(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “शाही विनम्रता“.)
☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘हाय! मैं दिल्ली के तख्ते ताऊस का मालिक, शहंशाहों का शहंशाह, आज बेताज का बादशाह होकर ताजमहल के अंधेरे प्रकोष्ठ में कैद कर दिया गया हूं।’
शाहजहां ने ताजमहल के अंदर कैद होने पर उपरोक्त कथन बड़ी असहाय अवस्था में कहा था – ‘नहीं अब्बा हुजूर– यह कैद थोड़े ही है। मैंने तो आपके जज्बातों की कद्र की है। क्या यह सच नहीं है कि आपके दिल में अम्मा हुजूर के लिए बेइंतेहा प्यार था — और यह कि आप अपने आपको जरा भी दूर नहीं रख सकते इस खूबसूरत संगमरमरी इमारत से’।
‘यहां बेगम हुजूर अपनी तमाम यादगारों के कीमती दस्तावेज लेकर खामोश लेटी हैं — आपकी बेपनाह मोहब्बत प्यार की निशानी इस ताजमहल के प्रकोष्ठ में आपको खुश होना चाहिए शहंशाह आलम।’
शाहजहां के पुत्र ने पिता से विनम्रतापूर्वक वार्तालाप किया और बाहर पहरेदार को कैदी के पैरों में भारी बेड़ियां डालकर सख्त पहरे की हिदायत देकर स्वयं इमारत से बाहर चला गया।
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य।माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक भावप्रवण लघुकथा “डर”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
राज्य की राजधानी की पुलिस लाइन में ”रा” साहब के बंगले पर आज काफी चहल-पहल है। स्टाफ के काफी लोग आज बंगले में विभिन्न काम करते हुये दिखाई दे रहे थे।
पहले आप को इन ”रा” साहब से पहचान करा दें। यह ”रा” यानि राव का लघु रूप है। राव साहब यानि श्री वी के आर सी राव, प्रांत के डी आई जी, नक्सल अभियान। पूरा नाम जानना चाहेंगे- वेमुला कृष्णप्पा रामचंद्र राव!! सारा स्टाफ राव राव बोलता तो जल्दी जल्दी में वह रा साहब सुनाई देने लगा। युवा आई पी एस अधिकारी और इस खतरनाक नक्सली इलाके में विशेष सक्षम अधिकारी के रूप में राजधानी की पोस्टिंग। काम में बहुत तेज तर्रार एवं अनुशासन में कठोरतम। उनके बोलने में बास्टर्ड, फूल, रास्कल, ब्लडी आदि शब्दों का सर्वाधिक उपयोग होता था। बात-बात में नक्सली इलाके में फिंकवाने की धमकी का प्रयोग सामान्य बात थी। अब तक कई सफल मुठभेडों का नेतृत्व भी कर चुके थे। कुल मिलाकर रौबीले और दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे ये ”रा” साहब। बहुत आवश्यक न हो तो सामान्यतः उनके सामने आने से सब कतराते थे।
आज उनके बंगले पर इस चहल-पहल का विशेष कारण है। पिछली रात उनकी मां आंध्र प्रदेश के उनके पैतृक गांव से अपने बेटे के पास आई थी। अभी तक अविवाहित रहे पुत्र से शायद विवाह की बात करने आई थी। अतः खानसामा से लेकर आफिस स्टाफ तक सब बंगले पर मदद हेतु उपस्थित थे।
बंगले के बैठकखाने में राव साहब अपनी माताजी के साथ बैठे थे। दक्षिणी रंगरूप से हटकर गौरवर्ण, तेजस्वी चेहरे पर चष्मा, इस आयु में भी श्याम केशों में करीने से सजी वेणी, ऐसी माता के साथ तेलुगु में संवाद चल रहा था। अंतर यह था कि इस संवाद में मां सतत बोल रही थी एवं पुत्र बस अम्मा, अम्मा, अम्मा इसी से उत्तर दे रहा था। साहब के चेहरे पर सदा दिखने वाला रौद्र भाव न होकर आज एक सौम्यता दिख रही थी।
इससे निवृत्त होकर माताजी अचानक आसपास के कर्मचारियों की ओर देखकर दक्षिणी उच्चारण के साथ बोलीं – सब तोडा इदर आओ। कैसा है तुम लोग? इदर सब टीक लगता ना जी ? अम रामा की अम्मा, इदर पैली बार आया। ये रामा…. बहुत कड़क ना जी ? बहुत गुस्सा करता ??
