हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी #99 ⇒ कयामत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कयामत “।)  

? अभी अभी # 99 ⇒ कयामत? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप इसे प्राकृतिक आपदा कहें,विपत्ति कहें,ईश्वर का प्रकोप कहें,लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस बार बारिश, बाढ़, और भू -स्खलन ने जो कहर बरपाया है,और उससे जो जान माल की हानि हुई है,वह किसी तबाही से कम नहीं। इसके पहले कि आदमी के सब्र का बांध टूटे, नदियों के रौद्र रूप को देखकर,प्रशासन को कई बांधों के गेट खोलने पड़े।

बस फिर तो कयामत आनी ही थी।

पूरा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश तो इस तबाही की चपेट में आया ही,धार्मिक स्थान और पर्यटन स्थल सभी इस बार मूसलाधार बारिश और बाढ़ के पानी का निशाना बने। हरिद्वार हो या जोशीमठ, गंगोत्री हो या अमरनाथ,सोलन,मंडी और मनाली,सब तरफ पानी ही पानी,तबाही ही तबाही।।  

इस बार दिल्ली भी डूबने से नहीं बची। विकास की राह में जब प्रकृति का प्रकोप अपना रौद्र रूप दर्शाता है, तो सारे मंसूबे धरे रह जाते हैं। सरकार कितना खर्च करती है इन प्राकृतिक स्थलों के विकास के लिए। यह सब धार्मिक श्रद्धालुओं और पर्यटकों की सुविधा के लिए ही तो किया जाता है। लेकिन जब प्रकृति ही विपक्ष का रोल अदा करने लगे, तो कोई भी क्या करे।

यह एक गंभीर समस्या है, कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं। आपदा प्रबंधन तो सक्रिय है ही, जो पीड़ित हैं, और वहां जाम में फंसे हुए हैं, वे भी अपने मोबाइल कैमरे से तस्वीरें खींच खींच कर भेज रहे हैं। सरकार भी चिंतित है और मीडिया भी सक्रिय। हेलीकॉप्टर से बचाव कार्य भी होंगे, और माननीयों द्वारा भी परिस्थिति का जायजा लिया जाएगा। राहत कार्य जारी हैं, आर्थिक सहायता की भी घोषणा होगी ही।।  

इस बार कोई सरकार को दोष नहीं दे रहा। सड़कें और पूल जो क्षतिग्रस्त हुए हैं, उन्हें पुनः ठीक किया जाएगा। विकास की राह हमेशा कठिन ही होती है, लेकिन कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानी जाती।

फिर भी हर त्रासदी हमें कुछ सबक सिखला कर ही जाती है। दुष्यंतकुमार ने आसमान में सूराख करने को कहा था, यहां तो मानो आसमान ही टूट पड़ा।

मौसम की चेतावनी के साथ रेड अलर्ट ही नहीं, आजकल ऑरेंज अलर्ट और पर्पल अलर्ट भी जारी होने लग गए हैं। जब धरती दुखी होती है, फट जाती है, आसमान से भी दुख सहा नहीं जाता, बादल फट जाते हैं।।  

जब प्रकृति हंसती है, इंसान हंसता है, लेकिन जिस दिन प्रकृति रोने लगती है, ग्लेशियर पिघलने लगते हैं, पहाड़ खिसकने लगते हैं, उसका खामियाजा इंसान को भी भुगतना पड़ता है। अनुशासन और शिष्टाचार और विकास और भ्रष्टाचार कभी साथ नहीं चल सकते। जब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन जाए तो बेचारे बिकास बाबू भी क्या करे।

बहुत पहले फिल्म उपकार के एक पात्र लंगड़ ने एक बात कही थी, आसमान में उड़ने वाले, मिट्टी में मिल जाएगा। ईश्वर ने हमें पंख तो दिए नहीं, लेकिन हमें भी पंछियों की तरह उड़ने का शौक चर्राया। जल, थल और नभ तीनों लोकों पर इंसान ने कब्जा कर लिया और उसका मनमाना दुरुपयोग शुरू कर दिया।।  

आज आम नागरिक हो या सरकार, सबकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जन कल्याण का स्थान स्वार्थ और खुदगर्जी ने ले लिया है। एक समय था, जब इस तरह की आपदाओं पर समाज में थोड़ी गंभीरता, संजीदगी और चिंता नजर आती थी। क्या यह आपातकाल नहीं।

हमने अपने नेताओं को भगवान का दर्जा दे दिया है। बस उनका आव्हान हो, और हम नींद से जाग जाएं। वाकई बड़ी गंभीर परिस्थिति है, लेकिन हम कर भी क्या कर सकते हैं, ईश्वर की मर्जी के आगे। जो करेगी सरकार ही करेगी, हमारे नेता ही करेंगे, हमें प्रशासन पर भरोसा है। कपड़े, दवाई और खाद्य सामग्री का भी इंतजाम करना है। नुकसान के आंकड़े तो अभी आना बाकी है। महंगाई को भी अभी और बढ़ना ही है।।  

झूठे प्रचार तंत्र और विज्ञापन बाजी से कभी सच छुपाया नहीं जा सकता। जब दिव्यता पर भव्यता हावी हो जाती है, तो दिव्य शक्तियां रुष्ट हो जाती हैं। बड़ी मुश्किल से हम कोरोना के प्रकोप से उबरे थे, अब और अब यह प्राकृतिक आपदा। कड़वे सच का सामना तो हमें करना ही होगा।

बहुत तारीफ हो गई अपने आपकी, अब अपनी गलतियों को भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना होगा। दोषी हम ही हैं, हमारी सरकार नहीं, क्योंकि आखिर सरकार भी तो हमारी ही चुनी हुई होती है। हमें टूटना नहीं मजबूत होना है, एकजुट होना है, तभी हम इस संकट का सामना कर पाएंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #191 ☆ शक़, प्यार, विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शक़, प्यार, विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 191 ☆

