(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मटरगश्ती…“।)
अभी अभी # 216 ⇒ मटरगश्ती… श्री प्रदीप शर्मा
मैं लाल लाल टमाटर नहीं, हरा भरा मटर हूं, हरा भरा अर्थात् मेरे अंदर भी हरा भरा, और मैं बाहर से भी हरा। मुझे अंग्रेजी में pea कहते हैं और मैं भी बीन्स प्रजाति का ही एक सदस्य हूं।
दाने दाने पर लिखा है छीलने वाले का नाम। मुझे जो छीलता है, वह पहले मुझे चखता है और अगर मैं मीठा हुआ, तो मेरी खैर नहीं। मालवा की काली मिट्टी में मैं बटले के नाम से जाना जाता हूं। ठंड के मौसम में मैं हर सब्जी वाले के पास, और हर घर में बहुतायत से उपलब्ध होता हूं।।
रसोई घर में ऐसी कोई सब्जी नहीं, जिसमें मेरा योगदान ना हो। पुलाव हो या बिरयानी, आलू गोभी हो या पत्ता गोभी, जहां टमाटर, वहां भी मौजूद हरा भरा मटर। मटर पनीर बच्चों, बड़ों, सभी की पसंद भी रही है, और कमजोरी भी। कल ही हमने मैथी, मटर, मलाई बनाई।
ठंड के मौसम में हर सब्जी में गश्त लगाना मेरा कर्तव्य भी है और अधिकार भी।
जब कभी होटलों में किसी सब्जी के बारे में एकमत नहीं होते, तब मिक्स वेज का नंबर आता है। जिसे सब्जी में से बच्चे चाव से बीनकर खाते हैं, वही तो बीन्स कहलाते हैं।।
आलू और भुट्टे की कचोरी की तरह ही बटले की भी कचोरी बनाई जाती है। मौसमी स्वाद अपनी जगह है, फिर भी त्वरित उपयोग के लिए यह मटर आजकल बारहों महीने सुफला के नाम से हर जगह उपलब्ध होता है। समझदार गृहणियां तो सीजन में सस्ते मटर फ्रीज में संभालकर रख लेती हैं।
इस मौसम में घरों में मटर का आना, बच्चे बड़े सभी मटरगश्ती करते हुए, एक एक दाना मुंह में रखते जाते हैं और उधर बेचारे बचे हुए मटर सब्जी, पुलाव सहित अन्य स्वादिष्ट डिशेज में मटर गश्ती करते देखे जा सकते हैं। बहुत सस्ते हैं, स्वादिष्ट हैं, दानों से भरपूर हैं, हरे भरे मटर।।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा“किंकर्तव्यविमूढ़“.)
☆ लघुकथा – किंकर्तव्यविमूढ़ ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
वह किंकर्तव्य विमूढ़ है।
-क्योंकि उसकी अपनी पत्नी उसका कहा नहीं मानती।
-क्योंकि उसका अपना बेटा उसका कहा नहीं मानता।
-क्योंकि उसकी अपनी बेटी उसका कहा नहीं मानती।
उन सबके अपने-अपने टारगेट है और वह स्वयं बिना किसी टारगेट का है। उसके अपने ये टारगेट उसके हाथ से फिसलते चले गए हैं।
वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर निरुद्देश्य जीवन की पटरी पर सुनसान पथ का राही बनकर रह गया है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
रोज सकाळी उठताना ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी कर मध्ये सरस्वती….’ म्हणत दोन्ही हातांची ओंजळ सर्वप्रथम डोळ्यासमोर येते आणि ‘प्रभाते करदर्शनम्’ म्हणत रोजचा दिवस दाखवणाऱ्या परमेश्वराला त्याच हातांनी आपण नमस्कार करतो! ओंजळ म्हटली की डोळ्यासमोर येतो तो कर्ण! सकाळच्या वेळी गंगेच्या पाण्यात उभा राहून सूर्याला अर्घ्य देताना केलेल्या ओंजळीतून पाणी देत असलेला! दानशूर कर्णाची ओंजळ कधी रीती राहत नव्हती. गंगा स्नानानंतर तो हा दान यज्ञ करीत असे ओंजळीने! दानशूर कर्णाची भरली ओंजळ ज्याला जे पाहिजे ते देण्यात व्यस्त असे!
