(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा ‘त्यौहार…‘।)
☆ लघुकथा – त्यौहार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
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चौराहे पर, अपनी छोटी बच्ची को लिए, वह गुलाल के पैकेट बेच रही थी। जो भी कार, लाल सिग्नल पर रुकती थी, वह कार के पास पहुंच जाती और शीशे पर उंगली की दस्तक कर वह गुलाल पैकेट लेने का आग्रह करती। जो चाहते, उससे ले लेते, कुछ लोग शीशा ही नहीं खोलते थे, और चले जाते थे। वह फिर भी आस लगाए, हर कार वाले के पास जाकर, पैकेट गुलाल ले लो, कह कर उन्हें मनाया करती। एक परिवार कार में था, पति-पत्नी, उनकी माताजी और उनकी बेटी जो कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पास भी गुलाल बेचने वाली ने शीशे पर दस्तक दे कर, गुलाल लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी ने गुलाल का पैकेट लिया और उस बेचने वाली को भी क्योंकि होली के उत्सव पर जिसने गुलाल नहीं लगाई थी, उसको और उसकी बच्ची को गुलाल लगा दिया। वह महिला चिल्लाने लगी कि मुझे गुलाल लगाने की हिम्मत कैसे हुई? क्यों गुलाल लगाया मुझे? परिवार ने कहा- आप गुलाल आप बेच रही थी, और क्योंकि आपने आज होली का गुलाल नहीं लगाया था इसलिए, आपको और आपकी बच्ची को, जिसे आप लिए हैं उसे थोड़ा सा गुलाल लगा दिया। वह गुस्से में चिल्लाई कि हम तुम्हारे मजहब के नहीं हैं तुमने हमें गुलाल क्यों लगाया? हमारे मजहब में गुलाल नहीं खेलते, रंग नहीं लगाते है, शोर हो गया, काफी हंगामा हो रहा था। कार में बैठे परिवार ने बाहर निकल कर उससे माफी मांगी कि- बहन हमें माफ करो हम आपका मजहब नहीं जानते थे, मगर आप गुलाल बेच रही थी, इसलिए बिटिया ने गुलाल लगा दिया।
वो महिला कुछ शांत हुई और रोने लगी और कहने लगी- कि रंग किसी भी मजहब में बुरे नहीं होते, मगर हम नहीं खेल सकते। पति की मृत्यु के बाद हम, हर त्यौहार पर, उस त्यौहार में काम आने वाली सामग्री बेच तो सकते हैं, मगर हर त्यौहार मना नहीं सकते। कोई भी धर्म आपस में लड़ना नहीं सिखाता और… । अपने पल्लू से अपना और इन सब बातों से अनजान अपनी बच्ची का रंग पोंछते हुए रो पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बरसने लगे।
सच है कोई भी धर्म आपस में लड़ने की बात नहीं करता, लड़ते तो वे हैं जो धर्म ग्रंथो का सार ही नहीं समझ पाए जो जीवन के लिए आवश्यक है।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “– अनबोलते जानवर–” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — अनबोलते जानवर —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
बछिया गौशाला के एक किनारे में बंधी होती थी। दूसरे किनारे में वह गाय बंधी हुई थी जो वर्षों से दूध देती आयी। यह बछिया उसी से पैदा हुई थी। गाय दूध से खाली हो गयी और उसे कसाई के हाथों बेच दिया गया। तत्काल बछिया को उस किनारे से खोल कर गाय की खूँट से बांध दिया गया। बछिया ने खूँट के इस अंतर से जाना वह दूध देगी और फिर उसका हश्र उसकी माँ जैसा होगा।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
पुनर्पाठ में आज प्रस्तुत है स्व भीष्म साहनी जी की एक कालजयी रचना “ओ हरमजादे” पर श्री कमलेश भारतीय जी की कथा चर्चा।
☆ कथा चर्चा ☆ क्लासिक किरदार – “ओ हरामजादे” – लेखक – स्व. भीष्म साहनी ☆ चर्चा – श्री कमलेश भारतीय ☆
यह दैनिक ट्रिब्यून का एक रोचक रविवारीय स्तम्भ था – “क्लासिक किरदार“। यानी किसी कहानी का कोई किरदार आपको क्यों याद रहा ? क्यों आपका पीछा कर रहा है? – कमलेश भारतीय)
प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी की कहानी ओ हरामजादे मुझे इसलिए बहुत पसंद है क्योंकि जब मैं अपने शहर से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर चंडीगढ़ में नौकरी करने नया नया आया तब एक शाम मैं बस स्टैंड पर अपने शहर को जाने की टिकट लेने कतार में खड़ा था कि पीछे से आवाज आई – केशी, एक टिकट मेरी भी ले लेना। यह मेरे बचपन के दोस्त सतपाल की आवाज थी।
कितना रोमांचित हो गया था मैं कि चंडीगढ़ के भीड़ भाड़ भरे बस स्टैंड में किसी ने मेरे निकनेम से पुकारा। आप सोचिए कि हजारों मील दूर यूरोप के किसी दूर दराज के इलाके में बैठा कोई हिंदुस्तानी कितना रोमांचित हो जाएगा यदि उसे कोई दूसरा भारतीय मिल जाए ।
ओ हरामजादे कहानी यहीं से शुरू होती है जब मिस्टर लाल की पत्नी नैरेटर को इंडियन होने पर अपने घर चलने की मनुहार लगाती है और घर में अपने देश और शहर को नक्शों में ढूंढते रहने वाले पति से मिलाती है। लाल में कितनी गर्मजोशी आ जाती है और वह सेलिब्रेट करने के लिए कोन्याक लेकर आ जाता है। फिर धीरे-धीरे कैसे लाल रूमानी देशप्रेम से कहीं आगे निकल जालंधर की गलियों में माई हीरां गेट के पास अपने घर पहुंच जाता है। जहां से वह भाई की डांट न सह पाने के कारण भाग निकला था और विदेश पहुंच कर एक इंजीनियर बना और आसपास खूब भले आदमी की पहचान तो बनाई लेकिन कोई ओ हरामजादे की गाली देकर स्वागत् करने वाला बचपन का दोस्त तिलकराज न पाकर उदास हो जाता। इसलिए वह कभी कुर्ता पायजामा तो कभी जोधपुरी चप्पल पहन कर निकल जाता कि हिंदुस्तानी हूं, यह तो लोगों को पता चले ।
