हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #206 – 92 – “कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब…”)

? ग़ज़ल # 92 – “कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

इश्क़ज़दा चेहरों के रंग बदल जाते हैं।

वक़्त बेवक्त सबके ढंग बदल जाते हैं।

माशूक़ का  चेहरा खिला सुर्ख़ ग़ुलाब,

ख़ाली बटुआ देख संग बदल जाते हैं।

ज़िंदगी में पत्थर तो हम सभी उठाते हैं,

मुलज़िम सामने देख संग बदल जाते हैं। 

सियासती चेहरों के रंग को क्या कहिए,

दाँव लगता देख रंग ढंग बदल जाते हैं।

मौत की सज़ायाफ़्ता क़ैद में सब ज़िंदगी,

कर्मों हिसाब  कूच के जंग बदल जाते हैं।

कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब,

क़ज़ा की चौखट सबके रंग बदल जाते हैं।

मुहब्बत सियासत में सब जायज़ ‘आतिश’

चाल के मुताबिक़ सबके ढंग बदल जाते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुरारी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मुरारी ??

काल बावरा 

मेरी देह में 

मुझे तलाशता रहा,

मुरारी की मानिंद 

मेरा शब्द संसार,

काल के माथे पर 

नाचता रहा! 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना  बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 82 ☆ मुक्तक ☆ ।। जिन्दगी जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 82 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। जिन्दगी जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जिन्दगी रोज़ थोड़ी थोड़ी व्यतीत हो     रही है।

कुछ कुछ जिन्दगी रोज़  ही  अतीत हो   रही है।।

जिन्दगी जीते नहींआज हमें जैसी जीनी चाहिये।

कलआएगी मौत सुनके बस भयभीत हो रही है।।

[2]

कांटों से करलो दोस्ती गमों से भी याराना करलो।

हँसने बोलने को कुछ न कुछ तुम बहाना करलो।।

मायूसी मान लो रास्ता है बस इक जिंदा मौत का।

हर बात लो नहीं दिल पर मिज़ाज़ शायराना करलो।।

[3]

जिंदगी जीनी चाहिये कुछ अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।

हवा चल रही होउल्टी फिर भी खुशनुमा मिज़ाज़ से।।

मिलती नहीं है खुशी बाजार से किसी मोल  भाव में।

बस खुश हो  कर ही जियो तुम हर एक लिहाज से।।

[4]

सुख से जीना है तो उलझनों को तुम  सहेली बना लो।

मत हर छोटी बड़ी बात को   हमेशा पहेली बना लो।।

समझो जिन्दगी की हर बात  और जज्बात को तुम।

नाचेगी इशारों पर तुम्हारे जिंदगीअपनी चेली बना लो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 147☆ बाल गीतिका से – “अपना भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “अपना भारत…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “अपना भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अपना भारत है सबसे पुराना दुनिया का एक अद्भुत खजाना

पेड़, पर्वत, नदी और नाले, खेत, खलिहान वन सब निराले

यहीं गंगा है औ’ वह हिमालय जिसको दुनिया ने बेजोड़ माना ॥

इसकी धरती उगलती है सोना, कला हाथों का मानो खिलौना

आज नई रोशनी में भी दिखता इसका इतिहास सदियों पुराना ॥

,

जो विदेशों से भी यहाँ आये,  वे भी बस गये, रहे न पराये

लोगों में है मोहब्बत कुछ ऐसी, जानते सबको अपना बनाना ॥

गाँवों में आज भी है सरलता, नगरों में तो है नव युग मचलता ।

बढ़ते – विज्ञान को भी हमें ही प्रेम का रास्ता है दिखाना

गाँधी-नेहरू का जैसा था सपना, बनाना वैसा भारत है अपना ।

 हमें मिल जुल के बढ़ना है आगे, देखकर के बदलता जमाना ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जीवनदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – जीवनदर्शन ??

पहले आती थीं चिड़ियाँ,

फिर कबूतरों ने डेरा जमाया,

अब कौवों का जमावड़ा है..,

बदलते दृश्यों को मन के

पटल पर उतार रहा हूँ मैं,

घर की बालकनी में खड़ा

जीवन निहार रहा हूँ मैं..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 8:37 बजे, 1अप्रैल 2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #198 ☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी विशेष – दो कविताएं  [1] शतरुपा माँ [2] यादें ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी माताश्री डॉ गायत्री तिवारी जी के लिए आपकी  शब्दांजलि।

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुमाता डॉ गायत्री तिवारी जी को सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि 💐

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 198 – साहित्य निकुंज ☆

☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी विशेष – दो कविताएं  [1] शतरुपा माँ [2] यादें – डॉ भावना शुक्ल ☆

(8 सितंबर पूज्य माँ डॉ गायत्री तिवारी की पुण्य तिथि पर विशेष)

[1] 

💐 शतरुपा माँ 💐

माँ तुम हो

शक्ति स्वरूपा

गायत्री रूपा

तुममें है भक्ति अपार

तुम जन्मदात्री हो

तुमसे है संसार

 

माँ तेरे आँचल में हैं सारे सपने

माँ तू है तो सब कुछ

तू नहीं तो

बेगाने लगते हैं अपने

तेरे न रहने का एहसास

दिखता है आसपास

खो गए हैं मेरे अपने

तेरे आँचल में समा गए हैं मेरे सपने….

