हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ डर ☆

 

पिता की खाँसी की आवाज़ सुनकर उसने रेडियो की आवाज़ बेहद धीमी कर दी। उन दिनों संयुक्त परिवार थे, पुरुष खाँस कर ही भीतर आते ताकि महिलाओं को सूचना मिल जाए।…”संतोष की माँ, ये तुम्हारे लल्ला को बताय देना कि वो आज के बाद उस रघुवंस के आवारा छोकरे के साथ दीख गया तो टाँग तोड़कर घर बिठाय देंगे, कौनो पढ़ाई-वढ़ाई नाय, सब बंद कर देंगे”…. वह मन मसोस कर रह गया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा कि 17 बरस का तो हो लिया, अब और कितना बड़ा होना पड़ेगा कि पिता से डरना न पड़े।.. ‘शायद बेटे का जन्म बाप से डरने के लिए ही होता है’, वह मन ही मन बड़बड़ाया और औंधा होकर सो गया।

आज उसका अपना बेटा 15 बरस का हो चुका। बेहद जिद्‌दी! कल-से उसने घर में कोहराम मचा रखा था। उसे अपने जन्मदिन पर मोटरसाइकिल चाहिए थी और अभी तो उसकी आयु लाइसेंस लेने की भी नहीं है। ऊपर से शहर का ये विकराल ट्रैफिक! उसने सोच लिया था कि अबकी बार बेटे की ये ज़िद्‌द पूरी नहीं करेगा।..”मॉम, साफ-साफ बता देना डैड को, नेक्स्ट वीक मेरे बर्थडे से एक दिन पहले तक बाइक नहीं आई न, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा.. और फिर कभी वापस नहीं आऊँगा।”…उसने बेटे की माँ के हाथ में बाइक के लिए चेक दे दिया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा,..’शायद बाप का जन्म बेटे से डरने के लिए ही होता है’..और सीधा होकर पीठ के बल सो गया।

(प्रकाशनाधीन संग्रह से)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #14 – देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

 

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 14 ☆

 

☆ देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर ☆

 

देश, जितना व्यापक शब्द है, उससे भी अधिक व्यापक है यह सवाल कि देश कौन बनाता है ? नेता, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, मजदूर, वरिष्ठ नागरिक, साधारण नागरिक, महिलाएं, युवा… आखिर कौन ? शायद हम सब मिलकर देश बनाते हैं. लेकिन फ़िर भी प्रश्न है कि इनमें से सर्वाधिक भागीदारी किसकी ? तब तत्काल दिमाग में विचार आता है कि यथा राजा तथा प्रजा. नेतृत्व अनुकरणीय उदाहरण रखे, व आम नागरिक उसका पालन करें तभी देश बनता है. देश बनाने की जिम्मेदारी सर्वाधिक युवाओं पर है. भारत के लिये खुशी की बात यह है कि हमारी जनसंख्या का पचास प्रतिशत से अधिक हिस्सा पच्चीस से चालीस वर्ष आयु वर्ग का है.. जिसे हम “युवा” कहते हैं, जो वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक सभी रूपों में सर्वाधिक सक्रिय रहता है, यह तो उम्र का तकाजा है । वहीं दूसरी तरफ़ लगातार हिंसक, अशिष्ट, उच्छृंखल होते जा रहे… चौराहों पर खडे़ होकर फ़ब्तियाँ कसते..यौन अपराधो में लिप्त तथाकथित युवाओं को देखकर मन वितृष्णा से भर उठता है । इस महत्वपूर्ण समूह की आज भारत में जो हालत है वह कतई उत्साहजनक नहीं कही जा सकती.पर सभी बुराईयों को युवाओं पर थोप देना उचित नहीं है ।