फिर साहब के निज सचिव अग्रवाल जी को इशारे से पास बुलाया और बहुत प्रेम से उनके सिर हाथ फेरते हुये बोलीं – ये तुमको कुच डांटता तो अमको बोलने का, अम उसकू डांटेगा। ये रामा ना, दिल से बहुत अच्चा है। अमे मालूम, तुम उसका बहुत ध्यान रखता, क्यों रामा, टीक बोला ना ? राव साहब बस मुस्कुरा दिये।
अग्रवाल साहब का कंठ भर आया, उन्हें लगा ज्यों उनकी स्वर्गवासी मां उनके सिर पर हाथ फेर रही हैं, उन्होंने अचानक झुक कर उनके चरण छू लिये।
सारा स्टाफ मौन खड़ा था, उन्हें लगा जिन ”रा” साहब से सारा विभाग डरता है, वे भी किसी से डरते हैं, पर यह डर, प्रेम का डर था।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 126 ☆
☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।
मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।
अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?
नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत विदेशियों से जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?
ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?
जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं, तब इसे सुनकर नौजवान देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे। मैं सबकी प्रिय थी, कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ? हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए, हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।
अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने लगे। उन्होंने आदेश दिया – गवाह पेश किया जाए।
हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।
नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।
हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में नजर दौड़ाई, बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “सह अस्तित्व की भावना“.)
☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
वे दोनों ही कई दिनों से अस्पताल में भर्ती थे। दोनों के बिस्तर भी आमने-सामने थे। उनकी समस्याएं भी तकरीबन एक जैसी थीं। उनके इलाज डॉक्टरों के वश में थे और नहीं भी थे।
दरअसल, एक की दोनों किडनी खराब थीं। एक किडनी मिल जाती तो स्थापित कर दी जाती। किडनी डोनेशन का विज्ञापन अखबारों में एक अर्से से दिया जा रहा था। दूसरे की दोनों आंखें रोशनी के लिए तरस रही थीं। एक आंख मिल जाती तो जीवन सुधर जाता। उसने भी नेत्रदान की अपील अखबारों के माध्यम से की थी।
‘किंतु संभावना शून्य ही है’ – एक दिन एक निराश होकर बोला।
‘इस तरह कब तक अस्पताल का बिल बढ़ाते रहेंगे’।
दूसरा बोला- ‘तो’
‘तो क्या?’
‘मुझे जल्दी ही प्रस्थान करना पड़ेगा। कोई दो-चार महीने में ही।’
‘और मैं कौन सा ज्यादा टिकूंगा, सड़क पर गया और किसी ने मार दी टक्कर।’
‘कोई रास्ता’
‘अच्छा बताओ, तुमने किसी की मदद की है’।
‘इसी में तो इन आंखों की यह दुर्गति हुई है’।
‘मैं तुम्हें एक आंख दान कर दूं तो’!
‘मैं भी तुम्हें एक किडनी देने से नहीं चूकूंगा’।
दूसरे दिन दोनों खुश थे। तरो ताजा भी दिख रहे थे। सह अस्तित्व की भावना से उनके जीवन में बहार जो आ गई थी।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अकल बड़ी कि भैंस“.)
☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘अकल बड़ी कि भैंस’? – मास्टर जी ने पूछा तो किशोर का जवाब था – भैंस बड़ी.
‘यह क्या उल्टा-पुल्टा जवाब दे रहे हो किशोर? मैंने क्या यही अर्थ बताया था तुम्हें.’ मास्टर जी गरम होते हुए बोले.
‘सर हकीकत तो यही है, अब भैंस बड़ी है अकल से, यह स्वीकार कर लेना चाहिए.’
