हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सुनो वॉट्सएप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सुनो वॉट्सएप ?

 

कई बार की-बोर्ड पर गई

दोनों की अंगुलियाँ,

पर कुछ टाइप नहीं किया,

टाइप कर भी लिया

तो कभी सेंड नहीं किया,

ख़ास बात रही

बिना टाइप किये,

बिना सेंड किये भी

दोनों ने अक्षर-अक्षर पढ़ ली

एक-दूसरे की चैट ..,

चर्चा है,

बिना बोले,

बिना लिखे,

पढ़ लेनेवाला

नया फीचर

वॉट्सएप की जान है,

ताज्जुब है

खुद वॉट्सएप भी

इससे अनजान है…!

©  संजय भारद्वाज

(12.19 बजे, 15.11.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 48 ☆ अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 47 ☆ अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम ☆

जहां के वातावरण में घुली रहती व्यंग्य भाषा

चोटें ही करती है स्वागत स्नेह की संभव न आशा

बजा करते फिर वही गाने जमाने के पुराने

रास्ते संकरे हैं इतने कठिन होता निकल पाने

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

जहां जाके कभी मन की बातें कोई कह ना पाता

बात कब क्या मोड़ ले यह समझ में कुछ भी ना आता

सशंकित रहती है सांसे कब बजे कोई नया स्वर

कब उठे आंधी कभी कोई या दिखे मुस्कान मुंह पर

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

सही बातें होने पर भी कब सहज आयें उबालें

या पुरानी गठरियों से बातें नई जाएं निकाले

या कि फिर अभिमान के अंगार नए कोई सुलग जांए

उचित शब्दों के भी कोई अर्थ उल्टे समजें जायें

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

अनिश्चित व्यवहार का रहता जहां डर व्याप्त मन में

बेतुकी बातों का है भंडार जहां अटपट वचन में

अप्रसांगित बातों में जहां हाँ में हाँ को न मिलायें

तो अकारण क्रोध का भाजन उसे जाया बनाये

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस लेने ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (71-75) ॥ ☆

अश्व घरों की धूल से उठते शिखर समान

बढ़ – चढ़ हिमगिरि पै किया रघु ने पुनः प्रयाण ॥ 71॥

 

गिरि गहर में रह रहें सिंहों ने तब ताक

समबल सेना रव भी सुन रहे दुबक निष्पाप ॥ 72॥

 

भोजपत्र औं बाँस में भरता स्वर संगीत

गंगाजल-शीतल पवन रघु का था पथीमत ॥ 73॥

 

बैठे कस्तूरी मृगों की थी जहाँ सुगन्ध

सैनिक रूके नमेरू तल देख शिला के खण्ड ॥ 74॥

 

कण्ठ श्रृखला गजों की जैसे ज्योति लतायें

चमकी ओषधि स्पर्श पा ऊॅचे तरू की छाँह ॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 100 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 100 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बदल रही देखो प्रकृति, क्वांर मास में रूप।

मनमोहक-सा दृश्य है, मन को लगे अनूप।।

 

कार्तिक में पूजन करें, नित्य नियम से दान।

व्रत संयम पालन करें, हो जाता कल्यान।

 

बीत गए कुछ मास जो, कोरोना के  घाव।

लेकर हम जीते रहे, ऐसे दुसह प्रभाव।।

 

खिले मुकुल को देखकर, जागी उसकी प्यास।

मधुप विनय जो कर रहा, तुझसे ही हैं आस।।

 

मन मंजुल को देखकर, होता है आभास।

प्रियतम उसमें बस गया, आया मन को रास।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 89 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 89 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कुवलय, कुमुदबन्धु, वाचक, विरहित, वापिका)

 

कुवलय के नव कुंज प्रभु, कमलापति श्रीधाम

सादर वन्दन आपको, हरिये दोष तमाम

 

कुमुद-बंधु छवि मोहनी, शीतल उसकी छाँव

विकसे बिपुल सरोज जब, लगता सुंदर गाँव

 

वाचक ऐसा चाहिए, जिसके मीठे बोल

वाणी से झगड़े बढ़ें, वाणी है अनमोल

 

विरहित रहे जो प्रेम से, देखे बस निज काम

प्रेम बढ़ाता दायरा, यह ही राधे-श्याम

 

ताल तलैया वापिका, गाँवो की पहिचान

पानी के साधन सुलभ, राजाओं की शान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (66-70) ॥ ☆