त्यामुळे कर्णाकडून कोणाला काही पाहिजे असेल तर ते सूर्योदयाला दानाच्या वेळी भेटले तर मिळत असे. इंद्राने त्याची कवच कुंडले ही अशाच वेळी मिळवली. ओंजळ हे दातृत्वाचे प्रतीकच आणि दोन्ही हातांचे तळवे एकमेकांना जुळवून ओंजळ तयार होते तहानलेल्या माणसाला ओंजळीत पाणी ओतत असताना प्यायले की पोटभर पाणी प्याल्यासारखे वाटते, तसेच ओंजळभर धान्य एखाद्याच्या झोळीत टाकले की झोळी भरल्यासारखी वाटते !दानासाठी आपण हाताचे महत्त्व सांगतो तसेच ओंजळ ही नेहमी दोन हाताने दान देण्यासाठीच असते!
फुलांनी भरलेली हाताची ओंजळ डोळ्यासमोर आली की मन प्रसन्न होते! सकाळच्या वेळी जर कोणी सुवासिक जाई, जुई, मोगरा, बकुळी यासारखी फुले ओंजळ भरून दिली तर अगदी श्रीमंत असल्यासारखेच वाटते मला! त्या फुलांचा वास भरभरून मनाच्या गाभाऱ्यापर्यंत पोहोचतो आणि तीच फुले देवाच्या देव्हाऱ्यात सजलेली पाहताना ते फुलांनी सजवलेले परमेश्वराचे रूप पाहून मन भरून येते. ओंजळ हे छोटेसे प्रतीक आहे जीवनाचे! आकाशात भरून आलेला पाऊस हत्तीच्या सोंडेने जरी धरतीवर कोसळत असला तरी त्या धारेची साठवण आपण हाताच्या ओंजळीत करतो तेव्हा ती सीमित असते.ओंजळ आपल्याला तृप्त राहायला शिकवते असे मला वाटते!
भुकेच्या वेळी मिळालेले ओंजळभर अन्न किंवा तृषार्त असताना मिळालेले ओंजळभर पाणी याचे महत्त्व माणसाला खूपच असते. अशावेळी तृप्तीचे आसू आणि हसू आल्याशिवाय राहत नाही! जे मिळते ते समाधानाने घ्यावे त्यातच जीवनाचे सार सामावलेले असते! ओंजळ भरून लाह्या जेव्हा पती-पत्नी लाजा होमात घालत असतात, तेव्हा हीच त्यागाची भावना एकमेकांसाठी मनात भरून घेतात! जीवनाच्या वेदीवर पाऊल टाकताना नवरा बायको लाह्यांची ओंजळ समर्पण करून एकमेकांसाठी आपण आयुष्यभरासाठी जोडलेले आहोत ही जाणीव एकमेकांना देत असतात, तर कन्यादानाच्या वेळी मुलीचे आई वडील आणि नववधू- वर हाताच्या ओंजळीत पाणी घेतात, जणू आई-वडिलांकडून कन्येचे दान या ओंजळीतून होत असते!
‘ओंजळभर धान्य’ या संकल्पनेतून घराघरातून धान्य जमा करून एका सेवाभावी संस्थेत देत असलेले ऐकले आहे. त्या ठिकाणी प्रत्येक घरातून आलेल्या ओंजळभर धान्याचे रूपांतर एका मोठ्या धान्य साठ्यात होते. देणाऱ्यांना एक ओंजळभर धान्य देताना फारसा त्रास वाटत नाही, पण अशा असंख्य ओंजळींच्या एकत्रीकरणातून नकळत खूप मोठी समाजसेवा घडत असते.