‘कैसे’?
‘मेरे पिताजी बी ए पास थे. नौकरी मांगने चले तो मुंह की खानी पड़ी. चारों कोने चित् गिरे.’
‘अच्छा फिर!’
‘फिर क्या? भैंस के तबेले से जुड़ गए. अब पूरी एक दर्जन भैंसे हैं हमारे तबेले में.’
‘भाई वाह!’.
‘जी हां, भैंसें बाकायदा अकल को मुंह चिढ़ाती रहीं. हम लोग आगे बढ़ते रहे.’
‘बड़ी दिलचस्प कहानी है–आगे बढ़ो.’
‘अब हमारे पास एम ए पास तबेले का मैनेजर है. वह बेचारा एक पाव दूध भी मुश्किल से खरीद पाता था. काली चाय पीकर गुजारा करता था. अब उसके पास दो मुर्रा भैंसें हैं और वह पिताजी का पार्टनर बन गया है.’
‘गोया- लब्बोलुबाब यह है कि भैंसें उसकी जिंदगी बना रही हैं.’ मास्टर जी ने पूछा?
‘जी सर. इसलिए तो मैं कह रहा हूं की भैंस बड़ी है अकल से, पुरानी कहावत बदली जानी चाहिए गुरुवर.’
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “लीडरी“.)
☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।
भेड़िया गुर्राया – ‘गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।’
‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’
भेड़िया गुर्र्रा कर बोला – ‘चोप्प।’
‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’
‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’
अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया – ‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’
अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी। तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली –
‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’
‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’
भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला – ‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’ लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली- ‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’
भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 125 ☆
☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मेरी नजर उसके पैरों पर थी। तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता।
‘पैसेवाले घरों की लड़कियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं।‘ एक दिन वह सामने पड़ा तो मैंने उससे कुछ पूछे बिना चप्पल खरीदने के लिए पैसे दे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए। दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। ‘अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे? चप्पल क्यों नहीं खरीदी?’ मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – ‘पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम!’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा “बहुरूपिया ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 168 ☆
☆ लघुकथा – 🥳 बहुरूपिया 🥳☆
पुराने समय से चला रहा है। वेष बदलकर, वेशभूषा धारण कर, कोई भगवान, कोई महापुरुष, कोई वीर सिपाही, कोई जीव जानवर, तो कोई सपेरा, भील का रूप बनाकर भीख मांगते गांव, शहर, सिटी, और महानगरों में देखे जाते हैं। विदेशों में भी इसका प्रचलन होता है, परंतु थोड़ा बनाव श्रृंगार तरीका कुछ अच्छा होता है। पर यह होता सिर्फ पेट भरने और जरूरत का सामान एकत्रित करने के लिए या मनोरंजन के लिए।