प्रश्न है, आजकल के युवा ऐसे क्यों हैं ? क्यों यह युवा पीढी़ इतनी बेफ़िक्र और मनमानी करने वाली है । जब हम वर्तमान और भविष्य की बातें करते हैं तो हमें इतिहास की ओर भी देखना होगा । भूतकाल जैसा होगा, वर्तमान उसकी छाया होगा ही  और भविष्य की बुनियाद बनेगा ।  आज के युवा को पिछले समय ने ‘विरासत’ में क्या दिया है, कैसा समाज और संस्कार दिये हैं ? आजादी के बाद से हमने क्या देखा है… तरीके से संगठित होता भ्रष्टाचार, अंधाधुंध साम्प्रदायिकता, चलने-फ़िरने में अक्षम लेकिन देश चलाने का दावा करने वाले नेता, घोर जातिवादी नेता और वातावरण, राजनीति का अपराधीकरण या कहें कि अपराधियों का राजनीतिकरण, नसबन्दी के नाम पर समझाने-बुझाने का नाटक और लड़के की चाहत में चार-पाँच-छः बच्चों की फ़ौज… अर्थात जो भी बुरा हो सकता था, वह सब विगत में देश में किया जा चुका है  । इसका अर्थ यह भी नहीं कि उस समय में सब बुरा ही बुरा हुआ, लेकिन जब हम पीछे मुडकर देखते हैं तो पाते हैं कि कमियाँ, अच्छाईयों पर सरासर हावी हैं । अब ऐसा समाज विरासत में युवाओं को मिला है, तो उसके आदर्श भी वैसे ही होंगे ।  राजीव गाँधी कुछ समय के लिये, इस देश के प्रधानमन्त्री नहीं बने होते, तो शायद हम आज के तकनीकी प्रतिस्पर्धा के युग में नहीं जी रहे होते । देश के उस एकमात्र युवा प्रधानमन्त्री ने देश की सोच में जिस प्रकार का जोश और उत्साह पैदा किया, उसी का नतीजा है कि आज हम कम्प्यूटर और सूचना तन्त्र के युग में जी रहे हैं “दिल्ली से चलने वाला एक रुपया नीचे आते-आते पन्द्रह पैसे रह जाता है” यह वाक्य उसी पिछ्ली पीढी को उलाहना था, जिसकी जिम्मेदारी आजादी के बाद देश को बनाने की थी, और दुर्भाग्य से कहना पड़ता है कि, उसमें वह असफ़ल रही । परिवार नियोजन और जनसंख्या को अनियंत्रित करने वाली पीढी़ बेरोजगारों को देखकर चिन्तित हो रही है, पर अब देर हो चुकी है। भ्रष्टाचार को एक “सिस्टम” बना देने वाली पीढी युवाओं को ईमानदार रहने की नसीहत देती है । देश ऐसे नहीं बनता… अब तो क्रांतिकारी कदम उठाने का समय आ गया है… रोग इतना बढ चुका है कि कोई बडी “सर्जरी” किये बिना ठीक होने वाला नहीं है । विदेश जाते सॉफ़्टवेयर या आईआईटी इंजीनियरों तथा आईआईएम के मैनेजरों को देखकर आत्ममुग्ध मत होईये… उनमें से अधिकतर तभी वापस आयेंगे जब  यहाँ वातावरण बेहतर होगा.  कस्बे में, गाँव में रहने वाले युवा जो असली देश बनाते है,  हम उन्हें बेरोजगारी भत्ता दे रहे हैं, आश्वासन दे रहे हैं, राजनैतिक रैलियाँ दे रहे हैं,  पान-गुटखे दे रहे हैं, मर्डर-हवस सैक्स, सांस्कृतिक अधोपतन को बढ़ावा देने वाली फिल्में दे रहे हैं, “कैसे भी पैसा बनाओ” की सीख दे रहे हैं, कानून से ऊपर कैसे उठा जाता है, बता रहे हैं….आज के ताजे-ताजे बने युवा को भी “म” से मोटरसायकल,और  “म” से मोबाईल  चाहिये, सिर्फ़ “म” से मेहनत के नाम पर वह जी चुराता है.स्थितियां बदलनी होंगी.  युवा पीढ़ी को देश बनाने की चुनौती स्वीकारनी ही होगी.उन्हें अपना सपना स्वयं देखना होगा,और एक सुखद भविष्य के निर्माण करने हेतु जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा. संवैधानिक व्यवस्था में रहकर बिना आंदोलन हड़ताल या प्रदर्शन किये, पाश्चात्य अंधानुकरण के बिना युवा चेतना का उपयोग राष्ट्र कल्याण में उपयोग आज देश में जरूरी है.  इन दिनों वातावरण तो राष्ट्र प्रेम का बना है, सरकार ने डिजिटल लिटरेसी बढाने हेतु कदम उठाये है, विश्व में भारत की साख बढ़ती दिख रही है, अब युवा इस मौके को मूर्त रूप दे सकते हैं।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 3 ☆ ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 3 ☆

 

☆ ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी ☆

 

“चरखा,चपला आणि चेंजमेकर ” या लेखात श्री.संदीप वासलेकर यांनी म्हटलंय.

“आईसलंडसारख्या  फक्त तीन लाख लोकवस्तीच्या छोट्या देशातले ग्रामीण उद्योजक जगभर  कोळंबीच्या कवचाचं मलम लोकप्रिय करु शकतात.जगातले अनेक देश तिथल्या पारंपरिक पदार्थांना व वस्तूंना बाजारपेठेत स्थान मिळवून देण्याचा प्रयत्न करतात तर आपण कां नाही ? मला हे त्यांचं म्हणणं अतिशय मोलाचं वाटलं

श्री.वासलेकर यांच्या एका बेल्जियमच्या मित्राच्या मुलानं उच्चविद्यविभूषित असूनही एकदा काही मित्रांच्या सांगण्यावरून इंटरनेटद्वारा चपला विकण्याचा व्यवसाय सुरू केला व त्याला काहीही अनुभव नव्हता, फक्त काहीतरी नवीन,वेगळं करायचं म्हणून त्यानं तीन वर्षांत चपला विकून एवढी संपत्ती मिळवली की ती त्याच्या वडिलांनी ३०वर्ष आंतरराष्ट्रीय संघटनांमधे काम करुन जी बचत केली होती तिच्या दुप्पट होती.

लेखक पुढं म्हणतात महाराष्ट्रातही जर काही आभिनव पद्धतीने विचार करणारे व धडाडी असणारे तरुण पुढं आले तर कोल्हापुरी चप्पल ही जागतिक बाजारपेठेत मानाचं स्थान मिळवू शकेल.

महाराष्ट्र शासनाने ,राज्य खादी ग्रामोद्योग मंडळाचा सभापती म्हणून विशाल चोरडिया या युवकाची नियुक्ती केली.त्याला औद्योगिक पार्श्र्वभूमी होती व ग्रामीण भागात नाविन्यपूर्ण उद्योग सुरू करण्याची त्याची प्रबळ इच्छा होती.

त्याने नुकत्याच काही जागतिक नेत्यांना भेटून महाराष्ट्रातल्या ग्रामोद्योगावर माहिती देण्याची इच्छा व्यक्त केली.त्याला  फक्त पाचच मिनिटं वेळ देण्यात आला या पाचच मिनिटं मिळालेल्या वेळात विशालने पाहुण्यांना मसाले म्हणजे भारतीय मसाल्यांचे अनेक नमुने दिले व हे सर्व लोक भारतीय मसाल्यांचे व इतर पदार्थांचे  इतके फॅन बनले आहेत.असे लेखकाला महिन्याभरात जगभरातून निरोप यायला लागले.व राजकीय वर्तुळात भारतीय मसाल्याबाबत अनेक ठिकाणी चर्चा झाली.विशालनं हे फक्त पाच मिनिटांत सिद्ध केलं होतं.आता त्यानं कोल्हापूरी चप्पल ,मध,खादी, बांबू यांना देशभर व आंतरराष्ट्रीय बाजारपेठेत स्थान मिळवून देण्यासाठी  जोरदार प्रयत्न सुरू केले आहेत.

