हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है पहली बेहतरीन कहानी – ग़ालिब का दोस्त )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

मशहूर शायर और फ़िल्मकार गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब की वीरान हवेली को उनका स्मारक बनाया है। उन्होंने इस हवेली का पता शायराना अन्दाज़ में कुछ यूँ बयाँ किया हैं।

बल्ली-मारां  के  मोहल्ले  की  वो पेचीदा  दलीलों की  सी  गलियाँ, सामने  टाल  की  नुक्कड़  पे बटेरों  के  क़सीदे,

गुड़गुड़ाती  हुई  पान  की  पीकों में  वो  दाद  वो  वाह-वाह, चंद  दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे,

एक बकरी के मिम्याने  की  आवाज़  और  धुँदलाई  हुई  शाम के  बे-नूर  अँधेरे  साए  दीवारों  से  मुँह  जोड़  के चलते  हैं  यहाँ। चूड़ी-वालान  कै  कटरे  की  बड़ी-बी  जैसे  अपनी  बुझती  हुई  आँखों  से  दरवाज़े टटोले,

इसी  बे-नूर  अँधेरी  सी गली-क़ासिम  से एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ  होती है, एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है, असदुल्लाह-ख़ाँ-ग़ालिब  का  पता  मिलता  है।

जब ग़ालिब ज़िंदा थे उस ज़माने की बात है। उनके उसी घर के दरवाज़े के सामने एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी। उसमें से बंसीधर उतरे, आगे से कोचवान बिद्दु मियाँ हाँकनी को बग़ल में खोंसकर कूदा। बंसीधर यात्रा की थकान को अंगड़ाई से उतार रहे थे तभी घर का मुआयना करते हुए बिद्दु मियाँ ने हैरानी से पूछा – “लाला जी, आपके दोस्त असद इस घर में रहते हैं क्या?”

बंसीधर ने उपेक्षा पूर्वक “हाँ, यही रहते हैं।” कहते हुए, उसे घोड़ागाड़ी से सब्ज़ियों का टोकरा उतारने को कहा। बिद्दु मियाँ टोकरा उतारते हुए भी घर को तिरछी निगाह से देखते बोला “यह मकान उनके आगरा वाले “कलाँ महल” की तुलना में बहुत छोटा नहीं लगता?”

बंसीधर – “क्या तुम मिर्ज़ा को आगरा से जानते हो”

बिद्दु मियाँ – “हाँ लाला जी, जब आप दोनों मिलकर राजा बलवंत सिंह की पतंग काटते थे, तब हम दोस्तों के साथ मँज्जा लूटने का लुत्फ़ उठाया करते थे।”

तब तक मिर्ज़ा के घर की नौकरानी वफ़ादार दरवाज़ा खोलकर बंसीधर के नज़दीक पहुँच दुआ सलाम करके खड़ी हो गई तो बंसीधर ने पूछा- क्या मिर्ज़ा घर पर हैं? वफ़ादार ने बताया वे गुसलखाने में मशगूल हैं। बंसीधर ने हिदायत दी “ठीक है, यह टोकरा अंदर रखवा लो और हमारी भाभी जान को हमारे आने की खबर कर दो।”

थोड़ी देर में मिर्ज़ा की बेग़म उमराव जान उदासी के झीने नक़ाब के पीछे से दरवाज़े पर आकर बोलीं – “आदाब, लाला जी भाई”

बंसीधर – “आदाब भाभी जान, आप कैसी हैं?”

बेग़म – “अल्लाह का करम है, भाई साहब।”

बंसीधर – “और असद कैसा है, क्या वह दिल्ली से दिलजोई में इतना भी भूल गया कि आगरा में उसको दिल से चाहने वाला बचपन का एक दोस्त भी रहता है।”

बेग़म – “नहीं ऐसा नहीं है भाई साहब, अभी कल ही वे बचपन के क़िस्से सुनाकर आपको बहुत याद कर रहे थे।”

बंसीधर – “और बताइए, असद की क़िले में दाख़िले और दरबार में हाज़िरी की कोई जुगत बनी क्या?”