जीविका का साधन बन चुका है। जो सदियों से बराबर चल आ रहा है। ऐसे ही आज एक महानगर में बहुत बड़े सभागृह में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर पांच वर्ष से कम के बच्चों का फैशन शो चल रहा था। जिसमें श्री कृष्ण और राधा रानी बनाकर, सभी मम्मी – पापा अपने-अपने बच्चों को ले जा रहे थे। बिटिया है तो राधा रानी और बालक है तो श्री कृष्ण।
सभी एकत्रित हो रहे थे। वहीं पास में एक बहुरूपिया खंजर परिवार डेरा डाले हुए था। उसमें एक महिला जिसके पास एक छोटा बच्चा था। लगभग पांच वर्ष का, जो देखने में अद्भुत सुंदरता लिए था।
महिला थोड़ी बहुत जानकारी रखती थी और थोड़ी पढ़ी लिखी थी उसने अपने बेटे को कौड़ियों और जो भी सामान उसके पास था, मोर पंख, रंगीन कागज स्याही रंग और बाँस की बाँसुरी रंगीन, कपड़े के टुकड़े से सिला हुआ छोटा सा कुर्ता – धोती और सिर पर साफा बांधकर बैठा कर देख रही थी।
जो भी वहां से निकलता उसे पलट कर जरूर देखते और अपने बच्चों की ओर देखा कहते… यह तो बहुरुपिया है। इसका काम ही ऐसा होता है।
महिला कई सभ्य लोगों से सुन सुन कर खिन्न हो चुकी थी। एक आने वाले सज्जन के सामने जाकर खड़ी हो गई। जो चमचमाती कार से निकाल कर खड़े हुए थे। 🙏उसने हाथ जोड़कर सीधे बोली… साहब जी क्या?? यह जो बच्चे सजे धजे ले जा रहे हैं। इनके बच्चे और मेरे बच्चे में कोई अंतर है। आखिर ये सब भी तो बहुरुपिया ही कहलाए।
बस शर्त यह है हम अपना पेट पालन करते हैं। इस काम से रोजी-रोटी चलती है। और आप लोग इसे फैशन शो कहते हैं। सज्जन ने सिर से पांव तक महिला को देखा और उसके बच्चे को देखा… पूर्ण कृष्ण के रुप से सजा वह बच्चा वास्तव में बालकृष्ण की वेशभूषा पर अद्भुत सुंदर दिख रहा था। थोड़ी ही देर बाद लाल कारपेट से चलता हुआ बच्चा उस सज्जन की उंगली पकड़े सभागृह में पहुंच गया।
निर्णायक मंडल का निष्पक्ष निर्णय बहुरुपिया कान्हा प्रथम विजेता।🎁🎁
(मागील भागात आपण पहिले – ‘‘नाही गं, काय तरी काय?’’ असे म्हणत माधुरीने फाईलमध्ये लक्ष घातले. पण त्या फाईलमध्ये तिचे लक्ष कोठे लागायला ? माधुरीच्या लक्षात आल प्रतिकचे दोन फोन येऊन गेले कालपासून या गडबडीत त्याचा फोन घेणे काही जमले नाही. तिने त्यास सायंकाळी ५ वाजता वैशाली कॅफेमध्ये भेटूया असा मेसेज केला. – आता इथून पुढे)
सायंकाळी माधुरी वैशालीवर पोहोचली तेव्हा प्रतिक तिची वाटच पाहत होता. ती दिसताच त्याने कॉफीची ऑर्डर दिली. त्याच्या समोर बसताच माधुरी बोलू लागली, ‘‘सॉरी प्रतिक, कालपासून कामात होते, नेने सरांनी एका केसची जबाबदारी माझ्यावर सोपवलीय, तुला आठवत असेल दोन महिन्यापूर्वी सोलापूर रोडवर सकाळच्यावेळी माजी पोलीस अधिक्षक चौहान साहेबांची झालेली हत्या,’’
‘‘हो तर, आठवतं तर! मी रोज त्याच रोडने ऑफिसला जातो. हत्येमुळे त्या दिवशी रस्ता बंद केलेला त्यामुळे मी दोन तास उशिरा पोहोचलो ऑफिसात.’’
‘‘त्याच हत्येमधील पकडलेला आरोपी जय सरकार ची केस कोर्टाने नेने असोशिएटस् कडे पाठविली आहे. आणि नेने सरांनी ती केस माझ्याकडे दिली आहे. म्हणजे कोर्टात मी जयची बाजू मांडणार’’
‘‘मग त्याकरिता त्या खुन्याला तुला भेटावं लागणार?’’ – प्रतिक
‘‘होय, काल नेनेसरांबरोबर भेटले मी त्याला. विलक्षण अनुभव होता तो. आणि माधुरी जयची पार्श्वभूमी, कलकत्त्यातील आंदोलन चिरडणारे अधिक्षक चौहान आणि गोळीबारात तीसजन मृत्युमुखी, त्यात जयची बहिण तनुजा मृत्युमुखी आणि त्याचा बदला घेण्यासाठी पुण्यात आलेले विश्वास आणि जय हे सर्व प्रतिकला सांगत सुटली. हे बोलताना जय बद्दल माधुरी एवढे भरभरुन बोलायला लागली की तिला त्याचे भानच नव्हते. तिचे दहा मिनिटे जय बद्दल भरभरुन बोलणे ऐकून प्रतिक उद्गारला, ‘‘माधुरी तू एका खुन्याबद्दल बोलते आहेस की प्रियकराबद्दल?’’