लेखकाचे म्हणणे आहे की, रोजगार निर्माण करणारे प्रत्येक जिल्ह्यात  किमान १० ते १५ म्हणजे संपूर्ण महाराष्ट्राच्या ग्रामीण भागात नाविन्यपूर्ण रोजगार निर्माण करणाऱ्या ५००चेंजमेकर्स युवकाची गरज आहे.असे युवक तयार होणं गरजेचं आहे.नुसतं आम्ही बेकार आहोत, बेरोजगार आहोत अशी टिमकी बडवत बसण्यापेक्षा अशा कृतीशील गोष्टीत रस घेऊन ते केले पाहिजेत.’केल्याने होतं आहे रे !आधि केलेचि पाहिजे !! इतर घटक म्हणजे मित्रमंडळे, गणेशोत्सव मंडळांच्या सभासद यांचा सहभाग होणे गरजेचे आहे.उत्सवाचेवेळी फक्त ढोल बडवून आयुष्यभर पोट भरत नाही   त्याबरोबरच हेही करणे आवश्यक आहे हे युवकांनी लक्षात घ्यावे.

विशालने आता खादी व ग्रामोद्योग महामंडळाच्या प्रयत्नातून महाराष्ट्रातील कृषी व ग्रामीण विभागात चेंजमेकर तयार करण्याचा उपक्रम आखला पाहिजे. युवकांना डोंगरात भरपूर आवळ्याची झाडे असतात विशेषतः सह्याद्रीच्या कुशीत तेथून आवळ्याची उपलब्धता होऊ शकेल त्यापासून अनेक औषधी व खाद्यपदार्थ बनविता येतील.आवळ्याची शेती करुन भरपुर उत्पादन मिळू शकते.नाचणीपासूनही अनेक सुरेख खाद्यपदार्थ बनतात.ह्यासारखे उत्पादन करणाऱ्या  युवकांना  शासनाने मदत केली पाहिजे.शिवाय सकाळ समूह चे ‘ यिन ‘ हे नेटवर्क ,व सामाजिक संस्था , औद्योगिक संघटना व समाजाच्या इतर घटकांनीही योगदान दिले तर हे परिवर्तन होणं शक्य आहे.

त्यासाठी आपल्याला अनेक मार्गांनी प्रयत्न करण्याची गरज आहे.विविध विषयात मूलभूत संशोधन, ग्रामोद्योग व शेतीमालाची निर्यात या तीन क्षेत्रात प्रचंड वाव आहे.

जर आईसलंडसारख्या तीन लाख लोकवस्तीच्या छोट्याशा देशातील ग्रामीण उद्योजक जगभर कोळंबीच्या कवचाचं मलम लोकप्रिय करु शकतात तर आपल्या युवकांना , कोल्हापूरी चप्पल,सौरचरख्यानं केलेली उच्च दर्जाची खादी, आंबा, केळी,आवळा  नाचणी या पदार्थांच्या  प्रक्रियेतून. केलेले पदार्थ बाजारपेठेत नेणं आणि त्यांचं तिथं बस्तान बसवणं सहज शक्य होईल,पण युवकांनी हे मनावर घेतलं तर ग्रामीण महाराष्ट्रात आपण नक्कीच समृद्धी आणू शकतो.

सर्वांना हा सप्तरंग मधील लेख वाचणे शक्य झाले नसेल तर त्यांना ही माहिती नक्कीच उपयुक्त ठरेल.ज्यांना शक्य आहे त्यांनी मूळ लेख जरुर वाचावा.

ही माहिती उपयुक्त आहेच ती आपापल्या ग्रुपवर टाकून शक्य तितकी प्रसिद्धी द्यावी व ग्रामीण युवकांना रोजगार मिळून ते देशाचे ‘धनवान ‘ नागरिक व्हावेत ही उर्मी मनाशी बाळगून या उर्मिलेने या लेखाद्वारे ही  शुभेच्छा धरुन अल्पसा प्रयत्न केला आहे.

श्री समर्थ म्हणतात नां ‘ यत्न तो देव ‘ !

युवकांनो हे वाचा आणि नक्की प्रयत्न करा यश तुमचेच आहे.करणाऱ्यांना खूप सुंदर शुभेच्छा!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 6 – तत्वनाश ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “तत्वनाश।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 6 ☆

 

☆ तत्वनाश 

 

रावण अपने दरबार में अपने मंत्रियों के साथ अपने सिंहासन पर  बैठा हैं, और उसके सामने तीन अप्सरायें नृत्य कर रही हैं, जिन्हें इंद्र द्वारा मेघानाथ को शुल्क के रूप में दिया गया था, जब मेघनाथ ने भगवान ब्रह्मा के अनुरोध पर इंद्र को अपने बंधन से मुक्त कर दिया था । गंधर्व संगीत बजा रहे हैं ।

गंधर्व गंध का अर्थ है खुशबू और धर्व का अर्थ है धारण करना इसलिए गंधर्व पृथ्वी की गंध के धारक हैं, खासकर वृक्ष   और पौधों की । असल में हम कह सकते हैं कि गंधर्व किसी भी वृक्ष   या पौधे का सार या आत्मा हैं । ये अप्सराओं के पति हैं । यह निम्न वर्ग के देवता हैं । यही सोम के रक्षक भी हैं, तथा देवताओं की सभा में गायक हैं । हिन्दू धर्मशास्त्र में यह देवताओं तथा मनुष्यों के बीच दूत (संदेश वाहक) होते हैं । भारतीय परंपरा में आपसी तथा पारिवारिक सहमति के बिना गंधर्व विवाह अनुबंधित होता है । इनके शरीर का कुछ भाग पक्षी, पशु या जानवर हो सकता हैं जैसे घोड़ा इत्यादि । इनका संबंध दुर्जेय योद्धा के रूप में यक्षों से भी है । पुष्पदंत (अर्थ : पुष्प का चुभने वाला भाग) गंधर्वराज के रूप में जाने जाते हैं ।

मारीच ब्राह्मण के रूप में वन  में भगवान राम के निवास के द्वार पर पहुँचा और जोर से कहा, “भिक्षा देही” (मुझे दान दो) ।

लक्ष्मण ने मारीच को देखा और कहा, “कृपया आप यहाँ  बैठिये, मेरी भाभी अंदर है । वह जल्द ही आपको दान देगी” कुछ समय बाद देवी सीता अपने हाथों में भोजन के साथ झोपड़ी से बाहर आयी, और उस भोजन को मारीच को दे दिया ।

मारीच ने सीता को आशीर्वाद दिया और फिर कहा, “मेरी प्यारी बेटी, मुझे लगता है कि तुम किसी चीज़ के विषय में चिंतित हो, तुम जो भी जानना चाहती हो मुझसे पूछ सकती हो?”

