हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #157 ☆ व्यंग्य – एक और त्रिशंकु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘एक और त्रिशंकु’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 157 ☆

☆ व्यंग्य – एक और त्रिशंकु

पुराणों में एक कथा राजा त्रिशंकु की है जिन्हें ऋषि विश्वामित्र ने सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। उन्हें इंद्र ने वापस ढकेला तो विश्वामित्र ने पृथ्वी और स्वर्ग के बीच उनके लिए अलग स्वर्ग का निर्माण कर दिया और वे वहीं लटके रह गये।

दूसरी कथा युधिष्ठिर की है। आयु पूरी कर जब वे दूसरे लोक गये तो उन्हें अश्वत्थामा की मृत्यु के संबंध में मिथ्याभाषण के दंडस्वरूप कुछ देर के लिए नरक जाना पड़ा। वहाँ नरकवासियों ने प्रार्थना की कि उन्हें कुछ देर और वहाँ रखा जाए क्योंकि उनको छू कर आने वाली हवा से उन्हें सुख मिल रहा था।

अब नेताजी की बात। छः बार दल-बदल करने और छत्तीस अपराधों में नामित होने के बाद भी स्वच्छंद विचरते नेताजी अचानक संसार से मुक्त हुए तो सीधे नरक पहुँचे। नेताजी दुखी हुए क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनके अपराधों के बावजूद उन्हें स्वर्ग में प्रवेश मिल जाएगा, जैसे वे दल बदल कर हर कैबिनेट में घुसने में सफल होते रहे थे। लेकिन ऊपर उनकी कोशिशें कारगर नहीं हुईं।

नेताजी के आने से एक गड़बड़ यह हुई कि नरक में अचानक भयानक दुर्गंध फैलने लगी। थोड़ी ही देर में नरकवासी उस दुर्गंध से त्रस्त हो गये। लोग अचेत होकर गिरने लगे। खोजने पर पता चला कि वह दुर्गंध नेताजी की आत्मा से निर्गमित हो रही थी।

दुर्गंध को रोकने के सारे प्रयास विफल होने पर तय हुआ कि नरकवासियों के हित में नेताजी को वापस धरती पर भेज दिया जाए, जहाँ वे आत्मा के ही रूप में कुछ दिन रहें। दुर्गंध कुछ कम होने पर उन्हें पुनः नरक में खींचने पर विचार होगा।

दुर्भाग्य से यह खबर पृथ्वी पर लीक हो गयी और वहाँ खलबली मच गयी। लोग मन्दिर- मस्जिद में इकट्ठा होने लगे। प्रार्थना के द्वारा ऊपर संदेश भेजा गया कि नेताजी से बमुश्किल-तमाम मुक्ति मिली है, अतः उन्हें किसी भी सूरत में धरती पर न भेजा जाए। यह भी कहा गया कि नेताजी खुराफाती स्वभाव के हैं, अतः उनकी आत्मा यहाँ किसी के शरीर में जबरन घुसकर उसकी आत्मा को अपने काबू में कर लेगी और उसे अपने मंसूबों के हिसाब से चलाने लगेगी। लोगों ने प्रभु से यह भी कहा कि यदि नेताजी की आत्मा को पृथ्वी पर भेजा गया तो लोगों का भरोसा ईश्वर पर से उठ जाएगा और उनकी पूजा-अर्चना बन्द हो जाएगी।

यह संदेश ऊपर पहुँचा तो वहाँ सभी चिन्ता में पड़ गये। विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि फिलहाल नेताजी को ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा त्रिशंकु के लिए बनाये गये स्वर्ग में भेज दिया जाए,जहाँ एक के बजाय दो हो जाएँगे। निर्णय होते ही नेताजी की आत्मा को त्रिशंकु के स्वर्ग में ढकेल दिया गया।

दो तीन दिन बाद ही ऊपर राजा त्रिशंकु की गुहार पहुँची—‘हमें यहाँ से निकाला जाए। हम पृथ्वी पर वापस जाने के लिए तैयार हैं। अब हमारी स्वर्ग में रहने की इच्छा मर गयी है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 115 ☆ भाषा सम्मेलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “भाषा सम्मेलन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 115 ☆

☆ भाषा सम्मेलन ☆ 

सभी भाषाओं का सम्मेलन हो रहा था अंग्रेजी बड़े गर्व के साथ उठी और कहने लगी मैं सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हूँ, मुझे जितना सम्मान भारत  में मिला उतना कहीं नहीं, धन्यवाद भारतीयों।

फ्रेंच, रूस, जापानी, चीनी सभी  भाषाएँ एक एक कर मंच पर अपनी प्रस्तुति देतीं गयीं व सभी ने हिंदी की प्रशंसा व्यंग्यात्मक लहजे में मुक्त कंठ से की।

सबसे अंत  में  हिंदी को मौका  मिला, तो उसने कहा आप सब का धन्यवाद  मैंने तो सदैव सबको समाहित किया है क्योंकि  भारतीय संस्कार हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम का पालन कर रहे हैं , जो समष्टि का पोषक करता है वही दीर्घजीवी व यशस्वी होगा ऐसा दार्शनिक व वैज्ञानिक दोनों ही आधार पर सिद्ध हो चुका है।

