हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भेड़िया ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भेड़िया ?

भेड़िया उठा ले गया

झाड़ी की ओट में,

बर्बरता से उसका

अंग-प्रत्यंग भक्षण किया,

कुछ दिन बाद

देह का सड़ा-गला

अवशेष बरामद हुआ,

भेड़ियों का ग्राफ

निरंतर बढ़ता गया,

फिर यकायक

दुर्लभ होते प्राणियों में

भेड़िये का नाम पाकर

मेरा माथा ठनक गया,

अध्ययन से यह

तथ्य स्पष्ट हुआ,

चौपाये भेड़िये

जिस गति से घट रहे हैं,

दोपाये भेड़िये

उससे कई गुना अधिक

गति से बढ़ रहे हैं…!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 3.45 बजे, 26.4.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (46-50) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (46-50) ॥ ☆

 

चलते पथ शुचि वेश में होते थे यों भास

जैसे चित्रा – चन्द्र हों, शुचि निरभ्र आकाश ॥ 46॥

 

दिखलाते पथ में मिले प्रिय को रम्य स्थान

सारा पथ यों कट गया, रहा न नृप को ध्यान ॥ 47॥

 

कीर्तिमान भूपाल तब थके हुये बेहाल

पहुंचे रानी सहित, मुनि – आश्रम सायंकाल ॥ 48॥

 

समिधा कुश फल आदि ले लौटे वन से लोग

देखा ताप सवृंद का अग्नि प्रज्वलन योग ॥ 49॥

 

उरज द्वार को रोककर मुनि पत्नी के पास

बाल मृगों को पुत्रवत चरते कोमल घास ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यक्षप्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – यक्षप्रश्न ?

( पर्यावरण विमर्श-7)

प्रश्न है,

प्रकृति के केंद्र में

मनुष्य है या नहीं,

उससे भी बड़ा

प्रश्न है,

मनुष्य के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं !

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 93 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 93 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अभी अभी तो हैं  खुले,

जीवन के हर द्वार।

जिएंगे हम खुशी से,

मानेंगे ना हार।।

 

मिठास सा जीवन रहे,

थोड़ा सा मनुहार।

हर रिश्ते में भाव का,

प्यार भरा श्रृंगार।।

 

कांटा चुभते चुभ गया,

घाव बहुत गंभीर।

दर्द बहुत मन में हुआ,

होती जब है पीर।।

 

नींद कहां ही आ रही,

जागें सारी रात।

आंखों से ही बह रहा,

आंसू का जलजात।।

 

तनहाई करती रही,

बस उनकी फरियाद।

कोरोना में खो दिया,

करते उनको याद।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 83 ☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 83 ☆

☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

गीत प्यार के गाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार छुप-छुप कर रोते

नैतिक मूल्य गरिमा खोते

मर्यादा सिखलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार की धानी दूषित

लोभियों ने की कलूषित

दर्द शहर का दिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चारों तरफ मचा है कृन्दन

छिन्न-भिन्न और खिन्न है मन

मन को अब समझाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

मानवता के दुश्मन जो भी

बहुरूपिये लालची-लोभी

इनके करम बताऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संकट में जो लूट मचाते

अवसर समझ न इसे गंवाते

इनको सबक सिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

बेच रहे नकली इंजेक्शन

इनका बहुत बड़ा कनेक्शन

दान से पाप धुलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चले गए बे-मौत जहाँ से

लौट के आता कौन वहाँ से

आत्मा शांत कराऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

रोष प्रशासन में जब होगा

“संतोष”तभी मन में होगा

इन्हें सजा दिलवाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक और एक भी नहीं ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

एक और एक भी नहीं ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

(मरुस्थल काव्य संग्रह की कविता। इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद जर्मनी की ई पत्रिका (Raven Cage (Poetry and Prose Ezine)#57) में प्रकाशित )

 नहीं, कई रास्ते नहीं हैं.

हाँ,बहुत सारे रास्ते हैं.

मै स्वयं को खोजती हूँ अमर्याद में,

निश्चितता खोजती हूँ आभास में,

अमृत खोजती हूँ अर्थ और संदर्भ से,

उद्देश्यों से उद्देश्य तक की यह यात्रा,

सारे रास्ते जाते हैं उस एक तक.

द्वार खोलते हैं मेरी बगिया के,

यही रास्ता है स्वयं से आत्मा तक का.

वहाँ मै भी हूँ और नहीं भी हूँ,

सिर्फ आत्मा की एक संधिछाया !