देवी सीता ने उत्तर  दिया, “हे! महान आत्मा, मेरे ससुर जी लगभग 12 साल पहले स्वर्गवासी हो गए थे, और उनकी मृत्यु सामान्य नहीं थी । उनकी मृत्यु के समय हम वन  में आ गए थे और उसके कारण हम उनकी आत्मा की शांति के लिए किसी भी रीति-रिवाजों को करने में असमर्थ थे, उनकी मृत्यु का कारण अपने बच्चो का व्योग था । तो अब मेरी चिंता का कारण यह है कि हम इतने लंबे समय के बाद वन में सभी रीति-रिवाजों को कैसे पूरा करे जिससे की मेरे ससुर जी की आत्मा को शांति मिल सके?”

मारीच ने कहा, “तो यह तुम्हारी चिंता का कारण है । चिंता मत करो पुत्री चार दिनों के एक पूर्णिमा दिवस होगा, उस दिन तुम्हारे पति को कुछ यज्ञ (बलिदान) करना होगा और याद रखना कि उसे यज्ञ में वेदी के रूप में सुनहरे हिरण की खाल का उपयोग करना है । मैं उस दिन आऊँगा और उस यज्ञ को करने में तुम्हारे पति की सहायता करूँगा । बस तुम्हे इतना याद रखना है की चार दिनों के भीतर तुम्हे सुनहरे हिरण की त्वचा की आवश्यकता है”

तब मारीच वहाँ  से चला गया । जब भगवान राम लौटे, देवी सीता और लक्ष्मण ने उन्हें उन्ही ऋषि के विषय   में बताया जो आये  थे, और अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए सुनहरे हिरण की त्वचा के साथ यज्ञ का सुझाव दिया था

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – आलेख – ☆ आओ मनायें…श्रीकृष्ण’ का जन्मोत्सव ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष 

सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी  के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है ,नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का आलेख “आओ मनाएँ….श्रीकृष्ण  जन्मोत्सव”। )

✍   आओ मनायें…श्रीकृष्ण’ का जन्मोत्सव ✍ 

 

भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि की भयानक तूफानी अंधियारी रात में धरती को असुरों के अत्याचारों से मुक्त कराने ‘कृष्ण’ रूपी सूर्य उदित हुआ, जिनका जन्मदिन हम हर साल बड़े ही हर्ष-उल्लास से मनाते हैं… द्वापर युग में सृष्टिपालक भगवान विष्णु सोलह कला संपन्न पूर्णावतार लेकर आये और अपने इस स्वरूप में उन्होंने मर्यादा पालन के साथ-साथ बालपन से ही सभी प्रकार की लीलायें दिखाई… परन्तु दुर्बल मानव मन केवल कुछ ही लीला के आधार पर उनके संपूर्ण जीवन का आकलन कर स्वयं को उनके समकक्ष खड़ा कर लेता हैं…
अक्सर लोग उनके माखनचोर, मटकीफोड़, वस्त्रचोर, रास रचैया, मुरली बजैया, छलिया, रणछोड़, बहुपत्नीवादी, कूटनीतिज्ञ आदि कुछ प्रसंगों का ज़िक्र कर अपनी हरकतों पर पर्दा डालना चाहते हैं… जबकि उनके कर्मयोगी, संयमी, आदर्श शिष्य, पुत्र, भाई, राजा, मित्र, सलाहकार, सारथी, सहयोगी, सेवक, योद्धा, विवेकी, कला मर्मज्ञ, राजनीतिज्ञ आदि और भी कई महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्यों को अनदेखा कर देते हैं…
इसकी वजह शायद ये हैं कि कर्तव्य पालन, धर्मरक्षक, कर्मवादी होना थोड़ा मुश्किल होता हैं जबकि उन सब हरकतों का हवाला देकर खुद की गलतियों को न्यायसंगत ठहराना अपेक्षाकृत सहज होता हैं… उनका वास्तविक विराट स्वरूप वही हैं, जो उन्होंने ‘महाभारत’ के दौरान अपने सखा कुंतीपुत्र ‘अर्जुन’ को दिखाया था, जिसे इन मानवीय नेत्रों से देख पाना संभव नहीं उसके लिये तो दिव्य दृष्टि चाहिये और जिनके पास वो हैं केवल वही उन्हें समग्रता में देख सकते हैं…
उन सभी लीलाओं के मर्म को समझने की बुद्धि हमारे पास नहीं इसलिये यदि हम जीवन में कुछ बनना चाहते हैं तो आज उनके जन्मदिवस के इस पावन दिन पर उनसे यही विनती करें कि वो हमें कर्मपथ पर अनवरत चलने का साहस और दृढ इच्छाशक्ति प्रदान करें… उनके ‘गीता’ के कर्मसिद्धांत को अपने जीवन में अक्षरशः उतार सकें हम सबको ऐसा विवेक दे… तो आओ मिलकर मनायें उन विराट व्यक्तित्व महानायक और हमारे अपने श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव… सभी को उनके अवतार दिवस की हार्दिक शुभकामनायें… ???!!!
*© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिभ्रम या सत्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

??  दृष्टिभ्रम या सत्य  ??

