हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 45 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है शब्द आधारित  “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 45 ☆

☆ “संतोष के दोहे ☆

 

नवगीत

उठते पुलकित ह्रदय से,जीवन में नवगीत

बजती मन में बाँसुरी,यही ह्रदय संगीत

 

पछुवा

लिए कुटिलता चल पड़ी,अधर कुटिल मुस्कान

पछुवा संग चलें सदा,ये आंधी तूफान

 

पनघट

ताल,तलैया बावड़ी,वो पनघट का प्यार

उजड़ गए अब वो सभी,उल्टी चले बयार

 

दिनमान 

अक्सर छोटे लोग ही,करते हैं अभिमान

जैसे जुगनू समझता,खुद को ही दिनमान

 

शिल्प

करे शिल्प हर छंद का,मन भावन शृंगार

रचनाएँ अनुपम लगें,शोभा बढ़े अपार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ तत्त्वमसि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ तत्त्वमसि

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से लजाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

कागज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या

पढ़ता रहा…!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9:19बजे, 25.7.2018

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 62 ☆ किसना / किसान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  “किसना / किसान । श्री विवेक जी  ने इस कविता के माध्यम से सामान्य किसानों  की पीड़ा पर विमर्श ही नहीं किया अपितु  पीड़ितों को उचित मार्गदर्शन भी दिया है। इस अतिसुन्दर एवं सार्थक कविता  के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 62 ☆

☆ किसना / किसान ☆

किसना जो नामकरण संस्कार के अनुसार

मूल रूप से कृष्णा रहा होगा

किसान है,

पारंपरिक,पुश्तैनी किसान !

लाख रूपये एकड़ वाली धरती का मालिक

इस तरह किसना लखपति है !

मिट्टी सने हाथ,

फटी बंडी और पट्टे वाली चड्डी पहने हुये,

वह मुझे खेत पर मिला,

हरित क्रांति का सिपाही !

 

किसना ने मुझे बताया कि,

उसके पिता को,

इसी तरह खेत में काम करते हुये,

डंस लिया था एक साँप ने,

और वे बच नहीं पाये थे,

तब न सड़क थी और न ही मोटर साइकिल,

गाँव में !

 

इसी खेत में, पिता का दाह संस्कार किया था

मजबूर किसना ने, कम उम्र में,अपने काँपते हाथों से !

इसलिये खेत की मिट्टी से,

भावनात्मक रिश्ता है किसना का !

वह बाजू के खेत वाले गजोधर भैया की तरह,

अपनी ढ़ेर सी जमीन बेचकर,

शहर में छोटा सा फ्लैट खरीद कर,

कथित सुखमय जिंदगी नहीं जी सकता,

बिना इस मिट्टी की गंध के !

 

नियति को स्वीकार,वह

हल, बख्खर, से

चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंडऔर भरी बरसात में

जिंदगी का हल निकालने में निरत है !

किसना के पूर्वजों को राजा के सैनिक लूटते थे,

छीन लेते थे फसल !

मालगुजार फैलाते थे आतंक,

हर गाँव आज तक बंटा है, माल और रैयत में !

 

समय के प्रवाह के साथ

शासन के नाम पर,

लगान वसूली जाने लगी थी किसान से

किसना के पिता के समय !

 

अब लोकतंत्र है,

किसना के वोट से चुन लिया गया है

नेता, बन गई है सरकार

नियम, उप नियम, उप नियमों की कँडिकायें

रच दी गई हैं !

 

अब  स्कूल है,

और बिजली भी,सड़क आ गई है गाँव में !

सड़क पर सरकारी जीप आती है

जीपों पर अफसर,अपने कारिंदों के साथ

बैंक वाले साहब को किसना की प्रगति के लिये

अपने लोन का टारगेट पूरा करना होता है!

 

फारेस्ट वाले साहेब,

किसना को उसके ही खेत में,उसके ही लगाये पेड़

काटने पर,नियमों,उपनियमों,कण्डिकाओं में घेर लेते हैं !