बेग़म ने कोई जबाव  नहीं दिया, वे चुपचाप दरवाज़े पर चमगादड़ से लटके फटेहाल पर्दे के किनारे को देखती खड़ी रहीं। बंशीधर ने पूछा “क्या बात है, भाभी जान, आपकी चुप्पी नाख़ुशी के साये में लिपटी है।”

बेग़म – “आप अपने दोस्त के अक्खड़ मिज़ाज और ज़िद से वाक़िफ़ ही हैं, उन्हें क़र्ज़ लेकर ज़िंदगी गुज़ारने में कोई परेशानी नहीं लेकिन किसी के नीचे काम करने में दिक्कत है। इतना काफ़ी नहीं था तो ऊपर से जुए और शराब की लत के खर्चे। क्या यह सब ठीक है?”

बंशीधर अपने दोस्त की आदतों को जानते थे, वे ज़मीन में आँखें गड़ाये खड़े रहे।

बेग़म थोड़ी देर रुककर बोलीं – “आप उनके बचपन के दोस्त हैं, दिल के मलाल आपसे भी न कहें तो किससे कहें, जब तक हमारे अब्बा मियाँ ज़िंदा थे, ज़्यादा दिक्कत नहीं थी।”

तभी मिर्ज़ा ग़ालिब पहले माले का दरवाज़ा खोलकर नमूदार हुए और बालकनी से नीचे झांकते हुए मुस्करा कर बोले : “बंशी, तुम फ़रियादी को सुन चुके हो तो इस आरोपी को ये बताओ कहाँ थे, इतने दिनों ?”

बंसीधर – “अच्छा, तुम तो जैसे रोज़ आगरा मिलने आते रहे हो। मैं तो चार महीनों में दो बार आ चुका हूँ।”

असद : “और हर बार यह सब लौकी भाजी क्यों भर लाते हो, भाई।”

बंसीधर: “तुम्हारे दिमाग़  की तर्ज़ पर साल के बारह महीनों तो आम नहीं बौराता न।”

बेग़म दोनों दोस्तों को घुलते देख पर्दे के पीछे गुम हो गईं। मिर्ज़ा ने बंशीधर को ऊपर आने का इशारा किया। बंशीधर सीढ़ी चढ़कर मिर्ज़ा से गले मिले। एक दूसरे के कंधों को पकड़ कर देर तक एक दूसरे को देखते रहे। दिलों की प्यास बरास्ते नज़र बुझाकर दोनों दीवान के दो छोर पकड़ मसनदों के सहारे एक दूसरे की तरफ़ मुँह करके बैठ गए। तब तक घर का नौकर कल्लू एक तश्तरी में भुने काजू-पिश्ता और रूह अफ़जा शरबत से भरे दो गिलास रख गया। शरबत की चुस्कियों के बीच यारों में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा।

बंशीधर – “यार असद, भाभी जान की बात पर ध्यान क्यों नहीं देते? वो सही कह रहीं हैं। थोड़ा समय घर के लिए भी निकाला करो, यार।”

असद – “बंशी, हमारा पहला बच्चा गर्भ में ही ख़त्म हो गया और दूसरा पैदाइश के कुछ ही महीनों में हमें छोड़ गया। वह ख़ुदा को मानने वाली जनानी है। हमेशा गोद भरने की अरदास में लगी रहती है। उसका मुरझाया चेहरा मुझ से नहीं देखा जाता है। उसकी आँखों में उठता ग़म का समंदर मेरे अंदर तूफ़ान खड़ा कर देता है।”

बंशीधर – “और तुम्हारी कमाई का कोई ज़रिया बना कि नहीं?”

असद – “कहीं नौकरी का कोई ज़रिया बनता नहीं दिखता। फ़िरंगी क़िले के ओहदेदारों तक की तनख़्वाह और बादशाह तक का वज़ीफ़ा कम करते जा रहे हैं इसलिए क़िले पर भी कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती। फिरंगियों से मिलने वाली पेंशन रुकी या कहो अंग्रेज़ी हुकूमत के खातों में जमा हो रही है।”

बंशीधर – “यार, फिर तुम्हारा समय कैसे कटता है?”

