हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 84 ☆ प्रेम ना जाने कोय ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है परंपरा और वास्तविकता के संघर्ष  पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘प्रेम ना जाने कोय’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 84 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ना जाने कोय ☆

शादी के लिए दो साल से कितनी लडकियां दिखा चुकी हूँ पर तुझे कोई पसंद ही नहीं आती। आखिर कैसी लडकी चाहता है तू, बता तो।

मुझे कोई लडकी अच्छी नहीं लगती। मैं क्या करूँ? मैंने आपको कितनी बार कहा  है कि मुझे लडकी देखने जाना ही नहीं है पर आप लोग मेरी बात ही नहीं सुनते।

तुझे कोई लडकी पसंद हो तो बता दे, हम उससे कर देंगे तेरी शादी।

नहीं, मुझे कोई लडकी पसंद नहीं है।

अरे! तो क्या लडके से शादी करेगा? माँ ने झुंझलाते हुए कहा।

हाँ – उसने शांत भाव से उत्तर दिया।

क्या??? माँ को झटका लगा, फिर सँभलते हुए बोली – मजाक कर रहा है ना तू?  

नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मैं विकास से प्रेम करता हूँ और उसी से शादी करूंगा।

माँ चक्कर खाकर गिरने को ही थी कि पिता जी ने पकड लिया।

क्यों परेशान कर रहा है माँ को –  पिता ने डाँटा।

माँ रोती हुई बोली – कब से सपने देख रही थी कि सुंदर सी बहू आएगी घर में, वंश  बढेगा अपना और इसे देखो कैसी ऊल जलूल बातें कर रहा है। पागल हो गया है क्या? लडका होकर तू लडके से प्यार कैसे कर सकता है? उससे शादी कैसे कर सकता है?  बोलते – बोलते वह सिर पकडकर बैठ गई।

क्यों नहीं कर सकता माँ? लडका इंसान नहीं है क्या? और प्यार शरीर से थोडे ही होता है। वह तो मन का भाव है, भावना है। किसी से भी हो सकता है।

माँ हकबकाई सी बेटे को देख रही थी।  उसकी बातें माँ के पल्ले  ही नहीं पड रही थीं।

अब तो समझो मयंक की माँ ! कब तक नकारोगी इस सच को?

परंपरा और वास्तविकता का संघर्ष जारी है —  

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कहानी  “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 ☆

☆ कहानी – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

गणतंत्र दिवस की मंगलकामनाएँ ? ??

एक उत्तर भारतीय लोकगीत में होली-दीपावली के साथ स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस का उल्लेख देखा तो श्रद्धावनत हो उठा। अशिक्षित पर दीक्षित महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय पर्वों को लोकजीवन में सम्मिलित कर लेना ही वास्तविक गणतंत्र है।

क्या अच्छा हो कि राष्ट्रीय पर्वों पर सांस्कृतिक त्यौहारों की तरह घर-घर रंगोली सजे, मिष्ठान बनें और परिवार सामूहिक रूप से देश की गौरवगाथा सुने।

अवसर है कि हम आज से ही इसका आरंभ करें।

वंदे मातरम्।

 – संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि –लघुकथा – तीन ??

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 1:51 बजे, 28.9.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

संतोषी साहब परिवार सहित नगर में और अपनी अंतरात्मा सहित ब्रांच में स्थापित हो गये. मुख्य प्रबंधक जी के अस्नेह को उन्होंने भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकारा और अपने काम में लग गये. यहाँ काम का अर्थ, बैंक के कर्मवीरों की डिक्शनरी से अलग था. पर हर व्यक्ति की तरह उनमें कुछ दुर्लभ गुण भी विद्यमान थे जिससे शाखा के स्टाफ ने उन्हें बहुत तेजी से अंगीकार कर लिया. पहला गुण तो यही था कि उनका किसी से पंगा नहीं लेने का सिद्धांत था. दूसरा सहनशीलता में बैल भी उनसे पार नहीं पा सकता था. बैंकिंग के अलावा अन्य विषयों पर उनकी गजब की पकड़ थी और एक से बढ़कर एक रोचक किस्से उनके बस्ते में रहते थे जो शाम पांच बजे के बाद जब खुलता था तो उनके इर्दगिर्द सुनने वालों का मजमा लग ही जाता था, विशेषकर उस समय जब मुख्य प्रबंधक अपने कक्ष में उपस्थित नहीं होते थे.

