हिन्दी साहित्य – ☆ पुस्तक चर्चा ☆ लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है पुस्तक चर्चा के अंतर्गत लघुकथा रचना प्रक्रिया पर आधारित अर्धवार्षिक पत्रिका  पर विमर्शएक व्यक्ति एक उक्ति – लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ पर मेरी प्रतिक्रिया”.)

 

☆ पुस्तक चर्चा  – एक व्यक्ति एक उक्ति – लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ पर मेरी प्रतिक्रिया ☆ 

लघुकथा कलश ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ जुलाई-दिसम्बर 2019 में सम्पादकीय से लेकर सभी रचना प्रक्रियाओं में लघुकथाकारों के लिए बहुत कुछ गुनने योग्य है। इस अंक के प्रत्येक रचनाकार की एकाधिक रचनाओं की रचना प्रक्रियाएं  इसमें मौजूद हैं। हर एक रचनाकार की जितनी भी रचनाओं की रचना प्रक्रिया लिखी गई हैं उन सभी में से मेरे अनुसार किसी एक विशेष बात को चुन कर प्रस्तुत लेख में देने का प्रयास किया है। हालांकि प्रत्येक की रचना प्रक्रियाओं में से एक-दो पंक्तियों को चुनना कु्छ इसी प्रकार है जैसे श्रीजी भगवान को 56 भोग लगे हों और उनमें से किसी एक व्यंजन को चुन कर निकालना हो। वैसे, केवल यही सत्य नहीं, एक सत्य यह भी है कि कुछ (जिनकी संख्या बहुत कम है) रचना प्रक्रियाओं में से एक अच्छी पंक्ति खोजना कुछ मुश्किल था, लेकिन अधिकतर रचना प्रक्रियाएं न केवल रोचक वरन अन्य कई गुणों से ओतप्रोत हैं। इस लेख के शीर्षक के अनुसार, एक उक्ति का अर्थ कोई एक विशेष बात है, जो कुछ स्थानों पर एक या अधिक पंक्तियों में कही गई है। कु्छ सुधिजनों ने अपनी बात इतनी ठोस कही है कि उन्हें एक वाक्य में बता पाना मेरे लिए संभव नहीं था। प्रवाह बनाने हेतु मैंने मेरे अनुसार कुछ वाक्यों को मिलाया भी है तो कुछ को बीच में से हटाया भी है, कुछ शब्दों को बदला भी है। ‘एक व्यक्ति एक उक्ति’ निम्नानुसार हैं:

संपादकीयः दिल दिआँ गल्लाँ / योगराज प्रभाकर

वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।

जसबीर चावला

बस में हों, ट्रेन में हों, एक-न-एक किताब ज़रूर साथ रहती। लघुकथा और कवि्ता भी  दोनों साथ ही रहती हैं। रचना प्रक्रिया में दोनों जुड़वा हैं।

प्रताप सिंह सोढी

कई दिनों तक स्थितियों को सिलसिलेवार जोड़ कर चिन्तन-मनन करता रहा।

रूप देवगुण

लघुकथा में एक ही घटना होनी चहिये। इसमें विचारों के मंथन पर मैंने जोर दिया।

हरभजन खेमकरणी

रचना का कोई न कोई उद्देश्य एवं महत्व अवश्य ही होना चहिये। लेखक को रचनाकर्म हेतु कच्चा माल समाज से ही प्राप्त होता है।

अंजलि गुप्ता सिफ़र

लघुकथा अपने विषय की कुछ ठोस जानकारियाँ माँगती थी। एक सहकर्मी से कुछ प्रश्न पूछे और कुछ गूगल बाबा की मदद ली।

अंजू निगम

लघुकथा में थोडे में बहुत कुछ कह देने की बाध्यता होती है और अन्तिम पंक्ति पर इसका दारोमदार टिका होता है।

अनघा जोगलेकर

लघुकथा छ्ठे ड्राफ्ट के बाद उत्तम लगी।

अनिता रश्मि

चार मुख्य मील के पत्थर – 1. कथानक चयन, 2. प्रथम रूपरेखा, 3. परिवर्तन, 4. शीर्षक।

अनूपा हरबोला

संस्मरण को कथा रूप दिया।

अन्नपूर्णा बाजपेई

एक कुरीति के मुद्दे को उठाया, जो कुरीति आम बात थी।

अमरेन्द्र सुमन

नक्सली गतिविधियां पूरे भारतवर्ष के लिये बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और गहरे पैठ भी कर रही हैं। लघुकथा लिखने के क्रम में घटना का जिक्र, पात्रों का चुनाव, घटनास्थल, आम आदमी में भय के विरुद्ध प्रतिकार का साहस, समानांतर सरकार चलाने वालों की निजी ज़िन्दगी और अन्तिम हश्र दिखलाना बहुत कठिन कार्य था।

अरुण धर्मावत

प्रथम ड्राफ्ट से ऐसा प्रतीत हुआ कि लघुकथा की बजाय कहानी बन गई है, उपदेशात्मक भी प्रतीत हुई। इस रचना को लघुकथा में ढालने के लिये श्रम किया।

अशोक भाटिया

द्वंद से गुजर कर ही कोई रचना सूत्र हाथ लगता है, जो कभी गुनने-बुनने की प्रक्रिया में ही ढलने लगता है तो कभी बीज रूप में ही महीनों दबा रहता है। क्रियाओं को पहले मन में फिर कागज़ पर एक क्रम दिया। रचना के मन में बनने की प्रक्रिया से लेकर उसे कागज़ तक उतारने का संघर्ष बड़ा रोचक होता है। जैसी रचना मन में होती है, वैसी बाह्य रूप में नहीं हो सकती। इस प्रक्रिया के दौरान बड़ी सजगता से रचना के उत्स के पी्छे की उर्जस्विता को बचाये रखना होता है।

अशोक वर्मा

अपनी लघुकथा में तीस वर्षों का कालख़ण्ड एक साथ कहने का प्रयास किया है। (इस लघुकथा का शिल्प पढ़ने और गुनने योग्य है।)

आभा खरे

पुराने विषय को नए रूप में शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। इस हेतु पात्र गढ़ने, उनके नामकरण और कथानक पर कार्य किया।

आभा सिंह

मन की अबूझ गहराईयों को ध्यान में रखते हुए इस रचना का शीर्षक तय किया।

आर.बी.भंड़ारकर

छोटे-छोटे अनुभव, स्मृतियां, भाव, विचार, सोच, दृष्टिकोण, लेखन के आधार बनते हैं।

आशा शर्मा

मुझे अपनी भावनाओं के ज्वार से बाहर निकलने का एकमात्र यही तरीका आता है – लेखन। मैं विज्ञान की छात्रा भी रही हूँ, तो जहां आवश्यक तथा उक्तिसंगत हो, सूर्य-पृथ्वी आदि की उपमाएं देती हूँ।

आशीष दलाल

बार-बार पढ़ने पर भी रचना उपदेशात्मक सी लग रही थी, दिन भर मन और दिमाग में द्वंद चलता रहा और रात में इन्हीं विचारों के साथ नींद आ गई। सवेरे जब आँख खुली तो एक नए विचार के साथ दिमाग तैयार था और मन भी उसके साथ ही था।

ऊषा भदौरिया

तीन-चार दिनों बाद रचना को दोबारा पढ़ने पर उन भावों को उतना कनेक्ट नहीं कर पाई, जिन भावों से सोचकर उसे लिखा था, उसमें एडिटिंग की ज़रूरत थी।

एकदेव अधिकारी

लघुकथा के प्राण उसमें प्रयुक्त कठिन, समझ से बाहर शब्दों में नहीं, बल्कि कथ्य की प्रभावकारिता में होते हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

लेखकीय नज़रिये से सोचा तो कथानक पूरा बदल दिया, वाक्य छोटे किये, कसावट लाया और फिर विस्तार दिया।

कनक हरलालका

मुझे ‘प्रतिदान’ शीर्षक सार्थक लगा क्योंकि प्रेम के प्रतिदान में आत्मसम्मान सही रखा जा सकता है और मोक्ष या ज्ञान नहीं केवल ‘प्रेम’ ही दिया जा सकता है।

कमल कपूर

मन-मस्तिष्क के कच्चे आवे की सोंधी-मीठी धीमी आंच पर कई दिनों तक पककर ही लघुकथा सुंदर और सुगढ आकार लेती है… किसी कलात्मक माटी-कलश की तरह। चाहे बूंद भर ही क्यों न हो, हर लघुकथा के तलछट में एक सच छुपा होता है।

कमल चोपड़ा

कटु सत्यों को लघुकथा में समेटने के प्रयत्न के लिए काफी सोचने के बाद मुझे इसे सहज शिल्प-शैली में लिखना उचित लगा।

कमलेश भारतीय

घटना समाचार पत्र में पढ़कर मन ही मन रोया। बरस-पे-बरस बीतते गये, यह घटना मन में दबी रही और आखिरकार एक दिन लघुकथा ने जन्म लिया।

कल्पना भट्ट

घटनाक्रम को अपने ही घर के घटनाक्रम से लेती गई और यह भी ध्यान रखा कि कथातत्व यथार्थ पर कायम रहे, भटके नहीं।

कुँवर प्रेमिल

रचनाकार अपनी रचना से इतना मोहग्रस्त है कि किसी और की रचना को पढ्ना ही नहीं चाहता, यह आदत उसे कूप-मन्डूक बना रही है।

कुमार संभव जोशी

आठ बिन्दु महत्वपूर्ण हैं – कथानक, भूमिका, शिल्प व शैली, चरमबिन्दु, शीर्षक, कालखण्ड, मन्थन और सन्देश।

कुसुम पारीक

कथा को दो-तीन बार पाठकीय दृष्टिकोण से पढ़ा और जब संतुष्टि आई तब शीर्षक पर विचार प्रारम्भ किया।

कुसुम शर्मा नीमच

चुंकि लघुकथा ग्रामीण परिवेश की है, अतः पात्रों का नामकरण भौगोलिक स्थिति, गांव के प्रचलित नामों और गंवईं चरित्र के अनुसार किया।

कृष्णा वर्मा

कथानक सूझते ही मन उस क्षण विशेष की खोज में लग गया जो लघुकथा को प्रारम्भिक रूप दे सके। लघुकथा का उद्देश्य उसका आरम्भ, मध्य, अंत, कथ्य की पराकाष्ठा तथा शीर्षक को सोचकर उसकी रूपरेखा बनाई।

कृष्णालता यादव

साहित्य में रुचि रखने वाले (पाठक स्वरूप) अपने जीवनसाथी से रचना पर विचार-विमर्श किया और उनकी राय के अनुसार रचना में संशोधन किया।

खेमकरण सोमन

जब तक अगम्भीरता की स्थिति बनी रही, तब पचासों ऐसी रचनाएं लिख डालीं जो विधा को नुकसान पहुंचाती। मैं सोचने को बाध्य तब हुआ, जब घटना-वस्तु अति महत्वपूर्ण प्रतीत हुई। घटना-वस्तु को कथानक में बदलने के साथ-साथ, शीर्षक पर विचार, पात्रों के अनुसार भाषा शैली और कथानक के अनुसार पात्रों का नामकरण आदि भी किया।

 चित्त रंजन गोप

जहां आशय स्पष्ट नहीं हो रहा था, वहां कुछ शब्द जोड़े और जहां अतिरिक्त शब्द दिखाई दिए, उन्हें हटा दिया। बांग्ला की बजाय हिंदी का प्रयोग किया। वर्तनी की अशुद्धियों को सुधारने हेतु शब्दकोश की मदद ली।

 जगदीश राय कुलरियाँ

लघुकथा मेरे लिए मेरे विचारों को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। घटनाएं एवं वाक्य कई सालों तक मस्तिष्क में घूमे, तब जाकर इस रचना का आधार बना।

