( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है”. )
☆ किसलय की कलम से # 30 ☆
☆ इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है ☆
जब हम सामाजिक व्यवस्थाओं के दायरे में रहकर जीवनयापन करते हैं तब भी हमें अनेक तरह से सीख मिलती है। हमारे नेक सिद्धांत ही हमें आदर्श पथ पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं, और यही सन्देश समाज में भी जाता है। हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे आचार-व्यवहार दूसरों को इस दिशा पर चलने के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। इंसान का आदर्श होना कोई जन्मजात गुण नहीं होता। हम समाज में रहकर ही सामाजिक गतिविधियों को निकट से देख पाते हैं। यदि हम अपने चिंतन और मनन से अच्छाई-बुराई एवं हानि-लाभ के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम की सूक्ष्मता से थाह लें तो हम उचित एवं अनुचित के काफी निकट पहुँच जाते हैं। इन दोनों पहलुओं में हमें उचित पहलू पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है तथा अनुचित पहलू के प्रति नकारात्मक रुख भी अपनाना होता है। सकारात्मक दृष्टिकोण ही हमारे आदर्श मार्ग का प्रथम चरण होता है। हमारी भावनायें, हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारी लगन का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। हम प्रायः इनके द्वारा ही उचित और अनुचित का फर्क सहजता से समझ पाते हैं। अपने धीरज और विवेक से अनुचित का प्रतिकार नियोजित ढंग से कर सकते हैं। जैसे परिग्रह की प्रवृति मनुष्य को कहीं न कहीं लोभी और स्वार्थी बनाती है। आवश्यकता से अधिक संग्रह ही हमें वास्तविक कर्म से विलग करता है। एक सच्चे इंसान का कर्त्तव्य अपनी बुद्धि एवं विवेक का सदुपयोग करना माना गया है । समाज के काम आना और समाज में रहते हुए परस्पर भाईचारे का परिवेश निर्मित करना हर मनुष्य का सिद्धांत होना चाहिए। समाज का उत्थान हम सब की अच्छाईयों पर निर्भर करता है। बुराई समाज को पतन की ओर ले जाती है। हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। तब हम स्वयं से ही शुरुआत क्यों न करें। कल हमारा परिवार, हमारा मोहल्ला और हमारा नगर इस हेतु प्रेरित होगा। दीप से दीप जलेंगे तो तिमिर हटेगा ही। जब हम एक से दो , दो से चार होंगे तब जग में सुधार की लहर बहना सुनिश्चित है और उसकी परिणति भी सुखद होगी। निश्चित रूप से हमारे मन में आएगा कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि संपूर्ण जग सुधर जाए? परंतु लोग ऐसा सोचते ही क्यों हैं? यदि पेड़ लगाने वाला सोचने लगे कि मुझे उसके फल चखने को मिलेंगे ही नहीं तो मैं पेड़ क्यों लगाऊँ? तब तो हमारे पूर्वजों ने पेड़ क्यों लगाये! यदि हम पेड़ नहीं लगाएँगे तो हमारी अगली पीढ़ी आपको कैसे याद करेगी । बस यही बात है आपको याद किए जाने की। आप के कर्त्तव्य और आपका सामाजिक योगदान ही आप की धरोहर है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है और हमारा समाज इसका संवाहक होता है।
हमारी गीता में लिखा है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’
जिसका आशय हमें यह लगाना चाहिए कि हम कर्म करेंगे तो उसका फल हमें अवश्य प्राप्त होगा। एक-एक बिंदु से रेखा निर्मित होती है, रेखाओं से अक्षर, अक्षरों से शब्द और यही शब्द अभिव्यक्ति के माध्यम बनते हैं। शब्दशक्ति से कौन अपरिचित है? विश्व की हर क्रांति के पीछे शब्दशक्ति का अहम् योगदान है। बड़ी से बड़ी क्रांति भी विफल हो गई होती यदि अभिव्यक्ति जन-जन तक नहीं पहुँचती। तात्पर्य यह है कि एक बिंदु या एक इंसान भी आदर्श मार्ग पर चलेगा तो वह रेखा जैसा बिंदु समूह या सकारात्मक सोच, यूँ कहें कि उस जैसे लोगों का समूह तैयार होगा जिसमें समाज को नई चेतना और विकास के पथ पर अग्रसर करने की सामर्थ्य होगी । जीवन में ऐसा नहीं है कि इंसान संपन्न एवं उच्च पदस्थ होकर आम आदमी के दुख दर्द का एहसास नहीं कर सकता। परिस्थितिजन्य विचार और दृष्टिकोण वह सब करने की इजाजत नहीं देते जो उसके अंदर विद्यमान एक ‘साधारण आदमी’ करना चाहता है । आखिर ऐसा क्यों करता है यह विशिष्ट वर्ग?