ये सब कहीं न कहीं सत्य है। हिंदी पखवाड़े में हिंदी पर हिंदी भाषी ही चिंतन करते हैं और बाद में निराश होकर टूट जाते हैं और हिंदी के लेखन व ऑफीसियल कार्यों में इसके प्रयोग को नियमित नहीं कर पाते। दरसल हिंदी के कठिन शब्दों को ही अंग्रेजी के विकल्प के रुप में रखा जाता है। क्या आपने कभी गौर किया कि हमेशा हिंदी प्रयोग करने वाला भी बैंक या अन्य ऑफिस के कार्यों में अंग्रेजी का ही विकल्प चुनता है क्योंकि उसमें बोलचाल के शब्द होते हैं जबकि उत्कृष्ट हिंदी पढ़कर वो सहसा भूल जाता है कि क्या लिखा है।

हमें सामान्य बोलचाल की भाषा व ऐसे शब्द हो हिंदी ने आत्मसात कर लिए हैं उनका ही प्रयोग करना चाहिए। पूरे राष्ट्र को एक भाषा सूत्र में पिरोने हेतु बोलियों के प्रचलित शब्दों को भी बढ़ावा देना होगा। सरलता व सहजता से ही अहिंदी प्रान्तों को हिंदी प्रेमी बनाना होगा। पूरे वर्ष भर हिंदी के प्रयोग को एक आंदोलन के रूप में चलाना चाहिए। भारतेंदु  हरिश्चंद्र जी ने सही कहा है – निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। आइए संकल्प लें कि हिंदी में बोलेंगे, लिखेंगे और अन्यों को भी प्रेरित करेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 30 ☆ नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!! ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!”।) 

☆ शेष कुशल # 30☆

☆ व्यंग्य – “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हार में गुंथे एक फूल ने दूसरे से कहा – ‘मैं मर जाना चाहता हूँ.’

दूसरे ने कहा – ‘चौबीस-छत्तीस घंटे की ही तो लाईफ और बची है, कल तक सूख-साख जाओगे, फिर तो मिट्टी में मिलना तय है.’

‘चौबीस घंटे एक लंबा वक्त है दोस्त, मैं चौबीस सेकण्ड्स भी जीना नहीं चाहता. विधाता ने हम फूलों में जान तो डाल दी मगर हाराकीरी कर पाने के साधन नहीं दिए वरना अभी तक तुम मेरी मिट्टी देख रहे होते. मादक खूशबू, खूबसूरत पंखुड़ियाँ, ये चटख रंग एक झटके में सब के सब बदरंग हो गए हैं. अब मैं और जीना नहीं चाहता.’

‘कुछ देर पहले तक तो ठीक-ठाक थे अचानक ऐसा क्या हो गया है ?’

‘देख नहीं रहे! सम्मान करने के परपज से जिस गले में हमें डाला गया है वो नृशंस हत्या और बलात्कार कांड के सजायाफ़्ता मुजरिम का गला है. वह उस गुलबदन को मसल देने का अपराधी है जिसके गर्भ में एक पाँच माह की कली पनप रही थी. उसी की टहनी से फूटी नन्ही नाजुक सी ट्यूलिप को पत्थर पर पटक पटककर जिन्होने कुचल दिया उनकी सज़ा माफ कर दी गई है. गला इनका है और दम मेरा घुट रहा है. जो शख्स कैक्टस का हार पहनाए जाने की पात्रता नहीं रखते उसके गले को गुलों-गुलाबों से सजाया गया है !!, उफ़्फ़…. घिन आने लगी है दोस्त अब और जीने का मन नहीं है.”

फिर उसने हार में से कुछ तिरछा होकर आसमान की ओर देखा और कहा – ‘आगे से अंटार्कटिका में उगा देना प्रभु मगर आर्यावर्त में नहीं. मैं टहनियों में उगे कांटो के बीच रह लूँगा मगर नए दौर के आकाओं के निमित्त निर्मित मालाओं, गुलदस्तों में तो बिलकुल नहीं भगवान. कभी हम देवताओं के हाथों बरसाए जाने के काम आते रहे, आज अपराधियों के संरक्षकों के हाथों बरसाए जा रहे हैं. हमारी प्रजाति में जूही, चम्पा, चमेली किसी रेपिस्ट के रिहा होने पर तिलक नहीं लगातीं, आरती नहीं उतारतीं. आर्यावर्त में जुर्म, सजा, इंसाफ अपराध की प्रकृति देखकर नहीं, अपराधी का संप्रदाय और रिश्ते देखकर तय होने लगे हैं. हम आवाज़ नहीं कर पाते मगर समझते सब हैं. आर्यावर्त में बगीचे के माली फूलों को उनका धरम देखकर सींचते हैं. विधर्मी फूल सहम उठते हैं, कब कौन मसल दिया जाएगा कौन कह सकता है. कभी संगीन अपराधों पर सन्नाटा पसर जाया करता था अब ढ़ोल-ताशे बजते हैं. बजते रहें, इल्तिजा बस इतनी सी है प्रभु सहरा के रेगिस्तान में उग लें, साईबेरिया की बर्फ में उग लें, सागर की गहराईयों उग लें – आर्यावर्त में नहीं मालिक.’

‘मैं समझ सकता हूँ दोस्त, अब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी भी नहीं रहे कि तुम्हारी निराशा को स्वर दें सकें.’