बैंकिंग का यह काल प्राचीन स्वर्णिम काल था जब बैंक शाखाएँ टेक्नोलॉजी की जगह मानवीय संबंधों के आधार पर चला करतीं थीं. बिज़नेस के नाम पर कस्टमर्स की आवाजाही दोपहर तीन बज़े समाप्त हो जाती थी, स्टाफ अपने अपने ग्रुप में लंच के लिये प्रस्थान कर जाते थे. ये वो ज़माना था जब शाखाओं में चहल पहल भारत के समान होती थी और तकनीकी रूप से विकसित अमरीका जैसी निर्जनता सिर्फ रात्रि सात आठ बजे के बाद ही मिल पाती थी जब सिक्युरिटी गार्ड शाखा के सुरक्षा सिंहासन पर राज़ा के समान राज किया करते थे.

रिक्रिएशन हॉल जहाँ होते थे वो भी अविवाहित युवकों के कारण ज़रूर आठ बज़े तक हलचलायमान होते थे पर उसके बाद बैंक के ये भविष्य भी अपनी दिनभर की थकान उतारने का पूरा सामान लेकर महा-विशिष्ट डिनर के लिये उपयुक्त हॉटल में प्रस्थान कर जाते थे. हालांकि घुसपैठ यहाँ भी होती थी जब इन युवाओं के बीच पत्नी के अंशकालिक विरह से त्रस्त forced batchler भी शामिल हो जाते थे, इनमें कभी कभी संतोषी साहब भी हूआ करते थे जो सुरूर में मधुबाला, मीनाकुमारी और नर्गिस की प्रेमकथाओं के एक से बढ़कर एक रोमांचक और जादुई किस्से अपने बैग से निकालकर महफिल में परोसा करते थे, इससे महफिलें रंगीन हो जाती थीं और संतोषी साहब हरदिल अज़ीज़. लोग इन महफिलों में उन्हें प्यार से अंकल सैम बुलाते थे और इस संबोधन को बड़ी सहजता से स्वीकारा भी जाता था.

ये महफिलें बड़ी शानदार हुआ करतीं थी जहाँ हर विषय पर और हर स्टाफ के बारे में चटखारे ले लेकर किस्सागोई की जाती थी.कभी कभी इस किस्सागोई के नायक या असलियत में खलनायक, शाखा के मुख्य प्रबंधक भी हुआ करते थे जो स्वाभाविक रुप से इन महफिलों में सदा अनुपस्थित रहते थे. शाखा प्रबंधक के लिये खलनायक बनना कभी कठिन नहीं हुआ करता, कभी कभी दो चार दिन की छुट्टी नहीं देने से भी यह उपाधि मिल जाती है. बैंकिंग की ये रंगभरी दुनिया आज भी अपनी ओर यादों में खींच लेती है जब नौकरी भले ही दस से छह बजे की हो पर लोग बैंक की दुनियां में चौबीसों घंटे मगन रहा करते थे और “जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” गाया करते थे.

हमारे और आपके दिलों को भाती ये कथा जारी रहेगी, बस प्रोत्साहन की ऑक्सीजन देते रहिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 93 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ –4 – बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #93 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 4- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

पंद्रह दिन के बाद जब कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हटा से अपना सारा सामान काले रंग की गोल मटकी, ढेर सारी बांस की खपच्चियाँ , सुतली, पुराने कपड़े और सफेद व लाल मिट्टी लेकर उमरिया पहुंचे तो उन्हे देखकर पांडे जी की बाँछें खिल गई । प्रशिक्षण की तैयारियां वे पहले ही कर चुके थे । बिजूका बनाने की कला सीखने के लिए 15 आदिवासी युवा तैयार बैठे थे । सारे सामान की कीमत जानकार और थोड़ा मोलभाव कर उसका पक्का बिल बनवाने के लिए पांडेजी ने एक दुकानदार को पहले ही सेट कर रखा था । सरकारी कामों में पक्के बिल का वही महत्व है जो बारात में फूफा का होता है । सामान भले न खरीदा गया हो पर अगर बिल पक्का है तो आडिटर उसमें कोई खोट नहीं निकालता । लेकिन पक्के बिल का अभाव, जीवन भर की सारी ईमानदारी पर काला बदनुमा दाग लगा देता है ।