माधुरी दचकली. मग हळूच म्हणाली, ‘‘खरचं प्रतिक, कुणीही प्रेमात पडावं असाच आहे जय’’ एवढं म्हणून माधुरी गप्प झाली. मग ती आपल्याच विचारात मग्न झाली. प्रतिकच्या लक्षात आले. आता माधुरी मुडमध्ये नाहीय. तो पण गप्प राहिला.
रात्रौ बेडवर पडल्यापडल्या माधुरी सकाळचे सुवर्णाचे बोलणे आठवू लागली – ‘‘माधुरी तू जयच्या प्रेमात पडलीस की काय?’’ सायंकाळी प्रतिक म्हणाला, ‘‘माधुरी तु एका खुन्याबद्दल बोलते आहेस की प्रियकराबद्दल?’’ माधुरी विचार करु लागली. खरंच मी जयच्या प्रेमात पडले की काय? जयच्या आठवणीने ती मोहरली. त्याच्या सोबतच्या काल्पनिक विश्वात रमली. एवढ्यात तिला आठवले. अरे ! जय, चौहान हत्येतील आरोपी आहे आणि काही आश्चर्य झाले नाही तर त्याला फाशी… माधुरी दचकली. आपले लग्न प्रतिकशी ठरले आहे. मग आपल्या मनाची अशी द्विधा परिस्थिती का झाली आहे? छे ! छे !! जयचा विचार मनातून काढून टाकायला हवा. माधुरीने एक पुस्तक वाचायला घेतलं. पुस्तक वाचता वाचता झोप यावी म्हणून, पण आज झोपही तिच्यावर रुसली. नेहमी तिच्यावर प्रसन्न असलेल्या झोपेचा आज लपंडाव सुरु होता आणि रात्रभर जय तिचा पिच्छा सोडत नव्हता. पहाटे चारच्या सुमारास ती दचकून जागी झाली. तेव्हा तिच्या स्वप्नात आपण जयसोबत वैशालीमध्ये कॉफी पित होतो असे होते. मग तिला आठवले आज सायंकाळी प्रतिकसोबत आपण वैशालीमध्ये कॉफी प्यायलो. मग स्वप्नात प्रतिक यायचा सोडून जय का आला ? फक्त एकदाच जय तुरुंगात सशस्त्र पोलीसांसोबत आणि नेनेसरांसोबत भेटला. त्यातील दोन किंवा तीन वाक्ये आपल्यासोबत बोलला असेल तरीही पूर्ण शरीरभर,मनभर तो व्यापून का गेला? असे का व्हावे ? तो देखणा होता म्हणून ? अत्यंत कुशाग्र बुध्दीचा होता म्हणून ? छे छे ! आपली आयुष्याची सव्वीस वर्षे पुण्यासारख्या शहरात गेली. नूतन मराठी सारखी शाळा, एस.पी. सारखं कॉलेज, प्रायोगिक नाट्य ग्रुप्स, लॉ-कॉलेज मध्ये कितीतरी देखणे, हुशार, श्रीमंत तरुण आजुबाजूला होते. कित्येकजण मित्र होते. अनेकांना आपल्याशी मैत्री वाढवायची होती. पण आपण कुठेच अडकलो नाही. दोन महिन्यापुर्वीच नात्यातल्या प्रतिकचे स्थळ आले आणि त्याचे आईबाबा आणि आपले आईबाबा यांच्या संमत्तीने प्रतिकशी लग्न ठरले. आपले आजपर्यंतचे आयुष्य सरळ रेषेत गेलेले. पण दोन दिवसापूर्वी जय समोर आला आणि मनातल्या समुद्रात वादळ शिरले.
