हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 111 ☆ चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चंचल बैगा लड़की”)

☆ संस्मरण # 111 – चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अनपढ़ आदिवासी  कार्तिक राम बैगा और फूलवती बाई की दूसरी संतान के रूप में 02.05.1991 को जन्मी प्रेमवती के पिता को जब पता चला कि समीपस्थ ग्राम लालपुर में कोई बंगाली डाक्टर बैगा बालिकाओं को निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं तो वे पत्नी के विरोध के बावजूद उसे भर्ती कराने चले आए।  अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए प्रेमवती बताती है कि पूरा परिवार अत्यंत गरीब था । माता-पिता दिन भर मजदूरी करते, जंगल लकड़ियाँ फाड़ने जाते और उसे बेचकर जो धन मिलता उससे खंडा अध टुकड़ा व सस्ता चावल खरीदते । इससे बना पेज पीकर पाँच लोगों का परिवार किसी तरह जीवित रहता। यह पेज भी भरपेट नहीं मिलता और कई बार तो तीन चार दिन तक भूखे रहना पड़ता । प्रेमवती और उसके दो भाई आपस में भोजन के लिए लड़ते और अक्सर एक दूसरे के हिस्से का निवाला छीन लेते। अक्सर हम बच्चे रात भर भूख से बिलबिलाते और रोते रहते।

ऐसी विपन्न स्थिति में रहने वाली यह अबोध बालिका जब बिना किसी सामान के 1996 में सेवाश्रम द्वारा संचालित स्कूल में लाई गई, तो माता-पिता से बिछुड़ने का दुख, क्रोध में बदलते देर न लगी और इस आवेश की पहली शिकार बनी बड़ी बहनजी । प्रेमवती बताती है कि उस दिन जब माँ-बाप उसे छोड़कर जाने लगे तो वह उनके पीछे दौड़ी लेकिन बड़ी बहनजी ने उसे पकड़कर अपनी बाहों में संभाल लिया और मैं इतने आवेश में थी कि उनपर अपने हाथ पैर बड़ी देर तक फटकारती रही । बाबूजी ने अतिरिक्त जोड़ी कपड़े, पुस्तकें  और बस्ता दिया। धीरे धीरे सभी बच्चों से मैं हिल-मिल गई । लेकिन घर की याद बहुत आती। जब छुट्टियों में घर जाते तो वापस आने को मन न करता । माँ को भी मेरी बहुत याद आती और एक बार वह मुझे आश्रम से बहाना बनाकर घर ले आई । पिताजी को जब इस झूठ के बारे में पता चला तो वह मुझे पुन: स्कूल छोड़ने आए।

प्रेमवती का मन धीरे धीरे पढ़ने में रमने लगा।  पढ़ाई के दिनों की याद करते हुए वह बताती है कि बाबूजी शाम को सभी लड़कियों को एकत्रित करके पहाड़े रटवाते थे, उनकी बंगाली मिश्रित टोन से हम लोगों को हंसी आती और लड़कियों को हँसता देख बाबूजी भी मुस्करा देते । जब 2001 में उसने माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो  बाबूजी ने उसका प्रवेश पोड़की स्थित माध्यमिक शाला में करवा दिया । आठवीं पास करने के बाद पिता को यह भान हुआ कि लड़की बड़ी हो गई है और इसका ब्याह कर देना चाहिए। प्रेमवती को अब तक शिक्षा का महत्व समझ में आ चुका  था । वह अड गई कि आगे और पढ़ेगी और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद शादी करेगी । उसकी इस भावना को सहारा मिला  बाबूजी का । उन्होंने उसका प्रवेश भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवा दिया तथा सेवाश्रम के छात्रावास में ही उसके रहने खाने की व्यवस्था कर दी । वर्ष 2008 में जब कला संकाय के विषय लेकर प्रेमवती ने बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तो डाक्टर सरकार ने गुलाबवती बैगा के साथ उसका प्रवेश भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के बी ए पाठ्यक्रम में करवा दिया । दुर्भाग्यवश अंतिम वर्ष की परीक्षा के समय वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई और फिर ग्रेजुएट होने का सपना अधूरा ही रह गया।

बाबूजी के विशेष प्रयासों से उसे और उसकी सहपाठी गुलाबवती को वर्ष 2012 में मध्य प्रदेश सरकार ने सीधी नियुक्ति के जरिए प्राथमिक शाला शिक्षक के रूप में चयनित किया। इन दोनों बैगा बालिकाओं की सीधी नियुक्ति का परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष अनेक आदिवासी युवक युवतियाँ शिक्षक बनाए गए । लेकिन उसके बाद राज्य सरकार ने पढे लिखे बैगाओं की कोई सुधि नहीं ली और अब इस आदिम जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं । 

स्नातक युवा एवं फर्रीसेमर गाँव की प्राथमिक शाला में शिक्षक सोन शाह बैगा की पत्नी प्रेमवती स्वयं प्रातमिक विद्यालय अलहवार में शिक्षक है और तीन बच्चों की माँ है । वह परिवार को नियोजित रखना चाहती है तथा अपने सजातीय आदिवासियों को कुरीतियाँ त्यागने, शिक्षित होने की प्रेरणा देती रहती है ।                                   

