हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #178 – कविता – जड़ों पर हो वार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण  कविता “जड़ों पर हो वार…)

☆  तन्मय साहित्य  #178 ☆

☆ जड़ों पर हो वार…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जिन जड़ों से पुष्ट-पोषित,

फूल, फल, पत्ते विषैले

उन जड़ों पर वार हो।

 

केक्टस से गर करें उम्मीद

करुणा, दया औ’ संवेदना की

म्रत पड़े हैं हृदय, उनसे

मानवीय संचेतना की

फिर नहीं विष बीज फैले

फिर न खरपतवार हो।….

 

एक दिन तो है सुनिश्चित अंत,

मुरझा कर धरा पर गिरेंगे ही

ये चमक उन्माद-मस्ती

राख बन फिर सिरेंगे ही

आत्मघाती कृत्य क्यों

फिर व्यर्थ नर संहार हो।….

 

जन्म से अवसान तक के खेल

खेले निरंकुश होकर निराले

कब कहाँ सोचा कि इनमें

कौन उजले, कौन काले,

जी सकें तो जिएँ ऐसे

ना किसी पर भार हों।….

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 04 ☆ तुमसे हारी हर चतुराई… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तुमसे हारी हर चतुराई।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 04 ☆ तुमसे हारी हर चतुराई… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हम चंदन के पेड़ हुये न

तुमने सारी गंध चुराई।

 

आदम युग से

अब तक जाने

कितने जन्म लिये

हम में जीवित

रही सभ्यता

ले उपहास जिये

 

हम तो चतुर सुजान हुये न

तुमसे हारी हर चतुराई।

 

भूख जगाते

रहे रात दिन

पेट लिये खाली

बने बिजूका

खड़े खेत में

करते रखवाली

 

हम गुदड़ी के लाल हुये न

तुमने ओढ़ी भरी रज़ाई।

 

मौसम वाले

ख़त पढ़-पढ़ कर

उम्र गई है ऊब

तिनका-तिनका

कटे ज़िंदगी

सदी रही है डूब

 

हम अक्षर से शब्द हुये न

तुमने रच डाली कविताई।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “शरद के दोहे – कविता” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“शरद के दोहे – कविता” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

कविता में है चेतना,मानवता के भाव। 

कविता करती जागरण, दे जीने का ताव।। 

कविता जीवनगीत है, करुणा रखती संग। 

कविता शब्दों से बने, परहित के ले रंग।। 

कविता इक अहसास है, प्यार बढ़ाती नित्य। 

कविता उजियारा करे, बनकर के आदित्य।। 

कविता कहती पीर को, करती मंगलगान। 

कविता सच्चाई कहे, पाले नित अरमान।। 

कविता जीवन-छंद है, कविता मीठी बात। 

गीत सुहाने गा रही, बनकर मधु सौगात।। 

कविता में संवेदना, कविता में जयकार। 

कविता सामाजिकता रचे, बनकर के उपकार।। 

कविता तो आकाश है, कविता खिलता फूल। 

कविता करती दूर नित,पथ के सारे शूल।। 

कविता में गति-मति रहे, कविता में आवेग। 

कविता मानुष हित बने, हरदम नेहिल नेग।। 

कविता वन-उपवन लगे, कविता लगे वसंत। 

कविता करती द्वेष का, पल भर में तो अंत।। 

कविता उर का राग है, एक सुखद-सी आस। 

कविता में तो ईश का, होता है आभास ।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 74 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय सजल “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 74 – मनोज के दोहे…

1 धूप

तेज धूप में झुलसता, मानव का हर अंग।

छाँव-छाँव में ही चलें, पानी-बाटल संग।।

 

2 कपोल

कपोल सुर्ख से लग रहे, ज्यों पड़ती है धूप।

मुखड़े की यह लालिमा, लगती बड़ी अनूप।।

3 आखेट

आँखों के आखेट से, लगे दिलों पर तीर ।

मृगनयनी घायल करे, कितना भी हो वीर।।

4 प्रतिदान

मानवता कहती यही, करें सुखद प्रतिदान

बैर बुराई छोड़ कर, प्रस्थापित प्रतिमान ।।

5 निकुंज

आम्र-निकुंज में डालियाँ, झुककर करें प्रणाम।

आगत का स्वागत करें, चखें स्वाद चहुँ याम।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अश्वमेध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अश्वमेध ??

कह दो उनसे,

संभाल लें

मोर्चे अपने-अपने,

जो खड़े हैं

ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,

कह दो उनसे,

बिछा लें बिसातें

अपनी-अपनी,

जो खड़े हैं

दौलत से मेरे ख़िलाफ़,

हाथ में

क़लम उठा ली है मैंने

और निकल पड़ा हूँ

अश्वमेध के लिए…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  ??

