हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए चार भागों में क्रमबद्ध प्रस्तुत है पराक्रम दिवस के अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का विशेष  ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणास्पद आलेख महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस। )  

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☆ पराक्रम दिवस विशेष – महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस – भाग – 1 ☆

(आज 23 जनवरी है। महानायक सुभाषचंद्र बोस की जयंती। केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस अवसर पर नेताजी पर लिखा अपना एक लेख साझा कर रहा हूँ। यह लेख राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पुस्तक ‘ऊर्जावान विभूतियाँ’ में सम्मिलित है – संजय भारद्वाज )

स्वाधीनता मानवजाति की मूलभूत आवश्यकता है। सोने के पिंजरे में रहकर भरपेट भोजन करते रहने से अच्छा मुक्त गगन में भूखे पेट विहार करना है । जाति को वरदान स्वरूप मिला स्वाधीनता का यह डी.एन.ए. ही है जिसने विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को समय-समय पर अपनी सार्वभौमता के लिए संघर्ष करने को उद्यत किया। इस संग्राम ने अनेक नायकों को जन्म दिया। विश्व इतिहास के इन नायकों में सुभाषचंद्र बोस अग्रणी हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महानायक कहा जाता है। सुभाषचंद्र का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था।

बालक सुभाष अत्यंत मेधावी छात्र थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की। फलस्वरूप 1920 में उन्हें सरकारी प्रशासनिक सेवा में नौकरी मिली। पर जिसके भीतर राष्ट्र की स्वाधीनता की अग्नि धधक रही हो, वह भला विदेशी शासकों की गुलामी कैसे करता! केवल एक वर्ष बाद उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राजपत्रित अधिकारी का पद छोड़ना परिवार और परिचितों के लिए धक्का था।

20 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र मुम्बई के मणि भवन में महात्मा गांधी से मिले। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए और कोलकाता में असहयोग आंदोलन की बागडोर संभालनेवाले देशबंधु चित्तरंजनदास के साथ काम करने की सलाह दी। सुभाषबाबू स्वयं भी देशबंधु के साथ जुड़ना चाहते थे। देशबंधु ने सुभाष की अनन्य प्रतिभा को पहचाना। 1922 में दासबाबू ने काँग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने कोलकाता महानगरपालिका का चुनाव जीता। दासबाबू कोलकाता के मेयर बने और सुभाषचंद्र बोस को प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) बनाया। सीईओ बनते ही सुभाषबाबू ने कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में मारे जानेवाले लोगों के परिजनों को मनपा में नौकरी देना भी आरंभ किया।

सुभाषबाबू का कद तेजी से बढ़ने लगा। 1928 में साइमन कमिशन को प्रत्युत्तर देने और भारत का भावी संविधान बनाने के लिए काँग्रेस ने पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय आयोग गठित किया। बोस को इस आयोग में शामिल किया गया। इसी वर्ष कोलकाता में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में सुभाष के भीतर के सैनिक ने मूर्तरूप लिया। उन्होंने खाकी गणवेश धारण कर पं. मोतीलाल नेहरू को सैनिक तरीके से सलामी दी।

1930 में जेल में रहते हुए उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। 26 जनवरी 1931 को सम्पूर्ण स्वराज्य की माँग करते हुए उन्होंने विशाल मोर्चा निकाला। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में नेताजी ग्यारह बार जेल गए। अंग्रेज उनसे इतना खौफ खाते थे कि छोटे-छोटे कारणों से गिरफ्तार कर उन्हें सुदूर म्यानमार के मंडाले कारागृह में भेज दिया जाता था। 1932 में तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उनके सामने युरोप चले जाने की शर्त रखी। ऐसी शर्तें पहले ठुकरा चुके सुभाषबाबू इस रिहाई को अवसर के रूप में लेते हुए युरोप चले गये। युरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैंड के नेता डी. वेलेरा से मिले। 1934 में अपने पिता की बीमारी के चलते वे भारत लौटे। कोलकाता पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर वापस युरोप भेज दिया गया। युरोप प्रवास में ही 26 दिसम्बर 1937 को उन्होंने ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकेल से विवाह किया।

1938 में काँग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। सुभाषबाबू को इसमें काँग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय उद्बोधन की सर्वाधिक प्रभावशाली अध्यक्षीय वक्तव्यों में गणना होती है। अध्यक्ष के रूप में अपने सेवाकाल में बोस ने पहली बार भारतीय योजना आयोग का गठन किया। पहली बार काँग्रेस ने स्वदेशी वैज्ञानिक परिषद का आयोजन भी किया।

सुभाषबाबू की आक्रमक कार्यपद्धति गांधीजी को मान्य नहीं थी। फलतः 1939 के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। सुभाषबाबू ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 203 मतों से परास्त कर यह चुनाव जीत लिया। काँग्रेस के इतिहास में पहली बार किसीने गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित किया था। पार्टी में खलबली मच गई। गांधीजी के विरोध और कार्यकारिणी के सदस्यों के असहयोग के चलते 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

4 दिन बाद याने 3 मई 1939 को उन्होंने काँग्रेस के भीतर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। सुभाषबाबू के कद को बरदाश्त न कर सकनेवाली लॉबी ने उन्हें काँग्रेस से निष्कासित करवा दिया। फॉरवर्ड ब्लॉक अब स्वतंत्र पार्टी के रूप में काम करने लगी।

इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। भारतीयों से राय लिए बिना भारतीय सैनिकों को इस युद्ध में झोंक देने के विरोध में सुभाषबाबू ने आवाज उठाई। उन्होंने कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को तोड़ने की घोषणा भी की। सुभाषबाबू को धारा 129 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस धारा में अपील करने का अधिकार नहीं था। सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध को भारत की आजादी के लिए कारगर अस्त्र के रूप में देखते थे। फलतः रिहाई के लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरु कर दिया। बढ़ते दबाव से अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल से तो मुक्त कर दिया पर घर में नजरबंद कर लिया गया।

क्रमशः … भाग – 2

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं।)

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1

यह बात 1984 कि है जब सुरेश की पोस्टिंग स्टेट बैंक की तुलाराम चौक, जबलपुर शाखा में थी। वह प्रशिक्षण हेतु भोपाल गया था। सुबह पाँच बजे के लगभग नर्मदा एक्सप्रेस से जबलपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरकर बाहर निकल रहा था। तभी गेट पर एक साईकल रिक्शा वाले से घर तक का किराया दस रुपए में तय हो गया। वह बैग़ को दोनों पैरों पर रखकर रिक्शे में बैठ ऊँघने लगा। रिक्शा मालगोदाम गेट के बगल से निकल मुख्य सड़क पर सरपट दौड़ने लगा। बायें तरफ़ वन विभाग कार्यालय और दाहिनी तरफ़ हाईकोर्ट के बीच से आगे चौराहे पर पहुँच कर रिक्शा अचानक रुक गया।