मैंने प्रेमवती से बैगा आदिवासियों की विपन्नता का कारण जानना चाहा । उसने उत्तर दिया की गरीबी के कारण माता-पिता बच्चों को मजदूरी के लिए विवश कर देते हैं ।  जब माता पिता जंगल में मजदूरी करने जाते हैं तो बड़े बच्चे छोटे भाई बहनों को संभालते हैं या गाय-बकरियाँ चराते हैं । बालपन से ही मजदूरी को विवश बैगाओं के पिछड़ेपन का अशिक्षा सबसे बड़ा कारण है । शराब पीना तो बैगाओं में बहुत आम चलन है । इस बुराई ने स्त्री और पुरुषों दोनों को जकड़ रखा है । अत्याधिक मदिरापान से उनकी कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है । लेकिन इस बुराई को खत्म करना मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि बड़े बुजुर्ग इसे बैगाओं की प्रथा मानते हैं और छोड़ने को तैयार नहीं हैं । प्रेमवती कहती है कि पुरानी परम्पराएं अब धीरे धीरे कम हो रही हैं । नई पीढ़ी की लड़कियां अब गोदना नहीं गुदवाती, शादी विवाह में पारंपरिक  गीत संगीत का स्थान अब अन्य लोगों की देखादेखी में डीजे आदि ले रहे हैं । बैगा समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान के भाव और उनको प्रदत्त स्वतंत्रता की प्रेमवती बड़ी प्रसंशक है । लड़की वर का चुनाव स्वयं करती है और वर पक्ष के लोग तीज त्योहार पर अक्सर कन्या को अपने घर बुलाते हैं। ऐसा तब तक होता जब तक वर वधू विवाह के बंधन में नहीं बंध जाते। वह बताती है कि विधवा को  पुनर्विवाह का अधिकार है । 

मैंने प्रेमवती के बालपन की यादों को कुरेदने का प्रयास किया । उसे आज भी नवाखवाई की याद है । वह बताती है कि जब खीरा,  कोदो, कुटकी, धान मक्का आदि की नई फसल घर आ जाती तो उसे सबसे पहले ग्राम के देवी देवताओं को अर्पित किया जाता और उसके बाद ही ने अनाज का हम लोग सेवन करते थे । इन्ही दिनों सारे बच्चे एक खेल गेंडी खेलते थे । लाठी में अंगूठे को फसाने के लिए जगह बनाकर उसपर चढ़ जाते और घर घर गाते हुए जाते थे ।  घर के लोग उन्हे नेंग में अनाज देते और फिर सभी बालक अपनी अपनी गेंडी पर चढ़े चढ़े  पास के किसी नाले के समीप जा प्रसाद चढ़ाते और गेंडियों को नदी में सिरा देते हैं ।

प्रेमवती के पास स्कूल और गाँव की यादों का पिटारा है और उससे वार्तालाप करते ऐसा नहीं लगता कि यह नवयुवती विपन्न आदिम जन जाति में जन्मी है, अच्छी शिक्षा का यही प्रभाव है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन– भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आत्मलोचन जी का प्रशासनिक कार्यकाल धीरे धीरे गति पकड़ रहा था. इसी दौरान जिला मुख्यालय के नगरनिगम अध्यक्ष की बेटी के विवाह पर आयोजित प्रीतिभोज के लिये स्वंय अध्यक्ष महोदय कलेक्टर साहब के चैंबर में पधारे और परिवार सहित कार्यक्रम को अपनी उपस्थिति से गौरवान्वित करने का निवेदन किया. यह कोरोनाकाल के पहले की घटना है पर फिर भी अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों के आगमन की संभावना को देखते हुये सीमित संख्या में ही आमंत्रण भेजे गये थे. नगर के लगभग सभी राजनैतिक दलों के सिर्फ वरिष्ठ नेतागण और उच्च श्रेणी के प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा परिजनों की संख्या भी सीमित थी. पर सीमित मेहमानों के बीच में भी सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित करने वाले विशिष्ट अतिथि थे प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जो महापौर की पार्टी के ही वरिष्ठ राजनेता थे.

राजनीति में आने के पूर्व वे संयुक्त मध्यप्रदेश के दो बड़े जिलों के कलेक्टर रह चुके थे और सिविल सर्विस को त्याग कर राजनीति में प्रवेश किया था. यहां भी मुख्य मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे और अपने दल के संख्या बल में पिछड़ने के कारण विपक्ष की शमा को रोशन कर रहे थे. विधाता दोनों हाथों से गुडलक और सफलता किसी को नहीं देता, यही ईश्वरीय विधान है. एक भयंकर कार एक्सीडेंट में जान तो बच गई पर क्षतिग्रस्त बैकबोन ने हमेशा के लिये व्हीलचेयर पर विराजित कर दिया. जो कभी अपनी पार्टी के प्रदेश स्तरीय बैकबोन थे अब स्वयं बैकबोन के जख्मों के शिकार बन कर उठने बैठने की क्षमता खो चुके थे. पर ये विकलांगता सिर्फ शारीरिक थी, मस्तिष्क की उर्वरता और आत्मविश्वास की अकूट संपदा से न केवल विरोधी दल बल्कि खुद की पार्टी के नेता भी खौफ खाते थे.संपूर्ण प्रदेश के महत्वपूर्ण व्यक्ति और घटनायें उनकी मैमोरी की हार्डडिस्क में हमेशा एक क्लिक पर हाज़िर हो जाती थीं.

आत्मलोचन तो उनके सामने बहुत जूनियर थे पर उनकी विशिष्ट कुर्सी की आदत के किस्से उन तक पहुँच ही जाते थे क्योंकि उनका जनसंपर्क और सूचनातंत्र मुख्यमंत्री से भी ज्यादा तगड़ा था. कार्यक्रम में भोजन उपरांत उन्होंने स्वंय अपने चिरसेवक के माध्यम से कलेक्टर साहब को बुलाया और औपचारिक परिचय के बाद जिले के संबंध में भी चर्चा की. फिर चर्चा को हास्यात्मक मोड़ देते हुये बात उस प्वाइंट पर ले गये जहां वो चाहते थे.