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 135 – यह गुलाब सा गात… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण रचना– यह गुलाब सा गात।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 135 – यह गुलाब सा गात…  ✍

यह गुलाब सा गात तुम्हारा

तन मन में भरता सुगंध है।

 

दृष्टि विमोहित देखा करती

रूप तुम्हारा

एक जगह एकत्रित कैसे

इतना सारा

 

मुक्त कुंतला केश तुम्हारे

हैं सुरभीले

रक्त वर्ण से होंठ तुम्हारे

लाज लजीले।

 

नील झील से नयन तुम्हारे

बोल अबोले

मधुता की यह मूर्ति देखकर

संयम डोले।

 

चंदन चर्चित चारु चाँदनी

चाँद चकोरी

रंग प्रभा ने स्मृतियों की

बाँह मरोरी।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 134 – “आँख में ठिठका प्रणय…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  आँख में ठिठका प्रणय)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 134 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ आँख में ठिठका प्रणय… ☆

नई बायल की

पहिन साड़ियाँ

हैं खिल उठी

नीली पहाडियाँ

 

शृंग पर स्मृति सदृश

उत्तुंग कुछ

आ जुटें मौसम समेटे

भृंग कुछ

 

नई पायल सी बजीं

वन्य फलियाँ

और गद्गद हो गईं

हैं झाड़ियाँ

 

कोंपलें परदे पर आयी

फिल्म सी

खुशबुयें काँटों के

नये इल्म सी

 

एक श्यामल किसी

घटा  जैसी

बालों से गुजरें

फूल गाडियाँ

 

होंठ पर ठहरा हुआ

संगीत

आँख में ठिठका प्रणय

भयभीत

 

दौड़ता अनुराग

आरक्त हो कर

ज्यों वहन रक्त

करती नाडियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-02-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सृजन ??

कठिन परीक्षाएँ सिर पर हैं,

तुम्हें कभी तैयारी करते नहीं देखा..?

समस्या क्रमांक दो (क) के

तीसरे उपप्रश्न ने पूछा,

जटिल प्रश्नपत्र बने जीवन को

सांगोपांग निहारा,

पारंपरिक उत्तरों को

निकासी का द्वार दिखाया,

कलम स्याही में डुबोई

और मैं हँस पड़ा…!

© संजय भारद्वाज 

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श्री संजय भारद्वाज

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? संजय दृष्टि –  ??

© संजय भारद्वाज 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 183 ☆ “मन में मायका…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  – “मन में मायका…”।)

☆ कविता  # 183 ☆ “मन में मायका…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

माँ हर बार 

ऐसा ही करती 

ऐसा ही सोचती 

मन की बात करती

मायका मन में होता 

पिता को याद करती

उनके अंगोछे की गांठ

में होरा का स्वाद होता

गेहूं की सुगंध होती

यादों में हरसिंगार के 

फूल खुशबू बिखेरते

मायका याद आता

तो बहुत याद आता

 याद आ जाती वो

किवाड़ की सांकल 

वो अमरूद का पेड़ 

वो अमऊआ की डाली 

वो प्यारी प्यारी सहेली 

वो अम्मा की लम्बी टेर 

 बाबू के किताबों के ढ़ेर

पगडंडी की वो पनिहारिन 

चुहुलबाज़ी वाली वो नाईन 

मुंडेर पर बैठी हुई  गौरैया

हर बार माँ याद करती 

पिता के वो अंगोछे को

जिसमें होरा और इमली

की खुशबू सलामत रहती

वो बार बार अपनी प्यारी 

मां को दिल से याद करती

और कहती मां तुम कहां हो

 फिर बड़बड़ाती हुई सो जाती 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 125 ☆ # मुक्ति दाता… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मुक्ति दाता#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 125 ☆

☆ # मुक्ति दाता… # ☆ 

(बाबासाहेब डॉ आंबेडकर की जयंती के अवसर पर समर्पित रचना)

महामानव स्वीकार कीजिए

उपासकों के श्रध्दा के फूल

आपकी शिक्षा से दूर किये है

पथ के सारे कंटीले शूल

पथ पर तुम्हारे चलते चलते

इस मुकाम पर आये है

तुम्हारे आदर्शों को अपनाकर

जीवन में खुशियां पाये हैं 

तुम तो हो ज्ञान का सागर

हम है तुम्हारे पांव की धूल

 

उपवन तुम्हारा महक रहा है

उन्माद में कभी कभी बहक रहा है

समाज का देखकर उत्पीड़न

अंदर ही अंदर लहक रहा है

बंजर ज़मीन मे उग आए हैं

कहीं कहीं कैक्टस के फूल

 

बिखर गए जो डाली से टूटकर

सभी को माला में जोड़ना है

नयी कलियां खिल रही है

उन्हें धम्म की तरफ मोड़ना है

इनका गुलदस्ता घर घर सजाइये

वर्ना ये कल बन जायेंगे धूल

 

पुष्प, गंध, बत्ती हम हाथों में लाए हैं

तुम्हारे दर्शन कर प्रतिमा पर चढ़ाये हैं 

नीला ध्वज हर उपासक घर पर फहराता है

धरा से लेकर आसमान तक शान से लहराता है

सभी प्रतिज्ञाएं हमने दोहराई परिवार संग

कहीं हम इन्हें ना जाएँ भूल

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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