ज्ञानप्रकाश पियूष

इस लघुकथा के प्रारूप में भी पूर्ण होने के बाद तक किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। भाव, भाषा, शिल्प, सन्देश और उद्देश्य की दृष्टि से भी जिन्हें पढ़वाई उन सभी को उपयुक्त लगी।

तारिक़ असलम तसनीम

(कई) गाँवों में एक परंपरा है कि शाम को विवाहित स्त्रियां साज-श्रृंगार करती हैं, ताकि घर पर आते ही उनके पति मुस्कुरा उठें। लेकिन शहरी जीवन में यह संभव नहीं। तब कोई-कोई विवाहित पुरुष स्वयं के लिए स्पेस अन्य स्त्रियों में ढूंढने का प्रयास कर सकता है। गाँवों और शहरों के पात्र मेरे यथार्थ अनुभव का भाग हैं और इसी विषय पर रचना की है।

धर्मपाल साहिल

तीखा व्यंग्य लघुकथा की धार को तेज़ करता है। ऐसा अंत बनाने की प्रक्रिया कई दिन चली।

ध्रुव कुमार

वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राज पुष्करणा जी ने सुझाया कि फालतू शब्दों और वाक्यों को किस तरह हटाया जाता है और शीर्षक लघुकथा के कथानक के अनुरूप रखा।

नयना (आरती) कानिटकर

दूरदर्शन पर संविधान प्रक्रिया की चर्चा को देखते हुए मन में बात आई कि इस विषय पर लिखा जा सकता है।आत्मकथ्यात्मक, विवरणात्मक और संवादात्मक शैली में लिखने के बाद इसका अन्तिम रूप मिश्रित शैली में लिखा।

नीना छिब्बर

इस बात का विशेष ध्यान रखा कि भाव सम्प्रेषण, वाक्य-विन्यास और लघुकथा का मूल भाव लुप्त न हो जाए।

नीरज शर्मा सुधांशु

यह ध्यान रखा कि प्रयुक्त प्रतीक के गुणधर्म रचना के कथ्य पर सटीक बै्ठते हों और रचना नए मूल्य स्थापित करने में सक्षम हो।

नेहा शर्मा

रचना की कथा-वस्तु मेरे दिमाग में व्यर्थ जलती स्ट्रीट लाईट्स को देखकर आई।

पंकज शर्मा

यह रचना सत्य घटना पर आधारित है और हू-ब-हू उसी प्रकार लिखी गई है या बयान की गई है।

पदम गोधा

कथा में कथा-तत्व, कालखण्ड दोष और व्यापक सन्देश पर ध्यान देने का प्रयास किया है।

पवित्रा अग्रवाल

जाति का नाम न देकर मैंने जाति सूचक नाम ‘मिस्टर वाल्मिकि’ का प्रयोग किया।

पुरुषोत्तम दुबे

लघुकथा को जनतान्त्रिक परिवेश के माध्यम से उभारा गया है। वातावरण को जीवंत बनाने हेतु विरोधी नारों के हो-हल्लों को व्यक्त करने हेतु आक्रोश भरे शब्दों का चयन किया है।

पुष्पा जमुआर

हू-ब-हू स्थिति-परिस्थिति को आधार बना कर किया गया लघुकथा लेखन सिर्फ सच को उजागर करता सा या समाचार सरीखा प्रतीत होता है। अतः मैंने अपनी भावनात्मकता में कल्पनात्मक प्रस्तुति दी है।

पूजा अग्निहोत्री

मुख्य बिन्दु :- सहेली से कथानक सूझना, पहली रूपरेखा तैयार, वरिष्ठ लघुकथाकार से वार्ता कर परिवर्तन, शीर्षक के लिये सुधिजनों का अनुमोदन।

पूनम डोगरा

इसे लिखने में बहुत कम वक्त लगा, लगभग एक सिटिंग में ही लिख ड़ाली, शायद इसलिये भी क्योंकि यह कई दशकों से मेरे भीतर पक रही थी।

(यहां मैं संपादकीय वाली पंक्ति दोहराना चाहूँगा – “वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।”)

पूरन मुद्गल

लघुकथा में मैंने एक तथ्य, जिसे मैं मानता हूँ (आ्त्मा शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है) को अभिव्यक्त किया है।

प्रतिभा मिश्रा

सोशल मीडिया पर एक चित्र पर लेखन आयोजन के समय एक पुरानी घटना की याद ताज़ा हो गई। तब इस लघुकथा ने आकार लिया।

प्रबोध कुमार गोविल

वर्षों बाद मेरे जेहन में वो लघुकथा का एक पात्र बन गईं और मैंने अपनी लघुकथा ‘माँ’ उसी को जेहन में रखकर लिखी। अपनी उम्र से एकाएक बडे हो जाने के उसके अनुभव को मैंने ‘घर-घर’ के बालसुलभ खेल में उसके स्वतः ही माँ की भूमिका चुन लेने के रूप में दर्शाया।

प्रेरणा गुप्ता

लघुकथा मेरी तरफ से लिख लेने के बाद भी कु्छ अभाव सा प्रतीत हो रहा था। एक मित्र के एक पंक्ति के सुझाव मात्र से यह पूर्ण हो गई।

बलराम अग्रवाल

मेरी अधिकतर लघुकथाओं की तरह इसका कथानक भी किसी घटना-विशेष से प्रेरित नहीं है। इस रचना की मुख्य पात्र जाति-समुदाय से प्राप्त संस्कारों को पीछे ठेलकर मानवीय ‘अपनापन’ अपनाने को वरियता देती है। लघुकथाकार का अनिवार्यतः मन की परतों से तथा शब्दों व बिम्बों के स्फोट से परिचित रहना आवश्यक है। इस रचना के एक विशेष संवाद का विश्लेषण फ्रायड के एक सिद्धान्त के आधार पर किया जा सकता है, जो यह लघुकथा लिखते समय मेरे मस्तिष्क में रहा था।

बालकृष्ण गुप्ता गुरुजी

यह कथानक चयन करने का एकमात्र उद्देश्य समाज में जागरुकता लाने का प्रयास करना है।

भगवती प्रसाद द्विवेदी

इस लघुकथा में आत्मकथात्मक शैली में स्मृतिजीवी, आत्मजीवी व्यक्ति के द्वन्द को दर्शाने का प्रयास किया है।

भगीरथ परिहार

रचना और रचना-प्रक्रिया दोनों ही लेखक के मन-मस्तिष्क में घटती है। यह रचना भी घटना होने के बाद कई महीनों तक अवचेतन मन में मंथन चलने के बाद कागज़ पर अंकित की। बाद में शीर्षक इस तरह का रखा जो कथ्य पर आधारित हो लेकिन उससे कथ्य प्रकट न हो।

भारती कुमारी

मुझे शीर्षक और पात्रों के नामों का चयन सबसे अधिक परेशान करता है। इस रचना में पात्रों को नाम नहीं दिया है। चूँकि रचना चित्र आधारित लेखन प्रतियोगिता के लिए लिखी थी इसलिए शीर्षक चित्र पर आधारित रखा।

भारती वर्मा बौड़ाई

इस रचना को लिखते समय दो घटनाएं आपस में गड्डमड्ड हो रहीं थीं। अतः इस पर कार्य करते समय तीसरे प्रारूप में यह रचना लघुकथा के रूप में आई।

मंजीत कौर मीत

रचना सृजन के समय. व्यवस्थित वाक्य, उचित शब्दों का प्रयोग, प्रभावी संवाद और उद्देश्य पूर्ति को ध्यान में रखना आवश्यक है।

मंजू गुप्ता

आज की पीढ़ी हस्तकला का कार्य करना पसंद नहीं करती, रचना की मुख्य पात्र भी इसी का प्रतिनिधित्व कर रही है।

मधुदीप गुप्ता

जब हम किसी घटना से उत्पन्न विचार को अपने दिमाग में पकने देते हैं और उसके लिए उपयुक्त कथ्य की प्रतीक्षा करते हैं, तभी सही रचना का जन्म होता है। इस रचना की मूल घटना ने मुझे बहुत व्यथित कर दिया था और मैं कई दिन बैचेन रहा। यह सब मेरे अवचेतन में चला गया और एक दिन स्वतः ही एक कथानक के रूप में मेरे मस्तिष्क में आ खड़ा हुआ। घटना पर तुरंत लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।

मनन कुमार सिंह

अभिव्यक्ति पात्रों के माध्यम से होती है। बहुत सारे विकल्प खुले थे। अंत में प्रतीक के तौर पर लकीरों का प्रयोग किया और पात्र के तौर पर एक लेखक और एक टूटते तारे को।

मनु मनस्वी

मेरी कोशिश यह रहती है कि लघुकथा एक हाइकू की तरह हो। संक्षिप्ततम और पूर्ण।

महिमा भटनागर

मुझे विषय, पात्र और उद्देश्य मिल गया था लेकिन जो रचना बनी वह एक कहानी थी। उसमें से लेखकीय प्रवेश हटाते हुए उसे क्षण-विशेष की घटना बनाते हुए संवादों में पिरोया जिससे उस रचना ने लघुकथा का रूप लिया।

महेंद्र कुमार

प्रमुख कठिनाई यह थी कि पाठकों को कैसे कम से कम शब्दों में पाइथोगोरस के दर्शन से परिचय करवाया जाए। अतः कुछ पंक्तियाँ पाइथोगोरस और उनके शिष्य के संवाद पर खर्च कीं।

माधव नागदा

पंद्रह वर्षों तक यह थीम अंतर्मन के किस कोने अंतरे में दुबकी हुई थी, पता नहीं, और किस स्फुरण के कारण यह एक मुकम्मल लघुकथा के रूप में कागज़ पर अवतीर्ण हो गई? लेकिन इसका शीर्षक अवचेतन की बजाय इसी के कथ्य से प्राप्त हुआ। सबसे निचले पायदान का आदमी अपने नालायक बेटे को अपने महीने भर की कमाई देकर मस्ती से जा रहा है। भला उससे ‘रईस आदमी’ कौन हो सकता है?

मालती बसंत

पहले ड्राफ्ट के बाद समय अंतराल देना आवश्यक होता है ताकि सही लघुकथा का सृजन हो सके।

मिन्नी मिश्रा

इस लघुकथा के लिए मैंने कई शीर्षक सोचे, लेकिन पाठक सीधे कथा के मर्म तक पहुँच सकें, ऐसा शीर्षक चयनित किया।

मिर्ज़ा हाफिज़ बेग

लघुकथा का कैनवास इतना सीमित होता है कि अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हो जाती है, लेकिन क्या इस एक शर्त को पूरा करने के लिए लघुकथा से उसका सौंदर्य छीन लेना, उसके लालित्य की परवाह नहीं करना लघुकथा के साथ अन्याय नहीं है?