गोंदवलेकर महाराज म्हणत असत की दारी आलेल्या भुकेल्या माणसाला कधी हाकलून देऊ नये. त्यांना फार तर पैसे देऊ नये पण ओंजळभर धान्याची भिक्षा द्यावी. त्याकाळी अन्नदानाचे पुण्य मोठे वाटत असे आणि त्या अन्नाचा आशीर्वाद संपूर्ण कुटुंबाला मिळत असे.
आपण लक्ष्मीचे जे चित्र बघतो तेव्हा ती ओंजळीने नाणी ओतत असते आणि तिची ओंजळ सतत भरभरून वाहत असते ,असे ते चित्र असते. अशा लक्ष्मीची कृपा आपल्यावर सतत राहू दे असं मनात येतं! लक्ष्मीपूजनाला आपण अशा लक्ष्मीची पूजा करतो. आत्ता आठवली ती व्ही शांताराम यांच्या चित्रपटात सुरुवातीला दाखवली जाणारी कमनीय स्त्री ,जी ओंजळीतून फुले उधळीत असते! त्या कमनीय देहाचे सौंदर्य त्या ओतणाऱ्या ओंजळीतून इतके प्रमाणबद्ध रेखाटले आहे की ते चित्र आपल्या सर्वांच्या मन: पटलावर कोरले गेले आहे!
आपल्या दोन हातावरील रेषा आपले भविष्य दाखवतात असे आपण म्हणतो. जेव्हा ते दोन हात एकत्र येतात आणि जी ओंजळ बनते ती आपल्याला काम करण्यास प्रवृत्त करते. अशी ही “ओंजळ “शब्दबद्ध करताना माझी शब्दांची ओंजळ अपुरी पडते असं मला वाटतं, पण भावपूर्ण शब्दांच्या या ओंजळीला सतत ओतत रहाण्यासाठी सरस्वती मला साथ देऊ दे, असंच या छोट्या ओंजळीसाठी मला वाटतं!
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “परिंदे संवेदना के…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 29 ☆ परिंदे संवेदना के… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी ‘सवारी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆
☆ कहानी – सवारी☆
जग्गू अपना रिक्शा लेकर सुबह पाँच बजे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन साढ़े पाँच बजे आती है। कई बार लेट भी हो जाती है। सर्दियों में यह ट्रेन तकलीफ देती है। पाँच बजे पहुँचने के लिए चार बजे उठना पड़ता है। एक तरफ अँधेरे और दूसरी तरफ ठंड से जूझना पड़ता है। गनीमत यह है कि स्टेशन छोटा होने की वजह से उसे सब जानते हैं, इसलिए रेलवे के साहब लोग अगर किसी कोने में अलाव जलाकर तापते मिल गये तो वहीं धीरे से घुस जाता है। उसकी पूछ-कदर इसलिए भी है कि स्टेशन पर दो ही रिक्शे हैं, इसलिए बाबुओं को अटके-बूझे उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्रेन आने पर रिक्शे पर रहना ही सुरक्षित होता है क्योंकि सवारी सीधे रिक्शे पर पहुंचकर उसकी घंटी टुनटुनाती है।
उसके अलावा दूसरा रिक्शा रघुवीर का है। उन दोनों को छोड़कर कोई तीन किलोमीटर दूर गाँव में जाना चाहे तो पाँवगाड़ी इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।