☆ शक़, प्यार, विश्वास 

‘मन के दरवाज़े से जब शक़ प्रवेश करता है; प्यार व विश्वास निकल जाते हैं, यह अकाट्य सत्य है। शक़ दोस्ती का दुश्मन है और उसके दस्तक देते ही जीवन में तहलक़ा मच जाता है; शांति व सुक़ून नष्ट हो जाता है।’ पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दूसरे दरवाज़े से रफ़ूचक्कर हो जाते हैं और उनके स्थान पर काम,क्रोध व ईर्ष्या-द्वेष अपनी सल्तनत क़ायम कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में विश्वास वहां से कोसों दूर चला जाता है। जीवन में जब विश्वास नहीं रह जाता तो वहां पर शून्यता पसर जाती है; शत्रुता का भाव काबिज़ हो जाता है और मानव ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाता है। आजकल रिश्तों में अविश्वास की भावना हावी है,जिसके कारण अजनबीपन का एहसास सुरसा के मुख की भांति पांव पसार रहा है और संबंधों को दीमक की भांति चाट रहा है। संदेह,संशय व शक़ ऐसा ज़हर है,जो स्नेह व विश्वास को लील जाता है। वह दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देता है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जब तक मानव इस सत्य से अवगत होता है; बहुत देर हो चुकी होती है। वह प्रायश्चित करना चाहता है, परंतु ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है।

रिश्तों की माला जब टूटती है तो जोड़ने से छोटी हो जाती है,क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं। ‘रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाय/ टूटे ते पुनि न जुरे,जुरे ते गांठ परि जाय,’ क्योंकि एक बार संशय रूपी गांठ के मन में पड़ने से स्नेह, प्रेम व विश्वास दिलों से नदारद हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्तों का क्षेत्रफल कितना अजीब है/ लोग लंबाई-चौड़ाई तो नापते हैं/ गहराई कोई नहीं आँकता। आजकल के रिश्ते मात्र दिखावे के होते हैं,जो ज़रा की ठोकर लगते टूट जाते हैं भुने हुए पापड़ की मानिंद और कांच के विभिन्न टुकड़ों की भांति इत-उत बिखर जाते हैं। वैसे भी आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं; यहां तक कि खून के रिश्ते भी बेमानी भासते हैं। सो! इस स्थिति में मानव किस पर विश्वास करे?

छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान की ओर इंगित करती है। सो! सुनना सीख लो,सहना आ जाएगा। सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। इसलिए मानव का हृदय विशाल व सोच सकारात्मक होनी चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता मानव को अवसाद के व्यूह में लाकर खड़ा कर देती है। मानव को दूसरों की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखनी चाहिए,क्योंकि दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है और ख़ुद से उम्मीद रखना जीवन को प्रेरित करता है; निर्धारित मुक़ाम पर पहुंचाता है। वैसे संसार में सबसे मुश्किल काम है आत्मावलोकन करना अर्थात् स्वयं से साक्षात्कार कर,स्वयं को खोजना,क्योंकि आजकल मानव के पास समयाभाव है। सो! ख़ुद से मुलाकात कैसे संभव है? इससे भी बढ़कर कठिन है– अपनों में अपनों को तलाशना, क्योंकि चहुंओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। हमारे अपने क़रीबी व राज़दार ही सबसे अधिक दुश्मनी निभाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव तनाव-ग्रस्त होकर सोचने लगता है ‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें हज़ार और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ जीवन में इच्छाओं के मकड़जाल में फंसा इंसान लाख चाहने पर भी उनके शिकंजे से बाहर नहीं आ सकता। वक्त व ख़्वाहिशें हाथ में बंधी घड़ी की तरह होती हैं,जिसे हम विषम परिस्थिति में उतार कर रख भी दें,तो भी चलती रहती है। इसलिए कहा जाता है कि ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल नहीं,परंतु असीमित आकांक्षाओं व लालसाओं को पूरा करना असंभव व नामुमक़िन है/ कुछ ख़्वाहिशों को ख़ामोशी से पालना चाहिए अर्थात् उनके पीछे नहीं भागना चाहिए,क्योंकि वे तो माया जाल है; जिसमें मानव फंसकर रह जाता है।

‘जीवन एक यात्रा है/ रो-रोकर जीने से लम्बी लगेगी/ और हंसकर जीने से कब पूरी हो जाएगी/ पता भी न चलेगा।’ सो! मानव को सदैव प्रसन्न रहना चाहिए तथा किसी से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए,क्योंकि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक हैं। वे मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती हैं,जहां वह स्वयं को असहाय अनुभव करता है। किसी से उम्मीद रखना और उसकी पूर्ति न होना; उपेक्षा का कारण बनती है। यह दोनों स्थितियां भयावह हैं। ‘उम्र भर ग़ालिब यह भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी/ और आईना साफ करता रहा।’ मानव जीवन में यही ग़लती करता है कि वह सत्य का सामना नहीं करता और माया के आवरण में उलझ कर रह जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अंदाज़ में न नापिए/ किसी की हस्ती को/ ठहरे हुए दरिया/ अक्सर गहरे हुआ करते हैं।’ परंतु मानव दूसरों को पहचानने की ग़लती करता है और चापलूस लोगों के घेरे से बाहर नहीं आ सकता। दूसरों को खुश करने के लिए मानव को तनाव,चिन्ता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। ‘खुश होना है/ तो तारीफ़ सुनिए/ बेहतर होना है तो निंदा/ क्योंकि लोग आपसे नहीं/ आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं।’ यह जीवन का कड़वा सच है। पद-प्रतिष्ठा तो रिवाल्विंग चेयर की भांति हैं,जिसके घूमते ही लोग नज़रें फेर लेते हैं।