“आत्मलोचन जी जिस पद पर आप हैं वह तो खुद ही पॉवर को रिप्रसेंट करती है, आप तो जिले के राज़ा समझे जाते हैं फिर उस पर भी विशिष्ट कुर्सी का मोह क्यों. आप तो अभी अभी आये हैं पर मैने तो कई साल पहले दो महत्वपूर्ण जिलों में आपके जैसे पद पर कार्य किया, जो थी जैसी थी पर कुर्सी तो कुर्सी होती है. पावर की मेरी महत्वाकांक्षा तो इस कुर्सी के क्षेत्रफल में सीमित नहीं हो पा रही थी तो मैं ने राजनीति में प्रवेश किया और वह कुर्सी पाई जो लोगों के सपने में आती है याने चीफमिनिस्टर की. पर सत्ता तो चंचल होती है हमेशा नहीं टिक पाती.आज जिस कुर्सी पर बैठ कर मैं तुमसे बात कर रहा हूं वह भी पावरड्रिवन है पर ये साईन्स के करिश्में याने बैटरी से चलती है पर एक बात की गठान बांध लो , कुर्सी नहीं उस पर बैठा व्यक्ति महत्वपूर्ण है और साथ ही महत्वपूर्ण है वह नेटवर्क जो जितना मजबूत होता है, व्यक्ति उतना ही कामयाब होता है चाहे वह क्षेत्र राजनीति का हो, सिविल सर्विस का हो या फिर परिवार का.”

बात बहुत गहरी थी, आत्मलोचन बहुत जूनियर तो पूरा समझ नहीं पाये, प्रतिभा और जोश तो था पर अनुभव कम था. शायद यही बात उनका भाग्य उन्हें किसी और ही तरीके से समझाने वाला था.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ हिस्सेदार…! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ हिस्सेदार…! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

ड्राइंग रूम में पैर रखते ही हमें यह अहसास हो गया था कि इस समय वहां पहुंच कर बहुत बड़ी गलती की है । पहले ही उनके यहां कुछ मेहमान आए हुए थे । अभी वे उनसे फुरसत नहीं पा सके थे कि हम पहुंच गये । हम यानी मैं और मेरी पत्नी । इस पर हमारे मेजबान थोड़ा सकपकाये , कुछ हम सकुचाये और फिर कभी आएंगे कह कर लौटने लगे , यह हमारे मेजबान को गवारा न हुआ । उनके आतिथ्य भाव को ठेस न पहुंचे , इसलिए हमें न चाहते भी रुकना पड़ा ।

इसके बावजूद हवा जैसे रुकी हुई थी और अंदर ही अंदर यह बात खाये जा रही थी कि हम यहां रुक कर गलती कर रहे हैं । कहीं शायद उनके निजी जीवन में अनचाहे झांकने का अपराध कर रहे हैं । मेज़बान ने औपचारिकता के नाते दूसरे मेहमानों से हमारा परिचय करवाया । नौकर को पहले पानी लाने और फिर चाय बनाने का आदेश देकर मानो हमारे पांवों में प्यार भरी बेड़ियां डाल दीं । अब वहां बैठे रहने के सिवाय दूसरा कोई चारा न था ।

इस तरह से जहां से बातों का सिलसिला छूटा था , वहीं से पकड़ कर वे शुरू हो गये । शायद वे यह भूल ही गये कि हम उनके ड्राइंग रूम में मौजूद हैं भी या नहीं ।
इसी बीच उनके ड्राइंग रूम को निहारने का हमें अवसर मिल गया । बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ था । कहीं एक दूसरे को काटती हुईं तलवारें तो कहीं छोटी सी , प्यारी सी तोप । कहीं गरजता हुआ वनराज तो कहीं शिकारी का हंटर लटक रहा था । ऐसे लगता था कि हमारे मेजबान को शिकार का खूब शौक है । या वे वीर रस से अपने आपको सराबोर रखते हैं ।

ड्राइंग रूम में बड़े बड़े विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मेजबान के विभिन्न अवसरों पर खींचे गये फोटोज हमारे मन पर उनके व्यक्तित्व की छाप छोड़ने में पूरी तरह सब हो रहे थे कि ऐसे व्यक्तित्व के इतने निकट होने पर भी हम उनसे अंतरंग होकर पहले मिलने क्यों नहीं आए ? उन्हीं चित्रों के बीच एक चित्र को देखते हुए हमारे मेज़बान ने जैसे हमारी चोरी पकड़ ली थी । हमारे मेज़बान के चेहरे पर चमक आ गयी थी । इसी जोश में भरे वे एक पिता बन गये थे और बताने लगे थे -यह हमारा बेटा है , एक आर्मी ऑफिसर । ये जो हमारे अतिथि हैं , ये हमारे बेटे के होने वाले सास ससुर हैं । आप लोग बड़े शुभ अवसर पर पधारे हैं । आज ये शगुन देने आए हैं बेटे के लिए ।

हमने फिर औपचारिकता निभाते हुए कहा कि आप लोगों से मिल कर बहुत खुशी हुई और इस अवसर पर तो और भी ज्यादा । तभी हमारा ध्यान कोने में रखी डाइनिंग टेबल पर गया था जो रंगीन कागज़ों में लिपटी फलों को टोकरियों व मिठाइयों के डिब्बों से भरी पड़ी थी । इस स्थिति में मैं मन ही मन हैरान परेशान हो रहा था कि यह कैसा शुभ अवसर है जिसमें अपने निकट संबंधी तक आमंत्रित नहीं हैं । इस शुभ अवसर पर घर की हवा में इतना भारीपन क्यों है ? खुशी की चिड़िया कहीं फुदक क्यों नहीं रही या चहक क्यों नहीं रही ?

