हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 23 ☆ सूखे मौसम का गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूखे मौसम का गीत…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 23 ☆ सूखे मौसम का गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवाओं की चाल टेढ़ी

नहीं है मौसम सुहाना

बेसुरा गाने लगे बादल।

 

धरा सूखे वसन लेकर

नदी के तट पर खड़ी है

छन रही है छानियों से

धूप आँगन में पड़ी है

 

छाँव तक खोजे ठिकाना

बहुत तरसाने लगे बादल।

 

मेंड़ पर बैठे उपासे

खेत करते हैं जुगाली

धान के पौधे उनींदे

सो गए रखकर कुदाली

 

दुख उभर आया पुराना

उमर उलझाने लगे बादल।

 

तरस खाकर आ गया है

भीगी यादें लिए सावन

आँसुओं की पकड़ उँगली

झर रही है प्रीत पावन

 

मोल राखी का चुकाना

भूल,भरमाने लगे बादल।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ चार क्षणिकाएं  ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

चार क्षणिकाएं ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

1-

भूतपूर्व उग्रवादी

विधायक बन गये

अच्छा किया

पुराने उद्योग को

नया नाम दे दिया।●

 

2-

पर्यावरण पर

टनों लिखो

पुरस्कार पाओ।

पर

एक ग्राम अपनी

आदत में भी मिलाओ।●

 

3-

कागज कलम

साथ है

तो लिखते चले जाओगे

सोचोगे नहीं

वक्त के भी हाथ हैं।●

 

4-

और तेज दौड़ो

पसीना बहाओ।

साहित्य को

हाशिए से

पूरे पेज पर ले आओ।●

♡♡♡♡♡

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आजकल टूटते ज़रा में घर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजकल टूटते ज़रा में घर“)

✍ आजकल टूटते ज़रा में घर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

वोट क्या सिर्फ रहनुमा लोगे

हम गरीबों की कब दुआ लोगे

 

 टेक्स में भरने कुछ नहीं साहिब

तन की चमड़ी भी क्या नुचा लोगे

 

आजकल टूटते ज़रा में घर

राम ही चाहें तो बचा लोगे

 

देखलो करके कोशिशें सारी

ये बहम है मुझे भुला लोगे

 

चूकना मत कभी मिला अवसर

ये न मुमकिन है फिर से पा लोगे

 

पूछ बढ़ती तभी जमाने में

अपना रुतवा अगर बना लोगे

 

आइना मैं अरुण दिखा देता

डर था नजरों से तुम गिरा लोगे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 19 – उत्तरों का सन्नाटा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – उत्तरों का सन्नाटा है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 19 – उत्तरों का सन्नाटा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

है प्रश्नों का शोर

उत्तरों का सन्नाटा है 

दुर्घटना दस्तक देती है 

रोज किबाड़ों पर 

मँहगाई की मार

अपाहिज सूखे हाड़ों पर 

हाल गरीबों का मत पूछो

गीला आटा है 

सारे प्रत्याशी 

चौखट पर शीश झुकाते हैं 

विजयी होने पर वे ही 

फिर नजर न आते हैं 

उनका भू-पर नहीं

गगन में सैर सपाटा है 

जो थी अपने पास 

लुटा दी ममता की दमड़ी 

वाट जोहती अब 

आशा की मुरझाई चमड़ी 

वृद्धाश्रम में छोड़

पुत्र भरता फर्राटा है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 96 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 96 – मनोज के दोहे… ☆

झकोर

उमस पूर्ण वातावरण,आई पवन झकोर।

सुख शीतलता दे गई, मन आनंद विभोर।।

विभोर

मानस की चौपाइयाँ, तन-मन करे विभोर।

तुलसी जी का ग्रंथ चहुँ, लुभा रहा चितचोर।।

चकोर

प्रेमी के मन में बसा, प्रियतम चाँद चकोर।

चंद्रयान ने कर दिया, अंत-भ्रमित का शोर।।

चितचोर

आंतरिक्ष में रच दिया, भारत ने इतिहास।

बना विश्व चितचोर यह, अनुसंधानी खास।।

हिलोर

चंद्रयान थ्री ने दिया, विश्व जगत में मान।

उठती हृदय हिलोर है, भारत हुआ महान।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शिक्षक दिवस विशेष – मेरे शिक्षक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

शिक्षक दिवस पर पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि – मेरे शिक्षक-(2) ??