आखिर वह जालंधर जाता क्यों नहीं ? इसी का जवाब है : ओ हरामजादे । लाल एक बार अपनी विदेशी मेम हेलेन को जालंधर दिखाने गया था। तब बच्ची मात्र डेढ़ वर्ष की थी। दो तीन दिन लाल को किसी ने नहीं पहचाना तब उसे लगा कि वह बेकार ही आया लेकिन एक दिन वह सड़क पर जा रहा था कि आवाज आई : ओ हरामजादे, अपने बाप को नहीं पहचानता ? उसने देखा कि आवाज लगाने वाला उसके बचपन का दोस्त तिलकराज था । तब जाकर लाल को लगा कि वह जालंधर में है और जालंधर उसकी जागीर है । तिलकराज ने लाल को दूसरे दिन अपने घर भोजन का न्यौता दिया और वह इनकार न कर सका । पत्नी हेलेन को चाव से तैयार करवा कर पहुंच गया। तिलकराज ने खूब सारे सगे संबंधी और कुछ पुराने दोस्त बुला रखे थे। हेलेन बोर होती गयी। पर दोस्त की पत्नी यानी भाभी ने मक्की की रोटी और साग खिलाए बिना जाने न दिया। लाल ने भी कहा कि ठीक है फिर रसोई में ही खायेंगे। पंजाबी साग और मक्की की रोटी नहीं छोड़ सकता। वह भाभी को एकटक देखता रहा जिसमें उसे अपनी परंपरागत भाभी नजर आ रही थी पर घर लौटते ही पत्नी हेलेन ने जो बात कही उससे लाल ने गुस्से में पत्नी को थप्पड़ जड़ दिया क्योंकि हेलेन ने कहा कि तुम अपने दोस्त की पत्नी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे। उस घटना के तीसरे दिन वह लौट आया और फिर कभी भारत नहीं लौटा। फिर भी एक बात की चाह उसके मन में अभी तक मरी नहीं है।
इस बुढ़ापे में भी मरी नहीं कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए – ओ हरामजादे । और मैं लपककर उस आदमी को छाती से लगा लूं यह कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गयी। लाल आंखों से ओझल नहीं होता। पूरी तरह भारतीयता और पंजाबियत में रंगा हुआ जो अभी तक इस इंतजार में है कि कहीं से बचपन का दोस्त कोई तिलकराज उसे ओ हरामजादे कह कर सारा प्यार और बचपन लौटा दे। कैसे भीष्म साहनी के इस प्यारे चरित्र को भूल सकता है कोई ? कम से कम वे तो नहीं जो अपने शहरों से दूर रहते हैं चाहे देश चाहे विदेश में। वे इस आवाज़ का इंतजार करते ही जीते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “भुवन… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 12 ☆
लघुकथा – भुवन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
उसकी खबर मिलती रहती, कभी वाट्सएप पर, कभी फेसबुक पर। खबरों में ज्यादा तर अपनी तारीफ रहती जैसे उस पर पत्रिका में मेरी कविता छप गई, कहानी छप गई। मेरे लिखे हुए नाटक का मंचन हुआ और बहुत सराहा गया। जब जब उसकी खबर पढता तो भुवन याद आ जाता। भुवन मेरा दोस्त और नीता का पति। भुवन बहुत अच्छा रचनाकार था। कविता कहानी नाटक उपन्यास सब कुछ लिखता। उसके हर बोल में कविता होती, हर बात में कहानी। सबको इतना हँसाता कि पूछो मत। और उसकी जुबान पर अदब जैसे आसन जमा कर बैठा था।
भुवन के अवसान की खबर आई तो मैं एकदम रो पड़ा। हालांकि हम पास नहीं रहते पर उसकी मौजूदगी हमेशा बनी रहती। ऐसा लगता कि वह बाजू में खड़ा हँस रहा है। फोन पर तो घंटों बीत जाते पर बातें खत्म नहीं होतीं। उसके न रहने की खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और नीता, उसका क्या होगा। उसकी दो छोटी छोटी बेटियाँ, क्या होगा। मैं लखनऊ गया था। नीता से मिला था। अपनी बेटियों को गोद में लेकर कह रही थी कि तुम दोनों मेरे होनहार बेटे हो। बेटा न होने का दंश मैंने महसूस किया। मैंने धीरे से पूछा था कि भुवन की रायल्टी वगैरह…. और नीता ने वाक्य पूरा नहीं होने दिया, काहे की रायल्टी, कौन देता है है रायल्टी? जब वो थे तो सब पूछते थे। अब वो नहीं हैं तो कोई पहचानता भी नहीं। उनके मित्र लेखक, कवि, पत्रकार सब मुझे देख कर दूर से ही कट जाते हैं। मैं तो उनके लिए किसी काम की नहीं हूँ न, उनकी रचनाएँ नहीं छपवा सकती, आकाशवाणी पर प्रसारण नहीं करवा सकती। बैंक में जो था बीमारी में लग गया। कोई बीमा नहीं, बैलेंस नहीं, पेशन नहीं। सपाट नजरों से पूछा था कि लेखकों के लिए सुरक्षित भविष्य की कोई योजना क्यों नहीं है ? मैं क्या उत्तर देता! रस्म अदायगी करके वापस आ गया।
घर आकर अपने काम में व्यस्त हो गया। जब कोई खबर नीता की देखता तो यह सब याद आ जाता। लाइक कमेंट भी करता। उसकी हिम्मत की सराहना भी मन ही मन करता पर उससे बात करने का साहस न होता। आज जब अखबार में पढा कि नीता को अपने उपन्यास पर बहुत बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला है जिसके साथ अच्छी धनराशि भी है तो फिर आँखों से दो आँसू टपक पड़े। आसमान में देखा तो भुवन का चेहरा था जैसे कह रहा हो, यार यही जि़ंदगी है। उतार चढ़ाव आते रहते हैं और रास्ते भी निकलते रहते हैं। सोच रहा हूँ नीता को बधाई दे दूँ, पर पहले कभी हालचाल तक नहीं पूछे तो अब कैसे हिम्मत होगी। फिर एक मुस्कान आकर कह गई कि उसकी सफलता से खुश हो न, यही काफी है। भुवन तो देख रहा है न!