हमारे मेजबान अपने बेटे के गुणों का बखान करते चले जा रहे थे और अब तक आए रिश्तों का जिक्र भी करते जा रहे थे । बिना देखे उनका बेटा हमारी ही नहीं , बल्कि भावी सास ससुर की नज़रों में बहुत ऊंचा उठ गया था । सास बोली थी -हमारी बेटी भी कम नहीं । लैक्चरार है , हमें खुशी है कि यह खूबसूरत जोड़ी बनने छा रही है आज ।
इस तरह कहते हुए लड़की की मम्मी ने रेशमी धागे से बंधे एक लिफाफे को अपनी समधिन के हाथों में सौंप दिया और गले मिल कर रिश्ता तय होने को घोषणा कर दी । ड्राइंग रूम में बैठे बाकी लोगों ने तालियां बजा कर इसका स्वागत् किया ।

हमने समझा कि शगुन की रस्म पूरी हो गयी पर यह तो हमारी नासमझी थी । इसके सिवा कुछ नहीं । यह तो औपचारिक शगुन था । अब अनौपचारिक कार्रवाई शुरू हुई । अब हमारे मेजबान ने जेब से एक लिस्ट निकाल कर उनसे यह जानना शुरू किया कि वे शादी में क्या क्या देंगे या देने जा रहे हैं । क्या क्या नहीं देंगे । उनके विशिष्ट अतिथियों की बारात को वे क्या क्या परोसेंगे ? यानी मीनू तक । यह मीनू एक दूसरी लिस्ट में तय किया गया ।

अब ड्राइंग रूम में सजावट के लिए लगाई गयीं तलवारें , बंदूकें और हंटर मानो सजीव हो उठे थे और देखते देखते हमारे मेजबान ने शिकार करना शुरू कर दिया था ।
लड़की के पिता ने हार रहे सेनापति की तरह संधि की एक एक शर्त सिर झुकाये किसी बलि के बकरे की तरह स्वीकार कर ली थी । हम चुपचाप देखते रह गये शिकार होते।

कई बार जहां हम बैठे होते हैं , हम वहीं नहीं रह जाते । कहीं और पहुंच जाते हैं । यही मेरा साथ हुआ । मैं कैसे वहां बैठे बैठे अपने बचपन के एक दृश्य में खो गया । हमारा घर बीच मोहल्ले में पड़ता था । शादी ब्याह के दिनों में एक दो कमरे जरूरत के लिए हमसे ले लिए जाते थे । हमारे उन कमरों में खूब सारा नया नया सामान सजाया गया था। मुहल्ले भर की औरतों को न्यौता दिया गया था । भीड़ जुट गयी थी । एक बार मैं अपनी दादी के साथ उसी भीड़ में खड़ा था । वहां दिखाया जा रहा था वह सामान । इतने बिस्तर , इतनी पेटी , यह पंखा , साइकिल , ये मेज़ कुर्सियां और वगैरह वगैरह ।

मैंने दादी से पूछा था -क्या यह कमरा आपने किसी दुकान के लिए किराये पर दे दिया ?

आसपास खड़ी सभी महिलाएं मेरी नादानी पर हंस दी थीं , खूब खिलखिला कर ।

-अरे मुन्ने । यह तो दहेज में दी जाने वाली चीज़ें हैं ।

उस उम्र में दहेज तो नहीं जान पाया पर वह कमरे का दृश्य सदा सदा के लिए मन के किसी कोने में अटका रह गया ।

फिर वहीं बैठे बैठे दृश्य बदला । इस बार अपने मात्र के छोटे भाई के विवाह के शगुन में शामिल होने क्या था । वहां खूब धूम धड़ाके के बीच शगुन की रस्म पूरी हुई थी । इस फार रंगीन टीवी व मोटरसाइकिल सबके बीच उपहार कह कर भेंट किए गये थे । मैं वहां बड़ी घुटन महसूस करने लगा था और जल्द खिसकने की कोशिश में था कि मित्र ने कहा था-भई यह शुभ अवसर है । जल्दी क्या है ? आज कुछ देर पहले घटित हुए दृश्य से क्या मैं अपने आपको अलग कर सकता हूं ? मेरी आत्मा मुझे धिक्कारते हुए कहती है -नहीं । तुम इस दृश्य से अलग नहीं बल्कि तुमने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है इसमें । फिर जैसे जज फैसला सुनाता है -गवाहों और बयानात के आधार पर मेरी आत्मा कहती है कि तुम्हें मुजरिम ठहराया जाता है । तुम इस पाप में बराबर के हिस्सेदार हो । समाज तुम्हे कभी माफ नहीं करेगा ।

अभी सोफे पर नोटों की गड्डियों का लिफाफा पड़ा है -मुंह चिढ़ाता हुआ ।

बाहर मेजबान अपने नये सगे संबंधियों को विदा कर रहे हैं । ठहाकों की गूंज दूर से सुनाई दे रही है । यह दूसरी बात है कि जवाब में ठहाके सुनाई नहीं दे रहे ।

मेहमानों को विदा कर मेजबान व उनकी पत्नी और बेटी लौट आए हें । उनके चेहरे खिले हुए हैं । शिकार की सफलता के चलते ।

वे हमारी ओर मुखातिब होते हैं -आप बडे ही शुभ अवसर पर हमारे घर पधारे । क्यों न चाय का एक एक प्याला और हो जाये ?

हमने माफी मांगते हुए चलने की अनुमति मांगी और वहां से चलने से लेकर अब तक मन में यह मलाल है कि उस दिन वहां क्यों गये थे हम ? एक गुनाह में हिस्सेदार होने के लिए ? यह बोझ हम आज तक उठिए घूम रहे हैं उस दिन से ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 125 – लघुकथा – पानी का स्वाद… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है सम्मान के पर्याय पानी पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “पानी का स्वाद…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 125☆

☆ लघुकथा  – 🌨️पानी का स्वाद 🌨️  

गर्मी की तेज तफन, पानी के लिए त्राहि-त्राहि। सेठ त्रिलोकी चंद के घर के आसपास, सभी तरह के लोग निवास करते थे। परंतु किसी की हिम्मत उसके घर आने जाने की नहीं थी, क्योंकि वह अपने आप  को बहुत ही अमीर समझता था।

सारी सुख सुविधा होने के बाद भी त्रिलोकी चंद मन से बहुत ही अवसाद ग्रस्त था, क्योंकि सारी जिंदगी उसने अपने से छोटे तबके वालों को हमेशा नीचा दिखाते अपना समय निकाला था।