मुकेश शर्मा

लघुकथाओं के घिसे-पिटे विषयों से मैं निराश हो चुका था। एक मित्र के अनुभवों को सुनते समय ऐसा प्रतीत हुआ कि प्रेम-कविता जैसी लघुकथा लिखूं।

मुरलीधर वैष्णव

इस लघुकथा में चित्रित तंत्र की भ्रष्टता को व्यंग्यात्मक शैली में लिखा। कथानक एवं विषय के अनुरूप ही पात्रों और संवादों का चयन किया।

मृणाल आशुतोष

चूँकि यह कथानक लम्बे से मन में जगह बनाये हुए था, इसलिए काफी समय समय तक इसे बेहतर करने के लिए विचार किया। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा तो एक लघुकथाकार मित्र की सहायता ली।

मेघा राठी

चूँकि यह कथा किन्नर समुदाय की है अतः संवाद लिखते समय उनके हाव-भाव और आदतों के जिक्र के साथ उनकी भाषा में लिंखना बहुत आवश्यक था।

योगराज प्रभाकर

1985 में एक नज़्म लिखी थी – ‘सुन रे डरपोक सूरज’, 1989 में अचानक इस नज़्म को लघुकथा में ढालने का विचार आया। मैंने झटपट ही संवाद शैली में यह लघुकथा लिख ड़ाली। मेरा मानना है कि जो सुनाई न जा सके वह कहानी नहीं और जो गाई न जा सके वह कविता नहीं। बोलते वक्त इस लघुकथा में वह बात नहीं आ पा रही थी, जो पढ़ते वक्त आ रही थी। तब संक्षिप्त किन्तु आवश्यक विवरण देते हुए इस लघुकथा को दोबारा लिखा।

योगेन्द्रनाथ शुक्ल

“सरकार ने आदिवासियों पर करोडों रुपये खर्च किए लेकिन उनके पास दसवां हिस्सा भी नहीं पहुंच सका। फूल, पत्ती आदि खाने को मजबूर लूट न करें तो क्या करें?” यह सुनने के बाद मन द्रवित हो गया और जब तक इसे लघुकथा में नहीं ढ़ाला चैन नहीं मिला।

रजनीश दीक्षित

मुझे एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करनी थी जिसमें रोजमर्रा में कहे जाने वाले शब्द चटनी के सॉस से होते हुए आज के कैचप तक की बात समाहित हो जाए। यह विचार कई माह तक मन ही में घूमता रहा।

रतन राठौड़

लघुकथा सी्धे रूप में न कहकर मित्रों के आपसी वार्तालाप से उपजी है। लेखकीय दृष्टि से मैंने बहुत अंतर्द्वंद झेला है कि नायक आत्महत्या करे अथवा दुनिया से वैराग्य ले।

रवि प्रभाकर

भालचन्द्र गोस्वामी के अनुसार शीर्षक कहानी भर से प्राप्त होने वा्ली घटना को एक-दो शब्दों में गुंफित कर कहानी की रूपरेखा उपस्थित कर देता है। कुछ शीर्षक बदलने और मन्थन के पश्चात इस रचना का शीर्षक ‘कुकनुस’ रखा, जो प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में एक मिथक अमरपक्षी है। यह मरने के बाद अपनी ही राख से पुनः जीवन प्राप्त कर लेता है। इसका रोना शुभ माना जाता है और इसके आंसू से नासूर तक ठीक हो जाते हैं। ‘प्यार’ सरीखी पवित्र भावना भी अमर है और इसमें भी किसी के ज़ख़्म ठीक करने की अद्भुत शक्ति होती है।

राजकमल सक्सेना

जब लिखने की बारी आई तो शुरुआत समस्या बन गई। अन्ततः मेरे और मेरी पुत्री के बीच हुआ वार्तालाप ही इसका आरम्भ बना।

राजेन्द्र मोहन बंधु त्रिवेदी

एक बार एक व्यक्ति झूठ बोलकर कि उसे जयपुर में पैर लगवाना है, मुझसे रुपये ऐंठ कर ले गया। तब यह विचार आया कि ऐसे धन्धेबाजों पर लिखना ज़रूरी है ताकि कोई अन्य इनके चक्कर में न पड़े।

 राजेन्द्र वामन काटदरे

पहला जो खाका बना, वही कायम रहा व रीराइट करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। एक कथाबीज रचना का रूप लेकर फला-फूला।

राधेश्याम भारतीय

लघुकथा एक सच्ची घटना पर आधारित है। सतनाम सिंह नाम का व्यक्ति किसी कारणवश उसे दिए जा रहे सम्मान को लेने नहीं आया। लेकिन दो महिनों बाद वही भाग-भाग कर रेलवे स्टेशन पर रुकी ट्रेन के यात्रियों की बोतलों में पानी भर कर सेवा कर रहा था।

रामकुमार आत्रेय

इस लघुकथा में ‘इक्कीस जूते’ खाने वाला ईमानदार व्यक्ति मैं ही हूँ। देश में परिवर्तन तो बहुत आया है लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति आज भी कमोबेश पहले की भांति बनी हुई है।

रामकुमार घोटड़

इस विषय पर लघुकथा लिखने का मन बनाया लेकिन किस भाषा व कैसी शैली में लिखूं, यह निश्चित नहीं कर पाया। अन्ततः संवाद शैली में उस कथानक पर आधारित लघुकथा लिखी।

रामनिवास मानव

मैं अपने चिड़चिड़े स्वभाव के कारण छोटी-छोटी बातों पर ही अपनी पत्नी से नाराज़ हो जाता था। लेकिन मेरी पत्नी हमेशा सकारात्मक ही रहती और सकारात्मक ही कहती। इसी मिजाज़ ने मुझे यह लघुकथा लिखने को प्रेरित किया।

राममूरत राही

इसका शीर्षक मुझे कथानक के साथ ही सूझ गया था, जो मुझे बाद में भी सटीक लगा, तो वही रख दिया।

रामेश्वर काम्बोज

यह सम्भव है कि लघुकथा में आधारभूत घटना का कोई छोटा सा अंश ही परिमार्जित होकर आए। यह अंश उसमें उद्भुत होने पर भी उससे एकदम अलग नज़र आ सकता है। जैसे प्रस्तर खण्ड से बनी मूर्ति, उस बैडोल पत्थर की सूरत से कहीं मेल नहीं खाती।

रूपल उपाध्याय

अखबार में छपे एक आलेख को पढ़ने के बाद सबसे पहले मैंने इस रचना की एक पृष्ठभूमि तैयार की। कथा रोचक रहे इसलिए दो पात्र रखे, जिनकी लापरवाही से वे अपनी इकलौती संतान खो देते हैं। चूँकि उनकी वेदना दर्शायी, इसलिये लघुकथा का शीर्षक ‘वेदना’ ही रखा।

रेणु चन्द्रा माथुर

चाचा ससुर के बेटे-बहू ने एक कन्या को गोद लिया और उसका उत्सव मनाया। लघुकथा ने वहीं जन्म ले लिया। हालांकि लघुकथा इससे आगे नहीं बढ पा रही थी। पडौस में एक बेटी के जन्म पर उसका नाम ‘खुशी’ रखा तो लघुकथा भी इसी नाम के साथ पूरी हुई।

लता अग्रवाल

आज लघुकथा ने अपना पाठक तैयार किया है, उसका कारण है इसका आम जन-जीवन से जुड़ा होना। चाहे वह अतीत हो या भविष्य की सम्भावना। हालांकि लघुकथा पाठकों के दिल में तभी उतरेगी जब उसमें कुछ नया होगा।

लवलेश दत्त

मेरे मन पर प्रत्येक घटित घटना का प्रभाव होता है और अवचेतन मन के अनुसार वह घटना रचना के रूप में आकार ले सकती है। सही मायनों में लालची लोगों पर अदृश्य व्यंग्य करती इस लघुकथा को तैयार होने में दो-ढ़ाई साल का समय लग गया।

लाजपतराय गर्ग

कई बार तो पूरी की पूरी रचना का खाका मन ही में तैयार हो जाता है। यहां तक कि पात्रों के संवादों तक की रूपरेखा बन जाती है। किसी भी बदलाव की ज़रूरत नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि प्रथम पाठक या श्रोता के अनुसार (छोटा या बड़ा) बदलाव करना पड़े।

वन्दना गुप्ता

रचना के कच्चे ड्राफ्ट में मैंने फिज़िक्स के नियम नहीं जोड़े थे, जब कुम्हार के घूमते चाक का प्रतीक लिखा तो अभिकेन्द्री और अपकेन्द्री बल का सन्तुलन दिखाने की भी सूझी।

विभा रश्मि

अपने वास्तविक जीवन के अनुभवों में कल्पना का मिश्रण कर मैं लघुकथाएं लिखती हूँ, लेकिन जहां तक हो सकता है, पात्रानुकूल भाषा में संवाद, वातावरण बुनने की कोशिश भी करती हूँ। यह लघुकथा भी एक यथार्थ घटनाक्रम की देन है, जो बीस बरसों के बाद लिखी गई।

 विभारानी श्रीवास्तव

लघुकथा-सृजन में मैंने इस बात का सदैव ध्यान रखा है कि वह सत्य-कथा, अखबारी समाचार, रिपोर्ट या संस्मरण आदि बन कर न रह जाए। सृजन के साथ-साथ इसके शास्त्रीय पक्ष पर भी गंभीरता से ध्यान देती हूँ। क्षिप्रता बरकरार रखने के लिए इस लघुकथा को कई-कई बार लिखा।

वीरेन्द्र भारद्वाज

पूरी रचना कल्पना से लिखी गई है। घटना तो समय, स्थिति और वातावरण है। रचना को खूब मथा, गर्भस्थ किया, उसका शिल्प (पात्र, संवाद, देशकाल, भाषा सभी) पहले ही तय किया।

वीरेन्द्र वीर मेहता

करीब एक वर्ष के बाद अपने घर ही के एक धर्मिक अनुष्ठान के दौरान पत्नी के कु्छ शब्दों ने उस घटना की याद को ताज़ा कर दिया और दोनों (पुरानी और नई) बातों ने मिलकर एक नवीन कथ्य को जन्म दिया।

शराफ़त अली खान

ऐसी ही और भी कई घटनाएं घटी, लेकिन हर घटना पर मैंने नहीं लिखा। वैसे भी हर विभागीय घटना सार्वजनिक नहीं की जा सकती।

शावर भक्त भवानी

इस लघुकथा में निहित समस्या और प्रश्न न जाने कितनी माताओं और बच्चों का है। लेकिन आधुनिक भारत में भी बच्चे इस विषय पर खुलकर चर्चा करने से घबराते हैं, जबकि इस विषय को शिक्षा प्रणाली में  शामिल कर जागरुकता लाने की आवश्यकता है।

शील कौशिक

मैंने इसे दो-तीन बार अलग-अलग शैलियों में लिखा और काट-छांट की। यथार्थ की भूमि पर आधारित इस रचना का उद्देश्य समाज को आइना दिखाना है।

शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कथ्य यही था कि मुस्लिम दोस्त ने हिन्दू दोस्त का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति से किया। इसमें चाय की गुमटी पर विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा टीका-टिप्पणी करवाने की कल्पना भी की। तात्कालिक बुद्धि के अनुसार संवाद जुड़ते चले गए। रचना के अंत में अनपढ़ चाय वाले का संवाद सूझा, जो रचना की बेहतरी हेतु उपयुक्त प्रतीत हुआ।

श्यामसुंदर अग्रवाल

किसी घटना ने नहीं बल्कि एक विचार मात्र ने मुझसे इस लघुकथा का कथानक तैयार करवाया। लघुकथा में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि रचना का कथ्य उसके अंत से पहले उजागर नहीं हो।

श्यामसुन्दर दीप्ति

इस घटना को लघुकथा में ढालने के कई वर्षों पश्चात यह स्पष्ट हुआ कि हर घटना पर लघुकथा बना देना उचित नहीं होता। घटना का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है।

संतोष सुपेकर

कई बार रचना में एक वाक्य, एक शब्द को लेकर ही काफी उलझन रहती है। लेखक सही दिशा तय नहीं कर पाता। इस लघुकथा को लिखते समय मैं इतना खो गया कि वाक्य-विन्यास पर ही ध्यान नहीं दे सका। इस लघुकथा के पीछे मेरी ऐसी ही कई उलझनें छिपी हैं।

संदीप आनंद

मेरे दिमाग में यह आया कि लेखन के लिए क्यों न उन घटनाओं को आधार बनाऊं, जो मेरे जीवन में सकारात्मक बदलाव लाईं।