सुरेश की नींद का झौंका टूटा तो उसने रिक्शा को तीन लोगों की गिरफ़्त में पाया। वे अपने मुँह कपड़े से ढँके थे। उनकी सिर्फ़ आँखें दिख रहीं थीं। एक गोल कंजी आँख वाले ने रामपुरी चाकू उसकी तरफ़ दिखाते हुए कहा कि जो भी कुछ माल है अंटी में ढ़ीला करो। सुरेश ने सुबह के धुँधलके में देखा कि दूसरा लुटेरा साईकल रिक्शा का हैंडल पकड़े था और

तीसरा बाईं तरफ़ लोहे की रॉड लेकर तैयार था। सुरेश अखाड़े का खिलाड़ी रहा था। वह चाकू, बल्लम, बर्छी और लाठी चलाना और वार से बचना जानता था। उसने स्थिति का आकलन किया और अन्दाज़ लगाया कि चाकू वाले लुटेरे का गुप्तांग उसकी दाहिनी टाँग की ज़द में था। वह चोट करके अपने दाएँ हाथ से उसका चाकू झटक सकता था, परंतु बाएँ तरफ़ वाला लुटेरा उसे रॉड से घायल कर सकता था। सुरेश ने  जो कुछ भी ज़ेब में था, सब निकाल कर लुटेरों के हवाले कर दिया। सामने वाले लुटेरे ने रक़म झटकते हुए हाथ में बंधी रीको घड़ी की तरफ़ इशारा किया, वह भी उसको दे दी। बाएँ तरफ़ वाले लुटेरे ने बैग़ की खानातलाशी लेते हुए ट्रेनिंग की फाइल एक तरफ़ फेंकी और कपड़े दूसरी तरफ़ फेंक बैग़ टटोल कर कहा “साला शिकार फटियल निकला, चलो रे।” सुरेश बिखरे सामान को बैग़ में रख रहा था तभी रिक्शा वाला रिक्शा लेकर रफ़ूचक्कर हो गया।

एकाध महीना बाद, सुरेश बैंक में बचत खाता पासिंग आफ़िसर की कुर्सी पर बैठा पासिंग कर रहा था। बग़ल में वीनू परांजपे सरकारी भुगतान की डेस्क पर काम कर रहे थे। एक पुलिस कांस्टेबल वीनू भाई की डेस्क पर आया। उसने सुरेश के सामने रखी कुर्सी खिसकाने की अनुमति चाही, इसके पहले कि कुछ कहा जाता वह कुर्सी खिसका कर वीनू भाई के सामने बैठ गया। वीनू भाई ने उसका परिचय ओमती थाने के दीवान के के रूप में कराया। वह थाने के स्टाफ़ के वेतन बिल का भुगतान लेने आया था। वीनू भाई ने चाय बुलाकर पिलाई। थोड़ी देर बाद एक गोल कंजी आँख वाला लम्बा छरछरा तीसेक साल का व्यक्ति पान की पुड़िया लेकर दीवान साहब के पास आया। दीवान साहब और वीनू भाई को पान देने के बाद उसने पुड़िया सुरेश की तरफ़ बढ़ाई तो उसकी नज़र उस व्यक्ति की कलाई पर बंधी घड़ी पर अटक गई। घड़ी एक जगह से घिस गई थी इसलिए वहाँ से हल्का पीलापन उभर आया था। सुरेश को अपनी घड़ी पहचानते देर नहीं लगी।

थोड़ी देर बाद जैसे ही लंच का समय हुआ, सुरेश पुलिस कांस्टेबल को लंच कराने बैंक केंटीन में ले गया। वहाँ उसने उससे पान लाने वाले व्यक्ति की जानकारी चाही। पुलिस कांस्टेबल ने कहा “वह पुलिस का मुखबिर याने पुलिस को खबर पहुँचाने वाला ख़बरी है। सुरेश के यह पूछने पर कि वह छोटी-मोटी वारदात को अंजाम देता है क्या? कांस्टेबल बोला “गुंदरा है, जात का रंग तो दिखाएगा साहब।

सुरेश ने जानना चाहा गुंदरा मतलब क्या? “गुंदरा याने गुरंदी का निवासी” कांस्टेबल ने बताया। आगे जोड़ा “अब आगे  न पूछना साहब, ज़्यादा पता करना हो तो एस.पी.साहब से मिल लो आकर, वे इनके बारे में किताब में पढ़ते रहते हैं।”

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(Confessions of a Thug is an English novel written by Philip Meadows Taylor)

सुरेश एस.पी.साहब से मिला, उन्होंने फिलिप मीडोज टेलर द्वारा 1839 में लिखी की पुस्तक  “कन्फेशंस ऑफ ए ठग” पुस्तक उसे दी। जिसे पढ़कर पता चला कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ठगों का आतंक था। यहां जीतू और ‘आमिर अली’ नामक ऐसे ठग थे, जिनके नाम पर सबसे ज्यादा हत्याएं इतिहास में दर्ज हैं। खास बात यह कि इन ठगों के खात्मे का मुख्य केन्द्र जबलपुर ही रहा था। आमिर अली यशवंत राव होलकर के साथ मिलकर सिंधिया के इलाक़ों में लूटपाट करते-करते बम्बई-आगरा रोड़ पर लूटमार करते पकड़ाया था।

फिलिप मीडोज टेलर की उस पुस्तक से ठगी प्रथा का पता चला। टेलर महोदय पुलिस कमिश्नर थे। उन्होंने ठग सरग़ना आमिर अली को पकड़ कर सागर सेंट्रल जेल में रखा था जहाँ उन्होंने आमिर अली से ठगी के तरीक़ों की पूरी जानकारी लेकर अपनी किताब में लिखी थी।

– ठगों की भाषा ‘रामासी’ थी। जो गुप्त और सांकेतिक थी।

– ठगों का मूल औजार तपौनी का गुड़, रूमाल और कुदाली होता था।

– ठग अपने शिकार को ‘बनिज’ कहते थे, जिनका रूमाल से गला घोंट दिया जाता था।

– शिकार का रूमाल से गला घोंटकर मारने के इशारे को झिरनी देना कहते थे।

– ठग शिकार को मारने के पहले उसकी कब्र खोदकर रखते थे और शिकार को मारकर उसके शव को कब्र में रख उसके पेट को फरसे से चीर देते थे ताकि शव फूलकर कब्र से बाहर न निकल आए।