असद – “यार, दिन का कुछ समय चाँदनी चौक पर हाजी मीर की दीनी-इल्मी-अदबी किताबों की दुकान पर सफ़े पलट कर बिताता हूँ, लौटते समय कुछ जुआरियों के अड्डों पर दाव लगते और चाल चलते देखता हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं बचपन से ही दाव बड़े बेहतरीन लगाता हूँ। एक दिन मेरा भी दाव ज़रूर लगेगा, तब मैं सारी रक़म समेट बेगम का दामन भरकर उनकी बलैयाँ लूँगा।”

बंशीधर – “यार, मैंने सोचा था कि जब तुम्हारे ससुर का देहांत हुआ था तब तुम दिल्ली छोड़कर आगरा का रुख़ करोगे, वहाँ कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाती। लेकिन तुम दिल्ली में ही रम गए।”

मिर्ज़ा मसनद पर गर्दन टिकाए कुछ देर सोचते रहे फिर बोले:-

“है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’,

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?”

(अब तो इस शहर से प्रेम करने वाले दुःख की इंतिहा पल रही है। माना कि दिल्ली में रहकर क्या खाएँगे?)

थोड़ी देर बाद ख़ादिम कल्लू दीवान के सामने दस्तरखान बिछा कर दोपहर का खाना ले आया। रोटियों के ढ़ेर के साथ मटनकरी, कबाब, दाल और पीले रंग में पके चावल खाते-खाते  दोनों दोस्त एक घंटा बतियाते रहे, फिर बंशीधर दीवान पर और मिर्ज़ा सामने के कमरे में आराम फ़रमाते ऊँची आवाज़ में बातें करते नींद के झोंके में समा गए।

शाम पाँच बजे दोनों दोस्त उठे। तह किए कपड़े निकाले, इत्र फुलेल से रंग-ओ-बू हो घर से निकल कर गली क़ासिम पर चलते हुए बल्लीमाराँ रास्ते से दाहिनी तरफ़ चाँदनी चौक तरफ़ मुड़ गए। आसमान में हल्की धुँध के साये को मुँह चिढ़ाती रंग बिरंगी पतंगे इठला रही थीं। जामा मस्जिद की मीनारों से मगरिब की अज़ान बुलंद हो रही थी। चलते-चलते सामने मुग़लिया शान का प्रतीक लालक़िला दिखने लगा। मिर्ज़ा को लालक़िला निहारते देख बंशीधर बोले, इसी क़िले की महफ़िल में पहुँचना तुम्हारा ख़्वाब है न, असद।

असद ने हाँ में सर हिलाकर अपनी छड़ी से ज़मीन को सहलाया। दोनों दोस्त चाँदनी चौक पर गर्मागरम केसरिया जलेबियों का रस यारी की चाशनी में लिपटी ऊँगलियों को चाटते रहे, फिर बग़ल वाले दही-बड़े वाले से पाँच-पाँच मुलायम गुल्ले गले के नीचे उतार, यारों का सफ़र वापस क़ासिम गली की तरफ़ मुड़ गया।

दूसरे दिन सुबह कोचवान बिद्दु मियाँ घोड़ागाड़ी सहित मिर्ज़ा के दरवाज़े पर हाज़िर था। दोनों दोस्त नाश्ता निपटाकर मोटे किवाड़ों के कोने खिसकाकर बाहर आए।

असद दोनों हाथ बंशीधर के कंधों पर रखकर बोले – “यार, ऐसे ही आ ज़ाया करो लाला।”

बंशीधर : “यार, आगरा भी कोई समंदर किनारे नहीं है, मैं तो छै महीनों में तशरीफ़ ले ही आता हूँ। तुमको तो एक अरसा हुआ आगरा में नमूदार हुए। एक मुद्दत हुई तुम्हें मेह्मां किए हुए। हाँ, तुम्हारी यह रक़म तुम्हारे छोटे भाई को पहुँचा दूँगा।”

असद – “हाँ! उसे भी देखे एक अरसा हो चला है। यहाँ दिल्ली में गुज़ारे का ज़रिया ज़म जाए, तो आगरा आऊँगा।”

बंशीधर – “असद, एक बात कहूँ बुरा न मानना। ईश्वर की कृपा से मेरी माली हालत बहुत अच्छी है। मैं कुछ रक़म लाया हूँ। तुम्हारा इंतज़ाम होने तक रख लो, बाद में लौटा देना।”