दोपहर होते होते जिला पंचायत से मुख्य कार्यपालन अधिकारी को लेकर पांडेजी प्रशिक्षण शाला में पधारे और फिर बिजूका निर्माण कार्यशाला का विधिवत उद्घाटन पूरे झँके मंके के साथ हो गया । बिजूका बनाना सिखाने  के लिए यह प्रदेश भर में पहली कार्यशाला थी और इसे स्वीकृत कराने में पांडेजी ने एडी चोटी एक कर दी थी । मौका अच्छा था, पांडेजी ने पूरी दास्तान इस रोचक अंदाज में सुनाई की जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी वाह वाह कर उठे और प्रशिक्षण अवधि के दौरान  कलेक्टर साहब को भी लाने का आश्वासन दे बैठे । पांडेजी के लिए यह आश्वासन सोने पर सुहागा ही था । 

पंद्रह दिनों के प्रशिक्षण के दौरान आदिवासी युवकों ने दो बातें सीखी एक तो बिजूका बनाना और दूसरा खेतों में कटीली झाड़ियों के लगाने के फायदे। कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हिन्दी नहीं जानते थे उनका बतकाव बुन्देली भाषा में होता, बीच बीच में देहाती कहावतें भी वे सुना देते। आदिवासी युवा पढे लिखे थे पर बुन्देली भाषा में बातचीत उन्हें रास नहीं आती ।  ऐसे में पांडेजी को अनुवादक की भूमिका निभानी पड़ती। प्रशिक्षण के बाद बिजूका की बिक्री और उन्हें खेत में लगाने का अभियान चलाया गया । चूंकि सम्पूर्ण प्रक्रिया में आदिवासी लड़के संलिप्त थे तो इस काम में भी परेशानी न हुई और देखते ही देखते सारे बिजूका बिक गए। प्रशिक्षणार्थियों को पहली बार अपनी मेहनत की चवन्नी मिली।

जंगल की तलहटी के खेतों में रबी की फसल लहलहाने लगी । बाड़ी और बिजूका खेत के चौकीदार थे, चोरी होने ही न देते । दिन भर पक्षी और बंदर  पेड़ पर बैठे बैठे बिजूका के हटने का इंतजार करते और इधर बिजूका टस से मस न होता । पूरी मुस्तैदी के साथ बीच खेत में खड़ा रहता और उसके कपड़े हवा चलने पर उड़ते और फड़फड़ाते । ऐसी आवाजें तो पक्षियों और बंदरों ने कभी सुनी ही नहीं थी । इन विचित्र आवाजों को सुनकर और कपड़ों को उड़ता देख पक्षी भी डर के मारे खेत के आसपास न फटकते ।

दिन बीते , फसल में दानें  आ गए। नए दानों की खुशबू दूर दूर तक फैलती और पक्षियों को ललचाती पर खेत में खड़े बिजूका का भय उन्हे खेत के ऊपर से भी न उड़ने देता । रात में भी नीलगाय और हिरण बाड़ी देखकर ही वापस चले जाते । परेशान पक्षियों ने एक रोज बैठक करी और चतुर कौवे से बिजूका को नुकसान पहुंचाने का अनुरोध किया । कौवा मान  गया पर कठोर मटकी को फोड़ पाने का साहस उसकी चोंच न दिखा सकी । थक हार कर पक्षियों ने तोते से कुछ गीत गाने को कहा । तोते ने भी कभी मनुष्यों की बस्ती में यह कहावत सुनी थी “अरे बिजूका खेत के, काहे अपजस लेत आप न खैतैं खात हो, औरे खान न देत ।‘ तोता ने सारे पक्षियों को यह कहावत बिजूका के सामने गाने को कहा।