‘पता है मुझे. कोई बात नहीं अगर वनमाली उस पथ पर न फेंक पाए जिस पर शीश चढ़ाने वीर अनेक जा रहें हों, कम से कम बलात्कारियों के पथ पर तो न डालें. सुरबाला के गहनों में गूँथ दें, चलेगा. प्रेमी-माला में बिंध दें – इट्स ऑलराईट. सम्राटों के शव पर अपने को सहन कर लूँगा. देवों के सिर पर चढ़ा दे तब भी कोई बात नहीं, हत्यारों बलात्कारियों के गर्दन-गले की शोभा तो न बनाएँ मुझे.’  उसने फिर साथी फूल से मुखातिब होकर कहा – ‘ये मिठाई, ये अबीर गुलाल और ये आतिशबाज़ी! इन्हे मामूली स्वागत समारोह की तरह मत देखना दोस्त – ये आनेवाले कल के आर्यावर्त का ट्रैलर है. फूलों की आनेवाली जनरेशन को इससे कठिन समय देखना बाकी है.’

‘डोंट वरी, हमें बहुत नहीं सहना पड़ेगा. जमाना आर्टिफ़िशियल फ्लावर का है. न उनमें जान होगी न तुम्हारी तरह जान देने की जिद. और लीडरान ? वे तो आर्टिफ़िशियल रहेंगे ही, अन्तश्चेतना से शून्य.’

सजा-माफ बलात्कार वीर समूह माला पहने-पहने तस्वीर खिंचवा रहा है. तस्वीर कल सुबह अखबार के कवर पेज पर नुमायाँ होगी. नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बांध और बाढ़ का खेल”)  

☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

एक अभियंता की दया से बांध बनाने का ठेका मिल गया, बांध बियाबान जंगल के बीच पिछड़े आदिवासी इलाके में बनना था, बीबी गर्व से फूली नहीं समा रही थी कहने लगी – अर्थ वर्क भ्रष्टाचार के रास्ते खोलता है और अमीर बनाने के खूब मौके देता है कमा लो जितना चाहो…। दो बड़े पहाड़ों को एक बड़ी मेंड़ बनाकर जोड़ने का काम था ताकि बहती नदी के पानी को रोका जा सके। इधर शहर में साहब का बंगला बनाने का नक्शा भी पास हो गया था। “बांध के साथ शहर में इंजीनियर साहब का बंगला भी बनता रहेगा” साहब के इसी इशारे में काम दिया गया था। सीमेंट, गिट्टी, लोहा शहर से खरीदा जाता बांध के लिए। पर पहली खेप बंगले बनने वाली जमीन पर उतार दी जाती। फिर बांध के नाम का बिल तुरंत पास हो जाता। 

बांध का काम चलता रहा और साहब का बंगला तैयार…। उधर साहब कभी कभी बांध के पास बनी कुटिया में शराब, शबाब और कबाब में डूबे रहते और शहर के बंगले के बेडरूम में उनकी मेडम फिनिशिंग का काम कराती रहती। बरसात आयी खूब पानी गिरा, लीपापोती के चक्कर में साहब ने बांध बह जाने की रिपोर्ट ऊपर भेज दी। साहब का बंगला रहने के लिए तैयार और साहब ने पैसे देकर ट्रांसफर करा लिया। 

अब जो नया साब आया उसे बड़े टाइप के बांधों में घोटाला करने का अच्छा अनुभव था… नाम  सलूजा साब। एक दिन शराब के नशे में सलूजा जी ने बड़े बांधों में घपले के किस्से सुनाए – बांध  बनने से बहुत से गांव डूब जाते हैं, बड़ी आबादी विस्थापित होती है, सोना-चांदी उगलतीं फसलें तबाह होतीं हैं गरीब बेसहारा हो जाते हैं और बांध बनाने वाले अधिकारी और ठेकेदारों की चांदी हो जाती है, बंगले और मंहगी गाड़ियों में ईजाफा हो जाता है। 

अभी एक खबर सुनी, ये भी आदिवासी जिले के 305 करोड़ लागत के बांध के घपले की खबर थी। खबर सुनकर बड़बड़ाना स्वाभाविक है कि हम लगातार बांधों का निर्माण तो करते जा रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बांध प्रबंधन का सलीका नहीं सीख पाए हैं। यदि बांध से बाढ़ को रोका जा सकता है तो पूरा देश बाढ़ की चपेट में आकर क्यों बर्बाद हो रहा है। बांध बनते जा रहे हैं और बाढ़ से तबाही भी बढ़ती जा रही है। बाढ़ देखने के हवाई दौरे भी बढ़ रहे हैं। बांध और बाढ़ की चर्चा पर करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं, और बांध बाढ़ से दोस्ती करके हाहाकार मचवाये हुए हैं। नेता लोग बांध घूम कर बाढ़ का मजा लेते हैं और बाढ़ में गरीब लोग मरते हैं। बिहार में 47 साल से बन रहा 380 करोड़ रुपये का बांध उदघाटन होने के एक दिन पहले ही बह गया था।  बांध भी मुख्यमंत्रियों से डरता है। आरोप लगे कि बांध को दलित चूहों ने कुतर दिया इसलिए बांध बह गया। गंगा मैया सागर से मिलने उतावली है और उसे बांध में बांध दोगे तो क्या अच्छी बात है गंगा मैया नाराज नहीं होगी क्या? उदघाटन के पहले मुख्यमंत्री को गंगा मैया में नहा-धोकर पाप कटवा लेना चाहिए था, तो हो सकता है कि बिहार का बांध बच जाता। 