असद – “छोड़ यार, तुझसे पतंग-हिचका-धागे के वास्ते बचपन में रुपए उधार लिए थे, वे अभी तक मयसूद  न जाने कितने चढ़ चुके होंगे। इतना मत कर कि वक्त-ए-रूखसत जनाजा इतना भारी हो जाए कि पालकी बरदार उसे उठा भी सकें, और फिर बाज़ार के सूदख़ोरों का धंधा चौपट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।”

बंशीधर – “जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बात तुम्हारी ख़ुद्दारी की है, मैं जानता हूँ, तुम बचपन से ऐसे ही हो।”

गले मिलकर दोनों दोस्त बिदा हुए। आँखों से ओझल होने तक एक दूसरे को देखते रहे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – अंगूठा ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – अंगूठा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

पिता जी नम्बरदार थे । कोर्ट कचहरी गवाही देने या तस्दीक करने जाते । कभी कभार मैं भी जाता । बीमार होने के कारण साबूदाने की खीर लेकर । तहसील की दीवार पर जामुनी रंग के अंगूठे ही अंगूठे बने देखकर पूछा -यह क्या है ? पिता जी ने बताया -लोग अनपढ़ हैं और जमीन बेचने के बाद स्याही वाले पैड से अंगूठा लगाते हैं । फिर स्याही मिटाने के लिए इस दीवार पर अंगूठा रगड़ कर चले जाते हैं ।

बालमन ने प्रण लिया था कि मैं अपनी जमीन नहीं बेचूंगा । मैं ऐसा अंगूठा कभी नहीं लगाऊंगा । पचास साल तक यह प्रण निभाया । पर कुछ मजबूरी , कुछ गांव से दूरी और बेटियों की शादी में आखिर जमीन बेचनी ही पडी । अब बेशक मैं पढा लिखा हूं पर किसान की अंगूठा लगाने की मजबूरिया इसमें छिपी हैं । आखिर किसान का अंगूठा कैसे लग ही जाता है या घुटना टेक ही देता है ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ?

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका था।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 – लघुकथा – क्षमादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा  “क्षमादान ।  बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 82 ☆

? लघुकथा – क्षमादान ?

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।

आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।

परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।

उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।

स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार  पसंद आएगा।”  वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।

उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”

“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”

वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पड़ोस ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा कहानी ☆ पड़ोस ☆ श्री कमलेश भारतीय☆ 

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी  की आज ही पूरी हुई ताज़ा कहानी  जिसे उन्होंने  ‘पाठक मंच’ पर आज ही साझा किया है, उस कहानी को हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं।  संभवतः यह प्रयोग डिजिटल माध्यम में ही संभव है। )

पड़ोस का मकान बिक गया।

यह कोई ऐसी बड़ी बात तो नहीं पर मन बहुत उदास। क्यों? अरे यार। तुम भी। यहां देश का पता नहीं क्या क्या बिक गया और तब तो विचलित नहीं हुए। पड़ोस का एक छोटा सा मकान बिक गया और रोने को हो आए? हद है। देश में क्या क्या नहीं बिक रहा और इस छोटे से, बेढब से मकान के बिक जाने पर आंखों में आंसू? लानत है।

लगभग चौबीस साल पहले इस शहर में आया था ट्रांस्फर होकर। तब किरायेदार था, फिर खरीद लिया यही मकान और अपने देस को छोड़ कर यहीं का होकर रह गया। परदेस को अपना देस मान इससे लगाव कर लिया, दिल लगा लिया। यह पड़ोसी अपने से लगने लगे।