सतीश राठी

यह सारा घटनाक्रम बहुत ही भावुक और प्रेरणास्पद है। इस सृजन से मुझे ही नहीं बल्कि कई वरिष्ठ लघुकथाकारों को भी सन्तु्ष्टि प्राप्त हुई है।

सतीशराज पुष्करणा

मैं कहीं भी रहूँ, प्रातः लघुकथा लिखने के बाद ही अपना कोई काम प्रारम्भ करता था। लेकिन यह लघुकथा सवेरे पूरी नहीं हो पा रही थी। उधर दुकान पर जाने का वक्त हो चुका था। बेटे के आग्रह पर मैं दुकान पर गया तो लेकिन लघुकथा को लेकर परेशान था। अनेक-अनेक ड्राफ्ट मेरे मन-मस्तिष्क में आते और बिखर जाते। खैर, लंच का समय आते-आते लघुकथा ने दिमाग में ऐसा आकार लिया, जिससे मुझे सन्तु्ष्टि हुई और घर जाकर लंच करने से पूर्व इसे लिपिबद्ध किया।

सत्या कीर्ति शर्मा

महीनों पहले की यह यह घटना मैं नहीं भूली, इसे मैं संस्मरण की रूप में लिखना चाहती थी, किन्तु 2017 में यह लघुकथा में ढली। प्ररम्भ में यह आत्मकथ्यात्मक शैली में थी, जिसे बाद में बदला।

सविता इंद्र गुप्ता

सन्तोष न मिला क्योंकि लघुकथा में आकारगत लघुता भंग होती दिखाई दी। लघुकथा का मूल स्वर भी धूमिल होता लगा, उद्देश्य भी तीव्रता से प्रेषित नहीं हो पा रहा था। कुल मिलाकर यह ड्राफ्ट सन्कुचित सा और केवल अपना अनुभव ही प्रतीत हो रहा था। इसे मैंने निर्दयता से डिलीट कर दिया।

सविता उपाध्याय

लघुकथा में दो पात्र हैं, एक महिला शिक्षित तो दूसरी अशिक्षित है। ऐसी परिस्थिति में महिला – महिला ही से प्रताडित होती है। इस बुराई को हटाने हेतु यह सृजन किया गया।

सिद्धेश्वर

पहले ड्राफ्ट में रचना में स्वयं को पात्र के रूप में प्रस्तुत किया था, बाद में यह विचार आया कि एक गरीब मछुआरे को ‘मैं’ की जगह रखा जाए तो रचना सर्वव्यापी और प्रभावकारी बन जायेगी।

सीमा जैन

नियम व संवेदना दो अलग-अलग पहलू हैं पर बुरी तरह मिल गये हैं। यही सोच कर इस रचना के कथानक और पात्र का सृजन हुआ। एक धर्म – मानवता को केन्द्र में रखकर घास पर पैर रखते हुए भी संवेदना का आना, चींटी तक की जान बचाने की निगाह-नीयत तो होनी ही चहिए।

सीमा भाटिया

धारा 497 समाप्त होने के बाद सोशल मीडिया पर फैले भ्रामक विचारों को पढ़ने के बाद इस लघुकथा का विचार उत्पन्न हुआ। शादीशुदा महिला के उसकी रजामंदी से हुए सम्बन्ध पर बने विभिन्न चुटकुलों वगैरह ने मन को आहत किया और इस रचना के सृजन हेतु प्रेरित किया।

सुकेश साहनी

लघुकथा के समापन बिन्दु पर ही रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करती हुई पूर्णता को प्राप्त होती है। लघुकथा रचना करते समय लेखक को आकारगत लघुता और समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए ही ताने-बाने बुनने होते हैं। कभी एक ही संवाद पात्र से कहलवा देने भर से ही उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। तब यही एक संवाद समापन बिन्दु और आकारगत लघुता तक रचना को ले आता है। लेकिन इसके लिए गूढ विचार की ज़रूरत है। तत्काल प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई रचना किसी मुकम्मल कृति का आनन्द नहीं देती। उनमें डेप्थ नहीं होती।

सुदर्शन रत्नाकर

यह विचारना, दिशा देना, मन की भट्टी में तपाना, सजाना ही रचना-प्रक्रिया है।

सुभाष नीरव

जो रचनाएं लौटती हैं, उसका कारण है कि मैं उन पर पर्याप्त श्रम नहीं करता। मेरी रचना प्रक्रिया में जबरदस्त परिवर्तन मेरे कुछ अच्छे मित्रों के कारण आया। अब जब मुझे कोई विचार, कोई घटना, कोई  भाव, कोई सन्देश, कोई दृश्य हॉण्ट करता है तो मैं उसे तुरन्त कागज़ पर उतारने की बजाय उसे अपने जेहन में सुरक्षित कर लेना बेहतर समझता हूँ और कुछ दिन उसे वहीं पड़ा रहने देता हूँ। अच्छी रचनाएं लेखक के धैर्य की परीक्षा भी लेती हैं और लेखक की रचना-प्रक्रिया को और अधिक मज़बूती प्रदान करती हैं, जिनसे लेकर वे निकली होती हैं।

सुभाष सलूजा

कथा देखकर कुछ मित्रों ने कहा कि यह अव्यवहारिक है, जबकि यह मेरे द्वारा प्रत्यक्ष देखा गया सत्य था।

सुभाषचन्द्र लखेड़ा

नेता का नाम बहुत सोचकर रखा, ताकि जाने-अनजाने ऐसा नाम न हो जो उस वक्त के किसी जाने-माने बड़े नेता का नाम हो। कवि के नाम में भी यही सावधानी बरती।

सुरिन्दर केले

लघुकथा में वैश्वीकरण के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार को बताया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कैसे केवल कुछ औद्योगिक घरानों को अमीर बना रही है और बाकियों के लिए नुकसानदेह है।

सूर्यकांत नागर

रचना प्रक्रिया नितांत निजी मामला है, इसे किसी नियमावली में नहीं बांधा जा सकता। रचना के मूल में कोई न कोई अनुभव होता है। कथाकार चिड़िया की चोंच की तरह परिवेश से अपने काम की चीज़ उठाकर अपने अंदर जज़्ब कर लेता है। यह रचना का पहला जन्म है। यह अनुभव लम्बे समय तक पकता रहता है, जब पूरी तरह पक जाता है तो एक आलार्म सा बजता है। यह रचना का दूसरा जन्म है। जब यह अनुभूति कागज़ पर उतरती है तो यह रचना का तीसरा जन्म है। जल्दबाजी रचनात्मकता की राह की बड़ी बाधा है और धैर्य महत्वपूर्ण निधि।

सोमा सुर

हम अपने ही बनाए नियमों में उलझे हैं। पीरियड्स की बात करना आज भी बदतमीज़ी माना जाता है। पंचलाईन में नायिका का यही दुख दिखलाया।

स्नेह गोस्वामी

कथा में बहुत कु्छ बिखरा हुआ था, न तो सिमट पा रहा था न ही कुछ जुड़। जितनी महिलाएं उस समय दिमाग में थीं, उन सभी के एंगल से पढ़ा। इसे सोचते हुए ही सोने चली गई। सवेरे फिर पढ़ा और हर पैराग्राफ से पहले टाईम ड़ाल दिया। यकीन मानिए, जो सुकून मिला वह अद्भुत था।

हरप्रीत राणा

मुझे डबलरोटी और अंडे लाने का निर्देश इस नसीहत के साथ मिला कि ये केवल हिन्दू की दुकान से खरीदूं, मुस्लिम की नहीं। मैंने विरोध किया और कहा कि भाई मरदाना जी भी तो मुस्लिम थे। मौसी ने उत्तर दिया लेकिन वे नानक साहब के साथ रहते हुए पवित्र हो गए थे। मैं फिर भी जानबूझकर मुस्लिम की दुकान से सामान खरीदकर लाया क्योंकि मैंने पवित्र गुरबाणी के उस मूलमन्त्र अनुसरण किया – ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे’। यह घटना मेरी इस लघुकथा का आधार बनी।

हूँदराज बलवाणी

एक दिन इस कथा को पकड़ कर बैठ गया। तरह-तरह के परिवर्तन किए, फिर भी संतोष नहीं हुआ। सोचते-सोचते सज्जन बुजुर्ग को नेतानुमा आदमी बना दिया, जिसका काम होता है वक्त-बेवक्त लोगों के बीच जाकर भाषण देना। ऐसे लोग खुद ही समस्या पैदा करते हैं और खुद ही निवारण का दिखावा। बाद में जो उन्हें वाह-वाही मिलती है उससे उन्हें संतुष्टि मिलती है। यह दर्शाने पर मेरी यह लघुकथा, बोधकथा बनने से बच गई।

खेमराज पोखरेल

यह रचना किसी पत्रिका में भेजने से पूर्व एक मित्र को भाषा-सम्पादन हेतु भेजी। समुचित सम्पादन के पश्चात ही लघुकथा को प्रकाशन हेतु भेजा।

टीकाराम रेगमी

सबसे पहले मैंने घटना की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध घटनाओं को क्रमबद्ध किया। पहले और अन्तिम भाग को प्रभावशाली करने का प्रयास किया। इसमें शब्द बहुत सारे थे, इसलिये कई बार इसकी एडिटिंग की।

नारायणप्रसाद निरौला

लघुकथा का विषय सूझने के बाद, पहले अपने द्वारा बनाये गये पात्र की हकीकत की रूपरेखा तैयार की और मस्तिष्क में ही ड्राफ्ट बना डाला। इससे लाभ यह होता है कि प्रायः एक ही बैठक में लघुकथा पूरी हो जाती है।

 राजन सिलवाल

लिखते समय इस बात का ख्याल ज़रूर रहता है कि कैसे लघुकथा को रोचक और जीवंत बनाना है। ज्यादातर संवाद का प्रयोग करना पसंद करता हूँ।

राजू छेत्री अपूरो

जीजा-साली के पवित्र रिश्ते पर एक लघुकथा लिखने के लिए कई दिनों तक सोचा और एक दिन उपयुक्त समय देखकर लिखा और उसे सोशल मीडिया के एक समूह में पोस्ट कर दिया। मेरे एक मित्र ने इसका अनुवाद किया और शीर्षक बदल दिया। मुझे भी नया शीर्षक उत्तम लगा और मूल लघुकथा का शीर्षक भी वही रख दिया।

रामकुमार पंडित छेत्री

अक्सर लोग उंगली उसी की ओर उठाते हैं जिसका पिछ्ला रिकॉर्ड दुष्ट प्रवृत्ति का होता है। लेकिन क्या कभी उल्टा भी हो सकता है? भगवान कृष्ण की पूजा करते समय कृष्ण और कंस के प्रतीकों के माध्यम से यह बात कही।

रामहरि पौडयाल

कुछ दिन लघुकथा को मेरे लैपटॉप में रखे रहने देने के बाद उसे एक पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजा, जहां आवश्यक सम्पादन भी हुआ।

लक्ष्मण अर्याल

मैं सोचता था कि धर्म और भगवान की परम्परागत परिभाषाओं को बदलने की ज़रूरत है। बुद्ध इन्सान थे, अहिंसा के पुजारी गांधी भी एक दिन भगवान कहला सकते हैं। मानवता-धर्म और विवेक-इन्सानों के देवत्व पर इस लघुकथा का सृजन किया। अन्य लघुकथाओं की तरह ही इस लघुकथा ने भी अपने जीवन के दो साल मेरी डायरी में ही गुजार दिए।

