हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #198 – कविता – रक्षाबंधन पर्व पर कुछ दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है रक्षाबंधन पर्व पर कुछ दोहे…” । )

☆ तन्मय साहित्य  #198 ☆

☆ रक्षाबंधन पर्व पर कुछ दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

रक्षाबंधन पर्व यह, भाई-बहन  का  प्यार।

शुभ संकल्पित भाव का, शुभ पुनीत त्यौहार।।

इन धागों में है छुपा, असीमित  निश्छल नेह।

ज्यूँ भादो में अनवरत, बरसे बादल मेह।।

राखी पर्व पवित्र यह, रखें बहन का ध्यान।

बहनों के आशीष से, मिले सुखद सम्मान।।

रक्षाबंधन सूत्र यह, बाँधे स्नेहिल गाँठ।

भाई-बहन के प्रेम का, पुण्यमई यह पाठ।।

विपदाओं के वक्त में, इक-दूजे के साथ।

कष्ट मिटे सहयोग से, लें हाथों में हाथ।।

बंधु अनुज है पुत्र सम, अग्रज पिता समान।

बँध कर रक्षा सूत्र में, बढ़े  सभी की शान।।

 स्नेहिल पावन पुण्यमय, सौम्य-शिष्ट यह पर्व।

 सनातनी  सद्भाव  की, परम्परा पर गर्व।।

मेह, नेह के सावनी, बरसे सुखद फुहार।

राखी के धागे भीगे, पुलकित पावन प्यार।।

 भाई-बहन के बीच में, जीवन भर की प्रीत।

 रक्षाबंधन पर्व यह, सुखद मधुर संगीत।।

 पर्वोत्सव व्रत धर्म का, पारंपरिक प्रवाह।

 बहन बेटियों पर टिकी, सत्पथ की ये राह।।

 संस्कृति की संवाहिका, संस्कारों की खान।

 स्नेहिल मन भाई-बहन, बनी रहे मुस्कान।।

 झिरमिर झिरमिर सावनी, पावस प्रीत फुहार।

 राखी हाथ लिए खड़ी, मन में संचित प्यार।।

बहनों में माँ के सदृश, ममता नेह अपार।

निश्छल निर्मल प्रेममय, करुणा का आगार।।

सुधापान सद्भावमय, प्रीत प्रेममय भाव।

संबंधों की ताप के, बुझे न कभी अलाव।।

बहन बेटियों का रखें, निश्छल मन से ध्यान।

नहीं भूल से भी कभी, हो इनका अपमान।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 22 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रोशनी की आस…” ।)

हिमाचल एवं उत्तराखंड की त्रासदी पर…

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 22 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पास सब कुछ

पर है लगता

कुछ नहीं है पास।

 

आस्थाओं

पर है भारी

प्रकृति का यह दंड

हो गया

है आदमी की

उजागर पाखंड

 

रो रही है

धरा पावन

हँस रहा आकाश ।

 

हाहाकारों

से पटी

छाती हिमालय की

हिल गईं

सब मान्यताएँ

पूजा शिवालय की

 

डगमगा कर

रह गया है

लोगों का विश्वास ।

 

दृष्टियाँ

बस खोजती हैं

अपनेपन की धूप

बेचती है

नियति पल-पल

विवशता के रूप

 

मौन करुणा

में छुपी है

रोशनी की आस।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते“)

✍ जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

वो अकेला ठंड में ही रात भर बैठा रहा

ये अमीर-ए-शह्र के मुँह पर कड़ा चाँटा रहा

सूर्य जिसके राज्य में डूबा नहीं था उन दिनों

हिल गया था एक बूढ़े से जो अधनंगा रहा

प्यार का मरकज़ है इसको मत सियासत में घसीट

दिलरुबा को एक आशिक़ का ये नजराना रहा

हक़ गरीबों का दबाकर कोठियाँ करना खड़ी

हर सदी में ज़ुल्म का ये सिलसिला चलता रहा

दूर से ही हर बला जाती रही रुख मोड़कर

माँ की दी इक इक दुआ का सर पे जो साया रहा

जब गए ग़ालिब मियाँ लंबे सफ़र के वासते

जाम टूटे, शायरी का घर पे सरमाया रहा

है यही सौगात जो दी ज़िन्दगीं ने ए अरुण

हमसफ़र हमराज़ जितने वक़्त वो मेरा रहा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रक्षाबंधन विशेष – राखी के दोहे  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ रक्षाबंधन विशेष – राखी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

राखी में तो धर्म है, परंपरा का मर्म।

लज्जा रखने का करें, सारे ही अब कर्म।।

राखी धागा प्रीति का, भावों का संसार।

राखी नेहिलता लिए, नित्य निष्कलुृष प्यार।।

राखी बहना-प्रीति है, मंगलमय इक गान।

राखी है इक चेतना, जीवन की मुस्कान।।

राखी तो अनुराग है, अंतर का आलोक।

हर्ष बिखेरे नित्य ही, परे हटाये शोक।।

राखी इक अहसास है, राखी इक आवेग।

भाई के बाजू बँधा, खुशियों का मृदु नेग।।

राखी वेदों में सजी, महक रहा इतिहास।

राखी हर्षित हो रही, लेकर मीठी आस।।

राखी में जीवन भरा, बचपन का आधार।

राखी में रौनक भरी, देती जो उजियार।।

        ☆      

भाई हो यदि दूर तो, डाक निभाती साथ।

नहीं रहे सूना कभी, वीरा का तो हाथ।।

यही कह रहा है ‘शरद’, राखी का कर मान।

वरना होना तय समझ, मूल्यों का अवसान।।

राखी में आवेश है, राखी में उल्लास।

राखी है संवेदना, राखी है उत्साह।।

राखी दूरी को हरे, बिखराती है नूर।

कर देती संबंध के,☆वह सारे दुख दूर।।

मत कर तू अवमानना, राखी पावन गीत।

रिश्तों को है जोड़ती, राखी बनकर मीत।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 18 – पछुआ साँकल खटकाती है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पछुआ साँकल खटकाती है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – कादम्बरी # 18 – पछुआ साँकल खटकाती है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अमराई की याद 