पड़ोस के इस घर में दो भाई और उनके प्यारे प्यारे बच्चे रहते थे। यों दो भाइयों की बात तो ऐसे कर रहा हूं जैसे विभाजन के बाद भारत पाकिस्तान की बात हो। नहीं यार। इतनी दूर की उड़ान क्यों? पर यह सच जरूर कि जमाने की हवा के मुताबिक दोनों भाई अलग अलग रहते थे। मैना सी एक प्यारी सी बच्ची घर आंगन में फुदकती और चहकती रहती। शांति और सौहार्द्र की तरह। और कभी कभी लड़ने झगड़ने की आवाजें भी आतीं जैसे भारत पाक में छिटपुट लड़ाइयां बाॅर्डर  पर होती रहती हैं। यह लड़ाई मां को रखने को लेकर होती। मां बेचारी दोनों बेटों में बंटी रहती। ऐसी कीमती न थी कि दोनों में से कोई उसे रखने को राजी होता पर आंगन एक था और मां एक थी। किसी को तो रखनी ही पड़ती। मां बूढ़ी हो चुकी थी और चलने फिरने से लाचार भी। वाॅकर लेकर चलती और कभी कभी हमारे आंगन में भी आ जाती, छोटी सी पोती के सहारे के साथ। अपना दुख दर्द बयान कर जाती। मुझे संभालते नहीं, बल्र्कि रखना ही नहीं चाहते। क्या करूं? कहां जाऊं? बोझ सी लगती हूं दोनों बेटों को। बहुओं की चिख चिख मुझे लेकर ही होती है। बेचारे सच्चे हैं क्योंकि छोटे छोटे काम धंधे हैं और बच्चे हैं। ऐसे में मेरी दाल रोटी भी भारी लगे तो क्यों न लगे? वैसे मैं स्वेटर बुन लेती हूं। आप बुनवा लो तो कुछ मेरी रोटी भारी न लगे। खैर। हम भी अपनी मां खो चुके थे। परदेस में वह मां जैसी लगने लगी और जरूरत न होते हुए भी कुछ स्वेटर बनवा लिए। मां के चेहरे पर खुशी आ जाती। जब वे मेरा नाप देखने को अधबुना स्वेटर छाती से लगातीं तो लगता कि मां ने गले से लगा लिया हो। मेरी मां भी वैसे क्रोशिया बुन लेती थीं और सौगात में बना बना कर ऐसी चीज़ें देती रहती थीं। वैसे हमारे घर की कहानी भी इससे अलग कहां थी? हम तीन भाई थे और मां किसके पास रहे, यह समस्या रहती थी। तीनों अलग अलग शहरों में और दूर दूर। मां की समस्या यह कि वे अपना पुश्तैनी घर छोड़ने को तैयार नहीं थीं। वे जब मेरे पास आतीं तो ये दोनों मांएं अपने अपने बच्चों के व्यवहार पर खूब बतियातीं। जब मेरी मां इस दुनिया में नहीं रही तब पड़ोस वाली मां बहुत प्यारी और अपनी सी लगने लगी।

खैर। पड़ोस के दोनों बेटे छोटे छोटे काम धंधे करते और कभी बेरोजगारी भी काटते और फिर कहीं नये काम पे लग जाते। सुबह सवेरे शेव करते समय दोनों घरों के साथ लगती छोटी सी दीवार पर शीशा टिका एक बेटा जब शेव करने लगता तो बातचीत भी हो जाती और वह कुछ न कुछ नयी जानकारियां देता रहता। कैसे महंगाई डायन उन्हें डरा रही थी। बच्चे धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। ज्यादा पढ़ाने की हिम्मत न थी। फिर भी लड़की को पढ़ा रहे थे ताकि उसे ठीक से घरबार मिले। कभी किसी आसपास के शहर में भी काम करने जाते। ऐसे में एक बेटा बीमार हुआ और बड़े अस्पताल में भर्ती किया गया। सुबह वही शेव करने के समय पर मुलाकात न होने पर पता चला। हम पति पत्नी ने पड़ोसी का फर्ज निभाते शाम को अस्पताल जाकर खोज खबर लेने की सोची। गये भी और यह भी सोचा कि कुछ मदद की जाये। हमने दबी जुबान से कही यह बात उनकी पत्नी को लेकिन इतनी स्वाभिमानी कि मदद मंजूर ही नहीं की। यहां तक कह दिया कि जब ठीक हो जाएं और लौटा सको तो लौटा देना, फिलहाल रख लो। वह खुद्दार स्त्री नही मानी तो हमारे मन में उसी प्रति इज्जत और बढ़ गयी । इंसान पैसे की कमी से भी टूटता नहीं। यह खुद्दारी बहुत खुश कर गयी।

……….