स्टेशन के बाहर गुलाब का स्टोव भर्र-भर्र जल रहा है। गुलाब सवेरे साढ़े चार बजे तक दूकान में जम जाता है। सोता भी दूकान में ही है। दोपहर से शाम तक मदद करने के लिए एक लड़का आ जाता है जिसे उसने असिस्टेंट के तौर पर रख लिया है। गुलाब की दूकान अच्छी चल जाती है। गाँव के लड़कों और बूढ़ों को करने धरने को कुछ होता नहीं, इसलिए जब जिसका मुँह उठा, स्टेशन चला आता है। कुछ ऐसे हैं जो दिन भर गुलाब की बेंच पर जमे रहते हैं। भूख लगने पर कागज़ पर नमकीन लेकर खाया, ऊपर से एक ‘कट’ चाय। घर में सोने से तो भला, स्टेशन पर कुछ चहल-पहल रहती है। ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते बहुत से नये चेहरे दिख जाते हैं, जिन्हें देखकर ज़िन्दगी में थोड़ी रौनक आ जाती है। गाँव के युवक ट्रेनें आने पर उनके सामने जा खड़े होते हैं, फिर उनके चले जाने पर वापस दूकानों की बेंचों पर आ जमते हैं। उस दिन ट्रेन रुकी तो जग्गू उम्मीद से सवारियों की तरफ देखता रहा। अचानक उसकी आँखें चमकीं। साफ-सफेद कुर्ते धोती में एक सयाने, गोल-मटोल सज्जन छोटा सूटकेस लिये बाहर निकल रहे थे। शरीर के रख-रखाव, सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे, घड़ी की चेन और हाथ की अँगूठियों से ज़ाहिर था कि आदमी ऊँचे तबके का, सुख-सुविधा संपन्न है। जग्गू ने देखा उनका चेहरा मक्खन से तराशा हुआ लगता था, हाथों की हथेलियाँ गुलाबी और मुलायम। उसके जैसी खुरदरी और गुट्ठल वाली नहीं।
जग्गू ने बढ़कर उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। बोला, ‘आइए बाबूजी, कहाँ जाएँगे?’
वे सज्जन धोती के छोर से चेहरा पोंछते हुए बोले, ‘चतुर्वेदी जी के यहाँ जाना है। आज उनकी तेरही है। जानते हो?’
जग्गू बोला, ‘गाँव में सब को एक दूसरे के घर की गमी और खुसी का पता रहता है। चौबे जी का घर हमें मालूम है। चौबाइन के साथ अकेले तो रहते थे। अभी तो खूब भीड़-भाड़ है। सब लोग आये हैं।’
वे सज्जन थोड़ा सावधान हुए, बोले, ‘पैसे कितने होंगे?’
जग्गू बोला, ‘तीस रुपया होगा। बँधा बँधाया रेट है। यही मिलता है।’
सज्जन ने अपने शहरी चातुर्य को जग्गू की ग्रामीण व्यवहारिकता से भिड़ाया, बोले, “ज्यादा है। वह तो गाँव दिखता है।’
जग्गू बोला, ‘दिखता तो है, पर रास्ता बहुत खराब है। बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। टाइम भी ज्यादा लगता है।’
सज्जन बोले, ‘बीस रुपये में चलना हो तो चलो।’
जग्गू ने हाथ जोड़े, कहा, ‘नहीं होगा साहब। बहुत कम है।’
सज्जन ने थोड़ी दूर पर खड़े दूसरे रिक्शे पर नज़र डाली। बोले, ‘दूसरे रिक्शेवाले से भी पूछ लेते हैं।’
जग्गू हँसा, बोला, ‘कोई फायदा नहीं है बाबूजी। रघुवीर का बाप सवेरे पाँच बजे उसे ढकेल कर घर से बाहर कर देता है। वह यहाँ आकर रिक्शे में सो जाता है। आप कोसिस कर लीजिए, वह उठेगा नहीं। थोड़ी देर बाद उठकर चाय पियेगा, फिर बीड़ी के सुट्टे लगाएगा। उसके बाद ही किसी सवारी को बैठने देगा।’
सज्जन ने पैंतरा बदला, बोले, ‘अच्छा, चौबे जी के लड़के जो कहेंगे वह दे देंगे।’
जग्गू ऐसे लोगों को जानता है। वे गरीबों का पेट मारने के बहुत तरीके जानते हैं। ठंडी आवाज़ में बोला, ‘तीस रुपये से कम नहीं होगा बाबूजी। सोच लें।’
सज्जन हार गये। झुँझलाकर बोले, ‘ठीक है, चलो। अकेले होने का फायदा उठा रहे हो।’
जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका काम हो गया था। अब फालतू की झिकझिक करने से क्या फायदा?