 

हिरण मोहित था पानी में अपनी छवि निहारने में। ‘मैं’ का मोह इतना बढ़ा कि आसपास का भान ही नहीं रहा। सुधबुध खो बैठा हिरण।
अकस्मात दबे पाँव एक लम्बी छलांग और हिरण की गरदन, शेर के जबड़ों में थी। पानी से परछाई अदृश्य हो गई।
जाने क्या हुआ है मुझे कि हिरण की जगह मनुष्य और शेर की जगह काल के जबड़े दिखते हैं।
ऊहापोह में हूँ, मुझे दृष्टिभ्रम हुआ है या सत्य दिखने लगा है?
हमारी आँखें सत्यदर्शी हों। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है। इस विशेषांक के लिए  सम्पूर्ण सहयोग एवं अतिथि संपादक  के  दायित्व का आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार। ) 

 

✍ अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग ✍

 

जब परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी, उसके साल भर बाद हम इस धरती के पिछड़े गांव के चूल्हे के सामने प्रगट रहे होंगे। जब जवान हुए और लिखना पढ़ना शुरू किया तो हमारी महत्वाकांक्षा थी कि बड़े होकर परसाई बनेंगे, पर कालेज के दिनों से जब से परसाई जी के सम्पर्क में आये और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे लम्बा साक्षात्कार लिया फिर हमने परसाई बनने का विचार त्याग दिया। नेपथ्य में चुपचाप थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे।

पूना से प्रतिदिन ई-अभिव्यक्ति पत्रिका श्री हेमन्त बावनकर के संपादन में निकलती है, हेमन्त जी ने वाटस्अप पर मेसेज किया फिर फोन भी किया कि 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिन है आज 20 अगस्त है क्या एक दिन में परसाई पर केंद्रित ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का विशेषांक निकाला जा सकता है हमने उनका मनोबल बढ़ाते हुए सहयोग करने का वचन दिया और प्रेरित किया कि डिजिटल युग में सब संभव है।

हेमन्त बावनकर जी ने तुरत-फुरत वाटस्अप पर सभी को सूचना भेजी हमने दूरभाष पर मित्रों से बात की और मात्र एक दिन में मित्रों से लेख, संस्मरण, रचनाएं आदि ईमेल से प्राप्त कीं। बैंगलोर में बैठे ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के संपादक हेमन्त जी को रचनाएं ईमेल से दनादन भेजीं, परसाई के नाम पर दूर-दराज से मित्रों ने परसाई पर लेख, संस्मरण, आदि भेज दिये और हेमन्त बावनकर जी ने इन्हें सलीके और तरीके से सजा कर परसाई के इस विशेषांक को ऐतिहासिक दस्तावेज में तब्दील कर दिया। इस प्रकार अल्प समय में किया गया प्रयास मुमकिन हुआ। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोक शिक्षण का काम किया।

परसाई जी के जन्मदिन पर डिजिटल माध्यम से उन पर क्रेदिंत अंक का निकलना हमारे समय और समाज तथा ई-अभिव्यक्ति पत्रिका की बड़ी उपलब्धि है। अल्प समय में जिन मित्रों ने तुरत-फुरत रचनाएं भेजीं उनका तहेदिल से आभार। परसाई जी के जन्मदिन पर प्रथम डिजिटल विशेषांक निकालने के लिए पत्रिका के संस्थापक और संपादक श्री बावनकर जी को साधुवाद।

 

जय प्रकाश पाण्डेय

(अतिथि संपादक)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई जी – अमिट स्मृति ☆ – आचार्य भागवत दुबे

आचार्य भगवत दुबे

My photo

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं गुरुवर  आचार्य भगवत दुबे जी  का हृदय से आभार। आपने ।ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए यह संस्मरण दूरभाष पर साझा किया इसके लिए हम आपके पुनः आभारी हैं।  )

 

✍  परसाई जी – अमिट स्मृति  ✍

 

परसाई जी का संपर्क एक स्वप्न की तरह लगता है। उनके विराट व्यक्तित्व की छवि अभी भी हृदय में अमिट  है। मैंने काफी समय बाद लिखना शुरू किया था। मुझे उनके एक शब्दचित्र ने सदैव मेरे हृदय को स्पर्श किया है। वैसे परसाई जी ने जितने शब्दचित्र लिखे हैं, उनमें आम व्यक्ति ही ज्यादा हैं। उनमें भी परसाई जी ने मनीषी जी और उनकी बांसुरी का चित्रण कर मनीषी जी जैसे लोगों को अमर कर दिया है।

एक स्मृति और मुझे याद आती है। उनसे मेरी अंतिम भेंट उस समय हुई जब वे पैरों से असमर्थ होने के कारण उठ नहीं सकते थे। मैं अपनी बेटी के साथ उनसे मिलने पहुंचा। उनसे अनुरोध किया कि बेटी के लिए पी एच डी के लिए कोई उचित सलाह दें। उन्होने बड़े ही आत्मीयता से हमारी बात सुनी और बेटी को सलाह दी कि वह ‘महाकवि भवभूति जी’ पर संस्कृत में कार्य करें। यह बात अलग है कि बाद में बेटी का विवाह हो गया और वह अपनी पी एच डी नहीं कर पाई किन्तु, वह विशिष्ट भेंट हमें सदा उनकी याद दिलाती रहेगी।

 

आचार्य भगवत दुबे

जबलपुर, मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई जी – एक आम आदमी और खास लेखक ☆ – श्री हिमांशु राय

श्री हिमांशु राय 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ  नाट्यकर्मी एवं साहित्यकार श्री हिमांशु राय जी   का हृदय से आभार। आप  इप्टवार्ता के संपादक एवं  विवेचना थियेटर ग्रुप के सचिव भी हैं। )

 

✍  परसाई जी – एक आम आदमी और खास लेखक ✍

 