उस खुद्दार औरत का नाम गुड्डी था। वह जिस भी हाल में थी, उसी में खुश रहती। जैसा भी पुराना घर था, उसे साफ सुथरा रखती। सुबह सवेरे  उठकर बुहारती और आंगन धो लेती।   एक छोटी सी क्यारी में लगाये फूल पौधो को पानी देती। फिर पति के काम पर चले जाने के बाद सिलाई मशीन चलाती रहती ताकि कुछ पैसे कमा सके।

कुछ घर छोड़कर जब एक ठीक ठाक से घर की महिला ने क्रैच खोला तो गुड्डी को सहायिका की जगह रख लिया। इस तरह गुड्डी के सिलाई मशीन चलाने की आवाज़ कम हो गयी।

हर आदमी छोटा हो या बड़ा सीखता है और कुछ काम बढ़ाना चाहता है। लगभग एक सात तक क्रैच में रहने के बाद गुड्डी ऊब गयी या सारी बारीकी समझ गयी और उसने वहां काम छोड़ दिया। इधर हमारे घर एक काम वाली आई तो उसकी नन्ही सी बच्ची कहां रहे? सो गुड्डी ने मौके पर चौका मारा और उस बच्ची को संभालने का जिम्मा ले लिया यानी अपना क्रैच खोलने का सपना देखा। कुछ माह वही इकलौती बच्ची उसके क्रैच की शान बनी रही। गुड्डी उसे कागज़ पर लिखना पढ़ना भी सिखाती। कुछ माह बाद जब वह कामवाली हमारा काम छोड़ गयी तो गुड्डी का क्रैच भी बंद हो गया और उसकी सिलाई मशीन फिर चलने लगी।

……….

अपने क्रैच का सपना टूटने के बाद गुड्डी ने एक और काम करने की सोची। जैसे उसके घर के सामने वाली खट्टर आंटी किट्टी के बहाने कमेटी निकालती थी और इन दिनों उसने वह काम बंद कर रखा था। इसी काम को गुड्डी ने शुरू करने का फैसला लिया और बाकायदा एक छोटी सी मीटिंग आसपास के घरों की महिलाओं की बुलाई अपने छोटे से आंगन में। सभी आईं और वह महिला भी आई जो इस काम को छोड चुकी थी। फैसला हो गया कि कमेटी चलेगी पर गुड्डी अपनी औकात जानती थी। इसलिए किट्टी नहीं होगी। चाय का एक प्याला जरूर अपनी ओर से पिला देने का वादा किया जिसे सबने खुशी खुशी मान लिया।

इस तरह मुश्किल से दो माह गुजरे होगे कि कमेटी और किट्टी का एकसाथ काम छोड़ चुकी तजुर्बेकार महिला ने अपना हिस्सा वापस मांग लिया। गुड्डी ने पूछा तो कहने लगी -मज़ा कोई नहीं। न कोई गेम, न खाना पीना। फिर क्या करना इस किट्टी और कमेटी का? इस तरह उस औरत ने गुड्डी की छोटी सी कोशिश को तारपीडो कर दिया। बड़ी मुश्किल से बाकी महिलाओं को मना कर गुड्डी ने एक साल निकाला और फिर इस काम से भी तौबा कर ली। क्या पड़ोस इतनी मदद भी न कर सका कि एक छोटा सा सपना पूरा कर लेने देता? सोचता रहा पर मेरे सोचने से क्या होता? छोटे आदमी के सपने बड़े लोग अक्सर तोड़ देते हैं। गुड्डी ने फिर सिलाई मशीन के साथ अपना सफर शुरू किया।

……….