 

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (41-45) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (41-45) ॥ ☆

 

पंक्ति बद्ध बिखरी हुई तोरण सी अभिराम

सार के  कल नाद सुन आनन उठा कलाम ॥ 41॥

 

अश्व खुरों की धूल से भरें अलक औं बाल

लखत पवन प्रवाह से काम सिद्धि तत्काल ॥ 42॥

 

वीचि विताहित जलज सी सर में व्याप्त सुवास

अपनी श्वासं सदृश मधुर पीकर शीतल वात ॥ 43॥

 

यूप चिन्ह लख ग्राम में सकल मनोरथ जान

अर्ध्य सहज स्वीकार कर सबको आशिष मान ॥ 44॥

 

ले नवनीत उपस्थित वयोवृद्ध गोपाल

से परिचय पा मार्ग का पूँछ ताँछ कर हाल ॥ 45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क़ीमत ☆ कर्नल अखिल साह

कर्नल अखिल साह

(कर्नल अखिल साह जी एक सम्मानित सेवानिवृत्त थल सेना अधिकारी हैं। आप  1978 में सम्मिलित रक्षा सेवा प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रशिक्षण के पश्चात आपने  इन्फेंट्री की असम रेजीमेंट में जून 1980 में कमिशन प्राप्त किया। सेवा के दौरान कश्मीर, पूर्वोत्तर क्षेत्र, श्रीलंका समेत अनेक स्थानों  में तैनात रहे। 2017 को सेवानिवृत्त हो गये। सैन्य सेवा में रहते हुए विधि में स्नातक व राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर उपाधि विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त किया । कर्नल साह एक लंबे समय से साहित्य की उच्च स्तरीय सेवा कर रहे हैं। यह हमारे सैन्य सेवाओं में सेवारत वीर सैनिकों के जीवन का दूसरा पहलू है। ऐसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एवं साहित्यकार से परिचय कराने के लिए हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी  में प्रवीण  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी संपादक ई-अभिव्यक्ति (अंग्रेजी) का हार्दिक आभार।  हमारा प्रयास रहेगा कि उनकी रचनाओं और अनुवाद कार्यों को आपसे अनवरत साझा करते रहें। आज प्रस्तुत है कर्नल अखिल साह जी की  काश्मीर पर एक भावप्रवण कविता  ‘जन्नत- ए-कश्मीर‘

☆ क़ीमत ☆ कर्नल अखिल साह ☆

 

हम ज़िंदगी भर ज़मीनों की

क़ीमत पर  ही  इतराते  रहे,

हवा ने जब अपनी क़ीमत मांगी

तो ख़रीदी हुई जमींने बिक गईँ

 

Throughout life we trumpeted

Worth of the lands we owned

When air claimed its price

All the lands were pawned

 

© कर्नल अखिल साह

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वट अमावस्या पर विशेष – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – वट अमावस्या पर विशेष – चिरंजीव ?

( पर्यावरण विमर्श-6)

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

विशाल बरगद

के चारों ओर,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति,

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 7:54 बजे, 13.4.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 71 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – दशम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  दशम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 71 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – दशम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का दशम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

ऐश्वर्य – श्रीभगवान ने अपने ऐश्वर्य के बारे में अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान देकर बताया

 

महाबाहु मेरी सुनो, तुम हो प्रियवर मित्र।

श्रेष्ठ ज्ञान मैं दे रहा, खिलें फूल से चित्र।। 1

 

यश वैभव उत्पत्ति को , नहीं जानते देव।

उद्गम सबका मैं सखे, करता प्रकट स्वमेव।। 2

 

मैं स्वामी हर लोक का, अजर अनादि अनंत।

जो जाने इस ज्ञान को, मुक्ति पंथ गह अंत।। 3

 

सत्य-ज्ञान, सद्बुद्धि सब, मैं ही देता प्राण।

मोह विसंशय,मुक्त कर, हर लेता सब त्राण।। 4

यश-अपयश-तप-दान भी, मैं ही करूँ प्रदत्त।

क्षमा भाव जीवन-मरण, सुख-दुख चक्रावर्त।। 4

 

विविध गुणों का स्वामि मैं,  मन निग्रही अनादि।

इन्द्रिय-निग्रह मैं करूँ, हर लेता भय आदि।। 5

 

सप्तऋषी गण, मनु सभी, अन्य महर्षी चार।

उदगम मूलाधार मैं, फैले लोक अपार।। 6

 

जानें मम ऐश्वर्य को, जो योगी आश्वस्त।

करते भक्ति अनन्य जो,मैं उनका विश्वस्त।। 7

 

सकल-सृष्टि आध्यात्म का, सबका मैं हूँ सार।

सबका ही उद्भूत मैं, सबका पालन हार।। 8

 

शुद्ध भक्त जो भी करे, मन में शुद्ध विचार।

बाँटें मेरे ज्ञान को, अंतःगति उद्धार।। 9

 

मेरी सेवा भक्ति से,करते हैं जो प्रेम।

उनको देता ज्ञान मैं, सुभग योग अरु क्षेम।। 10

 

कृपा विशेषी मैं करूँ, करता उर में वास।

दीप जलाऊँ ज्ञान का, फैले दिव्य प्रकाश।। 11

 

अर्जुन ने श्रीभगवान के बारे में कुछ  इस तरह कहा—

 

आप परम् भगवान हैं, परमा-सत्य पवित्र।

आप अजन्मा-दिव्य हैं, आदि पुरुष हैं पित्र।। 12

 

आप सर्वथा हैं महत, कहते नारद सत्य।

असित, व्यास, देवल कहें, यही सत्य का तथ्य।। 13

 

माधव तुमने जो कहा, वही पूर्ण है सत्य।

देव-असुर अनभिज्ञ सब, ना जानें यह सत्य।। 14

 