अगस्त का माह में परसाई जी का जन्मदिन भी है और पुण्यतिथि भी है। अब यूं लगता है कि देश के बहुत से शहरों में परसाई जी के जन्मदिवस पर कार्यक्रम आयोजित होते हैंं। उनकी रचनाओं का पाठ होता है। उनकी रचनाओं पर विचार विमर्श होता है। व्यंग्य विधा पर चर्चा होती है। परसाई जी की बहुत सी रचनाएं ऐसी हैं जो कालजयी हैं। जिनका रचनाकाल बहुत पहले का है परंतु यूं लगता है जैसे आज लिखी गई हैं। इतना साम्य होता है कि लगता है आज कल मंे घटी घटनाओं को देखकर परसाई जी ने इसे लिखा है। यह परसाई जी की दूरदृष्टि थी या संयोग।

यह संयोग कतई नहीं है। यह परसाई जी के द्वारा किए गए विशद अध्ययन और उनके अनुभवों का कमाल है जिसके कारण उनके लिए राजनैतिक विषयों पर पूरी तीव्रता से लिखना संभव हुआ है। परसाई जी कमरे में बंद लेखक नहीं थे। वे शहर में निरंतर मेलजोल रखते थे। शहर के आम आदमी से वे सीधे जुड़े थे। बल्कि ये कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा कि वो एक आम आदमी और खास लेखक थे। इसीलिए उन्हें समाज की विसंगतियों और पीड़ा को समझना मुश्किल नहीं था। वो समाज में हर छोटे बड़े के पाखंड को पकड़ते थे और निर्ममता से उधेड़ते थे। इसीलिए परसाई परसाई थे।

परसाई जी ने अपने जीवन की शुरूआत में ही बहुत कठिन दिन देखे। विपन्नता को भोगा। छोटी सी उम्र में नौकरी की। दर्द से चीखती मां की मौत देखी। परसाई ने लिखा कि मां दर्द से चीखती रहती थीं और हम बच्चे गाते जाते थे ’ओम जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट पल में दूर करे’। पर मैंने देख लिया कि मां के कष्ट दूर करने के लिए कोई जगदीश नहीं रहा हैं। मां चली गई।

परसाई जी ने बहुत लोगों के शब्द चित्र लिखे हैं। वो लोग जबलपुर शहर के बड़े लोग नहीं थे। पर अपने तरीके के अलग लोग थे। परसाई जी उन पर लिख सके क्योंकि उन्हंे परसाई जी ने गहराई से पढ़ा था। ’मनीषी जी’ के बारे में परसाई जी ने लिखा है कि वो बांसुरी बजाते थे। जब वो भूखे होते थे तो अपने कमरे में बंद बिस्तर पर बैठे हुए बांसुरी बजाते थे। उनके प्रेमी समझ जाते थे और उनकी व्यवस्था करते थे। मनीषी जी जैसे अनेकों चरित्रों पर लिख कर परसाई जी ने उन्हें न केवल अमर कर दिया है वरन् आम आदमियों की विशिष्टताओं को भी उजागर किया है। ऐसे लोग भी हुए हैं, ऐसे लोग भी होते हैं ये परसाई जी के शब्दचित्रों को पढ़ने से ही मालूम होगा। उनको लिखने के लिए परसाई जी ने दिमाग से ज्यादा दिल से काम लिया है इसीलिए इन शब्दचित्रों के नायकों को परसाई जी ने बेहद मानवीयता के साथ चित्रित किया है।

’जाने पहचाने लोग’ में परसाई जी ने अपने शिक्षक चड्डा जी को याद किया है। क्या ऐसा शिक्षक होता है ? चड्डा जी ने परसाई को बचपन में दुनिया का साहित्य, इतिहास सब पढ़वा दिया। नितांत बचपन में की गई अपनी जंगल की नौकरी ने उनको उस उम्र में ही आदमी के चरित्र को पढ़ना सिखा दिया। उनने अपनी बुआ के बारे में लिखा है कि खुद पास में कुछ न होने के बावजूद वो कभी दुखी न होती थीं। सबके लिए भोजन की व्यवस्था करती थीं। उनने एक मुस्लिम बच्चे को घर में रखकर पढाया था। ये सब घटनाएं परसाई जी को निखारतीं रहीं।

घटनाएं सबके जीवन में घटती हैं। सवाल ये है कि हम उनसे क्या सीखते हैंं। घटनाएं हमारी पाठशाला हैं। हम उस पाठशाला में अच्छे से पढ़े तभी जीवन के विश्वविद्यालय से डिग्री ले पायेंगे। यदि आप कुछ न पढ़ पा रहे हों तो परसाई जी के शब्द चित्र, गर्दिश के दिन और जाने पहचाने लोग पढ़ लें। आप शिक्षित हो जाएंगे। जीवन की पाठशाला में बहुत कुछ अनपढ़ा रह जाता है। आज के समय में रहन सहन खान पान बदल गया है। तो जरूरी है कि जीवन की पाठशाला में जिनने ध्यान से पढ़ाई की है उनके लिखे हुए को पढ़ लिया जाए। मैक्सिम गोर्की ने ’मेरे विश्वविद्यालय’ यूं ही नहीं लिखी है।

© हिमांशु राय

जबलपुर, मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं? ☆ – श्री एम.एम. चन्द्रा 

श्री एम.एम. चन्द्रा 

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, आलोचक, सम्पादक श्री एम.  एम. चंद्रा जी, दिल्ली के हृदय से आभार। आप व्यंग्य आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं एवं वर्तमान में  डायमंड पाकेट बुक्स संस्थान में सम्पादक हैं। )

 

✍  परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं  ✍

 

‘जब बदलाव करना सम्भव था

मैं आया नहीं: जब यह जरूरी था

कि मैं, एक मामूली सा शख़्स, मदद करूं,

तो मैं हाशिये पर रहा।’