 

पारस – जय उपरांत रघु रवि की विजय समान

बढ़े उदीची ओर रख प्रखर किरण से बाण ॥ 66॥

 

सिन्धु नदी तट अश्वों ने लोट किया आराम

हिला ग्रीव झटकी लगी केशन केश तमाम ॥ 67॥

 

रघु के प्रबल विरोध वश सुन पतियों के हाल

हूण नारियों के हुये आँसू से तर गाल ॥ 68॥

 

बँधे गजों की रज्जु से मर्दित खिन्न समान

तरू अखरोटों सँग हुये काश्मीर नृप म्लान ॥ 69॥

 

झुक काम्बोज नरेश ने भेंट किये उपहार

रघु को सुंदर अश्व, धन, भूषण विविध प्रकार ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता ।।कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये।।)      

☆ ।। कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।।मुक्तक।।

[1]

देख लेना कहीं अनकही तेरी अपनी कहानी न रहे।

रुकी सी बीती जिन्दगी में कोई रवानी न रहे।।

जमीन और भाग्य जो बोया वही निकलता है।

अपने स्वार्थ के आगे किसी पर मेहरबानी न रहे।।

[2]

दुखा कर दिल किसी का कभी सुख पा नहीं सकता।

कपट विद्या से किसी का दुःख भी जा नहीं सकता।।

पाप का घड़ा भरकर एक दिन फूटता जरूर है।

बो कर बीज बबूल का कोई आम ला नहीं सकता।।

[3]

कल की चिंता मत कर तू जरा बस आज संवार ले।

मत डूबा रहे स्वार्थ में कि परोपकार में भी गुजार ले।।

अपने कर्मों का निरंतर आकलन तुम हमेशा करते रहो।

प्रभु ने भेजा धरती पे तो जरा जीवन का कर्ज उतार ले।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – संतृप्त ?

दुनिया को जितना देखोगे

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 78 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तदशोऽध्यायः ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तदशोऽध्यायः

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 77 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तदशोऽध्यायः ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए  सत्रहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र।।

☆ सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धा के विभाग क्या हैं?

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा-

नियम-शास्त्र ना मानते, करते पूजा मौन।

स्थिति मुझे बताइए, सत, रज, तम में कौन।। 1

 

श्रीकृष्ण भगवान ने सात्विक, राजसिक, तामसिक पूजा और भोजन आदि के बारे में अर्जुन को ज्ञान दिया–

सत, रज, तम गुण तीन ही, अर्जित करती देह।

जो जैसी श्रद्धा करें, बता रहा प्रिय ध्येय।। 2

 

श्रद्धा जो विकसित करें, सत, रज, तम अनुरूप।

अर्जित गुण वैसे बनें, जैसे छाया- धूप।। 3

 

सतोगुणी पूजा करें, सब देवों की मित्र।

रजोगुणी पूजा करें, यक्ष-राक्षस पित्र।।4

 

तमोगुणी हैं पूजते, भूत-प्रेत की छाँव।

जो जैसी पूजा करें, वैसी मिलती ठाँव।। 4

 

दम्भ, अहम, अभिभूत हो, तप-व्रत सिद्ध अनर्थ।

शास्त्र रुद्ध आसक्ति से, पूजा होती व्यर्थ।। 5

 

ऐसे मानव मूर्ख हैं, करें तपस्या घोर।

दुखी रखें जो आत्मा, वही असुर की पोर।। 6

 

जो जैसा भोजन करें, उसके तीन प्रकार।

यही बात तप, दान की, यज्ञ वेद सुन सार।। 7

 

सात्विक भोजन क्या है

सात्विक भोजन प्रिय उन्हें, सतोगुणी जो लोग।

वृद्धि करे सुख-स्वास्थ्य की, आयु बढ़ाता भोज।। 8

 

गरम, राजसी चटपटा, तिक्त नमक का भोज।

रजोगुणी को प्रिय लगे, देता जो दुख रोग।। 9

 

तामसिक भोजन क्या है

पका भोज यदि हो रखा,एक पहर से जान

बासा, जूठा खाय जो, वही तामसी मान। 10

बने वस्तु अस्पृश्य से, वियोजिती जो भोज।

स्वादहीन वह तामसी, करे शोक और रोग।। 10

 