स्वच्छता अभियान को लेकर आस पड़ोस बड़ा फिक्रमंद रहता। यानी जरा सा कूड़ा कचरा देखा नहीं तो हाय तौबा शुरू हो जाती। सब ऐसे जाहिर करते जैसे उनसे बेहतर कोई स्वच्छता प्रेमी नहीं। फिर भी गुड्ढी के घर की दीवार के आसपास कूड़े के ढेर लगे रहते। बेचारी कुछ दिन बर्दाश्त करती रही। आखिर संकोच छोड़ सामने आई और उसने दीवार पर लिख कर लगा दिया -यहां कूड़ा फेंकना मना है। अब बताओ अपने समाज में कौन परवाह करता है ऐसे नोटिसों की? यहां तो कितने नोटिस अपना ही मज़ाक उड़ाते दिखते हैं। सो वही हश्र गुड्डी के नोटिस का हुआ। इस पर गुड्डी ने कमर कसी और नज़र रखने लगी कि कौन कूड़ा फेंकने आता है चोरी चोरी। हंगामा कर दिया मासूम सी दिखने वाली गुड्डी ने। जरा लिहाज नहीं किया किसी का और इस तरह गुड्डी ने साबित किया कि चाहे छोटे वर्ग के लोग हों वे लेकिन अपने हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। यह गुड्डी का एक नया चेहरा सामने आया था।

……….

समय बीतता गया। पड़ोस के परिवार के बच्चे बड़े होने लगे और अपने बड़ों की तरह घर के हालात देख कर पढ़ाई छोड़ कर दुकानों पर सेल्समेन लग गये। गुड्डी का बेटा अभी छोटा था और वह हमारे दोहिते की उम्र का था। दोनों में दोस्ती हो गयी। हमारा दोहिता और वह एक दूसरे के फैन बन गये। न उसे कुछ सुहाता अपने दोस्त के बिना और न हमारे दोहिते को कुछ अच्छा लगता अपने दोस्त के बिना। वे ड्राइंग रूम में बैठे कैरम बोर्ड खेलते रहते और उनकी हंसी सारे घर में खुशबू की तरह फैलती रहती।

दीवाली आई तो कुछ दिन पहले से हमारा दोहिता अपनी मां के पीछे पड़ा  रहता कि पटाखे लेकर दो। बेटी उसे लेकर बाजार जाती और पटाखे ला देती। अब दोहिते को तो साथ चाहिए था पड़ोस वाले दोस्त का। वह सकुचाता हुआ आता और वैसे ही सकुचाता चला जाता। पटाखे छोड़ने में कोई उत्साह न दिखाता। तब दोहिते ने पूछ ही लिया-नितिन। क्या बात है तुम्हें पटाखे छोड़ने की खुशी नहीं होती?

-होती है पर मेरे पास पैसे नहीं कि खरीद सकूं। दूसरे के पैसे के पटाखे छोड़ने में कैसी खुशी?

यह बात दोहिते आर्यन अपनी मां को बताई और कहा-मम्मी। आप नितिन को भी पटाखे ले दो न।

सच। इस बात से जो पड़ोस के बीच एक आर्थिक खाई थी उसे दोहिते व नितिन की दोस्ती ने उजागर कर दिया। सबसे बड़ी बात कि दीवाली पर नितिन घर से ही नहीं निकला।

……….

आखिर गुड्डी के जेठ और पति ने यह पार्टी मकान बेचने का फैसला कर लिया। निकलते निकलते बात मुझ तक आई। मैं गुड्डी के पति से मिला और पूछा कि क्या बात हुई? हमारा पड़ोस या यह मोहल्ला अच्छा नहीं रहा?

-नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।

-फिर?

-हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं। बेटी तो ब्याह दी। तब आप भी आए थे लेकिन बेटों की शादियों के बाद इस छोटे से घर में बहुएं रहेंगी कहां?

-अरे

– तो बनवा लेना एक दो कमरे।

-नहीं जी। इतनी हिम्मत कहां? मुश्किल से दिल रोटी चला रहे हैं।यह क्या कम है।

-मकान बेच दोगे तो किराया कहां से भर दोगे?

-जी नहीं। मकान इस एरिये में महंगा बिकेगा क्योंकि पाॅश और शरीरों का एरिया है। हम किसी बस्ती मे कम पैसों में अपने अपने नये बड़े मकान ले लेंगे।

मैं एकदम चौंका। और सहज ही किसान से मजदूर बन जाने की नौबत कैसे आती है, यह बात समझ आई। ये लोग बच्चों के भविष्य की खातिर एक पाॅश एरिये को छोड़ कर किसी छोटी सी बस्ती में रहने के गये। जहां अगली पीढी का क्या होगा? कौन देखता और सोचता है …..

मैं खाली मकान के लिए दो बूंद आंसुओं से जैसे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ…..