भारतीय इतिहास में हरिशंकर परसाई ही एक मात्र ऐसे लेखक रहे है, जो अपने रचनाकाल और उसके बाद आज भी व्यंग्य के सिरमौर बने हुए है। आज व्यंग्य क्षेत्र में व्यंग्य लिखने वालों की एक लम्बी कतार है जो लगातार लिख रही है और व्यंग्य की विकास यात्रा में अपना रचनात्मक योगदान भी दे रही है। इस समय व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्तर पर व्यंग-विमर्श के नाम पर बड़ी तीखी और आलोचनात्मक बहस देखने को मिल मिल रही है, लेकिन इन विमर्शों से अभी निष्कर्ष निकलना अभी बाकी है, जिसमें परसाई को लेकर सबसे ज्यादा विभ्रम की स्थिति है।

साथ ही साथ वर्तमान परिदृश्य में यह भी देखने को मिल रहा है वर्तमान व्यंग्य लेखन को परसाई, जोशी, त्यागी या लतीफ़ घोघी  जैसी शख्सियत  से तुलना करके परखा जा रहा है। या उन लोगों से अपनी तुलना की जा रही है। इस आधार पर या तो रचना को एकदम नकार दिया जाता है या उस रचना को पूर्णतः सतही वाह-वाही तक सीमित किया जाता है।

व्यंग्य की समीक्षात्मक पदाति और आलोचनात्मक दृष्टि का सर्वथा अभाव देखा जाता है। अब सवाल ये उठता है कि इतनी विकसित परम्परा के बावजूद व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र और आलोचनात्मक दृष्टि का विकास संभव क्यों नहीं हो पाया है।आज भी परसाई को लेकर विभ्रम की स्थिति क्यों है? इसकी जांच पड़ताल के लिए वर्तमान को इतिहास की जड़ में ले जाकर देखना पड़ेगा।

मुझे ऐसा लगता है कि 1990  के बाद की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। आर्थिक राजनीतिक तौर पर नयी दुनिया हमारे सामने उपस्थित है। चीन की दीवार गिर चुकी है, दुनिया के दो ध्रुवीय केंद्र बिखर चुके है। भारत ही नहीं दुनिया के पैमाने पर वैचारिक स्तर की केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली मनोगत शक्तियां पटल पर दिखाई नहीं देती, इसी लिए दुनिया भर की राजनैतिक पार्टियां वैचारिक भ्रम का शिकार है। आर्थिक नव उपनिवेशवाद आर्थिक  और राजनीतिक तोर पर लागू करके नये तरह का वैश्विक बाजार स्थापित किया जा रहा है।

आधुनिक साहित्य और व्यंग्य भी इससे अछूता नहीं है। एक नये प्रकार का लेखन को प्रायोजित और प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिसमें विचारों के महत्त्व को कम करके आंका जा रहा है। सिर्फ सतही अर्थी राजनीतिक यथार्थवाद को प्रस्तुत करना ही व्यंग्य मन जाता है। ऐसे कठिन दौर में परसाई को समझना किसी भी सजक व्यंग्यकार के लिए बहुत जरूरी गया है। बहुत से कारणों में यह भी एक कारण है जो परसाई के विचारों की प्रासंगिकता शिद्दत से महसूस हो रहा है। यह वर्तमान समय के प्रमुख कार्यभारों में से एक है, जिसको हम सबको मिलकर उठाना है।

व्यंग्य-साहित्य में परसाई को लेकर जितने भ्रम फैले हुए हैं, शायद ही किसी रचनाकार के साथ ऐसा हो। एक तरफ परसाई को किसी न किसी रूप में सब अपना बताते है तो दूसरी तरफ भाषाई चालाकी से एक ही झटके में उनको नकार भी दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उनके रचना कर्म पर ही विभ्रम की स्थिति है बल्कि उनके द्वारा छेड़े गये वैचारिक संघर्षों, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और उनकी पक्षधरता को लेकर ही विभ्रम की स्थिति है। उनके प्रयोग, व्यंग्य स्ट्रक्चर, भाषा और शैली को लेकर भी यदा-कदा मनोगत व्याख्या होने लगती है।

परसाई के बारे में सभी व्यंग्यकार इस बात पर तो सहमत है कि वो प्रतिबद्ध लेखन या वैचारिक दृष्टिकोण वाला लेखन करते है लेकिन दुर्भाग्यवश इन्हीं पक्षों की अधकचरी जानकारी के चलते उनको विकृत करने का भी काम साथ ही साथ किया जाता है। परसाई को जानने वाले जानते है है की उनकी प्रतिबद्धता किसी पार्टी के साथ नहीं बल्कि एक विचारधारा के साथ थी… जैसे ही उन्होंने देखा की तथाकथित पार्टी संगठन अपने विचारों पर नहीं चल रहे है, तो उन्होंने उसकी भी तीखी आलोचना अपने व्यंग्य द्वारा करी। इसी तीखी आलोचना के चलते वे हमेशा मुक्तिबोध की तरह अलगाव में भी रहे।

यह बात हमेशा याद रखे कि वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी परसाई ने वैचारिक जड़ता को नहीं स्वीकारा। जहां भी उन्हें असंगति या जड़ता दिखाई दी उसका तीखा विरोध किया। उन्होंने तथाकथित मार्क्सवादियों की वास्तविकता का भी चित्रण किया- “सिगरेट को ऐसे क्रोध से मोड़कर बुझाता है जैसे बुर्जूआ का गला घोंट रहा हो। दिन में यह क्रांतिकारी मार्क्स, लेनिन, माओ के जुमले याद करता है। रात को दोस्तों के साथ शराब पीता है और क्रांतिकारी जुमले दुहराता है। फिर मुर्गा इस तरह खाता है जैसे पूंजीवाद को चीर रहा हो”।

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है की प्रतिबद्धता कोई ऐसी वास्तु नहीं है जिसकी व्याख्या आज संभव नहीं है। फिर क्यों इसे रहस्य के रूप में प्रस्तुत करके परसाई पर कीचड़ उछाला जाता है। परसाई के लेखन और उनसे जुड़े बहुत से सवालों के जवाब अभी तक अनुत्तरित है। न ही आज तक उन पर गंभीर चर्चा हुई है।