दूरदराज और जंगल के बीच बने छोटे छोटे  बांध आंकड़ों में चोरी हो जाते हैं अक्सर। असली क्या है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है न, इसलिए बांध और बाढ़ की जरूरत पड़ती होगी देश पूरी तरह खेती पर आश्रित है और इन्द्र महराज पानी देने में पालिटिक्स कर देते हैं तो सिंचाई के लिए बांध और नहरों की जरूरत पड़ती है। बांध बनाने के पहले विरोध होता है फिर बांध बनते समय विरोध होता है और बांध बन जाने के बाद विरोध होता है क्योंकि विरोध करना हमारी संस्कृति है। 

सबको मालूम है कि जब बड़े बांध बनते हैं तो हजारों गांव खेती की जमीन पशु, पक्षी, पेड़, पौधे सब डूब जाते हैं विस्थापितों के पुनर्वास में लाखों करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं फर्जी भू-रजिस्टरी का कारोबार पकड़ में आता है।

गंगू बांध और बाढ़ की दोस्ती से परेशान है, बिहार वाले नेपाल के बाधों से परेशान हैं और किसान हर तरफ से परेशान है। दुख इस बात का है कि इस बार आदिवासी क्षेत्र के इस 305 करोड़ रुपए लागत के  बांध के फूटने की खबर ने हजारों किसानों को रक्षाबंधन और आजादी का अमृत महोत्सव चैन से नहीं मनाने दिया।  

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #156 ☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 156 ☆

☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान

रोड पर चलते हुए कुछ दूर पर भीड़ सी देखकर उत्सुकतावश रुक गया। पास गया तो देखा भीड़ एक मूर्ति को घेरे थी। आरती और पूजा का कार्यक्रम चल रहा था। भीड़ से छटक कर एक सज्जन निकले तो पूछा, ‘यहाँ क्या हो रहा है?’

जवाब मिला, ‘यह हमारे समाज के कवि जी की मूर्ति है। आज उनका जन्मदिन है, इसलिए समाज का कार्यक्रम चल रहा है। इन्होंने हमारे समाज का नाम ऊँचा किया है।’

मैंने पूछा, ‘इनकी कविताएँ आपने पढ़ी हैं?’

जवाब मिला, ‘अभी पढ़ी तो नहीं हैं, लेकिन इनकी दो किताबें है हमारे पास हैं। समाज ने मँगवा कर सबको बँटवायी थीं।’

मैंने पूछा, ‘आप दूसरे कवियों को पढ़ते हैं?’

वे बोले, ‘अरे भैया, कहाँ घसीट रहे हो? हम व्यापारी आदमी हैं। हमें धंधे से फुरसत मिले तो कविता अविता देखें। ये सब फुरसत वालों के काम हैं।’

घर पहुँचा तो वह घटना दिमाग में घूमती रही। सोचते सोचते अपराध-भाव से घिरने लगा। बार-बार यह विचार कुरेदने लगा कि दूसरे समाजों में लोग जाति-गर्व से फूले हैं, और एक मैं हूँ कि कभी अपनी जाति पर गर्व करने का सोचा नहीं, जबकि हर क्षेत्र में हमारी जाति के झंडे लहरा रहे हैं। शहर में महाराणा प्रताप और सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा हमारी जाति के किसी बड़े आदमी की मूर्ति दिखायी नहीं पड़ी, जो निश्चय ही अफसोस की बात है। इस सबके बीच मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। बुलाये जाने पर भी अपनी जाति के कार्यक्रमों से कन्नी काटता रहा। कभी जाति पर गर्व नहीं किया।

इसलिए सोचा कि फिलहाल हमारे समाज के उन महानुभावों के नाम खोज कर सामने लाऊँ जिन्होंने साहित्य में नाम किया है और हमारे समाज का नाम रोशन किया है। बताना ज़रूरी है कि जैसे हमारे समाज ने वीरता में इतिहास रचा, वैसे ही साहित्य में कम हासिल नहीं किया।

प्रातःस्मरणीय सुभद्रा कुमारी जी का नाम ले चुका हूँ। उनकी ‘खूब लड़ी मर्दानी’ तो आप भूल नहीं सकते। उनसे पहले हमारे समाज के एक और साहित्यकार राधिका रमण प्रसाद सिंह हुए थे जिनकी कहानी ‘कानों में कंगना’ खूब चर्चित हुई।

हमारी जाति का समाज साहित्यकारों की खान रहा है। आलोचना में शीर्षस्थ नामवर सिंह हमारे समाज में ही अवतरित हुए। उनके अनुज काशीनाथ सिंह ने कहानी और उपन्यास में झंडे गाड़े। उनके समधी दूधनाथ सिंह एक और महत्वपूर्ण कथाकार रहे। आलोचना में नामवर जी के अलावा कर्ण सिंह चौहान और चंचल चौहान भी सुर्खरू हुए। इसी काल में हमारे समाज में ‘नीला चाँद’ उपन्यास के रचयिता शिवप्रसाद सिंह भी मशहूर हुए। बताना ज़रूरी है कि ‘आँवा’ उपन्यास की लेखिका चित्रा मुद्गल जी जन्म से हमारे समाज की हैं।

