हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #278 ☆ घर की तलाश… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 278 ☆

☆ घर की तलाश… ☆

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां देखी हैं, जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन। यदि मैं उसे मरघट-सी ख़ामोशी कहूं व चहूंओर पसरा सन्नाटा कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो, जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है;इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं;मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना संभव नहीं है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो!दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सुरक्षित नहीं।

चलो छोड़ो!तुम्हारी तलाश कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।

आओ!हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर- परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। हमें संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें, जहां केवल तेरा ही तेरा का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर मैं से हम बन जाएं, जहां कुछ भी तेरा न मेरा हो।

●●●●

© डा. मुक्ता

30.3.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति…)

☆ पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

2019 की बात है। किताबों की अलमारी की सफ़ाई करते हुए कहीं से एक प्रशस्ति-पत्र निकल आया। उसमें लिखा था- लघुकथा की विकास-यात्रा में आपके योगदान को कोटिशः नमन। मुझे याद आया कि मैंने एक लघुकथा-सम्मेलन में लघुकथा भेजी थी, ख़ुद नहीं जा पाया था। मेरे शहर के एक लेखक के ज़रिये मुझ तक यह प्रशस्ति-पत्र तथा सम्मेलन में पढ़ी गई सभी लघुकथाओं का पुस्तकाकार संग्रह भेजा गया था और उस संग्रह के लिए मुझे शायद दो सौ रुपये चुकाने पड़े थे। मैंने पुस्तक और प्रशस्ति-पत्र यूँ ही कहीं रख दिए थे। सफ़ाई के दौरान मैंने प्रशस्ति-पत्र को पढ़ा और मुझे हँसी आ गई। क़ायदे से तो मुझे गर्व और आभार से भर जाना चाहिए था, लेकिन मैं गहरी सोच में पड़ गया कि मैंने कब लघुकथा के विकास में योगदान दिया था। बता दूँ कि तब तक मेरा एक भी लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। दस- बीस लघुकथाएँ लिख लेने भर से मेरा ऐसा प्रचंड योगदान कि मैं ‘कोटिशः नमन’ का पात्र हो गया। जिस किसी ने भी वहाँ लघुकथा पढ़ी होगी, उसे ठीक ऐसा ही प्रशस्ति-पत्र दिया गया होगा। एक साथ साठ-सत्तर लोग कोटिशः नमन के पात्र हो गए होंगे। इस तरह के सम्मान से वितृष्णा नहीं होती? आज इस तरह के प्रशस्ति-पत्रों से लोगों के घरों की दीवारें भरी पड़ी हैं। उन्हें देखकर मुझे कभी नहीं लगा कि फलाँ बड़ा लेखक है। प्रशस्तियों के आदान-प्रदान का धंधा आज चरम पर है। लोग जुगाड़ लगाकर पुरस्कार झटक रहे हैं। यहाँ तक कि एंट्री फ़ीस भरकर पुरस्कार ले रहे हैं। त्रासदी यह भी है कि प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, पंत, महादेवी, नीरज जैसे साहित्यकारों के नाम पर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए जा रहे हैं, जिनकी पुरस्कार राशि महज़ पाँच सौ रुपये भी हो सकती है। संभव है कि इससे ज़्यादा एंट्री फ़ीस ही हो। लेखक प्रशस्ति-पत्र को दीवार पर टाँगकर मेहमानों पर अपने अंतरराष्ट्रीय लेखक होने का रौब ग़ालिब कर देते हैं, जबकि वे जानते हैं कि वे कितने पानी में हैं। आजकल यह भी सिलसिला चल निकला है कि आप एक संस्था बनाकर किसी शहर के दस-बीस लेखकों को बुलाकर थोक के भाव राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से ‘सम्मानित’ कर दें और कुछ दिनों बाद उस शहर के लेखक आपके शहर के दस-बीस लेखकों को उसी तरह से सम्मानित कर दें। प्यार भी बना रहेगा, दीवारें भी सजती रहेंगी। पुरस्कार के लिए नाम कैसे भी रखे जा सकते हैं। बड़े-बड़े लेखक तो हैं ही (आपकी ओछी हरकत से महान लेखक अपमानित होता है तो आपकी बला से), इनके अलावा साहित्य के साथ भूषण, विभूषण, रत्न, मनीषी जैसे शब्द जोड़ कर पुरस्कार का नाम रखा जा सकता है। हज़ारों विशेषण उपलब्ध हैं। मेरा एक प्रश्न है- आपकी तुलना कोई ताॅलस्ताॅय, गोर्की, मोपासां, चेखव, शेक्सपियर, बालज़ाक वगैरह से करे तो आप यक़ीन कर लेंगे? नहीं न! आप समझ जाएँगे कि सामने वाला बन्दा आपका उल्लू खींच रहा है। ऐसे ही आपके अति साधारण लेखन के लिए (कभी-कभी दो कौड़ी के लेखन के लिए) विलक्षण, अलौकिक प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग सचमुच गाली देने जैसा ही है। लेखक सोचता है कि चलो, महान होने के अहंकार और धोखे में ही जी लिया जाए। लेखक का सम्मान उसका लेखन ही है, प्रशस्ति पत्र नहीं ।