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनोखा रिश्ता।)
“रवि आज सुबह-सुबह कहां जा रहे हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर?” पत्नी सुनंदा ने पूछा।
“तुम भी तैयार हो जाओ। आज हमें वृद्धा आश्रम चलना है। मां को घर लेकर आना है। विदेश से आए एक महीना हो गया है।”
“तुम जाओ मैं नहीं जाऊंगी?”
रवि ने वृद्धाश्रम पहुंचकर अपनी मां के बारे में पूछा तो पता चला कि उसकी मां यहां आई थी पर थोड़ी देर के बाद ही चली गई थी ?
“हमने आपके नंबर पर फोन करके आपको सूचित तो किया था। क्या आपको पता नहीं चला? आपने कभी कोई खबर भी नहीं की इन दो सालों में?”
“लेकिन मेरी पत्नी तो मां की खबर लेती थी और पैसे भी भेजती थी!”
“देखिए आप झूठ मत बोलिए ? हम लोगों को रखते हैं और सुविधा देते हैं तो पैसे लेते हैं। आप कोई रसीद हो तो दिखाइए? आप अपने मां-बाप को संभाल नहीं पाते हो और हमारे ऊपर इल्जाम लगा रहे”
वह अपने पुराने घर जाता है जिसे उसने बेच दिया था। वहां उसे अपनी मां नजर आती है और वह उसे घर में काफी खुश दिख रही थी।
उसे मकान मालिक (अजय) ने उसे अपने घर के अंदर घुसने से मना कर दिया और कहा कि- “जब तुम यह घर बेचकर चले गए तो यहाँ क्यों आए हो?”
उसने कहा “मां को लेने के लिए…।“
“बरसों बाद तुम्हें मां की कैसे याद आई? तुम्हारी मां अब तुम्हारी नहीं हैं? घर के साथ-साथ अब यह मेरी मां हो गई। हमें तो पता ही नहीं था कि आपकी मां है यह बेचारी इस घर के बाहर बैठे रो रही थी। पड़ोसियों से पता चला कि इस घर की मालकिन है। हमने अपने घर में रहने दिया। वे पूरे घर का काम कर देती थी और तरह-तरह के अचार पापड़ भी बना देती थी। हम इसे अपने रिश्तेदार और पड़ोसी को बेचने लगे। इतना मुनाफा कमाया जो कुछ भी है यह सब इनके कारण ही है। तुमने इन्हें बेसहारा कर दिया था और हम बेसहारों को मां मिल गई। अच्छा है कि मां को कुछ याद नहीं रहता। मुझे ही अपना बेटा मानती है। भगवान की कृपा से मुझे यह अटूट रिश्ता मिला है। तुम्हें सब कुछ मिला था पर तुमने खो दिया लालच में अब तुम जा सकते हो।”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा – ज़िम्मेदारी )
☆ लघुकथा – ज़िम्मेदारी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
वह लड़की तीन साल से वहाँ रहकर संस्कृति पर शोध कर रही थी। वह एक घर में किराए पर रहती थी। वृद्ध मकान मालिक और मालकिन उससे बहुत प्यार करते थे। उसका काम उन्हें समझ में नहीं आता था, पर वे बहुत बार उसे चुपचाप मुग्ध दृष्टि से देखते रहते थे। धर्मांध लड़ाके जब देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए तो लड़की डर गई। वह देश से बाहर निकल जाने के प्रयास में थी कि उसके मकान मालिक की हत्या कर दी गई। ग़म में डूबी मकान मालकिन ने उससे कहा, “तुम जल्दी इस नरक को छोड़ दो।”
“लेकिन आप अकेली हैं और बीमार भी। ऐसे में…”
“तुम मेरी चिंता मत करो। तुम जवान हो, तुम्हारे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है, भाग जाओ।”
“मेरी वजह से आपको कोई ख़तरा हो तो मैं चली जाती हूँ वरना अब जो भी हो, मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी।”
वृद्धा ने लड़की को गले लगा लिया। बहुत देर तक दोनों एक दूसरे से चिपकी रहीं। जब वे अलग हुईं तो दोनों के भीतर ज़रा सा भी खौफ नहीं बचा था।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम विचारणीय दार्शनिक लघुकथा “– अनजान प्रदेश–” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — जीवन की परिभाषा —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मैंने यूँ ही सीख लिया हो संभल कर और सतर्क रह कर अपना जीवन जिया करूँ। आज अचानक मेरे मन में प्रश्न पैदा हुआ क्या मैंने ऐसा किया हो? मैंने किया हो, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं। पर जितना किया वह मेरे जीवन के लिए पर्याप्त रहा। यह ऐसा है आधा गिलास भरा देखूँ, आधा गिलास खाली नहीं। मुझे लगता है यह तो मैं संसार को बाँच रहा हूँ। कौन इस सिद्धांत को झूठ कह सकता है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – कसक ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
वह घर आया और रूठ कर दादी के पास पहुच गया। उसकी बाजू पकड कर बोला- दादी , फोन पर मेरी पापा से बात करवा दे।
– क्यों ?