हृदय शीतल कर जाती है 

उजड़े गाँवों की गलियाँ

अब हमें रुलाती हैं 

कभी खनकती रुनझुन-

रुनझुन चिड़ियों की पायल 

बैलों की घंटियाँ 

निकट ज्यों होवे देवालय 

चूड़ी की खन-खन जैसे

पनिहारिन गाती है 

शहरों में गुम गई 

हमारी वह स्वच्छंद हँसी 

नैसर्गिक छवियाँ 

आँखों में अब तक रची-बसीं 

एकाकीपन में

पछुआ साँकल खटकाती है 

सपने सी लगती हैं 

सारी बचपन की बातें 

खलिहानों में कटती थीं 

जब गर्मी की रातें 

अब कूलर की हवा

देह में चुभ-चुभ जाती हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तत्त्वमसि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – तत्त्वमसि ??

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से लजाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

काग़ज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या

पढ़ता रहा…!

 © संजय भारद्वाज 

प्रात: 9:19 बजे, 25.7.2018

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 95 – अंतरिक्ष में लिख दिया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “अंतरिक्ष में लिख दिया…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 95 – अंतरिक्ष में लिख दिया…

भारत-माँ ने भ्रात को, राखी भेजी खास।

लाज रखी है चन्द्र ने, मामा तुम बिंदास।।

 

अंतरिक्ष में लिख दिया, भारत ने अध्याय।

दक्षिण ध्रुव में पहुँच कर, कहा चंद्रमा पास।।

 

तेईस सन तेइस तिथि, माह-गस्त बुधवार।

चंद्रयान थ्री भा गया, बिसरे सब संत्रास।।

 

यात्रा लाखों मील की, पाया खास मुकाम।

चालिस दिन की राह चुन,पहुँचा चंद्र निवास।

 

मान दिलाया जगत में, इसरो की है शान।

बुद्धि ज्ञान विज्ञान से, विश्व गुरू नव आस।।

 

अनुसंधानों में निपुण, मानव हित कल्याण।

इसरो भारत देश का, विश्व चितेरा खास।। 

 

शोधपरक विज्ञान से, भारत देश महान।

सबकी आँखें हैं लगीं, जो थे बड़े निराश।।

 

सोम-विजय स्वर्णिम बना,जिसके मुखिया सोम।

विश्व क्षितिज में छा गए, जग को आए रास।।

 

चलें टूर पर हम सभी, कहें न चंदा दूर।

मामा की लोरी सुने, करें हास परिहास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 153 – गीत – अभिनय का शाप… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – अभिनय का शाप।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 153 – गीत – अभिनय का शाप…  ✍

अधरों पर शब्द और मन में संताप

जीवन की शकुन्तला, अभिनय का शाप

 

रोज रोज नींद जगे

जनमती थकान

हूटर के हाथ बिके

गीत के मकान।

 

तख्ते का कोलतार

कक्षा का शोर

पानी के संग साथ

निगल गई भोर ।

गोद लिये सपनों पर, शासन का ताप ।

 

लेती है दोपहरी

प्रेस की पनाह

प्रतिभा की परवशता

पथरीली राह।

 

शब्दों को अर्थ मिले

भावों की ओट

अर्थ का अनर्थ करे

घावों पर चोट ।

बेच दिया नाम गाँव, किया बड़ा पाप ।

 

कुहराई शामों का

संगी है कौन

दरवाजा साधे है

सिन्दूरी गौन।

 

मित्रों की भीड़भाड़

परिचय का जाल

किलक भरे आँगन में

उफनाई दाल।

गीत नहीं मुझको ही बाँच रहे आप।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 153 – “जुदा हुए सब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “जुदा हुए सब )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 153 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जुदा हुए सब …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

जुदा हुए सब लोक कथा में

बचा सिर्फ राजा

किसके नाम सड़क का कर दें

किसके दरवाजा

 

कथा  वाचकोंकी दुनिया में त्रस्त

प्रथाएं हैं

राजा रानी  व जनता की

यही कथाएं है

 

सभी गरीब , तंगदस्ती की

मारी  है परजा 

बाहर खुशहाली का बजता

रहताहै बाजा

 

एक कहानी ख़त्म हुई

दूजी की मनो दशा  —

में, फिर कोई शख्स आ गया

कर के नया नशा 

 

बाहर राज-  प्रजा-  वत्सलता

झिझकी खड़ी मिली

ऐसी कोई कथा नहीं

जो उसे लगे ताजा

 

फिर भी कथा और किस्सों  का उपक्रम है जारी

ग्राम्यजनों को प्रजातंत्र

लगता है सरकारी

 

और कथा में मुझ को

आमंत्रण मिलते रहते

तू ही कथावस्तु से समझौता

करने आ जा  

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-07-2019  

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जर्जर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  जर्जर ??

कौन कहता है

निर्जीव वस्तुएँ

अजर होती हैं,

घर की कलह से

घर की दीवारें

जर्जर होती हैं!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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