वास्तव में सम्मान व्यक्ति का नहीं; उसके पद,स्थिति व रुतबे का होता है। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं,जो आपके सामने कहे जाते हैं,बल्कि उन शब्दों का होता है; जो आपकी अनुपस्थिति में कहे जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति की सोच व व्यवहार उसके जाने से पहले पहुंच जाते हैं। सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है– उपहास,विरोध व अंतत: स्वीकृति। सत्य को सबसे पहले उपहास का पात्र बनना पड़ता है; फिर विरोध सहना पड़ता है और अंत में उसे मान्यता प्राप्त होती है। परंतु सत्य तो सात परदों के पीछे से भी प्रकट हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सत्य ही शिव है; शिव ही सुंदर है। जीवन में सत्य की राह पर चलना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसका परिणाम सदैव कल्याणकारी होता है और वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। व्यवहार ज्ञान से बड़ा होता है और हम अपने विनम्र व्यवहार द्वारा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से विचार। इसलिए विचार ऐसे रखो कि किसी को तुम्हारे विचारों पर भी विचार करना पड़े अर्थात् सार्थक विचार और सार्थक कार्य-व्यवहार को जीवन में धरोहर-सम संजोकर रखें। ‘जीवन में हमेशा कर्मशील रहें; थककर निराशा का दामन मत थामें,क्योंकि सफल व्यक्ति कुर्सी पर भी विश्राम नहीं करते। उन्हें काम करने में आनंद आता है। वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं। वे लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और वही उनके जीने का अंदाज़ होता है।’ यही सोच थी कलाम जी की–आत्मविश्वास रखो और निरंतर परिश्रम करो। कबीरदास जी के मतानुसार ‘आंखिन देखी पर विश्वास करें; कानों-सुनी पर नहीं’,क्योंकि लोग किसी को खुश नहीं देख सकते। उन्हें तो दूसरों के जीवन में आग लगाने के पश्चात् आनंदानुभूति होती है। इसलिए वे ऊल-ज़लूल बातें कर उनका विश्वास जीत लेते हैं। उस स्थिति में उनके परिवार की खुशियों को ग्रहण लग जाता है। स्नेह व प्रेम भाव उस आशियाने से मुख मोड़ लेते हैं और विश्वास भी सदा के लिए वहां से नदारद हो जाता है। उस घर में मरघट-सा सन्नाटा पसर जाता है। घर-परिवार टूट जाते हैं। संदेह व संशय के जीवन में दस्तक देते ही खुशियाँ अलविदा कह बहुत दूर चली जाती हैं। सो! एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास भाव होना आवश्यक है ताकि जीवन में समन्वय व सामंजस्य बना रहे। वैसे भी मानव को सब कुछ लुट जाने के पश्चात् ही होश जाता है। जब उसे किसी वस्तु का अभाव खलता है तो ज़िंदगी की अहमियत नज़र आती है। इसलिए शीघ्रता से कोई निर्णय न लें,क्योंकि जो दिखाई देता है,सदा सत्य नहीं होता। मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हों; हौसलों से छोटी रहती हैं। इसलिए संकट की घड़ी में अपना आपा मत खोएं; सुक़ून बना रहेगा और जीवन सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 98 ⇒ गं ध… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गं ध।)  

? अभी अभी # 98 ⇒ || गं ध ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप सुगंध कहें या खुशबू, किसे महकता वातावरण पसंद नहीं। बात चाहे वादियों और फिज़ाओं की हो, अथवा गंधमादन पर्वत की, सुंदरता और मादकता को न तो आप परिभाषित कर सकते हैं, और न ही उसे किसी तस्वीर में उतार सकते हैं। किसी बदन की खुशबू और किसी गुलाब की महक किसी नुमाइश की मोहताज नहीं। कब ‘आंख ‘ सूंघ ले, और कब ” नाक ‘ देख ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक सस्ता सा शेर भी शायद यही बात दोहरा रहा है ;

सच्चाई छुप नहीं सकती

बनावट के उसूलों से।

कि खुशबू आ नहीं सकती

कभी काग़ज़ के फूलों से।।

सभी प्राणियों में सूंघने की शक्ति होती है, किसी में कम, किसी में ज्यादा। जिस तरह लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, उसी तरह कई लोग खुशबू के भी शौकीन होते हैं। कजरा अगर सुंदरता का प्रतीक है तो गजरा खुशबू का। रसिकों का क्या है, वे तो सुनने के भी शौकीन होते हैं ;

पायल वाली देखना,

यहीं तो कहीं दिल है ;

पग तले आए ना।।

रस और गंध का गुण धर्म राजसी है। स्वर्ग में राजसी सुख है, वैभव है, नृत्य और संगीत है। हम मंदिर में अपने इष्ट को पुष्प और गंध दोनों अर्पित करते हैं। धूप बत्ती और कर्पूर आरती का भी प्रावधान है। गंध से आसुरी शक्तियां पास नहीं फटकती। सुगंधित पदार्थों और जड़ी बूटियों से ही यज्ञ और हवन संपन्न होते हैं।

पुष्प समर्पयामि। गंधं समर्पयामि ! चित्त का शांत होना ही शांति का प्रतीक है।

सूंघने का विभाग नाक का है। एक विभाग के भी दो भाग हैं, जिनमें वेंटिलेटर्स लगे हैं। हमारे फेफड़ों में प्राणवायु का प्रवेश और कार्बन डाइऑक्साइड की निकासी भी तो इसी नाक से होती है। नस नाड़ियों का जाल हमारे शरीर का नेटवर्क है। सूर्य चंद्र नाड़ी का अनुपात शरीर को गर्म ठंडा रखता है। संत कबीर तो इड़ा पिंगला की बात करते करते सीधे सुषुम्ना यानी सहज समाधि तक पहुंच जाते हैं। ।

यह हमारा शरीर भले ही हाड़ मांस का पुतला हो, लेकिन अगर किसी के बदन में खुशबू है तो किसी के शरीर में बदबू भी हो सकती है, क्योंकि हमारी प्रवृत्ति भी सात्विक, राजसी और तामसिक होती है तामसी पदार्थों के सेवन से बदन में खुशबू नहीं, बदबू ही आती है। जैसा अन्न वैसा मन ;

फूल सब बगिया खिले हैं

मन मेरा खिलता नहीं क्यों।

फूल तो खुशबू बिखेरें

मैं रहा बदबूऍं क्यों।।

हमारे ही शरीर में आभा भी है और ओज भी, जिसे विज्ञान की भाषा में aura कहते हैं। किसी के आने पर सजना, धजना, संवरना भी प्रसन्नता का ही द्योतक होता है। बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है। खुशी से हमारा चेहरा खिलता क्यों है, जब उदास होते हैं, तो मुरझाता क्यों है।