उसके घर के पास एक  किराये के मकान में बिटिया तुलसी अपनी माँ के साथ रहती थी।

गरीबी की मार से दोनों बहुत ही परेशान थे। माँ मिट्टी, रेत उठाने का काम कर करती और बिटिया घर का काम संभाल रखी थी।

गर्मी की वजह से नल में पानी नहीं आ रहा था और मोहल्ले में पानी की बहुत परेशानी थी। मोहल्ले वाले सभी कहने लगी कि शायद त्रिलोकी चंद के यहाँ जाने से सब को पीने का पानी मिल जाएगा।

उसने पानी तो दिया परंतु सभी से पैसा ले लिया। जरुरत के हिसाब से सभी अपनी अपनी हैसियत से पानी खरीद रहे थे। सभी के मन से आह निकल रही थी।

कुछ दिनों बाद सब ठीक हुआ मोहल्ले में पानी की व्यवस्था हो गई। सब कुछ सामान्य हो गया।

आज त्रिलोकी चंद अपने घर के दालान दरवाजे के पास कुर्सी लगा बैठा था।

तुलसी माँ के काम में जाने के बाद पानी के भरें घड़े को  लेकर आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने और पानी की धार एक समान दिख रही थी।

ज्यों ही वह त्रिलोकी चंद के घर के पास पहुंची वह देख रही थी कि अचानक वह कुर्सी से गिर पड़े।

परिवार के सभी सदस्य घर के अंदर थे। तुलसी को कुछ समझ में नहीं आया फिर भी हिम्मत करके घड़े का पानी त्रिलोकी चंद के चेहरे और शरीर पर डाल  दिया। पास में रखे गिलास से उसने पानी पिलाया। त्रिलोकी चंद पानी पी कर बहुत खुश हुआ और उसे आराम लगा।

आज उसे पानी से स्वाद मिला। और उसकी आँखें भर आई। और उसे समझ आया कि मेहनत का पानी मीठा होता है।

घर के सभी सदस्य बाहर निकल कर तुलसी को डांटने लगे कि “तुमने कहां का पानी पापा को पिला दिया।”परंतु त्रिलोकी चंद को जैसे मन से भारी बोझ हट गया हो। उसे असीम शांति मिली। आज वह पानी में स्वाद  होता है ऐसा कह कर तुलसी के सर पर हाथ रखा।

मोहल्ले वाले कभी सपने में नहीं सोचते थे कि अपने घर के बाहर दरवाजे के पास पानी की व्यवस्था कर सभी को पानी लेने के लिए कहेगा।

परंतु यह सब काम उसने किया।

त्रिलोकी चंद  की जय जयकार होने लगी। वह समझ चुका था….

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # ९२ – जीभ का रस ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #92 🌻 जीभ का रस  🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बूढ़ा राहगीर थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला ने उसे अपने बाड़े में ठहरने का स्थान बता दिया। बूढ़ा वहीं चैन से सो गया। सुबह उठने पर उसने आगे चलने से पूर्व सोचा कि यह अच्छी जगह है, यहीं पर खिचड़ी पका ली जाए और फिर उसे खाकर आगे का सफर किया जाए। बूढ़े ने वहीं पड़ी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा कीं और ईंटों का चूल्हा बनाकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसने उसी महिला से मांग ली।

बूढ़े राहगीर ने महिला का ध्यान बंटाते हुए कहा, ‘एक बात कहूं.? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाए तो फिर उसे उठाकर बाहर कैसे ले जाया जाएगा.?’ महिला को इस व्यर्थ की कड़वी बात का बुरा तो लगा, पर वह यह सोचकर चुप रह गई कि बुजुर्ग है और फिर कुछ देर बाद जाने ही वाला है, इसके मुंह क्यों लगा जाए।

उधर चूल्हे पर चढ़ी खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि वह महिला किसी काम से बाड़े से होकर गुजरी। इस बार बूढ़ा फिर उससे बोला: ‘तुम्हारे हाथों का चूड़ा बहुत कीमती लगता है। यदि तुम विधवा हो गईं तो इसे तोड़ना पड़ेगा। ऐसे तो बहुत नुकसान हो जाएगा.?’

इस बार महिला से सहा न गया। वह भागती हुई आई और उसने बुड्ढे के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग पर पानी डाल दिया। अपनी बटलोई छीन ली और बुड्ढे को धक्के देकर निकाल दिया।

तब बुड्ढे को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने माफी मांगी और आगे बढ़ गया। उसके गमछे से अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और सारे कपड़े उससे खराब होते रहे। रास्ते में लोगों ने पूछा, ‘यह सब क्या है.?’ बूढ़े ने कहा, ‘यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने पहले तिरस्कार कराया और अब हंसी उड़वा रहा है।’

शिक्षा:- तात्पर्य यह है के पहले तोलें फिर बोलें। चाहे कम बोलें मगर जितना भी बोलें, मधुर बोलें और सोच समझ कर बोलें।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “विश्व विवशता दिवस” # [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकीअत्यंत विचारणीय  दो लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

आज विश्व विवशता दिवस है? मुझे पता नहीं। होता भी है या नहीं, में नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य जानता हूँ कि जब विश्व में  ऐसी विवशताएँ हैं, तो हम सभ्य हैं, विकसित हैं, आदमी हैं, ये भ्रम टूट जाता है।

तो फिर पढ़िए,  ऐसी ही दो विवश लघुकथाएं:-

[1] सिलेक्शन

वह हर सवाल का जबाव देता था सिर्फ एक सवाल को छोड़कर, और वह सवाल होता था, “यदि तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे ? “इस सवाल पर वह  हमेशा चुप रह जाता। खाली पेट और खाली जेब लिए लौट आता।