– दादी , कहां रहता है , मेरा पापा ?
– वो तो काम के लिए दूर रहता है ।
– बुला उसे अभी ।
– क्यों ?
– मैं अभी जाॅय के साथ खेल रहा था । उसका पापा आया और हम दोनों को कार में घुमाने ले गया ।
– फिर क्या हुआ ?
– जब मेरे पापा के पास गाड़ी है, तो मैं जाॅय के पापा की गाडी में सैर क्यों करूं ?
– बेटे , तेरे पापा नहीं आ सकते ।
– कह दे फिर मैं उनसे बात नहीं करूंगा ।
-नहीं बेटे, ऐसे नहीं कहते ।
– बस फिर, करवा दे मेरी बात। वह अपनी जिद्द पूरी करके ही माना । उसके बाद सपनों में खो गया और पापा की गाड़ी में सैर करने निकल गया ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री निमिषा मजुमंदारजी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “आश्रय”।)
☆ कथा-कहानी – पापा – गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
आकाश से बरसतीं अग्नि-ज्वालाएँ मानो कम हों, इसलिए वाहनों का धुआँ और साथ ही हार्न की कर्कश आवाजें… मनुष्य की सहनशक्ति की भी कोई सीमा तो होगी ! ट्राफिक सिग्नल की लाल रोशनी देखकर नेहा का पैर ब्रेक पर चला गया | ‘ओह, एक सौ अस्सी सेकण्ड… और अहमदाबाद की यह गर्मी…!’
सिर पर बँधे दुपट्टे को उतारो तो दिमाग और मन दोनों को उबाल के लिए मजबूर करनेवाली गर्मी… और गोगल्स का बिल्कुल भी लिहाज रखे बगैर आँख में अँगारें को आँज देनेवाली दुपहर की धूप…! ‘अब बरसात हो जाए तो अच्छा !’ तब बेचैनी पसीना बनकर बह रही थी |
वैसे तो वह कल शाम से ही व्याकुल थी | समीर ने अल्टीमेटम दे दिया था, “नेहा, तुम्हें दो-तीन महीने का वक्त देता हूँ, निर्णय कर लेना | अब और अधिक राह नहीं देख सकते | हम चार वर्ष से साथ घूम रहे हैं | अब या तो विवाह कर लें या फिर अलग हो जाएँ| मेरे मम्मी-पापा अब जल्दी कर रहे हैं | तुम्हें तो किसी से कुछ पूछना नहीं है, मात्र एक निर्णय ही लेना है !”
नेहा उसे किस तरह समझाए कि वह एक निर्णय लेना ही तो बहुत जटिल है न ! पापा को ‘आनंद सीनियर सिटीजन्स केयर सेंटर’ में रखने के लिए उसने उनका नाम तो दर्ज करवा दिया था | दो बार वह अचानक गई थी, यह देखने के लिए कि वे बुजुर्गों की देखरेख किस प्रकार करते हैं | छह वर्ष पहले निदान हुआ था कि पापा को अल्झाइमर हुआ है और तब यह मानने में ही नहीं आ रहा था कि पूरी जिंदगी सक्रिय रहे पापा को यह रोग कैसे हो सकता है ? निवृत्त होने के बाद भूलने की शुरुआत घर के रास्ते को भूलने से हुई थी | और फिर भूलना बढ़ता गया और धीरे-धीरे वे सब कुछ भूलते गए |
जिस पापा को उनकी दोनों बेटियों नेहा-निराना के बचपन की मील के पत्थर जैसे सभी दिनांक ठीक से याद रहते थे, कि किस तारीख को कब वह उल्टी पड़ी, कब घुटने के बल चलने लगी, किस तारीख को पहला कदम रखा, आज उन्हीं पापा को आज का दिनांक मालूम नहीं है ! अपने हाथों नन्हीं नेहा को कौर खिलानेवाली पापा को आज उनके स्वयं के मुँह में डाले गए कौर को चबाने का ध्यान भी नहीं है ! नेहा के स्कूल के स्पोर्ट्स डे, पेरेंट्स-टीचर मीटिंग के बारे में कभी न भूलनेवाले उसके प्रिय पापा नेहा को ही नहीं पहचान रहे हैं !