स्मृतियों का चक्र चल रहा है, याद आ रहा है 1980 और खडकी, पुणे स्थित मिलिटरी फॉर्म हाईस्कूल। मैं दसवीं में था। विद्यालय में दसवीं का यह पहला बैच था।

इस विद्यालय ने जीवन को ठोस आकार दिया। प्रधानाध्यापक के रूप में श्रद्धेय सत्यप्रकाश गुप्ता सर मिले जिनकी पितृवत छाया हमेशा सिर पर रही। कक्षाध्यापिका के रूप में सौ. हरीश भसीन मैडम मिलीं जो ऊपरी तौर पर सख़्त रहतीं पर भीतर से मोम थीं। इतिहास शिक्षिका के रूप में सौ. अमरजीत वालिया मैडम मिलीं जिन्होंने विद्यालय में अधिकांश समय मेरे लिए माँ की भूमिका निभाईं। सौ. आरती जावड़ेकर मैडम ने भीतर के कलाकार को विस्तार दिया। इन सबसे जुड़ी घटनाओं का भविष्य में किसी स्मृति लेख में उल्लेख होगा, आज की घटना के केंद्र में हैं देशमाने सर।

देशमाने सर, पंवार सर, गाडगील सर, उस्मानी सर का विद्यालय में चयन हमारे नौवीं उत्तीर्ण होने के बाद हुआ था। ज़ाहिर था कि दसवीं में अनेक शिक्षक हमारे लिए नये थे। इन नए शिक्षकों में देशमाने सर सर्वाधिक अनुभवी और वरिष्ठ थे।

देशमाने सर अँग्रेज़ी पढ़ाते थे। अध्यापन उनकी रगों में कूट-कूटकर भरा था। अनुभव ऐसा कि बिना पुस्तक खोले ‘पेज नं फलां, लाइन नं फलां, बोर्ड की परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है’, बता देते। वे हरफनमौला थे। ‘खेल-खेल में अध्यापन’ के जिस मॉडल के मूलभूत तत्वों पर हम आज सेमिनार करते हैं, वे आज से चार दशक पूर्व उसे जीते थे। अपने कुछ निजी कारणों से वांछित तरक्की नहीं कर पाए। इसे भूलाकर सदा कहते, ‘कोई माने न माने, हमें तो देश मानता है।’

अलबत्ता देश के स्तर पर अपनी पहचान स्थापित करने की चाह रखने वाले देशमाने सर ने एक घटनाक्रम में मुझ विद्यार्थी के स्वतंत्र अस्तित्व को ही मानने से इंकार कर दिया था।

हुआ कुछ ऐसा कि शिक्षक दिवस निकट था। मैं दसवीं और नौवीं के छात्रों को साथ लेकर एक सांस्कृतिक आयोजन करवा रहा था। संभवतः सर ने पहले के विद्यालयों में वर्षों सांस्कृतिक विभाग का काम देखा हो। फलतः मन ही मन मुझसे कुछ रुष्ट हो गये हों। सही कारण तो मैं आज तक नहीं जानता पर आयोजन से एकाध दिन पहले वे धड़धड़ाते हुए रिहर्सल वाले क्लासरूम में आए और मेरी क्लास लेने लगे। बकौल उनके मुझे उनसे आयोजन के लिए मार्गदर्शन लेना चाहिए था। आयोजन चूँकि शिक्षक दिवस का था, शिक्षकों के लिए था, हम विद्यार्थी उसे ‘सरप्राइज’ रखना चाहते थे। हम लोग किशोर अवस्था में थे। सर के अप्रत्याशित आक्रमण ने स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुँचाई। हमने बड़े परिश्रम से कार्यक्रम तैयार किया था। जुगाड़ लगाकर आवश्यक वेशभूषा की व्यवस्था भी की थी। मैंने इस क्लेशदायी घटना का विरोध जताने के लिए स्कूल यूनिफॉर्म में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया। छात्र समूह अंगद के पाँव की तरह मेरे साथ खड़ा था।