आज भी वह थका-हारा, निराश, बोझिल कदमों से अपने ख्यालों में खोया चला जा रहा था। उसे अपनी बीमार माँ और ब्याह लायक बहन याद आ रही थी। वह खुद भी दो दिन से भूखा था। सूर्य अभी अस्त नहीं हुआ था, लेकिन उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। तेजी से आती हुई एक कार से वह अचानक टकरा गया। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। लोग जमा हो गए। असहनीय वेदना और नीम बेहोशी में उसने देखा, उसकी एक टाँग बुरी तरह टूट गई थी।

“अरे, इसे अस्पताल ले चलो,” भीड़ मे से कोई बोला।

“नहीं-नहीं, मुझे अस्पताल मत ले चलिए”, कराहते हुए उसने कहा।

“देखो, तुम्हारी टाँग टूट चुकी है। हम अस्पताल ले चलते हैं। घबराओ मत, अस्पताल का सारा खर्च मैं दूँगा।” कारवाले ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा।

“प्लीज़, मुझे अस्पताल मत ले चलिए।” कुछ संयत हो हाथ जोड़ते हुए वह पुनः बोला- “मैं सात साल से बेकार हूँ। मुझे नौकरी तो नहीं मिलेगी। पर हाँ, टाँग टूटने से भीख तो मिल सकती है। ” कहते हुए उसने जेब से अपनी डिग्री निकाली। उसके टुकड़े-टुकड़े कर हवा में उछालते हुए, अपनी हथेली लोगों के सामने फैला दी। हथेली पर कुछ सिक्के जमा हो गए। उसने एक क्षण अपनी हथेली को और दूसरे क्षण अपनी कटी हुई टाँग को देखा। उसे लगा यह उसका एक सौ छत्तीसवाँ इंटरव्यू है, जिसमें उसने उस सवाल का भी जवाब दे दिया है : ” अगर तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे?”

“अपनी टाँग।” एक दर्दभरी मुस्कान के साथ वह बुदबुदा उठा।

और इस बार उसका सिलेक्शन हो गया, एक भिखारी की पोस्ट के लिए।

[2]  औरत का गहना 

इदरिस बहुत बीमार था। पाँच बच्चों का बोझ ढोते-ढोते उसे पता ही नहीं चला,  कब मामूली खाँसी धीरे-धीरे उसकी साँसों में समा गई।

अबकि बार खाँसी का दौरा उठा तो नूरा काँप गई। उसे प्राइवेट डाक्टर को बुलाना ही होगा, मगर उसकी फीस ? अचानक उसकी निगाह उँगली में पड़े पुराने चाँदी के छल्लों पर गई। ये छल्ले इदरिस ने उसे सुहागरात को दिए थे। कहा था- “नूरा, ये मेरे प्यार की निशानी है, इन्हें कभी जुदा मत करना।” जब देनेवाला ही जुदा हो जाए तो ये किस काम के।

थोड़ी देर बाद नूरा की उँगली में छल्लों की जगह सौ-सो के दो नोट थे। एक घंटे बाद डाक्टर ने ये नोट लेते हुए कहा- “तुमने बहुत देर दी,  खुदा पर भरोसा रखो।”

डाक्टर के जाते ही नूरा इदरिस के पास आकर उसकी छाती सहलाने लगी। इदरिस का ध्यान उसकी उँगली पर गया। वह बोला-” अरे, तुम्हारे छल्लों का क्या हुआ,? लगता है, तुमने बेच दिए। ले-दे के यही तो एक गहना था तुम्हारे पास।”

“ये क्या कहते हैं आप?  हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते हैं, अच्छे हो जाना, फिर आ जाएँगे।”

इदरिस न अच्छा हो सकता था और न हुआ।

इदरिस के चले जाने के बाद नूरा टूट गई। जब घर के  डिब्बे खाली हों तो पेट कैसे भर सकता है! नूरा सोचती ही रही, न जाने कब हारून बड़ा होगा, अभी तो बारह बरस का ही है। जमीला भी तो सयानी हो गई। जवानी गरीबी-अमीरी कुछ नहीं  देखती, बस चढ़ी ही चली जाती है। इदरिस था तो आधा पेट तो भर जाता था, अब उसके भी लाले पड़ गए। इदरिस का खयाल आते ही उसे हारून  याद आया।

एक दिन हारून को हल्का-सा बुखार हो आया, साथ ही कुछ खाँसी भी। नूरा ने गौर से देखा, न केवल हारून का चेहरा, बल्कि उसकी खाँसी भी इदरिस से मिलती-जुलती है। उसके कानों में प्राइवेट डाक्टर के शब्द गूँज उठे- “तुमने बहुत देर कर दी।”

“या अल्लाह, रहम कर मेरे हारून पर। ”  नूरा बुदबुदा उठी। अपनी उँगलियों को देखकर बोली-”  अब तो छल्ले भी नहीं  है, समझ में  नहीं आता,  क्या करूँ?”

“तू फिक्र मत कर अम्मा, अब देर नहीं होगी।प्राइवेट डाक्टर जरूर आयेगा।” जमीला  ने अम्मा को हिम्मत दी।

शाम को डाक्टर आया। सूई लगाते बोला- “घबराने की कोई बात नहीं। मै ठीक वक्त पर आ गया। ये जल्दी ठीक हो जायेगा। “जमीला ने डाक्टर को फीस दी। हारून के लिए  फल भी लायी। डाक्टर के जाते ही नूरा ने पूछा – “अरी जमीला, मैं पूछती हूँ, ये फीस, ये दवा, ये फल, तू पैसे कहाँ से लायी?”