नेहा की माँ जब तक थी, तब तक परेशानी नहीं थी, लेकिन दो वर्ष पहले कोरोना के दौरान वे गुजर गईं और तब से ही नेहा की जवाबदारी बढ़ गई | नेहा ऑफिस जाती, उतने समय के लिए केयर-टेकर रमेशभाई आते थे, लेकिन शेष समय पापा नेहा पर ही पूर्ण रूप से अवलंबित थे | परिस्थिति इतनी खराब हो गई थी कि घर पर यदि ताला न लगाया हो और नेहा बाथरूम जाकर वापिस आए, तब तक पापा बाहर निकलकर किसी भी दिशा में चले जाते| नेहा दौड़ती-दौड़ती सब रास्तों पर तलाश करती, तब कहीं जाकर वे मिलते | उन्हें साथ लेकर कहीं जाना तो पूरी तरह असंभव था |
डॉक्टर ने कहा था कि ऐसे रोगी बहुत अधिक जीवित नहीं रह सकते हैं | समीर के साथ परिचय बढ़ा, तब मम्मी थी, लेकिन अब उनकी गैर-मौजूदगी में पापा तो नेहा की ही जवाबदारी में थे | विवाह के बाद वह ससुराल जाए, तो वहाँ समीर के मम्मी-पापा थे, इसलिए पापा को साथ ले जाना संभव नहीं था | शायद समीर भी इस जिम्मेदारी को उठाने की तैयारी नहीं थे और साथ ही नेहा को भी भावी वैवाहिक जीवन के संबंध में उसके रंगीन सपने थे और उसमें पापा कहीं फिट नहीं बैठते थे | समीर उसे बहुत पसंद था | उसे गँवाने के बारे में तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी | अब तक नेहा विवाह की बात को किसी तरह आगे बढ़ाती रही, लेकिन समीर अब प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था |
दीदी ने इस उलझन को ऐसे सुलझाया कि पापा को ‘आनंद केयर सेंटर’ में छोड़ दिया जाए | बेचारी दीदी ! वह इस सलाह के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकती थी | उसके घर में वृद्ध सास-ससुर और दो बालक, ऐसे में वह पापा की सँभाल कैसे करें ! इस समाधान को उसने मजबूरी में स्वीकार तो कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि यह बोलने में जितना सहज लग रहा है, वैसा यह है नहीं !
“मेडम… ओ मेडम…”, कान में पड़े ये शब्द बिल्कुल नजदीक से बोले गए थे, लेकिन विचारमग्न नेहा का ध्यान खींचने में वे सक्षम नहीं थे |
पुनः आवाज आई | इस बार संबोधन कुछ अलग था, “दीदी, मात्र दो सौ रुपयों की जरूरत है, दे दो न !” इस वाक्य ने नेहा का ध्यान खींचा | उसने देखा कि एक नौ-दस वर्ष का बालक स्कूटर के पास हाथ लंबा कर खड़ा हुआ था | बहुत समय से बिना धुला, अच्छे बड़े माप का सफेद बुशर्ट और खाकी चड्डी, जो उजागर कर रहे थे कि वे शायद उतरे हुए किसी अन्य से मिले होंगे | नाड़े की डोरी से सलाई जैसी कमर पर बाँधी हुई चड्डी के बाहर शर्ट का एक भाग लटक रहा था | पीछे ‘फटा या फटेगा’ जैसे बेकपेक पुस्तकों का अनिच्छापूर्वक भार झूल रहा था | पैर में स्लीपर थे,मानो दो-तीन मालिकों के उपयोग के बाद वे लिए गए हों | इस पूरे निस्तेज चित्र से अलग दो पानीदार आँखों ने नेहा को किसी चुंबक की तरह खींचा |
कुछ मजाक के सुर में और कुछ उसको वहाँ से खदेड़ देने के आशय से नेहा के मुँह से निकला, “अरे, तुम तो ऐसे माँग रहे हो, मानो मैं पिछले जन्म की तुम्हारी देनदार हूँ ! कोई माँगता है तो दो-पाँच रुपए माँगता है | इस तरह कोई दो सौ रुपए माँगता है ? कुछ होश भी है ? चलो भागो |”
लड़के की भागने की तैयारी बिल्कुल भी नहीं थी, “दीदी, मेरी दादी बहुत बीमार है | यह देखो, डॉक्टर की पर्ची | उसकी दवाई लाने के लिए चाहिए | सच कह रहा हूँ |”
उसके हाथ में वास्तव में डॉक्टर की पर्ची थी | ट्राफिक सिग्नल की रोशनी हरी होने ही वाली थी | नेहा को उस पर दया आई |
कुछ अधिक पूछताछ के मकसद से उसने पूछा, “सिविल अस्पताल जाओगे तो मुफ्त में दवाई मिल जाएगी !”
वह लाचार मुँह ऊँचाकर बोला, “दीदी, सिविल अस्पताल की दवाई लागू नहीं होती, वह गर्म पड़ती है | दादी को इस डॉक्टर की दवाई ही माफिक रहती है | प्लीज, जल्दी दो न ! मुझे स्कूल में जाने की देरी हो रही है !”
“तुम्हारे मम्मी-पापा ?”
“वे तो मजदूरी पर गए हैं | वे काम न करें, तो हम खाएँ क्या ?”