– मूलत: ठग काली के उपासक थे, जिसमें मुस्लिम ठग भी शामिल थे।

जीतू के नेतृत्व वाले ठगों का कारोबार कटनी से होशंगाबाद तक फैला हुआ था। वे जबलपुर से नागपुर, सागर, बनारस और नर्मदा घाटी में शिकारों का काम तमाम करके उन्हें लूटते थे। ठगी विद्या में पहले शिकारी का भरोसा हासिल किया जाता था। जब उन्हें पक्का विश्वास हो जाता था तब मुख्य ठग दाहिने हाथ में रूमाल में सिक्का रख अंटी की फाँस बनाकर शिकार के पीछे खड़ा हो जाता था। उसके साथी शिकार को गाफ़िल पाते ही झिरनी याने इशारा देते थे। मुख्य ठग एक मिनट में शिकार का काम तमाम कर देता था।

जबलपुर से करीब 75 किलोमीटर दूर कटनी रोड पर स्थित “स्लीमनाबाद” व आसपास के कुछ क्षेत्रों में यह वर्ग लूट और ठगी का ही काम करता था। एक तरह से ठगी उनका परम्परागत व्यवसाय जैसा बन गया था। इस वर्ग के लोग राहगीरों को ठगकर या फिर लूटकर ही अपना परिवार चलाते थे। इसके अलावा और भी कई क्षेत्र थे जहां लूट के डर से शाम ढलने के बाद निकलना लोग जान से खिलवाड़ जैसा मानते थे। लूट और ठगी में किशोर और बच्चे तक शामिल रहते थे। इन गिरोहों ने अंग्रेजी हुकूमत तक की नींद मुश्किल कर दी थी। ये कभी पकड़ में नहीं आते थे। अंग्रेज हुकूमत परेशान थी।

आदमी की ज़िंदगी में कुछ घटनाएँ ऐसी भी घटती हैं कि सब कुछ असम्भव-अतार्किक सा लगता है। बिखरे-बेतरतीब सपनों की तरह। फिर इनकी यादें चाहे जब दिलो-दिमाग में दस्तक देने आ टपकती हैं। बेचैन करती हैं। इस बेकरारी का सबब कुछ समझ में नहीं आता। कभी लगता है कि यह फ़क़त दिमाग का फितूर है और ऐन इसी वक्त दिल कह रहा होता है कि कुछ तो है! अजीब से हालात होते हैं, जिन्हें स्लीमेन जबलपुर आने से पहले इलाहाबाद में झेल रहे थे। यहाँ वे चंद अरसा ही रहे, पर ये दिन बड़ी बेचैनी के थे। हाट-बाजार में घूमते हुए अचानक ऐसा लगता कि कोई उनका पीछा कर रहा है। पलटकर निगाह दौड़ाते तो मालूम पड़ता कि वैसा कुछ नहीं है। खुद पर खीझ हो आती कि यह क्या हरकत है? रातों को सोते हुए अचानक नींद खुल जाती। फिर कभी-कभी लगता कि कोई आवाज उनके पीछे है, जो उनसे कुछ कहना चाहती है। आवाज बहुत साफ होती बस उसके मायने पकड़ में नहीं आते! कभी आगत में खड़ी कोई चुनौती उन्हें ललकार रही होती। वह क्या थी, नहीं पता। पर वह जो भी थी अलग थी, अनूठी थी, अद्वितीय थी!

क्या यह उस जंग का असर था जो वे कुछ दिनों पहले नेपाल की सरहद में लड़कर आए थे? विलयम हैनरी स्लीमैन महज 21 साल की उम्र में  इंग्लैंड से भारत आकर दानापुर रेजिमेंट में भर्ती हो गए थे। इंसान चाहे कितना भी पत्थर-दिल हो, युद्धभूमि में मची मार-काट विचलित तो करती ही है। जंग सिर्फ बाहर नहीं होती, भीतर भी चलती है और जंग के खत्म हो जाने के बाद भी चलती रहती है। फिर स्लीमेन तो बहुत संवेदनशील थे। उनके बहुत से साथी बीमार पड़ गए। कुछ मारे भी गए। युद्ध से वितृष्णा-सी हो गई थी। कलकत्ते में आराम करने के लिए छुट्टी मिली। उन्होंने आला अफसरान को चिट्ठी लिखी कि वे फौज में लड़ने के बदले कॉलेज में पढ़ाना चाहते हैं। इलाहाबाद की एक लाइब्रेरी में किताबों के पन्ने पलटते रहे और बस एक पन्ने में उलझकर रह गए। यह एक फ्रेंच यात्री की किताब थी जो पचासेक साल पहले भारत-भ्रमण पर आया था। उनकी किताब के उस पन्ने पर आकर वे ठहर जाते, जिसमें लिखा था कि दिल्ली से आगरे का रास्ता बड़ा खतरनाक है और यहाँ से लोग न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं? इस एक पन्ने को उन्होंने बार-बार पढा। कई बार पढा। जंग की ताजी यादों के साथ यह एक पन्ना भी शायद इलाहाबाद में उनकी बेचैनी का सबब था।

मि. स्मिथ नाम के अंग्रेज अफसर को यह मंजूर नहीं था कि स्लीमैन जैसा नौजवान अपने आपको कॉलेज की चाहारदीवारी में कैद कर ले। स्लीमेन को उन्होंने सिविल सर्विसेस में भर्ती कर जबलपुर के पास सागर भेज दिया। फिर वे सागर से नरसिंहपुर आए। नरसिंहपुर में उस जमाने में ठगों की सबसे बड़ी ‘बिल’ के होने का वजूद सामने आया था। मजे की बात यह कि तब यह बात स्लीमेन को भी पता नहीं थी कि उनके दफ्तर से महज 300 मीटर के फासले पर कंदेली नामक एक गाँव ठगों का असली अड्डा है और पास ही मड़ेसुर में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ‘बिल’ है।