उपरोक्त मेरे अनुसार पत्रिका में शामिल प्रत्येक रचनाकार की रचना प्रक्रियाओं में निहित कोई एक महत्वपूर्ण बिंदु है। मैं यह दावा नहीं करता कि इस लेख में बतलाई गईं सभी बातें उस रचनाकार की शामिल रचना प्रक्रियाओं की बेहतरीन बात है। मैंने मेरे अनुसार बेहतरीन के चयन का प्रयास अवश्य किया है, जिसमें कमी हो सकती है। लेकिन यह विश्वास ज़रूर दिला सकता हूँ कि सर्वोत्तम तो नहीं लेकिन ये बातें अच्छी और महत्वपूर्ण अवश्य हैं। इस पत्रिका में मेरी दो रचनाओं और उनकी रचना प्रक्रिया को भी स्थान मिला है। उनके बारे में इस लेख में कुछ नहीं कहा है। उसे आप पर छोड़ा है।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 21 ☆ पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं।  आज लीक से हटकर  पुस्तक चर्चा का विषय चुना है।  मैं कुछ और लिखूं इसके पूर्व कर्त्तव्यस्वरूप कुछ  लिखना चाहूंगा।  हमने मातृ  पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानियां  पढ़ीं हैं । किन्तु, यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी  और मैंने  स्वयं श्री विवेक जी के व्यवहार -कर्म  में श्रवण कुमार सी  मातृ-पितृ भक्ति की छवि  एवं संस्कार  अनुभव किया है । हमारे विशेष अनुरोध पर  उन्होंने आज  पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  हमारे  पाठकों  के साथ साझा  किया है । उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है यह सतत जारी रहे। वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।  श्री विवेक जी  का  हृदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 21 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा

 1948 चाँद, सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें।

पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान,  उद्गम, सदाबहार गुलाब, गर्जना, युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं। कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं, कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है। ये सामूहिक संग्रह हैं।

पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य, फिर संयुक्त संचालक, शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक, केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं।  आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी, पर जोड़-तोड़ और गुणा-भाग से अनभिज्ञ सिद्धांतवादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं। उन्हें किताबें छपवाने, विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।

मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था, जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया। बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।

फिर ईशाराधन आई, जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं। वे लिखते हैं

नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है

है बड़ा आश्चर्य, हर एक पिण्ड बे आधार है

है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन

धूल कण निर्मित भरी जल से  सुहानी है धरा

पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा

किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण

सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है

हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है

जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन

कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ।

पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति, आध्यात्मिक्ता, बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत, तात्कालिक घटनाओं पर काव्यमय सन्देश, संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है।

अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ, जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है

होते हैं मधुरतम गीत वही

जो मन की व्यथा सुनाते हैं

जो सरल शब्द संकेतों से

अंतर मन को छू जाते हैं

वसुधा के संपादक  डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा “वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता गीता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है”

बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका,बाल कौमुदी, सुमन साधिका,  चारु चंद्रिका,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा,अंधा और लंगड़ा, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न  पुस्तकालयों  में खूब खरीदी गईं।

मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं। मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं।

भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी  पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है। अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं। यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है। ( ई- अभिव्यक्ति में सतत रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का पद्यानुवाद तथा हिंदी / अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होता है )

तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है। प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं।

रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है। 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया। यह 2014 में छपा।

साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है

श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं। रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है। आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित, सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।

फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा  है  ” उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है, कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है। वे  उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं “

हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना

स्वार्थ के चंदन अगरु से  अर्चना आराधना

आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है

चेतना गीत की जगा मां, स्वरों को झंकार दे

भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित  करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं,

प्रकृति में है चेतना, हर एक कण सप्राण है

इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है

चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है

है बिना आकार पर, अनुभूतियों में दृश्य है

2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा  पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था।

उनकी ढेरो कविताये  डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं। प्रकाशक मित्रों का स्वागत है।

उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक चर्चा ☆ डांस इंडिया डांस – श्री जय प्रकाश पांडेय ☆ “व्यंग्य-लेखन गंभीर कर्म है” – डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आज दिनांक 11 जनवरी को नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  के व्यंग्य संग्रह  “डांस इण्डिया डांस” का विमोचन है।  ऐसे शुभ अवसर पर वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का यह आलेख निश्चित ही पुस्तक की प्रस्तावना स्वरुप एक आशीर्वचन है जो हम अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे ।)
 
ई – अभिव्यक्ति की और से श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी को इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 
☆ पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य -लेखन गंभीर कर्म है”  – डॉ कुंदन सिंह परिहार  ☆

जो लोग व्यंग्य को मनोरंजन का साधन समझते हैं वे व्यंग्य की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझते ।  व्यंग्य -लेखन ज़िम्मेदारी का काम है , यह हल्केपन से ली जाने वाली चीज़ नहीं है ।  हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों ने अपनी सशक्त रचनाओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष व्यंग्य के सही रूप को प्रस्तुत किया ।  उनकी रचनाएँ सिर्फ सिखाती ही नहीं है वे व्यंग्यकारों की अगली पीढ़ी के लिए चुनौती भी प्रस्तुत करती है ।  परसाई ने व्यंग्य लेखन को गंभीर कर्म माना ।

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

एक अच्छे व्यंगकार में अनेक गुण अपेक्षित हैं ।  पहले तो व्यंग्यकार संवेदनशील हो, ओढ़ी हुई करुणा से सार्थक व्यंग्यलेखन नहीं होगा ।  दूसरे उसकी द्रष्टि सही हो ।  रूढ़ीवादी और अवैज्ञानिक सोच वाले लेखकों के लिए व्यंग्य को साधना कठिन है ।  लेखक की अभिव्यक्ति प्रभावशाली होनी चाहिए ।  लेखन शैली ऐसी हो जो पाठक को बांधे और साथ ही उसे सोचने को बाध्य करे ।  व्यंग्य का उद्देश पाठक का मनोरंजन करना नहीं हो सकता ।

पुस्तक – डांस इण्डिया डांस ( व्यंग्य-संग्रह) 

लेखक – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य – रु 300/-

प्रस्तुत व्यंग्य -संकलन के लेखक श्री जय प्रकाश पाण्डेय अनेक वर्षों से व्यंग्यलेखन मे सक्रिय हैं ।  वे कई वर्षों तक स्टेट बैंक में सेवा देने के बाद सेवानिवृत्त हुए हैं और अपने सेवाकाल में उन्हे शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के सभी वर्गों के लोगों के जीवन को निकट से देखने का अवसर मिला है ।  एक बैंकर से अधिक सामान्य लोगों की समस्याओं को कौन बेहतर समझ सकता है, बशर्ते की उसके पास संवेदनशील मन हो ।  पाण्डेय जी से हमारे कई वर्षो के संबंध से यह समझने का अवसर मिला कि मुहावरे के अनुसार उनका दिल सही जगह पर है और देश के करोड़ों वंचितों और लाचार लोगों के लिए उनके हृदय में पर्याप्त हमदर्दी है ।  यह हमदर्दी ही लेखक को वंचितों, पीड़ितों का प्रतिनिधि और उनकी आवाज़ बना देती है ।

इस संग्रह के विषयों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है की लेखक ने आज की सभी ज्वलंत समस्याओं को छुआ है ।  विषयों के चुनाव और उनके ‘ट्रीटमेण्ट’ से लेखक की पक्षधरता और उसकी संवेदनशीलता ज़ाहिर होती है ।  जीवन के प्रति लेखक का दृष्टिकोण उसकी रचनाओं से पकड़ मे आ जाता है, वहाँ ‘साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’ वाली बात नहीं चलती ।

विषयों का व्यापक फ़लक हमारे सामने आता है इसमे सरकारी आवासीय योजनाओं की धांधली है तो चीन के प्रति हमारा दोहरा रवैया, जी.एस.टी. की भूलभुलैया, गौमाता पर राजनीति, पवित्र नदियों का प्रदूषण, बाढ़ के अपने अर्थ, देश में पसरे अंध विश्वास, बाबाओं का पाखंड और मूर्तियों की राजनीति भी है ।  इनके अतिरिक्त बैंक कर्मियों की अति-व्यस्तता, ए.टी.एम. की दिक्कतें, गरीब को चैक मिलने पर भी भुगतान की दिक्कतें, नाम बदलने की राजनीति, हिन्दी दिवस की रस्म-आदायगी और बापू की कल्पना के भारत के बरक्स आज के भारत का लेखा जोखा भी यहाँ है ।  लेखों मे आम आदमी के लिए लेखक की ‘कंसर्न’ को साफ महसूस किया जा सकता है ।  इस संबंध में कुछ लेखों की पंक्तियों को उदघ्रत करना उचित होगा ।

“पहले वाले साहब नें  इंद्रा आवास योजना में केस बनवाया था, दीवार भर खड़ी हो पाई थी और आगे कुछ भी नहीं हुआ, साहब सब हितग्राहियों का पैसा खा कर ट्रान्सफर करा लिए थे, सब की दीवार बरसात मे गिर गई थी और शहर में साहब का आलीशान बंगला बन गया था”।  (बंगला बखान)

“तहसीलदार ने रंगैया को बोला कि जाकर बैंक वालों से पूछो कि हीरे के व्यापारी को ग्यारह हज़ार करोड़ रुपये दिये थे तो क्या आधार कार्ड लिया था?’ (बैंक मे रंगैया का खाता)

‘हमारी सरकार ने नोट बंदी करके देश विदेश मे नाम कमाया है, बंद हुए 500 और 1000 रुपये के नोटों को सड़ाकर खाद बनाई है जिससे तंदुरुस्त कमल पैदा किए गए हैं’ ।  (‘ए.टी.एम. में खुचड़’)

‘घर की बहू के हाथ से थोड़ा सा दूध गिर जाता है तो सास गोरस के अपमान की बात करके बहू को पाप का भागी बना देती है और उस समय सास और बहुओं ने मिल कर खूब दूध नालियों में बहाया, तब किसी ने नहीं कहा कि सब पापी थे’ ।   (‘अफवाह उड़ाना है पाप’)

शौचालय का शौक ऐसा चर्राया कि शौचालय बना-बना के लोगों ने बड़े बड़े बंगले खड़े कर लिए और शौचालय बिन पानी के गंदगी फैलाने के दूत बन गए’ ।  (‘कचरे के बहाने बहस’)

यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि पाण्डेय जी नें अधिकतर तात्कालिक विषयों पर अपनी कलम चलाई है फिर भी वे बार बार हमारे समाज की ‘क्रानिक’ व्याधियों तक पहुचाने का प्रयास करते हैं ।  समाज मे व्याप्त अन्याय और भ्रष्टाचार तथा आम आदमी की लाचारी और बेबसी उनकी रचनाओं मे बार बार नुमायां होती हैं ।

पाण्डेय जी परसाई जी के निकट रहे हैं और उन्होने परसाई जी के जीवन का अंतिम इंटरव्यू भी लिया था जो काफी चर्चित रहा ।  अतः वे व्यंग्य के राग-रेशे से भली भांति वाकिफ हैं ।  उम्मीद की जा सकती है की आगे उनकी रचनाशीलता नए आयाम ग्रहण करेगी ।

 – डॉ कुंदन सिंह परिहार, जबलपुर, मध्य प्रदेश

सम्प्रति : जय प्रकाश पाण्डेय, 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 20 ☆ कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया – डा ज्योति गजभिये ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डा ज्योति गजभिये जी के कहानी संग्रह  “बिन मुखौटों की दुनिया ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.   श्री विवेक जी ने पुस्तक की भूमिका एवं कहानियों के शीर्षक विवरण जिस तरीके से  प्रस्तुत  किया है वह पुस्तक के  उच्च साहित्यिक स्तर  को प्रदर्शित करता है।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 20☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया  

पुस्तक –बिन मुखौटों की दुनिया

लेखिका – डा ज्योति गजभिये

प्रकाशक – अयन प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य –  220 रु  हार्ड बाउंड पृष्ठ 116

☆ कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया – डा ज्योति गजभिये –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

कहानी, अभिव्यक्ति की वह विधा है जो परिवेश को आत्मसात कर इस तरीके से लिखने का कौशल चाहती है कि पाठक उस वर्णन में स्वयं का परिवेश ढ़ूंढ़ सके, घटना को महसूस कर सके. डॉ ज्योति गजभिये मूलतः अहिन्दी भाषी हैं, हिन्दी कहानीकार के रूप में सर्वथा नई है. यद्यपि उनकी क्षणिका, कविता, गजल, शोध प्रबंध की पुस्तकें आ चुकी हैं. उन्होने नासिरा शर्मा के कथा साहित्य पर शोध किया है.