चमन में बहार है तो खुशबू है। जिस घर में महक और खुशबू जैसी बहनें हों, वहां तो बहार ही बहार है। किसी के पड़ोसी अगर मिस्टर गंधे हैं तो किसी के समधी श्री सुगंधी हैं। एक सुगंधा मिश्रा है, जो आज तक यह तय नहीं कर पा रही, कि वह एक अच्छी गायिका है या मिमिक्री आर्टिस्ट। ।

अक्सर, जब सर्दी जुकाम हो जाता है, तो हमारी सूंघने की शक्ति काम नहीं करती। हम समझते हैं, रसोई में अभी दाल ही नहीं गली, जब कि दाल जलकर खाक हो चुकी होती है। पेट में जब चूहे कूदने लगते हैं, तो दूर किसी झोपड़ी से चूल्हे की आग में सिक रही रोटी की महक, छप्पन भोग को मात कर देती है।

हमारी माटी की गंध का भी जवाब नहीं। तपती गर्मी के बाद, जब बारिश की कुछ बूंदें, धरती पर पड़ती है, तो वह सौंधी सौंधी खुशबू, बड़ी प्यारी लगती है। नेकी ही खुशबू का झोंका है और बदी, असह्य बदबू।

षडयंत्र की बू सभी को आ जाती है लेकिन अच्छाई कभी अपना प्रचार नहीं करती। फूल कभी नहीं कहता, मुझे सूंघो, उसकी खुशबू चलकर आपके पास आती है। हमारा स्वभाव ही हमारी असली पहचान है, डियोड्रेंट और आर्टिफिशियल फ्रेगरेंस ( कृत्रिम सुगंध ) नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 221 ☆ आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेखउपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆  

? आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक?

कल मेरा बैंक जाना हुआ। एक बुजुर्ग अम्मा अपनी पास बुक में एंट्री करवाना चाहती थीं। काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उन्हें हिकारत की नजरों से देखते हुये कहा कि कल आना। इस संवेदनशील दृश्य ने मुझे यह लेख लिखने को विवश किया है। बैंको में निश्चित ही ढ़ेर सारी कथित जन कल्याणकारी वोट बटोरू योजनाओ के कारण काम की अधिकता है। प्रायः माह के पहले सप्ताह में बैंक कर्मी एंट्री या अन्य कार्यों को टालने के लिये प्रिंटर खराब होने, स्टाफ न होने, या अन्य बहाने बनाते आपको भी मिले होंगे, मुझे भी मिलते हैं।

बुजुर्गो के लिये बैंक आपके द्वार जैसी योजनायें इंटरनेट पर बड़ी लुभावन लगती हैं किन्तु वास्तविकता से कोसों दूर हैं। म प्र में तो सीनियर सिटिजन कार्ड्स तक नहीं बनाये गये हैं, उनके लाभों की बात तो बेमानी ही है। स्वयंभू मामा को वरिष्ठ नागरिको में वोट बैंक नही दिखना हास्यास्पद है। वे कुछ बुजुर्गों को तीर्थाटन में भेजते फोटो खिंचवाते प्रसन्न हैं। श्रीलंका की यात्रा से लौटकर यथा नियम वर्षो पहले विधिवत कलेक्टोरेट जबलपुर में आवेदन करने, सी एम हेल्पलाइन पर शिकायत करने पर भी यात्रा के किंचित व्यय की पूर्ति योजना अनुसार देयता होने पर भी आज तक न मिलने के उदाहरण मेरे सम्मुख हैं।

वरिष्ठ नागरिक समाज की जबाबदारी हैं एक दिन सबको वृद्ध होना ही है। सरकारों को अति वरिष्ठ नागरिकों की विशेष चिंता करनी होगी। देश के उच्च तथा मध्य वर्ग के बड़े समूह ने अपने बच्चो को सुशिक्षित करके विदेश भेज रखा है। अब एकाकी बुजुर्गो की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। अति वरिष्ठ बुजुर्गो के लिए कोई इंश्योरेंस नही है। अकेले धक्के खाने वाली चिकित्सा व्यवस्था से बुजुर्ग घबराते हैं, समाज में बुजुर्गो को सुरक्षा की कमी है, बैंक तथा शासकीय अधिकारी सही सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते, बच्चों के पास ये वरिष्ठ नागरिक विदेश जाना चाहते हैं किंतु वीजा तथा वहां मंहगी चिकित्सा की समस्याएं हैं। सरकार को देश में और विदेशी सरकारों से समझौते कर इन अति वरिष्ठ नागरिकों को सहज सरल जीवन व्यवस्था देनी चाहिए। यह समय की मांग है। किसी भी राजनैतिक पार्टी का ध्यान इस ओर अभी तक नही गया है।

अपने विदेश तथा अमेरिका प्रवास में मैंने देखा कि वहां बुजुर्गो के मनोरंजन हेतु, उनके दैनंदिनी जीवन में सहयोग, कार पार्किंग, आदि आदि ढ़ेरो सुविधायें निशुल्क सहज सुलभ हैं। भारत सरकार के पोर्टल के अनुसार बुजुर्गों को आयकर संबंधी कुछ छूट, बैंको के कुछ अधिक ब्याज के सिवा यहां कोई लाभ बुजुर्गों तक नहीं पहुंच रहे। कार्पोरेशन प्रापर्टी टैक्स में छूट, दोपहर और रात में जब मेट्रो खाली चलती हैं तब बुजुर्गों को सहज किराये में छूट दी जा सकती है . निजि क्षेत्रो के अस्पताल, एम्यूजमेंट पार्कस, सिनेमा आदि भी अंततोगत्वा सरकारी प्रावधानो के अंतर्गत स्थानीय प्रशासन में ही होते हैं, उन्हें भी बुजुर्गो के लिये सरल सस्ती व्यवस्थाये बनाने के लिये प्रेरित और बाध्य भी किया जा सकता है।