यह जो ‘बिल’ है, यह ठग-भाषा से है, जिसे रामासी कहा जाता था। ठगों की कूट भाषा। ‘बिल’ का आशय उस जगह से है जहाँ ‘बनिज’ (शिकार) को मारकर दफ़्न कर दिया जाता था। उस जमाने के ठग सच्चे ठग होते थे और उन्हें ‘बोरा’ या ‘ओला’ कहा जाता थे। जैसे कहते हैं कि सियासतदां के कुछ उसूल होते हैं, ठगों के भी कुछ उसूल हुआ करते थे और वे लोगों को जन्नत बख्शने के लिए धारदार हथियारों का इस्तेमाल नहीं करते थे। इस काम के लिए वे एक पीले रंग का रुमाल इस्तेमाल करते थे और उसे ‘पेलहू’ कहते थे। रुमाल की गांठों में विक्टोरियन सिक्का होता था ताकि पाप के भागी फिरंगी भी बनें! जैसे इन दिनों फाइन आर्ट्स-थिएटर वगैरह की बारीकी सीखने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण से गुजरना होता है, तब ठगी की भी बाकायदा ट्रेनिंग होती थी। परीक्षा देनी पड़ती थी। दीक्षांत समारोह में गुरु चेले के हाथों में गुड़ का टुकड़ा रख देता। फिर वह एक पीले रंग का रुमाल निकालता और उसके सिरे पर चाँदी का विक्टोरियन सिक्का बाँध दिया जाता। एक तरह से यही प्रशिक्षु की डिग्री-डिप्लोमा होती। गुड़ खाते ही वह ‘सर्टिफाइड’ ठग बन जाता। रुमाल में बंधे सिक्के से गुड़ की एक खेप और मंगाई जाती और इसके साथ ‘गुड़-भोज’ के रूप में लंच या डिनर होता। यह गुड़ ‘तुपोनी का गुड़’ कहलाता और कहते हैं कि इसे चखने वाला ताजिंदगी ठग बना रहता। वो ठग तो अब नहीं रहे पर इस फरेबी दुनिया में तब के गुड़ की तासीर अभी भी बची हुई है।

क्रमशः  —- भाग – 2

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 79 ☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख को-रोना बनाम रुदाली।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 79 ☆

☆ को-रोना बनाम रुदाली ☆

‘कोरोना तो रुदाली करने का बस एक बहाना है। बाकी लोग तो पहले से ही अपनों से दूर हो चुके हैं। वे तो पास होने का केवल नाटक करते हैं।’ राजेंद्र परदेसी जी का यह कथन कोटिशः सत्य है। ‘को-रोना’ काहे का और क्यों रोना’ विडंबना है जीवन की। वास्तव में आधुनिक युग में विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया है और मानव में आत्मकेंद्रितता के भाव में बेतहाशा उछाल आया है, क्योंकि सामाजिक-सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा। जीवन मूल्य दरक़ रहे हैं और रिश्तों की अहमियत रही नहीं। सो! परिवार-व्यवस्था में मानव की आस्था न होने के कारण चहुंओर अविश्वास का वातावरण हावी है। पति-पत्नी अपने-अपने द्वीप में क़ैद हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। स्नेह, सौहार्द, प्रेम व विश्वास जीवन से नदारद हैं। इन विषम परिस्थितियों में पारस्परिक प्रेम व सहानुभुति के भाव होने की कल्पना बेमानी है।

वास्तव में को-रोना तो स्वार्थी मानसिकता वाले  लोगों के लिए वरदान है, जो अपनों के निकट संबंधी होने का दम भरते हैं अर्थात् स्वांग रचते हैं। वास्तव में वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं सकते। इसलिए कोरोना तो रुदाली की भांति लोक-दिखावा है… शोक प्रकट करने का एकमात्र साधन है। कोरोना ने तो उनकी मुश्किलें आसान कर दी हैं। अब उन्हें मातमपुर्सी के लिए किसी के वहां जाने की दरक़ार नहीं, क्योंकि वह एक जानलेवा बीमारी है। इसलिए इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सरकारी सम्पत्ति बन जाता है और पीड़ित का उसके परिवार से ही नहीं, संपूर्ण विश्व से नाता टूट जाता है। दूसरे शब्दों में वह रिश्ते- नातों के जंजाल से जीते-जी मुक्ति पा लेता है।

रुदाली एक प्राचीन परंपरा है और चंद महिलाओं के गुज़र-बसर का साधन, जिसके अंतर्गत उन्हें रोने अथवा मातम मनाने के लिए एक निश्चित अवधि के लिए वहां जाना पड़ता है, जबकि उनका उस व्यक्ति व परिवार से कोई संबंध नहीं होता। आजकल तो संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर रह गए हैं और अपनत्व का भाव भी  जीवन से लुप्त हो चुका है। लोग अक्सर निकट होने का नाटक करते हैं। परंतु संवेदनाएं मर चुकी हैं और रिश्तों को ग्रहण लग गया है। इसलिए कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा।

मुझे स्मरण हो रही है विलियम शेक्सपीयर की ‘सैवन स्टेजिज़ ऑफ मैन’ कविता–जिसमें वे संसार को रंगमंच की संज्ञा देते हुए मानव को एक क़िरदार के रूप में दर्शाते हैं, जो संसार में जन्म लेने के पश्चात् समयानुसार अपने विभिन्न पार्ट अदा कर चल देता है। वास्तव में यही सत्य है जीवन का, क्योंकि सब संबंध स्वार्थ के हैं। सच्चा तो केवल आत्मा-परमात्मा का संबंध है, जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। सो! मानव को सांसारिक मायाजाल से ऊपर उठना चाहिए, ताकि वह मुक्ति को प्राप्त कर सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 31 ☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद”.)

☆ किसलय की कलम से # 31 ☆

☆ हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद ☆

चन्द्रमा और लक्ष्मी दोनों ही समुद्रमंथन से निकले होने के कारण भाई-बहन कहलाते हैं। भगवान विष्णु हमारे जगत पिता और देवी लक्ष्मी हमारी जगत माता हैं। इस रिश्ते के कारण ही देवी लक्ष्मी के भाई चन्द्र देव हम सबके मामा हुए। यही कारण है कि पूरा हिन्दु-विश्व चाँद को “चन्दा मामा” कहता है।

अन्तरिक्ष में पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण चाँद अपनी चाँदनी और अनेक विशेषताओं के कारण प्राणिजगत का अभिन्न अंग है। चाँद के घटते-बढ़ते स्वरूप को हम चन्द्रकलाएँ कहते हैं। इन्हीं कलाओं या स्थितियों को हमारे प्राचीन गणितज्ञों एवं ज्योतिषाचार्यों ने चाँद पर आधारित काल गणना विकसित की। प्रतिपदा से चतुर्दशी पश्चात अमावस्या अथवा पूर्णिमा तक दो पक्ष माने गए। शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष मिलकर एक मास बनाया गया है। आज हिन्दु समाज के सभी संस्कार अथवा कार्यक्रम इन्हीं तिथियों के अनुसार नियत किए जाते हैं। आज भी धार्मिक, श्रद्धालु एवं समस्त सनातनधर्मी जनसमुदाय काल गणना और अपने अधिकांश कार्य चन्द्र तिथियों के अनुसार ही करते हैं। दिन में जहाँ सूर्य अपने आलोक से पृथ्वी को जीवन्त बनाये हुए है, वहीं चाँद रात्रि में अपनी निर्मल चाँदनी से जन मानस को लाभान्वित करने के साथ ही अभिभूत भी करता है।