शिक्षक दिवस का कार्यक्रम प्रभावी और बेहद सफल रहा। बहुत प्रशंसा मिली। कार्यक्रम के बाद मैदान से हम अपनी-अपनी कक्षाओं में लौट रहे थे। मैं प्रसन्न तो था पर दुख भी था कि वेशभूषा के साथ किया होता तो प्रभाव और बेहतर होता।

अपने विचारों में मग्न चला जा रहा था कि एक स्वर ने रोक दिया। यह देशमाने सर का स्वर था। मुझे ठहरने का इशारा कर वे गति से मेरी ओर आ रहे थे। अपरिपक्व आयु ने सोचा कि कृति से तो उत्तर दे दिया पर अब इन्होंने कुछ कहा तो शाब्दिक प्रत्युत्तर भी दिया जाएगा। देशमाने सर निकट आए, हाथ मिलाया, बोले, ”तूने मुझे ग़लत साबित कर दिया। मैं तेरी प्रतिभा से आश्चर्यचकित हूँ। ” मैं सन्न रह गया। समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ? कुछ रुक कर गंभीर स्वर में बोले, ”लेकिन संजय बेटा!मेरी एक बात याद रखना।….जीवन में तू जिनके साथ चलेगा, वे थोड़े दिनों में तेरे दुश्मन हो जायेंगे।….तेरे चलने की गति बहुत तेज़ है। साथ के लोग पीछे छूटते जाएँगे। जो पीछे छूटेंगे, वे दुश्मन हो जायेंगे।”

तब सर का वाक्य समझ में नहीं आया था। आज अड़तीस वर्ष बाद पीछे पलट कर देखता हूँ, विनम्रता से विश्लेषण करता हूँ तो सर का कथन ब्रह्मवाक्य-सा साकार खड़ा दिखता है। अब तक की यात्रा ने काम करते रहने की संतुष्टि दी, मित्र दिए, साथी दिए। बहुत कुछ मिला पर सब कुछ की कीमत पर।

सर, मैंने आपको ग़लत साबित करने की फिर से भरसक कोशिश की। अर्जुन ने योगेश्वर से पूछा था कि यदि मेरे अपने ही साथ नहीं तो यात्रा किसलिए? मैं किस गति से चला, पता नहीं पर साथियों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। तब भी कुछ ने अलग-अलग पड़ाव पर अपनी राह अलग कर ली।

कालांतर में 4 अगस्त 2017 को इसी टीस ने एक कविता को भी जन्म दिया-

सारे मुझसे रुष्ट हैं

जो कभी साथ थे,

आरोप है-

मैं तेज़ चला और

आगे निकल गया,

तथ्य बताते हैं-

मेरी गति सामान्य रही,

वे ही धीमे पड़ते गये

और पिछड़ गये..!

वेदना है पर नश्वर जगत में किंचित भी नित्य हो पाए तो यह चोला सफल है। अपनी सहज गति से यथासंभव चलते रहना ही नीति और नियति दोनों को वांछित है।

बाद में इस कदमताल को पहली बार आकाशवाणी तक पहुँचाने में देशमाने सर ही मार्गदर्शक सिद्ध हुए।

देशमाने सर, देश माने न माने, मैं आपको मानता हूँ!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना- 30 अगस्त 2023 को सम्पन्न हुई। हम शीघ्र ही आपको अगली साधना की जानकारी देने का प्रयास करेंगे। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 228 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – प्रणाम गुरू जी ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है शिक्षक दिवस पर एक विशेष कविता  – प्रणाम गुरू जी !)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 228 ☆

? शिक्षक दिवस विशेष – प्रणाम गुरू जी ! ?