जेरियेट्रिक्स पर सरकारो को विश्व स्तर पर ध्यान देने की जरुरत है। जिनके बच्चे जिस देश में हैं उन्हें वहां के वीजा सहजता से मिलें, उन देशों की सरकारें वहां पहुंच रहे बुजुर्गो को मुफ्त स्वास्थ्य सेवायें, कैश लेस बीमा सेवायें सुलभ करवायें इस आशय के समझौते परस्पर सरकारों में किये जाने की पहल भारत को करनी जरूरी है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और …… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्याऊ और … ।)  

? अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

यह तब की बात है, जब मिल्टन के वॉटर कंटेनर और बिसलेरी की बॉटल का आविष्कार नहीं हुआ था, क्योंकि हमारे प्रदेश में कुएं, बावड़ी, नदी तालाब, ताल तलैया और सार्वजनिक प्याऊ की कोई कमी नहीं थी। शायद आपने भी सुना हो ;

मालव धरती गहन गंभीर,

डग डग रोटी, पग पग नीर

हम बचपन में, सरकारी स्कूल में कभी टिफिन बॉक्स और वॉटर बॉटल नहीं ले गए। कोई मध्यान्ह भोजन नहीं, बस बीच में पानी पेशाब की छुट्टी मिलती थी, जिसे बाद में इंटरवल कहा जाने लगा।

इतने बच्चे, कहां का पब्लिक टॉयलेट, मैदान की हरी घास में, किसी छायादार पेड़ की आड़ में, तो कहीं आसपास की किसी दीवार को ही निशाना बनाया जाता था। हर क्लास के बाहर, एक पानी का मटका भरा रहता था, तो कहीं कहीं, पीने के पानी की टंकी की भी व्यवस्था रहती थी। कुछ पैसे जेब खर्च के मिलते थे, चना चबैना, गोली बिस्किट से काम चल जाता था।

शहर में दानवीर सेठ साहूकारों ने कई धर्मशालाएं बनवाई और सार्वजनिक प्याऊ खुलवाई। हो सकता है, कई ने कुएं बावड़ी भी खुदवाए हों, लेकिन सार्वजनिक पेशाबघर की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन अथवा नगर पालिका की ही रहती थी। हो सकता है, नगरपाल से ही नगर पालिका शब्द अस्तित्व में आया हो। ।

आज भी शहर में आपको कई ऐसी धर्मशालाएं और सार्वजनिक प्याऊ नजर आ जाएंगी, जिनके साथ दानवीर सेठ साहूकार का नाम जुड़ा हो, लेकिन इनमें से किसी के भी नाम पर, शहर में कोई सार्वजनिक पेशाब घर अथवा शौचालय नजर नहीं आता। इतिहास गवाह है, केवल एक व्यक्ति की इन पर निगाह गई, और परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति, घर घर शौचालय, और सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर के निर्माण ने देश का कायाकल्प ही कर दिया।

इसके पूर्व सुलभ इंटरनेशनल ने पूरे देश में सुलभ शौचालयों का जाल जरूर बिछाया, लेकिन उसमें जन चेतना का अभाव ही नज़र आया।

पानी तो एक आम आदमी कहीं भी पी लेगा, लेकिन पेशाब या तो घर में ही की जा सकती है अथवा किसी पेशाब घर में। भाषा की अपनी एक सीमा होती है, और शर्म और हया की अपनी अपनी परिभाषा होती है। कुछ लोग इसे लघुशंका कहते हैं तो कुछ को टॉयलेट लग जाती है।

मौन की भाषा सर्वश्रेष्ठ है, बस हमारी छोटी उंगली कनिष्ठा का संकेत ही काफी होता है, अभिव्यक्ति के लिए। जिन्हें अधिक अंग्रेजी आती है वे इस हेतु पी (pee) शब्द का प्रयोग करते हैं। बच्चे तो आज भी सु सु ही करते हैं। खग ही जाने खग की भाषा। ।

एक समग्र शब्द प्रसाधन सभी को अपने आपमें समेट लेता है। बोलचाल की भाषा में आज भी इन्हें पब्लिक टॉयलेट कहा जाता है, पुरुष और महिला के भेद के साथ। प्रशासन ऐप द्वारा भी आजकल आपको सूचित करने लगा है, यह सुविधा आपसे कितनी दूरी पर है।

हर समस्या का हल सुविधा से ही होता है, लेकिन कुछ आदिम प्रवृत्ति आज भी पुरुष को स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और उच्छृंखल बनाए रखती है। सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान और मल मूत्र का विसर्जन वर्जित और दंडनीय अपराध है लेकिन उद्दंडता सदैव कानून कायदे और अनुशासन का उल्लंघन ही करती आ रही है। हद तो तब होती है, जब इनके कुछ शर्मनाक कृत्य लोक लाज और मान मर्यादा की सभी हदें पार कर जाते हैं, और कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आम भाषा में कांड की श्रेणी में शामिल हो जाता है, कभी तेजाब कांड तो कभी पेशाब कांड ! एक जानवर कभी अपनी कौम को शर्मिंदा नहीं करता, लेकिन एक इंसान ही अक्सर इंसानियत को शर्मिंदा करते देखा गया है। हम कब सुधरेंगे। 

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव।)  

? अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।

सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।

हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।

सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।

एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।

पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।

आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है।।

बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।

आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है।।

आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।

वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा।

भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.

जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.

आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.

ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 220 ☆ आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखपरसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 220 ☆  

? आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं?

व्यंग्य लेखों में शीर्षक का महत्व सर्वविदित है. शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है. शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से खींचता है. शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासा वर्धक होना चाहिये. वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगा लिया जाता है ठीक उसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में शीर्षक से अनुमान लगाया जा सकता है.

केवल सनसनीखेज शीर्षक हो पर व्यंग्य में पाठक को विषयवस्तु न मिले तो जल्दी ही व्यंग्यकार पाठकों का विश्वास खो देता है. शीर्षक-लेखन अपने आप में एक कला है. शीर्षक में शब्दों के स्थान का निर्धारण भी एक महत्वपूर्ण तत्व होता है. परसाई जी के लेख पढ़ना तो वैचारिक विमर्श होता ही है, उनके लेखों के शीर्षक भी स्वयं में विचार मंथन का अवसर देते हैं. परसाई के अनेक लेखों के शीर्षक शाश्वत बोध देते हैं. उनके शीर्षकों पर फिर फिर नये नये लेख लिखे जा सकते हैं. परसाई रचनावली के छै खण्ड हैं. उनके लगभग हजार से ज्यादा लेख इस समग्र रचनावली में समाहित हैं.