नेहा का हाथ अनायास ही पर्स में चला गया | उसने पचास रुपए दिए | उसके हाथ में जैसे ही रुपए आए, वह तो पैरों में पंख आएँ हो, उस तरह उड़ गया | तब ही ट्राफिक की हरी रोशनी हो गई, इसलिए वह किस ओर गया, यह देखने का वक्त ही नहीं रहा |
नेहा उसके स्वयं के जंजाल में ही इतनी उलझी हुई रहती थी कि वह लड़का शायद उसे याद भी नहीं आता, लेकिन सप्ताह के बाद ऑफिस जाते समय वह फिर ट्राफिक सिग्नल पर रुक गई | नेहा का चेहरा दुपट्टे से ढँका हुआ था और वह लड़का शायद उसे भूल गया होगा, इसलिए उसके पास आकर उसी तरह से उसने पुनः दो सौ रुपए माँगे | इस बार भी वही… दादी की बीमारी का बहाना ! उस विभूति को भूल जाएँ, ऐसी वह कहाँ थी ! नेहा उसे तुरंत पहचान गई |
अब मन में शंका का कीड़ा उभरा, ‘इस लड़के को हर वक्त दो सौ रुपए जैसी बड़ी रकम की जरूरत ही क्यों पड़ती है ? यह कोई उल्टा-पुल्टा धंधा तो नहीं करता होगा ? जुआ… या फिर ड्रग्स…? वैसे तो लगता है कि पढ़ने के लिए जाता है, तो फिर…? इसके माँ-बाप को मालूम होगा ? इतनी कम उम्र में ऐसे उल्टे-पुल्टे धंधे करता हो तो, किसी को तो इसे रोकना चाहिए, नहीं तो इसकी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी ! आज तो देखना ही पड़ेगा कि यह इन रुपयों का क्या करता है !’
नेहा, “तुम्हें मैं पैसे तो दूँगी, लेकिन तुम मुझे तुम्हारे घर ले जाओ, तुम्हारी दादी के पास !”
लड़का एक पल के लिए रुका और फिर तुरंत बोला, “हाँ,चलिए | आपको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है न ? आप खुद ही देख लिजिए |”
आगे वह लड़का दौड़ रहा था और पीछे था, नेहा का स्कूटर… कुछ दूर एक बहुत गंदी झोपडपट्टी के आगे वे पहुँचे |
“अब आगे स्कूटर नहीं जाएगा, इसे दीदी, यहीं रख दो |”
दुपहर का वक्त था, इसलिए इक्के-दुक्के व्यक्ति के अलावा वहाँ ख़ास कोई बस्ती दिखाई नहीं दे रही थी | कुछ अधनंगे लड़के खेल रहे थे और वे कुतूहल से नेहा को ताक रहे थे | उस नजर से परेशान होकर उसे वापिस लौटने की इच्छा हुई, लेकिन फिर मन कड़ाकर वह आगे बढ़ी | कुछ कदम चलकर वे लोग एकदम एक जीर्णशीर्ण झोंपड़ी के पास पहुँचे | लड़के के इशारा करने पर नेहा ने अंदर नजर घुमाई, झोंपड़ी जैसी ही जीर्ण खाट पर उम्र के पड़ाव पर पहुँची एक वृद्धा हाथ-पैर समेटकर औंधी पड़ी हुई खाँस रही थी | शरीर में सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी ही थे | यदि वे खाँसती न होती, तो शंका होती कि वे जीवित भी है या नहीं | पास रखी हुई मेज के तीन पाए थे और चौथे के लिए ईंटो के थप्पे का सहारा था | मेज पर दवाई की एक खाली बोतल और एक पीतल का ग्लास रखा हुआ था | नेहा की नजर जल्दी से झोंपड़ी में घूम गई | खूँटी पर दो-चार चीथंडे, एक बगैर घाट की पतरे की पेटी और कोने में ढक्कनवाले बगैर टींचे हुए दो-तीन डिब्बे, बस इतना ही माल असबाब था | ‘इसमें चार व्यक्ति किस तरह रहते होंगे ? अरे ! इससे तो मवेशियों को बाँधकर रखने का स्थान भी अच्छा होता है !’
लड़के पर शंका करने के कारण नेहा को स्वयं पर इतनी शर्म आई कि वह एक भी अक्षर बोले बगैर वहाँ से निकल गई |
पूरे रास्ते मन पर वह लड़का ही छाया रहा | रिसेस में रीना और शिल्पा के साथ लंच लेते समय भी नेहा उसकी ही बात करती रही | “रीना, लोग इतने गरीब होते हैं, वह यदि मैंने आज अपनी नजरों से नहीं देखा होता, तो मुझे मालूम ही नहीं होता ! क्या खाते होंगे और वे कैसे जीते होंगे ? ईश्वर ने हमें भरपूर दिया है ! हमें कुछ करना चाहिए ?”
रीना के पहले शिल्पा कूदी, “यार, तुम कितने लोगों के लिए करोगी ? ऐसे तो इस देश में लाखों लोग हैं ! हम पूरे बिक जाएँ, तब भी उनके पूरे खाने का इंतजाम नहीं कर सकते हैं | उसे भूल जाओ और इस समाजसेवा के भूत को सिर से उतार दो !”
लेकिन नेहा का भूत भला जल्दी उतरनेवाला कहाँ था ! उसके मन पर तो साक्षात् दरिद्रनारायण की मूर्ति हावी हो गई थी | अब तो रीना भी साथ आने के लिए तैयार हो गई थी | करीब तीन दिन के बाद शाम को एक थैला भरकर कपड़े, एक बड़े बैग में किराने का सामान और कुछ फल आदि लेकर वे दोनों झोंपडपट्टी के पास पहुँच गई | इस वक्त सायंकाल था, इसलिए बहुत लोग दिखाई दे रहे थे | वहाँ पहुँचकर उन्होंने आवाज लगाईं, “कोई है ?” यह सुनकर एक दुबली-पतली करीब चालीस वर्ष की एक बाई बाहर आई |
“किसका काम है ?” के जवाब में नेहा ने उस लड़के की बात की | यह भी कहा कि वह यहाँ पहले आई थी | उस बाई के चेहरे पर अबूझ भावों का आन-जाना होता रहा | पूरी बात हो गई तब नेहा ने यह और कहा कि ये सब वस्तुएँ उन्हें और विशेष तो उनके लड़के को देने के लिए आई है |
अब उस महिला के चेहरे पर दया-मिश्रित मुस्कान आ गई, “अरे बहन, वह शनिया आपको बना गया | आपके जैसी पढ़ी-लिखी उसकी बातों में आ जाती हैं और मुआ वह अच्छा रुपए बना लेता है | वह कोई मेरा लड़का नहीं है… वह तो मगपरा के झोंपड़े में रहता है… वह तो मेरी बुढ़िया के बहाने… सब से रुपया लेता रहता है | दिन में तो मैं मजदूरी पर जाती हूँ, इसलिए वह उसका मनपसंद कुछ करता रहता है | यह तो अब कैसे मालूम कि उसने कितनों से कितने रुपए लिए होंगे ?”