साक्षरता सरगम जीवन की

अ आ इ ई ज्ञान कराया, तुमने,  तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

धन ऋण गुणा भाग जीवन के

भले बुरे का भान कराया, तुमने, तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

शिक्षा बिन पशुवत् है जीवन,

दे शिक्षा इंसान बनाया, तुमने,  तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

भाषा, दृष्टि नई, सृष्टि की

गणित और विज्ञान सिखाया, तुमने, तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

क्षण भंगुर नश्वर है जीवन

जीवन का इतिहास बताया, तुमने, तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

जीवन में भटकाव बहुत है,

अंधकार में मार्ग दिखाया, तुमने, तुम्हें प्रणाम गुरू जी

 

अंतिम सत्य मुक्ति जीवन की,

धर्म और अध्यात्म पढ़ाया, तुमने,तुम्हें प्रणाम गुरू जी 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक ☆“नासै रोग हरे सब पीरा”- ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

 

☆ “नासै रोग हरे सब पीरा”- ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

(आप सामान्य पुस्तक की तरह ऊँगली से पृष्ठ पलट कर पुस्तक पढ़ सकते हैं अथवा पृष्ठ के दाहिने ऊपरी या निचले कोने पर क्लिक करें। आप ऊपर दाहिनी और नेविगेशन मेनू का प्रयोग भी कर सकते हैं।)

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 154 – गीत – आँसू तक खुदगर्ज हो गया… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – अभिनय का शाप।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 154 – गीत – आँसू तक खुदगर्ज हो गया…  ✍

तुमने सुख की साख भुनाली, मुझ पर दुख का कर्ज हो गया

किससे करूँ शिकायत जाकर, आँसू तक खुदगर्ज हो गया।

बदनामी का ‘वीजा’ देकर, मुझे दर्द के देश भिजाया

सपने के शहजादे ने है, सुख का नहीं सिंहासन पाया।

मैं अपना अधिकार न पाऊँ, यही तुम्हारा फर्ज हो गया।

आखिर कैसे समझाता मैं, तुमने मेरी एक न मानी।

आते ही जो विदा माँग ले, कैसे हो उसकी अगवानी ।

लिखने चला लाभ का लेखा, मगर तुम्हारा हर्ज हो गया ।

किस माटी से रचे गये तुम, कैसे यह सब कर लेते हो

जब जब होंठ माँगते पानी, अंगारा तुम धर देते हो

मेरा छोटा सा आग्रह भी, अपराधों में दर्ज हो गया ।

भेजे थे संकेत पाहुने, तुमने कहा-बड़ी उलझन है

भावुकता आई उभार पर, तुमने कहा कि पागलपन है।

शब्दों का संतुलन ठीक था, गीत मगर बेतर्ज हो गया ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 154 – “बादल एक बेहद उतावला…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “बादल एक बेहद उतावला )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 154 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “बादल एक बेहद उतावला…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

 

उमड़-  घुमड़  बार-  बार घिरता है

बादल एक बेहद उतावला  |

डरता  है मौसम की राजनीति ,

कर दे न उसका तबादला  ||

 

बहुत धैर्यवान

किन्तु जल्दी में |

ईंगुर  को घोल

रहा हल्दी में |

 

धरती न रख ले

उपवास यहाँ |

या एकादशी 

कोई निर्जला ||

 

अब चारों और

तैरता रहता |

इक विनम्र शर्त सा

बहा करता |

 

ठीक परिंदे जैसा

उड़ता  है |

कभी गुवाहाटी

कभी अगरतला||

 

अँधियारा बढ़ते

जो औंधता |

रह-रह  ज्यों बालों

में कौंधता |

 

बिखर रहा बिजली

का तारतम्य |

पूछ रही सहेली

शकुंतला ||

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

09-05-2019  

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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