ख़ैर, उस प्रशस्ति पत्र को मैंने कूड़ेदान के हवाले कर दिया और यक़ीन मानिये, ऐसा करते हुए मुझे कोई अफ़सोस नहीं हुआ, बल्कि मैंने राहत ही महसूस की कि मैं एक पाखण्ड भरे झूठ से मुक्त हो गया।

मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि सैंकड़ों पुस्तकें लिख देने से कोई लेखक महान नहीं होता और न सैंकड़ों पुरस्कार प्राप्त कर लेने से कोई लेखक महान होता है। लेखक के अच्छे या बुरे होने की एक ही कसौटी है – उसका लेखन। महत्वपूर्ण यह है कि उसने क्या लिखा, क्यों लिखा और कैसा लिखा? महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उसने कितना लिखा और उसने कितने पुरस्कार प्राप्त करने में सफलता हासिल की।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ || मातृत्व छांव || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ || मातृत्व छांव || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

ममा या मम्मी नहीं  गाँव में अम्मा होती है… 

वह साड़ी में पिन नहीं लगातीं बल्कि  आंचल स्वतंत्र खुला रखतीं हैं…

उसके साड़ी के पल्लू में बंधे हुए होते हैं सिक्के या कुछ रुपये जो बच्चों के हाथों में आसानी से आ जाते हैं…

अम्मा को सब कुछ पता होता है जैसे कब भुखे होगें बच्चे और कब नहीं… 

अम्मा के रसोई में हमेशा खाना उपलब्ध होता है…

 मैगी नूडल्स खाकर बड़ी नहीं हुई पहले की पीढ़ी बल्कि, रोटी, चीनी या रोटी, अचार बहुत प्रेम से खाते थे…

 

अम्मा मेला या हाट कम जाती थी… 

तीज त्योहार में अक्सर बाबूजी ही कपड़ा लाते  केवल अम्मा के लिए ही नहीं बल्कि, बुआ के लिए भी…

 

बुआ का तीजा दादाजी के देहांत के उपरांत भी जाता रहा, जब तक बुआ और बाबूजी जीवित रहे, यह क्रम चलता रहा ना जाने कौन सा प्रेम का अटूट नाभि बंधन था पहले के लोगों में 👥 उस जमाने में ✍️

फर्क़ ही नहीं पड़ता था  बच्चा किसके पास है?

अम्मा डांटती तो बड़की माई (बड़ी मां) आंचल में समेट लेती और अम्मा से कहतीं

“खबरदार जो मेरे सामने बच्चों को डांटा”

जेठानी की बाते सुन लेतीं

 कुछ नहीं कहतीं बल्कि दोनों जेठानी- देवरानी शब्दहीन अतंस से बातचीत कर लेतीं

घर के सारे पुरुष -समाज खाना खा लेते, तो ना जाने कौन -कौन सी चटनी के साथ अम्मा बिना सब्जी के ही चावल खा लेतीं…

उनके थाली में कभी सब्जी होता और कभी नहीं भी,  फिर भी वह खा लेतीं…

अम्मा को खुद पता नहीं…

कौन सी सब्जी पंसदीदा थी उनकी ?