कवियों में ‘ताप के ताए हुए दिन’ के रचयिता महाकवि त्रिलोचन (असली नाम वासुदेव सिंह) और ‘कुरुक्षेत्र’ वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को कौन भूल सकता है? इसी परंपरा में आगे ‘बाघ’ के कवि केदारनाथ सिंह ने खूब यश अर्जित किया।        

हमारे समाज के दो और चमकते सितारे ‘टेपचू’ और ‘तिरिछ’ के लेखक उदय प्रकाश और ‘लेकिन दरवाज़ा’ वाले पंकज बिष्ट हैं। किसी को आपत्ति न हो तो ख़ाकसार को भी इस सूची के अन्त में जोड़ा जा सकता है, यद्यपि अपना योगदान कुछ ख़ास नहीं है।

अभी यह सूची खुली है और खुली ही रहेगी। जो छूट गये हैं वे कुपित न हों। उम्र के साथ मेरी स्मरण-शक्ति कमज़ोर हो रही है, इसलिए भूल सुधार का सिलसिला चलता रहेगा। फिलहाल मैंने ‘हिन्दी साहित्य में क्षत्रियों का योगदान’ पुस्तक की शुरुआत कर दी है। मुकम्मल होने पर जनता-जनार्दन की ख़िदमत में पेश करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 114 ☆ पूछ से पूँछ तक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “पूछ से पूँछ तक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 114 ☆

☆ पूछ से पूँछ तक ☆ 

उत्सव समाप्त की विधिवत घोषणा भी नहीं हो पायी थी कि एक बड़ा खेमा विरोध में खड़ा हो गया। उसकी समस्या थी कि उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया, केवल एक की  ही पूँछ पकड़े साहब घूमते रहे, अब क्या किया जाए, प्रकृति ने तो इसे मानव से विलुप्त कर दिया है ठीक वैसे ही जैसे डायनासौर को, पर अभी भी  कुछ  लोग इसका भरपूर  उपयोग कर रहे हैं।

विरोधी ग्रुप ने खूब हाथ-पैर  पटके पर उम्मीद की किरण दिखाई ही नहीं दे रही थी, खैर उम्मीद पर तो दुनिया कायम  है वे लोग  समानांतर  संगठन बनाने लगे।

उनका नेता भी कोई कुटिल ही होना था क्योंकि  बिना इसके न तो रामायण पूरी हुई न महाभारत सो ये क्रम कैसे रुके, अच्छा भी है ये सब होते रहने से कुछ कड़वाहट भी फैलती है जिससे मीठे की बीमारी से बचाव होता है।

जब व्यक्ति  स्वान्तः सुखाय की दृष्टि धारण कर लेता है तो उसे स्वार्थी की संज्ञा समाज द्वारा दे दी जाती है।

अब प्रश्न ये उठता है कि क्या  स्व + अर्थ  =  स्वार्थ की कसौटी क्या होनी चाहिए इसका निर्धारण कौन करेगा। सभी अपने दृष्टिकोण से  सोचते हैं, तर्क देते हैं और खुद ही फैसला सुना देते हैं। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है यदि उससे किसी का नुकसान न हो  रहा हो तो।

जितना  भी विकास हुआ है उसमें मनुष्य की जिज्ञासू प्रवृत्ति से कहीं ज्यादा  स्वयं का हित ही समाहित रहा है। जब-जब केवल अपना हित चाहा प्रत्यक्ष रूप से तब-तब विरोध के स्वर मुखरित हुए।

यदि आपके विचारों से समाजोपयोगी कार्य हो रहे हैं तो अवश्य करें, जब तक एक जुट होकर सार्थक प्रयास नहीं होंगे तब तक स्वार्थ  सिद्धि में लगे लोग इसके सही अर्थ को न समझ पायेंगे न समझा पायेंगे।

छोड़ दो तुम स्वार्थ सारे।

थाम लो  नेहिल   सहारे।।

बीत   जायेगी   ये  रैना।

बात  सच्ची  मान  प्यारे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

चमत्कारी प्रशिक्षु: किस्सा इंदौर प्रशिक्षण केंद्र का है. वाकया उस वक्त का जब हर सत्र के दौरान विषय से संबंधित “हेंड आउट्स” सभी पार्टिसिपेंट्स को वितरित किये जाते थे. यह चमत्कारी युवा बड़ी शिद्दत से एक-एक हेंड ऑउट से अपना फोल्डर सजाता था. मजाल है कि एक भी कम हो जाये. पर फिर भी अविश्वास इतना कि कांउटिंग रोज होती थी. आज तक कितने हो गये. कभी कोई मजा़क में कह दे कि अरे तुम्हारे पास एक कम कैसे है, कौन सा पेपर नहीं है. फिर भारी टेंशन कि कौन सा वाला मिस कर दिया. किसी सहयोग करने वाले बंदे की शरण ली जाती, फुरसत में एक एक हैंड ऑउट, करेंसी की तरह टैली किये फिर पता चलता कि ये तो प्रैंक था.