उपरोक्त विशेष वर्ग के आचरण ही समाज में दूरियाँ पैदा करते हैं। हम सदियों से देखते आ रहे हैं कि इस वर्ग की आयु बहुत ही कम होती है। हम जानते हैं कि झूठ और अनैतिकता की बुनियाद पर खडा इंसान कभी स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकता। बात तो तब है जब इंसान इंसान के काम आए। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े और अमीर-गरीब के बीच की खाई पार्टी जाए। जीव अमर नहीं होता। संपन्नता और विपन्नता जब यहीं पर धरी रह जाना है तो फिर ये बातें लोगों की समझ के परे क्यों होती हैं, कम से कम हम अपने व्यवहार और वाणी से मधुरता तो घोल ही सकते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे पेट के साथ दो हाथ और दो पाँव मिलते ही इसीलिए हैं कि वह इनसे अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सके। यदि हम महत्त्वाकाक्षियों, ईर्ष्यालु और विघ्नसतोषियों को छोड़ दें तो शायद ही कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो उच्चवर्गीय लोगों के संबंधों से कोई विशेष उम्मीद करते हों। आम इंसान को अपनी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा रहता है, यह होना भी चाहिए। वह जीवन में आगे बढ़ना तो चाहता है परंतु अच्छी नियत से। बुराई तो घोली जाती है। ईश्वर तो हमें इस प्यारी धरती पर निश्छल ही भेजता है। आदमी छोटा हो या बड़ा, यदि उसमें निश्छलता भरी है तो वह सच्चे अर्थों में इंसान है।
इंसान को सदैव स्वयं के अतिरिक्त दूसरों के लिए भी जीना चाहिए। अपने लिए तो हर कोई जी लेता है। हमारे व्यवहार और हमारी भाषा ही हमें समाज में यथायोग्य स्थान पर प्रतिष्ठित कराते हैं। हमारे सत्कर्म हमें स्वयं यश-कीर्ति दिलाते हैं। निःस्वार्थभाव से की गई परसेवा का प्रतिफल सदैव समाज हितैषी और आत्मसंतुष्टिदायक होता है।
तुलसी-कबीर, राणा-शिवाजी, लक्ष्मीबाई, गांधी, विनोवा भावे, मदर टेरेसा ऐसे ही नाम हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर रहेंगे। हम इतिहास उठाकर देख सकते हैं कि अधिकतर यादगार शख्सियतें सम्पन्नता या महलों में पैदा नहीं हुईं और पैदा हुई भी हैं तो शिक्षित होते होते वैभव और कृत्रिम चकाचौंध से निर्लिप्त होती गईं, क्योंकि सच्चरित्र, सद्ज्ञान और शिक्षा आपस में नजदीकियाँ बढ़ाते हैं। वैभव और प्रासाद सदैव आम आदमी को उच्चवर्ग से दूर रखता आया है। हमारा चरित्र और हमारा व्यवहार दिल दुखाने वाला कभी नहीं होना चाहिए। अपनी वाणी और सहयोगी भावना से दूसरों को दी गई छोटी से छोटी खुशी भी आपको चौगनी आत्मसंतुष्टि प्रदान कर सकती है। आप एक बार इस पथ पर कदम बढ़ाएँ तो सही। मुझे विश्वास है कि आपकी जिंदगी में अनेक सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित होने लगेंगे, जिन पर आपको स्वयं विश्वास नहीं होगा। यह एक सच्चाई है कि नजदीकियों से गुणों का आदान-प्रदान होता है। हम अच्छाई के निकट रहेंगे तो अच्छे बनेंगे। बुराई के निकट रहेंगे तो बुरे बनेंगे। हम-आप जब अपनी स्मृति पर जोर डालते हैं तो बुरे लोगों की बजाए जेहन में अच्छे लोग ज्यादा आते हैं। सीधी सी बात है बुरे लोगों को कोई भी याद नहीं रखना चाहता। बुरे लोग केवल उदाहरण देने हेतु ही याद रखे जाते हैं। हमारा ध्येय स्पष्ट है कि सच्चाई, परोपकार और सौहार्द की दिशा में बढ़ाए गए कदम हमें आदर्श की ओर ले जाएँगे।
भातुकली हा शब्द ऐकताच आलं ना हसू ओठांवर आणि डोळ्यासमोर आलं की नाही बालपण?