 

माँ अपने दिल में पाती

बेटी की धड़कन

बेटी के लिए है माँ गले का हार

हर एक त्यौहार

बेटी में बसती है।

माँ करती है सब कुछ कुर्बान।

 

[2]

💐 यादें 💐

माँ की

अंतस में बसी यादें

पुकारती हैं

कसमसाती है

बुलाती है

 माँ को…

 

बस एक बार तो आ जाओ तुमसे कुछ कहना है

बिना कहीं

 बिना सुने

कहां चली गई माँ

बस एक बार आ जाओ

हम सबकी मुस्कुराहटें लाओ

 

इतनी जल्दी क्या थी जाने की जीवन से रूठ जाने की

क्या दुख था ?

केवल सुख था

पिता का प्रतिष्ठित रूप

था आपके अनुरूप

कुछ समय रुक जाती

सुख के क्षणों को और जी लेती

माँ बस एक बार तो आ जाओ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #183 ☆ संतोष के दोहे – “सावन” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – “सावन”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 182 ☆

☆ संतोष के दोहे  – “सावन”  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सावन आया झूमकर, मन में उठे तरंग

शीतल पवन झकोर से, पुलकित सारे अंग

साथ पिया का जब मिले, तन पर चले न जोर

हर्षित मन हो बाबरा, होता भाव विभोर

प्रेम सदा ऐसे करें, जैसे चाँद- चकोर

सीख प्रेम की दे रहा, बन सबको चितचोर

मोहक छवि है श्याम की, कृष्ण बड़े चितचोर

राधा का मन हरण कर, चले द्वारिका ओर

पिय की मीठी बात से, हिय में उठे हिलोर

खुशियाँ नर्तन कर उठें, चाहत है पुरजोर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सच  ??

कई पैरों पर खड़ा

झूठ लड़खड़ाता रहा,

सच अंगद-सा

एक पाँव पर डटा रहा..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 11:35 बजे,  21.10.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #15 ☆ कविता – “जंग…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 15 ☆

☆ कविता ☆ “जंग…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

बादलों के ये रंग देखें

सितारे जंग में जलते देखें

जहां सुलगते चांद चमके

वहीं बुझते सूरज देखें

 

प्यार में कोई पागल देखें

बिगड़े इश्क़ में बनते देखें

कहीं मोहब्बत फूल महके

कहीं मजनुओं के जनाजे देखें

 

घर में सैकड़ों गिरफ्तार देखें

कोई बन में बसते देखें

फूल छांव में बेबस खिले

कहीं धूप सेकते कांटे देखें

 

भेस में ख़ुदा के शैतान देखें

कभी शैतानों के इरादे नेक देखें

बैठें कहीं अस्ल शरमाते

कहीं झूठ पर खिलते जोबन देखें

 

जिंदगी के जहर मीठे देखें

मौत में कड़वे अमृत देखें

यहां मसीहों पर कांटे सजते

कहीं फूलों पर भी कहर देखें

 

दुनिया के ये मेले देख ले

मेले की ये जंग समझ ले

हक़ की तू समशीर उठा ले

खुद से लड़ लड़ के फ़तह पा ले….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 175 ☆ बाल कविता – मकड़ी रानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 175 ☆

☆ बाल कविता – मकड़ी रानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मकड़ी रानी चली सैर को

दीवारों के ऊपर

जिस कोने में मिली गंदगी

खुद बुना जाल से घर

 

भूख लगी थी उसे जोर की

ढूँढे मक्खी , मच्छर

सुबह से निकली शाम हो गई

नहीं मिला था अवसर

 

सोच रही वह लेटी- लेटी

कैसे भूख मिटाऊँ।

पेट किलोलें करता मेरा

प्रभु से आस लगाऊँ।।

 

चुपके से निकली शिकार को

दिखीं चींटियाँ उसको।

पकड़ीं उसने कई चींटियाँ

लिए चली वह घर को।।

 

भूख मिटाई, तृप्त हुई वह

श्रम से मिलता खाना।

समझ गई जीने का ढंग वह

जीवन कटे सुहाना।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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