हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #184 ☆ हिन्दी दिवस विशेष – संतोष के दोहे – “हिंदी” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – “हिंदी”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 184 ☆

☆ संतोष के दोहे  – “हिन्दी” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हिंदी बोलो गर्व से, हिंदी हिन्दुस्तान

हम सबका बढ़ता सदा, हिंदी से ही मान

हिंदी हिय में राखिये, करके ऊँचा माथ

रखें कभी मत हीनता, हिंदी जब हो साथ

नमस्कार सब कर रहे, विश्व पटल पर आज

हिंदी सब को जोड़ती, करिये उस पर नाज़

पखवाड़े में सिमट कर, हिंदी करे पुकार

सीमित मुझे न कीजिये, करिये अब विस्तार

निज भाषा मत छोड़िये, यह अपनी पहचान

अंगेजी के रोब से, उबरो अब श्रीमान

अंग्रेजी के आपने, खूब पखारे पाँव

हिंदी से दूरी रखी, उसे छोड़ कर गाँव

हिंदी भाषा प्रेम की, हिंदी अपना धर्म

संस्कार पोषित करे, हिंदी से सब कर्म

बने राष्ट्रभाषा सपदि, सबकी यह दरकार

जल्दी से इस बात पर, निर्णय ले सरकार

मिले मान- सम्मान सब, हिंदी से संतोष

हिंदी का आदर करें, बिन खोजे ही दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हिंदी दिवस विशेष – हिंदी के दोहे  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ हिंदी दिवस विशेष – हिंदी के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

हिंदी में तो शान है , हिंदी में है आन।

हिंदी का गायन करो, हिंदी का सम्मान।।

हिंदी की फैले चमक, यही आज हो ताव,

हिंदी पाकर श्रेष्ठता, रखे उच्चतर भाव।।

हिंदी में है नम्रता, देती व्यापक छांव।

नवल ताज़गी संग ले, पाये हर दिल ठांव।।

दूजी भाषा है नहीं, हिंदी-सी अनमोल।

है व्यापक नेहिल ‘शरद’, बेहद मीठे बोल।।

हिंदी का बेहद प्रचुर, नित्य उच्च साहित्य।

बढ़ता जाता हर दिवस, इसका तो लालित्य।।

हिंदी प्राणों में बसे, यही भावना आज।

हर दिल पर करती रहे, मेरी हिंदी राज।।

हिंदी नित गतिमान हो, सदा करे आलोक।

इसी तरह हरदम प्रथम, फिर मन कैसा शोक।।

हिंदी मेरा ज्ञान है, यह मेरा अभिमान।

रोक सकेगा कौन अब, इसका तो उत्थान।।

हिंदी में संवेग है, हिंदी में जयगान।

सारे मिल नित ही करें, हिंदी का गुणगान।।

हिंदी पूजन-यज्ञ है, हिंदी एक विधान।

हिंदी की हो वंदना, यही आज अरमान।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 176 ☆ बाल कविता – दादाजी की डायरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 176 ☆

☆ बाल कविता – दादाजी की डायरी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दादाजी की डायरी खोली

     पहना  उनका चश्मा।

लगीं बाँचने अक्षर-अक्षर

          नन्हीं प्यारी सुषमा।।

 

बड़ी मगन हैं पढ़ने में वह

      पढ़ डाली पूरी डायरी।

अपनी भी कुछ लिखी कहानी

       और लिखी थोड़ी शायरी।।

 

दादा जी खोजें डायरी को

      और खोजते चश्मा अपना।

नजर पड़ी जब सुषमा जी पर

          हँसें देख प्यारा सपना।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #16 ☆ कविता – “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 16 ☆

☆ कविता ☆ “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हां मै एक कलाकार हूं

एक बगीचे की तरह हूं

जिसमे फूल भी है और कांटे भी है

तुम्हें जो चुभे वो चुनके देता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

वैसे तो एक आम इंसान हूं

वोही रोटी खाता हूं

वही कपड़ा पहेंता हूं

रोटी खाकर भी भूका हूं

कपड़ा पहनकर भी निर्वस्त्र हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

मेरा अपना कोई रंग नहीं

मेरा अपना कोई ग़म नहीं

तुम्हारे गम में रोता हूं

रंग में तुम्हारे रंगता हूं

दिल में तुम्हारे ख़ुशी चाहता हूं

तुम्हारी आंखों में ख़ुशी पाता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं..