बाबूजी भी नहीं जानते थे…

बाबूजी जब तक जीवित रहे उन्होंने रसोई के अंदर प्रवेश  नहीं किया और अम्मा -बाबूजी की  आवश्यकता सदा अद्भुत कौशल गृहणी बन करतीं रही…

 

अम्मा को ना कभी ज्वार हुआ ना ही कभी उन्होंने कहा कि मुझे भी तारीफ़ के दो शब्द सुनने है…

अम्मा तो एक गंभीर सांचे में ढली देहांती बहू  जो सीधा पल्लू पहनी देहरी तक सीमित रहतीं…

 

उम्र के साथ साथ जैसे जैसे बडी़ हुई  मालूम चला अम्मा तो  शहर से हैं!

यह बात ना जाने कब से कील बन चुभती मन के कोने में पड़ी रही…

अम्मा को बस निहारती रही…

 

कभी अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो की जीवंतता अम्मा मे भी होगा…

परिवर्तन कैसे हो गया??

 

आखिर कब कैसे उड़ान भरने वालीं अम्मा ने कोशिश करना छोड़ दिया…

प्रश्न अधूरा सा रहा और वक़्त चलता रहा…

अम्मा की उड़ान भरने वालीं लाडो, खुद अम्मा बन चुकी है…

 हर प्रश्न का जवाब मिल चुका है आज…!

 

जिम्मेवारी के पतीले में ना जाने  कहाँ छूट जातें हैं मध्यवर्गीय सपने और बच्चों के पालन पोषण में जायका का स्वाद कहाँ गुम हो जाता है?

 

मिर्ची -निबू का नज़र कवच घर में टांगते- टांगते  बस देहरी में सिमट जाता है अल्हड़पना…

ना जाने कब कैसे एक बच्चे के जन्म के साथ ही एक अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो वाली बेटी दम तोड़ देती है और एक परिपक्व माँ का जन्म हो जाता है?

 

ना जाने कौन से रेस्टोरेंट से अम्मा ने अचार बनाया?

अक्सर वही अचार प्लेट में नज़र आ जाते हैं…

 

अम्मा ने सच ही कहा है 👧

 

सह कर  तेज ज्वार तब प्रफुल्लित होता है माँ के जैसा व्यवहार…

अनसुनी अनकही माँ के जज्बात, जो आंगन की चुप्पी में जाने कहाँ खो गई पीढ़ी दर पीढ़ी…

लिखने की कोशिश कर रही हूँ… अनवरत…

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 694 ⇒ साहब का कुत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – साहब का कुत्ता।)

?अभी अभी # 694 ⇒ साहब का कुत्ता 🐶 श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिन भर की दफ्तर, फाइल और मीटिंग की थकान के बाद दूसरे दिन सुबह ही तो थोड़ा सुकून मिलता है जब साहब अपने कुत्ते के साथ ताजी हवा का सेवन करने स्टेडियम निकल जाते हैं।

अंग्रेज अफसरों के लिए रेसिडेंसी एरिया में क्लब और बंगले बना गए और नौकर चाकर भी दे गए।

अगर किसी बंगले में कुत्ता ना हो, तो वह बंगला सिंदूर बिना सुहागन सा नजर आता है।

राजनीति में जिस तरह आजकल नेता भक्त बिना नहीं रह सकता, साहब को एक कुत्ते के अलावा कोई स्वामिभक्त नजर नहीं आता। एक कुत्ता ही तो होता है, जिसके पीछे अफसर भी दौड़ता नजर आता है। समय का फेर देखिए। एक कुत्ते ने साहब और मेम साहब को कितना दौड़ा दिया। गेंद सीधी स्टेडियम से बाहर।।

कितनी पैनी नजर है हमारे मीडिया की और उससे भी अधिक चुस्त और सजग हमारी सरकार, जो नौकरशाही पर मानो किसी ड्रोन से नज़र रख रही हो।

चौतरफा तारीफ, वाहवाही। चट मीडिया में तस्वीर पट न्याय। इसे कहते हैं गुड गवर्नेंस। हम तो इस खुशी में कल नेहरू को भी भूल गए।

इस संदर्भ में अफसरों पर गाज गिरना कोई नई बात नहीं। हमारे मंत्री समझदार हैं, वे अफसरों की तरह कुत्ते नहीं पालते। वे भक्त पालते हैं, जो उनके पहले ही सात समंदर पार, मीडिया सहित पहुंच जाते हैं, दुनिया के किसी भी स्टेडियम में।