उस जमाने में इंदौर कपडों के लिये भी प्रसिद्ध था तो रविवार उपलब्ध होने पर कपड़े भी खरीदे जाते. चमत्कारी युवक ने भी कपड़े खरीदे और कुछ ज्यादा ही खरीद लिये, लेटेस्ट फैशन और किफायती होने के कारण. अंतिम दिन जब पैकिंग की बारी आई तो ट्रेनिंग नोट्स के कारण फोल्डर भी भारी हो गया था. सूटकेस के बगावती तेवर सिर्फ एक ही ऑप्शन प्रदान कर रहे थे या तो तंदुरुस्त फोल्डर जगह पायेगा या नये कपड़े. और कोई दूसरा रास्ता था नहीं. वापसी की ट्रेन या बस जो भी रही हो, पकड़ने के लिये समय बहुत कम बचा था. निर्णय जल्दबाजी में, कुशल ज्ञानी सहपाठियों के सिद्धांत के आधार पर लिया गया. कपड़े छोड़े नहीं जा सकते क्योंकि मनपसंद और कीमती हैं. ज्ञान तो व्यवहारिक है, गिरते पड़ते सीख ही जायेंगें. फिर भी मन नहीं माना तो मेस के ही एक सेवक के पास अमानत के तौर पर रखवा दिये कि बहुत जल्दी फिर प्रशिक्षण पर आना ही है, इतनी जल्दी हम न सीखते हैं न ही सुधरते हैं. सेवक भी, प्रशिक्षण केंद्र में काम-काम करते-करते कोर्स से इतर विषयों में प्रशिक्षित हो गया था तो उसने हल्की मुस्कान से इन साहब के आदेश का पालन किया और अमानत में खयानत की भावना के साथ फोल्डर को अपना संरक्षण प्रदान किया.

वैसे जो फोल्डर लेकर जाते हैं, वे भी कितना पढ़ पाते हैं ये शोध का विषय हो सकता है या फिर confession का. 😀

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 151 ☆ “झाड़ू पुराण” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “झाड़ू पुराण”)  

☆ व्यंग्य # 151 ☆ “झाड़ू पुराण” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

इन दिनों झाड़ू वालों के दिन खराब चल रहे हैं। रह रहकर एजेंसियां और मीडिया झाड़ू वालों पर मेहरबान हैं। हर थोड़ी देर बाद कभी शिक्षा कभी स्वास्थ्य तो कभी शराब को लेकर दंगल पे दंगल देखने मिल रहे हैं। लोग बताते हैं कि स्वच्छता अभियान की सफलता में झाड़ू वालों ने और झाड़ू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जब झाड़ू की बात चलती है तो पता नहीं क्यों लोग पंजाब और दिल्ली को याद करने लगते हैं।

गंगू प्रतिदिन सुबह उठकर झाड़ू की पूजा करता है, गंगू ने बताया कि पौराणिक शास्त्रों में कहा गया है कि जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है वहां धन हानि होती है, शेयर बाजार धड़ाम से गिर जाता है, रूपया के गिरने की आदत बन जाती है, मंहगाई आसमान छूने लगती है, क्योंकि झाड़ू में धन की देवी महालक्ष्मी का वास माना गया है।

विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है। झाड़ू घर का कचरा बाहर करती है और कचरे को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है। जिस घर में पूरी साफ-सफाई रहती है वहां धन, संपत्ति और सुख-शांति रहती है, पर इधर कुछ दिनों से कुछ लोग हाथ धोकर, झाड़ू और झाड़ू वालों के पीछे पड़े हैं। परेशान होकर एक झाड़ूराम एक ज्योतिषी की शरण में गए और अपनी समस्या बताई। ज्योतिषी ने हाथ देखकर बताया कि आपकी असली समस्या 2024 है, कुछ लोग आपकी झाड़ू से डर गये हैं और आपके पीछे पड़ गए हैं, इसलिए कुछ उपाय हैं जिनसे थोड़ी राहत मिल सकती है। पहली बात तो यह है कि आप झाड़ू के प्रदर्शन में संयम बरतें, जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए। शाम के समय सूर्यास्त के बाद झाड़ू नहीं लगाना चाहिए इससे आप लोगों में परेशानी आती है।

झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए, इससे आपसी कलह होती है, और आप के लोग सब जानकारी लीक कर देते हैं। आपके अच्छे दिन कभी भी खत्म न हो, इसके लिए हमें चाहिए कि हम गलती से भी कभी झाड़ू को पैर नहीं लगाएं या लात ना लगने दें, अगर ऐसा होता है तो घर से कुर्सी चोरी हो जाती है। ज्यादा पुरानी झाड़ू और झाड़ू वालों को घर में न रखें। किसी एकांत जगह में छुपा दें या कि तत्काल सेवा में लगा दें।

झाड़ू की कभी भी घर से बाहर, या विदेश में प्रशंसा कराने से अशुभ होता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से झाडू वालों के अनिष्ट योग बन जाते हैं, झाड़ू को हमेशा छिपाकर रखना चाहिए। ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहां से झाड़ू हमें, घर या बाहर के किसी भी सदस्यों को दिखाई नहीं दे।

— वो तो ठीक है पर पंडित जी रात रात भर सपने में बार बार झाड़ू दिखाई दे रही है इसका क्या मतलब है?