प्रस्तुत किताब में उनकी कुल १४ बेहतरीन कहानियां प्रकाशित हैं. अपनी भूमिका में वे कविता की तरह लिखती हैं “शब्दो को ठोक पीट कर वाक्य तैयार कर रही थी, कहानी लिखते हुये भी जब कविता कही से आकर अपनी झलक दिखला जाती तो उसे समझा बुझाकर वापस भेजना पड़ता”. यह सच है कि महानगरीय वातावरण संवेदना शून्य हो चला है, लोग नम्बरो और घड़ी के कांटो की तरह वहीं के वहीं घूम रहे हैं. यह दशा मनोरोगों को जन्म दे रही है. इसे ज्योति जी ने बारीकी से पकड़ा और अपना कथानक बनाया है.

संग्रह में बिरजू नही मरेगा, कवि सम्मेलन का आखिरी कवि, भूखे भेड़िये, टुकड़ा टुकड़ा प्यार, अनोखा ब्याह, कुलच्छिनी, नये जमाने की लड़की, बिन मुखौटो की दुनियां, फकीर नबाब, मिट्टी की खुश्बू, मन्नत का धागा, हीर का तीसरा जन्म, शेष हो तुम मेरे भीतर तथा  महापुरुष शीर्षको से कहानियां संग्रहित हैं. किसी कहानी को मैं कमजोर नही कह सकता. हां बिन मुखौटो की दुनियां जिस पर पुस्तक का नाम रखा गया है, सच ही प्रभावी कहानी है. कहानियां संवाद शैली में बुनी गई हैं, पठनीय  हैं. फ्लैप पर सूर्यबाला जी ने सही ही लिखा है ज्योति जिसे और परिष्कृत कहानियो की उम्मीद हिन्दी साहित्य जगत को है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 19 ☆ काव्य संग्रह – लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं – सुश्री सोनिया खुरानिया ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुश्री सोनिया खुरानिया जी के काव्य संग्रह लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 19☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह  –  लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं 

पुस्तक –लफ्ज दर लफ्ज मैं

लेखिका –  सुश्री सोनिया खुरानिया

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन दिल्ली

आई एस बी एन – ९७८९३८८३४६८१८

मूल्य –  200 रु प्रथम संस्करण 2019

☆ काव्य संग्रह –  लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं – सुश्री सोनिया खुरानिया –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

काव्य वह विधा है जो यदि कौशल से प्रयुक्त हो तो व्यक्तिगत अनुभवो को हर पाठक के उसके अनुभव बना देने की क्षमता रखती है. सोनिया खुरानिया की इस पुस्तक में संग्रहित कवितायें अधिकांशतः इसी तरह की हैं. छंद के शिल्प में भले ही कुछ रचनायें वह पकड़ न रखती हों जो साहित्यिक दृष्टि से आवश्यक हैं किन्तु भाव की कसौटी पर रचनायें खरी अभिव्यक्ति प्रस्तुत कर रही हैं. कोई ६० से अधिक कवितायें, कुछ मुक्त छंद में कुछ छंद में संग्रहित हैं. अधिकतर रचनायें स्त्री पुरुष संबंधो के, प्रतीत होता है उनके स्व अनुभव ही हैं. कवियत्री से अनुभवो की परिपक्वता पर बेहतर साहित्य की उम्मीद साहित्य जगत को है.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 18 ☆ दार्शनिक क्रांतिकारी – संस्मरणात्मक कथा –  अमर शहीद भगत सिंह ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  अनुव्रता श्रीवास्तव चौधरी जी की प्रसिद्ध पुस्तक “दार्शनिक क्रांतिकारी – संस्मरणात्मक कथा –  अमर शहीद भगत सिंह का पुनर्स्मरण ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह पुस्तक आज  के  धार्मिक एवं सामाजिक परिपेक्ष्य में पढ़ी जानी अत्यंत आवश्यक है । साथ ही आज की युवा पीढ़ी को उनकी विचारधारा से अवगत कराने की महती आवश्यकता है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 18☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – दार्शनिक क्रांतिकारी – संस्मरणात्मक कथा –  अमर शहीद भगत सिंह का पुनर्स्मरण 

 

पुस्तक –दार्शनिक क्रांतिकारी – संस्मरणात्मक कथा –  अमर शहीद भगत सिंह का पुनर्स्मरण

लेखिका – अनुव्रता श्रीवास्तव चौधरी
प्रकाशक – रवीना प्रकाशन दिल्ली
मूल्य –  300 रु

☆ दार्शनिक क्रांतिकारी – संस्मरणात्मक कथा –  अमर शहीद भगत सिंह का पुनर्स्मरण  – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के पुरजोर प्रयास हों . भगतसिंह किताबों में कैद हैं. उनको किताबों से बाहर लाना जरूरी है . उनके विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण साम्प्रदायिकता के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है . आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है, जब तब हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़क उठते हैं .
भगत सिंह के युवा दिनो में 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे , भगतसिंह ने  देखा कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन केवल इसलिये कर रहे थे , क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे, तो उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा . स्वाभाविक  रूप से दोनो ही धर्मो के सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध  बताया गया है . क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये  उन्होने जो अवधारणा व्यक्त की , कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये, सामूहिक नही वह आज भी सर्वथा उपयुक्त है.
उनके अनुसार ” साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो  इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है।  सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है . भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक  अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग चेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।”
भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर  बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है.  भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए. साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण बने . उनके चरित्र का अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज समाज को सही दिशा दी जा सकती है . उनके विचार शाश्वत हैं , आज भी प्रासंगिक हैं .
इस दृष्टि से वर्तमान स्थितियों में युवा लेखिका अनुव्रता श्रीवास्तव की यह किताब पठनीय व अनुकरणीय है जो संस्करणात्मक तरीके से भगत सिंह को समझने में मदद करती है . यदि कभी अखण्ड भारत का पुनर्निमाण हुआ तो  लाहौर बाघा बार्डर ही वह द्वार होगा जहां दोनो ओर के जन समुदाय एक दूसरे  को गले लगाने बढ़ आयेंगे , और तब लाहौर स्वयं सजीव हो बोल पड़े जैसा इस कथा में लेखिका ने उसके माध्यम से अभिव्यक्त किया है तो किंचित आश्चर्य नही , क्योंकि सच यही है कि राजनेता कितना ही बैर पाल लें पर बार्डर पार निर्बाध आती जाती हवा , स्वर लहरी और पक्षियो की बिना पासपोर्ट आवाजाही को कोई सेना नही रोक सकती .  भगत सिंग भारत पाकिस्तान दोनो ही मुल्कों के हीरो थे हैं और सदैव रहेंगे. किताब बार बार पठनीय व मनन करने योग्य है .
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह) ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  व्यंग्यकार श्री विनोद कुमार विक्की की प्रसिद्ध पुस्तक “मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह पुस्तक 43 विषयों पर लिखित व्यंग्य संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)  

पुस्तक – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)

लेखक – विनोद कुमार विक्की
प्रकाशक –  दिल्ली पुस्तक सदन दिल्ली
आई एस बी एन ८३‍८८०३२‍६४‍६
मूल्य –  ३९५ रु प्रथम संस्करण २०१९

☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ऐसे समय में जब पुस्तक प्रकाशन का सारा भार लेखक के कंधो पर डाला जाने लगा है, दिल्ली पुस्तक सदन ने व्यंग्य, कहानी, उपन्यास , जीवन दर्शन आदि विधाओ की अनेक पाण्डुलिपियां आमंत्रित कर, चयन के आधार पर स्वयं प्रकाशित की हैं.

दिल्ली पुस्तक सदन का इस  अभिनव साहित्य सेवा हेतु अभिनंदन. इस चयन में जिन लेखको की पाण्डुलिपिया चुनी गई हैं, विनोद कुमार विक्की युवा व्यंग्यकार इनमें से ही एक हैं, उन्हें विशेष बधाई. अपनी पहली ही कृति भेलपुरी से विनोद जी नें व्यंग्य की दुनियां में अपनी सशक्त  उपस्थिति दर्ज की थी.

आज लगभग सभी पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते हैं. उनकी अपने समय को और घटनाओ को बारीकी से देखकर, समझकर, पाठक को गुदगुदाने वाले कटाक्ष से परिपूर्ण लेखनी, अभिव्यक्ति हेतु  उनका विषय चयन, प्रवाहमान, पाठक को स्पर्श करती सरल भाषा विनोद जी की विशिष्टता है.

मूर्खमेव जयते युगे युगे प्रस्तुत किताब का प्रतिनिधि व्यंग्य है. सत्यमेव जयते अमिधा में कहा गया शाश्वत सत्य है, किन्तु जब व्यंग्यकार लक्षणा में अपनी बात कहता है तो वह मूर्खमेव जयते युगे युगे लिखने पर मजबूर हो जाता है. इस लेख में वे देश के वोटर से लेकर पड़ोसी पाकिस्तान तक पर कलम से प्रहार करते हैं और बड़ी ही बुद्धिमानी से मूर्खता का महत्व बताते हुये छोटे से आलेख में बड़ी बात की ओर इंगित कर पाने में सफल रहे हैं. इसी तरह के कुल ४३ अपेक्षाकृत दीर्घजीवी विषयो का संग्रह है इस किताब में. अन्य लेखो के शीर्षक  ही विषय बताने हेतु उढ़ृत करना पर्याप्त है, जैसे कटघरे में मर्यादा पुरुषोत्तम, आश्वासन और शपथ ग्रहण, चुनावी हास्यफल, सोशल मीडिया शिक्षा केंद्र, मैं कुर्सी हूं, सेटिंग, पुस्तक मेला में पुस्तक विमोचन, हाय हाय हिन्दी, अरे थोड़ा ठहरो बापू, जिन्ना चचा का इंटरव्यू, फेसबुक पर रोजनामचा जैसे मजेदार रोजमर्रा के सर्वस्पर्शी विषयो पर सहज कलम चलाने वाले का नाम है विनोद कुमार विक्की. आशा है कि किताब पाठको को भरपूर मनोरंजन देगी, यद्यपि जो मूल्य ३९५ रु रखा गया है, उसे देखते हुये लगता कि प्रकाशक का लक्ष्य किताब को पुस्तकालय पहुंचाने तक है.

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ कर्मभूमि के लिए बलिदान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  प्रो सी बी श्रीवास्तव जी की प्रसिद्ध पुस्तक “कर्म भूमि के लिये बलिदानपर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – कर्म भूमि के लिये बलिदान  

पुस्तक – कर्म भूमि के लिये बलिदान

लेखक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध

मूल्य –  30 रु

प्रकाशक –  बी एल एण्टरप्राईज जयपुर
ISBN 978-81-905446-1-0

 

☆ कर्म भूमि के लिये बलिदान – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

बच्चो के चरित्र निर्माण में अच्छे बाल साहित्य की भूमिका निर्विवाद है.  बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘एक शिक्षा शास्त्री व बाल मनोविज्ञान के जानकार विद्वान मनीषी हैं. उनकी यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है.