जहां भक्त है, वहां सम्मान है, जहां स्वामिभक्त है वहां सैकड़ों मील दूर ट्रांसफर है।।

एक धर्मराज थे जो कुत्ते सहित स्वर्ग पधार गए और एक हमारे साहब हैं, जो कुत्ते को स्टेडियम ले गए तो इनके काम लग गए।

साहबों के भी साहस और दुस्साहस में बड़ा अंतर होता है। एक दुस्साहसी महिला पुलिस अफसर ने दिल्ली में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री की गाड़ी का चालान बनाया तो वह किरण बेदी कहलाई लेकिन जब खिलाड़ियों के स्टेडियम में कोई अफसर कुत्ता घुमाएगा तो अच्छे अच्छों का सर चकराएगा।

जिन्हें भारतीय मीडिया से शिकायत है, उनके लिए यह एक सुखद संकेत है।  वह पत्रकार भी बधाई का पात्र है जिसने हिम्मत दिखाकर इस घटना को सार्वजनिक किया। और सोने में सुहागा सरकार की ताबड़तोड़ त्वरित कार्यवाही। काश कोई कुत्ते की मनोदशा भांप पाता जिसके कारण यह सब घटना घटी। वैसे स्टेडियम में कुत्ते का खेल के बीच आना कोई बड़ी घटना नहीं। वे कई बार पहले भी पिच का निरीक्षण कर गए हैं। खैर है इन बेजुबान प्राणियों पर कोई भारतीय दंड संहिता अथवा आचार संहिता लागू नहीं होती।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 352 ☆ आलेख – “कैसे और क्यों व्यंग्यकार बने परसाई?” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 352 ☆

?  आलेख – कैसे और क्यों व्यंग्यकार बने परसाई? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हरिशंकर परसाई का जन्म आजादी से पहले 1924 में एक ब्राह्मण परिवार में मध्यप्रदेश के ग्रामीण परिवेश में हुआ। उन्होंने बड़े होते हुए गाँव की सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ, रूढ़िवादिता, और आदमी की पीड़ा और विडंबनाओं को करीब से देखा तथा समझा। उनका व्यक्तित्व संवेदनशील था। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि साहित्य, दर्शन और समाजशास्त्र में विकसित हुई। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर और चेखव जैसे लेखकों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। सामयिक घटनाओं पर उनकी नजरें सचेत रहीं। जब वे युवा हुए तब देश आजाद अवश्य हो गया था पर सामाजिक स्थिति आशानुकूल बदली नहीं थी। राजनीतिक उथल-पुथल, नौकरशाही का भ्रष्टाचार और नैतिकता के ढोंग से उनका सामना हुआ। । इस “मोहभंग” ने परसाई को झकझोरा और उन्होंने महसूस किया कि गंभीर लेखन से लोगों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना व्यंग्य से पड़ सकता है। उन्होंने अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा और हास्य व्यंग्य को अपनाया। वे सतत लिखते गए और व्यंग्य की उनकी मौलिक भाषा शैली विकसित होती गई। उनका लेखन सिर्फ मनोरंजन नहीं,  बल्कि “समाज का आईना” था। जैसे,  ‘वैष्णव की फिसलन’ में उन्होंने धार्मिक पाखंड पर करारा प्रहार किया। उन्होंने “ठिठुरता हुआ गणतंत्र” में लोकतंत्र की विसंगतियों को रोचक चुटीले अंदाज़ में उकेरा। लेखन के लिए वे पात्रों के चयन अपने परिवेश से ही किया करते थे। पात्रों के माध्यम से वे व्यंग्य का नाटकीय प्रस्तुतीकरण करने में सफल हुए। परसाई ने कभी भी सत्ता या समाज के ठेकेदारों से समझौता नहीं किया। उनके व्यंग्य में “सच को सच कहने का साहस” था।

उनकी पत्रिका ‘वसुधा’ के माध्यम से वे सीधे पाठकों से जुड़े और बिना लाग-लपेट के स्पष्ट विचार रखते थे। जनसामान्य की भाषा में रचना तथा मानवीय वृत्तियों पर लेखन के कारण ही उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। उनका मानना था कि व्यंग्य का उद्देश्य सिर्फ हँसाना नहीं,  बल्कि “सोचने पर मजबूर करना” है। ‘भोलाराम का जीव’, इंस्पेक्टर मातादीन जैसी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया। उनके लेखन से हिंदी साहित्य में व्यंग्य को मुख्यधारा में स्थान मिला।