सज्जन आकर रिक्शे के बगल में खड़े हो गये। जग्गू ने दो बार सीट पर हाथ मार कर उसकी धूल झाड़ी, फिर कहा, ‘आइए, बैठिए।’
लेकिन उन सज्जन के लिए बैठना आसान नहीं था। सीट की पुश्त और सामने लगी पट्टी को पकड़कर वह बड़ी मुश्किल से सीट की ऊँचाई तक अपने को उठा सके। सीट पर बैठ जाने तक उनके हाथ और पाँव थरथर काँपते रहे। ज़ाहिर था कि उन्हें रिक्शे में बैठने का अभ्यास नहीं था। सीट पर बैठ कर उन्होंने फिर मुँह पोंछा, साथ ही बुदबुदाये— ‘क्या सवारी है!’
जग्गू ने घुमा कर रिक्शा पुलिया से बाहर निकाला और कीचड़, गढ्ढों और गोबर से बचाता चल दिया। गढ्ढों से बचाने के उपक्रम में रिक्शा सर्पाकार चल रहा था और वे सज्जन आलू के बोरे की तरह दाहिने बाएँ हिल रहे थे। आखिरकार जब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया तो गुर्राये, ‘जरा ठीक से चलो। पेट की अँतड़ियाँ हिली जा रही हैं।’ जग्गू को ऐसी नकचढ़ी सवारियों से चिढ़ होती है। वह मौजी आदमी है। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद शाम से इधर-उधर कीर्तन- भजन की बैठकों में मस्त रहता है। उस वक्त कोई रिक्शा खींचने के लिए बुलाये तो उसे भारी चिढ़ लगती है। लिहाज न हो तो कितना बुलाने पर भी नहीं जाता। दिवाली के टाइम आठ दस दिन की पक्की छुट्टी लेता है। ‘मौनियाँ ‘ के दल के साथ कमर में कौड़ियों की करधनी पहने, हाथ में मोरपंख लिये गाँव-गाँव घूमता और नाचता है। नाच के कपड़ों पर तीन चार सौ खर्च करने में उसे कोई तकलीफ नहीं होती।
उन सज्जन के चेहरे पर अरुचि और तकलीफ का भाव साफ झलक रहा था। गाँव की सड़क शुरू हो गयी थी। तीन चार साल पहले बनी थी, लेकिन बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के चलने के कारण बिल्कुल चौपट हो गयी थी। अब तो रिक्शे को एक एक कदम सँभाल कर ले जाना पड़ता है। कई जगह उतर कर खींचना पड़ता है। बस पैदल आदमी ही सुकून से चल सकता है।
जग्गू का मन हुआ रास्ता काटने के लिए कोई तान छेड़े। एक रोमांटिक गाना ‘साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना’ उसका प्रिय है। अक्सर उसी को छेड़ता है। लेकिन सवारी के चेहरे पर साच्छात सनीचर बैठा देख उसकी उमंग को लकवा लग गया। भगवान ऐसी मनहूस सवारी न भेजे।
गाँव की राह पर आने के बाद उन सज्जन का जबड़ा खुलता है। लगता है उन्हें भी ज्यादा देर चुप रहने की आदत नहीं है। जैसे अपने आप से कहते हैं—‘ पंद्रह साल बाद रिक्शे पर बैठा हूँगा। जरूरत ही नहीं पड़ती। घर में दो कारें हैं, ड्राइवर है। थोड़ी दूर भी जाना हो तो कार से जाते हैं।’
जग्गू मुँह फेरकर ‘अच्छा’ कहता है, लेकिन वह जान जाता है कि रिक्शे पर बैठना सवारी को भाया नहीं। उसका मन खट्टा हो जाता है।