इन समाहित लेखों में परसाई के अनेक शीर्षक कौतूहल पैदा करते हैं, उनमें प्रश्नवाचक चिन्ह तथा मार्क आफ एक्सक्लेमेशन भी मिलता है. आखिर एकता क्यों हो ? बोल जमूरे इस्तीफा देगा? भेड़ें और भेड़िए ! बाबा की गौमाता ! आदि ऐसे ही शीर्षक हैं.. परसाई न्यूनतम शब्दों में ही बड़ी बात कहने की क्षमता रखते हैं. आत्मसम्मान की शैलियां, बारात की वापसी, आरोप ही आरोप, भगत की गत, जैसे शीर्षकों में वे शब्द चातुर्य करते हैं. परसाई के लंबे शीर्षकों में भी प्रायः एक वाक्य या वाक्यांश हैं. लंबे शीर्षकों में वाक्य विन्यास में कर्ता और क्रिया के अनुक्रम में परिवर्तन मिलता है. भारत-पाक युद्ध और मेरी तलवार, आचार्य जी एक्सटेंशन और बगीचा, अब युद्ध जहर भी नहीं, भगवान का रिटायर होना, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, भूत पिशाच का हनुमान चालीसा, आवारा युवकों के जरिए आवारा क्रांति, वादे पूरे करो मत करो, आदम की पार्टी का घोषणा पत्र आदि उनके व्यंग्य लेखों के ऐसे ही शीर्षक हैं

सामान्यतः सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए. परसाई के कुछ एक या दो शब्दों के लघु शीर्षक देखिये आमरण अनशन, अकाल उत्सव, अफसर कवि, बेमिसाल, अनुशासन, अमरता, अभिनंदन, असहमत, आदमी की कीमत, बदचलन, भोलाराम का जीव, आदि जब हम इन लेखों को पढ़ते हैं तब शीर्षक अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त होता जाता है तथा लेख का कंटेंट शीर्ष से बाद में भी स्मरण रहता है.

अनेक लेखों में वे दो तीन शब्दों के शीर्षक से भी एक उत्सुकता, तथा चमत्कार पैदा करने में पारंगत थे. मसलन उनके लेखों के शीर्षक हैं… अपना पराया, अमरत्व अभियान, असिस्टेंट लोकनायक, अश्लील पुस्तकें, असुविधा भोगी, अभाव की दाद, एयरकंडीशंड आत्मा, अमेरिकी छत्ता, अरस्तु की चिट्ठी, आत्मज्ञान क्लब, वैष्णव की फिसलन, विधायकों की महंगी गरीबी, अपने लाल की चिट्टी, वधिर मुख्यमंत्री, मूक मुख्यमंत्री, बंधुआ मुख्यमंत्री, आंदोलन दवाने वालों का आंदोलन, अखिल भारतीय मंत्री संघ का पत्र, अपनी कब्र खोदने का अधिकार इस तरह के समसामयिक लेखों के उनके शीर्षक प्रासंगिक रूप से आकर्षक होते थे. बेताल की कथा, कहा जाता है कि शीर्षक जिज्ञासापरक होना चाहिये, परंतु उसे जानबूझकर सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए. द्वि-अर्थी, पक्षपातपूर्ण, अभद्र व अश्लील शीर्षक नहीं होना चाहिए. परसाई जी इस मापदण्ड पर शत प्रतिशत खरे उतरते हैं. भारत सेवक की सेवा, आना और ना आना राम कुमार का, अपने-अपने इष्ट देव, अपनी-अपनी बीमारी, आफ्टर ऑल आदमी, असफल कवि सम्मेलनों का अध्यक्ष, अब और लोकतंत्र नहीं, बेचारा कॉमन मैन, भगवान को घूस, बेचारा भला आदमी, अपनी-अपनी हैसियत जैसे शीर्षकों से उनके लेख उस समय तो पठनीय थे ही आज भी रुचिकर हैं. सामान्यतः कहा जाता है कि समसामयिक व्यंग्य साहित्य की उम्र ज्यादा नहीं होती, वह अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपता जरूर है किन्तु अखबार के साथ ही रद्दी में बदल जाता है किन्तु परसाई रचनावली पढ़ने से समझ आता है कि क्यों वे इतने सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर के रूप में पहचाने जाते हैं. आज के व्यंग्य लेखक परसाई के पठन से, उन की शैली व चिंतन को समझ कर बहुत कुछ सीख सकते हैं.

मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ों को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है. इस तरह के प्रयोग से परसाई ने भी अनेक लेखों के शीर्षकों को आकर्षक बनाया है. उदाहरण के लिये अभी दिल्ली दूर है, सब सो मिलिए धाय, अहले वतन में इतनी शराफत कहां है जोश, सुजलाम् सुफलाम्, वैष्णव जन और चौधरी की पीर, सबको सन्मति दे भगवान, आई बरखा बहार, अपने-अपने भगीरथ, बलिहारी गुरु आपकी आदि.

भ्रष्टाचार वितरण कार्यक्रम, भावना का भोजन, सरकार चिंतित है, बिना माइंड के लाइक माइंडेड, सदाचार का ताबीज, सड़े आलू का विद्रोह, साहब का सम्मान, सज्जन दुर्जन और कांग्रेस जन, सर्वोदय दर्शन, वर्क आउट स्लिप आउट ईट आउट, भारत को चाहिए जादूगर और साधु जैसे शीर्षको के उनके व्यंग्य लेख समर्थ साहित्य हैं. और अब गीता आंदोलन, अकाली आंदोलन फासिस्टी और देश, बांझ लोक सभा को तलाक, भूत के पांव पीछे, भारतीय राजनीति का बुलडोजर, भारतीय भाषाओं का रेडियो कवि सम्मेलन, भजन लाल का भजन, यज्ञदत्त का यज्ञ भंग, बिना जवाब की आवाजें, स्वर्ग में नर्क जैसे शीर्षकों में परसाई शब्दों से खेलते मिलते हैं.