 

किसना को ये अफसर,

अजगर से कम नहीं लगते, जो लील लेना चाहते हैं, उसे

वैसे ही जैसे

डस लिया था साँप ने किसना के पिता को खेत में !

 

बिजली वालों का उड़नदस्ता भी आता है,

जीपों पर लाम बंद,

किसना अँगूठा लगाने को तैयार है, पंचनामें पर !

उड़नदस्ता खुश है कि एक और बिजली चोरी मिली !

 

किसना का बेटा आक्रोशित है,

वह कुछ पढ़ने लगा है

वह समझता है पंचनामें का मतलब है

दुगना बिल या जेल !

 

वह किंकर्तव्यविमूढ़ है, थोड़ा सा गुड़ बनाकर

उसे बेचकर ही तो जमा करना चाहता था वह

अस्थाई,बिजली कनेक्शन के रुपये !

पंप, गन्ना क्रशर, स्थाई, अस्थाई कनेक्शन के अलग अलग रेट,

स्थाई कनेक्शन वालों का ढ़ेर सा बिल माफ, यह कैसा इंसाफ !

किसना और उसका बेटा उलझा हुआ है !

उड़नदस्ता उसके आक्रोश के तेवर झेल रहा है,

संवेदना बौनी हो गई है

नियमों,उपनियमों,कण्डिकाओं में बँधा उड़नदस्ता

बना रहा है पंचनामें, बिल, परिवाद !

किसना किसान के बेटे

तुम हिम्मत मत हारना

तुम्हारे मुद्दों पर, राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जायेंगी

पर तुम छोड़कर मत भागना खेत !

मत करना आत्महत्या,

आत्महत्या हल नहीं होता समस्या का !

तुम्हें सुशिक्षित होना ही होगा,

बनना पड़ेगा एक साथ ही

डाक्टर, इंजीनियर और वकील

अगर तुम्हें बचना है साँप से

और बचाना है भावना का रिश्ता अपने खेत से !

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 35 ☆ शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “शस्य श्यामला माटी.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 35 ☆

☆ शस्य श्यामला माटी ☆ 

 

अपनी संस्कृति को पहचानो

इसका मान करो।

शस्य श्यामला माटी पर

मित्रो अभिमान करो।।

 

गौरव से इतिहास भरा है भूल न जाना।

सबसे ही बेहतर है होता सरल बनाना।

करो समीक्षा जीवन की अनमोल रतन है,

जीवन का तो लक्ष्य नहीं भौतिक सुख पाना।

 

ग्राम-ग्राम का जनजीवन, हर्षित खलिहान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

 

उठो आर्य सब आँखें खोलो वक़्त कह रहा।

झूठ मूठ का किला तुम्हारा स्वयं ढह रहा।

अनगिन आतताइयों ने ही जड़ें उखाड़ीं,

भेदभाव और ऊँच-नीच को राष्ट्र सह रहा।

 

उदयाचल की सविता देखो, उज्ज्वल गान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

तकनीकी विज्ञान ,ज्ञान का मान बढ़ाओ।

सादा जीवन उच्च विचारों को अपनाओ।

दिनचर्या को बदलो तन-मन शुद्ध रहेगा,

पंचतत्व की करो हिफाजत उन्हें बचाओ।

 

भारत, भारत रहे इसे मत हिंदुस्तान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

भोग-विलासों में मत अपना जीवन खोना।

आपाधापी वाले मत यूँ काँटे बोना।

करना प्यार प्रकृति से भी हँसना- मुस्काना,

याद सदा ईश्वर की रखना सुख से  सोना।

 

समझो खुद को तुम महान  श्वाशों में प्राण भरो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 55 –कितना चढ़ा उधार ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  कितना चढ़ा उधार। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 55 ☆

☆  कितना चढ़ा उधार ☆  

 

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झांकती रेत, बीच मंझदार

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

07/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अंतर्मुखी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ अंतर्मुखी

बाहरी दुनिया

देखते-देखते

आदमी जब

थक जाता है,

उलट लेता है

अपनी आँखें

अंतर्मुखी

कहलाता है,

लम्बे समय तक

बाहरी दुनिया को

देखने, समझने की

दृष्टि देता है,

कुछ देर का

अंतर्मुखी होना

अच्छा होता है..!