ज्योतिषी- सपने मे झाड़ू देखने का मतलब है नुकसान और नुकसान, अपयश, आरोप प्रत्यारोप, कुर्सी चोरी होने का योग…..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #155 ☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘उनकी अध्यक्षता में’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 155 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में

मैं उस संस्था में नया-नया ही दाखिल हुआ था, इसलिए उसके सदस्यों, विशेषकर उसके दिग्गजों को, बहुत कम जानता था। सभाएँ भी बहुत कम हुई थीं।

एक दिन एक सभा बुलायी गयी। सचिव को तो मैं नहीं जानता था, लेकिन अध्यक्ष महोदय से वाकिफ था। वे खासे संपन्न आदमी हैं और नगर की पंद्रह बीस संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। सचिव महोदय ने घोषणा की कि सरकार सामाजिक कार्यक्रमों के लिए काफी पैसा दे रही है, इसलिए संस्था को कोई सामाजिक कार्यक्रम करना चाहिए। प्रस्ताव आये। अंत में निश्चय हुआ कि नगर के कुछ मुहल्लों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया जाए और उसके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाएँ। सर्वेक्षण-समिति के लिए अध्यक्ष की खोज होने लगी। तभी मुझसे थोड़ी दूर बैठे उन खादीधारी बुज़ुर्ग ने अपने मुँह से दाँत-खोदनी निकाली और लापरवाही से सचिव की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा, ‘मेरा नाम लिख लीजिए।’

सभा में तालियाँ गूँज उठीं। सचिव के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वे बोले, ‘बंशी भाई ने एक बार फिर हमारी समस्या हल कर दी। बंशी भाई को तो ऐसे कार्यक्रमों का स्थायी अध्यक्ष बना देना चाहिए।’

नाम सुनकर मुझे याद आ गया। यह बंशी भाई थे। राजनैतिक उठापटक और गोटी बैठाने में अक्सर उनका नाम सुनने में आता था। वे नगर के पुराने खिलाड़ी थे। सचिव की बात सुनकर वे फिर निर्विकार भाव से दाँत खोदने में व्यस्त हो गये थे।

सचिव उनसे बोले, ‘बंशी भाई, आप खुद ही अपनी टीम चुन लीजिए।’

बंशी भाई धीरे-धीरे कुर्सी से उठ खड़े हुए। उपस्थित सदस्यों पर नज़र डालकर उन्होंने तीन नाम बोले, फिर पता नहीं कैसे उनकी नज़र मेरे चेहरे पर अटक गयी। मेरी तरफ उँगली उठा कर बोले, ‘चौथा नाम इनका लिख लीजिए।’ बंशी भाई ज़रूर आदमी के ग़ज़ब के पारखी थे क्योंकि जो चार आदमी उन्होंने चुने थे वे चारों ही सीधे-साधे, अनुभवहीन, और व्यवहारिक ज्ञान में कोरे थे।

सभा समाप्त होने पर बंशी भाई ने हमें रोक लिया, बोले, ‘शाम को अगर घर पर पधार सकें तो हम काम की रूपरेखा बना लेंगे।’

जब शाम को हम उनके बंगले पर पहुँचे तब वे लॉन में आराम कुर्सी पर पूरे आराम की मुद्रा में पसरे थे। उन्होंने हमें प्रेम से चाय पिलायी और हमारे बीच काम का वितरण कर दिया। काम करने का तरीका भी बतला दिया। फिर बोले, ‘जल्दी काम निपटा दीजिए। मुझे आप लोगों की योग्यता पर पूरा भरोसा है।’

हम चारों बोदे तो थे ही, प्राणपण से काम में जुट गये। मेरे साथ जो चोपड़ा और स्वर्णकार नाम के साथी थे वे तो इस मिशन के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो गये। बार-बार गद्गद होकर कहते थे, ‘बहुत मीनिंगफुल काम है। इसके बहुत उपयोगी नतीजे निकलेंगे।’

वे बार-बार निर्देशन के लिए बंशी भाई के पास दौड़ते थे, लेकिन बंशी भाई ने पहले दिन के बाद कभी उन्हें दो मिनट से ज्यादा समय नहीं दिया। हर बार कह देते, ‘अरे यार, तुम लोग समझदार हो, बेफिक्री से जो ठीक समझो करो।’ एकाध मिनट बात करके वे ‘अच्छा तो फिर’ कह कर बेलिहाज उठ जाते।

चोपड़ा और स्वर्णकार भूत की तरह सवेरे से शाम तक लगे रहते। एक दिन वे निष्कर्ष निकालने के लिए एक फार्मूला ले आये थे। उसे लेकर वे फिर उत्साह में बंशी भाई के पास दौड़े गये। बंशी भाई उस दिन बड़ी रुखाई से पेश आये। बोले, ‘आप लोग समझते हैं कि मुझे एक यही काम है। मेरे जिम्मे पचासों काम हैं। आप जो ठीक समझें कीजिए। मुझे परेशान मत कीजिए।’

मर-खप कर हमने अपनी ही समझ से वह काम पूरा किया। रिपोर्ट की छपाई की अवस्था में पहुँचे तो हम फिर बंशी भाई की सेवा में पहुँचे। वे बाहर कार पर चढ़ते हुए मिले। लगता था उन्हें हम से एलर्जी हो गयी थी। माथा सिकोड़कर बोले, ‘अरे यार, तुम्हारी रिपोर्ट को पढ़ने वाला कौन है? अलमारियों में धूल खाएगी और रद्दी की टोकरी में फेंकी जाएगी। सचिव से मिलकर छपवा लो।’