कारन यह है जग्गू को अपने रिक्शे पर बड़ा नाज़ है। बैंक से लोन ले कर लिया है। गाँव में सिर्फ दो रिक्शे होने से वैसे भी वह अपने को विशिष्ट समझता है। धर्मी-कर्मी आदमी है, इसलिए जैसे शरीर को साफ-सुथरा रखता है, वैसे ही रिक्शे को भी धो-पोंछ कर रखता है। रिक्शे के बारे में कोई ऊटपटाँग टिप्पणी कर दे तो उसका मन आहत हो जाता है।
वे सज्जन आगे बोल रहे थे— ‘चतुर्वेदी जी हमारे समधी होते थे। अभी दो साल पहले रिटायर होने पर यहाँ आ बसे थे। इसीलिए हमारा यहाँ कभी आना नहीं हुआ।’ जग्गू ने फिर मुँह फेर कर ‘हाँआँ ‘ कहा।
वे कुछ और बोलने जा रहे थे, तभी रिक्शे के गढ्ढे में फँसने से उनकी देह पूरी हिल गयी।जग्गू के रिक्शे की सीट आगे की तरफ थोड़ा ढालू थी। कोई गढ्ढा आ जाए तो शरीर आगे की तरफ भागता था, और आदमी सावधान न हो तो घुटने आगे पटिये में टकराते थे। यही उन सज्जन के साथ हुआ। वे ज़ोर से चिल्लाये, ‘क्या करता है? देख के चल। घुटने टूटे जा रहे हैं।’
जग्गू का मन बुझ गया। गाँव के लोग उसके रिक्शे पर बैठना सौभाग्य समझते हैं। चिरौरी कर कर के बैठते हैं। गाँव के लालता बनिया का लड़का तो चाहे जब आ बैठता है और रिक्शा खाली हो तो घंटों घूमता है। कहता है, ‘बहुत मजा आता है।’ उसे घुमाने में जग्गू को भी मज़ा आता है क्योंकि उसके मुँह से तारीफ सुनकर जग्गू गदगद हो जाता है। रिक्शे ने गाँव में जग्गू की पोजीशन बना दी है। रोज दो चार लोग उसकी खुशामद करते हैं। और एक यह सवारी है जो उसे कोसे जा रही है।
गढ्ढे से बाहर निकले तो उन सज्जन ने घड़ी देखी, बोले, ‘सात आठ मिनट तो हो गये।कहाँ है तुम्हारा गाँव?’
जग्गू चिढ़कर बोला, ‘गाँव जहाँ है वहीं है, बाबूजी। रास्ता खराब है इसलिए देर हो रही है।’
रिक्शा फिर रास्ते के हिसाब से डगमग होता चल दिया।
सज्जन थोड़ी देर में बोले, ‘दो-चार दिन यहाँ रिक्शे पर बैठेंगे तो हड्डियों का चूरा हो जाएगा। महीना भर अस्पताल सेना पड़ेगा।’
जग्गू का मन बिलकुल बुझ गया। ऐसी सवारी मिल जाए तो पूरा दिन खराब हो जाता है। यह आदमी पन्द्रह मिनट से उसकी रोजी को कोस रहा है।
उसने धीरे से कहा, ‘कार से ही आ जाते बाबूजी।’
बाबूजी उसके व्यंग्य को नहीं समझ पाये। दुखी भाव से बोले, ‘कार से इतनी दूर कहाँ आएँगे? सब तरफ सड़कों की हालत खस्ता है।’
जग्गू मन में बोला, तो फिर गाँव की सड़क और उसके रिक्शे को क्यों कोस रहे हो? प्रकट बोला, ‘चौबे जी के यहाँ खबर करके गाड़ी बुलवा लेते। वहाँ तो दो तीन गाड़ियाँ खड़ी थीं।’
सज्जन फिर दुखी भाव से बोले, ‘दो तीन बार फोन लगाया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। लगता है सब सो रहे हैं।’
रिक्शा खींचते खींचते जग्गू को हाँफी चढ़ रही थी। रास्ते में एक घर के सामने चाँपाकल के पास रिक्शा रोक दिया,बोला, ‘ एक मिनट जरा पानी पी लूँ।’
सज्जन और चिढ़ गये, बोले, ‘हाँ हाँ, जरूर पियो। बीड़ी वीड़ी भी पी लो। क्या जल्दी है?’