सात्विक यज्ञ क्या है

सात्विक होता यज्ञ वह, जो कि शास्त्र अनुसार।

समझें खुद कर्तव्य को, फल की चाह बिसार। 11

 

राजसिक यज्ञ क्या है

होता राजस यज्ञ वह, जो हो भौतिक लाभ।

गर्व, अहम से जो करें, मन में लिए प्रलाभ।। 12

 

तामसिक यज्ञ क्या है

तामस होता यज्ञ वह, जो हो शास्त्र विरुद्ध।

वैदिक मंत्रों के बिना, होता यज्ञ अशुद्ध।। 13

 

शारिरिक तपस्या क्या है

ईश, गुरू, माता-पिता, ब्राह्मण पूजें लोग।

ब्रह्मचर्य पावन सरल, यही तपस्या योग।। 14

 

वाणी की तपस्या क्या है

सच्चे हितकर बोलिए, मुख से मीठे शब्द।

वेद साहित्य स्वाध्याय ही, तप वाणी यह लब्ध।। 15

 

मन की तपस्या

आत्म संयमी मन बने, रहे सरल संतोष।

शुद्ध बुद्धि जीवन रहे, धैर्य तपी मन घोष।। 16

 

सात्विक तपस्या

लाभ लालसा से रहित, करें ईश की भक्ति।

दिव्य रखें श्रद्धा सदा, यही सात्विक वृत्ति।। 17

 

राजसी तपस्या

दम्भ और सम्मान हित, पूजा हो सत्कार।

यही राजसी तपस्या,नहीं शाश्वत सार।। 18

 

तामसी तपस्या

आत्म-उत्पीड़न के लिए, करें हानि के कार्य।

यही तामसी मूर्ख तप, करें विनिष्ट अकार्य।। 19

 

सात्विक दान

करें दान कर्तव्य हित, आश न प्रत्युपकार।

काल देख व पात्रता, ये सात्विक उपकार।। 20

 

राजसी दान

पाने की हो भावना, हो अनिच्छु प्रतिदान।

फल की इच्छा जो रखे, यही राजसी दान।। 21

 

तामसी दान

अपवित्र जगह में दान हो, अनुचित हो असम्मान।

अयोग्य व्यक्ति को दान दें, यही तामसी दान।। 22

 

ईश्वर का आदि काल से चला आ रहा सर्वश्रेष्ठ नाम क्या है

हरिः ॐ, तत, सत यही,मूल सृष्टि का मंत्र।

श्रेष्ठ जाप यह ब्रह्म का,यही वेद का मन्त्र।। 23

 

ब्रह्म प्राप्ति शास्त्रज्ञ विधि, से हो जप तप, दान।

ओमकार शुभ नाम से, सबका हो कल्यान।। 24

 

दान, यज्ञ, तप जो करें, ‘तत’ से हो सम्पन्न।

फल की इच्छा मत करें, तब हों प्रभू प्रसन्न।। 25

 

यज्ञ लक्ष्य हो भक्तिमय, परम् सत्य, ‘सत’ शब्द।

यज्ञ करें सम्पन्न जो, सर्वश्रेष्ठ सत् लब्ध ।। 26

 

यज्ञ,दान तप साधना, सभी कर्म प्रभु नाम।

हों प्रसन्न परमा पुरुष, ‘सत’ को करें प्रणाम।। 27

 

यज्ञ, दान, तप जो करें, बिन श्रद्धा के कोय।

असत् कर्म नश्वर सभी, व्यर्थ सभी कुछ होय।। 28

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” श्रद्धा के विभाग ब्रह्मयोग ” सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (61-65) ॥ ☆

 

यवनीयों के मुख कमल हुये न रघु को सह्य

असमय मेघों का रहा रवि ज्यों सदा असह्य ॥ 61॥

 

अध्वारोही सेन से सज्जित पश्चिम देश

लड़े धनुष्टंकार से गुंज्जित था परिवेश ॥ 62॥

 

मधुमक्खी से घिरे से मधुछत्ते की भांति

रघु – भालों से कट गिरी श्मश्रु मुण्डों की पाँत ॥ 63॥

 

बचे शत्रु शिर कवच रख आये शरण रघु पास

विनय रूप प्रतिकार में था जिनका विश्वास ॥ 64॥

 

द्राक्षामण्डप के तले बैठे सुभर महान

सुरापान करने लगे करने दूर थकान ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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