किती गंमत असते नाही का ती मांडलेली भातुकली आपल्या डोळ्यासमोरून अशी सरकन जाते आणि जुन्या आठवणींना परत उजाळा देऊन जाते आणि काही काळ का होईना आपण त्या सुखद आठवणींमधे पार हरवून जातो. परत मांडावी सारखी वाटतात ती खेळणी आणि परत खेळावा सारखा वाटतो तो खेळ.
ती सुबक, सुंदर भांडी, काचेची कप बशी, रंगीत कळशी, ते छोटेसे पोळपाट लाटणे, ती इवलीशी खिसणी, छोटासा मिक्सर, ते चमचे, झारे, बापरे!!! केवढी ती भांडी.
हा खेळ खेळताना आपण इतके कष्ट घेऊन त्याची सुबक मांडणी करतो जणू खरा संसार थाटला आहे. मांडणी तरी झाली पण आता तो खेळण्यासाठी किराणा सामान हवं की. मग सुरू होतो आईला लाडीगोडी लावून तो मिळवण्याचा कार्यक्रम ज्यात आपण यशस्वी होतो. आता आई सारखं दिसायला हवं ना मग घेतो एखादी ओढणी गुंडाळून आणि साडी म्हणून आणि सुरू होतो एकदा स्वयंपाक.
लगबगीने कळशी भरली जाते. आई कडून मिळालेले दाणे, गूळ, चिंच, तिखट, मीठ, पोहे, चुरमुरे, थोडं दाण्याचे कूट आणि हट्टाने घेतलेली थोडी मळलेली कणीक कसं जागच्या जागी सजते.
प्रथम काय, तर काय करायचे हे न सुचल्यामुळे चहाचे आधण चढते आणि हा चहा प्यायला देण्यासाठी पहिला बकरा कोण तर अर्थात आपल्या हक्काचा बाबा,आणि तेही , तो चहा पिऊन म्हणतात वा काय फक्कड झाला आहे ग खूप मस्त अगदी आई सारखा. आता रोज तूच देत जा मला चहा करून. मग काय हे वाक्य ऐकल्यावर आपला आनंद द्विगुणित झालेला असतो. आता पुढे काय तर कढईत गरम पोहे शिजतात आणि ते कच्चे पोहे आता आजी, आजोबांच्या वाट्याला येतात. ते ही दोघ ते पोहे खाऊन इतके सुखावतात जणू नातीच्या हातचे खरे खरे गरम पोहे खात आहेत त्यांची शाबासकी मिळवून सुरू होतो खरा स्वयंपाक.
इवल्याश्या पोळपाटावर उमटू लागतात वेगवेगळे नकाशे, दाण्यात गूळ भरून भरून छान लाडू तयार होतात, पाण्यात तिखट मीठ घालून बनते तिखट आमटी, खोट्या कुकर मधे होतो चुरमुर्यांचा भात, आणि दाण्याच्या कुटाची चटणी अश्या नाना पाककृतीने सजते इवलेसे पान. आता हे सारे पहिले द्यायचे कोणाला? अरे अर्थातच आपल्या बंधुरायांना.
पण इतके सारे होई पर्यंत आईचा स्वयंपाक तयार असतो आणि आतून हाक येतेच चला जेवायला पान वाढलेली आहेत. की लगेच आपणही म्हणतो माझाही तयार आहे स्वयंपाक आज सगळ्यांनी मी केलेलेच जेवायचे आहे.