साहित्य शोध प्रक्रिया, सम्मान की भूमिका, साहित्य और नंबर दो का कारोबार, बेपढ़ी समीक्षा जैसे लेखो में वे साहित्य जगत पर कटाक्ष करते हैं तो, ये विनम्र सेवक, बेचारे संसद सदस्य, जैसे लेखों मे राजनीतिज्ञो को अपनी कलम के निशाने पर लेते हैं. बकरी पौधा चर गई में परसाई वृक्षारोपण में होते भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हैं. यशोदा मैया का माखन में उनका इशारा माखन चट करते भ्रष्ट अफसरो और मंत्रियो के काकस की ओर है. ये सारे विषय दशकों के बाद आज भी उतने ही ज्वलंत हैं जितने परसाई के समय में थे. उन्हें धर्म नहीं आंदोलन चाहिए ऐसे शीर्षक हैं जिन्हें पढ़कर लगता है जैसे परसाई आज के प्रसंगो पर लिख रहे हों. यदि हम परसाई के समय में स्वयं को वैचारिक रूप उतारकर पूरा लेख पढ़ें तो परसाई के लेखो के शीर्षक हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 42 – देश-परदेश – सेवानिवृत्ति: सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 42 ☆ देश-परदेश – सेवानिवृत्ति: सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गुलाबी नगर (जयपुर) के गुलाब बाग (Rose Garden) में गुलाबी मौसम की शाम हमेशा की तरफ सेवानिवृत्त हो चुके हमारे जैसे फुरसतिये किसी भी विषय को लेकर यदा कदा अदरक वाली चाय की चुस्कियों पर चर्चा कर ही लेते हैं।

कल का विषय सेवानिवृत्त हो चुके व्यक्तियों को उनकी संस्था द्वारा उपलब्ध कराए जानी वाली सुविधाओं पर केंद्रित था। चूंकि विषय का चयन हमारे द्वारा हुआ था, तो चर्चा का आग़ाज़ भी हमें करना पड़ा। वैसे पंजाबी भाषा में भी एक कहावत है कि “जेड़ा बोले वो ही दरवाज़ा खोले” अर्थात जब घर के द्वार पर दस्तक होने के समय जो सबसे पहले बोलेगा उसी को उठ कर आगंतुक के लिए द्वार खोलना होगा।

बैंक कर्मी की कलम/ कंप्यूटर हमेशा करोड़ों पर चलती हैं। जीवन के करीब करीब चार दशक ब्याज देन/लेन करते रहने के कारण बैंक कर्मी को सामान्य ब्याज दर से एक प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज मिलता है। बैंक के अतिथि ग्रह और अवकाश ग्रह में उपलब्ध होने की स्थिति में कुछ दिन रहने की सुविधा भी मिल जाती है।

वहां बैठे हुए अन्य संस्थाओं से सेवा निवृत्त मित्र मज़ाक में बोले बस इतना सा में ही प्रसन्न रहते हो। एक सुरक्षा प्रहरी ने सैन्य हॉस्पिटल और कैंटीन की सुविधा का वर्णन किया, हालांकि सस्ती दर पर मदिरा की सुविधा को उन्होंने खुले आम उजागर नहीं किया,परंतु सर्वज्ञात है।

एयर इंडिया से सेवानिवृत्त मित्र बोले उनके स्वयं, पत्नी के अलावा भी पिता और माता के साथ-साथ सभी भाई और बहनों को भी किसी एक स्थान जिसमें विदेश भी शामिल है कि मुफ्त हवाई यात्रा सुविधा मिलती है। रेलवे से सेवानिवृत्त मित्र ने भी मुफ्त रेल यात्रा सुविधा का जिक्र किया।

उच्च न्यायालय में न्यायाधीश से सेवानिवृत्त साथी बोले उनको नगर से बाहर आने जाने के समय स्टेशन/ विमान तल तक निशुल्क कार की व्यवस्था उपलब्ध करवाई जाती हैं।

दिन छोटे होने के कारण,शाम अब जल्दी ढल जाती है, इसलिए चर्चा को भी विराम दे दिया गया। आप की जानकारी में यदि किसी अन्य विभाग द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं की जानकारी हो अवश्य साझा करें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ धर्म स्थापना के लिए ईश्वर के अवतार… ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆ आलेख – धर्म स्थापना के लिए ईश्वर के अवतार… ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्रीकृष्ण मुख से निकला वेदामृत ही ‘गीता’…

धर्म क्या है ? धर्म की हानि होने पर उसकी पुनर्स्थापना के लिए ईश्वर को समय-समय पर अलग-अलग रूपों और नामों से क्यों प्रकट होना (जन्म लेना) पड़ता है ? क्या द्वापर युग में परमेश्वर ने ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर ‘वेदों’ में निहित ‘धर्म’ का ज्ञान गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था ? इसे समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि वेद क्या हैं ? और वेदों में क्या है ? वास्तव में ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ समेटे हुए है। विविध शक्तिपुंजों / ईश्वर पर श्रद्धा-भक्ति, उपासना-आराधना, पूजा-पाठ तो धर्म है ही, सद्गुण, सदाचरण, न्याय, अहिंसा, कर्त्तव्य तथा बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मार्ग भी मनुष्य का परमधर्म है। यह तमाम जानकारी वेदों में निहित है। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘विद’ से हुई है। वेद का अर्थ है ‘ज्ञान के ग्रन्थ’। विद् से ही विद्या, विद्वान और ज्ञान शब्द बने। आत्मोत्थान-समाजोत्थान के लिए ‘वेद’ सनातन मार्ग दर्शक हैं। ‘वेद’ श्रीनारायण का दिया हुआ दिव्य ज्ञान है। जब-जब ईश्वर इस सृष्टि को रचता है तब-तब परमेश्वर के द्वारा इस ज्ञान का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के हृदय में होता है। ब्रह्मा ही सृष्टि के प्रथम देव हैं। इनसे यह ज्ञान ऋषियों-गुरूओं को और फिर शिष्यों तथा समाज को पहुँचता आया है। सम्भवतः इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। महर्षि भगवान व्यास ने इस ज्ञान को लिपिबद्ध किया। वेद-ज्ञान को चार भागों में बांटा गया, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों के तत्व ज्ञान को वेदांत या उपनिषद कहते हैं। चारों वेदों सहित ‘गीता’ में भी योग शब्द का प्रयोग मुख्यतः संयोग, प्रयत्न, सिद्धि और विशिष्ट शक्ति के रूप में किया गया है।