“अम्मा,  मुझे कुछ काम मिल गया था।” यह कह जमीला औंधी पड़ सुबकने लगी। उसे नूरा के शब्द याद आए -” हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते  हैं।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – दो पैग रोज ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “दो पैग रोज)

☆ लघुकथा – दो पैग रोज ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“यार, तू सारा दिन रोबोट की तरह काम करता रहता है, थकता नहीं क्या? कभी तेरे चेहरे पर थकावट नहीं देखी, चिड़चिड़ाहट नहीं देखी, घबराहट भी नहीं देखी, बस मुस्कुराहट ही मुस्कुराहट देखी है। ओए, इसका राज तो बता यार?” संदीप ने सुरेश के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

“बस यही राज है- मुस्कुराहट”, सुरेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं किसी भी काम को बोझ मानकर नहीं करता। अपना उसूल है- काम तो करना ही है, चाहे रो कर करो या हंस कर, तो हंस कर क्यों ना किया जाए। जैसे दूसरे लोग मोबाइल पर या कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं, वैसे ही मैं अपने हर काम को एक खेल की तरह लेता हूं, और उसे पूरे मनोयोग से करने की कोशिश करता हूं। तुम्हें सुनकर हैरानी होगी कि सौ प्रतिशत नहीं, तो नब्बे-पचानवे प्रतिशत कार्यों में मैं सफल रहता हूं। तो खुश तो रहूंगा ही, और खुश रहूंगा तो मुस्कुराहट भी अपने आप आएगी चेहरे पर…।”

“फिर भी यार, कभी तो बंदा थकता ही है। पर तुम तो हमेशा ऊर्जावान ही रहते हो। कुछ तो गड़बड़ है?” संदीप ने तह तक जाने की कोशिश की।

सुरेश फिर मुस्कुरा दिया, ‘हां है- दो पैग रोज।”

“हां, अब आए न लाइन पर…”, संदीप को जैसे मनचाहा उत्तर मिल गया हो, “मैं कह रहा था न कि कुछ तो है।”

“वह वाले पैग नहीं मियां, जो तुम सोच रहे हो”, सुरेश ने हंसते हुए कहा, “वह तो तुम भी लेते हो, फिर एनर्जी क्यों नहीं आती?”

“फिर? फिर कौन से पैग?” संदीप चकरा गया।

“देखो, तुम दो पैग रोज रात को लगाते हो, मैं एक सुबह और एक शाम को पीता हूं। पर जितने में तुम्हारा एक पैग बनता है, उसके आधे में मेरे दो पैग बन जाते हैं। फिर भी एनर्जी तुमसे दोगुनी।” सुरेश ने कहा।

इस पर संदीप और उलझ गया, ‘ऐसे कौन से पैग हैं भई? कहीं देसी ठर्रा तो नहीं? पर तुम्हें तो कभी पीते हुए भी नहीं देखा, न किसी से सुना है कभी?”

“हां, मैं दारू नहीं पीता, बल्कि वैद्य की सलाह से आयुर्वेदिक टॉनिक लेता हूं, जिससे इतना उर्जावान, चुस्त और जवान रहता हूं। मेरी अपनी सोच है- बीमार होकर दवाइयां खाने से अच्छा है, अच्छी खुराक खा कर और स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक पीकर स्वस्थ रहना। क्यों सही है न…।”

संदीप उसकी बात का अवलोकन कर रहा था…।

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ??

वह बहती रही, वह कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

वह बहती रही।

© संजय भारद्वाज

प्रातः 8:35, 21 मई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन– भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मनपसंद कुर्सी से आत्मलोचन जी के प्रबल आत्मविश्वास में और भी ज्यादा वृद्धि हुई और हुक्म चलाने की अदा में कुछ बेहतर पर कड़क निखार आ गया. ये कुर्सी उन्हें सिहांसन बत्तीसी की तरह अधिनायक वादी पर दिनरात एक कर लक्ष्य पाने का ज़ुनून दे रही थी और उनका इस विशिष्ट कुर्सी के प्रति प्रेम, चंद्रकलाओं की तरह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. जिलाधीश को अक्सर किसी न किसी मीटिंग में भाग लेकर अध्यक्षता करनी पड़ती है अथवा संभागीय स्तर के उच्चाधिकारी, प्रभारी मंत्री ,सांसद, विधायकों की अध्यक्षता में आहूत बैठक में भाग लेना पड़ता है.तो जब भी बैठक की अध्यक्षता करनी होती तो बंगले से सिंहासनबत्तीसी की जुड़वां कुर्सी मीटिंग हॉल में आ जाती अन्यथा आत्मलोचन जी को उनसे ऊपर वालों की उपस्थिति में हो रही मीटिंग्स में प्रोटोकॉल के कारण बहुत अनमनेपन से सामान्य कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता.कलेक्टर की अध्यक्षता में साप्ताहिक TL याने टाईमलिमिट मीटिंग पहले हर मंगलवार को निर्धारित थी पर जब उन्होंने पाया कि जिलास्तर के विभागीय प्रमुख अपना सप्ताहांत  महानगर स्थित परिवार के साथ बिताने के बाद सोमवार को “देरआयद दुरुस्तआयद” की प्रक्रिया का पालन कर आराम से कार्यालय पहुंचते हैं तो उन्होंने TL meeting को सोमवार 11बजे से लेना प्रारंभ कर दिया. उनके बहुत सारे अधीनस्थ इससे परेशान तो हुये क्योंकि अब उन्हें हर हाल में जिला मुख्यालय में सुबह पहुंचना पड़ता था पर और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था क्योंकि वीकएंड में मुख्यालय बिना अनुमति के छोड़ने की परंपरा यहां पर भी सामान्य रूप से प्रचलन में थी. हर तिमाही रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार होने वाली बैठक उनकी अध्यक्षता में होती थी जिसके बिंदुवार अनुवर्तन के मामले में वो बहुत कुशल और कड़क थे और पिछली मीटिंग्स में दिये गये आश्वासन पूरे नहीं होने पर false promise करने वाले अधिकारियों की कड़क समझाइश भी की जाती थी भले ही वह व्यक्ति उनके अधीन हो या न हो.उनका यह सोचना था कि जिले की प्रगति के साथ अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी है और हर मीटिंग्स के लक्ष्य शत-प्रतिशत पूरा करना उपस्थित अधिकारियों का कर्तव्य.इस बारे में उनके हर कोआर्डिनेटर को स्पष्ट निर्देश थे कि मीटिंग्स अटैंड करनेवाले लोग अधिकारसंपन्न हों,कई बार प्राक्सी लोगों को आने पर मीटिंग्स से वापस भेजने की परिपाटी उनके कार्यकाल में ही रिवाज में आई.

