा। कन्या राजकुमार की बातों से सहमत हो गई। तब राजकुमार ने जंगल से एक दो खूंखार बंदरों को पकड़ उन्हे बक्से में बंद कर पुनः नदी में छोड़ दिया। यह बक्सा बहता बहता साधू की कुटिया के पास जैसे ही पहुँचा साधू ने बक्से को रोका और बड़ी कामना के साथ खोला। बक्सा खुलते ही दोनों बंदर बाहर निकल कर साधू पर झपट पड़े और उसे काट काटकर बुरी तरह घायल कर दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी है। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है :-

करैं बुराई सुख चहै, कैसें पाबैं कोय। 

बोबैं बीज बबूर कौ, आम कहाँ से होय॥

यह तो सनातन परम्परा चली आ रही है। जो जैसा भी कार्य करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। बुरे काम करने का नतीजा भी बुरा ही होता है। बुराई  के काम करने के बाद  यदि  कोई सुख चाहता है तो उसे सुखी जीवन जीने कैसे मिल सकता है। बबूल (बबूर) का बीज बोने से आम का पेड़ नहीं उग सकता।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print