परसाई के अध्ययन से हम व्यंग्य लेखन के सूत्र समझ सकते हैं।

समाज को गहराई से देखें तो छोटी-छोटी विसंगतियाँ व्यंग्य का विषय बन सकती हैं।

सरल भाषा,  गहरा प्रभाव छोड़ती है। जटिल विचारों को आम बोलचाल के शब्दों में व्यक्त करें।

लेखन में निर्भीकता और ईमानदारी आवश्यक होती है। सच्चाई को छुपाए बिना उसे व्यंग्य, हास्य का रूप दें।

मानवीय स्वभाव को समझ कर व्यक्ति के दोगलेपन और स्वार्थ पर रचनात्मक प्रहार करें।

परसाई ने व्यंग्य को ही अपना हथियार बनाया क्योंकि यह सटीक वार करता है। हास्य के माध्यम से कटु सत्य भी सहज रूप से स्वीकार्य बन जाता है। और जनमानस तक पहुँचना आसान होता है।

परसाई का लेखन सिर्फ साहित्य नहीं,  बल्कि समाज का सांस्कृतिक दस्तावेज़ बन गया है। परसाई का मानना था कि व्यंग्यकार का कर्तव्य है कि अपने लेखन से अंधेरे को उजाले में बदल दें।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विलोम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विलोम ? ?

विद्यालय में विलोम का पाठ ठीक से नहीं पढ़ पाया था। फिर जीवनभर पढ़ना पड़ा विलोम का पाठ।

जिससे सुख की आस रही, उसने पीड़ा दी। जिस पर विश्वास किया, उसने विश्वासघात किया। जिनसे अपनापन अपेक्षित था, वे व्यवहार करते रहे परायों-सा। जीने ने भी साथ नहीं दिया, सो मर-मरकर जिया।

सचमुच मरा तब तक विलोम को जीता रहा वह।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी।आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 693 ⇒ अपना देस ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपना देस ।)

?अभी अभी # 693 ⇒ अपना देस ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे राष्ट्र में महाराष्ट्र भी है और गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र भी! एक देश के वासी होते हुए भी सबका अपना अपना देस है। बरसों से लोग रोजी रोटी के लिए, देस को छोड़ परदेस जाते रहे हैं। जिसे हम आज प्रदेश कहते हैं, उसका ही अपभ्रंश है यह देस।

जब लड़की की शादी के बाद बिदाई होती है तो अमीर खुसरो का यह विदाई गीत महिलाएं गाती हैं ;

काहे को ब्याहे बिदेस,

अरे लखिय बाबुल मोरे,

काहे को ब्याहे बिदेस

‌आखिर तब देस होता ही कितना छोटा था!

‌ये गलियां ये चौबारा

यहां आना ना दोबारा।

पनघट और अमराई और सावन के झूले, बचपन के संगी साथी जब छूटते थे, तो मन बरबस कह उठता था;

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

ये घाट, ये बाट कहीं भूल न जाना।

निरगुन कौन देस को बासी!

देस वह स्थान है, जहां हम पैदा हुए, बड़े हुए, खेले कूदे। हम जिस नदी में नहाए, हमने जिस कुएं का पानी पीया, ज़िन्दगी भर आप चाहो तो उसे भूल जाओ, आखरी समय वह जरूर याद आता है।

ऐसा माना गया है कि जब हम देह त्यागते हैं तो हमें अपने बचपन की तस्वीरें खुली आंखों से दिखाई देती हैं। हमारे परिवार के वे वरिष्ठ जन, जिनकी गोद में आपने बचपन गुज़ारा है, आपको पुकार रहे हैं। लोग समझते हैं, आप भावुक होकर प्रलाप कर रहे हैं। लेकिन अंतिम समय में अतीत ही साथ जाता है, वर्तमान से नाता टूट जाता है।