शक्ति की उपासना-साधना और ज्ञान से प्राप्त सामर्थ्य का दुरूपयोग भी सदा से होता आया है। शक्ति सम्पन्न लोग जब निरंकुश होकर समाजोत्थान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं और वेदों द्वारा वर्जित अथवा वेद विरूद्ध कार्य करते हुए सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस कर अत्याचार-अनाचार और अराजकता की हदें पार कर देते हैं, तब समाज को अनीति की पोषक निरंकुश शक्तियों से मुक्त कर पुनः धर्म और सुनीति की स्थापना के लिए प्रभु को जन्म लेना पड़ता है। द्वापर युग में निर्मित इन्हीं परिस्थितियों के समाधान के लिए परम प्रभु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेना पड़ा। श्रीकृष्ण ने कंस सहित अनेक अत्याचारी राजाओं और उनके अनुचरों को समाप्त किया। भौमासुर का वध कर सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त कराया। निर्वस्त्र नहाती युवतियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध (महाभारत) होना निश्चित हो गया तब श्रीकृष्ण ने स्वयं शस्त्र न उठाने की बात कहते हुए अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। युद्धभूमि में अर्जुन जब विपक्ष में खड़े स्वजनों को देखकर विचलित हो गया और क्षत्रिय धर्म-कर्त्तव्य भूलकर उसने युद्ध से इन्कार करते हुए अपने शस्त्र रख दिए तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो वेद सम्मत उपदेश दिए वही गीता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को तरह-तरह के उदाहरणों से धर्म का मर्म बताकर समझाते हैं कि धर्मनीति, अधिकार और कर्त्तव्य का पालन करते हुए युद्ध से भी पीछे नहीं हटना चाहिये।

‘अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सड्ग्रामं न करिष्यसि ।

ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।’

(यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।)

सनातन धर्म में भाग्य को प्रधानता नहीं दी गई है। वेद, उपनिषद और गीता तीनों ही कर्म (प्रयत्न) का महत्व बताते हुए इसे कर्त्तव्य मानते हैं। यही पुरुषार्थ है। धर्म और नीतिशास्त्रों में बताया गया है कि कर्म के बिना गति नहीं। वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ।’ मनुष्य जो भी अच्छा-बुरा अर्थात् पुण्य व पाप कर्म करता है उस कर्म का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कर्म को प्रधान मानते हुए लिखा है – ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करे तो तस फल चाखा।’ वेदों, शास्त्रों, पुराणों सहित सभी ग्रन्थों में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं। इनमें सबसे ऊपर कर्म को रखा गया है, द्वितीय ज्ञान और तृतीय भक्ति व उपासना। विराट ईश्वर के अवतार श्रीकृष्ण ने भी ‘गीता’ में उन्हें प्राप्त करने के यही तीन मार्ग बताए हैं। ऋग्वेद भी कहता है ‘सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् ।’ साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।

जीवन में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। हमें फल प्राप्ति की चिंता न करते हुए कार्य करते रहना चाहिये। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’

यहाँ श्रीकृष्ण जी के कथन में यह निहित है कि यदि हम लक्ष्य या उद्देश्य प्राप्ति के लिये कर्म करते जाएंगे तो उसका फल तो हमें मिलना ही है। अतः कर्म करें, फल प्राप्ति को लेकर निश्चिंत रहें। कहा गया है कि ‘बुद्धिः कर्मानुसारिणी’ अर्थात बुद्धि भी कर्म का अनुसरण करती है। जब बुद्धि और कर्म का योग होता है तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है।

उपनिषद के अनुसार ‘शरीरमाद्यां खलु धर्मसाधनम्।’ शरीर सभी धर्मों/दायित्वों को पूरा करने का साधन है। इसी को कृष्ण गीता में कहते हैं –

‘नियंत कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि चते न प्रसिद्धयेद कर्मणः।।’

(तू शास्त्र अनुसार कर्त्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।)

श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

‘न मे पार्थस्ति कर्त्तव्यं जिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।’

(हे अर्जुन मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न ही कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में रत रहता हूँ।)

वेदों में वर्णित ‘यज्ञ’ शब्द की श्रीकृष्ण जी ने गीता में विस्तृत सरल व्याख्या कर जीवन में यज्ञ और हवन की सार्थकता बताई है – भगवान श्रीकृष्ण ने पूजन रूप, परमात्मा रूप, आत्म रूप, संयम रूप, इन्द्रिय रूप, तपस्या रूप, योगरूप सहित द्रव्य संबंधी यज्ञ, स्वाध्याय रूप ज्ञान-यज्ञ का उल्लेख किया है। उन्होंने ज्ञान-यज्ञ को सभी यज्ञों से महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है कि –

‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।

अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। इस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा को पा लेता है।

श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में वेद विधानों को इस तरह मान्य किया है –

‘त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्द्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान।।’

तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सत्पुरुषों को आश्वासन एवं दुर्जनों को चेतावनी देते हुए गीता में कहा है –

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।’

(हे भारत ! जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बोलबाला बढ़ता है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए लोगों के सम्मुख साकार रूप में प्रकट होता हूँ।

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।’

(साधु/सज्जन पुरुषों (लोगों) का उद्धार करने के लिए, पाप / दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने और धर्म को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।) (यहाँ धर्मसंस्थापनार्थाय का अर्थ वेदों में वर्णित धर्म-ज्ञान ही है।)

श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरे संसार के समक्ष समय-समय पर अपने जन्म लेने का कारण और अपनी असीमित शक्ति को भी दर्शा दिया है।

© प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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