बाबा तर तयारच असतो लेकीच्या हातचे सुग्रास जेवायला. आणी बिचारा ती कच्ची पोळी, ती तिखट आमटी खाऊन सुद्धा तृप्तीची ढेकर देत म्हणतो वा खूप फक्कड झाला आहे हो सगळा स्वयंपाक. ते त्यांच्या चेहर्यावरचे भाव पाहून आई ही सुखावलेली असते आणि लेकीचा ऊर आनंदाने भरून आलेला असतो जणू आपण विश्वविक्रम केलेला आहे.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )
(आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी के उत्कृष्ट साहित्य को साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 77 ☆
☆ आलेख – सहजीवन ☆
आमचं लग्न झालं तेव्हा मी वीस वर्षांची आणि हे बावीस वर्षाचे होते. वडिलोपार्जित दुग्ध व्यवसाय-म्हशींचे गोठे आणि गावाला शेती होती.ह्यांचा जन्म पुण्यातला,पदवीधर असूनही विचारसरणी सनातन- “न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति” अशी मनुवादी! खुप जुन्या वळणाचं सासर, एकत्र कुटुंब, सणवार, कुळधर्म, कुळाचार, रांधा,वाढा उष्टी काढा हेच आयुष्य असायला हवं होतं, पण मी त्यात रमले नाही.
बाहेर जायला विरोध होता, कविता करणं, ते सादर करायला बाहेर जाणं एकूणच उंबरठा ओलांडून बाहेर काही करणं निषिध्द !
प्रतिकुल परिस्थितीत बाहेर पडले,कुणीही प्रोत्साहन दिलं नाही तरी लग्नानंतर चौदा वर्षांनी एम.ए.ला अॅडमिशन घेतलं ….पुढे पीएचडी चं रजिस्ट्रेशन केलं…पूर्ण करू शकले नाही. स्वतःच्या अपयशाचं खापर मी इतर कोणावर फोडत नाही. नवरा डाॅमिनेटिंग नेचरचा आहे पण माझी जिद्द ही कमी पडली.
पण आज या वयात माझा नवरा आजारपणात माझी जी काळजी घेतो त्याला तोड नाही…..
चाकोरीबाहेरचे अनुभव घेतले, चारभिंती बाहेर पडले खुप प्रतिकुल परिस्थितीत थोडं मुक्त होता आलं याचं आज समाधान आहे.
आणि पतंगासारखं काही काळ आकाशात उंच उडता आलं हा आनंद, पतंगांचा मांजा कुणी पुरूष बाप, भाऊ, नवरा नसताना नियतीने ती दोर कवितेच्या रूपाने पाठवली. जो मिल गया उसीको मुकद्दर समझ लिया ।
ते पदवीधर मी पदव्युत्तर शिक्षण घेतलं पण तो प्रश्न कधी आला नाही आमच्यात! प्रोत्साहन दिले नाही तरी शिक्षणाला विरोधही झाला नाही फारसा!
एका विशिष्ट वयानंतर “अभिमान” ची संकल्पना नाहीशी होते, कधीच पतंगाची दोर न बनलेल्या जोडीदाराविषयीही कृतज्ञताच वाटू लागते!
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम ‘विष के तुल्य प्रतीत होता’ है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है॥36-37॥
Now hear from Me, O Arjuna, of the threefold pleasure, in which one rejoices by practice and surely comes to the end of pain!
That which is like poison at first but in the end like nectar-that pleasure is declared to be Sattwic, born of the purity of one’s own mind due to Self-realisation.
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय 18
(सन्यास योग)
(कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन)
(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥
जो अज्ञानी अधर्म को ,भी कहते हैं धर्म
वह है तामस बुद्धि जो ,करती उलटा अर्थ।।32।।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है॥32॥
That which, enveloped in darkness, views Adharma as Dharma and all things
perverted-that intellect, O Arjuna, is called Tamasic!