सबके उदगम आप हैं, सबके स्वामी आप।

सब देवों के देव हैं, ब्रह्माण्डों के बाप।।15

 

सदय कहें विस्तार से, यह निज दैविक मर्म।

सर्वलोक स्वामी तुम्हीं , सबके पालक धर्म।। 16

 

चिंतन कैसे मैं करूँ, मुझको प्रिय बतायं।

कैसे जानूँ आपको, कैसे ह्रदय   बसायं। 17

 

योगशक्ति-ऐश्वर्य का, वर्णन करो दुबार।

तृप्त नहीं माधव हुआ, कहिए अमृत- विचार।। 18

 

श्रीभगवान ने अर्जुन को अपने सूक्ष्म ऐश्वर्य के बारे में इस प्रकार वर्णन किया—–

 

मुख्य-मुख्य वैभव कहूँ, तुमसे अर्जुन आज।

मेरा चिर-ऎश्वर्य है, चिर सर्वत्री राज।। 19

 

सब जीवों के ह्रदय में, मेरा रहता वास।

आदि-अंत औ’ मध्य मैं, मैं ही भरूँ प्रकाश।। 20

 

आदित्यों में विष्णु मैं, तेजों में रवि सन्द्र।

मरुतों मध्य मरीचि मैं,नक्षत्रों में चन्द्र।। 21

 

वेदों में  मैं साम हूँ, देवों में हूँ इन्द्र।

इंद्रियों में मन रहूँ, जीवनशक्ति-मन्त्र।। 22

 

सब रुद्रों में शिव स्वयं, दानव-यक्ष कुबेर।

वसुओं में मैं अग्नि हूँ, सब पर्वत में मेरु।। 23

 

पुरोहितों में वृहस्पति, मैं ही कार्तिकेय।

जलाशयों में जलधि हूँ, जानो मेरा ध्येय।। 24

 

महर्षियों में भृगु हूँ, दिव्य-वाणि ओंकार।

यज्ञों में जप-कीर्तना, मैं  हिमवान-प्रसार।। 25

 

वृक्षों में पीपल रहूँ , चित्ररथी -गंधर्व।

सिद्धों में मुनि कपिल हूँ, नारद- देव रिश्रर्व। 26

 

उच्चै:श्रवा अश्व मैं,  प्रकटा सागर गर्भ।

ऐरावत गजराज मैं, राजा मानव धर्म।। 27

 

शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गऊओं में सुरीभि।

कामदेव में प्रेम हूँ, सर्पों में वासूकि।। 28

 

फणधारि में अनन्त हूँ, जलचरा वरुणदेव।

पितरों में मैं अर्यमा, न्यायधीश यमदेव।। 29

 

दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमनों में महाकाल।

पशुओं में मैं सिंह हूँ, खग में गरुड़ विशाल।। 30

 

पवित्र-धारि में वायु हूँ, शस्त्रधारि में राम।

मीनों में मैं मगर हूँ, सरि में गंगा नाम।। 31

 

सकल सृष्टि में आदि मैं, मध्य और हूँ अंत।

विद्या में अध्यात्म हूँ, सत्य और बलवंत।। 32

 

अक्षर मध्य अकार हूँ, समासों में द्वंद्व ।

मैं ही शाश्वत काल हूँ, सृष्टा ब्रह्म निद्वन्द।। 33

 

मैं सबभक्षी मृत्यु हूँ, मैं ही भूत-भविष्य।

सात नारि में मैं रहूँ, कीर्ति-श्री -सी हस्य।। 34

मैं और मेधा-सुस्मृति , मैं ही धृति हूँ भव्य।

मैं  ही क्षमा सुनारि हूँ, मैं ही वाक सुनव्य।। 34

 

सामवेद वृहत्साम हूँ, ऋतुओं  में मधुमास।

छन्दों में मैं गायत्री,  अगहन उत्तम मास।। 35

 

छलियों में मैं जुआ हूँ, तेजवान में तेज।

पराक्रमी की विजयी प्रिय, बलवानों की सेज।। 36

 

वृष्णिवंशी वसुदेव हूँ, पांडवों में अर्जुन।

मुनियों में मैं व्यास हूँ, महान उशना- जन।। 37

 

अपराधी का दण्ड मैं, और न्याय की नीति।

रहस्य का मैं मौन हूँ, ज्ञान-बुद्धि की रीति।। 38

 

जनक बीज मैं सृष्टि का, चर-अचरा सब कोय।

नहीं रह सके मुझ बिना, सब जग मुझ में होय।। 39

 

अंत न दैव- विभूति का, यह अनन्त आख्यान।

विशद विभूति हैं मेरी, सार प्रिये तू जान।। 40

 

जो सारा ऐश्वर्य है, या जो है सौंदर्य।

मेरी अनुपम सृष्टि है, सब कुछ मेरा कर्य।। 41

 

विशद ज्ञान ब्रह्मांड का, अंशमात्र यह दृश्य।

सब कुछ धारण मैं करूँ, चले जगत कर्तव्य।। 42

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” ऐश्वर्य वर्णन” दसवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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