रिपोर्ट छप-छपाकर तैयार हो गयी। उस पर बड़े अक्षरों में बंशी भाई का नाम छपा और छोटे अक्षरों में हम चारों का। रिपोर्ट की दो प्रतियाँ हम उन्हें दिखाने गये। अब की उन्होंने दिलचस्पी से रिपोर्ट देखी, लेकिन कवर देखते ही उनकी मुखमुद्रा बिगड़ गयी। बोले, ‘आपने मेरे नाम के नीचे भूतपूर्व विधायक और भूतपूर्व महापौर नहीं छपवाया। आपको मालूम नहीं था तो किसी से पूछ लेते। कवर फिर से छपवाइए।’ उन्होंने रिपोर्ट हमारी तरफ फेंक दी।

कवर दूसरा छपा। फिर जल्दी ही रिपोर्ट भेंट करने के लिए राज्य के एक मंत्री को आमंत्रित किया गया। बंशी भाई को मंत्री जी की बगल में स्थान मिला। मंत्री महोदय और अन्य वक्ताओं ने ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के प्रस्तुतीकरण के लिए बंशी भाई की ज़बरदस्त प्रशंसा की। मंत्री जी ने कहा, ‘इस उम्र में बंशी भाई की निष्ठा, कार्यक्षमता और उत्साह देखकर मुझ जैसे कम उम्र लोगों को लज्जा का अनुभव होता है।’

बंशी भाई का मुख प्रसन्नता से लाल था और उनका सिर विनम्रता से झुका हुआ था। अंत में बंशी भाई का भाषण हुआ। उन्होंने कहा, ‘मेरा जीवन समाज के लिए है। समाज का मुझ पर ऋण है और उस ऋण को उतारने के लिए मैं आखरी साँस तक पीछे नहीं हटूँगा।’

उनके भाषण के बाद भयंकर तालियाँ पिटीं और हम चारों कार्यकर्ता मंच के पीछे इंतज़ाम में जुटे अवाक होकर देखते रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 113 ☆ धक्का मुक्की ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “धक्का मुक्की ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 113 ☆

☆ धक्का मुक्की ☆ 

अपने आपको श्रेष्ठ दिखाने की होड़ में जायज- नाजायज सभी कार्य अनायास ही होते जाते हैं। संख्या बल के बल पर लोग नए- पुराने रिश्ते बनाते हुए एक दूसरे को कब धता देकर भाग जायेंगे कहा नहीं जा सकता।

दीवार  की सारी ईंट, कम सीमेंट की वजह से हिल डुल रहीं  थीं,  अब प्रश्न ये था कि सबसे पहले कौन सी ईंट गिरे, गिरना तो उसके ऊपर सभी चाहती थीं, बस शुरुआत कैसे करें ? यही प्रश्न सबके मन में था।

जब कोई उच्च पद पर हो तो थोड़ा मुश्किल होता है।

खैर जब  मन में चाह लो तो रास्ता निकल ही आता है, वैसे ही मौका मिल गया हितेश को उसने थोड़ा सा मुख खोला, कुछ अधूरे शब्द ही आ पाए जो दूसरे ने पूरे किए, अब धीरे – धीरे सभी ईंटे बिखरने लगीं,  देखते ही  देखते ईंटो का ढेर  लग गया, अन्ततः केवल दो ईंट बची  जो  एक दूसरे को देखकर पहले तो मुस्करायीं फिर अपनी आदत अनुसार एक दूसरे के सिर पर ईंट दे मारीं, देखते ही देखते विशाल भवन के निर्माण की परिकल्पना धाराशायी हो गयी।

प्रकृति बदलाव चाहती है, कई बार संकेत भी देती है। पर लोग आँख, नाक, कान सब बंद कर बैठ जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे प्रतीक्षा करते हैं ऐसे ही पलों की।

बदलाव की आँधी किसको कब और कहाँ उड़ा ले जायेगी ये बड़े- बड़े राजनीतिक ज्योतिषी भी नहीं बता सकते हैं। उठा- पटक का किस्सा अब पाँच वर्षों का इंतजार नहीं कर पा रहा है। मध्य राह अर्थात ढाई वर्षों में ही धुर विरोधियों से जुड़कर नया राग अलापने का दौर हमको कहाँ ले जायेगा ये तो वक्त तय करेगा। किन्तु साहित्यकार दूरदर्शी होते हैं सो पहले से सारी भविष्यवाणी कर देते हैं। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद या प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी इन्होंने जो भी लिखा वो उस काल में मात्र कल्पना थी पर आज का कड़वा सत्य है। जब इन्हें पढ़ो तो ऐसा लगता है मानो इन्होंने सारी खबरों को देखकर अपनी पुस्तकें लिखी थी।

खैर ये तो परम सत्य है कि पद की गरिमा को कायम रखना व  पद पर बने रहना सरल नहीं होता है। जोड़ें या तोड़ें पर जनता की नब्ज़ को पहचाने तभी शासन कायम रह पायेगा। योग्यता का होना बहुत जरूरी है, सदैव कार्य करते रहें, कुछ सीखें कुछ सिखाएँ सभी को अपना बनाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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