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
आपल्याला वाटेल लहान जीवांना कसला आलाय कठीण प्रसंग?लहान मुलं म्हणजे देवाघरची फुलं. आई बाबा, आजी आजोबा यांच्या प्रेमाच्या मऊ उबे मध्ये वाढत असताना त्यांना कशाचा होणार त्रास?पण आलीकडे ही प्रेमाची मऊ दुलई फार लवकर काढली जाते आणि पाळणाघर नावाच्या वेगळ्याच शिस्तीच्या धगे ला त्यांना सामोरे जावे लागते, इच्छा असो वा नसो, ही परिस्थिती ते वाढणारे मूल बदलू शकत नाही. त्या नवीन वातावरणामध्ये ते रमले तर ठीक, नाहीतर अशाही फुलपाखराचे सुरवंट व्हायला वेळ लागत नाही.
तीच परिस्थिती शालेय जीवनामध्ये. खरेतर लहान मुलांना शिकायला खूपच आवडते. त्यांची इवलीशी नजर बघा, नव्याचा शोध घेत असते. एखादी गोष्ट त्यांना आवडली की त्यांच्या डोळ्यांमध्ये आपल्याला ती चमक दिसते. त्यांचा मेंदू विलक्षण तजेलदार असतो. स्पंज जशा पाणी शोषून घेतो, तसा त्यांचा मेंदू नवनवीन गोष्टी स्वीकारायला आसुसलेला असतो. अशावेळी या मेंदूला योग्य ते खाद्य मिळाले तर ठीक. पण जर का कु संगत लाभली तर आयुष्याचा सुरवंट झालाच म्हणून समजा. अशावेळी त्याला त्यामधून बाहेर काढण्याची जबाबदारी सर्वस्वी पालकांची, आजूबाजूच्या लोकांची आणि त्याच्या शिक्षकांची असते.
शाळेच्या इयत्ता जसजशा वाढत जातात, तस-तशी त्यांची निरीक्षणशक्ती वाढते. त्या निरीक्षणाचे अनुकरण करण्याचे ते निरागस वय. घरी घरी आई बाबा जसे वागतात, बोलतात, ते ही मुले बरोबर टिपतात आणि त्याप्रमाणे त्यांचे वागणे असते. एखादेवेळी आईने एखादा खोटा शब्द बोललेला त्यांच्या लक्षात आले, तर ते नेमकेपणाने लक्षात ठेवतात. आणि आपल्या सोयीसाठी खोटे कसे बोलावे, वागावे हे हेरतात आणि मोठ्यांच्या नकळत त्यांच्या गाडीचा ट्रॅक बदलत जातो. हे असे न होण्यासाठी योग्य आणि सचोटीने वागण्याची जबाबदारी असते, ती घरातील आजूबाजूच्या वयाने मोठे असलेल्या थोरांची !
उमलत्या वयातील मुला-मुलींची आयुष्याकडे बघण्याची उत्सुकता पराकोटीची वाढलेली असते. आत्तापर्यंतचा मित्र किंवा काल पर्यंत ची मैत्रीण यांच्या वागण्या-बोलण्यात झाले ला बदलत्यांना फार लवकर समजतो. पण कारण समजत नाही. मैत्री तर हवीहवीशी असते, पण अचानक निर्माण झालेली दरी कासावीस करते. शाळेमध्ये अभ्यासाचा ताण वाढत जातो, अनेक नवनवीन गोष्टी समजायला लागतात. समाजा मधल्या गोष्टींची जाणीव व्हायला लागते. भोवताली घडते ते सारेच चांगले वाटायला लागते. एखादी चुकीची गोष्ट आई-बाबांनी, शिक्षकांनी दाखवून दिली, समजवण्याचा प्रयत्न केला तर तो अपमान वाटतो. त्यांच्याशी बोलणेच नको इथपर्यंत मजल जाते. त्यांचा सहवास टाळावा असा वाटतो. अशा या संवेदनशील वयामध्ये सच्चे मित्र मैत्रिणी खूप उपयोगाचे अन महत्त्वाचे ठरतात.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 65 ☆
☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆
‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… अहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।
‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।
‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’…अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।
‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा- स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर, सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।
‘सपने देखो, ज़िद करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग- दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।
आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर, नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।
‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।
मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।