सकाळी उठल्याबरोबर माधुरीने निश्चय केला आपल्याला जयच्या आठवणीपासून दूर जायला हवे, तो आपला अशिल आहे एवढेच लक्षात ठेवायचे. ऑफिसमध्ये गेल्यागेल्या तिने नितीनला भेटायला बोलावले आणि जय आणि विश्वास संबंधात जी कागदपत्रे जमवायला सांगितली होती त्यासंबंधी आढावा घेतला. अजूनही पुराव्यातल्या त्रुटी शोधायला सांगितल्या. नेने सरांचा तिला मेसेज आला. बहुतेक चौहान हत्येची केस पंधरा दिवसात स्टॅण्ड होणार. त्यामुळे आपली तयारी लवकर करायला हवी. माधुरीला वाटायला लागले आपण जयच्या आईवडीलांना भेटायला हवे. त्याचे आणखी कोण जवळची मंडळी असतील त्यांना भेटायला हवे. कोण जाणे काही तरी नवीन माहिती मिळायची. माधुरी नेने सरांच्या केबिनमध्ये गेली. ‘‘सर, मला वाटतं मी बंगालमध्ये जाऊन जयच्या आईवडीलांना भेटायला हवे. त्याची कोण जवळची मंडळी असतील त्यांनासुध्दा भेटायला हवे.’’
‘‘माधुरी, तुला मी मागेच बोललो होतो, जयच्या नातेवाईकांना एकदा भेटणे योग्यच. तू येत्या शनिवारी कलकत्त्याला जाऊ शकतेस काय? कलकत्त्यात माझे मित्र आहेत सुब्रतो नावाचे. त्यांची लॉ फर्म आहे. ते सर्व व्यवस्था करतील. मी मनालीला सांगतो तुझी तिकिटे बुक करायला. मला उद्या भेट.’’ दुसर्या दिवशी मनालीने माधुरीची कलकत्ता जायची यायची तिकिटे तिच्याकडे दिली. शनिवारी सायंकाळी ५च्या सुमारास कलकत्ता विमानतळाबाहेर आली तेव्हा सुब्रतोंची सेक्रेटरी सुप्रिया तिची वाटच पाहत होती. सुप्रियाने तिला हॉटेलपाशी नेले आणि जयच्या गावी जाण्यासाठी सहावाजता गाडी घेऊन येते, प्रवास चार तासांचा आहे आणि जय च्या आईवडीलांना पुण्याहून नेने असोशिएटस् तर्फे माधुरी सामंत भेटायला येणार असल्याचे कळविल्याचे सुप्रिया म्हणाली.
सकाळी ६ वाजता सुप्रिया ड्रायव्हरसह हजर झाली तेव्हा माधुरी तयारच होती. माधुरी सुप्रियाशी हिंदीत बोलायला लागली. ‘‘सुप्रिया पुण्यामध्ये जी पोलीस अधिक्षक चौहान यांची भररस्त्यात जी हत्या झाली आणि विश्वास चक्रवर्ती जागेवरच मारला गेला आणि जय सरकार पकडला गेला याबाबत इकडची प्रतिक्रिया काय?’’
सुप्रिया – ‘‘माधुरी खरं सांगू, चौहानांबद्दल बंगालच्या लोकांना कमालीचा राग होता, त्यांची पोलीस अधिक्षक कारकीर्द अरेरावीची होती. मोटर कारखान्यांच्या विरोधात जे आंदोलन झाले ते चिरडून टाकण्यासाठी त्यांनी गोळीबाराची ऑर्डर दिली आणि तरुण कॉलेजमधली मुलं मारली गेली. चौहानांचा खून झाल्याचे कळताच लोकांना आनंद झाला पण विश्वास, जय सारखी तरुण मुलं पोलीसांच्या तावडीत मिळाली याचे लोकांना वाईट वाटले.