पक्षी इसके लिए आसानी से तैयार न हुए । उन्हें खेतों में कपड़ें पहनाकर खड़े किए गए पुरुषाकृति पुतले को देखकर ही डर लगता था ।

तब तोते के सरदार ने कहा कि इस कहावत से तो हम बिजूका की तारीफ ही करने वाले हैं । हम बिजूका से कहेंगे कि अरे खेत के बिजूके! तुम अपने सिर पर अपयश क्यों ले रहे हो, खेत को न तो तुम स्वयं ही खाते हो और न दूसरों को खाने देते हो।

तोते के सरदार की बात नन्ही गौरया को पसंद नहीं आई।  उसने कहा कि ऐसी तारीफ करने से भला यह रखवाला पसीजेगा। उलटे कहीं पत्थर वगैरह मार दिया तो मैं तो मर ही जाऊँगी ।

पक्षियों के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था कि गाँव के मुखिया का हरवाहा उस पेड़ के नीचे से निकला । वह “तुलसी पक्षिन के पिए, घटैं न सरिता नीर, धरम किए धन न घटैं जो सहाय रघुवीर,”   गुनगुनाते हुए जा रहा था कि उसके कानों में पक्षियों की कातर आवाज सुनाई पड़ी। उसे बड़ा दुख हुआ कि भगवान के बनाए पक्षी बिजूका के डर से भूख से व्याकुल हो रहे हैं तो उसने मुखिया के खेत की बारी खोली और बिजूका के पास जाकर छिप गया । वहाँ से वह जोर जोर से गाने लगा “ राम की चिरैया राम कौ खेत, खाव री चिरिया भर भर भर पेट । “

पक्षियों ने जब यह दोहा सुना तो उन्होंने आवाज की दिशा पहचानी और मुखिया के खेत में टूट पड़े। पलक झपकते ही सारे दानें  खा लिए और बहुत से इधर उधर बिखेर भी दिए। हरवाहा भी चिड़ियों को चहचहाता देख बड़ा खुश हुआ और यह कहता  हुआ गाँव चला गया “ पियै चोंच भर पांन चिरिया, आगे कौं का करने, सूखी रोटी कौरा खाकैं, अपनी कथरी जा परनें। “ ( चिड़िया चोंच भर पानी पीकर शांति से अपने घोंसले में सो जाती है ।  उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं रहती।  उसी प्रकार  बेचारे दीन  व्यक्ति रूखी सूखी रोटी खाकर फटी पुरानी कथरी ओढ़कर सो जाते हैं ।

इधर मुखिया का खेत साफ हो रहा था उधर उमरिया में पांडेजी लंबी तान कर रजाई ओढ़कर सो रहे थे । सुबह जब वे जागे तो घर के बाहर मेला लगा था । मुखिया अपने लोगों के साथ पांडेजी का घर घेरकर खड़ा था । उसने अपने खेत के नुकसान की पूरी कहानी सुनाई और पूरा दोष पांडेजी की बिजूका वाली सलाह को दे दिया । पांडेजी आश्चर्य में पड़  गए आज तक तो उन्होंने बिजूका को खेत की रखवाली करते सुना था । चौकीदार चोर हो सकता है यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था । खैर मुखिया को उन्होंने अदब के साथ बैठक खाने में बिठाया चाय नाश्ता करवाकर उसका क्रोध शांत किया और खेत का निरीक्षण कर निष्कर्ष पर पहुंचने की बात की ।

पांडे जी बिजुरी गाँव के खेतों में दिनभर मुखिया के साथ घूमते रहे। पक्षी सिर्फ मुखिया के खेत में चक्कर काट रहे थे। दूसरे खेतों में घुसने की तो वे हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे। पांडेजी यह देखकर आश्चर्य में थे कि अचानक उनके मुख से “बारी खेतें खाय’ लोकोक्ति निकल पड़ी।

मुखिया ने पूछा क्या समझ में आया साहब ? हमारे खेत में ही चिड़िया क्यों चुग रही है।

पांडेजी ने जवाब दिया “सब किस्मत का खेल है मुखिया जी जब बाड़ी ही खेत खा  जाए तो हम क्या कर सकते हैं। अब आपका चौकीदार बिजूका ही चोर निकल गया, लगाओ इसे चार डंडे।“  जब तक मुखिया बिजूका की मरम्मत करता पांडे जी उसे नमस्कार कर उमरिया चल दिए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 – लघुकथा – संविधान एक नियम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 111 ☆

? लघुकथा – संविधान एक नियम ?

एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।

अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।

चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।

फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?

चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।

फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?

फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – असली कमाई ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  असली कमाई)

☆ लघुकथा – असली कमाई ☆

मोहन अपने रिश्तेदारों को छोड़ने रेलवे स्टेशन पर आया हुआ था। उसका दोस्त सुमन भी उसके साथ था। गाड़ी आने में अभी कुछ समय बाकी था। तभी दो लोग रेलवे पायलट की वर्दी में वहां से गुजरे। जैसे ही उनकी नजर मोहन पर पड़ी, वह एकदम उसकी तरफ लपके और हाथ जोड़कर बड़े शिष्टाचार से बोले, “नमस्कार सर, पहचाना? मैं पायलट सचिन और यह मेरा सहायक पायलट दिलबाग। और साहब, यहां कैसे?”

मोहन ने कहा, “नमस्कार, कैसे हो बंधु? बस, यह मेरे रिश्तेदार हैं, इन्हें गाड़ी चढ़ाने आया था।“

पायलट ने कुछ इशारा किया और सहायक पायलट तुरंत चला गया। थोड़ी ही देर में वह चाय और कुछ स्नैक्स लेकर प्रकट हो गया।

“अरे यह क्या?” मोहन ने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि पायलट बोल पड़ा, “कुछ नहीं जनाब, आप बस लीजिए।“ और उन दोनों ने बिना देर किए चाय और स्नैक्स सबको पकड़ा दिए।

“सचिन भाई, यह सब…।” मोहन कुछ बोलने को हुआ, पर सचिन ने मौका ही नहीं दिया, “क्या साहब, आप हमारा इतना ख्याल रखते हैं, तो छोटे भाई होने के नाते हमारा क्या इतना भी हक नहीं बनता। प्लीज सर, बुरा मत मानना इसके लिए। अच्छा चलते हैं, नमस्कार।” कह कर दोनों चले गए। इतने में ही गाड़ी के आगमन की घोषणा हो गई और वह खा-पी कर अपना सामान संभालने लगे।

रिश्तेदारों को गाड़ी में बैठाकर जब वह बाहर निकले, तो सुमन ने पूछ ही लिया, “यह क्या था?”

मोहन, “कुछ नहीं, अपने स्टाफ के ही हैं। दरअसल मैं हेडक्वार्टर में हूं, और इनका डीलिंग क्लर्क हूं। इनकी ट्रांसफर-प्रमोशन मेरे द्वारा ही डील होती हैं। मैं अपना कर्तव्य समझकर समय से पहले ही इनका काम पूरा करने की कोशिश करता हूं, तो पूरा स्टाफ भी मेरी बहुत इज्जत करता है। अब तुम सोचो कि यदि मैं थोड़े बहुत रुपयों के लालच में, जैसा कि मेरे कई साथी करते भी हैं, इनका काम रोकूँ, इन्हें परेशान करूं, और फिर कुछ ले-देकर इनका काम करूं, तो मैं कितना धन इकट्ठा कर लूं, परंतु जो इज्जत ऐसे यह मेरी मेरे रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों में करते हैं, क्या यह इज्जत मैं कभी पा सकता हूं? मेरे लिए तो यही असली कमाई है…।”   

“यह तो है।” सुमन को भी उसका दोस्त होने पर गर्व हो रहा था।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 – लघुकथा – भोग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “भोग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 ☆

☆ लघुकथा — भोग ☆ 

मकर संक्रांति के दिन थाली में सजे चढ़ावे को देखकर उसकी आंखों में चमक आ गई। उसने चढ़ावा उठाया। एक अखबार में रखा। फिर दौड़ पड़ा।

दूर सामने एक झोपड़ी थी। उसमें गया। बिस्तर पर बीमार बचा लेटा हुआ था, “ले दोस्त! यह प्रसाद है। खा लेना। तेरे शरीर में कुछ ताकत आ जाएगी,” कहते हुए वापस झोपड़ी से बाहर निकल गया।

देखा। सामने पिताजी किमकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा मोक्ष ??