अधिकतर व्यंग्य लेखक उनको अपना आदर्श जरूर मानते लेकिन उनको हाशिये पर डालने के लिए उनका इस्तेमाल अपने-अपने तरीके से और अपनी सहूलियत के लिए करते है। कभी-कभी लोग जाने अनजाने में उनके विचारों को विकृत कर जाते हैं। उनके बारे में वैचारिक विभ्रम इतना  गहरा है यदि इनको  दूर नहीं किया गया तो, उनको समझने समझाने की जगह उनके मजबूत पक्ष को भोथरा करने की नाकाम कोशिश होती रहेगी।

कभी परसाई पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाये जाते है कि उन्होंने शुरुआत में बहुत अच्छी रचनाएं लिखी लेकिन बाद में उनका क्षरण हो गया। कभी कहा जाता है कि मार्क्सवाद के संपर्क के बाद उनकी लेखनी में जान आ गयी और कभी कहा जाता है कि उन्होंने पार्टी लेखन किया। लेकिन कोई भी व्यक्ति उन रचनाओं  को सामने नहीं लाता कि वे कौन-कौन  सी ऐसी रचनाएं है, जिनको कमजोर कहा जा सकता है। क्यों कहा जाता है? कौन से मापदंडों पर रचनाएं कमजोर है। असल में यह सारा खेल उनको किसी न किसी रूप में नकारना ही है।

असल में कोई भी उनके लेखन पर सीधे-सीधे उंगली नहीं उठा सकता इसलिए वह अपनी तीन तिकड़म भाषा के बल पर उनको बदनाम कर देता है और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं लगती। यही काम उनके लेखन काल से ही उनके विरोधी और उनके साथ जुड़े राजनीतिक वैचारिक लोग उसी प्रकार कर रहे थे जैसा आज भी बहुत ही चालाकी के साथ किया जाता है। जिन मुद्दों को लेकर उन्हें बदनाम  किया  जाता है, उनमें से कुछ का जिक्र मैं  कर चुका हूँ बाकी का किसी अन्य लेख में करूंगा।

इस बात को हम अच्छी तरह से जानते है की परसाई अपने युगबोध को साथ लेकर चल रहे थे। जब हम परसाई का मूल्यांकन करेंगे तो हमें वामपंथ के वैचारिक विभ्रम पर बात करनी पड़ेगी, पार्टी संगठन और अपनी आलोचना और आत्मालोचना से भी गुजरना पड़ेगा। परसाई को समझने के लिए हमें नामवर, अशोक बाजपेयी, भीष्म साहनी, अवतार सिंह पास और मुक्तिबोध पर भी बात करनी पड़ेगी। परसाई का मूल्यांकन करने का मतलब है उस विचारधारा पर भी बात करना कि इस दुनिया की व्याख्या तो बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीके से की है, सवाल तो दुनिया को बदले और दुनिया को बेहतर  बनाने से है। क्या हम आज इस स्थिति में है कि उन सवालों पर बात की जाये। यदि नहीं, तो परसाई का समग्र मूल्यांकन संभव नहीं है।

इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास-सम्बन्धी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है।

परसाई ने अपने लेखन में राजनीतिक रुख को मजबूत आधार प्रदान किया। प्रेमचंद की विरासत को उन्होंने विकसित किया। प्रेमचंद साहित्य द्वारा राजनीति को मशाल दिखाने वाली प्रेरणा मानते थे, वही परसाई ने अपने लेखन से साबित कर दिया कि राजनीति ही वो प्रेरक शक्ति है जो साहित्य को दिशा देती है। परसाई भारत में विश्वव्यापी दृष्टिकोण वाली परम्परा के ऐसे योद्धा है, जो मानते है कि राजनीति से अलग कोई भी लेखन नहीं होता। प्रत्येक लेखन अपनी राजनीतिक पक्षों को लेकर लिखा जाता है। यदि कोई यह कहे कि वह राजनीतिक लेखन नहीं करता तो वह लोगों को बेवकूफ बनाने के सिवा कुछ नहीं है। लेखन चाहे कैसा भी हो या तो शासक वर्ग के लिए होता है शोषित वर्ग के लिए होता। यही कारण है अधिकतर लेखक परसाई के इस वर्गीय दृष्टिकोण से दूर भागने की कोशिश करते है। उनको अपना मानते  हुए भी नकारते है।

आज फिर से परसाई को देखने-पढ़ने और समझने का सवाल एक नज़रिये का सवाल है। कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है कि कुछ लोग परसाई को हमेशा के लिए हाशिये पर खड़ा रखना चाहते है। उनके जरूरी कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक स्थगित कर देने की साजिश कर रहे है।

परसाई का मूल्यांकन एक विस्तृत आलोचना आत्मआलोचना की मांग करता है, जिन्हें हम कई कारणों से जरूरी समझते हैं, हालांकि हमने परसाई के समग्र दृष्टिकोण पर बात करने  के लिए  लोगों का आह्वान किया है। अब बस यही देखना बाकी है कि कौन-कौन इस मुहिम को जरूरी और गैर जरूरी मानता है।

आज परसाई को लेकर  विचारधारात्मक संघर्ष चलाना परसाई की विरासत से नयी पीढ़ी शिक्षित करना हम सब का  मकसद है, क्योंकि अपने समय की समस्त विसंगतियों और विरूपताओं को उन्होंने हर प्रकार के चौखटे से बाहर निकालकर गहराई से चित्रित किया है। उनकी विचारधारा ही उनकी पूरी रचना दृष्टि का निर्माण करती है। वह किसी भी जड़वादी विचार का समर्थन नहीं करते बल्कि उनकी विचारधारा ही कहीं न कहीं संवेदना का विस्तार करती है और उनकी रचनाओं को और अधिक मानवीय और मनुष्यता के करीब ले जाती है…. उनके बारे समग्रता से बात वही व्यक्ति कर सकता है जो परसाई को अपनी विरासत मानता हो और उसकी विरासत को जानता हो।

 

© एम.एम. चन्द्रा, दिल्ली 

साभार: श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

Please share your Post !

Shares
image_print