जग्गू खिसिया कर बोला, ‘बीड़ी वीड़ी हम नहीं पीते। गला सूख रहा है इसलिए थोड़ा पानी पी लेते हैं।’
सज्जन ने भी पिछले स्टेशन से खरीदी बोतल से दो घूँट पानी पिया। रास्ते में कहीं पानी नहीं पिया जा सकता। यहाँ बीमार पड़ जाएँ तो तीमारदारी के लिए डॉक्टर भी नहीं मिलेगा।
रिक्शा फिर किसी आर्थ्राइटिस के मरीज़ जैसा दाहिने बायें झूमता आगे बढ़ा। सज्जन का चेहरा तकलीफ और आक्रोश से विकृत हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर वे बोले,
‘यहाँ कम से कम एक ऑटो होना चाहिए। रिक्शे में तो हाथ-पाँव टूटना है।’
जग्गू को और चिढ़ लगी। एक तो ढो कर ले जा रहे हैं, ऊपर से बार-बार गाली दे रहा है। बोला, ‘यहाँ ऑटो खरीदने के लिए पैसा किसके पास है? आप जैसे बड़े आदमी ही खरीद सकते हैं। फिर ऑटो के लायक कमाई भी तो होना चाहिए।’
सज्जन कुछ नहीं बोले। अगली चढ़ाई चढ़ते ही झुटपुटे में आधा ढँका गाँव सामने आ गया। सज्जन के चेहरे पर राहत का भाव आया।
अचानक गाँव के बीच से एक कार ‘पें पें ‘ हॉर्न बजाती, धूल उड़ाती, रिक्शे के सामने आकर रुक गयी। कार में से दो युवक उतरे। सज्जन के पाँव छूकर बोले, ‘आ गये, बाबूजी? माफ करें, हमें निकलने में थोड़ी देर हो गयी। रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?’
सज्जन का चेहरा अब बिलकुल तनावमुक्त हो गया था। जग्गू की तरफ देख कर बोले, ‘तकलीफ तो बहुत हुई, लेकिन अब तुम लोग आ गये हो तो सब ठीक है। बाकी यहाँ रिक्शे पर चढ़ना सजा जैसा है।’
युवकों ने उनका सूटकेस उठाकर कार में रख लिया। वे पैसे देने लगे तो युवकों ने उन्हें बरज दिया। जग्गू से बोले, ‘घर से ले लेना।’
सज्जन ने कार में बैठकर ज़ोर की साँस ली, बोले, ‘चलो भैया, मुक्ति मिली।’
कार मुड़कर गाँव की तरफ बढ़ी तो धूल का ग़ुबार आकर जग्गू के शरीर और रिक्शे पर बैठ गया। वह अँगौछे से मुँह पोंछता कभी दूर जाती कार और कभी अपने रिक्शे को देखता रहा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆
व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…
मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़ की खबर बोल्ड लैटर में छपी थी, मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं ! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है. चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.
मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करती पोलिस पर पथराव किया. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है, एक वो परसाई के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?
तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा ! पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है. इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है,तितर बितर हो जाती है, फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के. तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने पोलिस बेबस हो जाती है.
भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है. जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है. गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके.
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 211☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।
इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।
दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?
बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,
यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है।
नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 202 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,
अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।