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

……..धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 1:51बजे, 11दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 15 – परम संतोषी भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 15 – परम संतोषी भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

परम संतोषी के नाम से जानते थे बैंक में उन्हें, वैसे नाम था पी.एल.संतोषी. नाम के अनुरूप ही संतोषी जीव थे उप प्रबंधक महोदय. वेतनमान में सारे स्टेगनेशन इंक्रीमेंट पा चुके थे, डी.ए.जब सबका बढ़ता तो सबके साथ उनका भी बढ़ जाता. वेज़ रिवीज़न के लिये हाय तौबा करते नहीं थे, क्योंकि वो जानते थे कि जिस मंथर गति से वो बैंक में काम करते थे, वेज़ रिवीज़न उससे भी कई गुना धीमी गति से आता था. “कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचनम” का बोध वाक्य उनकी डेस्क पर हमेशा शोभायमान रहता था. बैंक में काम करने के प्रति विरक्त थे पर साहित्यिक ग्रंथो का पठन पाठन उनकी वाक्पटुता हमेशा उच्च कोटि की रखता था. हिंदी साहित्यजगत के मूर्धन्य व्यक्तियों के जीवन के दृष्टांत दे देकर सामने अल्पज्ञानी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की कला में माहिर थे संतोषी साहब और कस्टमर उनके प्रवचन के चक्कर में अक्सर भूल जाते थे कि वो बैंक किस काम से आये थे. जब तक होश आता, दुनिया लुट चुकी होती थी याने बैंक बंद होने का समय आ चुका होता. तो “आशा पर आकाश टंगा है” की आस लेकर कस्टमर इस कसम के साथ विदा लेते कि कल से इन संतोषी साहब के चक्कर में फंसना नहीं है. बैंक आयेंगे, अपना काम निपटायेंगे और इन साहब से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखेंगे. हालांकि उस जमाने में ये शब्द डिक्शनरी में ही कैद था,आज के समान बच्चे बच्चे की जुबान पर वायरस के जैसे चढ़ नहीं पाया था.