उड़ जाएगा हंस अकेला।

जग दर्शन का मेला।।  

हम कितना भी देश विदेश में प्रवास कर लें। रोजी रोटी किस इंसान को कहां फेंकती है, कुछ कहा नहीं जाता। होते हैं कई बदनसीब, जो वापस अपने देस नहीं लौट पाते। जिन्हें अपनी माटी से लगाव होता है, वे हमेशा उस पल की तलाश में रहते हैं, जब वे एक बार फिर अपने जन्म स्थान के दर्शन कर लें।

माटी से यह लगाव, माटी की उस खुशबू का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। आखिर यह तन ही तो हमारा वतन है। जिस माटी से पैदा हुआ है, उसे उसमें ही मिल जाना है। हम इस माटी का कर्ज चुका पाएं, उसे अंतिम प्रणाम कर पाएं, शायद इसीलिए माटी का मोह हर अमीर गरीब को, मजदूर किसान को अंतिम समय में, सैकड़ों मील दूर, अपने देस की ओर खींचता है, आकर्षित करता है।।  

आप एक नन्हे बालक से उसका खिलौना छीनकर देखिए। उसे पैसे का, सोने चांदी का लालच देकर देखिए। एक मिट्टी के खिलौने में उसकी जान बसी है। वह उसके साथ उठता, बैठता, सोता खाता है। उसका खिलौना टूटता है, वह मचल जाता है। उसकी दुनिया बिखर जाती है।

इंसान की दुनिया भी जब एक बार बिखर जाती है, तो उसे समेटना इतना आसान नहीं होता। आज हर जगह सब बिखरा बिखरा सा है। इसे समेटना, संभालना, संवारना बहुत ज़रूरी है। केवल भरोसा और विश्वास ही हमें वापस अपनी माटी से जोड़ सकता है, हमें बिखरने से बचा सकता है। शायद तब ही जो दर्द की सरगम हमें सुनाई दे रही है वह थमेगी। कहीं कोई अभागा फिर यह दर्द भरा गीत गाने को विवश ना हो ;

हम तो चले परदेश

हम परदेसी हो गए

छूटा अपना देस

हम परदेसी हो गए

ओ रामा हो ….!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 692 ⇒ रायता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रायता।)

?अभी अभी # 692 ⇒ रायता ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक वक्त था, जब हम रिसेप्शन में नहीं, किसी के यहाँ जीमने जाते थे। हमें प्रयोजन से कोई मतलब नहीं होता था, बस कहाँ जीमने जाना है, इससे ही काम चल जाता था। किसी विप्र को भोजन का न्यौता मिलने पर वह सूँघने अथवा चखने नहीं जाता था, वह जीमने जाता था, और तबीयत से जीमकर आता था।

पत्तल के साथ जब दोने रखे जाते थे, तब दोनों की संख्या से ही पता चल जाता था कि आलू की रसेदार सब्जी के साथ खीर और रायता है कि नहीं। पत्तल और तीनों दोनों को, हवा से बचाने की ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए, किसी मोटी गर्म पूड़ी और लड्डू को पेपर वेट की तरह इस्तेमाल किया जाता था। आँधी, तूफान और बरसात के अलावा हर मौसम में पत्तल-दोने, परोसे हुए पकवानों के साथ सुरक्षित हाथों में होती थी।।

जब तक खीर नहीं परोसी जाती, जीमने की प्रक्रिया आरंभ नहीं होती थी। केवल एक लड्डू परोसने पर उसे दो लड्डू धरने की हिदायत दी जाती थी। सेंव और नुक्ती पत्तल के किसी भी कोने में हों, उनका आपस में मिलन हो ही जाता था। खीर के बारे में, परोसने वाले को, स्थायी अनुदेश थे, कि जब भी खीर का दोना खाली देखे, पूछे नहीं, चुपचाप भर जाया करे।

फूटे दोनों की शिकायत आम रहती थी। खीर तो तुरंत उदरस्थ हो जाती थी, रायते को उपसंहार के लिए रखा जाता था। किसे पता था कि रसेदार सब्जी और खीर भले ही ढुल जाए, आसमान सर पर टूटकर नहीं गिरने वाला, लेकिन अगर एक बार रायता फैल गया, तो कुछ न कुछ तो होने वाला ही है।।