नन्हें बच्चो के मानसिक धरातल पर उतरकर उन्होंने सरल शब्द शैली में कहानियां कही हैं.  बच्चे ही नही बड़े भी इन्हें पढ़ते हैं तो  पूरी कहानी पढ़कर ही उठ पाते हैं. कारगिल युद्ध के अमर शहीद हेमसिंह की शहादत की कहानी कर्मभूमि के लिये बलिदान के आधार पर पुस्तक का नाम दिया गया है. सभी कहानियां सचित्र प्रस्तुत की गई हैं. पुस्तक विशेष रूप से बच्चो के लिये पठनीय व संग्रहणीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15☆ बुन्देलखण्ड की लोक कथायें ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजित श्रीवास्तव जी की प्रसिद्ध पुस्तक “बुन्देलखण्ड की लोक कथायें” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा .  किसी भी भाषा या प्रदेश की लोककथाएं एक पीढ़ी के साथ ही जा रही हैं। ऐसे में उन्हें इस प्रकार के लोककथा संग्रह के रूप में संजो कर रखने की महती आवस्यकता है।  लोक कथाएं हमें अगली पीढ़ी को विरासत में  देने का दायित्व हमारी पीढ़ी को है इसके लिए श्री अजीत श्रीवास्तव जी को साधुवाद।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – बुन्देलखण्ड की लोककथायें  

 

पुस्तक – बुन्देलखण्ड की लोक कथायें (लोककथा संग्रह)

संग्रहकर्ता  – अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –  रवीना प्रकाशन दिल्ली

आई एस बी एन – 9789388346597

मूल्य –  २०० रु प्रथम संस्करण २०१९

 

☆ बुन्देलखण्ड की लोककथायें – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

हाल ही में “कौन बनेगा करोड़पति” के एक एपीसोड में बुन्देलखण्ड की एक महिला पहुंची थीं. होस्ट अमिताभ बच्चन से वार्तालाप में उन्होनें बुंदेलखण्डी का प्रयोग किया, प्रतिसाद में  सहज अमिताभ जी ने भी उनसे बुंदेलखण्डी की मधुरता को सम्मान देते हुये ” काय का हो रऔ ”  का जुमला कहा. इस तरह मीडिया में बुंदेलखण्डी भाषा का लावण्य चर्चित रहा. बोलिया और भाषाये  भारत की थाथियां हैं. लोक भाषा में सदियों के अनुभवो का निचोड़ लोक कथा, मुहावरो, कहावतो के जरिये पीढ़ी दर पीढ़ी विस्तार पाता रहा है.

टीकमगढ़ के अजीत श्रीवास्तव पेशे से एक एड्वोकेट हैं. उनका रोजमर्रा के कामो में  ग्रामीण अंचल के किसानो व ठेठ बुंदेलखण्ड के आम लोगों से नियमित वास्ता पड़ता रहता है. इस दिनचर्या का लाभ उठाते हुये उन्होनें बुंदेली लोककथायें जिन्हें स्थानीय लोग “अहाने ” कहते हैं, सुनकर लिख डाले हैं. फिर इन अहाने अर्थात बातचीत में कोट किये जाने वाले लघु दृष्टांत या कथानक को सबके उपयोग हेतु इनका हिन्दी  भाष्य रूपान्तर तैयार कर इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है.

पुस्तक में कुल ११० ऐसी लघु लोककथायें हैं, जो पहले बुंदेली और उसके नीचे ही हिन्दी में प्रकाशित हैं. हर लोककथा कोई संदेश देती है. उदाहरण के लिये एक कथा में कल्पना है कि एक व्यक्ति जो अपने भाग्य को दोष देते परेशान था, पोटली बांधकर किसी दूसरे गांव में जाने की सोचता है, तो उसे उसके साथ जाने को तैयार एक महिला मिली, वह पूछता है तुम कौन, महिला उत्तर देती मैं तुम्हारा भाग्य, तब वह मनुष्य कहता है कि जब तुम्हें साथ ही चलना है तो फिर मैं इसी गांव में क्यो न रहूं ? निहितार्थ स्पष्ट है, जगह बदलने या भाग्य को दोष देने की अपेक्षा जहां है जिन परिस्थितियो में हैं वही मेहनत की जावे तो ही प्रगति हो सकती है.

एक अन्य कथा में बताया गया है कि एक बार घुमते हुये एक राजा किसी किसान के पास पहुंचते हैं, वह गन्ने का रस निकाल रहा था, राजा एक गिलास रस पीते हैं, उन्हें वह बहुत अच्छा लगता है, तो राजा के मन में ख्याल आता है कि किसान इतने अच्छै गन्ने की फसल का लगान कम अदा करता है, लगान बढ़ानी चाहिये. जब राजा अगला गिलास रस पीता है तो उन्हें वह रस अच्छा नही लगता, यह बात राजा किसान से कहता है, तो किसान बोलता है कि महाराज आपने जरूर कुछ बुरा सोचा रहा होगा. राजा मन ही मन सब समझ गये. ” जैसी राजा की नीयत होती है वैसी प्रजा की बरकत ” क्या यह लोककथा आज भी प्रासंगिक नही लगती ?

ऐसी ही रोचक छोटी छोटी कहानियां जो जन श्रुति से अजीत श्रीवास्तव जी ने एकत्रित की हैं बिना तोड़ मरोड़ के यथावत किताब में प्रस्तुत की गई हैं. इस प्रकार किताब लोक के सामाजिक  अध्ययन हेतु भी संदर्भ ग्रंथ बन गई है. मेरी जानकारी में ऐसा कार्य दूसरा देखने को नही मिला है. पुरानी पीढ़ी के साथ ही गुम हो रही इन कहानियो को संग्रहित कर बुंदेली भाषा के प्रति एक बड़ा कार्य किया गया है. जिसके लिये लेखक व प्रकाशक बधाई के सुपात्र हैं.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15☆ वार्तिकायन – स्मारिका 2019 ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है जबलपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘ वर्तिका’ के वार्षिकांक/ स्मारिका   “वार्तिकायन – स्मारिका 2019 पर  श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा ।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15 ☆ 

☆ पुस्तक पर साहित्य चर्चा – वर्तिकायन

पंजीकृत साहित्यिक संस्था वर्तिका की वार्षिक स्मारिका

संपादन – विजय नेमा अनुज, सोहन सलिल, राजेश पाठक प्रवीण, दीपक तिवारी

प्रकाशक – वर्तिका जबलपुर

संस्करण २०१९

 

साहित्य के संवर्धन, साहित्यकारो को एक मंच पर लाने में संस्थागत कार्यो की भूमिका निर्विवाद है. तार सप्तक जैसे संकलन भी केवल साहित्यकारो के परस्पर समन्वय से ही निकल सके थे जो आज हिन्दी जगत की धरोहर हैं. स्मारिका वर्तिकायन ऐसा ही एक समवेत प्रयास है जो वर्तिका के साहित्यकारो को सृजन की नव उर्जा देती हुई मुखरित स्वरूप में वर्तिका के वार्षिकोत्सव में १७ नवम्बर को भव्य समारोह में विमोचित की गई है. पत्रिका की प्रस्तुति, मुद्रण, कागज बहुत स्तरीय है, जिससे संयोजक विजय नेमा अनुज की मेहनत सार्थक हो गई है. वर्तिका के ७६ वरिष्ठ, कनिष्ठ सभी सदस्यो की कवितायें वर्तिकायन में समाहित हैं. स्वामी अखिलेश्वरानंद, सांसद राकेश सिंह जी, विधायक अजय विश्नोई जी, सांसद विवेक तंखा जी, एडवोकेट जनरल शशांक शेखर, वित्तमंत्री श्री तरुण भानोट जी, विधायक लखन घनघोरिया जी, विधायक श्री सुशील तिवारी इंदु, विधायक श्री अशोक रोहाणी, विधायक श्री विनय सक्सेना, व्यवसायी श्री मोहन परोहा, महापौर श्रीमती स्वाति गोडबोले, श्री रवि गुप्ता अध्यक्ष महाकौशल चैम्बर आफ कामर्स, कमिश्नर जबलपुर श्री राजेश बहुगुणा, जिलाधीश श्री भरत यादव, डा सुधीर तिवारी, डा जितेंद्र जामदार, इंजी डी सी जैन डा अभिजात कृष्ण त्रिपाठी, आचार्य भगवत दुबे, श्री अशोक मनोध्या, श्री एम एल बहोरिया, श्री शरद अग्रवाल तथा वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ के शुभकामना संदेश का प्रकाशन यह प्रमाणित करता है कि वर्तिका की समाज में कितनी गहरी पैठ है.

संयोजक श्री विजय नेमा अनुज ने वर्तिका की विजय यात्रा में एक तरह से वर्तिका का सारा इतिहास ही समाहित कर प्रस्तुत किया है. अध्यक्ष सोहन परोहा ने अपने दिल की बात अध्यक्ष की कलम से, में कही है. श्री दीपक तिवारी दीपक, श्री राजेश पाठक प्रवीण, ने अपने प्रतिवेदन रखे हैं. विवेक रंजन श्रीवास्तव ने साहित्यिक विकास में साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका लेख के जरिये अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु प्रकाश में लाने का सफल प्रयत्न किया है. डा छाया त्रिवेदी ने गुरु पूर्णिमा पर वर्तिका के समाज सेवी आयोजन का  ब्यौरा देकर विगत का पुनर्स्मरण करवा दिया.

इस वर्ष सम्मानित किये गये साहित्यकारो के विवरण से स्मारिका का महत्व स्थायी बन गया है. इस वर्ष साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हेतु  शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति  वर्तिका साहित्य अलंकरण मण्डला से आये हुये श्री कपिल वर्मा को प्रदान किया गया. उक्त अलंकरण श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के सौजन्य से प्रदान किया जाता है.  पान उमरिया से पधारे हुये डा आर सी मिश्रा को एवं  इसी क्रम में मुम्बई के श्री संतोष सिंह को श्री सलिल तिवारी के सौजन्य से उनके पिता स्व श्री परमेश्वर प्रसाद तिवारी स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री के के नायकर स्टेंड अप कामेडी के शिखर पुरुष हैं, उन्होने हास्य के क्षेत्र में  जबलपुर  को देश में स्थापित किया है. श्री नायकर को श्रीमती ममता जबलपुरी के सौजन्य से श्रीमती अमर कौर स्व हरदेव सिंह हास्य शिखर अलंकरण प्रदान किया गया. व्यंग्यकार श्री अभिमन्यू जैन को स्व सरन दुलारी श्रीवास्तव की स्मृति में व्यंग्य शिरोमणी अलंकरण दिया गया. इसी तरह श्री मदन श्रीवास्तव को स्व डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण से सम्मानित किया गया. श्री सुशील श्रीवास्तव द्वारा अपने माता पिता स्व सावित्री परमानंद श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण , प्रभा विश्वकर्मा शील को दिया गया. श्रीमती विजयश्री मिश्रा को स्व रामबाबूलाल उपाध्याय स्मृति अलंकरण दिया गया जो श्रीमती नीतू सत्यनारायण उपाध्याय द्वारा प्रायोजित है. श्री अशोक श्रीवास्तव सिफर द्वारा स्व राजकुमरी श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण, श्री संतोष नेमा को उनकी राष्ट्रीय साहित्य चेतना के लिये दिया गया. सुश्री देवयानी ठाकुर के सौजन्य से स्व ओंकार ठाकुर स्मृति कला अलंकरण से श्री सतीश श्रीवास्तव को सम्मानित किया गया. गाडरवाड़ा से पधारे हुये श्री विजय नामदेव बेशर्म को श्री सतीश श्रीवास्तव के सौजन्य से स्व भृगुनाथ सहाय स्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया. वर्तिका प्रति वर्ष किसी सक्रिय साथी को संस्था के संस्थापक साज जी की स्मृति में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित करती है, इस वर्ष यह प्रतिष्ठा पूर्ण सम्मान श्री सुशील श्रीवास्तव को प्रदान किया गया. इसके अतिरिक्त श्रीमती निर्मला तिवारी जी को कथा लेखन तथा युवा फिल्मकार आर्य वर्मा को युवा अलंकार से वर्तिका अलंकरण दिये गये. वर्तिका ने सक्रिय संस्थाओ को भी सम्मानित करने की पहल की है, इस वर्ष नगर की साहित्य के लिये समर्पित संस्थाओ पाथेय तथा प्रसंग को सम्मानित किया गया.