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 63 ☆ नया पाठ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं अनुकरणीय लघुकथा  नया पाठ। यह लघुकथा हमें वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुलाने की प्रेरणा देती हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस अनुकरणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 63 ☆

☆ नया पाठ ☆

बचपन से ही वह सुनती आ रही थी कि ’तुम लडकी हो, तुम्हें ऐसे बैठना है, ऐसे कपडे पहनने हैं, घर के काम सीखने हैं’और भी ना जाने क्या – क्या। कान पक गए थे उसके यह सब सुनते – सुनते। ’सारी सीख बस मेरे लिए ही है, भैया को कुछ नहीं कहता कोई’ – बडी नाराजगी थी उसे।

आज बच्चों को आपस में झगडते देखकर सारी बातें फिर से याद आ गईं। झगडा खाने के बर्तन उठाने को लेकर हो रहा था। ‘माँ देखो मीता अपनी प्लेट नहीं उठा रही है। उसे तो मेरा काम करना चाहिए, बडा भाई हूँ ना उसका।‘ तो – उसने गुस्से से देखा। ‘बडा भाई छोटी बहन के काम नहीं कर सकता क्या? जब मीता तेरा काम करती है तब? चल बर्तन उठा मीता के।‘

वह वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुला देना चाहती थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79 – हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- धुआंधार जलप्रपात। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79☆

☆ हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆

संगमरमर एक सफेद व मटमैले रंग का मार्बल होता है। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 20 किलोमीटर दूर भेड़ाघाट में इसी तरह के मार्बल पहाड़ियों के बीच नर्मदा नदी बहती है। नदी के दोनों किनारों की ऊंचाई 200 फीट के लगभग है।

भेड़ाघाट का दृश्य रात और दिन में अलग-अलग रूप में दर्शनीय होता है। रात में चांदनी जब सफेद और मटमैले संगमरमर के साथ नर्मदा नदी में गिरती है तो अद्भुत बिंब निर्मित करती है। इस कारण चांदनी रात के समय में नर्मदा नदी में नौकायन करना अद्भुत व रोमांचक होता है।

दिन में सूर्य की किरणें नर्मदा नदी के साथ-साथ संगमरमर की चट्टानों पर अद्भुत बिंब निर्मित करती है। सूर्य की रोशनी में नहाई नर्मदा नदी और संगमरमर की उचित चट्टानों के बीच नौकायन इस मज़े को दुगुणीत कर देती है।

इसी नदी पर एक प्राकृतिक धुआंधार जलप्रपात बना हुआ है। इस प्रपात में ऊंचाई से गिरता हुआ पानी धुएं के मानिंद   वातावरण में फैल कर अद्भुत दृश्य निर्मित करता है। यहां से नर्मदा नदी को निहारने का रोमांच और आनंद ओर बढ़ जाता है। इसी दृश्य प्रभाव के कारण इसका नाम धुआंधार जलप्रपात पड़ा है।

यह स्थान पर्यटकों का सबसे मन पसंदीदा स्थान है। आप भी एक बार इस स्थान के दर्शन अवश्य करें।

नदी का स्वर~

मार्बल पर दिखे

सूर्य का बिंब।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – संवाद ☆

…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।

.. क्यों भला?

…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।

… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।

… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।

…सबको यही धमकी देता है?

…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बिठा रखा है।

… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?

… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!

…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?

…किसान फसल काट रहा है।

…कौनसी फसल है?

…गेहूँ की।

…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?

…कमाल है। इतना भी नहीं जानते! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट यहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।

…यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है।

संवाद समाप्त हो चुका था।

©  संजय भारद्वाज

(दोपहर 3:05, 14.2.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(यह लघुकथा कुछ वर्ष तक पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में शामिल रही)

– भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शाॅर्टकट,,,

– शॉर्टकट तो है पर ,,,

-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।

-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,

– शॉर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?

– क्योंकि आपकी तरह हर कोई शॉर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पर ठहरिए ,,,

-हां , कहिए ।

– बुरा तो नहीं मानेंगे ?

– अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।

-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?

– सो कैसे ?

– अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शॉर्टकट अपना रहा है । चाहे शॉर्टकट कितना ही ,,,

– बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।

-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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