आम तौर से पंगत का रायता बूंदी का रायता होता था। बूंद जो बन गई नुक्ती ! यानी उसी बेसन की बूँदी पर जब चीनी की चाशनी चढ़ जाती थी, तो वह नुक्ती कहलाती थी। नुक्ता-चीनी, नुक्ती वाली चीनी की ही शायद चचेरी बहन लगती है। लेकिन बड़ी कर्कश प्रतीत होती है।

समय के साथ रायते का प्रमोशन हो गया ! यह घरों और पंगत से उठकर बड़ी बड़ी होटलों और प्रीति-भोजों में अपना आसन जमाने लगा। फ्रूट सलाद और कस्टर्ड से जब इसका विवाद होने लगा, तो जगह जगह रायता फैलने लगा। नौबत यहाँ तक आ गई कि जहाँ रायता मौजूद ही नहीं रहता, वहाँ भी रायता फैलने लगा।।

आज रायता, दोनों से निकलकर सुरक्षित कटोरियों में पहुँच गया है, जिसमें न तो दोने की तरह छेद है और न ही किसी आँधी तूफान का डर, लेकिन रायता फैलाने वाले फिर भी रायता फैलाकर चले जाते हैं।

इन दिनों रायता बहुत परेशान है ! घर परिवार हो या राजनीति, इतने सात्विक, स्वास्थ्य-वर्धक आहार को जब लोग व्यवहार में लाकर उसे खाने के बजाए फैलाने लगेंगे, तो वह अपना दायित्व झोल्या अथवा जलजीरा को सौंपकर अपना अस्तित्व ही समाप्त कर देगा। उसकी आप सबसे करबद्ध गुजारिश है कि आप रायता खाएँ ज़रूर, एक नहीं चार-पाँच दोने-कटोरे सूत जाएँ, लेकिन रायता फैलाएं नहीं। उम्मीद है आज के रोज, जब आप बूंदी के लड्डू के साथ रायते का सेवन करेंगे, अनावश्यक रायता फैलाएंगे नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 133 – देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय मधुमक्खी दिवस: 20 मई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 133 ☆ देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय मधुमक्खी दिवस: 20 मई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज के दिन पूरा विश्व मधुमक्खी दिवस मनाता हैं। हमें मधुमक्खियों से बचपन से ही बहुत अधिक डर लगता है, तो विचार किया लिखने से शायद कुछ डर कम हो जायेगा।

मधुमक्खियों को सबसे पहले अपने नाम से ही कठिनाई है। होनी भी चाहिए, अज्ञानी लोग उनको साधारण काली वाली मक्खी के कुनबे की समझते है। ये वो मक्खियां है, जो गंदगी और दूषित स्थानों पर भी प्रसन्न रहती हैं। दूसरी तरफ मधुमक्खी तो स्वयं सुगंधित फूलों का रसपान कर उनकी खुशबू और मिठास को मधु का रूप दे देती हैं। इसको शहद मक्खी तो नहीं कहा जाता है, क्योंकि इसके द्वारा दिया जाने वाला मधु अमृत तुल्य है।

हिन्दू धर्म में पूजा के समय इसका प्रयोग ही किया जाता हैं। इसको “कुदरत की नियामत” भी कहा जा सकता हैं। आयुर्वेद में भी मधु की महत्ता खूब बताई गई है।

मुम्बई प्रवास के समय हमारी परिसर में मधुमक्खी का बहुत बड़ा छत्ता लगा हुआ था। एक दिन दो व्यक्ति आए और बोले कि जिसको भी इस छत्ते का शहद चाहिए वो बहुत कम कीमत पर वहां रहने वालों को विक्रय कर देंगे जोकि उनकी मजदूरी कहलाएगी।

जब छत्ता तोड़ने की प्रक्रिया आरंभ हुई सभी निवासियों ने घर की खिड़कियों को सुरक्षा कारणों से बंद कर लिया। उनके द्वारा बेचा गया शहद नकली था, असली शहद वो अपने साथ ले गए। लोग कहने लगे ये तो हाथ की सफाई है। ये मुहावरा भी सही बना है, कि मधुमक्खी के छत्ते में हाथ नहीं डालना चाहिए। अब समय बदल गया है, मधुमक्खी  पालन एक बहुत कमाऊ उद्योग बन चुका है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 691 ⇒ कल और आजकल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कल और आजकल ।)