 

©  संजय भारद्वाज

3:33 बजे दोपहर, 25.8.18

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों की हवेली

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆

 

रिश्तों की बहुत बड़ी हवेली थी हमारी,

लोग हमेशा हमारे रिश्तों की हवेली की मिसाल दिया करते थे ||

 

बहुत गर्व था हमें हमारे रिश्तों की हवेली पर,

रोशन रहती थी हमेशा हवेली, लोग बुजुर्गों को शीश नवाते थे ||

 

वक्त गुजरता गया रिश्ते धूमिल होते गए,

नजर ऐसी लगी की एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर रिश्तें बिखर गए ||

 

रिश्तों की हवेली जमींदोज होते ही कुछ रिश्ते दब गए,

कुछ रिश्ते छिटके तो कुछ बिखर गए, कुछ को लोग पैरों तले रौंध गए ||

 

कुछ रिश्ते मुरझा गए तो कुछ पतझड़ में पत्तों से झड़ गए,

जन्म-मरण तक सिमट गए रिश्ते, यह सब देख रिश्ते खुद रोने लगे ||

 

रिश्ते आज भी जीवित है मगर बिखरे-बिखरे से,

महक रिश्तों की उड़ गयी, लोग मंद-मंद मुस्करा तमाशा देखते रहे ||

 

जिंदगी गुजरती गयी रिश्ते फिसलते गए, काश !

कोई तो संभाले, देखा है सब को चुपके-चुपके एक दूसरे के लिए रोते हुए ||

 

कोई तो रिश्तों को छू भर ले, बहुत मुलायम है ये रिश्ते,

कोई एक हाथ बढ़ाएगा यकीनन सब बाँहों में सिमट जायेंगे तड़पते हुए ||

 

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆ कृष्णा के दोहे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है शब्द आधारित कृष्णा के दोहे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆

☆ कृष्णा के दोहे ☆

 

साधना

सत्य प्रेम की  साधना, ईश्वर को स्वीकार

प्रभु चरणों में ध्यान धर, हो जाए उद्धार

 

उत्थान

सच्चाई पर जो चले, पाए जग में मान

सत्य बिना होता नहीं, जीवन का उत्थान

 

राष्ट्रप्रेम

राष्ट्रप्रेम की भावना, हो मन में भरपूर

जियो देश हित के लिए, बनकर सच्चा शूर

 

बलिदान

वीर सपूतों ने दिया, प्राणों का बलिदान

सीमा पर लड़ते रहे, जब तक तन में जान

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “मैं जुगनू बन गई हूँ ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆

☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆

 

अपने चारों ओर रौशनी के लिए

एक दिया मैंने जलाया,

उसमें कई रात जागते हुए

तेल डाला,

हवाओं से वो बुझ न जाए

यह सोच अपने हाथों से हवाओं को रोका-

पर फिर भी

नहीं बचा पायी उसे

तेज आंधी से

और वो बुझ गया…

 

सूरज से रौशनी उधार मांगी,

पर कहाँ टिकती है उधारी की चीज़?

चाँद से कहा

वो मुझे जगमगाए

पर मुझपर अमावस छा गयी

और सितारों की रौशनी में

वो दम न था

कि मुझे रौशन कर सके…

 

जब हर तरफ से हार गयी

तो मैंने अपनी रूह को

जुगनू बना दिया

और अब मुझे कभी

रौशनी की ज़रूरत नहीं होती…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चिरंजीव

 

अदल-बदल कर

समय ने किए

कई प्रयोग, पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

जुगाड़ सब खेत हुए,

हर काल में किंतु

ज्ञान चिरंजीव रहा!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 12:08, 21.10.2018

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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