 

भीतर मेरे भी एक दुनिया है

जो हमेशा बर्बाद है

मगर आबाद तुम्हारी दुनिया चाहता हूं

खुद एक घायल हूं

दर्द तुम्हारे समझता हूं

 

हां मै एक कलाकार हूं…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #199 – कविता – ☆ अजब गजब रोटी की माया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता अजब गजब रोटी की माया…” । )

☆ तन्मय साहित्य  #199 ☆

☆ अजब गजब रोटी की माया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(कहीं पढ़ी गयी एक घटना से प्रेरित एक सरल सी किंतु विचारणीय रचना)

बड़ी दूर से बंदर आया

रोटी एक हाथ में लाया

हर्षित, रोटी देख बंदरिया

बंदर भी खुश हो मुस्काया।

आधी-आधी, लगे बाँटने

तब, रोटी ने खेल दिखाया

छपी हुई, फोटो रोटी की

कागज पर,रोटी की छाया।

बेचारी, बन्दरिया भूखी

भूखा बन्दर भी मुरझाया

रोटी का चक्कर अजीब है

रोटी ने जग को भरमाया।

चित्र छपे रोटी का कागज

पढ़वाने का मन में आया

पहुँचे दोनों सुबह कचहरी

किंतु नहीं कोई पढ़ पाया,

दफ्तर-दफ्तर भटके दोनों

सब के सम्मुख दुखड़ा गाया

नहीं निदान भूख, रोटी का

कोई भी अब तक कर पाया।

आखिर कागज की रोटी को

असल समझ दोनों ने खाया

चले कमाने अगले दिन फिर

अजब-गजब रोटी की माया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अकाल मृत्यु हरणं ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अकाल मृत्यु हरणं ??

गोल होते कान,

वाचा का थकना,

फटी सफेदी वाली

आँखों का शून्य तकना,

बात-बात में

हाथ उठाकर

आशीर्वाद देने का गोत,

कुछ संकेत देने लगती है

ले जाने से पहले

बूढ़ी मौत..!

 

संकेत देते हैं वे भी,

ग़लती न होने पर भी

जो झिड़कियाँ खाते हैं,

अपशब्दों की बौछार पर

खिसियाए-से हँसते जाते हैं,

अन्याय को अनुकंपा मान

मिलती रोटी ठुकराने से डरते हैं,

ये वे जवान हैं जो-

जीते-जी रोज मरते हैं..,

 

पर…,

ये जो मर जाते हैं

सड़कों पर तपाक से,

अपनी हाईस्पीड बाइक

खुद डिवाइडर से टकराए;

रेल की पटरियों पर कट जाते हैं,

मोबाइल कान से चिपकाए,;

लहरों और बहाव की अनदेखी कर

‘सेल्फी फॉर डेथ’ खिंचवाते हैं,

फिर इन्हीं लहरों पर सवार

बेबसी में शव बनकर आते हैं..,

 

काश…,

काश होते कुछ संकेत

इन बावरों के लिए भी.., कि

बढ़ती गति तो सड़क थम जाती,

पटरियों पर कान की स्वर तरंगें

स्पीकर बन खतरे के विरुद्ध चिल्लातीं,

होता कुछ ऐसा कि लहरें

इन्हें जीते-जी उछाल बाहर फेंक आती,

यदि घट पाता ऐसा कुछ

तो ये नादान बेमौत न मरते

और अपने जाने के बाद

अपनों को रोज़ाना

तिल-तिल मरने को

विवश भी न करते !