निस्पृहता जैसा कठिन शब्द संतोषी साहब को देखकर आसानी से समझ में आ जाता था. प्रमोशन और पुत्ररत्न पाना उनके भाग्य में नहीं था पर इसके लिये न उनको विधाता से शिकायत थी न ही बैंक से. पोस्टिंग और सुदूर स्थानांतरण से भय उनको लगता नहीं था. जहाँ के ऑर्डर आते अपनी भार्या और तीन कन्या रत्नों के साथ पहुंच जाते. बैंक तो बैंक, अर्धांगिनी भी उनको अपने रंग में ढाल नहीं पाती थी. उच्च प्रबंधन हो या संघ के पदाधिकारी, सब उनकी वरिष्ठता और काम नहीं करने की कला से वाकिफ थे और ये भी जान चुके थे कि इस बंदे को तो हमसे कुछ चाहिए ही नहीं तो इनका क्या करें. उनके साथ कभी काम कर चुके लोग क्षेत्रीय प्रबंधक का पद सुशोभित कर रहे थे पर संतोषी साहब का परम संतोषी स्वाभाव ऐसी सांसारिक माया से मुक्त था. जीवन और नौकरी अपने हिसाब से जीने या करने की उनकी अदा से उनके शाखा के मुख्य प्रबंधक हमेशा परेशान भी रहते थे पर उनका इस ब्रांच में होने को अपना नसीब मान चुके थे. जब ईश्वर ने उनकी पोस्टिंग इस ब्रांच में सुनिश्चित की थी तो बात ज़ोनल प्लेसमेंट कमेटी की बैठक से प्रारंभ हुइ जब चार कर्मवीरों के साथ पांचवे सांत्वना पुरस्कार के रूप में इनके नाम का भी चयन किया गया. जिस रीज़न को ये मिलने वाले थे, स्वाभाविक था कि वो इन्हें अनचाही संतान समझकर विरोध कर बैठे. तब उप महाप्रबंधक महोदय ने अपनी धीर गंभीर उच्च प्रबंधन की शैली में समझाया कि जीवन से 100% अच्छा पाने की उम्मीद करना अव्यवहारिकता है. तुम्हें तो सिर्फ एक रीज़न चलाना है पर मुझे तो पूरे माड्यूल को मैनेज करना पड़ता है. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय, उप महाप्रबंधक महोदय के इन उद्गगारों को अपने प्रबंधकों पर आजमाने के लिये अपनी मेमोरी में सेव कर चुके थे इसलिए obediently yours की प्रथा का पालन करते हुये इन्हें हर्षरहित होकर और ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार किया और जैसा कि विधाता ने सुनिश्चित किया था. संतोषी साहब मुख्य प्रबंधक शासित एक शाखा में उप प्रबंधक की हैसियत से पदस्थ कर दिये गये. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय ने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को सूचित न करने की व्यवहारिकता के साथ पोस्टिंग आदेश के साथ संतोषी साहब को उनकी ब्रांच रवाना कर दिया. और इस तरह संतोषी साहब अपनी सदा सर्वदा संतुष्ट मुद्रा के साथ अपना स्थानांतरण आदेश लेकर मुख्य प्रबंधक महोदय के चैंबर में पहुंच ही गये. “होइये वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावै साखा” पर शाखा के मुख्य प्रबंधक इस कहावत को भूल गये जब वो ये जान गये कि ये सज्जन कोइ कस्टमर नहीं बल्कि अपने हिसाब से नौकरी करने वाले परम संतोषी साहब हैं जो उनके नसीब में किसी दुर्घटना के समान घटित हो चुके थे. कभी कभी या अक्सर काम नहीं करने वाले ज्यादा प्रसिद्धि पा जाते है तो संतोषी साहब को काफी लोग जानते थे और इस सूची में शाखा के मुख्य प्रबंधक भी थे. उन्होंने फौरन क्षेत्रीय प्रबंधक जी को फोन लगाया, साहब के करीबी थे क्योंकि बिजनेस करके देते थे तो बात इस तरह शुरू हुई “सर, हमारी ब्रांच तो पार्किंग लॉट बन गई है, इनको भी हम ही झेलें क्या?”

“अरे यार,स्टाफ तो तुम्हीं मांगते हो और जब देते हैं तो फिर नखरे बाजी करते हो.”

“सर, काम करने वाला मांगा था और आपने इन्हें भेज दिया, किसी ब्रांच का मैनेजर बना दीजिए.”

“अरे, कैसी बात करते हो यार, ब्रांच बैठ जायेगी. बड़ी ब्रांच में तो वैसे ही एडजस्ट हो जायेंगे जैसे दूध में पानी. तुम्हारे आसपास तो बहुत सी ब्रांच हैं, रिलीफ अरेंजमेंट के लिये यूज़ कर लेना.”

ऐसा भी होता है जब अपनी शर्तों पर नौकरी करने वाले संतोषी साहब जैसे लोग डेपुटेशन के नाम पर अतिरिक्त राशि पा जाते हैं.

तो अंतत: मुख्य प्रबंधक महोदय ने न चाहने के बावजूद संतोषी साहब को उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे माता अपनी पसंद और सहमति के बिना आई बहू को स्वीकार कर लेती है.

इस तरह संतोषी साहब की गाड़ी चलने लगी.

ये कहानी का पहला भाग है तो आगे भी जारी रहेगा. व्यंग्य है, जो पुराने दृष्टान्तों और व्यक्तियों के अवलोकन और कुछ कल्पनाओं पर आधारित हैं पर उद्देश्य सिर्फ भूतकाल के अनुभवों के माध्यम से मनोरंजन प्रदान करना ही है. हास्यरस का आनंद लीजिए, प्रोत्साहित करेंगे तो अगली कड़ी के लिये ऊर्जा मिलेगी. धन्यवाद।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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