नेहा तो आघात से वहीं ढेर जैसी हो गई | ‘इतना-सा लड़का उन्हें बना गया ? ऐसी मूर्ख तो वह कभी बनी नहीं थी ! उसने वे सब वस्तुएँ उस बाई को दे दीं | बाई तो खुशी से पागल ही हो गई | वह नेहा को खुश करने के लिए शनिया को गालियाँ देती रहीं… लेकिन नेहा वह सब सुनने की हालत में नहीं थी, मौन रहते हुए वह रीना का हाथ खींचकर चल दी|
समीर को कहा तो वह हँस दिया, “नेहा, वह इतना-सा बच्चा, तुम्हें उल्लू बना गया !”
वास्तव में उल्लू बना गया ! नेहा को स्वयं पर बेहद गुस्सा आ रहा था | नेहा की तो हालत अब ऐसी थी कि रास्ते पर उस लड़के जैसा कोई नजर आए, तो उसके पैर अपनेआप स्कूटर के ब्रेक पर चले जाएँ ! नेहा को यह विचार सतत बेचैन करता था कि ‘लड़का आखिर उस पैसे का क्या करता होगा ? उसे जब वह याद आता तो साथ ही इतना गुस्सा भी आता कि यदि वह नजर आ जाए, तो उस पर दो झापट लगाकर उसे सीधा कर दे !
नेहा को अधिक राह नहीं देखनी पड़ी ! पंद्रह दिन भी नहीं गुजरे थे कि वह नेहा की नजर के सामने चौराहे पर दिखाई दिया | वह तो पूरी घटना से अनजान था, इसलिए नेहा को देखते ही अन्य सब स्कूटरवालों को छोड़कर नेहा के पास पहुँच गया | वही निर्दोष चेहरा और करुणामय आवाज, “दीदी, अच्छा हुआ, आप मिल गईं | डॉक्टर ने दादी को नई दवाई लिखी है | सिर्फ दो सौ रुपए चाहिए, दो न ?”
नेहा को गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि उसे एक जोरदार थप्पड़ लगा दे, लेकिन उसने शांति बनाए रखी | सिग्नल खुलने में अभी कुछ सेकंड की देर थी और उसने पर्स में से दो सौ रुपए उसे दिए | वह दौड़ा | नेहा ने भी स्कूटर दौड़ाया, लेकिन ट्राफिक के कारण उसे कुछ देर हो गई और वह आँख से ओझल हो गया | नेहा की बेचैनी पराकाष्ठा पर पहुँची, ‘अब उसे कहाँ ढूँढना ?’ अचानक उसे याद आया कि वह मगपरा की झोंपडपट्टी में रहता है और वह स्कूटर उस ओर ले गई | वह दूर से ही दिखाई दिया… हाथ में एक कागज की पुड़िया लेकर वह दौड़ता हुआ जा रहा था | उसने स्कूटर रोका और सुरक्षित अंतर रखते हुए वह उसके पीछे पहुँच गई | एक कच्चे कमरे जैसे मकान के पास की बिल्कुल संकड़ी नाली से लगी जैसी जगह में वह घुस गया | नेहा छिपती हुई, उसके पीछे पहुँच गई |
दीवार के कोने के पीछे से उसने एक नजर डाली तो पीछे खुले बाड़े में, डोरी से बँधा हुआ एक मध्यम वय का पुरुष नारियल की डोर से बनी खाट पर बैठा हुआ दिखाई दिया | मैले-कुचेले कपड़े, बढे हुए बाल और दाढ़ी ! उसके हाथ और चेहरे के हावभाव से ही लगता था कि वह मानसिक रूप से अस्थिर है | वह… हाँ शनिया… यही नाम था न उसका ! उसने, “पापा, ये जलेबी… आप सुबह याद करते थे न ! सब आपकी है, हँ !” ऐसा कहते हुए उसने पुड़िया खोल दी और उस व्यक्ति के सामने रख दी और वह किसी भुखमरे की तरह उस पर टूट पड़ा | एक गले से नीचे उतरती भी नहीं थी और वह मुँह में दूसरी ठूँस देता था | उसके हाथ, मुँह, कपड़ा सब चासनी में लथपथ हो गए थे, लेकिन उस बंदे को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था | “पापा, धीमे-धीमे खाओ | यह देखो चासनी ढुल रही है | चीटियाँ आएँगी | आपको नहलाना पड़ेगा तो माँ नाराज होंगी |” यह कहते हुए वह प्रेम से उनके हाथ- मुँह पोंछ रहा था |
इस विचित्र दृश्य में डूबी नेहा को यह याद ही नहीं रहा कि वह वहाँ क्यों खड़ी थी ! उसके कंधे पर किसी का हाथ अड़ा | पीछे देखा तो एक स्त्री थी | नेहा के चेहरे के भाव मानो वह समझ गई हो, इसलिए वह बोली, “यह मेरे शनिया का बाप है | पागल है | बाँधकर रखना पड़ता है, नहीं तो कहीं चला जाए | इसे खाने के अलावा और किसी बात का मालूम नहीं पड़ता है | खाने का बहुत शौकीन है | रोज कुछ नया खाने के लिए चाहिए | वह जब कमाता था, तब रोज शाम को आते समय पुडिया बँधवाता और दोनों बाप-बेटे खाते; लेकिन अब…? मैं तो रोटी का इंतजाम करूँ या ये सब शौक ? इसलिए शनिया उसके बाप के लिए माँग कर ले आता है | बाप के मुँह से जो निकल जाए, वह हाजिर कर देता है | आपसे भी रुपए माँगे होंगे | इसीलिए आई हैं न !”