आत्मलोचन जी अविवाहित थे और अपने माता पिता के साथ अपने बंगले में सामान्य पर गरीबी मुक्त वैभवशाली जीवन व्यतीत कर रहे थे जो उनकी प्रतिभा, निष्ठा, परिश्रम और सौभाग्य के कारण उनका हक था पर उनके शिक्षक पिता कभी कभी अपने पुत्र के व्यवहार में संवेदनहीनता, घमंड, निर्दयता की झलक पाकर चिंतित हो जाते थे. पुत्र की असीम उपलब्धियों ने , पिता से पुत्र को सलाह देने या कुछ सुधार करने की पात्रता छीन ली थी और पितृत्व की शक्ति का स्थान, इन अवगुणों को नजरअंदाज करने की निर्बलता लेती जा रही थी.

 पुत्र इस बात पर आश्वस्त थे कि पिता ने उसके ऊपर जो भी इन्वेस्ट किया था उससे कई गुना सम्मानित और वैभवशाली जीवन वह अपने पिता को लौटा चुका है तो अब पिताजी को अपना शेष जीवन आराम से अपनी रुचियों (हॉबीज़) के साथ बिताना है और कम से कम पुत्र के जीवन में अब कोई दखलंदाजी करने की जगह नहीं है और आखिर हो भी क्यों और वो क्या समझें कि कलेक्टर का दायित्व कितना बड़ा होता है.

 पिता और पुत्र के बीच संवाद की एक ही स्थिति थी “संवादहीनता” जो धीरे धीरे कब अपना स्थान बनाती गई, दोनों को पता नहीं चल पाया. जन्म केे  रिश्तों का अपनापन, अधिकार और गरमाहट कब ठंडी पड़ गई ,एहसास बहुत धीमे धीमे हुआ पर आखिर हो ही गया और पिता और पुत्र एक ही बंगले में एक दूसरे के अस्तित्व को अनुपस्थिति के समान उपस्थिति से भरा समय समझते हुये गुजारते जा रहे थे.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – गरीबी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  – गरीबी। )

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – गरीबी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

एक पुरानी कहानी है। एक युवक आत्महत्या करने जा रहा था। राह में उसे एक साधु मिला। उसने आत्महत्या करने का कारण पूछा तो युवक ने बताया कि मैं बहुत दुखी व परेशान हूँ। जीवन से ऊब चुका हूँ, मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है और गरीबी से तंग आकर मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ।

इस पर वह साधु कुछ देर युवक से इधर-उधर की बातें करने लगा। फिर बोला-” मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूँ, जिसके हाथ नहीं हैं। वह तुम्हारे हाथ के बदले एक लाख रु.दे सकता है। ” 

” वाह, मैं भला उसको अपने हाथ कैसे दे सकता हूँ ? ” युवक ने अपने हाथों को देखते हुए कहा।”

” मैं एक और आदमी को जानता हूँ, जिसके पाँव नहीं है। वह तुम्हारे पावों के बदले तुम्हें दो लाख दे सकता है। “

“दो लाख रु. के बदले क्या मैं अपने कीमती पाँव गिरवी रख दूँ ? ” इस बार युवक ने तैश में आकर कहा।

“मैं एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ, जो तुम्हारी आँखों के बदले तुम्हें पाँच लाख रु. दे सकता है। “

साधु के कहने पर युवक इस बार गुस्से से बोला-” मेरी आँख को हाथ लगातेवालों की मैं आँखें फोड़ दूँगा। तुम कैसे साधु हो ? मुझ गरीब को अपाहिज बनाने पर तुले हो। “

इस पर साधु ने हँसते हुए कहा-” यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, तुम्हारे हाथ-पांँव और आँखें मिलाकर ही लाखों होते हैं। फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? ” युवक को बोध हुआ। उसने साधु से क्षमा माँगी और आत्महत्या का विचार छोड़कर एक नये उत्साह से वापस मुड़ गया।

उसके बाद दूसरे दिन वह युवक कहीं बाहर जा रहा था। उसे रास्ते में बाल बिखराए और मुँह लटकाए उसका मित्र मिला। उसने मित्र से कहा- “यार, ये क्या हाल बना रखा है ?”

” क्या बताऊँ यार, बहुत दुखी और परेशान हूँ। माँ-बप बीमार चल रहे हैं। बहन ब्याह लायक हो गई । बीबी और बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इस गरीबी से अच्छा है मौत आ जाए। “

मित्र ने कहा – ‘ ऐसा नहीं कहते मित्र, मैं भी कल तुम्हारी तरह मरने की सोच रहा था। कल मुझे एक साधु मिला-” यह कहकर युवक ने उसे सारा किस्सा सुनाते हुए कहा-” ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? “

मित्र चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा, फिर बोला- “क्या वह साधु सच कह रहा था ? क्या वह ऐसे लोगों को जानता है जो हाथ-पाँव खरीदते हैं?”

“सच ही कहा होगा-साधु लोग झूठ नहीं बोलते, मगर क्यों?”

” कुछ नहीं, यूँ ही।” मित्र ने अपने परिवार को याद करते हुए कहा- “मुझे उस साधु का पता बताना।”

(जहाँ ऐसी गरीबी हो, ऐसी विवशता हो, वहाँ, इसे मिटाने के अतिरिक्त कुछ और सोचना भी, राजद्रोह है, नैतिक अपराध है और जघन्य पाप भी। यह मेरा अपना निजी मत है। )

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

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 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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