लोक संस्कृति में आज भी चाँद का महत्त्व सर्वोपरि माना जाता है। दीपावली, दशहरा, होली, रक्षाबंधन, शरद पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, सोमवती अमावस्यायें, कार्तिक पूर्णिमा, जैसे सारे व्रत या पर्व चाँद की तिथियों पर ही आधारित हैं। इनमें से शरद पूर्णिमा तो मुख्यतः चाँद का ही पर्व कहलाता है। इस दिन की चाँदनी यथार्थ में अमृत वर्षा करती प्रतीत होती है।

यदि हम समाज की बात करें तो आज भी छोटे बच्चों को चाँद की ओर इशारा कर के बहलाने का प्रयास किया जाता है। “चन्दा मामा दूर के, पुये पकाए बोर के” जैसे काव्य मुखड़ों से सारा समाज परिचित है। वहीं आज भी भगवान कृष्ण जी पर केन्द्रित गीत के बोल “मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों” किसे याद नहीं है। दूज के चाँद की सुन्दरता अनुपम न होती तो भगवान शिव इसे अपने भाल का श्रृंगार ही क्यों बनाते और वे चंद्रमौलि या चन्द्रशेखर कैसे कहलाते। यहाँ बुन्देली काव्य की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:-

विष्णु को सारो, श्रृंगार महेश को,

सागर को सुत, लक्ष्मी को भाई .

तारन को पति, देवन को धन,

मानुष को है महा सुखदाई ॥

इन पंक्तियों में चाँद को मानव और देवताओं सभी के लिए सुखदाई बताया गया है।

इस तरह चाँद की तुलनाएँ, उपमाएँ और सौन्दर्य वर्णन में उपयोग को देखते हुए लगता है कि यदि चाँद नहीं होता तो कवि-शायरों के पास एक विकट समस्या खड़ी हो जाती। चौदहवीं का चाँद हो, चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, चाँद सी महबूबा हो मेरी, या फिर मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी … आदि सदाबहार गीत हम आज न ही सुन पाते और न ही गुनगुना पाते।

प्रारम्भ से ही चाँद के प्रति प्राणिजगत का गहरा लगाव रहा है। यदि हम यहाँ पर ये कहें कि चाँद के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोग कल्पना करते थे कि चाँद पर कोई बुढ़िया चरखा चला रही है या झाड़ू लगा रही है। भले ही आज मानव चाँद पर जा चुका है पर उसकी विशेषताओं और महत्त्व में अभी तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। चाँद की शीतलता और उसका तारों भरे आकाश में शुभ्र चाँदनी बिखेरना, किसे नही भाता। मेरे ही शब्दों में :-

पर्वतों कि चोटियों पे आ के

बादलों के घूँघटों से झाँके

हो गई ये रात भी सुहानी

चाँद तेरी रौशनी को पा के …

चाँद जहाँ सुन्दरता का प्रतीक माना जाता है, वहीं उस पर दाग होने की कमी भी बताई जाती है। हमारे ग्रंथों में एक स्थान पर तो उसे देखने से ही चोरी के कलंक का कारण भी बताया गया है। इसी सन्दर्भ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा शुक्लपक्षीय भाद्रपद की चतुर्थी के चाँद को देख लेने पर उनके ऊपर “स्यमन्तक मणि” की चोरी का आरोप भी लगा दिया गया था, भले ही बाद में वे निर्दोष सिद्ध हो गए। कहते है चाँदनी रात का सुरम्य, शांत और एकांतप्रिय माहौल कवि-शायरों की साधना के लिए उपयुक्त होता है। वहीं अशांत मन के लिए शान्ति के लिए भी  ऐसे वातावरण सुखद होता है :-

एक शाम सुनसान में,

चाँद था आसमान में।

गुमसुम सा बैठा रहा,

न जाने किस अरमान में।।

चलती रही शीतल पवन,

रात बनी रही दुल्हन।

शान्त नहीं था मन मेरा,

थी अजीब सी वो उलझन।।

हम लोक संस्कृति, काव्य, शायरी, चित्रकारी, धर्म, अथवा समाज कहीं की भी बात करें, चाँद हमारे करीब ही होता है। यह शत-प्रतिशत सत्य है। हम ईद के चाँद की बात करें अथवा करवा चौथ के चाँद की। ये व्यापक और धार्मिक पर्व मुख्यतः चाँद के दर्शन पर ही आश्रित होते हैं। हमारा समाज इन्हें कितनी आस्था और विश्वास के साथ मनाता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

लोक संस्कृति में रचा-बसा, भगवान शिव के मस्तिष्क पर शोभायमान, कवि-शायरों की शृंगारिक विषयवस्तु, मनुष्य और देवताओं के सुखदाई चाँद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 81 ☆ पिंजरा ☆

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना, आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में/ फड़फड़ाते हैं मेरे पंख/ खुला आकाश देखकर / आपस में टकराते हैं मेरे पंख / मैं चोटिल हो उठता हूँ /अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ / अपनी असहायता को  / आक्रोश में बदल देता हूँ / चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ / अपलक नीलाभ निहारता हूँ / फिर थक जाता हूँ /टूट जाता हूँ / अपनी दिनचर्या के / समझौतों तले बैठ जाता हूँ / दुख कैद में रहने का नहीं / खुद से हारने का है / क्योंकि / पिंजरा मैंने ही चुना है / आकाश की ऊँचाइयों से डरकर / और / आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ / इस कैद से ऊबकर../ एक साथ, दोनों साथ / न मुमकिन था, न है / इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ / खुले बादलों का आमंत्रण देख / पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ / फिर बिन उड़े / पिंजरे में मिली रोटी देख / पंख समेट लेता हूँ../अनुत्तरित-सा प्रश्न है / कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।….आरंभ करें!