?अभी अभी # 691 ⇒ कल और आजकल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज कल में ढल जरूर जाता है लेकिन फिर वह आज नहीं रह जाता। आज गुजर जाता है, कल वह फ्रेश होकर आता है और आज बन जाता है। कल को आज बनने के लिए कल तक का इंतजार करना पड़ता है। आज को जाने की जल्दी नहीं, लेकिन कल को तो आने की जल्दी है।

आजकल कल और आज एक जैसे ही चल रहे हैं, इसलिए किसी को कल का इंतजार नहीं। बस आज किसी तरह गुजर जाए।

वैसे देखा जाए तो कल भी कल ही था और कल भी कल ही होगा। बस यह हमारा जो आज है न, यह ही कलकल करके बहता रहता है और हम इसे आज का नाम दे देते हैं। समय का प्रवाह भी एक झरना ही तो है। जिस दिन यह समय का झरना सूख जाएगा, आज कल में ढलना बंद हो जाएगा। ईश्वर की टकसाल भी बंद हो जाएगी।।

हम समय से हैं, समय हम से नहीं ! समय का झरना, सूर्य का उदित होना अस्त होना है वृक्ष पर पत्तियों का उगना, पल्लवित होना, फलना फूलना और समय के साथ झरना भी है, लेकिन तब तक, आज की कोमल पत्तियां कल पुनः वृक्ष को हरा भरा कर देगी। प्रकृति के विनाश में ही नीड़ के निर्माण के बीज भी हैं। हर कली में एक फूल है, हर अंडे में एक चूजा, समय का झरना कभी नहीं सूखता। इसके कलकल की आवाज ही इसका कल था, इसका आज है और इसका कल भी रहेगा।

हमने कभी अतीत की, यानी गुजरे कल की चिंता नहीं की, केवल चिंतन किया। अच्छा बुरा जैसा भी था, व्यतीत हो गया। लेकिन हमें आज की चिंता है और कल आने वाले कल की भी। जब हमारा आज अच्छा होता है, तो हम कल की तरफ से निश्चिंत रहते हैं। लेकिन जब आज ही गड़बड़ होता है, तो कल में भी गड़बड़ी नजर आती है। पूत के पांव पालने में।।

लेकिन यह अच्छी बात नहीं है सबै दिन न होता एक समाना ! रहने दीजिए अटल जी। एक साल से देख रहे हैं, हर दिन एक जैसा गुजर रहा है। याद कीजिए आपने भी आपातकाल में जेल से एक कविता लिखी थी, जिसे बाद में जगजीत सिंह ने गाया था, एक बरस बीत गया ;

झुलसाता जेठ मास

शरद चांदनी उदास

सिसकी भरते सावन का

अंतर्मन रीत गया

एक बरस बीत गया …

हमें भी एक बरस बीत गया। आपकी तो अभिव्यक्ति की आजादी छिनी थी, हमारे तो मुंह पर ही पट्टी बांध दी गई है। हमने भी प्यासा सावन देखा है और झुलसाता जेठ मास देखा है। हमारे अंतर्मन में भी कोई लड्डू नहीं फूट रहे। किसको दोष दें, सरकार को, या उस अलबेली सरकार को। हम भी बरबस, यह कह उठते हैं ;

आज कल में ढल गया

दिन हुआ तमाम

तू भी सो जा, सो गई

रंग भरी शाम ….

अतीत गवाह है, अगर रामायण के प्रसंग में से प्रभु श्रीराम के चौदह बरस निकाल दिए जाएं, तो रामायण में कुछ बचे ही नहीं न अंगद, न बाली, न सुग्रीव और ना ही रामदूत बजरंग बली। न रावण का वध होता और न हम दशहरा और दीपावली जैसा उत्सव मनाते ;

तेरे फूलों से भी प्यार,

तेरे कांटों से भी प्यार।

तू जो भी देना चाहे,

दे दे करतार,

दुनिया के पालनहार।।

झरने की तरह कलकल करते कल भी गुजरा, आज भी गुजर जाएगा, उम्मीद की कली फिर खिलेगी, आशाओं का एक नया सूरज निकलेगा, बहारें फिर भी आती हैं, बहारें फिर भी आएंगी। कल आने वाला कल, आज से बेहतर होगा। आजकल समय भी उम्मीद से है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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