“हे दीन बंधु दयानिधे आनन्दप्रद तव कीर्तनम, हमें दीजीये प्रभु शरण तव शरणागतम शरणागतम “, पहली ही रचना प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की है जो मनोहारी प्रभाव अंकित करती है.

श्री ज्ञान चंद्र पंडा की पंक्तियां “ए कायनात मैं तेरा वजूद नापूंगा, मेरी चाहत का परिंदा उड़ान लेता है “, श्री मोहन शशि ने वर्तिका के संस्थापक साज जबलपुरी के प्रति काव्य में अपने उद्गार कहे हैं. किस तरह एक संस्था के माध्यम से  व्यक्ति चिरस्थाई पदचिन्ह छोड़ सकता है, यह बात वर्तिका के ध्वजवाहक साज जबलपुरी जी को स्मरण करते हुये  बहुत अच्छी तरह  अनुभव करते हैं. राजेंद्र रतन ने कम शब्दो में “सरहद पर गूंजी शहनाई गूंजा सारा देश, सैनिक सरहद पर खड़े स्वर सबके समवेत” लिखकर अपनी कलम की ताकत बता दी है. श्रीमती मनोरमा दीक्षित ने “सरसों के फूलो से मधुॠुतु मनाते हम” मधुर गीत रचा है. श्रीमती निर्मला तिवारी की गजल से अंश है “वारों से तेरे खुद को बचाना नहीं आता, खंजर हमें अपनो पे उठाना नहीं आता”, वरिष्ट रचनाधर्मी इंजी अमरेंद्र नारायण की पंक्तियां “लेकिन मानव की जिव्हा तो प्रतिदिन लम्बी होती जाती वह पार जरूरत के जाती वह स्वार्थ तृपति में लग जाती” जिस दिशा में इशारा कर रही है वह मनन योग्य बिंदु है. रत्ना ओझा जी ने “कब्र खोदें राजनीति में एक दूजे की लोग” लिख आज की सचाई वर्णित की है. श्रीमती चंद्र प्रकाश वैश्य ने आजादी शीर्षक से उम्दा रचना प्रस्तुत की है. श्री केशरी प्रसाद पाण्डेय वृहद ने “कृष्ण गली जो भी गया” मनोहारी लेखनी से अपनी बात कही है. श्रीमती प्रभा पाण्डे पुरनम “धुंआ” में कम में ज्यादा अभिव्यक्त करने में सफल हैं. श्री एम एल बहोरिया अनीस की गजल की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं” लिपट के मुझसे भी रोने को दिल किया होगा उदास परदे में बेबस वफा रही होगी”. सुभाष जैन शलभ के छंद बेहतरीन हैं. डा सलपनाथ यादव ने मध्यप्रदेश स्थापना दिवस पर काव्य प्रस्तुति की है. डा राजलक्ष्मी शिवहरे ने “गुरु बिन जीवन बिन पतवार हो जैसे नाव” लिखकर गुरु का महत्व प्रतिपादित किया है. श्री सुरेश कुशवाहा तन्मय लिखते हैं “स्वयं से सदा लड़े हैं जग में रहकर भी जग से अलग हम खड़े हैं”. बसंत ठाकुर लिखते हैं “जब जब मिले हैं उनसे यही वाकया हुआ वापस चले तो जाहिल नजर लेके नम चले”..

मदन श्रीवास्तव की “कुंए में भांग”, सतीश कुमार श्रीवास्तव की “प्रकृति”, श्रीमती मिथिलेश नायक की “बिन हरदौल ब्याह न हौबे”, डा मीना भट्ट की पंक्तियां “जमीं पर चांद हमें भी एक नजर आया कि जिसके नूर से हम खुद निखरते जाते हैँ” स्पर्श करती हैं. मनोज कुमार शुक्ल “मन का पंछी उड़े गगन है खुद में ही वह खूब मगन है” सशक्त रचना है. श्री सुशील श्रीवास्तव लिखते हैं “प्यार का दीप जलाओ बहुत उदासी है गीत प्यारा सा गुनगुनाओ  बहुत उदासी है”. श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल “अपना रास्ता बनाना होगा” के जरिये स्वयं को सफलता से अभिव्यक्त करती हैं. श्री राजेंद्र मिश्रा “गंगा माँ तेरी जय जय हो” के साथ उपस्थित हैं.

मनोहर चौबे आकाश ने “प्यार की संभावना का पाश हूं”, राजसागरी ने “सुख और दुख दोनो साथी हैं दोनो को अपनाओ तुम भेदभाव न रहे जगत में ऐसी अलख जगाओ तुम”, श्रीमती राजकुमारी रैकवार ने “मेरी प्यारी लेखनी”, श्री अभय कुमार तिवारी ने लिखा है “हिन्दी उर्दू अंग्रेजी से उत्तर दक्षिण बांट रहे, जिस डाली पर हम बैठे उसी डाल को काट रहे”, शशिकला सेन ने “कली की पीड़ा” को कलम बंद किया है. विजय बागरी ने “तुमसे ही प्रियतम घर मथुरा काशी है”, प्रमोद तिवारी मुनि की गजल से पंक्तियां हैं “जब पहला कदम उठता देखा मेरा, माँ मेरी रात भर मुस्कराती रही” श्रीमती सलमा जमाल लिखती हैं “हम सब हैं ईश्वर के बंदे अब गायें ऐसा गान, मस्जिद में गूंजे आरती गूंजे मंदिरो में अजान”, ऐसी सुखद कल्पना कवि की उदार कलम ही कर सकती है जिसकी राष्ट्र को आज सबसे अधिक जरूरत है. श्रीमती सुशील जैन ने “भ्रूण हत्या” पर सशक्त रचना की हे. श्रीमती किरण श्रीवास्तव ने “बेटी”, श्री सुरेंद्र पवार ने “पानी तेरे नाना रूप”, गणेश श्रीवास्तव ने “कारगिल विजय”, अर्चना मलैया ने “धुंध”, श्री गजेंद्र कर्ण ने “मेरा मन मंदिर बने सदगुरु चरण निवास प्रति पल हो हरि रूप का जप तप प्रेम प्रयास”, विजेंद्र उपाध्याय ने “नर्मदा माँ”, विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “मैं” शीर्षक से रचनायें की हैं. नरेंद्र शर्मा शास्त्री ने “बुढ़ापे की व्यथा” लिखी है. श्री उमेश पिल्लई ने “इंतजार” शीर्षक से गहरी बात कही है. सूरज राय सूरज की गजल से उधृत करना उचित होगा “कहा सुबह से ये बुझते हुये दिये ने, मैं सूरज बन के वापस आ रहा हूं”.

श्री अशोक सिफर  ने बड़ी गहरी बात की है वे लिखते हैं “यह इश्क मिजाजी और ये गमगीनी, यह तो पहचान है मुहब्बत होने की”. सलिल तिवारी अपने गीत में शाश्वत सत्य लिखते हैं “प्यार एहसास है, एहसास निभाना सीखो, साजे दिल को इसी सरगम पे बजाना सीखो”. श्रीमती संध्या जैन श्रुति ने “पश्चिम की आंधी”, श्रीमती कृष्णा राजपूत ने “शिक्षक हूं”, श्रीमती सुनीता मिश्रा ने बहुत महत्वपूर्ण बिंदु रेखांकित करती रचना की है वे लिखती हैं “महकी जूही चमेली चम्पा कली आज मेरी बेटी स्कूल चली”. संतोष कुमार दुबे ने “जबलपुर नगर हमारा”, श्रीमती ममता जबलपुरी ने “शब्द शब्द से खेला भावो को अंजाम मिला”, आषुतोष तिवारी ने “अनुमानो से बहुत बड़ा दिन अनुभव की है रात बड़ी”, बसंत शर्मा ने गजल कही है “यूं सूरज की शान बहुत है पर दीपक का मान बहुत हैं”. डा मुकुल तिवारी ने दे”श के नौजवानो आगे बढ़ो”, संतोष नेमा की सशक्त अभिव्यक्ति है “कहां गया माथे का चंदन”, राजेश पाठक प्रवीण लिखते हैं “कभी लगे सुख सागर जैसी कभी गले का हार जिंदगी, कभी दुखो की गागर जैसी और कभी त्यौहार जिंदगी”.  विनोद नयन लिखते हैं “हमदर्दी जताने के लिये लोग यहां पर, हम लोगों के उजड़े हुये घर ढ़ूंढ़ रहे हैं”. अर्चना गोस्वामी “प्यार का बागवां” डा अनिल कुमार कोरी “भूल गया क्यो ?”, विनीता पैगवार ने  “सदगुरु ओशो को समर्पित” रचना प्रस्तुत की है. सपना सराफ ने “कुछ मीठे बोसे हवा हर रोज मुझे दे जाती है” लिखकर गजल को उंचाईयां दी हैं. मनोज जैन ने “यह वर्ण व्यवस्था भंग करो”, प्रभा विश्वकर्मा शील ने “जुगनू”, और आलोक पाठक ने “सच है”, डा आशा रानी ने छोटी सी चाहत की है “कामयाब देखना होकर रहूंगी, मुश्किलो को हराना जानती हूं”. युनूस अदीब जी ने बहुत उम्दा गजल कही है, “जहां को रौशनी देना मजाक नही चराग बनके वो खुद को यहां जलाता है” डा राजेश कुमार ठाकुर ने “गड्ड मड्ड”, अशोक झारिया शफक ने गजल में कहा है “सितम बेवजहा ढ़ाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं, किसी का दिल दुखाने में तुम्हारे दिन गुजरते हैं”, अर्चना जैन अम्बर ने “संघर्ष”, दीपक तिवारी दीपक ने “न जाने कौन सा जादू है उस खुश रंग चेहरे में के जिसकी झलक पाकर हमें मुस्कराना पड़ता है.” मिथिलेश वामनकर ने “वेदना अभिशप्त होकर जल रहे हैं गीत देखो” अत्यंत झंकृत करने वाली छंद बद्ध रचना दी है. विनीत पंत यावर का गीत “कौन था मुझमें मेरे नाम से पहले”, मीनाक्षी शर्मा की “अल्पना”, और देव दर्शन सिंह की रचना “शाम का अलग ही  जलवा था वो दिये की बाती कुछ कहती थी”, डा वर्षा शर्मा रैनी की रचना “अश्कों के सूख जाने से” में वे लिखती हैं “तुझे संवांर दिया हादसों ने ए रैनी, वफा का रंग बिखरता है चोट खाने से”.

स्मारिका में लगभग २८ महिला रचनाकारो की उपस्थिति यह बताती है कि साहित्य के क्षेत्र में महिलाओ की भागीदारी उल्लेखनीय है. वर्तिका को गौरव है कि इतने विविध क्षेत्रो से अंचल के बिखरे हुये रचनाकर्मियो को वर्तिकायन के द्वारा एक जिल्द में लाने का सफल प्रयास किया गया है. वर्तिकायन अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल प्रस्तुति है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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