हे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 78 ☆ भाग्य बनाम कर्म ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख भाग्य बनाम कर्म।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 78 ☆

☆ भाग्य बनाम कर्म ☆

‘भाग्य पर नहीं, कर्म पर उम्मीद रखिए। कर्म उम्मीदों को दुगुन्ना कर देता है।’ सो! हौंसला व रुतबा बनाए रखिए… अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। संबंध इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में उमंग-तरंग व आनंदोल्लास जाग्रत करते हैं … अर्थात् प्रेम, खुशी, उल्लास, सत्य व विश्वास उत्पन्न करते हैं– जिसका मूल उद्देश्य है…सम्मान देना। सो! उम्मीद केवल अपनों से अथवा स्वयं से रखिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि अपेक्षा को उपेक्षा में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता और इंसान की सोच, सिद्धांत व मान्यताएं कांच की तरह पल भर में दरक़ जाती है। वैसे भी दूसरों से उम्मीद रखने से दु:ख प्राप्त होता है और स्वयं से प्राप्त प्रेरणा हमें उत्साह से भर देती है…हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जगाती है और हम अपने हाथ जगन्नाथ समझकर कर्म करने में निमग्न हो जाते हैं। सो! इसके लिए आवश्यकता है; एक-चित्त, एक-मन होकर एकाग्रता व तल्लीनता से कर्म करने की… जिसके लिए मानव को, स्वयं को किसी से कम नहीं आंकना चाहिए और अपना रुतबा व मान-सम्मान कायम रखना चाहिए, क्योंकि समय बदलता रहता है, कभी ठहरता नहीं। अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। सुख सुबह के प्रकाश- सम होता है, जो मांगने पर नहीं, जागने पर ही मिलता है। शाम को थका-हारा सूर्य विश्राम करने के पश्चात् भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, संपूर्ण संसार को आह्लादित कर नवीन ऊर्जा से भर देता है और पक्षियों का मधुर कलरव सुन मानव हृदय आंदोलित हो जाता है; खुशी से झूम उठता है। यह सब देखकर मानव ठगा-सा और अचंभित रह जाता है। वह नयी स्फूर्ति व विश्वास के साथ अपनी दिनचर्या में लग जाता है और इस बीच उसके हृदय में कोई नकारात्मक विचार दस्तक नहीं देता; न ही उसे आलस्य का अनुभव होता है, क्योंकि उसे अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर भरोसा होता है। अक्सर लोग आजीवन इस उधेड़बुन में उलझे रहते हैं, परंतु फिर भी उनका किसी से कोई भी संबंध-सरोकार नहीं होता।

शायद! इसलिए ही मानव को दो प्रकार के लोगों से सावधान रहने का संदेश दिया गया है। प्रथम व्यस्त व द्वितीय घमण्डी, क्योंकि व्यस्त मनुष्य अपनी मर्ज़ी व फ़ुर्सत रहने पर बात करता है और घमण्डी केवल अपने मतलब से ही बात करता है। सो! दोनों ही अविश्वसनीय हैं और कभी भी अच्छे मित्र नहीं बन सकते हैं। दूसरे शब्दों में इनसे सजग व सचेत ही नहीं; सावधान रहना भी अपेक्षित है। स्वार्थ पर आधारित संबंधों का फल कभी भी मधुर, शुभ व सकारात्मक नहीं होता। वे सदैव आपको ग़लत राहों की ओर ले जाते हैं और पथ-विचलित कर सुक़ून पाते हैं। सो! संबंध तो इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में सतरंगी भावनाएं–प्रेम, उदासी, खुशी, ग़म आदि जाग्रत करते हैं और रंगीन स्वप्न दिखाते हैं। आकाश में छाए इंद्रधनुषी बादल भी अपनी रंगीन छटा दिखाकर मानव-मन को आंदोलित व आकर्षित करते हैं और सत्यम्, शिवम् सुंदरम् की भावनाओं से ओतप्रोत करते हैं। कभी वह प्रेम भाव मानव हृदय को नवचेतना से आप्लावित व उद्वेलित करता है; मान-मनुहार के भाव जाग्रत करता है, तो कभी उदासी व विरह के भाव उसके हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं। प्रेम के अभाव में विरह पनपता है; जो मन में वेदना, दु:ख व पीड़ा को जाग्रत करता है। सो! मानव कभी खुशी से फूला नहीं समाता, तो कभी दु:ख व ग़मों के सागर में अवगाहन करता हुआ डूबता-उतराता है। कभी उसे यह मायावी जगत् सत्य भासता है और संबंध शाश्वत… जो मन में आस्था व विश्वास जाग्रत करते हैं। अक्सर मानव क्षणिक सौंदर्य को सत्य जान, उसकी ओर आकर्षित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है।  सो! वे भाव जीवन में आस्था व विश्वास जाग्रत  करते हैं और इंसान उसे सत्य जान आसक्त रहता है। परंतु उस स्थिति में वह भूल जाता है कि ज़िंदगी आदान-प्रदान का दूसरा नाम है …’आप जैसा करोगे, वैसा भरोगे’.. ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ और ‘कर भला, हो भला’ के भाव को पोषित करते हैं। इसलिए जब मानव विनम्र भाव से दूसरों को सम्मान देता है, तो उसके हृदय में अहं भाव नदारद रहता है तथा उसे सम्पूर्ण सृष्टि में सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा हुआ दिखाई पड़ता है। वह उन ख़ुशनुमा पलों को अपने आंचल में समेट लेना चाहता है; बाहों में भर लेना चाहता है। परंतु आदि शंकराचार्य के मतानुसार ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या है, नश्वर है अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है; अवश्यांभावी है। इसलिए मानव को सांसारिक आकर्षणों व माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि आसक्ति विनाश का मूल है; जो उसे लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग से भटकाती है।

मानव जीवन का मूल लक्ष्य है… प्रभु अथवा मोक्ष की प्राप्ति; आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार व तादात्म्य, जिसे भुलाने के कारण वह लख चौरासी में भटकता रहता है। वह कभी अपने भाग्य को दोषी ठहराता है; तो कभी नियति पर विश्वास कर, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और सोचता है कि मानव को भाग्य में लिखा अवश्य प्राप्त होता है। सो! वह कर्म में विश्वास नहीं रखता तथा भूल जाता है कि पुरुषार्थ के बिना मानव को मनचाहा प्राप्त नहीं हो सकता। परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी विद्वान बन कर, संसार में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर आधिपत्य स्थापित कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता होती है…सार्थक उद्देश्य व चिंतन-मनन की; जिसके सहारे मानव आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रख सकता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता। एक पत्थर तो तबीयत से उछालो, यारो!’ दुष्यंत की ये पंक्तियां मानव हृदय को आंदोलित व ऊर्जस्वित करती हैं। सो! आवश्यकता है साहस जुटाने की, आज का काम कल पर न छोड़ने की, क्योंकि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयेगी, मूर्ख करेगा कब’… अर्थात् प्रलय के आने पर बावरा मन अपने कार्यों को कैसे संपन्न कर पायेगा? इसलिए भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखिए; आपकी उम्मीदें अवश्य फलित होंगी व रंगीन स्वप्न अवश्य साकार होंगे।