चार तासांचा प्रवास करुन माधुरी आणि सुप्रियाने जयच्या गावात प्रवेश केला. आणि थोडीफार चौकशी केल्यानंतर त्यांची गाडी घरसमोर आली. त्या घराकडे माधुरी एकटक पाहत राहिली. छोटासा बंगला होता. बाहेर हिरवळीवर तरुण मुलं-मुली हातात कागदपेन घेऊन बसले हाेते. काहीजण घरातून बाहेर ये-जा करत होते. माधुरी आणि सुप्रिया हिरवळीवरुन चालत घराच्या दिशेने निघाल्या तेव्हा एक तरुण मुलगी बाहेर आली आणि सुप्रियाशी बंगालीत बोलू लागली आणि दोघींना आत बेडरुमध्ये घेऊन गेली. माधुरी बसलेल्या खोलीचे निरीक्षण करत होती. रविंद्रनाथ टागोरांचा एक मोठा फोटो होता. त्याच्याकडे पाहत असतानाच जयचे आईबाबा खोलीत आले. माधुरीच्या लक्षात आले. जयने आईचा तोंडवळा आणि बाबांची उंची घेतली आहे.
‘‘नमस्कार, मी माधुरी सामंत, पुण्याच्या नेने असोशिएट्स मधील वकील’’
‘नमस्ते, तुम्ही येणार याची कल्पना सुब्रतोच्या ऑफिसमधून दिली होती. तुम्ही जयचे वकिलपत्र घेतले? का ? त्याने चौहानांच्या हत्येचा कबुलीजबाब दिला आहे ना पोलीसांकडे ?’
‘‘जयने कबुली जबाब दिला असला तरी माननीय कोर्टाने जयच्या वतीने कोर्टात केस चालविण्याची विनंती केली आणि नेने असोशिएटस् ने ही केस चालविण्यासाठी माझी नियुक्ती केली.
जयचे वडील म्हणाले, ‘पण एवढे लांब येण्याचे कारण?’
‘‘आम्ही जयच्या सुटकेसाठी सर्व प्रयत्न करणार. चौहान हत्येसंबंधात काही नवीन माहिती मिळते का याकरिता मी इकडे आले.’’
‘या माहितीचा फारसा उपयोग होणार नाही माधुरी. जयने पोलीसांकडे हत्येचा कबुली जबाब दिला आहे आणि कोर्टात सुध्दा तो हत्येची कबूली देईल. तो बंगालमधील सरकार घरण्यातील मुलगा आहे. आम्ही मरणाला घाबरत नसतो. माधुरीचा नाईलाज झाला. या हत्येबद्दल जयचे आईबाबा फारसे बोलायला उत्सुक नव्हते. मग माधुरीच आजुबाजूला जमलेल्या तरुण मुलांकडे पाहून म्हणाली, ‘‘ही तरुण मंडळी कशाला जमली आहेत?’’
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “जज्बा“.)
☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
(१६ दिसंबर से पहले)
शहर के पार्क में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां, सुबह-सुबह इकट्ठे होकर योगाभ्यास किया करतीं.
सब कुछ ठीक-ठाक होता पर ‘सिंह आसन’ में जीभ बाहर निकालकर हुंकार करने के प्रयत्न में कमजोर पड़ जातीं. मैं अक्सर सोचता ‘सिंह आसन’ में आखिर ये सब शेरनी जैसा दमखम कहां से लाएंगीं भला. मुंह से करारी आवाज निकलेगी तब न, महिलाएं पुरुषों जैसा साहस कहां से लाएंगीं आखिर आखिर.
(16 दिसंबर के बाद)
कुछ दिनों बाहर रहने के बाद पुन: शहर लौटा, तब तक दिल्ली में निर्भया के साथ वह भीषण वहशी कांड हो चुका था. उस रूह कंपकंपाने वाली दास्तान से पूरा देश उबल रहा था. महिलाओं-युवतियों ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा दी थी.
मैं फिर एक दिन उसी पार्क में था. महिलाओं का सिंह आसन चल रहा था. पहले की अपेक्षा इस बार का दृश्य पूरी तरह बदला हुआ था. अपनी लंबी जीभ निकाले यह वामा दल शेरनियों में तब्दील हो चुका था. मानो, किसी ने इन्हें छेड़ने की हिमाकत की तो यह सब चीर फाड़ कर रख देंगीं. निर्भया के बलिदान ने इन्हें इतना निर्भय तो कर ही दिया था.
– और तब मेरा हाथ इन्हें सलाम करने की मुद्रा में अपने आप ऊपर उठ गया था.