नेहा को क्या बोलना है, यही समझने में उसे कुछ वक्त लगा | मूल काम याद आया| “लेकिन इतना सब झूठ…? दादी बीमार है… इतना सब किस लिए… यह तो मुझे किसी बीमार माँजी के पास ले गया था ! यह लोगों को मूर्ख बनाकर पैसे बनाता है !”
वह हँसी, “वह यदि सच बोलकर माँगे, तो बहनजी आप देंगी ? सच कहना, पागल इन्सान को मिठाई खिलाने के लिए कोई रुपए देगा ? शनिया को उसके बाप से बहुत प्यार है | बाप की इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर के रुपिए ले आता है | वह चोरी नहीं करता है, माँग कर लाता है और इसलिए मैं उसे रोकती नहीं हूँ |”
सुन्न हो गए मन के साथ, नेहा के पैर अपने आप वहाँ से चलने लगे | स्कूटर के पास पहुँचकर, उसने पर्स में से मोबाईल निकालने का पहला काम किया | पलकों की पाल पर इकट्ठे आँसुओं को सुनाई दिया, “समीर, मैं तुम्हें मेरी ओर से मुक्त करती हूँ | तुम्हें बहुत चाहती हूँ, लेकिन मुझे माफ़ करना, जब तक पापा हैं, तब तक अपना विवाह संभव नहीं है |”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय बाल लघुकथा – ‘बाँटने से बढ़ता है‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 148 ☆
☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
ओंकार प्रतिदिन सूर्योदय के पहले ही उठ जाता और उगते हुए सूरज को प्रणाम करता था।उसके माता – पिता ने समझाया था कि ‘हमें प्रकृति के तत्वों – धरती, सूर्य, चंद्रमा, नदी, समुद्र, पेड़-पौधों सबकी रक्षा करनी चाहिए। हमें इनका आभार मानना चाहिए क्योंकि ये ही प्राणियों के जीवन को स्वस्थ तथा सानंद बनाते हैं। जब सर्दियों में धूप नहीं निकलती तब हमें कैसा लगता है? बारिश नहीं होती तो किसानों के खेत सूखने लगते हैं, तब हम सब कितना परेशान होते हैं।‘
ओंकार सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने अपने मित्रों को भी ये बातें बताई, सब खुश हो गए। सबने तय कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचे।
ओंकार रोज सुबह होते ही घर की छत पर पहुँच जाता। सुबह की ताजी हवा उसे बहुत भाती।ऐसा लगता मानों ऑक्सीजन सीधे फेफड़ों में भर रही हो। सूरज निकलने तक वह पूरब दिशा की ओर मुँह करके, हाथ जोड़कर खड़ा रहता। आकाश में सूरज की लालिमा झलकने लगती। सूर्योदय का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। सफेद – नीला आकाश और उसमें सूर्य – किरणों की लालिमा ! रंगों का कैसा सुंदर मेल ,ऐसा लगता मानों किसी कलाकार ने सिंदूरी रंग आकाश में बिखेर दिया हो। पल भर में ही सूरज का प्रकाश पूरे आकाश में पसर जाता। तेज रोशनी से धरती जगमगा उठती है। चिड़िया चहचहाने लगतीं। पशु – पक्षी मनुष्य सभी उत्साहपूर्वक काम में लग जाते। वह अक्सर सोचता – ‘सूर्य भगवान के पास प्रकाश का भंडार है क्या ? संपूर्ण विश्व को प्रकाश देते हैं पर रोज सुबह वैसे ही चमचमाते आकाश में विराजमान | तेज इतना कि सूरज की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन |’
एक दिन ओंकार ने सूरज से पूछ ही लिया – “आपके पास इतना प्रकाश, इतना तेज कहाँ से आता है? चंद्रमा घटता – बढ़ता रहता है लेकिन आप तो रोज एक जैसे ही दिखते हो?”
सूर्यदेव मुस्कुराए – बड़े प्रेम से अपनी सुनहरी किरणों से ओंकार के सिर पर मानों हाथ फेरते हुए बोले –“बेटा! मेरा प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यह संपूर्ण विश्व के प्राणियों को जीवन देता है,उनमें चेतना जगाता है। जब मैं बादलों से ढंका रहता हूँ तब भी तुम सबके पास ही रहता हूँ। प्रकाश, तेज, ज्ञान, विद्या, इन्हें नाम चाहे कुछ भी दो,ये ऐसा धन है जो बाँटने से बढ़ता है। जितना ज़्यादा दूसरों के काम आता है उतना बढ़ता जाता है।“
ओंकार प्रफुल्लित हो गया। सूर्य के प्रकाश के भंडार का राज उसे समझ में आ गया था। ओंकार ने यह बात गाँठ बाँध ली थी कि ‘हमें जीवन में खूब मेहनत से ज्ञान प्राप्त कर समाज की सेवा करनी चाहिए, जैसे सूरज करता है अनंत काल से पृथ्वी की |”