हां! जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं… हम बिना सोचे-समझे व विचार-विमर्श किए, कार्य को अंजाम दे देते हैं। दूसरे आलसी व्यक्ति, जो कर्म करते ही नहीं…दोनों की नियति लगभग एक जैसी होती है और उनका परिणाम भी सुखदायक व मंगलकारी नहीं होता। अक्सर हमारी आंखों पर अहं का परदा पड़ा रहता है, जिसके कारण न हमें दूसरों के गुण दिखाई पड़ते हैं, न ही हम अपने अवगुणों से अवगत होकर उन्हें स्वीकार कर पाते हैं। यही मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। इस स्थिति में मानव में ज्ञान का अभाव होता है और सोचने-समझने की शक्ति भी नहीं होती…उससे भी बढ़कर वह स्वयं से अधिक बुद्धिमान किसी अन्य को स्वीकारता ही नहीं… इसलिए दूसरे की बात को सत्य स्वीकारने व अहमियत देने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अहं को मानव का सबसे बड़ा शत्रु स्वीकारा गया है तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति मानव को पतन की राह की ओर ले जाता है। ‘सो! फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर करना चाहिए; दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति सदैव के लिए स्वयं छूट जाएगी।’ इस स्थिति में दूसरों को आईना दिखाने में अपना समय नष्ट करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना अधिक श्रेयस्कर है। आत्मचिंतन करना मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। मुझे याद आ रही हैं निर्मल वर्मा की ये पंक्तियां… ‘जब मनुष्य के अंदर का देवता मर जाता है, तो वह झूठे देवताओं की शरण में जाता है।’ इसलिए मानव को परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार, उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक रहना चाहिए; न कि तथाकथित संतों व देवी-देवताओं की शरण में आश्रय ग्रहण करना।’ पहले तो ऋषि-मुनि जप-तप आदि करते थे, तथा मानव-मात्र को कल्याण का मार्ग सुझाते थे…जीने का अंदाज़ सिखाते थे। उनका जीवन सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित होता था और वे ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ के अंतर्गत समस्त वसुधा को अपना परिवार स्वीकार उसके मंगल हित कार्यरत रहते थे। परंतु आज के मानव को निजी स्वार्थों में लिप्त रहने के कारण, अपने व अपने परिजनों के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता। इसलिए ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व हितकारी कैसे हो सकता है?

मौन-चिंतन व एकांत मानव का सर्वश्रेष्ठ गुण है और ख़ामोशी की तहज़ीब है, जो संस्कारों की खबर देती है। संस्कृति संस्कारों की जननी है, जो हमें अज्ञान रूपी गहन अंधकार से बाहर निकालती है और तथाकथित अपनों में से अपनों को खोजने व पहचान करने का मार्ग दर्शाती है। मित्र वे नहीं होते, जो आपकी खामोशी का अर्थ न समझ सकें अर्थात् ‘जो ज़ाहिर हो जाए वह दर्द कैसा/ ख़ामोशी न समझ पाए वह हमदर्द कैसा?’ यहां ख़ामोशी का पर्याय है… सच्चा मित्र व हमदर्द है, जिसे समझने के लिए भाषा की दरक़ार नहीं होती। वह आपके चेहरे को देखकर अंतर्मन के भावों को समझ जाता है।

‘ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।’ इसलिए बहुत दूर तक जाना पड़ता है, सिर्फ़ यह जानने के लिए कि नज़दीक कौन है। यह प्रकृति का नियम है कि जब हमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है, ज़िंदगी हमें निष्फल व अस्तित्वहीन लगती है और जब हमें किसी वस्तु का अभाव खलता है; हमें उसकी महत्ता व अहमियत नज़र आती है, क्योंकि लोगों की अहमियत व उनके अस्तित्व का भान हमें उनके न रहने पर अनुभव होता है। इसलिए अहं को अपने शब्दकोश से निकाल बाहर फेंकिए। सब्र व सहनशीलता को जीवन में धारण कर निरंतर प्रयासरत रहिए। इसलिए निष्काम कर्म कीजिए, सहनशील बनिए, क्योंकि जो सहना सीख जाता है, उसे रहना आ जाता है अर्थात् जीना आ जाता है। सो! भाग्यवादी मत बनिये, स्वयं पर भरोसा कीजिए तथा ख़ुद से उम्मीद रखिए, क्योंकि बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं होते। सच्चा व्यक्ति ही केवल आस्तिक होता है, जो स्वयं पर विश्वास रखता है तथा यह अकाट्य सत्य है कि कृत-कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। ‘लफ़्ज़ जब बरसते हैं, बनकर बूंदें/ मौसम कोई भी हो, सब भीग जाते हैं।’ इसलिए ‘अंदाज़ से मत मापिए, किसी इंसान की हस्ती/ ठहरे हुए दरिया अक्सर, गहरे हुआ करते हैं।’ इसलिए लोगों को परखिए… अंदाज़ मत लगाइए और सुंदरता दर्पण में नहीं, लोगों के हृदय में खोजिए।

‘सफल व्यक्ति सीट अथवा कुर्सी पर आराम नहीं करते, उन्हें काम करने में आनंद आता है और वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं ‘ अर्थात् वे सदैव लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और यही होता है उनके जीने का अंदाज़… जो सार्थक है, सुंदर है, अनुकरणीय है। इसलिए जीवन मेंं सब्र व सच्चाई का दामन कभी मत छोड़िए, क्योंकि यह आप को गिरने नहीं देती… न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में। व्यवहार ज्ञान से भी बड़ा होता है, क्योंकि जब विषम परिस्थितियों में ज्ञान फेल हो जाता है, तो व्यवहार अपना करिश्मा दिखाकर उसे सफलता के मार्ग तक ले जाता है। इसलिए विशेष बनने की कोशिश कभी मत कीजिए। यदि आप साधारण हैं, तो साधारण बने रहिए…एक दिन आप अतिविशिष्ट बन जायेंगे। इसके लिए ज़रूरी है ‘आप विचार ऐसे रखिए कि आपके विचार पर दूसरों को विचार करना पड़े।’ सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है, उसी प्रकार मानव संघर्ष रूपी अग्नि में तपकर अर्थात् विभिन्न आपदाओं का सामना कर निखरता है; नये मुक़ाम हासिल करता है। इसलिए   ‘शक्तिशाली विजयी भव’ से अधिक कारग़र है, उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है, सार्थक है, सुंदर है… अनुकरणीय है, मननीय है… ‘संघर्षशील विजयी भव’, क्योंकि वह भाग्य पर विश्वास रखने का पक्षधर नहीं है, बल्कि कर्मशील बनने का प्रेरक और संदेशवाहक है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆