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना  बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 24 ☆ कहाँ चले?… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “कहाँ चले?…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 24 ☆ कहाँ चले?… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रुको बंधुवर!

नम आँखों में टूटे सपने

लेकर कहाँ चले?

 

अपनों से अपनी सी बातें

भला करेगा कौन

दरवाज़ों पर बिठा चुप्पियाँ

बतियाते से मौन

 

सुनो बंधुवर!

यह परिपाटी फिर से डसने,

देकर कहाँ चले?

 

पर्वत से ऊँचे मनसूबे

नहीं हमारे यार

माटी की सौंधी सी ख़ुशबू

और तनिक सा प्यार

 

कहो बंधुवर!

इतना मँहगा सौदा करने

आख़िर कहाँ चले?

 

दर्द पराया काँधों लादे

बाँध ह्रदय से पीर

ख़ुशियों के सब आँगन सोंपे

होकर चले फ़क़ीर

 

अहो बंधुवर!

मन को छोड़ अकेला मरने

डरकर कहाँ चले?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हम है गुमनाम इश्तिहार न बन… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हम है गुमनाम इश्तिहार न बन..“)

✍ हम है गुमनाम इश्तिहार न बन… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सब गिले मुँह छिपा के बैठ गए

पास ऐसे वो आ के बैठ गए

बज़्म को छोड़ के सलाम दुआ

 बे-अदब मुस्करा के बैठ गए

न्याय कैसे करेगें जब मुंसिफ

आज के घूस खा के बैठ गए

नाम उनका रहा न दंगों में

जो भी हलचल मचा के बैठ गए

हम है गुमनाम इश्तिहार न बन

काम सबके बना के बैठ गए

बज़्म के कायदे भी सीखें कुछ

और को जो उठा के बैठ गए

मौत ने भी दिया न साथ अरुण

जब वो डोली में जा के बैठ गए

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 20 – मुस्कुराहट चिपकाई है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मुस्कुराहट चिपकाई है…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 20 – मुस्कुराहट चिपकाई है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हमने हाथ मिलाये

लेकिन मन से नहीं मिले 

अधरों पर तो भले 

मुस्कुराहट चिपकाई है 

लेकिन कटुता और 

कपट की छुपन-छुपाई है 

सच्ची बात न बोली

हमने अपने अधर सिले 

 

खानापूर्ति किया करते हैं 

लोकाचारों की 

परिभाषाएँ बदल गई 

उत्सव, त्यौहारों की 

गाँठ बाँधकर रक्खे

मन में शिकवे और गिले 

 

पगडंडी पर यूँ तो 

हमने चौड़ी सड़क बना दी 

किन्तु प्रेम-भाईचारे की 

पक्की नींव हिला दी 

गुटबाजी के बना लिए हैं

सबने अलग किले

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 97 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 97 – मनोज के दोहे… ☆

1 कृष्ण

कृष्ण-कुंज ब्रज भूमि में, मनमोहक संस्थान।

रथ पर थे श्री कृष्ण खुद, अर्जुन को दें ज्ञान।।

☆ 

2 राधिका

कृष्ण-राधिका अमर हैं, त्याग प्रेम का रूप।

मन मंदिर में हैं बसे, मुख छवि देव अनूप।।

3 घनश्याम

उमस बढ़ी गर्मी हुई, सावन का विश्राम ।

आँखें रोज निहारतीं, दिखें नहीं घनश्याम ।।

4 कान्हा

कान्हा गोकुल छोड़ कर, पहुँचे कंस निवास।

अत्याचारी-राज्य का, अंत किया बिंदास ।।

5 माखनचोर

नाम अनेकों कृष्ण के, उनमें माखनचोर।

भारत भू को तारनेलगा दिया था जोर।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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