कई वर्ष पहले की बात है। इंटरनेट सर्चिंग या अंतरजाल खोज के क्षेत्र में नया था। रक्षाबंधन पर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। राखी की विभिन्न डिज़ाइनों की कुछ तस्वीरों के लिए इंटरनेट पर ‘राखी’ शब्द डाला और परिणाम देखकर अवाक हो गया। उन दिनों फिल्मों में आइटम साँग करने वाली इसी नाम की एक अभिनेत्री की तस्वीरें धड़ाधड़ स्क्रिन पर आने लगी थीं। इच्छित की समुचित खोज के लिए सही शब्दों के प्रयोग और तरीके से मैं तब तक अनजान था। एक बात और जानी कि सर्वाधिक सर्च किये शब्द या चित्र उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है।

‘राखी’ का प्रकरण मज़ाक में ही आया-गया हुआ। इस मज़ाक को भीतर तक चीर  देनेवाला चाकू उस समय लगा,  जब ऑनलाइन कुछ टाइप कर रहा था। अपने कथ्य में किसी संदर्भ में ‘सामूहिक’ शब्द टाइप किया। सामूहिक के साथ ही स्क्रिन पर ‘दुष्कर्म’ शब्द झलकने लगा। ‘सर्वाधिक सर्च किये शब्द उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है’, का नियम याद आया और सिर पर मानो हथौड़ा चल पड़ा। अंगुलियाँ रुक गईं, टाइपिंग थम गई पर सर्वाधिक सर्च हुआ शब्द निरंतर, अबाध  मेरा पीछा करता रहा।

क्या हो गया है हमारी सामुदायिक और सामूहिक चेतना को? मनुष्य का चोला पहने  रंगे सियारों ने मनुष्यता को कलंकित करने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम के विरुद्ध लम्बी सकारात्मक रेखा हम कब खींच पाएँगे? सामुदायिक बोध से उपजा हमारा सामूहिक प्रयास क्या इस ‘दुष्कर्म’ को पीछे ठेलकर ‘सत्कर्म’ को सर्वाधिक सर्च किया जानेवाला शब्द बना पाएगा?

# आज ‘सत्कर्म’ सर्च करें।

 

©  संजय भारद्वाज

(17 नवम्बर 2019, रात्रि 3.40 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 80 ☆ अपरंपार ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाईवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं। जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा

उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा

जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना

कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई

मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

पार जाने की सुध बनी रहे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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English Literature – Weekly Column☆ Samudramanthanam – 23 – Parijata ☆ Mr. Ashish Kumar

Mr Ashish Kumar

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual writing.  He has well researched Hindu Philosophy, Science and quest of success beyond the material realms. I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed.  We are pleased to begin a series on excerpts from his well acclaimed book  “Samudramanthanam” .  According to Mr Ashish  “Samudramanthanam is less explained and explored till date. I have tried to give broad way of this one of the most important chapter of Hindu mythology. I have read many scriptures and take references from many temples and folk stories, to present the all possible aspects of portrait of Samudramanthanam.”  Now our distinguished readers will be able to read this series on every Saturday.)    

Amazon Link – Samudramanthanam 

☆ Weekly Column – Samudramanthanam – 23 – Parijata ☆ 

Sura and Asura were now fed up from the churning of ocean of milk ‘Kshirasāgara’. They all were bore from this churning now. They all were missing their actual work and fun. Narada muni is aware of it. He knows that now this churning must stop soon. Soon Amrita will appear but only Lord Vishnu knows how long this will go.

Then after thinking something in his mind Narada muni proceeded towards Lord Brahma and said to him,” Prmapita Parmeshvar, father of all, Lord, are you thinking same which I am? I can see that both the teams are desperately want to end this churning of ocean. They are no more interested in it.”

Lord Brahma said,” your observation is right Narada, actually they are bored from routine task. They want some rest and relaxation and enjoyment of their senses. You do one thing. Go near ‘Indira’ and ‘Bali’ and told them that Brahma has given command to do a short break from this churning. You request Indira that he will order Apsaras do come here and do dance with Gandharva who will play music and also request from ‘Bali’ that he will order their team members to arrange food for everyone.

Narada muni does the same.   Now all Sura and Asura were enjoying a surprise party in which many types of sense engagements were present. Different types of foods were available there. Gandharva were playing their music instruments and Apsaras were dancing over their instrument tunes.

Bali looks towards an apsara ‘Urmila’ and said, “you all are very beautiful but your body is lacking the decoration of nature”

Indira interpreted and said, “what do you mean Bali?”

Bali said, “Indira you don’t know how to respect and decorate a woman. Your heaven’s beauties are lacking the natural decoration”

After listing these words of ‘Bali’ a tree starts emerging from ocean ‘Kshirasāgara’. It is night-flowering coral jasmine, or simply fragrance. Tree growing to 10 m (33 ft) tall, with flaky grey bark. The leaves were opposite, simple, 6–12 cm (2.4–4.7 inches) long and 2–6.5 cm (0.79–2.56 inches) broad, with an entire margin. The flowers were fragrant, with a five- to eight-lobed white corolla with an orange-red center; they were produced in clusters of two to seven together, with individual flowers opening at dusk and finishing at dawn. The fruit is a bilobed, flat brown heart-shaped to round capsule 2 cm (0.79 inch) diameter, each lobe containing a single seed. The fragrance of flower of Parijata and its appearance as white and orange color make to lose sense to all people present there.

Bali said to Indira, “this is the tree and flower of Patal lok, underworld which bloom here as a result of ‘Kshirasāgara’ churning only on my request and I am going to give this tree with flowers to my sister and your wife ‘Indrani’ on the day of ‘Bhaiya Dooj’.

Everyone were amazed from Bali’s act. Indira is not believing on it what Bali has done. Even he was still thinking that this must be some trick of Asura. Some Asura thinking that ‘Bali’ has done wrong to give precious tree of underworld to Indira’s wife.

Bali has won hearts of many.

Churning started again.

 

© Ashish Kumar

New Delhi

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 77 ☆ हक़ीक़त में गुमनाम सपने ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख हक़ीक़त में गुमनाम सपने यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 77 ☆

☆ हक़ीक़त में गुमनाम सपने ☆

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद्द अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है, अहसास व जज़्बात का; भावनाओं और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निर्धारित-निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिसके आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व अदम्य साहस को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना, प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’. .. अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर के लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व अन्य लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुसरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर भी कोई आपको पथ- विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को अन्वेषण की राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद्द उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी ही नहीं, उन्नति के पथ का अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके असंख्य प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्मविश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण हमें देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ ये उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है। अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना… हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानें तथा धीर, वीर, गंभीर बनकर समाज को रोशन करें… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है; वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, जो बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर, पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लायी। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने उनमें फूट डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह बटेर अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है’ तथा ‘बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करना अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद से जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिसके आधार पर वह उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उस स्थिति में अपना प्रतिपक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है…मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देखकर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव-जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उसके अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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